12 अध्याय माँ तारा रानी की कथा. Mata Tara Rani ki jagaran katha

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 कथा तारा और रुक्मण की . Katha Tara aur Rukman ki

jagaran wali hindi katha. Maa Bhgwati ki jagran katha.

Mata Bhagwati katha. Story of Mata rani ki in Hindi.

Tara aur Rukmanm ki kahani. Story of Tara & Rukamn 

तारा रानी की कथा. जागरण कथा.


जागरण कथा  माँ तारा रानी की  Mata Tara Rani ki jagaran katha


तारा रानी की  जागरण कथा.


प्रथम अध्याय


 पहले जन्म में तारा, रुकमन राजा इंद्र के दरबार में नृत्य करती थीं। इनका मन मां की भक्ति में ऐसा लगा हुआ था कि एक बार एकादशी के पवित्र दिन मृत्यु लोक में आने की इच्छा कर बैठीं । जैसे ही मृत्यु लोक में चरण धरे, घुंघरू की झंकार भूल गईं, इन्हें स्वर्ग से ज्यादा पृथ्वी पर आनंद का अनुभव होने लगा। जब उन्होंने देखा कि सांसारिक प्राणी व्रत के द्वारा अपने मन को शुद्ध कर लेते हैं तो हम क्यों ना अपना भविष्य सुधारें तभी बड़ी बहन ने एक स्त्री से एकादशी का माहात्म्य समझा और उसी दिन का व्रत पूर्ण करने का विचार कर लिया और अपनी छोटी बहन से कहा हमने अब तक संगीत नृत्य से स्वर्ग लोक को रिझाया है आओ आज सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु की उपासना करें। दोनों बहनें बिना भोजन पानी ग्रहण किए विष्णु भगवान से विनती करने लगीं। दोपहर का समय हो गया। बड़ी बहन ने छोटी बहन मैं से कहा फलाहार करके हम अपना व्रत तोड़ेंगे, जाओ इस हरे-भरे जंगल से कुछ फल ले ७ आओ। जिससे हम अपना व्रत तोड़ें और गंगा जल पिएं। छोटी बहन जंगल की ओर प्रस्थान कर गई। मंद-मंद वायु चल रही थी। इसी बीच उसकी भूख बढ़ गई। उसे आलस्य सताने लगा



तभी सामने एक पेड़ के नीचे कुछ आदिवासी अपने पितरों की पूजा कर रहे थे। एक उपले पर मांस के टुकड़े रखे हुए थे, जो कि धीरे-धीरे गर्म हो रहे थे। रुकमन भूख से व्याकुल वहां खड़ी हो गई, जो परिवार की वृद्ध मां थी वो छोटी बहन की भूख को समझ गई और उसे ढाक के पत्ते पर गरम-गरम मांस रखकर दे दिया। बहन की भूख तो मिट गई और बासी पानी भी पी लिया, परंतु व्रत का ध्यान आते ही मन विचलित होने लगा। उसने सोचा कि मैं फल लेकर जल्दी जाती हूं और अपनी बहन का व्रत जाकर पूर्ण करवाती हूं। कांपते हुए हाथों से छोटी बहन ने कुछ केले तोड़े, उन्हें धोकर पत्ते पर रखकर बड़ी बहन के सम्मुख जाकर कहा लो बहन अपना व्रत तोड़ो...अरी ये तू क्या कह रही है। बहन तेरे व्रत का क्या हुआ? ऐसा लगता है कि तूने फल मुझसे पहले ही खा लिए हैं। क्या तू थोड़ी देर अपनी भूख को रोक नहीं सकती थी? ये मृत्युलोक है जहां कर्मों का फल शीघ्र मिल जाता है तूने आने वाला पुण्य क्यों लुटा दिया? 


तभी छोटी बहन की आंखों से आंसू झर-झर बहने लगे। वो पश्चाताप की अग्नि में जलने लगी और अपनी बहन के चरण पकड़कर बोली मुझे क्षमा कर दो, मुझसे भूल हो गई है, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। व्याकुल भूख से दुःखी |होकर आदिवासियों के यहां मांस का सेवन कर लिया। इतना सुनते ही तारा क्रोधित हो गई बत और कहा, चली जा मेरी आंखों के सामने से, तूने महा पाप किया है। पवित्र एकादशी को ७ तो व्रतधारी चावल तक नहीं खाते, तूने मांस खा लिया, जा मैं तेरी सगी बहन, तुझे ये शाप देती हूं कि तू अगले जन्म में कीड़े-मकोड़े खाने वाली छिपकली बने और तेरा कल्याण तभी हो, जब तू ऋषि -मुनियों के द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करे और अपने शरीर से कोई ऐसा शुभ कार्य करे जिससे लोक कल्याण हो, तेरा शरीर मांस का भक्षण ना करे यहां तक कि तू कीड़े-मकोड़े भी ना खाए। मैं बड़े दुख से तुझसे अलग हो रही हूं। भगवान विष्णु मुझे क्षमा करें कि मैं ही अपनी सगी छोटी बहन को किसी भी जन्म में इस कष्ट से मुक्त कर सकूं और तारा शांत हो गई। 


रुकमन को इन शब्दों से महान कष्ट पहुंचा। वो अपनी करनी पर बुरी तरह पछताने लगी कि हम दोनों बहनें राजा इंद्र के दरबार से जो उद्देश्य लेकर इस मृत्युलोक में आई थीं—एक भूल के कारण मुझे एकादशी के इस महान व्रत से वंचित होना पड़ा, मेरी प्यारी बहन आज मुझसे रुष्ट हो गई और मुझे क्रोध में शाप दे बैठी। बड़ी कठिन परीक्षा मुझे देनी होगी। शायद विधाता ने मेरे भाग्य में यही लिखा है—मैं अपने भविष्य को बड़ी सावधानी से सुधारूंगी – ईश्वर मुझे शक्ति प्रदान करे कि मैं अगले किसी भी जन्म में अपनी प्यारी बह के दर्शन कर सकूं और इस पाप का प्रायश्चित कर सकूं।


 ॥ दोहा ॥


 तारा रुकमण की कथा का पहला यह अध्याय । जो तोड़े व्रत नियम को, बाद में वो पछताय।।




दूसरा अध्याय


शापित होने के बाद छोटी बहन मनुष्य योनि से छूट गई और छिपकली बनी। उसे एकादशी व्रत का थोड़ा-सा लाभ मिला। वह एक ऐसे आश्रम में पैदा हुई, जहां हवन, यज्ञ, कथा संकीर्तन व भंडारे होते थे। इस आश्रम के मुख्य संरक्षक भगवान दत्तात्रेय के शिष्य गुरु गोरखनाथ थे। जिनका पवित्र स्थान मां ज्वाला देवी मंदिर के पास ही था। उस आश्रम में योग शक्ति साधना करने के लिए दूर-दूर से साधु आया करते थे। शापित छिपकली हवन की लकड़ियों में छिपती रहती थी और जो भंडारे में भोजन बनता, उसकी झूठन चबा-चबाकर खाती थी। जैसे ही कोई आ जाता, एकदम छिप जाती। संत दर्शन से उसका हृदय प्रसन्न रहता था। परंतु एक बात वो भूल नहीं पाती थी, उसका कल्याण कैसे होगा।


एक दिन दुर्वासा ऋषि का शिष्य जिसका नाम कीर्तिमान था, वो मां ज्वाला देवी के दर्शन को आया, उसने पास में एक शिला से बहता हुआ जल देखा। अपने ही कमंडल में उसे भरा और गुरु गोरखनाथ जी के आश्रम में समाधि लगाकर बैठ गया। आश्रम बहुत बड़ा था, कुछ पशु-पक्षी भी अंदर चल के आ जाया करते थे, जिन्हें साधुगण बहुत प्यार करते थे, अमावस्या ॐ का अंधकार धीरे-धीरे फैलता जा रहा था। एक कपिला नामक गाय, धूल उड़ाती हुई आश्रम में प्रवेश कर गई। उसने जब पानी का भरा हुआ कमंडल देखा तो जल पी लिया। दुर्भाग्य से गाय का मुख कमंडल में फंस गया जिससे गाय उछलने लगी। शेष पानी बिखर गया जैसे ही पानी की धारा कीर्तिमान के आसन पर पहुंची उसने गाय माता को डंडे से बुरी तरह मारा जिससे कुछ खून की बूंदें पृथ्वी पर आकर गिरीं। इस घटना को अन्य साधुओं ने देखा और उस क्रोधी शिष्य को गुरु गोरखनाथ के सम्मुख उपस्थित कर दिया।


गुरुदेव ने उस कीर्तिमान को फटकार लगाते हुए कहा अरे दुष्ट तुझे गाय माता पर हाथ उठाते हुए लाज नहीं आई। तू कैसा साधु है? जैसा तेरा गुरु दुर्वासा क्रोधी रहा है तेरे संस्कार भी वैसे ही हैं क्या? चला जा मेरे आश्रम से, भविष्य में मुझे अपना मुख नहीं दिखाना। वो क्रोधी कीर्तिमान अपने मन में ईर्ष्या | लेकर चला गया। उसने मन में ये संकल्प किया कि मैं इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा। गुरु गोरखनाथ इस गाय को लेकर गौशाला में आए और उसकी सेवा करनी प्रारंभ की। कभी हल्दी का लेप करते, कभी ढाक के पत्ते बांधते, सुंदर पशु आहार देते, धुएं से दूर रखते, धूप छांव का ध्यान रखते, उसके घावों को अपने हाथों से सहलाते। हिंदू घरों में जो गाय माता की सेवा की जाती है उन सभी नियमों का पालन करते हुए गुरु को वास्तविक आनंद मिला। | 


श्याम वर्ण गाय शीघ्र ही ठीक हो गई, तभी शिष्य ने स्मरण कराया, गुरुदेव अब हम इस गाय का दूध पुण्य के कार्य में लगा सकते हैं। शरद पूर्णिमा आने वाली है। हम इसी गाय का दूध निकालेंगे और संत-महात्माओं व आस-पास रहने वाले भक्तों को चंद्रमा की शीतल किरणों में खीर बनाकर खिलाएंगे। इसी गाय के दूध की खीर बनेगी और खीर के साथ स्वास रोगियों को औषधि भी देंगे, जब इस गाय का मूत्र स्वास्थ्य लाभ देता है क्यों ना हम इसके दूध का लाभ उठाएं। सौभाग्य से सारा वृत्तांत छिपकली ने सुन लिया। उसने मन में सोचा कि अपने जीवन का उद्धार करने का इससे बड़ा अवसर कभी नहीं मिलेगा। मैं ऐसा कार्य करूंगी जिससे मेरा वो शाप मिट जाए, जो मेरी बहन ने पिछले जन्म में मुझे दिया था। उधर वो दुर्वासा ऋषि का शिष्य कीर्तिमान अपने अपमान की अग्नि में जल रहा है और गुरु गोरखनाथ से बदला लेने का षड्यंत्र रच रहा है। 


उसे यह बात बार-बार तंग कर रही है कि गाय ने मेरी साधना विफल कर दी मेरा आसन पानी से भिगो दिया फिर भी गुरुजी ने मुझे ही दंडित किया। उसे उस दिन नींद भी नहीं आई और वो उस दिन की प्रतीक्षा करने लगा कि कब गोरख आश्रम में साधु और भक्त एकत्रित हों और मैं अपने अपमान का बदला सबके सम्मुख ले सकूं। वो सुबह शाम आश्रम की गतिविधियों को देखने लगा परंतु किसी भी | साधु के सन्मुख नहीं आता। मन में एक ही बात है कब मैं सबको अपनी चाल से कष्ट पहुंचा सकूं। उधर गुरु गोरखनाथ गाय को हल्दी का लेप लगाते रहे, उसके घावों को सहलाते और इस घटना से दुखी होकर बार-बार गाय के चरणों को छूकर क्षमा मांगते ।


 ॥ दोहा ॥


 दुर्वासा के शिष्य ने, गाय का किया अपमान। 

गोरखनाथ गुरुदेव ने, उस गाय को दिया सम्मान।।


 

तीसरा अध्याय


गुरु गोरखनाथ को द्वापर युग की कथा का स्मरण हो आया कि कैसे कुछ साधु अहंकार वश पवित्र कार्यों में विघ्न डाल देते हैं। जैसा कि पांडवों के साथ दुर्वासा ऋषि ने किया था, सभी तैंतीस करोड़ देवता अश्वमेध यज्ञ में आमंत्रित किए गए थे और यज्ञ से चिढ़कर दुर्वासा ऋषि ने साधु मर्यादा को तोड़कर एक जहरीला सर्प भंडारे की खीर में छिपकर डाल दिया था। जिसे एक छिपकली ने देख लिया था और एक नन्ही सी जान ने इतने बड़े भंडारे को बुरी दृष्टि से बचा लिया, समय बुरा है। अतः मुझे सावधान रहना होगा, कहीं ये कीर्तिमान अपने अपमान का बदला लेने के लिए ऐसी गलती ना कर दे, जिससे मुझे अपमानित होना पड़े, क्योंकि इसने गाय पे हाथ उठाकर पश्चाताप भी नहीं किया, बुरे कर्म साधु वेश में भी हो सकते हैं। 


भाग्य की लेखनी को कौन बदल सकता है। शरद पूर्णिमा के शुभ दिन, गाय माता का दूध निकाला गया, जिसमें अन्य गायों का दूध भी मिलाकर एक बहुत बड़े बर्तन में डाल दिया गया। पत्थरों का सहारा लेकर लकड़ियां रखी गईं, अग्नि प्रज्वलित की गई। खीर बनाने के लिए चावल व मीठा डाल दिया गया। सौभाग्य से शापित छिपकली उसी पेड़ की टहनी पर घूम रही थी, जहां खीर धीरे-धीरे पक रही थी। सामने दूसरे पेड़ के नीचे, पीपल की छांव में यज्ञ हो रहा है, विधि वत हवन सम्पन्न करने के लिए वेदपाठी ब्राह्मण ऋषि-मुनि, योगी, संन्यासी, मंत्रोच्चारण कर रहे हैं, हवन का धुआं फैलता जा रहा है जिसका लाभ उस दुर्वासा ऋषि के शिष्य कीर्तिमान ने उठा लिया। जो कि विघ्न डालने के लिए अपने मुख में जहरीले सांप को दबाए बैठा था, उसने गरुड़ पक्षी का रूप ध रण किया हुआ था। काला रंग, काला सर्प, काला धुंआ उसको लाभ पहुंचा गया। उसने तुरंत ही जहरीला सर्प अपने मुख से छोड़ दिया, जो कि लहराता हुआ तुरंत खीर में गिर गया, किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया। 


छिपकली ने देख लिया। छिपकली ने मन में सोचा कि आज अवसर है, अपने को शाप से मुक्त करने का, क्यों ना मैं सभी को सावधान कर दूं, क्या करूं अभी तो यज्ञ चल रहा है कोई मुझे देखेगा भी नहीं। उसे अपनी बहन का वो एक वाक्य याद आया कि परोपकार करने से तेरा कल्याण होगा और तू सद्गति प्राप्त कर सकती है। वह इसी विचार में डूब गई। उधर गुरुदेव शिष्यों से कह रहे हैं कि यज्ञ संपन्न हो गया है, जाओ भोग लगाने के लिए थोड़ी खीर ले आओ। जिससे हम अग्नि देवता को प्रसन्न कर सकें और रात्रि को खीर वितरण औषधि के साथ कर सकें। हमारा भंडारा भी प्रेमपूर्वक सम्पन्न हो, परंतु समय ने तो भलाई का निर्णय ले रखा था। जैसे ही एक शिष्य ने कड़छी। ॐ लेकर पत्तल में खीर लेनी चाही अकस्मात छिपकली ऊपर से गिरी, खीर में मचलने लगी, मैं उसने अपनी शापित योनि से मुक्ति पाई जैसे ही वो जलने लगी उसकी जीवन रेखा बदलने। लगी। 


शिष्यों ने घबराकर कहा, गुरुदेव अनर्थ हो गया, भंडारे की खीर विषैली हो गई क्योंकि छिपकली गिर गई है। यह सुनते ही गुरुदेव आवेश में आ गए और क्रोधित होकर बोले, श्री नन्ही-सी जान तू अंतिम स्वांसें ले रही है जा मैं तुझे श्राप देता हूं कि इस नीच कर्म को करने के कारण तू अगले जन्म में किसी ऐसे परिवार में जाए, जहां तुझे सब छोटे कार्य करने पड़ें और तू जंगल झोंपड़ी में अपना जीवन व्यतीत करे, तू मनुष्य योनि में इसलिए जाएगी कि तूने शरीर त्यागने से पहले सभी शुद्ध मंत्र सुन लिए हैं और यज्ञ के शुद्ध धुएं से तेरा शरीर आनंदित हो चुका था और नेत्र बंद करने से पहले तू गुरु गोरखनाथ के शब्दों को सुन रही है, ये तेरा पूर्व जन्म का कोई संस्कार था अब मैं ध्यान लगाकर देखता हूं कि ये सब कैसे हुआ, जाओ शिष्यों इस खीर के बर्तन को किसी गहरे गड्ढे में डाल दो और मिट्टी बिखेर दो जिससे कोई पशु, पक्षी इस खीर को खाकर ना मर जाए। जैसे ही शिष्यों ने गुरु की आज्ञा मानी और बर्तन को पलटा । देखकर दंग रह गए कि काले रंग का सर्प गड्ढे में पहले गिरा और उसके ऊपर छिपकली गिरी। शिष्यों ने कहा गुरुदेव कुछ समझ में नहीं आ रहा, यहां छिपकली और सर्प का मेल कैसे हुआ, कैसी ये पहेली है। 


इसे आप ही सुलझा सकते हो। गुरु गोरखनाथ जी ने ध्यान लगाया और नेत्रों की दूरदृष्टि से देखा कि वो पापी कीर्तिमान जिसको मैंने आश्रम से निकाला था, उसने गाय के अपमान का बदला इस प्रकार से लिया है, जिस प्रकार उसके गुरु दुर्वासा ऋषि ने पांडवों के अश्वमेध यज्ञ में खीर के बर्तन में सर्प फेंककर किया था वैसा ही उनके इस क्रोधी शिष्य ने मेरे साथ किया। मुझे दुःख है कि मेरे मुख से इस छिपकली के प्रति कटु शब्द निकल गए हैं, जिसने अपने शरीर के द्वारा हम सब को विषैली खीर खाने से बचा लिया। और इतनी बड़ी दुर्घटना होने से बच गई। जब ये वाक्य शिष्यों ने सुने तो दुःखी होकर बोले गुरुदेव गुरुओं का वचन कभी खाली नहीं जाता। ऐसा तो होकर ही रहेगा। हाँ एक बात सत्य है यदि हम सब शिष्य मिलकर आपके चरण छूकर गुरु दत्तात्रेय से विनती करें कि साधु, संतों को मरने से बचाने वाली ये छिपकली किसी ऊंचे घराने में जन्म ले और थोड़े समय के लिए सुख का अनुभव अवश्य करे। यदि भाग्यवश आपका वचन इसे बुरी परिस्थिति में ले जाए तो भी इसका नाम संसार में अमर हो जाए, इसकी भक्ति का फल, इसे अवश्य हो। मिले, इसका मान-सम्मान कभी कम ना हो


 ॥ दोहा ॥


 कर्मों का ये लेख है, मिटते नहीं मिटाय । कर्म ही एक उपाय है, अच्छे दिन जो दिखाय ।।


चौथा अध्याय


नाथ सम्प्रदाय के साधुओं ने जो आशीर्वाद दिया उसका फल सर्वहितैषी छिपकली को मिला। | जिसने सबके प्राण बचाए जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती वैसा वातावरण स्वयं ही। | बन गया। मां की ज्योति का प्रकाश उत्तर भारत के कोने-कोने में था। पहाड़ी इलाकों के साथ छोटे-छोटे राज्यों में सभी राजा अपने अपने इष्ट देवों को प्रणाम करते थे। कलिकाल का समय प्रारंभ हो चुका था और शक्ति पूजा गर्भ गृहों व मंदिरों में की जाती थी। प्रत्येक राज्य को चलाने के लिए एक पुत्र का होना अनिवार्य माना जाता था, इसी बीच एक ऐसे राजा की चर्चा चली जिसका राज्य जालंधर के आगे पंजाब क्षेत्र में था। उनका नाम राजा स्पर्श था। क्योंकि वो जिस वस्तु को छूते थे उससे लाभ ही लाभ होता था। अतः उनका नाम गुणों के आधार पर राजा स्पर्श रखा गया। 


देवी भक्त राजा स्पर्श के घर का आंगन सूना पड़ा हुआ था क्योंकि उनके महलों में तुतलाती वाणी बोलने वाला कोई नहीं था। एक दिन राजा उदास मुद्रा में बैठे हुए थे कि रानी ने पूछा किस विचार मुद्रा में खोए हुए हो? राजा बोला मैं मां से संतान का दान मांग रहा हूं। रानी मुस्कराकर चली गई। नवरात्र की अष्टमी सभी को इच्छादायी फल प्रदान करती है, राजा स्पर्श ने सच्ची भावना से मां से संतान का दान मांगा। जब राजा भक्ति में लीन था, तभी मां के गले में जो पुष्पों के हार थे उसमें से कुछ गुलाब के पुष्प मां के आसन पर गिरे। राजा ने उन्हें नैनों से लगाया और दौड़कर रानी से कहा देख मां ने हमें संतान का संकेत दे दिया है। ये फलदायक पुष्प हैं, इन्हें चांदी के कलश में डालो और पूजन-आरती करने के बाद 40 दिन तक श्रद्धापूर्वक चरणामृत के रूप में ग्रहण करो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मां के दरबार से हमें निराशा नहीं होगी।


राजा स्पर्श की खुशी का ठिकाना ना रहा, जब उसके महल में बधाई गीत गाए जाने लगे। रानी गर्भवती हुई और 9 महीने के बाद पूर्णमासी वाले दिन चंद्रकला समान एक राज कन्या ने जन्म लिया। राजा स्पर्श ने राज दासियों को हीरे मोती के थाल भर-भर के लुटाए, गरीबों को भोजन खिलवाया, महल में मांगलिक उत्सव मनाए, इसी बीच राजा के मन में विचार आया कि मेरे राज्य में सुपुत्र हुआ ही नहीं, फिर भी मेरे महल में किलकारी तो गूंज रही है। ये वरदान मेरी मां का दिया हुआ है जिसे मैं भुला नहीं सकता। तभी अपने मंत्री को पास बुलाया और राज्य ज्योतिषी से तुरंत मिलने की इच्छा प्रकट की।


 राज्य ज्योतिषी ने समय नक्षत्र देखकर बताया कि हे राजन, तुम बहुत भाग्यशाली हो। ये कन्या तुम्हारा वंश आगे बढ़ाएगी। मां दुर्गा का प्रचार करेगी। भूलों-भटकों को राह दिखाएगी। | इसके हृदय में छोटी जाति के प्रति अथाह प्रेम होगा। जितना भी समय यह आपके आंगन में | बिताएगी ये भगवती मां की पूजा करेगी। नवरात्र, अष्टमी, पूर्णमासी का व्रत करेगी। परंतु जब भी एकादशी आएगी इसका मन विचलित हो जाएगा। क्योंकि पिछले जन्म में इसने नियम भंग करने के कारण अपनी छोटी बहन को शाप दे रखा है। जब तक ये उस बहन से मिलेगी नहीं एकादशी को ये थोड़ी  निराश-सी लगेगी। इसी बीच राजा टोक कर बोला जो मां की इच्छा, परंतु ये तो बताओ कि इसका नाम क्या रखें।


सभी ने कहा यथा नाम तथा गुण। इसका जन्म पूर्णमासी वाले शुभ दिन तारों भरी रात में हुआ है। अतः हम इसका नाम रखते हैं तारा रानी। नामकरण संस्कार विधि पूर्वक सम्पन्न हुआ, राजा ने तारा रानी कहकर रानी की गोद में सौंप दिया। महलों में दीप मलिका की गई। सबने कहा पूर्णमासी वाले दिन जिस कन्या ने राजमहल को चंद्रमा की शीतल किरणों के साथ सुशोभित किया वो तारा रानी धन्य है। राजा स्पर्श ने भृगुसंहिता पुस्तक पर पुष्प चढ़ाए, नारा की जन्मपत्री माथे से लगाई। ब्राह्मणों को मुंहमांगी दक्षिणा दी और शयन कक्ष में चला गया।


 ॥ दोहा ॥


 मां की कृपा से मिला, राजा को वरदान एक वर्ष के बाद हुई, तारा सी संतान ||


 

 पांचवां अध्याय


ईश्वर की लीला को अब तक कोई समझ नहीं पाया। राजा स्पर्श ने मन में पुत्र प्राप्ति की कामना रखी हुई थी जिसके लिए वो ज्योतिषियों से विचार-विमर्श करता रहा, परंतु हर कोई उसे एक ही आशीर्वाद देता था कि तुम्हारा वंश आगे बढ़े, तुम सदा सुखी रहो, तुम्हारे परिवार में जो भी संतान हो वो मां भगवती की उपासक हो। इस रहस्य का भेद तब खुला, जब दसवें महीने में बड़े कष्टों के साथ राजा स्पर्श के आंगन में एक सांवले रंग की कन्या, नन्ही-सी कली बनके खिली। राजा बड़ी उत्सुकता से उसे देखने के लिए महलों में दौड़ा। उसे थोड़ी सी निराशा तो हुई, परंतु उसने मां की इच्छा को सहर्ष स्वीकार किया।


राजा ने ब्राह्मणों से पूछा महाराज मैं इस कन्या को किस नाम से संबोधित करूं। सभी ब्राह्मण एकमत होकर बोले सबका मन दुखी होकर रुक गया उसका नाम रुकमन ही रखा जा सकता है। सोच में डूबे हुए राजा राज ज्योतिषी से पूछते हैं- - आप सभी ने इस कन्या का नाम रुकमन क्यों रखा, कौन सी ऐसी घटना है जिसने इस नन्ही-सी बालिका के जीवन में उथल-पुथल कर रखी है कि शयनकक्ष में ये करवट बदल- बदल किसी को ढूंढ रही है और भगवती मां की मूर्ति को देखकर शांत हो जाती है। इसे मां का दूध अच्छा नहीं लगता। गाय का दूध पी लेती है और जो भी इसे गोद में लेता है मचल-मचलकर महल से बाहर होने के लिए कहती है। ब्राह्मणो! मैं रुकमण के जन्म से उत्साहित नहीं हूं। मेरा मन दान, पुण्य करने को भी नहीं कर रहा है। मेरी शंका का निवारण करो।


राज ज्योतिषी ने भृगु संहिता खोली, कुंडली बनाई और रुकमण के पूर्व जन्म का वर्णन सुनाना आरंभ किया और पहले कहा हे राजन तुम निराश ना होना क्योंकि मां-बाप जन्म के साथी होते हैं, कर्म के साथी नहीं होते। तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ है। पिछले जन्म की बात है कि रुकमन ने अप्सरा रूप में पृथ्वी पर चरण रखे थे और अपनी बहन के साथ एकादशी का व्रत रखा जो कि मांस खाने से भंग हो गया। इसकी सगी बहन ने क्रोध में आकर इसे छिपकली बनने का श्राप दे दिया।


अगले जन्म में अपना कल्याण करने के लिए इसने गुरु गोरखनाथ के भंडारे में अपना शरीर गर्म खीर में डालकर साधु संत महात्माओं को जहरीली खीर खाने से बचा लिया, जिससे मृत्यु का तांडव रुक गया, क्रोध में गुरु ने श्राप दे दिया जिसका पछतावा उन्हें बाद में हुआ, परंतु मृत्यु से बचने वाले शिष्यों ने इसे आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा अगला जन्म किसी उच्च कोटि घराने में होगा, यही कारण है कि ये तुम्हारी बेटी बन आई है। इस बात को सुनकर राजा प्रसन्न हुआ। राज ज्योतिषी बीच में टोककर बोले हे राजन तुम्हारी ये प्रसन्नता थोड़े ही समय की है। होनी बलवान होती है। अतः इस श्रापित कन्या को अपने महल के पास जो जल की धारा है, उसमें बहा दो जिसको भी ये मिल जाएगी उसी को इसके जन्म का अधिकार मिल जाएगा। 


इतना सुनते ही राजा स्पर्श मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। तभी ब्राह्मणों ने समय का लाभ उठाया और राज कर्मचारियों से एक लकड़ी का संदूक लाने को कहा। संदूक के आते ही पंडितों ने उसे सजाया, मखमल का बिछौना लगाकर हीरे-मोती, पुखराज, पन्नै पैरों की ओर रख दिए और रानी को संदेश दिया कि राजा बेटी को गोद में खिलाना चाहता है, जैसे ही दासी कन्या को लेकर आई ब्राह्मणों ने तकिया लगाकर उसे बंद कर दिया, और चरण छूकर क्षमा मांगी। संदूक को बंद करके स्वांस लेने के लिए छिद्र कर दिए, ऊपर चांदी मंढ दी और पानी में बहा दिया। जब राजा स्पर्श की आंख खुली तो उसे अत्यंत दुख हुआ। राजा ने ब्राह्मणों पर क्रोध किया, ब्राह्मण बोले हमने जो कुछ भी किया है राज्य के हित में किया है क्योंकि इस कन्या पर ग्रहों की नीच दृष्टि पड़ी है। जिसके कारण आपको कष्ट झेलने पड़ सकते हैं, जब राजा ही दुखी होगा तो प्रजा कैसे सुखी रह सकती है। राजन शोक मत करो और अपना ध्यान बड़ी सुपुत्री तारा की ओर दो क्योंकि हम भविष्य जानते हैं। राजा रानी यह सुनकर महल में चले गए।


 ॥ दोहा ॥


 रुकमन के जीवन की उलझन, राजा समझ ना पाया। पुत्री से था मोह हो गया, रोके महल में आया ।।


छठा अध्याय


अंधेरी रात में पानी की लहरें धीरे-धीरे अपने आंचल में एक संदूक को समेट रही हैं। संदूक कभी भंवर में डगमगाने लगता है फिर बौछारें रुककर उसे संभाल लेती हैं क्योंकि उसमें एक ऐसी कन्या जा रही है जिसकी जीवन कहानी सूर्योदय की पहली किरण के साथ बदल जाएगी। अकस्मात संदूक कांगड़े की सीमाओं के पास रुक गया, जहां पर एक ब्राह्मण एक हरिजन नदी के किनारे स्नान कर रहे थे। ब्राह्मण जब जल के लोटे से सूर्य देवता को नमस्कार कर रहा था तो उसके हाथ से लोटा एकदम नीचे गिर गया, उस समय सूर्य की किरणें धीरे-धीरे प्रकाशमान हो रही थीं, तभी उसे सामने से एक बहता हुआ संदूक दिखाई दिया। उसने उसे अपनी ओर लाने का प्रयास किया, परंतु संदूक पानी की लहरों में दूर चला गया, तभी पास में जो हरिजन लोहे के तसले में रेता छानकर सोना चांदी ढूंढ़ता था, वो ब्राह्मण से बोला महाराज क्या हुआ? ब्राह्मण बोला किसी राजा का लूटा हुआ सामान इस संदूक में भरा हुआ है, अवश्य ही चोरों ने इस खजाने को राजमहल से पानी में बहाया है, उन चोरों के आने से पहले क्यों ना हम इसे ले लें और धनी बन जाएं। 


हरिजन बोला, मैं तैरना जानता हूं हम आपस में आधा-आधा हिस्सा बांट लेंगे। पहले हिस्से पर ब्राह्मण देवता आपका अधिकार होगा और ऊपर के हिस्से पर मेरा अधिकार होगा, हम दोनों जल देवता के सम्मुख वचनबद्ध हैं और वह हरिजन छलांग लगाकर कूद गया। जब वो हरिजन संदूक किनारे पे लाया, एक बड़े पत्थर से उसका ताला खोला गया। अचानक अंदर से एक बालिका के रोने की आवाज आई। दोनों घबरा गए, तुरंत संदूक के ढक्कन को ऊंचा किया गया तो वो कन्या मुस्कराने लगी, उस गरीब हरिजन ने कहा हे ब्रह्म देवता, देखा तुमने ऊपर वाले का न्याय। नीचे की ओर जो सामान पड़ा हुआ है वो तुम्हारे अधिकार का है, दूसरा हिस्सा मेरे जीवन सुधार का है। मेरे विवाह को कई वर्ष हो गए हैं, मैं संतान से अब तक विमुख हूं, मेरी धर्मपत्नी महाकाली की उपासिका है और वह संतान का दान मांगती ही रहती है, आज मां ने मेरी इच्छा पूर्ण कर दी। 


ब्राह्मण ने उस गरीब हरिजन को आशीर्वाद दिया कि इस कन्या ने एक ही स्थान से हमें लाभ दिया है। इसका जन्म संसार में भेद-भाव मिटाने के लिए ही हुआ है, मेरा आशीर्वाद है कि यह अपने कार्य में सफल हो। उधर गरीब हरिजन की स्त्री, देख रही है कि आज पतिदेव को देर कैसे हो गई, सूर्योदय हो चुका है, मैं कब तक प्रतीक्षा करूंगी? मेरा मन घर के कार्य में क्यों नहीं लग रहा हैं क्या कारण है? और वो काली मां के आगे हाथ जोड़कर विनती करने लगी कि हे मां मेरे आंगन में कोई ऐसा बालक भी नहीं जिसे मैं भेजकर पति को नदिया तट से बुलवा लूं। क्या मेरे जीवन में ऐसा ही अकेलापन रहेगा? तभी अचानक उसे द्वार पर खट-खट की आवाज सुनाई दी। वो दौड़ी आई, और क्या देखती है कि उसके पति की गोद में एक छोटी सी कन्या मुस्करा रही है। उसने झट से उसे गोद में लिया और चूमने लगी। उसका पति बोला, अरी भाग्यवान जल देवता ने हमें अपना आशीर्वाद दे दिया है।


किसी को समंदर के जल से हीरे-मोती और शंख सीप मिलते हैं, हमें तो हमारी छोटी सी नदिया ने ये मुस्कराती हुई छोटी सी कली दी है, जो जल में बहती हुई आई है, अब हम इसे | पाल-पोसकर बड़ा करेंगे, विवाह तक अपना धर्म निभाएंगे। सौभाग्य से जल के पास रुकने के कारण बिरादरी के लोगों ने उस छोटी सी कन्या को रुक्को-रुक्को कहना प्रारंभ कर दिया, वह जहां भी जाती सभी का प्यार मिलता। मां भगवती के मंदिर में वो एकांत में बैठ जाती, मां की मूर्ति को निहारती, मंदिर में सफाई करती और देवी मां के नवरात्रों में अपनी मां की उंगली पकड़कर मां के दर्शनों को जाती। उसके अच्छे संस्कारों से परिवार सुखी हो गया, उसे छोटी सी अवस्था में ही ऊंच-नीच का ज्ञान हो गया। रुक्को ने कांगड़ा और ज्वाला देवी के पहाड़ों पर अपने जीवन के मधुर क्षणों को व्यतीत किया, जहां-जहां भी एकादशी पूर्णमासी की कथा सुनने जाती, सभी देवी-देवताओं को वह नमन करती, परंतु उसका मन भगवती काली मां के चरणों में ही लगा रहता ।



धीरे-धीरे समय परिवर्तन हुआ, रुक्का भी विवाह योग्य हो गई। मा-बाप को विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन कांगड़े के एक बड़े परिवार से यह संदेश आया कि हमें रुक्को के गुणों के बारे में पता चला है। हमारा परिवार कांगड़े के महल की सेवा करता है, किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है, हम देवी मां के भक्त है और ऐसी कन्या ढूंढ रहे हैं जिसकी धर्म में आस्था हो। रुक्को के माता-पिता ने इस संबंध को स्वीकार किया और विवाह का दिन निश्चित हो गया. वैवाहिक औपचारिकताएं पूरी की गई।


दीपावली के बाद रुकमन का विवाह कलया नामक हरिजन के साथ धूम धाम से सम्पन्न हो गया। सारे परिवार ने लाड़ली रुक्कों को ज्वाला देवी के गांव से कांगड़े के लिए विदा कर दिया। रुकमन की सास इतनी सुशील बहू को पाकर अति प्रसन्न हुई, उसके ससुर भी यह जानकर प्रसन्न हुए कि हमें एक अच्छा परिवार मिला है, पति-पत्नी सुखपूर्वक रहने लगे।


दोहा

मिली जो के बीच में हरिजन गले लगाया। जन्मों के इस भेद को कोई समझ ना पाया।


सातवां अध्याय


पंजाब के पास रहने वाले राजा स्पर्श थोड़ी चिंता में डूबने लगे क्योंकि उनके आंगन में खिलने वाली कली आज बड़ी हो चुकी है, उसकी सुंदरता व भक्ति की प्रशंसा होती देख कांगड़े के राजा हरिश्चंद्र ने तारा के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा जिसे सुनकर राजा-रानी आनंदित हो गए। रानी राजा से एकांत में बोली महाराज बेटियां तो पराया धन होती हैं, अब समय आ गया है कि हम अपना धर्म निभाएं। मैं यह भी जानती हूं कि हमें ये कन्या माता के आशीर्वाद द्वारा ही प्राप्त हुई है, अच्छे संस्कार इसे दूसरे घर में इतना प्यार देंगे कि हम विदाई का दुःख भूल जाएंगे, जब यह इधर-उधर खेलती व इठलाती है तो हमारा मन इसकी सखियों के साथ यह कहने को विवश हो जाता है कि बेटी अब बड़ी हो गई है, छोटे-छोटे पहाड़ों पर खेलना व छिपना छोड़ो।


दूसरी ओर जब हमारी लाड़ली देवी मां के मंदिर में गौरी पूजन को जाती है तो हमें लगता है कि इसे ऐसा पति मिलेगा, जो मां कांगड़ा देवी का उपासक होगा। देखो भाग्य ने क्या मेल मिलाया है जरा पंडित जी को वर-वधू की जन्म-पत्री तो दिखाएं। राज ज्योतिषी कुंडली देखकर बोला विधाता के लेखों को कोई नहीं मिटा सकता इसका विवाह आने वाली शरद पूर्णिमा को कर देना चाहिए क्योंकि पूर्णमासी इसके जीवन में सदा उजाला ही भरेगी। इसका नाम तारों जैसा चमकेगा और भविष्य में ये बेटी अपना नाम व कुल को रोशन करेगी। राजा-रानी प्रसन्न होकर महल में लौट आए। कई बार जीवन के मधुर क्षण, पुरानी बातें स्मरण कर आंखों में आंसू ले आते हैं। रानी पूछती है राजा उदास क्यों हैं क्या बेटी की विदाई से दुःखी हो रहे हो, राजा कहता है रानी विदाई में कितना अंतर होता है। एक वो भी विदाई थी जो मैं अपने हाथों से नहीं कर सका। पंडितों ने मेरी प्यारी रुकमन को अपने आप विदा कर दिया। मुझे वो दर्द आज तक सता रहा है। पता नहीं वो मेरी लाड़ली किस अवस्था में होगी, ये सुनते ही रानी की आंखों में भी आंसू आ गए। और ब्राह्मणों का वो वाक्य याद आ गया के मां-बाप जन्म के साथी होते हैं कर्म के नहीं। राजन छोटी बिरादरी में विवाह छोटी अवस्था में हो जाता है और कुंडली के अनुसार वो अब तक अवश्य विवाह बंधन में बंध गई होगी आप चिंता न करें। 


दोपहर के समय राजा-रानी पंडित जी के पास गए और कांगड़े के राजा के पास संदेश भेज दिया कि हम अपनी लाड़ली तारा रानी का विवाह शरद पूर्णिमा को करने के लिए उत्सुक हैं, आप बारात लेकर आएं। आखिर वो दिन आ ही गया, जब तारा रानी के हाथ पीले कर दिए गए, राजा-रानी ने सब कुछ न्यौछावर कर दिया और सजी हुई डोली कांगड़े के महल में पहुंच गई।


 ॥ दोहा ॥


 सप्तपदी में बंध गए, राजा हरिश्चंद्र आज । जगदम्बा की कृपा से, पूरण हो गए काज ।।


आठवां अध्याय


जीवन का सुख लेते हुए मां की कृपा से तारा की गोदी में एक बालक खेलने लगा जिसे लेकर राजा रानी मंदिर में जाते और प्रसन्न रहते थे। बालक सुंदर महलों के आंगन में खेलता और उच्च शिक्षा ग्रहण करता। राजा हरिश्चंद्र के महल में नवरात्र पूजन होता था, शुक्ल पक्ष की अष्टमी को देवी जागरण की मधुर झंकार गूंजती थी और जब पूरणमासी आती थी मां का मंदिर सजाया जाता था, खीर बांटी जाती थी। प्रत्येक त्यौहार, आनंद उत्सव के रूप में सम्पन्न होता था, छोटे से बालक के मन में भक्ति की ज्योत जगी और वो एक दिन तारा से पूछता है कि मां अष्टमी की रात को भक्त ऊंचे-ऊंचे माता के जयकारे लगाते हैं और मां की प्रशंसा में गीत गाते हैं, मां मुझे बहुत अच्छा लगता है। डमरू की झंकार सुनकर मैं गदगद हो जाता हूं। तभी तारा बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, हम सबकी पालन पोषण करने वाली मां जगदम्बा ही हैं, जो हम सबके कष्टों का निवारण करती हैं, यही मां सारे संसार का पालन करती हैं। इनके चरणों में  बैठकर सारी रात जागकर इसका भजन करना भगवती जागरण कहलाता है। वो जीव बड़ा भाग्यशाली होता है, जो अपनी मां का आदर करता है और इस जगत जननी के लिए अपने शरीर को कष्ट देकर उस रात्रि में गुणगान करता है या सुनता है, जो रात विश्राम के लिए बनाई गई है। मेरे लाल मैंने तुझे भी इसी दरबार से पाया है, अब तेरे पांचवें जन्मदिवस पर मैं अपने महल के मंदिर में मां का जागरण कराऊंगी। 


आस-पास सभी को निमंत्रण भेज दूंगी, अब जा महल में विश्राम कर। शीघ्र ही पूर्णमासी की वो रात आ गई जिस दिन सुपुत्र का जन्म दिवस था। महल के द्वार पर फूलों के वंदनवार सजाए गए। धीरे-धीरे रात्रि को भक्तगण महल के अंदर प्रवेश करने लगे। श्री गणेश, नवग्रह पूजन, पंडितजी द्वारा सम्पन्न हुआ। मां की मूर्ति के सम्मुख मिट्टी के बर्तन में गाय के गोबर के शुद्ध उपले घी और मेवा के साथ जलाए गए। मंत्रों के द्वारा देवी वंदना प्रारंभ हुई। डमरू, थाली व तालियां बजाकर सब भक्तगण मां का गुणगान करने लगे। राजा हरिश्चंद्र व तारा रानी परिवार सहित बैठे हैं। जब ये मधुर झंकार रुकमन के परिवार को सुनाई दी, तभी रुकमन की सास बोली बहूरानी हम राजा हरिश्चंद्र के यहां सेवा कार्य करते हैं, मैं थोड़ी अस्वस्थ हूं। क्या तू वहां सेवा करने जा सकती है? रुकमन ने कहा मां क्यों नहीं मैं भी तो जाकर देखूं कि वहां कौन-सा आनंद उत्सव चल रहा है? रुकमन ने अपने हाथ में नारियल की झाडू ली और महल की ओर चल दी। जैसे ही वह द्वारे पर पहुंची। द्वारपाल ने कहा कहां जा रही हो? रुकमन बोली हम यहां के कर्मचारी हैं, मेरी सास ने मुझे सेवा कार्य के लिए भेजा है, परंतु द्वार पर खड़ा वो कर्मचारी नहीं माना। जागरण की मधुर झंकार ने रुकमन की इच्छा शक्ति बढ़ा दी और वो अंदर जाने का उपाय सोचने लगी। उसने झाडू से इतनी धूल मिट्टी उड़ाई कि वो कर्मचारी आंखें मसलने लगा, रुकमन ने झाडू छोड़ी श्रद्धापूर्वक हाथ धोए और कोने में बैठकर मां से विनती करने लगी। मां तेरे सुंदर स्वरूप के दर्शन मैंने पहली बार किए हैं क्या मैं आगे नहीं जा सकती। तेरे दरबार में ऐसा भेदभाव क्यों?



इतने में क्या देखती है कि पटरानी तारा आकर उससे पूछती है कि तुम कौन हो? कहां रहती हो? यहां कैसे आना हुआ? रुकमन कहती है कि रानीजी मेरा परिवार आपके यहां सफाई कार्य करता है, मुझे मेरी सास ने भेजा है। मैं अपना कार्य तो भूल गई और ये मन मां के चरणों में जुड़ गया। क्या मैं भी ऐसा जागरण नहीं करा सकती? तारा बोली क्यों नहीं? तू मां से कुछ मांग के तो देख। रुकमन बोली रानी मेरे विवाह को चार वर्ष हो गए हैं मेरी गोद अब तक सूनी है। क्या मुझे मां के चरणों से आशीर्वाद मिल सकता है? तभी तारा मां की ज्योत के पास गई और फल-फूल, बताशे लेकर आई, उन्हें रुकमन की झोली में डालकर बोली इस प्रसाद से तेरे घर में संतान का योग बनेगा। रुकमन ने कहा बहन मैं अपने घर, यह सोचकर जा रही हूं कि जब भी मेरे संतान होगी मैं भी मां का जागरण अपने घर में कराऊंगी और आपको अवश्य बुलाऊंगी। तारा ने मुस्कराते हुए रुकमन को विदा कर दिया कि कोई उसे देख ना ले। 


रानी जी मुझे जागरण के महत्त्व को समझा दीजिए। तारा  रानी बोली मैं तुझे समझाती हूं। भगवती जागरण कराने के लिए अपने मन में पहले धारणा करनी पड़ती है तभी मां कृपा करती है। तुझे जो मैंने फल दिए हैं उन्हें प्रातः स्नान करने के बाद खा लेना और बताशे परिवार में बांट देना, फिर अमावस्या-पूर्णमासी नवरात्रों में अपनी सुविधा अनुसार जागरण करा लेना। मैं तुम्हें ये भी बताना चाहती हूं कि जागरण नाम जागृति लाने का है। जब शरीर को कष्ट देकर सारी रात मां की आराधना की जाती है तो मां उस पुकार को अवश्य सुनती है-रात्रि शांत होती है इसमें भजन करने का अधिक महत्त्व है। हमारे ऋषि-मुनि योगी रात को जागकर महाकाली का भजन करते थे तब मां आकर उनकी रक्षा करती थी। इस संसार में योगी-रोगी-भोगी ये सभी जागते हैं परंतु गृहस्थी जब मां की ज्योत के सन्मुख जागता है तो मां अवश्य सुनती है। ज्योत भी तीन प्रकार की होती है जो ज्योति मदिरा से तांत्रिक जगाते हैं वो महाकाली की है। जो ज्योति तेल से जगाई जाती है वो महासरस्वती की है, जो ज्योति जागरण में गृहस्थी जगाते हैं वो मां लक्ष्मी की है। जिन्हें हम सत, रज, तम तीनों स्वरूपों में पूजते हैं। भैरो जी के आगे सिंदूर और तेल का दीपक जलाने का विधान है। रुकमन ने कहा रानी मैंने भगवती जागरण के बारे में सब कुछ समझ लिया है।


 ॥ दोहा ॥


 ऊंच नीच का भेद मिटे सबका हो कल्याण । तारा से रुकमन को मिला, बहुत बड़ा सम्मान ।।


नौवां अध्याय


रुकमन का परिवार चिंता में डूबा हुआ है कि हमने महल की मर्यादा को समझा है, रात्रि को कोई भी वहां रुक नहीं सकता था। रुकमन रात्रि को कहां रह गई। मन में कई प्रकार की शंकाएं उत्पन्न होने लगीं। जैसे ही सूर्योदय हुआ देखते क्या हैं कि रुकमन के मस्तक पर रोली की बिंदी लगी हुई है, उन्होंने दोनों हाथों से अपनी झोली को पकड़ा हुआ है और मुख से जय माता की जय माता की बोलती हुई आ रही है। पति ने क्रोधित होकर पूछा कि तुम रात भर कहां रही हो? तुम्हें तो थोड़ी देर के लिए महल में सफाई कार्य के लिए भेजा था, हमारी शंका का निवारण करो।


रुकमन धीरज देते हुए बोली, महल में मां दुर्गा का जागरण हो रहा था और मैं आनंदित होकर सुनने के लिए बैठ गई। मुझे पता नहीं चला कब रात बीत गई। मेरी झोली में जो माता का प्रसाद है, वो मुझे महारानी तारा देवी ने अपने हाथों से दिया है क्योंकि मैंने मां के सच्चे दरबार से संतान का दान मांगा है। फल तो मैं स्वयं ग्रहण करूंगी और गुलाब के पुष्प एक कलश में रखूंगी जिसका जल चालीस दिन तक सेवन करूंगी, मुझे रानी ने विश्वास दिलाया है कि मां मेरी करुण पुकार अवश्य सुनेगी और शीघ्र ही मुझे संतान प्राप्त होगी। ये जो बताशे हैं ये आप सब मिलकर प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लो। यह बात सुनकर सारा परिवार प्रसन्न हो गया। रुकमन की सास उसे आशीर्वाद देकर बोली बेटी आज तक कोई भी छोटी जाति का व्यक्ति मा के मंदिर तक नहीं पहुंच पाया। लगता है तेरा और रानी का कोई पूर्व जन्म ॐ का संबंध है, जो ऐसा हो गया। मैं तो आज तक महल की सीढ़ियां तक भी नहीं चढ़ पाई। धन्य है मेरी सांवल माई। बेटी, तू सदा सुहागन रहे।


रुकमन नियम के अनुसार सब कुछ करने लगी जैसा उसे तारा रानी ने बताया था। दो माहू ॐ के बाद रुकमन संतान पाने के योग्य हुई और नौ महीने के बाद एक फूल-सा बालक उसकी ॐ गोद में खेलने लगा। घर में खुशियों का ठिकाना नहीं रहा, परंतु रुकमन भगवती जागरण कराने * में विलम्ब करती रही, बेटे का नामकरण संस्कार भी हो गया। मुंडन भी गया, परंतु जागरण नहीं हो पाया। बालक शिक्षा भी ग्रहण करने लगा। रुकमन देवी मां के मंदिर जाती, मां की मूर्ति को निहारती और यही कहती मां तेरी कृपा से मुझे बेटे का सुख मिल गया। धूम-धाम से किया


देवी-देवता किसी बात के भूखे नहीं होते, लेकिन सच्चे मन से मांगी हुई बात, यदि वो पूर्ण कर देते हैं तो थोड़ा-सा कष्ट देकर, उसे भूल का स्मरण भी करा देते हैं। रुकमन के साथ ऐसा ही हुआ। उसके जीवन की एकादशी वाली पुरानी भूल उसके सामने आ गई जिसके कारण उसे अपनी सगी बहन से अलग होना पड़ा, मां तो दोनों ही बहनों का मेल कराना चाहती थी। रुकमन इस लीला को नहीं समझी जैसे ही घर आई देखती क्या है उसके बेटे को हल्का ज्वर चढ़ा हुआ है। बेटा मचल रहा है, उसके मुख पर छोटे-छोटे दाने निकल रहे हैं। | काली मां की उपासक रुकमन के घर में मां शीतला बेटे के स्वरूप में परछाई दिखा रही है। 


रुकमन को अपनी भूल पर पश्चाताप होने लगा। उसने माता से क्षमा मांगी और कहा मां, अब मैं तेरा जागरण अवश्य कराऊंगी। कृपा मेरे बेटे को शीघ्र ठीक कर दो। उसने चांदी का सिक्का, अपने बेटे के माथे से लगाया और जागरण के नाम से मां काली के चरणों में रख दिया। चार दिन बाद बेटा स्वस्थ हो गया। रुकमन अमावस्या से एक दिन पहले, पुजारी को श्री गणेश, नवग्रह पूजन का निमंत्रण देने के लिए जाती है। पंडित जी कहते हैं- -अमावस्या का जागरण महारानी कालका को प्रसन्न करने का विशेष दिन है जिसे छोटी बिरादरी के लोग करते हैं, मैं तुम्हारे यहां तामसी पूजा कराने में असमर्थ हूं। यदि यहां की पटरानी तारा रानी प्रजा से मधुर संबंध बनाने के लिए तुम्हारे जागरण में आ जाए तो आश्चर्य की बात नहीं, तुम लाल कपड़े में पीले चावल केसर से रंगकर चांदी का सिक्का रखकर श्रद्धापूर्वक यदि तारा रानी के पास जाओ तो अच्छा रहेगा। क्योंकि रानी माता की परम भक्त है। पंडितजी के आदेशानुसार रुकमन जागरण के डल लेकर सायंकाल तारा रानी के बगीचे में पहुंच गई, जहां वो सखियों के साथ मंगलगीत सुन रही थी।


 ॥ दोहा ॥


 दिया वचन जो मात को, रुकमन दिया भुलाय । तारा से विनती करो, पंडित दिया बताय ।।


 दसवां अध्याय


तारा रानी अपनी सखियों के साथ, जब मंगल गीत का आनंद ले रही थी तो एक सखी ने रुककर कहा, महारानी, जरा सामने देखो ये कौन स्त्री धीरे-धीरे महल के बगीचे में प्रवेश कर रही है, इसके साथ एक छोटा-सा बच्चा भी है। तारा ने सखियों को रोककर कहा मैं देखती हूँ, तभी रुकमन बोली जय देवा रानीजी। मैंने आपके दरबार से ये बेटा पाया है। मां की ज्योत के आगे मैंने कहा था यदि मेरे संतान हुई तो मैं जागरण अवश्य कराऊंगी। मुझसे भूल हो गई। आज मैं अपने अपराध की क्षमा मांगने आपके सम्मुख आई हूँ, | जब तक आप मेरी झोंपड़ी में चरण नहीं डालोगी, तब तक मेरा जागरण पूरा नहीं हो पाएगा। मैं आपको स्मरण कराना चाहती हूं, जब आपने मेरी झोली में प्रसाद डाला था तो मैंने आपको वचन दिया था कि जब कभी मेरे यहां जागरण होगा आप अवश्य पधारेंगी। ये लो जागरण के डल, कल अमावस्या की रात है महारानी । कालका के नाम का डमरू मेरे आंगन में गूंजेगा और आप अपना वचन निभाने अवश्य आएंगी। तारा ने श्रद्धापूर्वक डलों को मस्तक से लगाया और मुस्कराती हुई चली गई। है। 


जहां अच्छाई होती है, वहां बुराई भी जन्म ले लेती है, जिसका श्रेय भद्रसेन नाई को जाता । जब राजा हरिश्चंद्र स्नान करने से पहले नाई से मुख के बालों की सफाई करा रहा था  तो भद्रसेन अकस्मात बोल बैठा। महाराज क्षमा करें, हाथ हिलाने के कारण आपके मुख का दाना छिल गया और थोड़ा-सा खून निकल गया तो आप मुझ पर क्रोध कर रहे हैं मैं क्या करू? मैं तो विचारों में डूबा हुआ हूं कि आप इतने महान राजा हैं, उच्च कोटि के सम्मानीय व्यक्तियों से आपका व्यवहार है। आप अपने पद के अनुसार अच्छे लोगों से मिलते हैं, दूसरी ओर आपकी धर्मपत्नी तारा छोटी जाति के लोगों में अपनी मित्रता बनाना चाहती हैं। मुझे कहते हुए लाज आती है कि आज रात्रि तारा रानी भीलों की नगरी में रुकमन हरिजन के यहां महाकाली के ज्योति के दर्शन करने जा रही हैं, उसने मेरे सम्मुख न्यौता स्वीकार किया है। क्या यह बात मर्यादा के अनुकूल है?


राजा क्रोधित होकर बोला, भद्रसेन ! यदि ये बात गलत सिद्ध हुई तो मैं इसी तलवार से तुझे दंड दूंगा और राजा ने तलवार की धार से अपनी छोटी उंगली को थोड़ा-सा काट लिया और रानी से जाकर बोला, देखो तलवार अंदर रखते समय मेरी उंगली थोड़ी घायल हो गई है, मैं इस पीड़ा को सहन नहीं कर सकता, मैं रात्रि को सो नहीं पाऊंगा, मुझे धीरज देने के लिए तुम्हें अपने दाएं पैर का सिरहाना लगाना होगा। जिससे मैं पूर्णतया विश्राम कर सकूं। तारा राजा की बात को समझ गई, उसे लगा कि राजा को किसी ने मेरे जागरण में जाने के बारे में बता अमावस्या की काली रात, तारा रानी की परीक्षा ले रही है, उधर गरीब रुकमन अपनी झोंपड़ी में सफाई करके, परिवार सहित बैठी है। आस-पास के रहने वाले हाथ जोड़कर महारानी कालका के आगे नतमस्तक हैं। 


एक छोटी-सी चौकी मिट्टी की बनी हुई है। एक त्रिशूल बना हुआ है जिस पर लाल रंग का सिंदूर लगा हुआ है। एक ओर सरसों के तेल का दीपक जल रहा है, दूसरी ओर मदिरा का दीपक जल रहा है। बीच में पके हुए मीठे चावल रखे हैं। मिट्टी के बर्तन में उपले की ज्योत जल रही है जिस पर गाय का शुद्ध घी धीरे-धीरे डाला जा रहा है। लौंग की भीनी-भीनी सुगंध मन को भा रही है। एक वृद्ध डमरू बजा-बजाकर नृत्य कर रहा है और जय भवानी सबसे बुलवा रहा है। झोंपड़ी के द्वार पर | रुकमन का पति कलवा बैठा हुआ है, रुकमन घड़ी-घड़ी उठती है, थोड़ी दूर जाती है, फिर वापस आ जाती है, उसका पति कहता है कि रानी नहीं आएगी चल अंदर जाके बैठ। छोटी जाति वालों को कोई नहीं पूछता।


 ॥ दोहा ॥


 रुकमन के घर जागरण, महाकाली का ध्यान । निंदक ने चुगली करी, राजा गया पहचान।।



ग्यारहवां अध्याय


धीरे-धीरे सायंकाल का समय ढल रहा है और वो समय समीप आ रहा है जिसमें तारा ने अपनी धर्म परीक्षा देनी है। महल के चारों ओर द्वारपाल आज विशेष रूप से नियुक्त किए गए हैं जो कि एक दूसरे के कान में कह रहे हैं कि समझ में नहीं आ रहा। आज राजा हरिश्चंद्र ने कौन-सी गुप्त बात हमसे छिपाई है, जो हम इतने सतर्क किए गए हैं। महामंत्री ने | ये भी कहा है यदि तारा रानी महल से बाहर जाए, तुरंत उसे सूचित करो। बिजली कड़क रही है, श्याम घटा है। नन्हीं-नन्ही बुंदियां बरस रही हैं। महल के मुख्य द्वार पर दीपक की विशेष रोशनी की गई है जिससे बाहर जाने वाले की परछाई भी दिखाई दे।


 उधर राजा हरिश्चंद्र तारा से कहते हैं, मुझे दर्द सहन नहीं हो रहा। मेरे सर पे हाथ रखकर मुझे सुला दो । तारा ने मां से विनती की है जगदम्बा मुझे शक्ति दो कि मैं शीघ्र ही जागरण के डल ज्योति पर चढ़ाकर वापिस आ जाऊं। तभी क्या देखती है कि राजा हरिश्चंद्र गहरी निद्रा में पहुंच गए हैं। तारा रानी ने मांग में सिंदूर भरा, पूरा श्रृंगार किया, लाल साड़ी पहनी और महल से निकलने का प्रयास करने लगी। मातेश्वरी ने इस कठिन परीक्षा में उसका साथ दिया। महल के पहरेदार थककर सो गए। और रानी मुख्य द्वार पर पहुंचकर रुक गई क्योंकि द्वार बंद था, वो महल की अटारी पर चढ़ी पत्तों की टहनियों को पकड़ा, धीरे से नीचे उतर गई, तभी चोरों ने उसे घेर लिया और लूटने का प्रयास करने लगे। इस उलझन में रानी का रतन जड़ित पल्लू साड़ी से खिसक कर गिर गया। और पैर की एक खड़ाऊ तेज भागने से गिर गई। जैसे ही चोर उसे उठाने लगे, सांप और बिच्छू चोरों को काटने के लिए दौड़े। ये मां की शक्ति ही थी जो सवा लाख का जेवर पहनने वाली रानी के पीछे नहीं भाग सके। 


मध्य रात्रि में तारा रानी रुकमन के घर पहुंच गई और मां की ज्योत के सम्मुख बैठ गई। वहां जितने भी भक्त बैठे थे, सब रानी को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। रुकमन कहती है, रानी तुमने मुझ गरीब की झोंपड़ी पर आकर ऊंच-नीच का भेद मिटाया है, तुमने मां की ज्योति पर पीले चावल चढ़ाकर अपनी परीक्षा दे दी है। उधर राजा हरिश्चंद्र की आंख खुल गई, रानी को वहां ना पाकर क्रोधित हो गए, हाथ में तलवार लेकर महल के मुख्य द्वार तक दौड़े। सभी पहरेदार घबराकर बोले, हम रात भर जागते रहे फिर भी रानी कैसे निकल गई। जब राजा महल के बाहर रानी को ढूंढ रहा था तो चोर सारी बात समझ गए और राजा से बोले आप क्या रानी को ढूंढ़ रहे हो? वो तो अंधेरी रात में महल के पीछे दूर झोंपड़ी की ओर गई है, ये उसके पैरों की खड़ाऊ, बिखरे हुए मोती, फटा हुआ पल्लू उसी का है। राजन हल्की सी पानी की बौछारों में उसके पैरों के चिन्ह जहां तक दिखाई दें, वहां तक जाइए, आपको अवश्य मिलेगी। राजा अकेला ही रुकमन की झोंपड़ी के पीछे गया और तलवार से झोंपड़ी में छिद्र करके सब कुछ देख रहा है कि रानी क्या कर रही है? रानी तारा रानी रुकमन से कलश का पूजन करा रही हैं। कहती हैं इस कलश में जो चांदी का सिक्का है वो इस बात का प्रतीक है कि तेरे घर में कभी धन की कमी ना रहे और चावल इसलिए डाले गए हैं कि तुम्हारा परिवार कभी भूख से व्याकुल ना हो। 


उठो, पितरों को दान करो। यह कलश पंडित जी को देना होता है, ऐसा क्यों हुआ, एक प्रसंग सुनाती हूं। दानवीर कर्ण सदा सोना ही सोना दान करता था। एक बार विष्णु भगवान ने उसे अपने पास बुलाया, उसे बैठने के लिए सोने का आसन दिया, सोने का ही भोजन, पानी दिया। वो व्याकुल हो। गया और बोला प्रभु क्या सोने के भोजन से मेरी भूख मिट सकती है? भगवान ने कहा कर्ण जरा आंखें मींचो और अपने पितरों के शब्दों को सुनो। जब कर्ण ने पितरों का ध्यान किया तो उसे यही सुनाई दिया हमारी आत्माएं भटक रही हैं, हमारे निमित्त कभी भी अन्न दान नहीं हुआ, गौ माता की सेवा नहीं की गई, कभी प्यासों के लिए जलाशय नहीं बनाया गया, नदी तट पर कभी दान पुण्य नहीं हुआ। हमारी मुक्ति तभी होगी जब तुम हमारे लिए कुछ करोगे । इतना सुनते ही कर्ण बोला मैं अब अपनी भूल का सुधार करूंगा। भगवान् ने कहा तेरे द्वारा किए गए शुभ कार्य जिन दिनों में किए जाएंगे वो दिन पितरों की तृप्ति के कहलाए जाएंगे। कर्ण ने पंद्रह दिन तक दान पुण्य के कार्य किए जिन्हें हम श्राद्ध, कनागत, पितृपक्ष के नाम से मानते हैं और दिवंगत आत्माओं को नमन करते हैं।


 रुकमन का पति एक मांस का थाल सजाकर लाया। मदिरा का छींटा देकर महाकाली के सम्मुख भोग के लिए रख दिया, इसी बीच तारा कहती है रुकमन मुझे घर जल्दी जाना है, यदि राजा हरिश्चंद्र जाग गया तो पारिवारिक क्लेश हो जाएगा। रुकमन बोली रानी, तुमने मेरे घर आकर ऊंच-नीच का भेद मिटाया है। ये उपकार मैं कभी नहीं भूलूंगी, हम आदिवासी अपने पितरों के समझाए हुए मार्ग पर चलते हैं। वो अपनी झोली में महाप्रसाद लेकर तारा को देती है। तारा रानी मांस का प्रसाद लेकर जैसे ही बाहर आई थोड़ी ही दूर पर एकांत में उसे  राजा हरिश्चंद्र दिखाई दिए। क्रोध में बोले तूने आज छोटी बिरादरी में आकर राजमहल के सम्मान को ठेस पहुंचाई है। क्या मैं तेरी झोली देख सकता हूं, तारा ने रुककर कहा मेरी झोली 6. में महारानी कालका का प्रसाद है, जो मैं आपको घर पहुंचने पर ही दिखाऊंगी। कृपया थोड़ा धीरज धरो। राजा तलवार खींचकर बोला मैं तो प्रसाद अभी ही देखूंगा, तारा घबरा गई और मन ही मन मां कालका से बोली, मां मेरी रक्षा करो।


 राजा हरिश्चंद्र जब झोली में झांकते हैं तो देखकर दंग रह गए कि जिस महाप्रसाद में उसने जीव का मांस देखा था, वहां, छुआरे बादाम, किशमिश, मखाने और सूखा गोला पड़ा हुआ है। फलों की महक आ रही है व मदिरा के स्थान पर दूध के छींटे झोली को भिगोए हुए हैं। राजा बोला, रानी तूने ये तंत्र विद्या कहां से सीखी, ये जादू-टोना है या तेरी भावना के आधार पर मां का चमत्कार? तारा बोली, तुम तो महारानी के परम भक्त हो, तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया? तुम्हें मोह माया से निकालना अब मेरा पहला धर्म है।


 त्याग


 ॥ दोहा ॥


 आ गई, तारा रुकमन के पास ।

 महल कर राजा भ्रम में फंस गया, कैसे जगे विश्वास ।।


बारहवां अध्याय


राजा के मन की शंका कैसे दूर हो? तारा यही सोचती हुई महल में आ गई। इतने में क्या देखती है कि राजा हरिश्चंद्र तलवार लेकर बेटे के शयनकक्ष में जाकर उसका शीश काट देते हैं। तारा ने घबरा के पूछा राजा तुमने ये क्या किया। राजा कुछ नहीं बोला और घुड़साल की ओर दौड़ा, वहां जाके घोड़े का शीश काट दिया और रानी से बोला मैं तेरी मां की शक्ति देखना चाहता हूं कि मां कटे हुए मांस को जब मेवा में परिवर्तित कर सकती है तो इस मांस को क्यों नहीं? तारा ने बड़े धीरज के साथ राज कर्मचारियों से कहा कि दो बड़े-बड़े पीतल के कढ़ाहे लाओ, एक में बेटे का मांस डालो दूसरे में घोड़े का मांस डाल दो और दोनों ओर लकड़ियां रख दो। तारा ने मंत्र बोलकर सूखी लकड़ियों में अग्नि प्रज्वलित कर दी, जब मांस के बर्तन पूर्ण रूप से गरम हो गए, धुआं निकलना बंद हो गया तो तारा ने दो बड़े-बड़े थाल मंगाए और बेटे के मांस वाले बर्तन में कड़छी घुमाई तो मांस के साथ बेटे की छोटी उंगली में हीरे की अंगूठी दिखाई दी। 


जिसे देखते ही राजा फूट-फूटकर रोने लगा, उसे अपने सुंदर बेटे का जन्मदिवस ध्यान आ गया। तारा ने कहा नाथ रोते क्यों हो। ये सब मेरी ॐ मां की लीला है तुम्हारी आंखों पे मोह का पर्दा पड़ा हुआ है। संसार तो मिथ्या है। किसके लिए रो रहे हो? राजा हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर मां से क्षमा मांगता है। और कहता है रानी तूने ॐ मेरी आंखें खोल दी हैं, मैं तो क्रोध में तुझ पर भी तलवार चलाने जा रहा था, यदि ऐसा हो जाता तो मेरा राज्य ही समाप्त हो जाता। अब तू ही मुझे रास्ता दिखा, तभी राजा हरिश्चंद्र को एक कन्या की वाणी सुनाई देती है। राजा समझ गया ये मेरी मां ही है। मां बोली राजा हरिश्चंद्र तुमने मुझसे क्षमा मांगकर पश्चाताप कर लिया है। अपने बेटे को पुकारो, अपने घोड़े को भी बुलाओ। जब राजा ने दुःखी मन से बेटे को पुकारा तो बेटा राजा रानी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया और बोला पिताजी नीला घोड़ा भी घुड़साल में जीवित है, उसे भी जाकर देखो। 


राजा बोला पुत्र तेरे शीश के बाल कैसे गीले हो रहे हैं? बेटे ने मुस्कराते हुए कहा, जब आप मेरे लिए रो रहे थे तो आपके आंसू मेरे सिर पर धीरे-धीरे गिर रहे थे। मैं मां की गोदी में बैठा हुआ था, मां को तुम पर दया आ गई और मुझे कहा जा मेरे बच्चे अपने सुखी परिवार में। मैं तो जगत जननी हूँ, सब को देखती हूं। यह सब कुछ सुनकर राजा पछताने लगा कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया है? राजा परिवार को लेकर महल के दुर्गा मंदिर में खड़ा हो गया और मां की मूर्ति के आगे हाथ जोड़कर बोला, मां जब मेरा पुत्र जीवित है, घोड़ा भी घुड़साल में है तो वो गर्म-गर्म मांस किसका है? मैं उसका क्या करूं? मां भगवती की ज्योति से एक वाणी सुनाई देती है कि हे राजन तू दुःख में सारी रात जागता रहा है  जिसका फल मैं तुझे अवश्य ढंगी, जाकर उन बर्तनों में देख । 


राजा के आनंद का ठिकाना नहीं रहा, जब उसने देखा कि जिस बर्तन में बेटे का मांस था, वहां पर पीले रंग का हलवा बन चुका है, जब उसने दूसरे कढ़ाहे में झांका तो नीले घोड़े के स्थान पर हल्के नीले रंग के चने ॐ रखे हुए हैं। तभी मां ने वाणी गुंजाते हुए राजा से कहा इस प्रसाद को मेरी ज्योति के सामने पांच हिस्सों में रख दो क्योंकि प्रसाद को कभी त्यागना नहीं चाहिए, हे राजा पहला भोग मेरा है, दूसरा भोग तेरा है, तीसरा रानी का, चौथा भोग तेरे बेटे का और पांचवां उस नीले घोड़े का है। हे राजन ये पांचों भोग मैं स्वीकार करूंगी। इसके बाद सात कन्याओं का पूजन और एक लौकड़े की पूजा विधिवत करना। कन्या पूजन इसलिए आवश्यक है कि कन्या दो घरों को उज्ज्वल करती है। अन्नपूर्णा बनकर भोजन प्रदान करती है। एक घर से दूसरे घर में जाकर मां बनकर संसार को सुख प्रदान करती है। सुनो कन्या पूजन इस प्रकार करो, पहले कन्या के चरण धुलाओ, आसन पर बिठाओ, मस्तक पर रोली की बिंदी लगाओ, दाएं हाथ में कलावा बांधो, शीश पे चुनरिया उढ़ाओ, दक्षिणा अर्पण करो, आशीर्वाद लो, हलवे चने का प्रसाद दो, फिर आरती के बाद ये प्रसाद सब में बांट दो। राजा ने सब कुछ वैसा ही किया। मां ने राजा को समझाया कि तारा और रुकमन एक ही माता पिता की संतान हैं। दुर्भाग्य से दो जन्म पूर्व, रुकमन ने तारा का एकादशी व्रत खंडित कर दिया था, इसे छिपकली बनना पड़ा, जब संतों का आशीर्वाद मिला तो मनुष्य योनि प्राप्त हुई। 


तुम्हारे महल में जागरण हुआ इसने मुझसे संतान का वरदान मांगा और अपनी सगी बहन तारा को बुलाने का संकल्प लिया। ये सब समय का चक्र मैंने ही चलाया था और आज मैं इन दोनों का मिलन, अपनी पवित्र ज्योति के सम्मुख कर रही हूं और संसार को यही संदेश दे रही हूं कि मां के दरबार में कोई भी ऊंचा व नीचा नहीं होता। इसके दरबार में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखना चाहिए। मां ने तारा रुकमन को गले मिलवाया और कहा तुम दोनों बहनों ने जो कार्य किया है उससे मैं अति प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूं कि तुम्हारा यश भक्त लोग कथा के रूप में गाएंगे, जहां कहीं भी भगवती जागरण होगा, जब तक तुम्हारे जीवन की कथा नहीं सुनाई जाएगी वो जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा। राजा हरिश्चंद्र ने राजसी वस्त्र त्याग दिए और बोला- -मां मैं आपके नाम का प्रचार घर-घर जाकर  करूंगा और अपना जीवन धन्य बनाऊंगा। मां ने सारे परिवार को सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दिया और आरती करने का आदेश दिया।


इसके बाद राजा हरिचंद्र ने भगवती जागरण महल के अतिरिक्त कांगड़े के आसपास पहाड़ी क्षेत्रों के छोटे-छोटे मंदिरों में करवाए जहां सभी बिरादरी के लोग बैठकर मां का भजन सुनने | लगे। उस समय केवल डमरु और घंटी बजाई जाती थी और कोई कथा आदि नहीं गाई जाती थी। पंडित जी दुर्गा पाठ हवन कराते थे। देवी मां के चरित्र को सुनाया जाता था—ये अंदर का मार्ग था-उपले पर ज्योत जगाई जाती थी- जब जागरण प्रारम्भ होता था तो बीच में सफेद चादर द्वार पर परदे के रूप में डाल दी जाती थी। उस अंधेरे केवल ज्योत का ही प्रकाश | दिखाई देता था। कुछ दिन बाद राजा हरिचंद्र ने ये घोषणा कर दी कि जो घटना मेरे साथ घटित हुई है उसका प्रचार करो हम सब एक प्रभु की संतान हैं। मां का प्यार सभी को मिलना चाहिए, इस दुनिया में कोई ऊंच-नीच नहीं है-ये हमारे ही तुच्छ विचार हैं जो हमें गिरावट की ओर ले जाते हैं। मां का प्रचार करो और आनंद लो।


॥ दोहा ॥


मोह माया को त्यागकर करे जो मां का ध्यान। शर्मा बुद्धि मिले उसे, सदा ही हो कल्याण ।।


ध्यानू का ध्यान धरो


श्रीमद् देवी भागवत में प्रसंग आता है कि महामेधा मुनि ने जब राजा सुरथ और वैश्य को मां की शरण में लगाया और मोह माया से अलग किया, तब दोनों ने उत्तम देवी सूक्त का जाप किया, यहां तक कि हवन में अपने शरीर के रक्त से तीन वर्ष तक बलि के रूप में चंडिका देवी को प्रसन्न किया। राजा सुरथ ने तो अगले जन्म में शत्रु सेना को नष्ट करने का वर मांगा, परंतु वैश्य ने ज्ञान और भक्ति का वर मांगा और कहा मां प्रत्येक जन्म में मुझे आपका ध्यान रहे।


 मां ने देवी भक्त की इच्छा पूर्ण की और उसे वैश्य परिवार में ही जन्म दिया और अपने चरणों का ध्यान दिया जिससे उसका नाम ध्यानू पड़ा और हवन यज्ञ में जिस प्रकार उसने पिछले जन्म में रक्त की बलि दी, उसी प्रकार अगले जन्म में भी अपना शीश काटकर रक्त की बलि दी। ध्यानू ने अपनी भेंटों में नादौन शब्द का प्रयोग करके अपने रहने का परिचय दिया है। वैसे भक्त श्री ध्यानू का जन्म आश्विन शुक्ल नवमी को सम्वत् 1588 में आगरे के  निकट टपरा गांव में हुआ था। वो बृज के लोगों को पीले कपड़े पहनाकर पारिवारिक जात दिलाने के लिए भक्तों को बज्रेश्वरी देवी कांगड़ा ले जाया करता था। इनके बचपन का नाम धानू था जो बाद में ध्यानू के नाम से प्रचारित हुआ। 


इनका पहनावा भी धोती-कुर्ता था जो कि उत्तर प्रदेश की पहचान है। ऐसा सुनने में आया है कि ध्यानू जब भी ज्वाला देवी मंदिर, दर्शनों के लिए जाते थे तो उनके साथ घोड़े और कीर्तन करने वाले भक्त होते थे और वो राजस्थान से होते हुए भरतपुर, मथुरा, होडल से दिल्ली में प्रवेश करते थे। फिर भी दिल्ली की यात्रा पर हमें ध्यान देना होगा। क्योंकि यहीं पर पहाड़ों के टीले थे, उन्हीं टीलों के बीच में एक दिन अकबर बादशाह ने ध्यानू को टोका और कहा कि आगे की यात्रा मैं तुम्हें तभी करने दूंगा, जब आप ज्वाला मां का कोई चमत्कार दिखाओगे। अकबर ने अपने प्यारे घोड़े का शीश काटा और उसे जोड़ने को कहा। ध्यानू ने सारी रात जागकर मां का भजन किया, जिसके प्रभाव से घोड़ा जीवित हो गया। ध्यानू ने प्रसन्न होकर वहीं लाल रंग का झंडा फहरा दिया जिसे हम, झंडेवालान कहते हैं।


 वहीं पर मुगलों द्वारा तोड़ी गई मंदिर की मूर्ति मिली जिसकी पूजा झंडेवालान मंदिर में गुफा में होती है। अकबर ने ध्यानू को जाने दिया, फिर ध्यानू कुरुक्षेत्र, सरहिंद, सतलुज नदी पार करके कांगड़े में प्रवेश करते थे और मां ज्वाला के दर्शन प्रतिदिन करते थे। हमीरपुर तहसील में, जो नादौन गांव है, वहां गोसांइयों के मोहल्ले में ध्यानू ने अपना ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत किया और वो प्रत्येक नारी को जगदम्बा का स्वरूप मानते थे। उनकी भक्ति का प्रभाव इतना था कि कोकीला छीपन ने उनसे संतान का दान मांगा, तो मां की शक्ति से ध्यानू ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया जिससे उसके दो बेटे हुए, जिनका नाम तारा और सूरा था, जिन्होंने भक्त श्री ध्यानू की भक्ति, चमत्कार व रचनाओं का प्रचार किया। ध्यानू ने कांगड़ा और ज्वाला जी में कई बार शीश काटकर अर्पण किया, परंतु मां ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर, उसके कटे हुए शीश को जोड़कर, अपने भक्त की भक्ति स्वीकार की।


एक बार नवरात्रों में ध्यानू भक्त अपने को रोक नहीं पाया और कांगड़े के मंदिर में अष्टमी को अपना शीश काटकर मां के चरणों में रख देता है। मां ने कहा आज के शुभ दिन मैं सभी को भक्ति का फल देती हूं, तू मेरे रंग में रंग चुका है, अब यही लाल रंग, सम्मान का चिन्ह एक बार मां भगवती ने अपने तीन भक्तों की परीक्षा लेने के लिए पनिहारन का भेष बनाया और चौसर खेलने के लिए ध्यानू को संदेश भेजा। ध्यानू ने कहा, मां मैं अपनी ईष्ट देवी के सम्मुख भक्ति कर सकता हूं, परंतु साधारण खेल कभी नहीं खेल सकता, मैं आपकी समानता क्यों करूं, परंतु राजा रूपेश्वर और राजा त्रिलोकचंद कांगड़े के महल में, मां से चौसर खेलने की अभिलाषा कर बैठे। मां ने एक बनिए की पुकार सुनकर, चौपड़ का खेल बीच में ही छोड़ा और दोनों के होगा। 


मैं तेरे सिर पर लाल पगड़ी बांध रही हूं, जो भी मेरे पंथ पर चलेगा, उसे महंत कहा जाएगा। मैंने तुझे ये बाना, तब दिया है, जब तूने खांडे की धार से अपना शीश काटा है। अतः मेरे पंथ पर चलने वालों से कहा जाएगा, 'ये है पंथ खांडे की धार' और जो भी नियम कर्म से चलेगा और उसे मंडली चलाने का पूर्ण अधिकार होगा। यही कारण है कि कांगड़े के मंदिर में, कटे हुए शीश के दर्शन हैं, जिस पर सिंदूर लगाया जाता है।


अभिमान को नष्ट कर दिया। अंत में वे दोनों पत्थर में परिणत हो गए। ध्यानू भक्त अपने जीवन के अंतिम दिनों में ज्वाला जी के पास जो नादौन शहर है जो कि जिला हमीरपुर हिमाचल में है वहां आकर गोसांईयों के मौहल्ले में रहने लगा। प्रतिदिन पैदल चलकर ज्वाला जी के मंदिर जाता था और सांय तक वापिस आकर छैने बजा-बजाकर वहीं पर बैठकर भजन करता था। आज हम उसकी प्राचीन समाधि को नादौन में नदिया तट के पास पुराने संत-महंतों के साथ देख सकते हैं जहां प्रत्येक नवरात्र को मेला लगता है भक्तगण दूर-दूर से आकर इस भक्त को श्रद्धांजलि देते हैं।


 ध्यानू भक्त की पक्की भेंटें लगभग सवा लाख हैं, जिनका प्रचार सारे भारतवर्ष में हुआ। ध्यानू की भेंटें सभी संत-महंत भगवती जागरण में पक्के भजन के रूप में गाते हैं।

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