GAUTAM BUDDH बौद्ध धर्म प्रतीक पूजा. सम्राट अशोक का हीनयान संप्रदाय. बोधिसत्व का महत्व और बुद्धत्व कि प्राप्ति.
LORD BUDDHA
After demise of Buddha
Hinyan और Mahayan संप्रदाय क्या है?
भगवान बुद्ध (Lord Buddha) की मृत्यु पर उनकी अस्थि और भष्म को आठ भागो में विभक्त कर उनसे चैत्यों का निर्माण हुआ. चैत्य –निर्माण करवाने में वैशाली के लिच्छवी, अल्ल्काप के बुल्ली और मगध के सम्राट अज्ञातशत्रु प्रमुख थे.
चंपारण ( बिहार) के मोरियों ने
भी बुद्ध के भष्म अवशेषों के चैत्य तैयार
करवाए थे. इन चैत्यों में कैसी कारीगिरी शिल्पियों ने की; कितना भव्य हुआ और इनकी
क्या महत्ता थी, इन सबका पता राजगृह के
चैत्य- निर्माण से चलता है. इस चैत्य के निर्माण का वर्णन दीर्घकालीनकाय के
परिनिव्वानसुत की अट्ट- कथा में बुद्धघोष ने किया है.
सम्राट अशोक ( king Ashoka) ने बुद्ध की मूर्ति बनवाकर स्थापित नहीं कराई. इसका मुख्य कारण यह था कि अशोक हीनयान संप्रदाय को मानने वाला था. हीनयान में बुद्ध मूर्ति का निर्माण वर्जित है. इस सम्रदाय के अनुसार बुद्ध के प्रतीकों ( चैत्यों) की पूजा की जा सकती है, जैसे वज्रासन, वृक्ष, उष्नीष, चक्र , स्तूप, पदचिन्ह, चक्रमस्थान आदि.
भगवान बुद्ध ने परिनिर्मान काल में अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था कि मेरे निर्वाण के उपरान्त मेरी धातुओं कि पूजा हो, मेरी मूर्ति की नहीं. अत: आरम्भ में इन्ही वस्तुओं का आदर हुआ करता था. इसवी सन के आरम्भ में महायान- मत का प्रचलन होने पर गौतम बुद्ध तथा बोधिसत्व की उपासना आरम्भ हुई.
कलकत्ता के अजायब घर में बुद्ध की सबसे पुरानी मूर्ति सुरक्षित है. ऐसा अनुमान है कि वह ईसवी सन १४२ की बनी है. कनिष्क के समय ( पहली सदी ईस्वी पूर्व ) के कुछ पूर्व ही बौद्ध धर्म के एक नविन सम्प्रदाय का सूत्रपात हो चुका था, जो आगे चलकर बहुत प्रसिद्द हुआ. इस संप्रदाय का नाम महायान था.
महायान ने जीवन का एक ऊंचा आदर्श लोगों के सम्मुख रखा, जिसके अनुसार कोई भी चीज़ ऐसी नहीं हो सकती जिसे प्राणिमात्र के हित लिए आदेश समझा जा सके. इस चरम साधना के लिए महायान ने बोधिसत्व जीवन का उपदेश दिया. बिधिसत्व का तात्पर्य है - दूसरों के कल्याण अपने देश, घर तथा सुख का परित्याग. अंधे को दृष्टिदान करने के लिए अपनी आखें निकालकर देना, भूखे बाघ को अपना शरीर देकर उसकी क्षुधा को शांत करना, दूसरों के हित के लिए अपने स्त्री और बच्चों का उत्सर्ग कर देना और परोपकार के लिए कष्ट को कष्ट नहीं समझना.
बुद्धत्व प्राप्त करने के पूर्व सिद्धार्थ ने बोधिसत्व के रूप में अनेक जन्म लिए थे. मनुष्य जीवन का आदर्श यही है कि वह दुःख प्राप्त प्राणियों के कष्ट को नाश करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करे, बोधिसत्व के रूप में जीवन व्यतीत करे ,और अंत में बुद्धत्व प्राप्त कर अपना निर्वाण कर ले. बोधिसत्व का जीवन भिक्षु और गृहस्थ दोनों ही अपना सकते हैं.
बोधिसत्व का पद पाने के लिए मनुष्य को दस गुण जिन्हें महायान सम्प्रदाय के पारमिता कहते हैं अपने विकसित करने चाहिए. ये दस पारमिताएं हैं – दान , शील, शानी, वीर्य , ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, कौशल्य प्रणिधान, बल और ज्ञान. इन गुणों को विकसित करके ही व्यक्ति बोधिसत्व बन सकता है और अनेक जीवन में बोधिसत्व का जीवन व्यतीत करते हुए बुद्धत्व प्राप्त करने में समर्थ होता है.
बौद्ध तांत्रिकों की इष्ट देवी
है तारा ( Goddess Tara) इनके कई रूप स्वरुप है जिनकी व्याख्या बोधिसत्वों ने की है.
1.श्यामतारा
2.सिततारा
3.पीततारा
4.नीलतारा
5.रक्ततारा
बोधिसत्व की कल्पना महायान संप्रदाय (Mahayan Sampraday) की विशेषता है. बुद्ध ने अनेक जन्म ग्रहण कर बोधिसत्व का जीवन बिताया और और पारमिताओं को प्राप्त किया. बुद्ध के इन पूर्व जन्मों का वृत्तांत जातक कथाओं में वर्णित है. हीनयान संप्रदाय ( Hinyan Sampraday) में बोधिसत्व को कोई स्थान प्राप्त नहीं है. उसने भिक्षुक जीवन को ही महत्व दिया है. महायान के अनुसार अनेक व्यक्स्ती बोधिसत्व बनकर परोपकार में प्रवृत्त रहें.
ऐसा विधान है और ऐसे व्यक्ति अत्यंत श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाते हैं और उनकी प्रायः वही स्थिति होती है, जो पौराणिक हिन्दू धर्म में देवताओं की है . वे चैत्यों में इनकी मूर्तियाँ भी स्थापित करने लगे और और बुद्ध ( Lord Buddha) के समान इनकी पूजा करने लगे. बोधिसत्वों में अव्लोकितिश्वर, मंजुश्री, व्रजपाणी, सामंत भद्र, आकाशगर्भ, महास्थानप्राप्त भैष्यराज और मैत्रेय प्रमुख हैं.
उपासना में देवताओं की अपक्षा देवियों को हिन्दू धर्म में अधिक उच्च स्थान दिया गया है. इसी आस्था पर बौद्ध धर्म में भी देवियों को उच्च मान्यता मिली है. इनमे देवी तारा ( GoddessTara) का स्थान बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. आठवी और बारहवी शताब्दी Eighth & Twelfth centuries ) तक देवी बौद्ध धर्म ( Bauddh Dharma) में अत्यंत ही लोकप्रिय रही. तभी से तारा के सम्मान में जगह जगह मंदिर बनाये गए और घर घर प्रमिमायें पूजी जाने लगी.
भारत के तांत्रिक बौद्धों ने देवी तारा का अतिशय सुन्दर और उदार माना है और यह उनका शांत रूप है. इस रूप में तारा हिन्दुओं की देवी लक्ष्मी जैसी प्रतीत होती है. जब तारा रौद्र रूप धारण करती है तब वे दुर्गा के सदृश लगती हैं. तारा के शांत एवं रौद्र रूपों के आधार पर बाद में तांत्रिक बौद्धों ने २१ रूपों कि कल्पना की और विभिन्न वर्ण और नाम लेकर विवेचन किया.
तारा के विभिन्न वर्णों में श्याम ,सित,पीत,नील एवं रक्त वर्ण भक्तों को बहुत प्रिय है. इन् विभिन्न ताराओं में श्याम तारा प्रमुख है. बौद्ध तांत्रिकों ने श्याम तारा को शांत रूप में प्रकट किया है. प्रतिमाओं में श्याम तारा को अभिनव यौवन से युक्त तथा नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया दिखाया गया है. उनकी उपासना स्त्रियाँ सौंदर्य की रक्षा के लिए करती है. तांत्रिक बौद्धों ने उन्हें धन दायिनी देवी के रूप में माना है.
वर्ण के आधार पर का दूसरा रूप है, सिततारा. बौद्ध धर्म में सिततारा पातिव्रत्य की देवी मानी गयी है. प्रतिमाओं में ये अपने अर्धांग बोधिसत्व अब्लोकितेश्वर के साथ उपस्थित की गयी है विचित्र रंगों के वस्त्र एवं अलंकार पहने हुए यह देवी स्वरुप में अति आकर्षक है. बौद्ध तंत्र में सिततारा के अनेक रूप हैं. इनमे महाचीन तारा बहुत विख्यात है.. बौद्धों ने इस देवी को रौद्र रूप प्रदान किया है और उग्र तारा की संज्ञा दी है.
इस देवी के अनेक प्रतिमाएं नेपाल में हैं. वर्ण के अनुक्रम में तारा का तीसरा वर्ण पीत है जिसमे वज्रातारा प्रमुख है. तांत्रिकों की ये देवी बहुत ही प्रिय है. क्यूंकि उके अनुसार इसकी इसकी भी रूप में उपासना की जाने पर यह अवश्य सिद्धि प्रदान करती है. कहा जाता है. ॐ तारा तुत्तारे तुरे स्वाहा मंत्र का सात बार उच्चारण करे तो वह व्यक्ति निर्भय होकर किसी भी दुर्गम स्थान पर जा सकता है.
पीततारा का एक और रूप है प्रसन्नतारा. आकृति से सौम्य होने के कारण इन्हें अमृतमुखी और अमृतलोचना भी कहा जाता है. इनके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान है. देवी का चतुर्थ वर्ण नील है. इनका सौंदर्य अनुपम है पर जब ये रौद्र रूप धारण करती है तब इन्हें एकजटा तारा या विद्धुज्वाला –कराली कहा जाता है.
देवी के पांच वर्णों में अंतिम रक्त वर्ण है. बौद्ध –तंत्र में इस वर्ण में देवी तारा केवल एक में मिलती है और यह कुरुकल्ला कही गयी है. बौद्धों का विश्वास है कि इस देवी का मनुष्य के ह्रदय से घनिष्ठ सम्बन्ध है. यह देवी विरही प्रेमियों को उनके प्रियजनों से मिलाकर प्रसन्न करती है.
बौद्धों की धारणा है कि प्रत्येक
नवयुवक को इस देवी की आराधना करनी चाहिए.
वस्तुत: तारा बौद्ध –तांत्रिकों की शक्ति रूपिणी देवी है जिन्हें इन तांत्रिकों ने
निर्वाण कि प्राप्ति के लिए इष्ट माना है .
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