कब -कहाँ और कैसे हुआ ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार ? British kingdom full history in hindi

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ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार  ( British Kingdom hindi mei jaankari)



कब -कहाँ और कैसे हुआ ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार ?  British kingdom full history in hindi



संसार के इतिहास में अब तक जितने साम्राज्यों का विकास हुआ है,, ब्रिटिश साम्राज्य सम्भवतः उनमें सबसे बड़ा है। साम्राज्य निर्माण के कार्य में ब्रिटिश लोगों को असाधारण सफलता प्राप्त हुई है।

कब -कहाँ और कैसे हुआ ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार ?  British kingdom full history in hindi

इस साम्राज्य के स्वरूप को ठीक प्रकार से समझने के लिये हम इसे चार भागों में विभक्त कर सकते हैं— (१) उपनिवेश – कनाडा, न्यू फाउण्डलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और दक्षिणी अफ्रीका, (२) भारतीय साम्राज्य, (३) क्राउन कालानी, (५) संरक्षित राज्य, तथा राष्ट्रसंघ द्वारा सौंपे गये राज्य । इसमें से जो उन्नीसवीं सदी के मध्य एक ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत हो गये थे, उन पर हम इस अध्याय में प्रकाश लग


२. औपनिवेशिक राज्य


क- कनाडा


कनाडा में ब्रिटिश शासन-- कनाडा पहले फ्रेंच उपनिवेश था। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम भाग में जब कोलम्बस ने अमेरिका का पता लगाया, तो अनेक युरोपियन जातियों ने इस नवीन भूखण्ड पर अपने उपनिवेश बसाने प्रारम्भ किये। कनाडा में फ्रेंच लोग बसे, और यह प्रदेश सन् १७६३ तक उन्हीं लोगों के हाथ में रहा। सप्तवर्षीय युद्ध की समाप्ति पर सन १७६३ में कनाडा ब्रिटिश लोगों के अधीन हो गया। ब्रिटेन के लिये कनाडा का शासन करना सुगम कार्य नहीं था। वहाँ के निवासी भाषा, धर्म, जाति, आदि की दृष्टि से ब्रिटिश लोगों से सर्वथा भिन्न थे । परन्तु धीरे-धीरे वहाँ ब्रिटिश लोगों की संख्या बढ़ने लगी। अठारहवीं सदी के अन्तिम भाग में जब अमेरिका के ब्रिटिश उपनिवेशों में (जो कि वर्तमान समय में संयुक्तराज्य अमेरिका के नाम से विख्यात है) विद्रोह हुए, तो बहुत राजभक्त उपनिवेशवासी कनाडा में जाकर बस गये। सब अमेरिकन लोग राज्यक्रान्ति के समर्थक नहीं थे । 


बहुत-से ऐसे भी थे, जो ब्रिटिश छत्रछाया में निवास करने में ही अपना कल्याण समझते थे । इसलिये जब अमेरिकन राज्यक्रान्ति सफल हो गई, तो ये लोग पड़ोस के ब्रिटिश उपनिवेश कनाडा में जाकर बस गये। इनके अतिरिक्त, ब्रिटेन से जाकर वहाँ वसने वाले लोगों की संख्या भी कम न थी। आबादी की वृद्धि तथा बेकारी के कारण बहुत से ब्रिटिश लोग प्रतिवर्ष अपनी मातृभूमि को छोड़कर बाहर चले जाते थे। पहले ये लोग अमेरिकन में आबाद हुआ करते थे । पर अब उसके स्वाधीन हो जाने के कारण इनका क्षेत्र बदल गया, और ये लोग कनाडा में जाकर बसने लगे। इन नये निवासियों से अपर कनाडा, न्यू ब्रुन्स्विक, नोवा स्कोटिया, प्रिंस एडवर्ड ग्राइलैण्ड तथा न्यूफाउण्डलैण्ड का विकासहुआ । ब्रिटिश लोग ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका से आते गये, और कनाडा के विशाल व विस्तृत प्रदेशों में बसते गये। ये बिखरी हुई बस्तियाँ ही धीरे-धीरे बाकायदा संगठित उपनिवेशों के रूप में परिणत हो गई। प्रत्येक उपनिवेश की अपनी-अपनी सर- कार थी, और इनके शासक लोग ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते थे ।


स्वाधीनता का आन्दोलन – शुरू-शुरू में इन उपनिवेशों के शासन में उपनिवेश- वासियों का कोई हाथ नहीं था। सम्पूर्ण शासन ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित होता था । पर धीरे-धीरे लोकतन्त्रवाद के सिद्धान्तों का इनमें भी प्रवेश किया गया, और उपनिवेश - वासियों को शासन में अधिकार दिये जाने लगे। पर कनाडा के निवासी इन साधारण सुधारों से संतुष्ट नहीं हो सकते थे। 'स्वभाग्य निर्णय' तथा 'लोकतन्त्र शासन' के सिद्धांतों को क्रिया में परिणत करने के लिये उनमें घोर आन्दोलन चल रहा था। इसीलिए १८३७ में कनाडा में विद्रोह हो गया। इस विद्रोह का स्वरूप प्रायः वैसा ही था, जैसा कि लगभग आधी सदी पहले के अमेरिकन विद्रोह का था । पर भेद यही है, कि कनाडा की क्रान्ति सफल नहीं हो सकी। पर इसमें सन्देह नहीं, कि असफल होकर भी कनाडियन क्रान्ति ने ब्रिटिश शासकों की प्रांख खोल दीं। उन्हें अब श्रावश्यकता अनुभव हुई, कि वे कनाडा वासियों की शिकायतों को सुनें और उनके असन्तोष को दूर करने का प्रयत्न करें।


लार्ड उहंम के प्रस्ताव -- इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखकर लार्ड उर्हम को कनाडियन समस्या का अध्ययन करने तथा उसका हल करने के उपायों को सुझाने के लिये नियत किया गया। लार्ड डहम ने पांच मास कनाडा में व्यतीत किये, और सब बातों क भली-भाँति अनुशीलन कर वह इस परिणाम पर पहुँचे, कि जब तक कनाडा के उपनिवेशों को अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले सम्पूर्ण मामलों पर में पूरा-पूरा अधिकार न दिया जायगा, तब तक उनकी समस्या का हल नहीं हो सकेगा। इसके लिये उसने प्रस्ताव किया कि (१) लोअर कनाडा और अपर कनाडा को मिलाकर एक संघ में संगठित किया जाए, और कनाडा के इस संघ में इस बात की गुञ्जाइश रखी जाए, कि अन्य समीपवर्ती उपनिवेश भी उसमें यथासमय सम्मिलित किये जा सकें। (२) सब उपनिवेशों में लोकतन्त्रवाद के अनुसार स्वराज्य की स्थापना की जाए, और मन्त्रिमण्डल को व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी बनाया जाए।


औपनिवेशिक स्वराज्य का प्रारम्भ -- ब्रिटिश साम्राज्य के प्राधुनिक इतिहास में लार्ड हम की यह रिपोर्ट बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसे औपनिवेशिक स्वराज्य की आधारशिला माना जाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार १६४० में लोअर और अपर- दोनों कनाडा को मिलाकर एक कर दिया गया, और उनकी व्यवस्थापिका सभा का निर्माण हुआ। मन्त्रिमण्डल को व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया । ब्रिटिश सम्राट् के प्रतिनिधि रूप में एक गवर्नर की व्यवस्था की गई, जिसे ब्रिटिश सरकार नियत करती थी। कुछ समय पश्चात् अन्य उपनिवेशों में (जो अमेरिका के उत्तर में विद्यमान थे) भी इसी पद्धति का अनुसरण किया गया। 


नोवा स्कोटिया, न्यू- बुन्स्विक यादि अन्य उपनिवेशों में भी कुछ ही वर्षों में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना हुई। धीरे-धीरे ये सब उपनिवेश कनाडा के संघ (फिडरेशन) में सम्मिलित कर लिये गये, और कनाडा के प्राधुनिक उपनिवेश का प्रादुर्भाव हुआ । इस संघ में सम्मिलित विविध उपनिवेशों व प्रान्तों में अपनी-अपनी पृथक् व्यवस्थापिका सभाएँ तथा उनके प्रति उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल कायम किये गये और साथ ही संघ की पृथक् केन्द्रीय पालियामेन्ट मी, जो कि सम्पूर्ण संघ के साथ सम्बन्ध रखनेवाले विषयों का संचालन करती थी।


केन्द्रीय शासन केन्द्रीय सरकार का संगठन निम्नलिखित प्रकार से है-पालिया मेन्ट में दो सभाएँ हैं, सीनेट पर लोकसभा । सीनेट के सदस्य गवर्नर-जनरल द्वारा मनो- नीत किये जाते हैं, और वे जन्म भर सदस्य पद पर रहते हैं। लोकसभा के सदस्यों को जनता चुनती है। मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी रहता है। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाती है। यद्यपि उसे वीटो का अधिकार प्राप्त है, पर ब्रिटिश सम्राट की तरह उसका यह प्रतिनिधि भी अपने इस अधिकार का प्रायः उपयोग नहीं करता। विदेशी मामलों के अतिरिक्त धन्य सब विषयों में कनाडा पूर्णतया स्वतन्त्र राज्य के समान है।


लाई दहम द्वारा प्रतिपादित नीति से ब्रिटेन का अपने उपनिवेशों के प्रति ख बहुत कुछ परिवर्तित हो गया है। यदि अठारहवीं सदी के अन्तिम भाग में अमेरिकन उपनिवेशों के साथ भी ब्रिटेन यही बर्ताव करता, तो सम्भवतः वे कभी ब्रिटिश साम्राज्य से पृथकून होते। प्रोपनिवेशिक स्वराज्य के सिद्धान्त से जहाँ उपनिवेश क्रियात्मक दृष्टि से पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, वहाँ वे ब्रिटिश साम्राज्य के महत्वपूर्ण अंग भी है। इससे ब्रिटेन का उत्कर्ष बहुत बढ़ गया है।


कनाडा का विस्तार- कनाडा के लिये पश्चिम दिशा में प्रशान्त महासागर की तरफ अपना विस्तार करने के लिये अनन्त क्षेत्र पड़ा हुआ है। कनाडा की सरकार का जितने प्रदेश पर अधिकार है, वह सम्पूर्ण यूरोप व संयुक्त राज्य अमेरिका की अपेक्षा भी बड़ा है। इस विशाल भूखण्ड के जङ्गलों को साफ कर वहाँ बसने के लिये प्रभी बहुत ज्यादा गुंजाइश है। लाखों मनुष्य प्रतिवर्ष यूरोप व अमेरिका से कनाडा पहुँचते हैं और इन खाली प्रदेशों को प्रावाद करते हैं। कनाडा में खनिज पदार्थों की भी कमी नहीं है। खानों से प्राप्त होनेवाले बहुमूल्य पदार्थों के लोभ से बहुत-से मनुष्य हर साल कनाडा पहुँचते हैं। प्रावागमन के साधनों के उन्नत हो जाने के कारण पश्चिमी कनाडा को धाबाद करना भी सुगम हो गया है। 


चार सुदीर्घ रेलवे हैं, जो कनाडा को पूर्व से पश्चिम तक पटलाष्टिक महासागर से प्रशान्त महासागर तक मिलाती हैं। इनमें से कना- डियन पॅसिफिक रेलवे का ही विस्तार बारह हजार मील है। इन रेलों का परिणाम यह कृपा है, कि पश्चिम के प्रदेश लगातार प्राबाद होते जाते हैं, और नये-नये प्रदेश एक राज्य का रूप धारण कर कनाडा के संघ में सम्मिलित होते जाते हैं। मनिटोबा १८७० में संघ में सम्मिलित हुआ, ब्रिटिश कोलम्बिया १८७१ में, प्रिंस एवडर्ड प्राइलैण्ड १८७३ में, एल्बर्टा धौर सस्कचेवन १६०५ में। कनाडा की आबादी भी बड़े वेग से बढ़ रही है। १८१५ में उसकी प्राबादी केवल पांच लाख थी, १९२५ में एक सदी बाद वह बढ़कर नब्बे लाख हो गई थी।


न्यूफाउण्डलैण्ड यूफाउण्डलैण्ड कनाडा के संघ के बहुत समीप स्थित है। पर वह कनाडा संघ में सम्मिलित नहीं हुआ, और वह एक स्वतन्त्र व पृथक उपनिवेश के रूप में अपना विकास कर रहा है। उसमें भी प्रीपनिवेशिक स्वराज्य विद्यमान है, और वह भी अन्य उपनिवेशों के समान ही स्थिति रखता है।


ख-आस्ट्रेलिया


आस्ट्रेलिया अपने आप में ही एक महाद्वीप है, जो प्रकेला संयुक्तराज्य अमेरिका व यूरोप के प्रायः बराबर है। जिस समय यूरोपियन लोगों ने इसमें प्रवेश किया, तब वहाँ कुछ मूल जातियाँ निवास करती थीं. जो सभ्यता की दृष्टि से उन्नत नहीं थीं। यूरोपियन लोगों को उन्हें नष्ट करने में तथा इस विशाल भूखण्ड पर यथेष्ट बस्तियाँ बसाने में कोई विशेष दिक्कत नहीं हुई। श्रास्ट्रेलिया का अधिकांश भाग शीतोष्ण कटिबन्ध में स्थित है, इसलिये वहाँ की जलवायु बहुत उत्तम तथा स्वास्थ्यप्रद है । 



उत्तरी आस्ट्रेलिया में जल की कमी है, सिचाई का यथोचित प्रबन्ध न होने के कारण अभी उसमें बस्तियाँ ज्यादा नहीं बस सकी हूँ। पर दक्षिणी तथा पूर्वी आस्ट्रेलिया बहुत उपजाऊ हैं। वहाँ खेती बहुत हो सकती है। साथ ही, वहाँ बहुत-से खनिज पदार्थ में भी पाये जाते हैं। इसलिये इन प्रदेशों में यूरोपियन लोग विशेष रूप से आबाद हुए हैं। आस्ट्रेलिया के दक्षिण में समीप ही विद्यमान टस्मानिया का टापू भी अपने उत्तम जलवायु, उपजाऊ जमीन तथा खनिज पदार्थ की प्रचुरता के कारण बहुत प्रसिद्ध है। वहाँ भी पाश्चात्य लोग प्रचुर संख्या में श्रावाद हुए हैं, और वह व्यापार तथा व्यवसाय का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया है।


आस्ट्रेलिया में यूरोपियन लोगों का प्रवेश-सोलहवीं सदी में जब पोर्तुगीज लोग मसालों के द्वीपों की ढूंढ़ में पूर्वी देशों की छानबीन कर रहे थे, तब उनके अनेक मल्लाह इस महाद्वीप में भी पहुँचे थे। पर वे यहाँ पर बसे नहीं, और न ही उन्होंने व्यापार के लिये यहाँ कोई कोठी ही बनाई १६४२ में टस्मान नामक एक डच मल्लाह ने आस्ट्रेलिया के दक्षिण में विद्यमान उस टापू का पता लगाया, जो आजकल उस ही के नाम से टस्मानिया कहाता है। इसी टस्मान ने आस्ट्रेलिया के पूर्व में विद्यमान एक विशाल द्वीप समूह का पता लगाया, जिसका नाम न्यूजीलैण्ड रखा गया। इस प्रकार यद्यपि इन द्वीपों का पता पहले- पहल डच लोगों ने लगाया, पर वे वहाँ पर बसे नहीं। कैप्टिन कुक नाम के एक अँगरेज मल्लाह ने अठारहवीं सदी में इन प्रदेशों के चक्कर लगाये, और उसी की यात्राओं के कारण इंगलिश लोगों का ध्यान इन द्वीपों की तरफ आकृष्ट हुआ। 


न्यूजीलैण्ड के तट का चक्कर काटकर १७६६-७० में कैप्टिन कुक ने पश्चिम की तरफ आस्ट्रेलिया की ओर प्रस्थान किया। पहले-पहल आस्ट्रेलिया में वह जिस स्थान पर पहुँचा, वहाँ की भूमि बहुत ही शस्य-श्यामला तथा हरी-भरी थी। इसलिये उसने उसका नाम 'बोटनी वे' (हरी-भरी खाड़ी) रखा। कैप्टिन कुक ने इस प्रदेश पर ब्रिटिश लोगों का झण्डा खड़ा किया, और ब्रिटिश सम्राट् के नाम पर इस पर अधिकार कर लिया। ग्रेट ब्रिटेन के वेल्स प्रदेश से यह प्रदेश मिलता- जुलता है, यह समझकर इसका नाम 'न्यू साउथ वेल्स' रखा गया ।


ग्रेट ब्रिटेन ने इस प्रदेश का उपयोग सबसे पूर्व 'काला पानी' के रूप में प्रारम्भ किया। १७८८ में ७५० अभियुक्त अपना दण्ड भोगने के लिये वहाँ भेजे गये। आस्ट्रेलिया में इंगलिश लोगों की यह पहली बस्ती थी, जो अपराधी कैदियों से शुरू हुई। इसके बाद प्रतिवर्ष कैदी वहाँ भेजे जाने लगे, श्रीर न्यू साउथ वेल्स की श्राबादी निरन्तर बढ़ती गई। कुछ समय बाद इंगलिश लोगों ने अनुभव किया, कि ये प्रदेश भेड़ पालने के लिये बहुत उपयुक्त हैं, और यहाँ ऊन का व्यवसाय बहुत तरक्की कर सकता है। इस दृष्टि से १७६६ में बहुत- सो भेड़ें इंगलैण्ड से श्रास्ट्रेलिया भेजी गई। कृषि और भेड़ पालकर ऊन एकत्रित करना-- ये दो पेशे इस नई बस्ती में खूब तरक्की करने लगे। 


जमीन बिलकुल नई थी, इसलिये बहुत उपजाऊ थी। परिणाम यह हुआ, कि आस्ट्रेलिया में बसे हुए लोगों को खूब फायदा होने लगा। नफे से श्राकृष्ट होकर बहुत से स्वतन्त्र मनुष्य भी आस्ट्रेलिया जाने लगे, और कैदियों की वस्ती के साथ-साथ स्वतन्त्र लोगों की बस्ती भी वहाँ विकसित होने लगी । बोटनी वे के उत्तर में एक स्थान था, जो बन्दरगाह बनाने के लिये बहुत उपयुक्त था । वहाँ सिडनी का बन्दरगाह विकसित हुआ । न्यू साउथ वेल्स के बाद टस्मानिया तथा पश्चिमी आस्ट्रेलिया में भी कैदियों को भेजा जानी शुरू हुआ, और इन कैदियों द्वारा ही वहाँ पर बस्तियाँ बसनी प्रारम्भ हुई। १८५१ में आस्ट्रेलिया में अनेक स्थानों पर सोने की खाने उपलब्ध हुई, जिनसे प्राकृष्ट होकर हजारों मनुष्य प्रतिवर्ष ब्रिटेन से आस्ट्रे- लिया पहुँचने लगे। 


पूँजीपति और मजदूर — दोनों ही प्रचुर संख्या में वहाँ जाने शुरू हुए। सोने की खानों की वजह से ग्रास्ट्रेलिया की बहुत शीघ्रता से तरक्की हुई। कैदियों की अपेक्षा स्वतन्त्र मनुष्य वहाँ बहुत अधिक हो गये। इन स्वतन्त्र मनुष्यों ने इस बात का विरोध करना शुरू किया, कि कैदी लोग उनके प्रदेशों में बसाये जाएं। इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि ग्रास्ट्रेलिया को 'काला पानी' के रूप में प्रयुक्त करना बन्द कर दिया गया ।


१७८८ में आस्ट्रेलिया की आबादी केवल ७५० थी। बढ़ते-बढ़ते १९२१ में वह ५५ लाख से ऊपर पहुँच गई थी। न्यू साउथ वेल्स, टस्मानिया और पश्चिमी आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त विक्टोरिया, क्वीन्सलैण्ड तथा दक्षिणी आस्ट्रेलिया-इन तीन उपनिवेशों का वहाँ और विकास हुआ। ये उपनिवेश कैदियों की बस्ती के रूप में कभी प्रयुक्त नहीं हुए। इसमें कृषि, ऊन के व्यवसाय तथा सोने की खानों से आकृष्ट होकर स्वतन्त्र मनुष्य समय- समय पर बसते गये, और इसी के परिणामस्वरूप बाकायदा उपनिवेशों का विकास हो गया। पहले प्रत्येक उपनिवेश की सरकार अलग-अलग थी। कैदियों की बस्तियों में फौजी शासन होता था, और स्वतन्त्र मनुष्यों पर ब्रिटेन द्वारा भेजे हुए गवर्नर शासन करते थे। पर बाद मैं धीरे-धीरे इन ग्रास्ट्रेलियन उपनिवेशों में स्वराज्य का प्रारम्भ किया गया। कैदियों की बस्तियों से भी फौजी शासन उठा लिया गया। प्रत्येक उपनिवेश में व्यवस्थापिका सभा और उसके प्रति उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल की स्थापना की गई।


संघराज्य का निर्माण - यह सर्वथा स्वाभाविक था, कि समयान्तर में इन उपनिवेशों में—जिनके निवासियों की भाषा, जाति धर्म, सभ्यता, संस्कृति, सब एक थीं, एक राज्य की स्थापना हो। इसीलिये एक आस्ट्रेलियन संघ (फिडरेशन) बनाने के लिए उन्नीसवीं सदी के अन्तिम भाग में प्रान्दोलन प्रारम्भ हुआ। बहुत समय तक इस प्रश्न पर बहस होती रही। १८६१ में सब उपनिवेशों के प्रतिनिधि एक राष्ट्रीय महासभा (कान्वेन्शन) के रूप में एकत्रित हुए, और उन्होंने आस्ट्रेलियन संघ के लिये शासन व्यवस्था की रचना की। इस शासन विधान को जनता की सम्मति के लिये उपस्थित किया गया। जनता द्वारा स्वीकृत कराके इसे ब्रिटिश पार्लियामेंट के सम्मुख पेश किया गया। कुछ परिवर्तनों के साथ यह वहाँ पास हो गया, और सन् १६०० में स्वीकृत हुए ब्रिटिश पार्लियामेंट के एक ऐक्ट द्वार आस्ट्रेलियन संघ का निर्माण हुआ। आस्ट्रेलियन संघ में कुछ मिलकर छः राज्य व उपनिवेश अन्तर्गत हैं--न्यू साउथ वेल्स, टस्मानिया, विक्टोरिया, क्वीन्सलैण्ड, दक्षिणी श्रास्ट्रेलिया और पश्चिमी आस्ट्रेलिया । इन राज्यों की अपनी-अपनी पृथक् सरकारें हैं । प्रत्येक राज्य में भी अपनी अपनी व्यवस्थापिका सभाएँ और मन्त्रिमण्डल हैं ।


ग-न्यूजीलैंड


न्यूजीलैण्ड का विकास — प्रास्ट्रेलिया के दक्षिण-पूर्व में १२०० मील की दूरी पर न्यूजी ण्डि का उपनिवेश स्थित है। इसमें दो बड़े तथा अन्य बहुत से छोटे-छोटे द्वीप हैं, जिन सबको मिलाकर न्यूजीलैण्ड का उपनिवेश कहते हैं। इस उपनिवेश का क्षेत्रफल ग्रेट ब्रिटेन से सवाये के लगभग है। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही ब्रिटिश लोगों ने इस द्वीप में जाना शुरू कर दिया था । १८१४ से बहुत से ईसाई मिशनरी न्यूजीलैण्ड के सियों को अपने धर्म में दीक्षित करने का भी उद्योग करने लगे थे । न्यूजीलैण्ड के मूल मूल निवा- निवासी 'मनोरी' लोग हैं, जो सभ्यता की दृष्टि से अफ्रीका के नीग्रो व आस्ट्रेलिया के मूल



निवासियों के समान बहुत पिछड़े हुए न थे। सर जार्ज ग्रे ने इनके सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था - " बहुत प्रशों में यह प्रत्यन्त ऊँची जाति है। ये बड़े उत्कृष्ट योद्धा हैं, यह बड़े वाग्मी, समझदार, अभिमानी तथा सीधे लोग हैं। उन्होंने मेरे साथ जो व्यवहार किया है, उससे उन्होंने मेरे भावों तथा सहानुभूति को जीत लिया है।" इससे स्पट है, कि इन 'ममोरी' लोगों को अपने धर्म में दीक्षित कर लेना या उन्हें सर्वथा नष्ट कर देना बहुत सुगम कार्य न था । 'मनोरी' लोगों ने अंग्रेजों से अनेक घनघोर युद्ध किये। आखिर, १८४० में दोनों जातियों में परस्पर सुलह हो गई। 'मओरी' लोगों ने महारानी विक्टोरिया को अपना प्रधिपति मानना स्वीकृत कर लिया। इसके बदले में उनके निवास के लिये एक निश्चित प्रदेश अलग कर दिया गया, जिससे कि वे स्वतन्त्रतापूर्वक वहाँ निवास कर सकें । 


मओरी लोगों से निबटारा करके अंग्रेजों ने न्यूजीलैण्ड के टापुत्रों में अपनी बस्तियाँ बसानी प्रारम्भ की। इस कार्य के लिये ग्रेट ब्रिटेन में एक कम्पनी बाकायदा बनाई गई थी, जिसका नाम 'न्यूजीलैण्ड कम्पनी' था। इसने इस द्वीप समूह को आबाद करने का निरन्तर प्रयत्न किया । ऊन के व्यवसाय के लिये भेड़ों को पालने की न्यूजीलैण्ड में भी बहुत सुविधा थी। इससे प्राकृष्ट होकर बहुत-से अंगरेज वहाँ जा बसे। साथ ही, कुछ वर्षों के बाद जब आस्ट्रेलिया की तरह न्यूजीलैण्ड में भी सोने की खानें मिल गई, तब तो बहुत बड़ी संख्या में अंगरेज लोग वहाँ जाकर आबाद होने लगे। न्यूजीलैण्ड का बड़ी शीघ्रता से विकास हुआ, और रोजगार के लिये उपयुक्त स्थान ढूंढने की धुन में अँगरेजों ने 'मनोरी' लोगों की बस्तियों में भी हस्तक्षेप करना शुरू किया। परिणाम यह हुआ, कि १८६० और १८७१ में 'मनोरी' लोगों ने दो बार विद्रोह किये। इन्हें बड़े भयंकर रूप से कुचला गया। उसके बाद फिर कभी 'मोरी' विद्रोह नहीं हुए हैं ।


संघ का शासन विधान-न्यूजीलैण्ड के विविध प्रदेशों में जो बस्तियाँ बस रही थीं, १८५१ में उनकी संख्या छः थी - प्रॉकलैण्ड, वेलिंगटन, न्यू प्लाइमाउथ, (ये न्यूजीलैण्ड के उत्तरी द्वीप में है), नेल्सन, ग्राटागो और कैन्टरबरी (ये दक्षिणी द्वीप में हैं) । १८५२ मैं इन सबको संगठित कर एक शासन-विधान का निर्माण किया गया। ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा स्वीकृत एक ऐक्ट के अनुसार इन छत्रों बस्तियों व राज्यों में पृथक् स्थानीय स्वराज्य की स्थापना की गई, और साथ ही विविध बस्तियों को मिलाकर एक केन्द्रीय संघ का निर्माण किया गया। संघ की शासन व्यवस्था इस प्रकार थी-व्यवस्थापन विभाग में दो सभाएँ रखी गई, कौन्सिल और प्रतिनिधि सभा । कौंसिल के सदस्य गवर्नर-जनरल द्वारा नियत किये जाने और प्रतिनिधि सभा के सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होने की व्यवस्था की गई । मन्त्रिमण्डल प्रतिनिधि सभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाने की व्यवस्था की गई।


एकात्मक ( यूनिटरी) राज्य का निर्माण --यह पद्धति १८७५ तक जारा रही । पर न्यूजीलैण्ड में बहुत-से टापू हैं, और धीरे-धीरे इन टापुत्रों में भी बस्तियाँ बसती गई । इन सब में प्रान्तीय स्वराज्य की स्थापना कर सकना कठिन था, और इतने सारे प्रान्तों के हो जाने के कारण केन्द्रीय सरकार की शक्ति भी बहुत कम हो जाती थी । इसलिये १८७६ में प्रान्तीय स्वराज्य का अन्त कर न्यूजीलैण्ड में एक शक्तिशाली केन्द्रीय लोक- तन्त्र सरकार की स्थापना की गई ।


घ-दक्षिणी अफ्रीका


प्रारम्भिक इतिहास — अफ्रीकन महाद्वीप के सबसे दक्षिणी सिरे पर एक अन्तरीप है, जिसे सदाशा का अन्तरीप (केप आफ गुड होप) कहते हैं। इस पर सबसे पहले डच


लोगों ने अपना अधिकार किया था, और वे ही लोग यहाँ पर आबाद हुए थे। फ्रेंच राज्य क्रान्ति के धनन्तर हालैण्ड फ्रांस के अधीन हो गया था, और नेपोलियन के फ्रेंच सम्राट बन जाने पर यह देश उसके साम्राज्य का अंग बन गया था। क्योंकि हालैण्ड नेपोलियन के अधीन था, इसलिए इस अन्तरीप में विद्यमान केप कालोनी (अन्तरीप-उपनिवेश) नामक डच उपनिवेश पर भी नेपोलियन का अधिकार था। नेपोलियन की शक्ति को नष्ट करने के लिए जब ब्रिटेन ने अनवरत रूप से संघर्ष प्रारम्भ किया, तब यूरोप से हजारों मील की दूरी पर स्थित इस उपनिवेश पर नेपोलियन या हालैण्ड का अधिकार कायम न रह सका, और यह ग्रेट ब्रिटेन के कब्जे में प्रा गया। 



वीएना की कांग्रेस में (सन् १८१४) केप कोलोनी पर ब्रिटेन के अधिकार को स्वीकृत कर लिया गया। तब से यह प्रदेश ब्रिटेन के ही अधीन है। जिस समय केप कोलोनी ब्रिटेन के हाथ में प्राया, तब उसकी प्राबादी निम्नलिखित प्रकार से थी— (क) २७,००० गौर वर्ण के मनुष्य, जो प्रायः सब डच जाति के थे। (ख) ३०,००० नीग्रो तथा मलय जाति के गुलाम, (ग) १७,००,००० हॉटेन्टोन्ट जाति के लोग, जो उस प्रदेश के मूल निवासी थे । १८२० के बाद ब्रिटिश लोगों न निरन्तर इस प्रदेश में जाना तथा बसना प्रारम्भ किया। परन्तु गौरवर्ण के लोगों की अधिक संख्या डच जाति की ही रही। 


डच लोग प्रायः किसान थे। वे अपनी भाषा, रीति-रिवाज तथा सभ्यता को किसी भी दशा में छोड़ना नहीं चाहते थे। उनकी रक्षा के लिए वे मर मिटने को उद्यत रहते थे । केप कोलोनी के अपने अधिकार में आ जाने पर ब्रिटिश शासकों ने कोशिश की, कि इंगलिश भाषा, रीति-रिवाज तथा संस्थाओंों को वहाँ पर प्रयोग में लाएँ। डच किसान, जो बोअर नाम से प्रसिद्ध हैं, इस बात को सहन नहीं कर सके। वे नहीं चाहते थे, कि उनके प्रदेश में अंग्रेजी भाषा उपयोग में धाए, और इंगलिश ढंग से न्यायालयों का संगठन किया जाय । सन् १८३३ में अंग्रेजी सरकार ने निश्चय किया, कि दास प्रथा का अन्त कर दिया जाय । बोधर लोग प्रायः दासों द्वारा ही खेती का कार्य किया करते थे। दास प्रथा का अन्त कर देने से उन्हें भारी नुकसान था। दासों को मुक्त कराने के लिए ४।। करोड़ के लगभग रुपये ब्रिटिश सरकार ने खर्च किये, पर बोझर लोगों की दृष्टि में यह कीमत बहुत कम थी। वे इससे संतुष्ट नहीं हुए ।


बोअर लोगों का महाप्रस्थान - ब्रिटिश शासकों के इस व्यवहार से तंग ग्राकर बोयर लोगों ने निश्चय किया, कि कोलोनी को—जिसे कि उन्होंने स्वयं या उनके पूर्वजों ने पहले-पहल आबाद किया था, सदा के लिये छोड़ कर उत्तर में अपने लिये नई वस्तियां बसा लें। बोधर लोगों का यह 'महाप्रस्थान' १८३६ में शुरू हुआ। अपने सब माल असबाब को बड़े-बड़े छकड़ों पर (जिनमें बैल जुते होते थे) लादकर दस हजार बोअर लोग उत्तर की ओर चल पड़े। केप कोलोनी के उत्तर में उस समय भयंकर जंगल था, जिनमें बहुत-सी जंगली जातियाँ निवास करती थीं। 


बोअर लोगों ने इन जंगलों को साफ किया, और दो नये उपनिवेश बसाये। ये नये उपनिवेश नेटाल तथा ओरेन्ज नदी की घाटी में बसाये गये थे । कुछ समय तक बोअर लोग अपने नये प्रदेशों में स्वतन्त्रता के साथ बसते रहे । ब्रिटिश लोगों ने उनमें हस्तक्षेप नहीं किया। पर यह दशा देर तक नहीं रह सकी। नैटाल समुद्र-तट पर स्थित था। ब्रिटिश लोग नहीं चाहते थे, कि समुद्र-तट के इतने महत्त्वपूर्ण स्थान पर एक विदेशी राज्य कायम हो जाए। इसलिये उन्होंने डर्बन ( उस समय इसे पोर्ट नैटाल कहा जाता था, और यह नेटाल प्रदेश का मुख्य नगर तथा बन्दरगाह था) पर प्राक्रमण करने के लिये एक सेना भेजी। १८४२ में ब्रिटिश तथा डच सेनाओं में युद्ध हुआ । डच सेना परास्त हो गई, और नेटाल ब्रिटिश लोगों के कब्जे में आ गया। ब्रिटिश लोग प्रोरेन्ज के स्वतन्त्र डच राज्य को भी अपने अधीन करना चाहते थे । १८४८ में उन्होंने उस पर भी प्राक्रमण किया, और डच लोगों को परास्त कर उसे अपने अधिकार में कर लिया ।


बोअर लोग अब एक बड़ी विकट समस्या का सामना कर रहे थे। इँगलिश लोग उन्हें शान्ति से नहीं रहने देना चाहते थे। यदि वे उन्हें अपनी अधीनता में ही लाने का प्रयत्न करते, तो उन्हें कोई विशेष प्रपत्ति न भी होती, पर ब्रिटिश लोग अपनी भाषा, संस्कृति, संस्था आदि को प्रचलित किये बिना नहीं रह सकते थे, और बोअर लोगों के लिये यह सह सकना असम्भव था। परिणाम यह हुआ कि एक बार फिर वोअर लोगों ने महाप्रस्थान शुरू किया। प्रोरेन्ज उपनिवेश के उत्तर में बाल नदी के पार एक नया उपनिवेश बोअर लोगों द्वारा बसाया गया, जो अब ट्रांसवाल के नाम से प्रसिद्ध है। 


ब्रिटिश लोग सम्भवतः इसमें भी हस्तक्षेप करते, पर उनकी सम्मति में इसका कोई अधिक महत्त्व नहीं था। यह मुख्यतया पशुओं के लिये चरागाह का ही काम दे सकता था। इसलिये ब्रिटिश लोगों ने यही उपयुक्त समझा, कि इसे जीतकर अपने अधीन करने की तकलीफ न उठायी जाए। १८५२में ब्रिटिश तथा बोअर लोगों में सन्धि हो गई, जिसके अनुसार अँगरेजों ने ट्रांसवाल में बोअर लोगों की स्वाधीनता को स्वीकृत कर लिया, और साथ ही यह विश्वास दिलाया, कि इस प्रदेश में बोअर लोग स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकेंगे, और ब्रिटिश लोग उसमें किसी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करेंगे। दो वर्ष पश्चात् १८५४ में प्रोरेन्ज उपनिवेश की भी स्वाधीनता स्वीकृत कर ली गई, और वह 'ओरेन्ज का स्वतन्त्र राज्य' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार अब दक्षिणी अफ्रीका में कुल चार उपनिवेश हो गये, जिनमें से दो-केप कोलोनी और नैटाल--प्रॅगरेजों के अधीन थे, और शेष दोश्रोरेन्ज का स्वतन्त्र राज्य तथा ट्रांसवाल- बोधर लोगों के।


३. भारतवर्ष


यूरोप के विविध लोगों ने किस प्रकार भारत में व्यापार का प्रारम्भ किया, इस देश की राजनीतिक दुरवस्था से लाभ उठाकर उन्होंने किस प्रकार यहाँ अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयत्न किया, और इस प्रयत्न में किस प्रकार अन्त में ब्रिटेन को सफलता हुई, इसका वृत्तान्त संसार के प्राधुनिक इतिहास में प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। पर भार- तीय पाठकों के लिये लिखे गये इस इतिहास में इसका विवरण देना उपयोगी नहीं होगा । हमारे सब पाठक इस वृत्तान्त से भली-भाँति परिचित ही होंगे। पर यहाँ यह निर्देश करना आवश्यक है, कि ग्रेट ब्रिटेन की सरकार ने भारत को विजय करने के लिये कोई सेनाएँ नहीं भेजीं। जिस समय नये प्रदेशों की खोज के लिये व पूर्वी देशों के साथ व्यापार का विकास करने के लिये यूरोप के लोग प्रवृत्त हुए, तो इङ्गलैण्ड में एक कम्पनी की स्थापना हुई, जिसका नाम 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' था, और जिसका उद्देश्य भारत के साथ व्यापार करके समृद्ध होना था। इस कम्पनी के प्रतिनिधियों ने भारत के मुगल बादशाहों से व्यापार-सम्बन्धी अनेक सुविधाएँ प्राप्त कीं, और समुद्र तट पर अनेक कोठियाँ स्थापित कीं, जो कम्पनी के व्यापार का केन्द्र होती थीं। अँग्रेजों के समान पोर्तुगीज, डच और फेञ्च लोग भी भारत के साथ अपना इसी ढंग का व्यापार विकसित करने के लिये तत्पर थे ।


औरङ्गजेब की साम्प्रदायिक नीति के कारण दिल्ली के मुगल बादशाहों की शक्ति बहुत क्षीण हो गई थी। अठारहवीं सदी के मुगल बादशाह बहुत निर्बल थे, और उनके शासन के विरुद्ध राजपूतों, मराठों और सिक्खों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया था। मुगल साम्राज्य में राष्ट्रीय अनुभूति का प्रभाव था । अतः विविध प्रदेशों पर शासन करने - वाले सूबेदार लोग भी अवसर प्राप्त होने पर अपनी शक्ति बढ़ाने व स्वतन्त्र राजाओं  नवाबों के समान शासन करने के लिये उद्यत रहते थे। मुगल बादशाहत की शक्ति के. ग्राधार उसके विविध सरदार, सुबेदार, सामन्त और सैनिक ही थे । यदि बादशाह निर्बल हो, तो इनमें स्वाभाविक रूप से स्वच्छन्द हो जाने की भावना और जोर पकड़ने लगती थी। 


अनेक बड़े सूबों के शासक वंशक्रमानुगत रूप से अपने प्रदेशों का शासन करते थे, राज्य के अनेक उच्च पद भी वंशक्रमानुगत रूप से चलते थे। उस समय भारत में न राष्ट्रीयता की भावना थी, और न लोकतन्त्रवाद की सत्ता थी। इस दशा में यूरोप की विविध व्यापारी कम्पनियों को इस देश के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया । यहाँ की राजनीतिक दुर्दशा से लाभ उठाकर अपनी राजनीतिक सत्ता इस देश में स्थापित की जा सकती है, यह विचार सबसे पहले फ्रांस के लोगों में उत्पन्न हुआ था। डुप्ले पहला यूरोपियन राजनीतिज्ञ था, जिसने भारत में फांस का साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न लिया। पर फ्रेंच लोगों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिल सकी। इसका एक प्रमुख कारण यह था, कि अठारहवीं सदी में फांस में बूर्वी वंश का निरंकुश व स्वेच्छाचारी शासन था, और भारत में फ्रेंच लोग व्यापार के विस्तार का जो प्रयत्न कर रहे थे, उसका संचालन फांस की इस निरंकुश सरकार द्वारा ही होता था।


 इसके विपरीत, ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटिश सरकार के नियन्त्रण से प्रायः स्वतन्त्र थी । ग्रतः उसके लिये यह अधिक सुगम था, कि वह समय और परिस्थिति के अनुसार स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सके । प्ले के प्रधान इंगलिश प्रतिद्वन्द्वी क्लाइव को यह प्रावश्यकता नहीं थी, कि वह अपने प्रत्येक कार्य के लिये सरकार से अनुमति ले। इसके विपरीत डुप्ले को अपने कार्य के लिये फ्रांस की सरकार का मुंह देखना पड़ता था, और इस युग की फ्रेंच सरकार सर्वथा विकृत और दुर्दशाग्रस्त थी। भारत के विविध राजाओं, नवाबों व सूबेदारों के पारस्परिक झगड़ों से लाभ उठाकर अन्त में ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी इस देश के बड़े भाग में अपना शासन स्थापित करने में समर्थ हुई। उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग तक प्रायः सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजों का प्राधिपत्य स्थापित हो गया था, और इस देश के विविध राजा व नवाब उनकी अधीनता में आ गये थे ।


यद्यपि भारत में राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रायः प्रभाव था, पर यहाँ की जनता इन विधर्मी और विदेशी शासकों से सर्वथा असंतुष्ट थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासक भारत में अपने शासन को अपनी आर्थिक समृद्धि का साधनमात्र समझते थे । उनकी प्रार्थिक नीति का संचालन इसी उद्देश्य से होता था, कि कम्पनी की ग्रामदनी में निरन्तर वृद्धि हो। साथ ही, भारत के अंग्रेजी शासक इस देश के धार्मिक विश्वासों व पुरानी पर- म्परानों की जरा भी परवाह नहीं करते थे। इन दशा का परिणाम यह हुआ कि उनके शासन के विरुद्ध भावना इस देश में निरन्तर जोर पकड़ती गई, और १६५७ में यह भावना एक राज्यक्रान्ति के रूप में परिवर्तित हो गई। पर सन् ५७ की यह राज्यक्रान्ति सफल नहीं हो सकी, अंग्रेज लोग इसे कुचलने में समर्थ हुए, और भारत में अंग्रेजी शासन की जड़ें और भी मजबूत हो गई । सन् ५७ की क्रान्ति के बाद भारत का शासन ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। इस विशाल देश पर ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के कारण ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार व शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हुई।


४. क्राउन कालोनी


कनाडा, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका, न्यूजीलैण्ड और न्यू फाउण्डलैण्ड सदृश श्रीप- निवेशिक राज्यों और भारत के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से छोटे-छोटे प्रदेश ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत थे, जो क्राउन कोलोनी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से कतिपय प्रदेश अब तक भी ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत है । उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब नेपोलियन अपने प्राधिपत्य को स्थापित करने में व्यस्त था, समुद्र के क्षेत्र में ब्रिटेन की शक्ति प्रजेय थी। यही कारण है, कि फांस द्वारा अधिगत अनेक प्रदेशों को इस अवसर से लाभ उठाकर ब्रिटेन ने अपने अधीन कर लिया था। 


क्योंकि नैपोलियन के युद्धों के कारण हालैण्ड भी फ्रांस के अधीन हो गया था, अतः अनेक डच प्रदेश भी इस अवसर पर ब्रिटेन ने अपने अधीन कर लिये थे। वीएना की कांग्रेस (१८१४) में जब यूरोप की पुनः व्यवस्था की गई, और नैपो- लियन के साम्राज्य का नये सिरे से निबटारा किया गया, तो इन विविध प्रदेशों को ब्रिटेन ने अपनी अधीनता में रखा, और इस प्रकार से विभिन्न प्रदेश ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत हुए, जो अब क्राउन कोलोनी कहाते हैं। इसी समय मोरिशस का द्वीप ब्रिटेन ने फ्रांस से प्राप्त किया, क्योंकि भारत के सामुद्रिक मार्ग की दृष्टि से यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण था । १८१६ में सिंगापुर ब्रिटेन की अधीनता में या गया। सुदूर पूर्व जाने के सामुद्रिक मार्ग के लिये यह प्रदेश भी अत्यन्त महत्त्व का था । १६३६ में प्रदन पर ब्रिटेन का प्रभुत्व स्थापित हुआ।


यहाँ हमारे लिये यह सम्भव नहीं है, कि ब्रिटेन के सब क्राउन कोलोनियों के सम्बन्ध में उल्लेख कर सकें। इस इतिहास में केवल इतना निर्देश करना पर्याप्त होगा, कि ये कोलोनी एशिया, अमेरिका, अफ्रीका आदि सर्वत्र फैले हुए थे। सुदूर पूर्व के बहुत-से द्वीप ब्रिटेन के अधीन थे। भारत के दक्षिण में सीलोन (लंका) की स्थिति १६४७ तक एक क्राउन कोलोनी के समान ही थी। अटलाण्टिक महासागर में वेस्ट इन्डीज के अनेक द्वीप ब्रिटेन के प्राधिपत्य में थे, और भूमध्य सागर में जिब्राल्टर, माल्टा आदि अनेक प्रदेशों व द्वीपों पर ब्रिटेन का शासन स्थापित था। ब्रिटेन के सामुद्रिक आधिपत्य के लिये ये कोलोनी बहुत उपयोगी थे इन सबके शासन के प्रकार भी एक नहीं थे। कुछ कोलोनी ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त हुए गवर्नर द्वारा णासित होते थे, और उनके शासन में जनता का कोई हाथ नहीं था। कुछ कोलोनी ऐसे भी थे, जिनके शासन में जनता का सहयोग लिया जाता था ।


५. ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य प्रदेश


यूरोप के आधुनिक इतिहास में जितना महत्त्व वहाँ राष्ट्रीयता और लोकतन्त्रवाद के विकास का है, उससे भी कहीं अधिक महत्त्व पश्चात्य देशों द्वारा अपने विशाल साम्राज्यों के निर्माण का है। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक भाग तक एशिया और अफ्रीका के प्रायः सभी देश पाश्चात्य गौराङ्ग लोगों के प्रभुत्त्व व प्रभाव में आ चुके थे। एशिया में केवल जापान ही एक ऐसा देश था, जो किसी भी रूप में पाश्चात्य साम्राज्यवाद का शिकार नहीं हुआ था। विद्या के पुनःजागरण, धार्मिक सुधारणा, व्यावसायिक क्रान्ति और वैज्ञानिक उन्नति के कारण कुछ समय के लिये पश्चिमी यूरोप के राज्य इस स्थिति में आ गये थे, कि संसार के पिछड़े हुए देशों को अपनी अधीनता में लाकर उनपर शासन कर सकें । यूरोप के विभिन्न राज्यों के पारस्परिक युद्धों और उनकी आन्तरिक क्रान्तियों की तुलना मैं पाश्चात्य साम्राज्यवाद की इस सफलता का इतिहास में बहुत महत्त्व है अन्य यूरोपियन राज्यों की अपेक्षा ग्रेट ब्रिटेन को अपने साम्राज्य के विकास में अधिक सफलता प्राप्त हुई थी। कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और दक्षिणी अफ्रीका के रूप में ऐसे विशाल प्रोप- निवेशिक राज्य उसके अधीन थे, जहाँ अंग्रेज लोग स्वेच्छापूर्वक जाकर बस सकते थे और वहाँ की उपजाऊ भूमि और खनिज पदार्थों को खेती, पशुपालन और उद्योगों के लिये प्रयुक्त कर सकते थे । जनसंख्या की जो समस्या जर्मनी और जापान सदृश राज्यों के सम्मुख विद्यमान थी, वह ब्रिटेन के सम्मुख नहीं थी। 


भारत, बरमा, लंका प्रादि कितने ही देश ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत थे, जिनमें अंग्रेज लोग न केवल शासक, अध्यापक सैनिक अफसर, डाक्टर, इन्जीनियर आदि की उच्च नौकरियाँ प्राप्त कर सकते थे, भक्ति वहाँ के कल-कारखानों में पूंजी लगा कर व्यापार द्वारा भी भरपूर धन कमा सकते थे। इ देशों के आर्थिक शोषण का भी ब्रिटिश लोगों को पूरा-पूरा अवसर था रिवायती कर की नीति का उपयोग कर वे अपने देश में तैयार हुए माल को इन देशों में सुगमता के साथ बेच सकते थे, और कच्चा माल इनसे सस्ती कीमत पर प्राप्त कर सकते थे। वेस्ट-इन्टीज, मलाया आदि कितने ही अन्य प्रदेश भी ब्रिटेन के अधीन थे, और बहुत-से ब्रिटिश कोलोनी पृथिवी के सभी भागों में विद्यमान थे । अफ्रीका के बड़े भाग पर भी ब्रिटेन का प्रभुत्व स्थापित था । ब्रिटिश साम्राज्य का यह चरम विकास यद्यपि उन्नीसवीं सदी के अन्त तक पूर्ण हुआ था, पर इसमें सन्देह नहीं कि इसकी नींव अठारहवीं सदी में ही पड़ चुकी थी, और उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग तक इस साम्राज्य ने एक स्पष्ट और सुविकसित रूप प्राप्त कर लिया था।


कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि औपनिवेशिक राज्य किस प्रकार ब्रिटेन के साम्राज्य में सम्मिलित हुए, और भारत पर ब्रिटेन का प्रभुत्व किस प्रकार स्थापित हुम्रा--इस विषय पर हम इसी अध्याय में ऊपर प्रकाश डाल चुके हैं। पर यूरोप के आधुनिक इतिहास में ब्रिटेन के इस साम्राज्य विस्तार का बहुत अधिक महत्त्व है, और विविध यूरोपियन राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भी क्योंकि साम्राज्य-सम्बन्धी संघर्ष पर ही ग्राश्रित थी, अतः यह उपयोगी होगा कि उन अन्य प्रदेशों पर भी संक्षेप के साथ प्रकाश डाला जाए, जिन्हें उन्नीसवीं सदी के मध्य तक ब्रिटेन ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। ये प्रदेश एशिया, अफ्रीका आदि सर्वत्र विस्तृत थे, और भूमध्य सागर, प्रशान्त महासागर, अटलान्टिक महासागर आदि सर्वत्र सैकड़ों की संख्या में ऐसे द्वीप थे जो ब्रिटेन के प्रधीन थे ।


वेस्ट इन्डीज --पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम वर्षों में कोलम्बस ने अमेरिका के विशाल महाद्वीप का पता लगाया था, और सोलहवीं व सतरहवीं सदियों में यूरोप के लोग बड़ी संख्या में इस सुविस्तृत भूखण्ड में अपनी बस्तियाँ बसाने में तत्पर हो गये थे । सतरहवीं सदी के मध्य भाग तक अमेरिका के पूर्वी समुद्र तट के साथ-साथ यूरोपियन लोगों की बहुत-सी बस्तियाँ स्थापित हो गई थीं। इसी समय में अंग्रेजों ने उन द्वीपों में भी बसता प्रारम्भ किया, जिन्हें सामूहिक रूप से 'वेस्ट इन्डीज़' कहा जाता है। इन द्वीपों में बर्मूडा, बार्बडोस, बहामा, एण्टीगुग्रा, नेविस, ट्रिनिडाड, जमैका और सेण्ट क्रिस्टोफर प्रधान हैं। सतरहवीं सदी में ही ये द्वीप ब्रिटेन की अधीनता में आ गये थे, और वहाँ अंग्रेज लोगों ने अपनी बस्तियाँ बसानी प्रारम्भ कर दी थीं। 


इन द्वीपों की भूमि खेती के लिये बहुत उपयुक्त थी । जो अंग्रेज वहाँ जाकर बसे, उन्होंने बड़े पैमाने पर खेती करनी शुरू की। प्रारम्भ में वे खेती के लिये नीग्रो गुलामों पर निर्भर रहते थे । अफ्रीका से नीग्रो लोगों को पकड़कर बड़ी संख्या में इन द्वीपों में ले जाया जाता था, और वहाँ उन्हें गुलाम के रूप में बेच दिया जाता था । बाद में जब दास प्रथा का अन्त हो गया, तो वेस्ट इन्डौज़ के समृद्ध अंग्रेज कृपकों ने भारत के गरीब लोगों के श्रम का उपयोग करना प्रारम्भ किया । अठारहवीं सदी के अन्त तक भारत का बड़ा भाग ब्रिटेन की अधीनता में आ चुका था । अतः उन्नीसवीं सदी में प्रतिज्ञाबद्ध कुली प्रथा के अनुसार भारत के गरीब लोगों को बड़ी संख्या में कुली के रूप में भरती करके ब्रिटिश साम्राज्य के विविध प्रदेशों में भेजा जाने लगा, और बहुत-से गरीब भारतीय वेस्ट इन्डीज़ के विविध द्वीपों में भी खेती के लिये ले जाये गये। इनके लिये



एक निश्चित अवधि तक विदेशों में श्रमिक या कुली के रूप में कार्य करना अनिवार्य होता था, और ये स्वेच्छापूर्वक अपने देश को वापस नहीं या सकते थे। इनकी स्थिति गुलामों से कुछ ही अच्छी होती थी। प्रतिज्ञा व ठेके के अनुसार निश्चित अवधि तक अंग्रेज जमींदार के अधीन कार्य कर चुकने के अनन्तर इन्हें यह अनुमति थी कि चाहें तो अपने देश वापस लौट जाएँ और चाहे स्थायी रूप से वहीं बस जाएँ। वेस्ट इन्डीज के विकास का बहुत कुछ श्रेय इन भारतीय मजदूरों को ही प्राप्त है। यही कारण है, कि वहाँ की आबादी में भारतीयों की संख्या बहुत अधिक है। 


उन्नीसवीं सदी के मध्य तक वेस्ट इन्डीज के विविध द्वीप भलीभांति प्राबाद हो गये थे, और उनकी स्थिति ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत कोलोनियों की थी। पर इस प्रसंग में यह ध्यान में रखना चाहिये, कि वेस्ट इन्टील के सब द्वीप शुरू से ही ब्रिटेन की अधीनता में नहीं थे। क्योंकि अमेरिकन महाद्वीप का पता पहले- पहल कोलम्बस ने लगाया था, और वह स्पेन के राजा की ओर से अपनी यात्रा के लिये गया था, अतः मध्य और दक्षिणी अमेरिका के समान वेस्ट इन्डीज के कतिपय द्वीपों पर भी सबसे पूर्व स्पेन का ही ग्राधिपत्य स्थापित हुआ था। ट्रिनिडाड जैसे अनेक द्वीप पहले स्पेन के ही अधीन थे । पर बाद में बीएना की कांग्रेस (१८१४-१५) द्वारा वे ब्रिटेन को प्रदान कर दिये गये । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक इस क्षेत्र के प्रायः सभी द्वीपों पर ग्रेट ब्रिटेन का आधिपत्य स्थापित हो चुका था।


मारिशस - फीका के पूर्व में मारिशस का द्वीप है, जो अपनी उपजाऊ भूमि के कारण बहुत महत्त्व रखता है। यह पहले फ्रांस के अधीन था, पर विएना की कांग्रेस द्वारा इसे ब्रिटेन ने प्राप्त कर लिया था। ग्रव तक भी मोरिशस में फ्रेंञ्च लोग अच्छी बड़ी संख्या में आबाद हैं । पर इसे अपने प्रभुत्त्व में लाकर ब्रिटेन ने इसकी उन्नति पर बहुत ध्यान दिया, प्रौर प्रतिज्ञाबद्ध कुली प्रथा द्वारा बहुत से भारतीय श्रमिकों को वह ले जाकर बड़े पैमाने पर खेती प्रारम्भ की। मौरिशस की स्थिति भी ब्रिटिश साम्राज्य के एक कोलोनीकार ही थी।


माल्टा - भूमध्यसागर में स्थित माल्टा द्वीप भी ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत है, और एक कोलोनी की स्थिति रखता है । मध्यकाल में यह टर्की की अधीनता में था। फांस के उत्कर्ष के समय यह उसकी अधीनता में आा गया, और बीएना की कांग्रेस के निर्णयों के अनुसार ब्रिटेन को प्राप्त हुआ। तब से यह ब्रिटेन के ही प्रभुत्त्व में है। भूमध्य सागर में स्थित एक अन्य द्वीप साइप्रस भी ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत था, यद्यपि उस पर ब्रिटेन का अधिकार १८७८ में स्थापित हुआ था बलिन की सन्धि (१८७८) द्वारा यह महत्त्व- पूर्ण द्वीप ब्रिटेन को प्राप्त हुआ था ।


जिबराल्टर -- भूमध्य सागर के पश्चिमी भाग में जिवराल्टर की स्थिति है, जो वस्तुतः स्पेन का अंग है। भौगोलिक दृष्टि से इसका बहुत अधिक महत्त्व है। स्पेन की राजगद्दी के सम्बन्ध में जो युद्ध ग्रठारहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में यूरोप में लड़ा गया था, उससे लाभ उठाकर १७०४ में ब्रिटेन ने इस पर कब्जा कर लिया था, और इस युद्ध की समाप्ति पर जब उटरैस्ट की सन्धि (एप्रिल, १७१३) हुई, तो इस पर ब्रिटेन के अधिकार को स्वीकृत कर लिया गया। इसी समय माइनोर्का द्वीप भी ब्रिटेन को प्राप्त हुआ। यह द्वीप भी भूमध्य सागर में स्थित है । जिवराल्टर, माइनोर्का और माल्टा को प्राप्त कर लेने के कारण भूमध्य सागर में ब्रिटेन की शक्ति बहुत अधिक सुदृढ़ हो गई थी । मलाया और सिंगापुर -- दक्षिण-पूर्वी एशिया में मलाया और सिंगापुर ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत थे । 



सोलहवीं सदी के शुरू में पोर्तुगीज लोगों ने व्यापार के लिये इस प्रदेश में थाना शुरू किया था। १५११ में अल्बुकर्क के नेतृत्व में उन्होंने इस प्रदेश में मलक्का पर अपना अधिकार भी स्थापित कर लिया था। सतरहवी सदी में हॉलैंड के लोग इस क्षेत्र में अपने व्यापार का विस्तार करने को प्रवृत्त हुए, और १६१४ में उन्होंने मलक्का को जीत लिया। नेपोलियन के युद्धों के समय जब फ्रांस ने हालैण्ड को अपने प्रधीन कर लिया, तो ब्रिटेन ने (जो नेपोलियन के विरुद्ध युद्ध में यापूत था ) हालैण्ड के समुद्र पार के प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। इसी समय १७६५ में मलक्का भी ब्रिटिश लोगों के हाथों में था गया। वीएना को कांग्रेस (१६१४-१५) के निर्णयों के अनुसार यह बन्दरगाह फिर से डच लोगों ने प्राप्त कर लिया, पर अंग्रेज अब यह जान चुके थे कि दक्षिण- पूर्वी एशिया में अपने व्यापार व प्रभाव का विस्तार करने के लिये इस प्रदेश का बहुत उपयोग है। 


अतः उन्होंने मलाया के प्रत्यतम शासक जैहोर के सुलतान से उस प्रदेश को अन्य कर लिया, जिसमें प्राजकल सिंगापुर स्थित है। भागे चल कर अंग्रेजों ने सिंगापुर को अपनी नाविक शक्ति का पड्डा बनाया, और उसे एक ऐसे दुर्ग के रूप में परिणत कर दिया, जहाँ से वे दक्षिण-पूर्वी एशिया के व्यापारी मार्ग पर अपना कब्जा रख सकते थे। | १८२४ में उन्होंने हार्दण्ड के साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार यह तय किया गया कि मलाया में अपने प्रभाव व प्रभुत्व का विस्तार करने में ग्रेजों को खुली छुट्टी रहेगी और ब्रिटिश लोग सुमात्रा, जावा, यादि इन्डोनेसियन, द्वीपों में डच लोगों को अपनी शक्ति का विस्तार करने देंगे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के क्षेत्र में हालैण्ड ही इस समय एक ऐसा यूरोपियन राज्य रह गया था, जो ब्रिटेन की साम्राज्य-विषयक योजनाओं में बाधा डाल सकता था। उसके साथ समझौता करके सब अंग्रेजों ने मलाया में अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ किया।


उन्नीसवी सदी के मध्य भाग में मलाया में बहुत-से छोटे-बड़े राज्य थे, जो निरन्तर धापस में लड़ते रहते थे। भारत के समान इन राज्यों में भी राजगद्दी के लिये बहुत झगड़े होते रहते थे, और विविध सरदार अपने सुलतान के विरुद्ध विद्रोह कर देने पर तत्पर रहते थे। अंग्रेजों ने इस स्थिति से लाभ उठाया, और मलाया के इन सुलतानों के साथ ऐसी सन्धियों की, जिनसे कि ये राज्य ब्रिटेन की संरक्षा व प्रभुत्त्व में पा गये। इन सन्धियों के परिणामस्वरूप मलाया के विविध राज्यों में ब्रिटिश रेजिडेन्ट नियुक्त किये गये, और उन्हें यह कार्य सुपुर्द किया गया कि वे इन राज्यों के शासन पर नियन्त्रण रखें। ये सन्धियाँ १८७० के लगभग तक की जा चुकी थी, और इनके कारण मलाया के विविध राज्यों की प्रायः वही स्थिति हो गई थी, जो भारत की बड़ौदा, ग्वालियर, इन्दौर आदि रियासतों की थी। पर मलाया के प्रायद्वीप में कतिपय प्रदेश ऐसे भी थे, जो ब्रिटेन के सीधे शासन में थे इन्हें 'स्ट्रेट्स सेटलमेन्ट' कहा जाता था। 


स्ट्रेट्स सेटलमेन्ट के अन्तर्गत निम्नलिखित द्वीप व प्रदेश थे-सिगापुर, मलक्का, पेनांग, बेलजली प्रोविस और डिन्डिग्स। इनमें से पेनांग पर अंग्रेजों ने १७८६ में अपना अधिकार स्थापित किया था, सिंगापुर को १८१६ में जेहोर के सुलतान से क्रय किया गया था, और मलक्का को १८२४ में हालैण्ड के साथ की गई सन्धि ( लण्डन की सन्धि ) द्वारा अधिगत किया गया था। वेलेजली प्रोविस मलक्का के उत्तर में व पेनांग के दक्षिण में स्थित है, और पेनांग के साथ ही इस प्रदेश को भी १७८६ में ग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया था। पेनांग द्वीप प्रौर वेलेजली प्रोविस को अधिगत करने का श्रेय फ्रांसिस लाइट नाम के एक सैनिक अफसर को प्राप्त है, जिसने इन्हें केदाह के सुलतान से प्राप्त किया था। स्ट्रट्स सेटलमेन्ट के ये प्रदेश शासन की दृष्टि से १८६७ तक भारत के साथ सम्बद्ध थे। १८६० में इन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत एक क्राउन कोलोनी के रूप में परिवर्तित कर दिया गया, और इनका शासन ब्रिटिश सरकार के उपनिवेश विभाग (कोलोनियल डिपार्टमेन्ट) द्वारा किया जाने लगा ।


बरमा — उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक भाग तक बरमा एक स्वतन्त्र राज्य था, और प्रावा का राजवंश उस पर सुव्यवस्थित रूप से शासन कर रहा था। यद्यपि यूरोपीयन लोगों ने बरमा के समुद्र तट पर भी अपने अनेक व्यापारिक केन्द्र कायम किये हुए थे, पर देश के शासन पर उनका कोई प्रभाव नहीं था। रंगून में अंग्रेजों की व्यापारिक कोटी विद्यमान थी, जिसे केन्द्र बना कर वे इस देश में अपने व्यापार का विस्तार करने में तत्पर थे। उस समय तक भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शक्ति भलीभाँति स्थापित हो चुकी थी, और पूर्वी भारत के अनेक प्रदेश उसके प्राधिपत्य में प्रा गये थे। 


उधर बरमा में एक ऐसे राजवंश का शासन था, जो प्रायः सम्पूर्ण देश को अपनी अधीनता में ला चुका था और जो आसाम व चटगांव की दिशा में भी अपनी शक्ति के विस्तार में तत्पर था। इस दशा में यह स्वाभाविक था, कि अंग्रेजों और बरमी सरकार में संघर्ष हो । १८१७ में वरमा की सेनाओं ने आसाम पर आक्रमण किया, जहाँ उन्हें अच्छी सफलता मिली। अंग्रेजों के लिये यह सम्भव नहीं था, कि वे बरमा के इस शक्ति प्रदर्शन को सह सकें। परिणाम यह हुआ, कि १८२४ में ब्रिटेन और वरमा का प्रथम युद्ध प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों के जहाजी बेड़े ने रंगून पर कब्जा कर लिया, पर वे बरमा में अधिक आगे नहीं बढ़ सके। इसी बीच में बरमा के सेनापति बन्दुला ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया और वहाँ अंग्रेजी सेनाओं को परास्त किया । दो साल के युद्ध के बाद सन्धि हो गई, जिसके अनुसार अराकान और तनेसरीम के प्रदेश अंग्रेजों ने बरमा से प्राप्त किये। आवा (वरमा की राजधानी) में ब्रिटिश रेजिडेन्ट की नियुक्ति की गई, और बरमा ने १५,००,००० रुपये हरजाने के रूप ब्रिटिश सरकार को प्रदान करना स्वीकार किया। १८२६ की इस सन्धि द्वारा बरमा पर भी ब्रिटिश आधिपत्य का सूत्रपात हो गया था ।


पर १८२६ की यह सन्धि देर तक कायम नहीं रह सकी। व्यापार के निमित्त जो ब्रिटिश व्यापारी रंगून में बसे हुए थे, वे अपने को बरमी लोगों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझते थे । वे वरमी लोगों के प्रति उद्दण्डता का बरताव करते थे। इसका परिणाम यह हुआ, कि बरमा की सरकार ने उनके साथ कठोरता का व्यवहार किया। ब्रिटेन के व्यापारिक हितों की रक्षा के नाम पर १८५२ में ब्रिटिश सरकार ने फिर बरमा के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी। रंगून, प्रोम, पेगू आदि नगरों पर ब्रिटिश सेनाओं का कब्जा हो गया । इस युद्ध के परिणामस्वरूप दक्षिणी बरमा ब्रिटेन के आधिपत्य में आ गया। यद्यपि उत्तरी बरमा पर अब भी आवा के राजवंश का शासन रहा, पर ये राजा अब पूर्णरूप से स्वाधीन नहीं रह गये थे। उनकी स्थिति अधीनस्थ राजाओं के सदृश हो गई थी। आवा में ब्रिटिश रेजिडेन्ट नियुक्त था, और वह देश के शासन में हस्तक्षेप करता रहता था । १८७५ में ब्रिटिश सेनाओं ने उत्तरी बरमा पर भी अाक्रमण किया, और उसे जीत लिया। १ जनवरी, १८८६ को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की, कि बरमा पर ब्रिटिश श्राधिपत्य की स्थापना की जाती है। वहाँ के राजा को गिरफ्तार करके भारत भेज दिया गया, और बरमा को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार वरमा में भी ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई ।


ईस्ट-इन्डीज -- दक्षिण-पूर्वी एशिया के क्षेत्र में जो बहुत-से द्वीप इस समय इन्डो- नीसिया के राज्य में सम्मिलित हैं, यूरोपियन लोग उन्हें पहले 'इस्ट ईन्डीज' कहा करते थे । ईस्ट इन्डीज के बहुसंख्यक द्वीप यद्यपि हालैण्ड के अधीन थे, पर उनमें से कतिपय


ब्रिटिश साम्राज्य के भी अन्तर्गत थे। इस क्षेत्र के द्वीपों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिये मुख्य संघर्ष ब्रिटेन और हालैण्ड के बीच में था। सतरहवीं सदी में ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ईस्ट इन्डीज क्षेत्र के सुमात्रा द्वीप में अपने पैर जमा लिये थे, यद्यपि अन्य द्वीपों पर हालैण्ड को अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई थी। नेपोलियन के युद्धों के अवसर पर ईस्ट इन्डीज के सब द्वीप ब्रिटेन के कब्जे में प्रा गये थे (१८११) । पर वीएना की कांग्रेस द्वारा इन पर फिर से हालैण्ड का प्रभुत्त्व कायम किया गया यद्यपि सुमात्रा का कुछ भाग ब्रिटेन के ही हाथों में रहा । १८२४ की लण्डन की सन्धि के परिणाम- स्वरूप सुमाता का यह प्रदेश भी ब्रिटेन ने हालैण्ड को प्रदान कर दिया, और उसके बदले में मलाया में मनमानी करने का अधिकार प्राप्त कर लिया ।


 पर ईस्ट इन्डीज़ के क्षेत्र में कतिपय अन्य ऐसे प्रदेश हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत रहे। लेबुअन द्वीप (बोर्नियो के उत्तर-पश्चिम में) पर अठारहवीं सदी में ही ब्रिटेन ने अपना स्वत्त्व कायम कर लिया था। इसी प्रकार सरावक भी ब्रिटेन के अधीन था। यह प्रदेश बोर्नियो के उत्तर-पश्चिमी भाग में है । इसे सर जेम्स ब्रुक (१८०३-६८) ने अपने अधीन कर ब्रिटेन का संरक्षित राज्य बनाया था । बोर्नियो द्वीप में ही उत्तरी बोर्नियो के नाम से एक अन्य प्रदेश है, जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन के प्रभुत्त्व में आया। ईस्ट इन्डीज के क्षेत्र में कोकोस द्वीप समूह (सुमात्रा के दक्षिण में) और क्रिसमस द्वीप (जाता के दक्षिण में) अन्य ऐसे प्रदेश हैं, जो ब्रिटेन साम्राज्य के अन्तर्गत हैं ।


 हांगकांग- चीन के समुद्र तट के समीप हांग कांग का द्वीप है, जो प्रशान्त महासागर और पूर्वी एशिया के क्षेत्र में ब्रिटेन की शक्ति का प्रधान केन्द्र है। प्रथम एंग्लो-चाइनीज के युद्ध (१८३९-४२) की समाप्ति पर जब नानकिंग की सन्धि हुई, तो उसके अनुसार यह द्वीप ब्रिटेन के प्रभुत्त्व में आया था। तब से यह द्वीप ब्रिटेन के शासन में है, और उसने अंग्रेज पूंजीपतियों ने बड़ी मात्रा में पूंजी लगा कर वहाँ व्यापार और उद्योगों का बहुत विकास किया है ।

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