4000 शब्दों में अरस्तू की जीवनी और प्लेटों से तुलना Aristotle Biography in hindi.

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Aristotle Biography in hindi.

 - अरस्तु का जीवन परिचय क्या है? हिंदी में अरस्तू की जीवनी में प्रकाश डालते हुए हम जानेंगे कि अरस्तू का जन्म कब कहाँ और कैसे हुआ? 

प्लेटो और अरस्तु के सिद्धांतों की तुलना जानिये.

अरस्तू का हिंदी में जीवन परिचय दिया गया है एक सम्पूर्ण जानकारी के साथ. 

अरस्तु का सिद्धांत क्या है ?

अरस्तू के बारे में विस्तृत में hindi में जानकारी है अत:  अरस्तू हिंदी  डीऍफ़ बुक की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी आप इसे ही अरस्तु की हिंदी  जीवनी पीडीऍफ़ बुक बना सकते हैं.

  


                                                                               Creator: Hubertl

अरस्तू (ई० पू० 384 ई० पू० 322) यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक और महान् शिक्षाशास्त्री थे। एथेंस की अकादमी में प्लेटो (ई० पू० 420-ई० पू० 348) का शिष्यत्व ग्रहण करने के पहले उन्होंने मैसेडन के वैज्ञानिक स्कूलों में तथा अपने पिता के पास शिक्षा पायी थी। वे लग्नशील और विद्याव्यसनी विद्यार्थी थे, जिसके कारण प्लेटो उनको 'रीडर' कहते थे। अरस्तू का 'रीडर' शब्द द्वारा संबोधित होना, वह भी प्लेटो-जैसे श्रेष्ठ कोटि के विचारक द्वारा, उनकी विद्याभिमुखता और अध्ययनशीलता का द्योतक तथा परिचायक है ।


अरस्तू अपने युग के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् और दार्शनिक थे। उनका जन्म एथेंस से लगभग दो सौ मील उत्तर की ओर स्टैगरा नामक स्थान में ईसा से तीन सौ चौरासी वर्ष पूर्व हुआ था। उनके पिता यूनान देश के निवासी थे, परंतु जीविका- प्राप्ति हेतु मैसेडोनिया में बस गए थे। वे राजा फिलिप के चिकित्सक थे और मित्र भी। अरस्तू ने भी चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया था। उन्हें अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही विज्ञान के ज्ञानार्जन का भी सुअवसर मिला था।


अरस्तू के प्रारंभिक जीवन के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। संभवत: उन्होंने अपना पैतृक धन, युवा अवस्था में ही समाप्त कर दिया था और जब अर्थ का कष्ट सहने लगे, तो सेना में नौकरी कर ली। तत्पश्चात् अपनी जन्मभूमि स्टैगरा में लौट आए थे। वहीं चिकित्सा कार्य करने लगे। कुछ समय बाद तीस वर्ष की अवस्था में प्लेटो के पास गए और दर्शनशास्त्र का अध्ययन-मनन करने लगे। ऐसा भी कहा जाता है कि वे प्लेटो के पास अठारह वर्ष की अवस्था में अध्ययनार्थ पहुँचे थे। जो भी हो, वे प्लेटों के अत्यधिक प्रिय शिक्ष्य थे और मेधावी तथा अध्ययनशील होने के कारण ही प्लेटो उनको 'रीडर' शब्द से संबोधित करते थे 


अरस्तू अत्यंत प्रभावशाली युवक थे और प्लेटो-जैसे दार्शनिक शिक्षक से जब उनका साक्षात्कार हुआ, तो उनकी प्रतिभा विशेषरूपेण प्रस्फुटित एवं पल्लवित हुई। प्लेटो ने भी अपने शिष्य को बड़ी लगन से पढ़ाया। इसका सुफल हुआ कि अरस्तू, प्लेटो से भी अधिक उन्नति कर सके। अरस्तू को विद्वता, विद्या- व्यसन की तल्लीनता और उन्मुखीकरण के संबंध में ऐसी कथा है कि उन्होंने अपना धन बेच कर एक पुस्तकालय की स्थापना की थी। स्मरण रखना चाहिए कि यह वह जमाना था, जब पुस्तकें मुद्रित नहीं होती थीं, अपितु हस्तलिखित हुआ करती थीं। अतः, पुस्तकों का मूल्य अधिक होता था। मुद्रण कला का उस समय आविष्कार ही नहीं हुआ था। अरस्तू को जब कभी कोई लेख या पुस्तक मिल जाती थी, वह उसे खरीद लेते थे और उसके आधार पर 'खोज' (Research) करना प्रारंभ करते थे। ऐसी थी अरस्तू की ज्ञान-पिपासा ।


प्लेटों की मृत्यु के पश्चात् 'अकादमी' के लिए आचार्य की नियुक्ति का प्रश्न उठा । अरस्तू इस पद के लिए सर्वाधिक योग्य एवं दक्ष व्यक्ति थे, परंतु एथेंस में वे विदेशी समझे जाते थे; क्योंकि उनके पिता यूनानी थे। ऐसी अवस्था में प्लेटो के भतीजे को 'अकादमी' का आचार्य पद प्रदान किया गया। इस घटना से अरस्तू को मानसिक क्लेश हुआ और वे एथेंस छोड़ कर चले गए। एथेंस से बाहर ही उन्होंने अपनी शादी की। उनकी स्त्री, उनके पुराने सहपाठी हरमिसिपस की भतीजी थी। कुछ वर्ष पश्चात मैसेडोनिया- नरेश फिलिप ने अपने पुत्र सिकंदर को पढ़ाने के लिए अरस्तू को आमंत्रण दिया। उन्होंने यह आमंत्रण स्वीकार किया तथा अपनी जन्मभूमि पर पुनः आ गए। 


उन्होंने सिकंदर को चार वर्ष तक पढ़ाया। सिकंदर अपनी किशोरावस्था में बहुत उच्छृंखल युवक था। पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था परंतु, अरस्तू के संपर्क में आने पर उसमें संयम का विकास हुआ। सिकंदर अरस्तू का बहुत सम्मान करता था और उन्हें अपने पिता के समान आदर देता था। उसने कहा भी था " अपने जीवन के लिए मैं अपने पिता का और जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए, इसके लिए अरस्तू का ऋणी हूँ।"


सिकंदर को शिक्षा देने के पश्चात् अरस्तू यात्रा करने निकल पड़े और बहुत दिनों तक भ्रमण करने के बाद एथेंस लौट आए। उनके जीवन का अंतिम भाग कलेशपूर्ण कहा जाएगा। उन्होंने एथेंस में 'लिसियस' नामक विद्यालय की स्थापना की थी। यहाँ वे इस विद्यालय के संस्थापक आचार्य के रूप में रहते थे। इस विद्यालय में धनी वर्ग के युवक भाषण कला की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे; क्योंकि अरस्तू एक अत्यंत योग्य शिक्षक थे। मैसेडोनिया नरेश सिकंदर बहुत महत्त्वकांक्षी व्यक्ति था। उसने अपने राज्य को विस्तृत करने की इच्छा की। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उसने यूनान पर आक्रमण किया। 


एथेंस की पराजय हुई और वह मैसेडोनिया के अधीन हो गया। अरस्तू की समझ में भी यही अच्छा था कि यूनान के नगर राज्यों की समाप्ति हो जाए और वे एक शासन के अधीन हों। अरस्तू और सिकंदर के इस विचार में साम्य था। अरस्तू सिकंदर के शिक्षक थे, और सिकंदर ने अपने गुरु की प्रतिमा एथेंस नगर के केन्द्र में स्थापित की थी। इस घटना से भी एथेंसवासी विशेष क्षुब्ध थे। इनकी राय में अरस्तू विदेशी थे. अतः वे अरस्तू को अपना शत्रु मानते थे। एथेंसवासी अपनी खोयी हुई आजादी पुनः प्राप्त करने में सचेष्ट थे। इसी अवधि में सिकंदर की मृत्यु हो गई। एथेंस में क्रांति हुई और वह मैसोडोनिया के प्रभुत्व से मुक्त हो गया। अरस्तू पर दोष लगाया गया और उन्हें दंड का भागी ठहराया गया। फलस्वरूप उन्होंने एथेंस छोड़ दिया।


अरस्तु के अनुसार कोई राज्य तभी सदाचारी हो सकता है, जब उसके शासन-कार्य में भाग लेनेवाले नागरिक सदाचारी हों और राज्य के सभी नागरिक शासन में भाग लेते हों। इस प्रकार राज्य के सभी नागरिकों के लिए सदाचारी होना परमावश्यक है। परंतु, सदाचार तथा अच्छाई स्वतः नहीं उद्भूत होती, वे ज्ञान तथा प्रयोजन के प्रतिफल हैं। ज्ञान तथा प्रयोजन शिक्षा के ही आधार पर अवलंबित हैं।


अरस्तू केअनुसार जीवन का उद्देश्य अच्छाई (Goodness) नहीं, वरन् आनंद है। उन्होंने अपने दार्शनिक विचारों और सिद्धांतों द्वारा जीवन में आनंद की प्राप्ति पर जोर दिया है। व्यक्ति तथा समाज दोनों दृष्टिकोणों से उन्होंने शिक्षा का उद्देश्य आनंद की प्राप्ति बतलाया है। इस आनंद की उपलब्धि व्यक्ति की संपूर्ण नैसर्गिक शक्तियों के संतुलित कार्यकलाप द्वारा चेष्टावान् होने पर होना चाहिए, जो कि सम्यक् कार्य पर निर्भर है। जब व्यक्ति यह सब कर ले. तभी वह आदर्श व्यक्ति बन सकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'एथिक्स' में आदर्श व्यक्ति की परिभाषा देते हुए इस आशय के शब्द लिखे हैं :-


"एक आदर्श व्यक्ति बिना किसी कारण के अपने को संकट में नहीं डालता: क्योंकि ऐसी वस्तुएँ बहुत कम हैं, जिनके लिए उसे चिंता करनी पड़ती । परंतु, अवसर आने पर वह अपनी जान भी देने को तैयार रहता है; क्योंकि वह जानता है कि कतिपय परिस्थितियों में मृत्यु, जीवन धारण करने से भी अधिक श्रेष्ठ है। वह दूसरों की सेवा करने के लिए सर्वदा तत्पर रहता है तथा दूसरों से अपनी सेवा कराने में लज्जित होता है। किसी पर दया करना श्रेष्ठता है, परंतु दया का पात्र बनना लघुता ।... वह क्या चाहता है और क्या पसंद करता है, यह स्पष्ट होता है। वह बिना हिचक के साफ-साफ बाते…के हिमायती नहीं थे। 


विचार 


शारीरिक विकास के लिए वे अधिक परिश्रम के पक्ष में नहीं थे; क्योंकि उनका विश्वास था कि "अधिक शारीरिक परिश्रम से मस्तिष्क थक जाता है और बौद्धिक परिश्रम से शरीर ।" उनका यह भी कहना था कि सैनिक शिक्षण से मनुष्य निर्दय हो जाता है। सात से चौदह वर्ष तक के किशोर को पढ़ना-लिखना, चित्रकला और संगीत के साथ-साथ व्यायाम तथा खेल-कूद की शिक्षा देनी चाहिए। चित्रकला से कलात्मक विचार-निर्णय आता है तथा संगीत से कई प्रकार के संवेगों का विकास होता है। चौदह के बाद इक्कीस वर्ष तक में गणित, ज्यामिति और खगोल की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। इक्कीस वर्ष के बाद अरस्तू ने राज्य कार्य में भाग लेने के लिए युवकों के लिए नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान और राजनीति का अध्ययन आवश्यक बतलाया है।


अरस्तू की दृष्टि में शिक्षा नागरिकता का विकास करती है और सच्ची नागरिकता के और बुरी बातों के प्रति घृणा उत्पन्न करता है। संगीत आनंद और आराम के लिए होता है। यह निर्दोष सुख का साधन है। इससे श्रम से उत्पन्न थकान दूर होती है, इससे भावनाओं का शुद्धिकरण होता है, इसके सहारे अवकाश का उचित उपयोग होता है तथा यह नैतिकता की वृद्धि एवं चारित्रिक उन्नति का उपकरण है। अतः, नौजवानों की शिक्षा में संगीत को समुचित स्थान दिया जाना चाहिए।


'Music has the power of forming the character, and could, therefore, be introduced into the education of the young.

(Politics- VIII. 5)


परंतु, सर्वदा ही यह ध्यान में रखना है कि परिपक्वावस्था में जो कार्य नागरिकों को करना है, उससे कहीं उनकी दृष्टि हट नहीं जाए। संगीत को सर्वदा संयम के साथ सोखना है, जिससे सैनिक और नागरिक प्रशिक्षण से विरति नहीं पैदा हो जाए। अतः, उत्तेजक और शिथिलकारी संगीत को छोड़कर संगीत-विद्या के विषय में मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए, जिससे उतनी योग्यता हो जाए कि दूसरों की सुंदर समन्वयकारी वृत्तियों का उचित सम्मान किया जा सके। चारित्रिक विकास के लिए अरस्तू लिखियन और स्पार्टा (डोरियन) के संगीतों के हिमायती हैं। 


जिनसे केवल वासनामूलक सुखोपलब्धि होती है, उन समस्त वाद्ययंत्रों को अरस्तू बहिष्कार चाहते हैं। प्लेटो का भी विचार था कि अधिक संगीत से मनुष्य इतने कोमल स्वभाव का हो जाता है कि वह किसी काम का नहीं रहता। अतएव, 16 वर्ष की आयु के पश्चात् विद्यार्थी को संगीत का व्यक्तिगत अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए और केवल सामूहिक संगीत में भाग लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्लेटो का यह भी विचार था कि संगीत का समन्वय अन्य विषयों से होना चाहिए। उदारहरणत: गणित, विज्ञान और इतिहास की शिक्षा सुन्दर गीतों द्वारा रोचक बनायी जा सकती है।


अरस्तू के विचारानुसार, प्रारंभिक अवस्था से ही शिशुओं को दृढांग बनाना है। शिक्षा निदेशक राज्य द्वारा नियुक्त हों और उनका यह कार्य हो कि कहानियों एवं कथाओं का इस दृष्टि से नियंत्रण करें जिन कार्यों को भविष्य में करना है, उन कार्यों को करने के लिए ही बालकों का मस्तिष्क तैयार हो। बालकों के भ्रमण और उनकी भाषा पर ध्यान रखना चाहिए, जिससे वे कोई अशोभनीय बात नहीं सीख जाएँ। बच्चों की भावना और सद्-असद् समझने की वृत्ति को जागरूक बनाना भी आवश्यक है। गंदे और लड़ाई-झगड़े के खेल, अनुपयुक्त कहानियाँ, बुरी भाषा और अश्लील चित्रों का प्रतिरोध होना चाहिए। बच्चों के लिए स्वास्थ्यप्रद भोजन, वस्त्र और व्यायाम की व्यवस्था होनी चाहिए। परंतु, अरस्तू दुर्बल और कुरूप बच्चों को मार डालने के पक्ष में हैं।


अरस्तू के शिक्षा दर्शन में कई महत्त्वपूर्ण विशेषताओं की विस्तृत विवेचना की गई है। एबी और ऐरोकड ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऐंड फिलॉसफी ऑफ एडुकेशन' के पृष्ठ 44 पर लिखा है-"शिक्षा-विधि के क्षेत्र में अरस्तू की देन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।" (In the field of educational method, Aristotle made the most positive contribution.-Eby and Arrowood- History and Philosophy of Education, Page 44)


उन्होंने राज्य और जीवन-दर्शन की अच्छी मीमांसा की है। सद्वृत्तिमूलक शील प्रसाधक जीवन-दर्शन के अभाव में राज्यकर्म समुचित रूप से नहीं हो सकता। अरस्तू की मान्यता है कि शीलपूर्ण कर्म ही व्यक्तियों और राज्यों का लक्ष्य है। उनका प्रस्ताव है कि भावी नागरिकों के स्वास्थ्यवर्द्धन के साथ-साथ प्रारंभिक अवस्था से ही शील का अभ्यास कराना चाहिए। सत्य, न्याय, साहस, संयम, उदारता आदि गुणों को धारण करना परम आवश्यक है। भावी नागरिकों को वह पुष्ट, दृढ़ांग और उदाराशय बनाना चाहते हैं। बालक का शरीर पुष्ट और मजबूत हो, इसके लिए आवश्यक है कि उसके माता-पिता भी सबल और मजबूत हों। बर्बरता से हट कर समस्त विषयों में रसानुभूति का आस्वादन करना ही शिक्षित नागरिकों का स्वभाव होना चाहिए ऐसा अरस्तू प्रतिपादित करते हैं। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा का समर्थन भी किया है।


अरस्तू को वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति बहुत पसंद थी। उन्होंने इस तथ्य से अवगत कराया कि वास्तविक ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव तथा रीति के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। शिक्षा प्रदान करने की उनकी दो पद्धतियाँ- 'आगमन-पद्धति' तथा 'ज्ञात से अज्ञात की ओर' आज आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों द्वारा सर्वथा मान्य हैं। अरस्तू यह चाहते थे कि किसी विषय के संबंध में स्थायी ज्ञान प्रदान करने के हेतु सभी बातों का ज्ञान कराकर बालक द्वारा ही निष्कर्ष निकलवाया जाए। इस पद्धति को 'आगमन पद्धति' कहते हैं। अरस्तू की यह शिक्षा-पद्धति अनुभव, विचार और तर्क पर आधारित है। ज्ञान के अनुभवाश्रित होने के कारण ही उन्होंने इंद्रियों को ज्ञानार्जन का महत्त्वपूर्ण साधन माना है। इंद्रियों के आधार पर ही हम वस्तुविशेष को पकड़ पाते हैं और इसके आधार पर ही सामान्य नियम का निरूपण करते हैं।


अरस्तू की शिक्षा-पद्धति में दूसरा सिद्धांत 'ज्ञात से अज्ञात की ओर' है। जब विद्यार्थी को किसी विषय की शिक्षा देनी हो, तो उसके लिए ज्ञात-ज्ञान के आधार अज्ञात विषय की ओर ले जाने की पद्धति प्रयोग में लायी जाए, जिससे बालक के समझने और तर्क करने की शक्ति को बल मिले।


प्रत्यक्ष अनुभव :


अरस्तू की शिक्षा-पद्धति का प्रधान आधार 'प्रत्यक्ष अनुभव' (Direct Experience) था । प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ज्ञान-ग्रहण पर अरस्तू ने सर्वाधिक बल दिया है। उनका विचार था कि बालक को जो भी ज्ञान प्रदान किया जाए, वह प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा हो। अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी और ठोस होता है तथा हमारे भावी जीवन में भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना रहता है। पुस्तकीय ज्ञान का 'जीवन' से गहन संबंध नहीं स्थापित होता । अरस्तू का विचार था कि बालक की शिक्षा अनुभव के आधार पर निर्भर होनी चाहिए।


अरस्तू के इस विचार का पोषण परवर्ती युग में प्रायः सभी शिक्षाशास्त्रियों ने किया है। अठारहवीं शताब्दी में प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्रियों ने भी इस तथ्य से असहमति प्रकट की है कि बालकों को पुस्तकें रटा कर उन्हें अत्यधिक पुस्तकीय ज्ञान प्रदान किया जाए। तत्कालीन प्रचलित शिक्षा प्रणाली में बालकों को 'ग्रीक' तथा 'लैटिन' की पुस्तकें रखनी पड़ती थीं। कभी-कभी ऐसा होता था कि बालक समझते बिल्कुल नहीं थे, परंतु उन्हें पूरी पुस्तक जबानी स्मरण होती थी। प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्रियों ने इस बात का घोर विरोध किया। उन्होंने पुस्तकों की अपेक्षा प्रकृति के अध्ययन पर विशेष बल दिया। रूसो का तो यहाँ तक कहना था कि बालकों को पुस्तकें मत पढ़ाओं, उन्हें प्रकृति के अनुकूल वातावरण में विचरण करने दो। प्रकृति उन्हें शिक्षा प्रदान करेगी। पेस्तलॉजी ने जिस 'स्वानुभूति के सिद्धांत' का प्रतिपादन किया है, उसकी कल्पना अरस्तू अपने 'प्रत्यक्ष अनुभव' के सिद्धांत में पहले ही कर चुके थे। मुनरो के ये शब्द अरस्तू की शिक्षा-मर्मज्ञता को सर्वदा उद्घोषित करते रहेंगे-


"Aristotle was one of those Greek educational theorists that had the greatest influence upon subsequent times."-Monroe.


मनोविज्ञान की प्रमुखता :


अरस्तू ने शिक्षा का उद्देश्य निश्चित करते समय बालक के स्वभाव और मनोविज्ञान को भी ध्यान में रखा है। प्लेटो ने व्यक्ति के मनोविज्ञान का जो अध्ययन आरंभ किया था, उसे अरस्तू ने वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा पूरा किया। आरंभ में बालकों में इंद्रियजन्य संवेदन और भावनाओं की प्रधानता होती है। उनमें अनुकरण, उत्सुकता, स्पर्धा आदि की प्रवृत्तियाँ होती हैं। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालकों में इन प्रवृत्तियों का विकास करना है, जिनसे उनमें अच्छी आदतें पड़ें और वे ठीक से कार्य कर सकें। अरस्तू के अनुसार एक बालक के अंदर सभी सभ्य बातें निहित रहती हैं। 


स्वामी विवेकानंदजी महाराज ने भी अपने शिक्षा दर्शन में इस तथ्य का उल्लेख किया है। अरस्तू का कहना है कि अगर ये बातें नहीं हों, तो बालक पशु जैसा बन जाए। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जिसमें विभिन्न प्रकार की भावनाएँ, इच्छाएँ और विचार पाए जाते हैं। ये समस्त बातें बालक में विद्यमान रहती हैं, परंतु अल्पायु होने के कारण वह उनका प्रदर्शन प्रौढ़ों की भाँति नहीं कर पाता। स्पर्धा, अनुकरण, क्रोध, भय, सुख, दुःख आदि भावों से बालक के कार्य प्रभावित रहा करते हैं। सम्यक् शिक्षण का विधान कर हमलोग अपने वांछित लक्ष्य की पूर्ति कर सकेंगे।


चरित्र की महत्ता :


अरस्तू ने चरित्र को बहुत महत्त्व प्रदान किया है। अतः उन्होंने इस बात पर बहुत बल दिया है कि बालक से हठात् कोई कार्य नहीं कराना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्तित्व कुसंयोजित हो जाता है। जन्म से ही प्रत्येक बालक में प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं। सम्यक् शिक्षा का विधान ऐसा होना चाहिए कि 'विवेक' तथा 'आदतों' द्वारा इन प्रवृत्तियों को चरित्र विकास की ओर लगाया जाए। शिक्षा के क्षेत्र में अरस्तू ने 'प्रकृति', 'विवेक' तथा 'आदत' को बहुत महत्त्व प्रदान किया है।


शिक्षा का संगठन :


बालक-बालिकाओं में अच्छी आदतों को प्रादुर्भूत करने तथा चरित्र के सम्यक् विकास के लिए शिक्षा के विषय और संगठन को निश्चित किया। इस संबंध में अरस्तू के शिक्षा-संबंधी उन प्रमुख विचारों से परिचित हो जाना चाहिए, जो उन्होंने अपनी पुस्तक 'पॉलीटिक्स' में व्यक्त किए हैं। अरस्तू का मत था कि शिक्षा पर राज्य (State) का नियंत्रण होना चाहिए। जिन वस्तुओं के द्वारा शासन के विधान को शक्ति मिले, उन्हें शिक्षा में स्थान देना चाहिए। नागरिक की शिक्षा भी शासन के अनुरूप होनी चाहिए। जब विद्यालयों पर राज्य (State) का नियंत्रण होगा, उस समय यह संभव होगा कि आवश्यकतानुसार लोगों को वाणिज्य-व्यवसाय और उद्योग-धंधे से हटाकर कृषि कार्य में लगा दिया जाए। शिक्षा के द्वारा मनुष्य को यह भी सिखाया जाए कि वह अपनी संपत्ति का पूर्णाधिकारी होते हुए भी, दूसरों साथ मिलकर उसका उपभोग कर सके। दूसरे शब्दों में, अरस्तू इस पक्ष में थे कि आवयकतानुसार व्यक्ति अपनी संपत्ति को समाज के सुख के लिए व्यय करें। 



लेकिन, इन सबसे अधिक अरस्तू भावी नागरिक के लिए अनुशासन को शिक्षा आवश्यक मानते थे। शिक्षा के विषय और संगठन ऐसे हो जो अनुशासन और नियम पालन की भावना का विकास करें। उनका विश्वास था कि योग्य अधि कारो वहाँ व्यक्ति बन सकता है, जिसमें अनुशासन और नियम-पालन की भावना हो। इसलिए बालक की शिक्षा में अनुशासन और नियम पालन का पूरा ध्यान जाए। जब बालक में अनुशासन की प्रवृत्ति होगी, तभी वह योग्य नागरिक सकता है। इस प्रकार के योग्य नागरिक बनाना तभी संभव होगा, जब कि शिक्षालयों पर राज्य का नियंत्रण हो । राज्य शिक्षा की योजना बनाकर शिक्षा का प्रबंध करे 1 तभी शासन-कार्य सफलतापूर्वक हो सकता है। इसलिए शिक्षा द्वारा युवक को यह भलीभाँति अनुभव करा देना चाहिए कि राज्य से ही उसे सुख प्राप्त होते हैं। यदि राज्य न हो, तो उसे सुख नहीं मिल सकता; क्योंकि राज्य ही समाज का संगठन करके उसकी रक्षा करता है और नियम पालन करा कर स्वतंत्रता प्रदान करता है। अगर व्यक्ति नियम पालन नहीं करें, तो सबका जीवन सर्वदा खतरे में रहे और किसी को किसी भी तरह की स्वतंत्रता नहीं मिले। इस प्रकार अरस्तु शिक्षा द्वारा व्यक्ति को राज्य की सेवा और रक्षा के लिए तैयार करना चाहते थे। अतः, शिक्षा के संगठन पर वे राज्य का नियंत्रण चाहते थे ।



परंतु अरस्तू के शिक्षाविषयक प्रस्तावों में कतिपय त्रुटियाँ भी हैं। दास प्रथा, स्त्रियों की अधीनता, मजदूरों की शिक्षा का अभाव, दुर्बल बच्चों को फेंक देना आदि अरस्तू के विचार अमान्य हैं। श्रमविषयक कार्य दासों द्वारा किए जाएँ कृषक और शिल्पकार नागरिकों की सेवा के लिए हैं-ऐसे विचार मानवताविरोधी हैं। अरस्तू शिक्षा को राजकीय नियंत्रण में रखना चाहते हैं। शिक्षा का पूर्ण राज्यीकरण सर्वथा अलोकतांत्रिक प्रस्ताव है। वस्तुतः अभिरुचियों और प्राकृतिक गुणों के अनुसार शिक्षा में विभिन्नता होनी चाहिए और विभिन्न नागरिकों को गुण-स्वभावानुरूप शिक्षा-क्रम चुनने का अवसर मिलना चाहिए। राज्य द्वारा शिक्षा का निर्देशन और नियंत्रण एक राज्य सत्तावादी मंतव्य है। अरस्तू की मान्यता है कि नागरिकों को संविधान के मूल तत्त्व के अनुसार संस्कृत करना चाहिए। किन्तु ऐसा प्रस्ताव भी जनतंत्रात्मक नहीं। यूनानी परंपरा में पूर्णतया निमग्न होने के कारण अरस्तु कहते हैं कि नागरिक अपना मालिक आप नहीं है; क्योंकि सारे नागरिक राज्य के हैं। नागरिकों की वफादारी निश्चित ही राज्य के प्रति है किन्तु सावयवाद (Organic Theory) की पूर्णता बताते हुए नागरिकों को राज्य की संपत्ति नहीं माना जा



सकता। वे नागरिकों के शारीरिक सौंदर्य के इतने बड़े पोषक हैं कि उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि विकृतांग शिशुओं की हत्या कर दी जाए। उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग राज्य की अधीनता नहीं स्वीकार करते, उनका शिकार किया जाए। उनके ये प्रस्ताव अमानुषिक । ऐसा करने से हमलोग अपने मानवोचित गुणों से विमुख हो जाएँगे।


अरस्तू की शिक्षा का भावी युग पर जितना अधिक प्रभाव पड़ा, उतना तत्कालीन समाज पर नहीं हो सका। तीसरी शताब्दी के प्रारंभ में उनकी रचनाएँ एशियामाइनर ले जाकर एक गुफा में बंद कर दी गईं। वहाँ से दो शताब्दी पश्चात् उन्हें एलेक्जेंड्रिया के पुस्तकालय में लाया गया। पुनः रोम में इनका प्रचार हुआ। रोम का सुप्रसिद्ध विद्वान् प्लूटार्क इससे बहुत प्रभावित हुआ था। अरबवासी अरस्तू कें विचारों से बहुत प्रभावित हुए। उनकी प्रायः सभी रचनाओं का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ। उनके विचारों का प्रभाव स्पेन पर भी पड़ा और उनका वहाँ प्रसार भी खूब हुआ। स्पेन में मुस्लिम शिक्षा का सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय स्थापित हुआ । धीरे-धीरे अरस्तू के विचारों से समस्त यूरोपीय देश अवगत हुए। एक्विनास-जैसे विद्वान् उनके पूर्ण अनुगामी थे। मध्ययुग तथा आधुनिक युग की शिक्षा की अरस्तू के ग्रंथ 'पॉलिटिक्स' ने बहुत प्रभावित किया है।

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