सुकरात ( Socrates )
हिंदी में पहली बार ढाई हज़ार शब्दों में सुकरात ( Socrates) पर विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की जा रही है जिसमे आपको ज्ञात होगा कि सुकरात कौन थे ? सुकरात के गुरु का नाम क्या था ? सुकरात के जन्म का स्थान कहाँ है और कब हुआ था . इसके अतिरिक्त दार्शनिक सुकरात ( Philosopher Socrates) किस देश के निवासी थे और सुकरात का शिष्य कौन था? कुछ लोगों को ये भी जानने में रूचि होगी कि सुकरात की पत्नी का क्या नाम था और उनका वैवाहिक जीवन किस प्रकार था. सुकरात की हिंदी पीडीऍफ़ आपको कई जगह उपलब्ध हो सकती है किन्तु यहाँ जो जानकारी दी गयी है वो एक गहन शोध और रिसर्च के द्वारा दी गयी है. तो प्रस्तुत है सुकरात का जीवन परिचय हिंदी में .
Socrates Biography in hindi.
सुकरात (469 ई० पू०) का जन्म यूनान के प्रसिद्ध नगर राज्य एथेंस में हुआ था उनका अंगरेजी में सौक्रेटिस (Socrates) कहते हैं। ये एक गरीब माता-पिता के पुत्र थे। इसके पिता प्रस्तर-शिल्पिक का कार्य करते थे तथा माता दाई का कार्य।
निर्धन और सौन्दर्य में कमी किन्तु प्रतिभावान थे सुकरात
माता-पिता की आर्थिक अवस्था के कारण उनको शिक्षा-व्यवस्था का कुछ प्रबंध नहीं हो सका, अत: युवक सुकरात ने भी मूर्तिकार का ही पेशा अपनाया। परंतु इस कला में उन्हें कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं हो सका। उन्होंने गृहस्थाश्रम में भी प्रवेश किया था तथा उनको संतानें भी थीं। उनका रहन सहन अत्यंत सादा था। वे फटे-पुराने कपड़े पहने, नंगे सिर, नंगे पाँव, हाथ में एक छड़ी लिये एथेंस की सड़कों पर घूमा करते थे। एथेंस में जो सुकरात की मूर्ति का अवशेष मिला है. उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे एक बिल्कुल कुरूप व्यक्ति थे। उनका चेहरा गोल था तथा सिर के बाल उड़े हुए थे। उनकी आँखें गहराई से देखती थी तथा उनकी नाक चौड़ी और लंबी थी।
सुकरात धन और सौंदर्य में भले ही कम थे, परंतु उनके अंदर वर्णनातीत आत्मिक बल था, घोर साहस था, विलक्षण बुद्धि थी और सर्वोपरि उनमें महान् मानवता की अद्भुत अलौकिक शक्ति थी। वे वस्तुतः युग-पुरुष और महात्मा थे। अपने भावी युग को इनके मौलिक विचारों और सिद्धांतों ने अत्यधिक प्रभावित किया है, एक नई चेतना दी है। जगत में वे सर्वदा अमर रहेंगे।
अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था से ही सुकरात उत्तरदायित्वपूर्ण सामाजिक व्यक्ति थे। अपने कर्त्तव्य के प्रति ये बहुत सचेष्ट रहते थे। सामाजिक कार्यों के प्रति इनकी बड़ी लगन थी। इन्होंने सैनिक शिक्षा भी ग्रहण की थी तथा युद्धों में भाग लेकर अपने साहस का परिचय दिया था। एथेंस को कॉसिल ने इन्हें अपना सदस्य निर्वाचित किया था। वे बड़े स्पष्ट वक्ता थे जो एक चरित्रवान् वीर पुरुष का लक्षण है। स्पष्ट वक्ता होने के कारण ही सुकरात को मृत्युदंड मिला। मृत
उसके एक शिल्प इसकी में लिखा है " अब मैं सुकरात की इस प्रकारक मेहरा का है और शरीर का है। जब हम किसी पर कोई प्रभाव नहीं होता परंतु जब हकको प्रभाव पड़ता है। यदि नहीं होता ह सकता हूँ कि प्रकिया है। भाषण सुनने पर मेरा है और मे है।" दिन अन्याओं के हैलोज भएको केलिए बड़ा कार्य किया है। उसके में एथे और 429 ई० पू० मृत्यु मेरे है, लेकिन उनके भाषणो को सुनकर मेरे हृदय में भाषण से होती है। सुकरात को मों को मुस्कर अपने को मैं करता हूँ और कहता हूँ कि मुझे इस प्रकार का जीवन नहीं व्यतीत करना चाहिए। कई बार मैंने सोचा कि क्या ही अच्छा होता पर आता लेकिन यह में ही जानता हूँ कि उसको मौत से खुश होने के बदले मुझे अपार क्लेश होता।" एलडी के इन उद्वारों से यह ज्ञात होता है कि यूनानी समाज में अपने जीवन काल में हो सुकरात कितना सम्मान और मर्यादा प्राप्त कर चुके थे।
सुकरात शिक्षा को व्यक्ति के विकास का आधार मानते थे। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य को वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि होगी, ऐसा उनका विश्वास था व्यक्ति को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति वास्तविक शिक्षा ही करा सकती है-इस सिद्धांत का पोषण महात्मा सुकरात ने किया। वे मानव-समाज में फैली हुई कुरीतियों एवं कुप्रभावों के नाश के इच्छुक थे। वे मानव का कल्याण चाहते थे। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से गलती नहीं करता, सुकराती दर्शन की यही विशेषता है। इस प्रकार अज्ञानता ही गलत कार्य का मूल है। दूसरे शब्दों में, सही कार्य हो जान है।
उनका विचार था कि अंदर विचार करने की शक्ति उत्पन्न करने में ही प्राप्ति के क्षेत्र कोआत्मशीलन तथा आत्मपरीक्षण में भक्ति में चिंतन-शक्ति (Power of thinking) उत्पन्न करना थे। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अंदर सदाचार, सचाई, मैत्र बुद्धि एवं विवेक की शक्ति विद्यमान है, परंतु इसको प्रस्फुटित और विकसित करने श्री ज्ञान में ही है
सुकरात व्यक्ति का self) कराना चाहते थे। 'अपने-आप को जाना अपने आप को Know Thyself) हो सुदर्शन प्रमुख है। अपने-आपको वो अपने आप को पहचानना हो मनुष्य जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। शिक्षा के कार्यकलाप उसी उद्देश्य की मूर्ति के होते हैं। सुकरात के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य यह होना चाहिए कि मनुष्य में वह इतनी योग्यता और क्षमता प्रदान करे कि हम अपने-आप को जानते और समझने में समर्थ
सुकरात मनुष्य को नकारते थे। इसके लिए उन्होंने शिक्षा को आधार बताया की वही व्यक्ति हो सकता है, जो मनुष्य मनुष्य के संबंधों की शक्ति रखता है. सुख-शांति के साथ सामाजिक जीवन चाहता है तथा जनता की बात नहीं करता। यह समझ कर शीतपूर्ण व्यवहार करता है। परंतु यह सच्ची शिक्षा से ही संभव है। अपने तर्क एवं अनुभव द्वारा सुकरात ने यह निश्चय किया कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है, नैतिक जीवन व्यतीत करना यूरोप में नैतिकता की स्थापना करने का श्रेय उनको ही है। सोफिस्टों के कुप्रभाव से नैतिकता की भावना का ह्रास होने लगा था। सुकरात की शिक्षा ने इसका पुनरुद्धार किया।
'अपने को जानो' सुकराती शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है। वैसे तो अपने को सभी जानते हैं, परंतु वास्तविक रूप में अपने को बहुत कम लोग जानते हैं। जो लोग अपने को जानते हैं, उन्हें अपनी शक्तियों और दुर्बलताओं के संबंध में कोई संदेह नहीं होता। वे अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और विचारों का विश्लेषण भलीभाँति कर सकते | सुकरात यह नहीं चाहते थे कि कोई व्यक्ति बिना समझे- मुझे किसी विचार या सिद्धांत को अपनाये जब लोग बिना विचार किए किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब उनसे भूल हो जाना अथवा कुरीतियों का प्रसार होना स्वाभाविक है। अतः, सुकरात सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए व्यक्ति में तर्क और विचार करने की शक्ति तथा अपने को जानने की योग्यता
उत्पन्न करना चाहते थे। उनके विचार से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग तक है। उन्होंने ज्ञानार्जन के लिए जिस 'तार्किक विधि' (Dialectic) का अपनाया, वह आज भी सर्वमान्य है। कुशलतापूर्वक प्रश्न करना और उनका उत्तर प्राप्त करना ज्ञान-प्राप्ति में अधिक सहायक होता है।
अपनी शिक्षा की उपर्युक्त वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुकरात ने अपनी एक विशेष प्रकार की पद्धति (शिक्षा-पद्धति) का प्रचलन किया, जहाँ प्रश्नोत्तर की सहायता से सत्य का ज्ञान कराया जाता था। से व्यक्ति को स्वयं कुछ नहीं बतलाते थे, अपितु प्रश्न एवं उत्तर के माध्यम से, विचार एवं तर्क के आधार पर वस्तुस्थिति का पता लगाया जाता था। सुकराती शिक्षण विधि का लक्ष्य सत्य को प्रस्तुत करना नहीं, अपितु सत्य की खोज करना था। उन्होंने अपने शिष्यों को कभी नहीं कह कि "जो मैं कहता हूँ यही सच्चा है, वही ज्ञान है।" बल्कि उन्होंने उनकी धारणाओं को दोषपूर्ण बतलाकर सत्य की खोज करने की उत्प्रेरणा दी। उनको विधि आत्म चिंतन को उत्प्रेरित करती है। उन्होंने अपने को ज्ञानी नहीं माना। जो उन्हें ज्ञानी कहता था, उसकी वे भर्त्सना करते थे।
वे अपने को 'ज्ञान का प्रेमी' फिलॉसफर, (Philosopher) कहते थे। उनकी शिक्षण विधि, अनुसंधान की विधि या सत्य की खोज की विधि थी खोज का साधन था- आत्म-चिंतन, अपने अनुभवों का विश्लेषण और परीक्षण वे न तो दूसरों से प्राप्त ज्ञान की पुनरावृत्ति करते थे, न करवाते थे। वे जीवित समस्याओं की तह में जाकर उनकी आत्मा को पहचानने का मार्ग प्रदर्शित करना चाहते थे। उनके शिक्षण का बाह्यात्मक स्वरूप 'बातचीत' थी। इस बातचीत में ही वे ज्ञानार्जन का मार्ग इतना प्रशस्त बना देते थे कि छात्र इस मार्ग का अनुसरण कर अपना लक्ष्य पहचानने में समर्थ हो जाता था। वस्तुतः उनका यश उनकी बातचीत की इस सरल विधि पर ही आश्रित है।
सुकरात किसी व्यक्ति से या अपने शिष्यों से बातचीत के किसी प्रसंग पर प्रश्न करते थे- "यह संसार क्या है ? सत्य क्या है ? मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? हम कौन हैं ? मृत्यु क्या ?" आदि। मार्ग में चलते-चलते वे व्यक्तियों से प्रश्न करते थे–'तुम जानते हो कि सुख क्या है? न्याय का अर्थ क्या है ? जीवन क्या है ?" इस प्रकार प्रश्न कर वे अपने शिष्यों को वास्तविकता का ज्ञान देते थे तथा उन्हें बतलाते थे कि उनकी धारणाएँ कितनी भ्रामक हैं और वे किस प्रकार बिना समझे बुझे भावों तथा शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रणाली से उनके शिष्य सचमुच यह अनुभव करते थे कि उन्होंने बिना विचारे किताबी बातें की हैं। इस प्रकार सुकरात अपनी पद्धति द्वारा सर्वप्रथम भ्रम को दूर करते थे तथा बाद में विचार द्वारा निष्कर्ष पर पहुँचते थे।
सुकरात की शिक्षा पद्धति में भाषण करना नहीं था। आज की वर्तमान लेक्चर मेथड से उनकी पद्धति सर्वथा भिन्न थी। वे एक अज्ञानी की भाँति प्रश्न करते थे तथा प्रश्नोत्तर की शैली में किसी विषय के संबंध में उनके शिष्य ज्ञान प्राप्त करते थे। इससे लाभ यह होता था कि शिष्यों का भ्रम किसी विषय के संबंध में नहीं रह जाता था। उनका सुलझा हुआ विचार स्थायी होता था। अपने अनुभव, विचार और तर्क की सहायता से उन्हें स्पष्ट और वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता था ।
शिक्षाशास्त्र में सुकराती विधि एक अत्यंत उपयोगी विधि है। आज उसका विकास प्रश्नों द्वारा होता है। प्रश्नों की सहायता से सिद्धांत निकलवाए जाते हैं। विद्यार्थियों ने कितना समझा और कितना धारण किया, इसके लिए बोधात्मक और धारण के प्रश्न किए जाते हैं। प्रश्नों के करने से बालक सावधान और सजग होते हैं। बौद्धिक विकास के लिए प्रश्न करना उचित है। बौद्ध शिक्षा प्रणाली में भी तर्क के आधार पर बालकों के मानसिक वर्द्धन की चेष्टा की जाती थी। बौद्धकाल में तर्क- प्रणाली का सर्वाधिक प्रयोग होता था।
सुकरात की यह उपर्युक्त विधि 'डाइलेक्टिक' (Dialectic) कही गई है। डाइलेक्टिक वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा धारणाओं से प्रत्ययों का निर्धारण होता है। यह चिंतन की रीति है, जिसके द्वारा ज्ञान अथवा सत्य की प्राप्ति होती है। इस विधि का बाह्य रूप बातचीत थी, परंतु यह बातचीत एक निश्चित उद्देश्य से एक निश्चित दिशा की ओर संचालित रहती थी। इस प्रकार यह बातचीत वस्तुतः एक विवेचनापूर्ण तार्किक संभाषण (Discourse) थी, जो आगमन शैली पर संयोजित होकर जीवन से संबंधित एक व्यापक सत्य के निर्धारण में परिणति पाता था। सुकरात के शिष्य, प्लेटो के अनुसार, डाइलेक्टिक चिंतन की एक पद्धति है जिसके द्वारा अनुभवों तथा रोजमर्रे की स्थितियों के परीक्षण से सामान्य सिद्धांतों का निर्धारण होता है, जिसके प्रकाश में व्यक्ति अपने कार्यों को नैतिक आधार प्रदान करता है।
सुकरात मनुष्य के अंदर उन गुणों को विकसित करना चाहते थे, जो जीवन की सफलता के लिए आवश्यक थे। उनकी धारणा थी कि वर्तमान एथेंसवासियों के जीवन में कुरीतियाँ आ गई हैं, वे गुमराह हो गए हैं। एथेंस के नवयुवकों को अच्छी शिक्षा की जरूरत है, जिससे वे विलासिता के जीवन को ही नहीं अपनावें, अपितु नैतिक कर्मनिष्ठ जीवनयापन में संलग्नशील बनें। सुकरात का विचार था कि मनुष्य को दुःख अज्ञान के कारण मिलता है। यदि उनमें ज्ञान ज्योति का प्रकाश हो जाए, तो उसके दु:ख नष्ट हो जाएँ। अतः, वे विद्यार्थियों को उन विषयों की शिक्षा देना चाहते थे, जो दैनिक जीवन के लिए उपयोगी हों तथा जिनके माध्यम से सफल जीवन की ऊँची इमारत खड़ी हो सके ।
सुकरात को मनुष्य के व्यावहारिक जीवन का पूरा ज्ञान था। इसलिए सुकराती शिक्षा-प्रणाली में मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार को समझने के लिए मनाविज्ञान, मानसिक विकास के लिए काव्य, संगीत और नृत्य, बौद्धिक विकास के लिए नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, दर्शन और धर्म, भाव-विकास के लिए संगीत तथा शारीरिक विकास के लिए जिमनास्टिक-जैसे विषय निर्धारित किए गए थे। वे व्यक्ति का बौद्धिक एवं नैतिक विकास चाहते थे तथा इसके लिए मनुष्य में विवेक तथा संयम का होना आवश्यक समझते थे। वे संगीत को मनुष्य-जीवन का एक आवश्यक तथ्य मानते थे । संगीत मस्तिष्क को परिष्कृत करता है तथा उसे चिंतामुक्त बनाता है । सुकरात के शिष्य प्लेटो तथा प्लेटों के शिष्य अरस्तू, तीनों ने बालकों के लिए संगीत की शिक्षा का विधान किया है।
सुकरात की प्रणाली केवल आचार-संबंधी सत्यों के विश्लेषण और अध्ययन उपयुक्त है परंतु विज्ञान, गणित, इतिहास, भाषा तथा साहित्य के क्षेत्र में उनकी में शिक्षण-विधि सफल नहीं हो सकेगी। यह पद्धति उसी विषय के अध्ययन में सहायक और उपयोगी है, जिसका जिज्ञासु को कोई अनुभव या पूर्व ज्ञान है, परंतु जिन विषयों का अनुभव या पूर्व ज्ञान नहीं है, उसके संबंध में प्रश्न या कोई विचार उपयुक्त नहीं हो सकेगा। सुकराती पद्धति सभी विषयों के अध्ययन में प्रयुक्त नहीं हो सकती। इस विधि का प्रयोग उचित प्रकार से नहीं होने पर त्रुटियाँ भी आ सकती हैं । प्रायः प्रश्नों की शैली अस्पष्ट होती है। प्रश्न सांकेतिक हो जाते हैं । प्रश्नों के उत्तर प्रसंग से संबंधित नहीं होते। उत्तर में विद्यार्थी विध्वंसात्मक आलोचना करने लगते हैं। तर्कपूर्ण प्रश्नों की कमी के कारण विद्यार्थियों में मौलिकता नहीं आती । इसमें प्रायः अध्यापक की योग्यता प्रधान होनी चाहिए कि किस ढंग से वह प्रश्न करे, ताकि बालकों में आत्म-निर्भरता आवे, वे उत्तर की खोज करें तथा इसके लिए अपने ज्ञान का प्रयोग करें ।
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