कहानियाँ ईमानदारी की
ईमानदारी की सच्ची अनमोल कहानियाँ
imandari ki sacchi anmol kahaniyan.
Best Moral stories in Hindi
ईमानदारी की कहानियाँ भले ही हमे पढने के लिए किताबों में मिल जाए मगर ईमानदारी सिर्फ किताबों से नहीं आती बल्कि उसके लिए हमे खुद को दिमागी और दिली तौर से तैयार करना पड़ता है.
यह काम बहुत आसान नहीं है. लेकिन उतना भी मुश्किल नहीं जिसे इन्सान कर ही न सके. बस इसके लिए संकल्पित होना पड़ता है. इस दुनियाँ में बेईमानी के किस्सों की तो भरमार है. लेकिन ईमानदारी की एक छोटी सी कहानी हमारे दिल को क्यूँ छू जाती है, क्या कभी आपने सोचा है.? आपको इसके बारे में बताने से पहले एक छोटी सी कहानी बताना चाहूँगा "ईमानदारी की सच्ची अनमोल कहानियाँ" में .
जापानी ईमानदारी
कहानी जापान की है. वो दिन शुक्रवार का था. एक भरतीय मूल का टैक्सी ड्राईवर हमेशा की तरह एअरपोर्ट के बाहर अगली फ्लाइट से आने वाले यात्रियों के इंतज़ार में था. थोड़ी देर में फ्लाइट लैंड करती है. कुछ देर बाद यात्रियों की भीड़-भाड़ को चीरते हुए एक मुस्लिम शख्स तेज़ी से टैक्सी की ओर लपकता है और उसी टैक्सी ड्राईवर के पास आकर उसे उस स्थान के बारे में बताता है जहाँ उसे जाना था.
वो मुस्लिम शख्स टैक्सी में बैठ जाता है और कार वहां से निकल पड़ती है. कुछ देर बाद वो मुस्लिम शख्स उस भारतीय टैक्सी ड्राईवर को एक विचित्र हरकत करते देखता हो. वो देखता है कि अभी थोड़ी देर पहले उस टैक्सी ड्राईवर ने जो मीटर ऑन की थी, उस मीटर को उसने कुछ देर चलने बाद ऑफ कर दी और फिर वापस पांच मिनट के बाद उसने मीटर फिर से ऑन का दी.
यात्री अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचता है जहाँ उनके आदमी उनका इंतज़ार कर रहे थे .वो मुस्लिम शख्स अपने आदमी से उस टैक्सी ड्राईवर से पूछने के लिए कहता है कि उसने ऐसा क्यूँ मिया था? तब वो टैक्सी ड्राईवर बताता है कि "साहब ! मुझे जिस मोड़ से लेकर आपको मुड़ना था, वो अचानक से पार हो गया, जिससे 3 किलोमीटर की दुरी बढ़ गयी.
गलती मेरी थी इसलिए मैंने उसे सुधारने के लिए वहीँ पर मीटर को ऑफ कर दिया और फिर वापस पांच मिनट के बाद मीटर ऑन कर दिया ताकि आपको अतिरिक्त किराया न देना पड़े.” उस भारतीय मूल के टैक्सी ड्राईवर की इस ईमानदारी से वो शख्स हतप्रभ था.
किस्सा चौदह हज़ार का
यह तो एक टैक्सी ड्राईवर की कहानी थी. "ईमानदारी की सच्ची अनमोल कहानियाँ" में अब दूसरी कहानी पढ़िए. मैं झारखण्ड के एक ऐसे लड़के को जानता हूँ जिसकी ईमानदारी पर न्यूज़ पेपर पर छपा था “ईमानदार भी है और ईमानदारी भी”.
दरअसल वो ईमानदारी की घटना बालीडीह के पोस्ट ऑफिस में घटी थी. उस वक़्त चिट्टी –पत्री और मनीआर्डर का दौर था. लोग अक्सर पोस्ट ऑफिस आया -जाया करते थे. मगर हमारे गाँव बालीडीह का वो पोस्ट ऑफिस एक बैंक के भीतर था, वो भी दीवार के पीछे की ओर लगकर. इसलिए उसकी खिड़की पीछे की ओर थी.
मगर खिड़की इतनी ऊंची होती थी कि किसी बच्चे को वहां भेजना व्यर्थ साबित होता था .कुछ लोगों ने ज़मीन के नीचे पत्थर भी लगा रखे थे ताकि कोई उस पर चढ़कर सीधे विंडो तक पहुँच सके. ज़्यादातर वहां युवा और बुजुर्ग ही आते थे.
उस दिन तेज़ गर्मी थी और उसी तेज़ गर्मी में एक युवक जिसका नाम धीरन गोस्वामी था, सायकल पर सवार होकर किसी काम के लिए पोस्ट ऑफिस के उसी विंडो के पीछे आया और फिर कुछ देर के बाद अपना काम ख़त्म करके वो जैसे ही जाने के लिए मुडा तो उसे वहां एक रुपयों का एक छोटा सा बण्डल पड़ा मिला.
धीरन को पैसों का वो बण्डल उठाते किसी ने भी नहीं देखा था. वो चाहता तो उसे अपने पास रख सकता था, मगर उसने वो बण्डल उठाकर पोस्ट ऑफिस वाले को दे दिया. कुछ देर बाद उन पैसों का वास्तविक मालिक अपने पैसों को जब ढूंढता हुआ वहां पहुंचा तो उसे उसके रूपये मिल गए.
उन रूपये के बण्डल में करीब चौदह हज़ार थे. धीरन की इस ईमानदारी पर अखबार में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो मुझे याद था. आज अचानक जब मुझे यह घटना याद आयी तो मैंने इसे यहाँ प्रकाशित कर दिया. अगली मुलाक़ात और कुछ नयी कहानियों के साथ.
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