महिषासुर मर्दिनी देवी नव दुर्गा कथा
Mahishasur Mardini devi Durga ki poora katha. How demon Mahisasur was killed in Hindi. Story of mythological goddess Durga & Mahisasur in Hindu mythology. indian hindu mythology story of Durga & demon Mahishasur.
रम्भ और करम्भ नामके दो असुर भाई थे... अमोग शक्ति पाने हेतु, उन्होंने तपस्या करने की ठानी . रम्भ ने अग्निदेव की तपस्या करना आरंभ किया तो करम्भ ने वरुण देव की. लेकिन असुरक्षा के कारण , देवराज इंद्र ने मगरमच्छ का रूप लेकर करम्भ का वध कर दिया परन्तु, अग्नि चक्र के बिच तपस्या कर रहे, रंभ का अंत वे नहीं कर पाए. आखिर , अग्निदेव को प्रकट होना ही पड़ा और उसे इच्छित वरदान देना पड़ा.. वरदान में उसने यह माँगा था की उसे कोई देवी देवता, राक्षस या मनुष्य मार न सके... क्योंकि उसके भाई की हत्या की गयी थी.. अग्निदेव को उसपर दया आई, उन्होंने उसे एक शक्तिशाली पुत्र प्राप्त होने का भी वरदान दिया... इसी कारण रम्भ पुत्र प्राप्ति हेतु तत्पर हुआ और जल्द ही उसका विवाह एक असुर राजकुमारी श्यामला के साथ हुआ.. असल में वह जितनी सुंदर थी, उतना ही कुरूप. सत्य उसकी सुंदरता के पीछे छिपा हुआ था.. शादी के पश्चात् , रंभ को इस बात का पता लगा की श्यामला एक ऋषि द्वारा शापित थी और शाप के कारन उसका अस्तित्व एक महिषा होने का बन गया था... रम्भ श्यामला से काफी रुष्ट व्यवहार करने लगा.. और उसे महल से भी बाहार रखा गया.
इसी दौरान
,श्यामला गर्भवती हो गयी थी .. यह बात जब देवराज को पता चली तो उन्होंने यमराज को आदेश देकर उनका (यमराज का )
भैसा, महिषा रुपी श्यामला के पास भेजा, ताकि श्यामला की गर्भावस्ता दूषित कर सके.. यमराज के महिष ने श्यामला पर नज़र डाली तब श्यामला चीख पड़ी और रम्भ को
पुकारने लगी.. रंभ ने महिष से युद्ध करना आरंभ
किया परन्तु युद्ध करते करते, स्वयं अति क्रूर तरिके से भैसे
द्वारा घायल हो गया .. घायल अवस्था में उसने अग्निदेव का स्मरण किया कि उनसे वरदान मिलने के बावजूद
वह कैंसे मरने की अवस्था में आ पहुँचा? तब
अग्निदेव आकार बोले की उनके वरदान के अनुसार रम्भ का वध किसी देव देवता, राक्षस या मनुष्य ने नहीं किया है बल्कि एक प्राणी (महिष) ने किया है. इसी
कारन वो मृत्यु को प्राप्त होने वाला हैं ..रम्भ की आत्मा ने आखिरकार उसके
देह का साथ छोड़ दिया... पति-वियोग से ,श्यामला इतनी दुखी हुई की रम्ब के अंतिम संस्कार की अग्नि में वो कूद पड़ी और
स्वयं के प्राण त्याग दिए.. उस
अग्नि से दो दिव्य बच्चे जन्मे , वे थे रक्तबीज तथा महिषासुर.. रक्तबीज में पुर्णतः अपने पिता जेसे गुण थे और महिषासुर में माता और पिता
दोनों के और इसी कारण उसका नाम महिषासुर रखा गया..
महिषासुर ( Mahiasasur ) आधा महिष और आधा मनुष्य रुपी असुर था.. महिषासुर
को असुरो का राजा बनाया गया, तो रक्तबीज को सेनापती.. अग्निदेव और यक्षराज सम्भरण को देवराज इंद्र ने स्वर्ग से बहिष्कृत किया था.. इसी कारण उन दोनों ने महिषासुर का साथ देना उचित समझकर , इंद्र से प्रतिशोध लेनी की ठानी.. यक्षराज
के कहेनुसार इच्छित वरदान पाने हेतु, महिषासुर
ने ब्रह्म तपस्या आरंभ की.. देवराज
ने इस बार महिषासुर के तपस्या भंग करनी चाही परन्तु पंचाग्नी ब्रह्म तपस्या में
अव्रोद उत्पन्न नहीं कर पाए .. आखिरकर जब ब्रह्मा, महिषासुर के सामने प्रकट हुए तो
महिषासुर ने अमरता के वरदान की इच्छा की पर ब्रह्मदेव ने यह कहते हुए उसे वरदान देने से साफ़ मना किया की
जो जन्मा है उसका मरण निश्चित है और यह विधी का विधान हैं.. महिषासुर ने कुछ समय सोचा और अपार शक्तिया, रूप
बदलने की क्षमता , प्रचंड सेना, अस्त्र-शास्त्र प्रकट करना और कोई भी पुरुष देव, दानव, मानव, राक्षस उससे मार न सके ऐसा वरदान माँगा.. ब्रह्मदेव उससे ये वरदान देकर चले गए.. सर्व
श्रेष्ट त्रिदेवो में विष्णु अथवा महादेव ही महिषासुर का अंत कर सकते थे.. इस बात से महिषासुर भलीभांति सचेत था परन्तु वह देवी शक्ती के अस्तित्व से अन्भिज्ञ
था इसीलिए, उसे इस बात का अभ्यास नहीं हुआ
की कोई स्त्री उसका वध करने में सक्षम हो सकती हैं क्योंकि उसकी सोच थी की कोई भी
नारी उस जैसे शक्तिशाली असुर का वध कर ही नहीं सकती..
देवराज
को जैसे भविष्य में होनेवाली घटनाओं का आभास
हुआ था, ठीक वेसा ही हुआ. महिषासुर ने देवराज इंद्र को उनके स्वर्ग से निकाल दिया तथा बाकि सारे देवो को
उनके कार्य न करने का आदेश और चेतवानी दी.. पृथ्वी
पर देव पूजा कर रहे , मानवों पर भी उसने अत्याचार
करने शुरू किये.. सारे देवता, इस विकट समय में पालनकर्ता विष्णु के पास स्वयं का उद्दार हेतु, प्राथना करने विष्णुलोक गए.. पर
ब्रह्मा के वरदान अनुसार, पालनकर्ता विष्णु भी विवश थे.. वरदान के मुताबित , महिषासुर का अंत कोई स्त्री
शक्ति द्वारा ही संभव हैं, यह कहकर उन्होंने देवताओ को
सत्य से अवगत कराया ..अब पालनकर्ता यह कार्य नहीं कर
सकते तो वरदान से उनकी संगिनी तो कर सकती हैं, यह
सोचकर देवराज को देवी लक्ष्मी का ख्याल आया परन्तु देवी उस वक़्त विष्णु लोक में
नहीं थी.. विष्णु लोक से निकलकर, देवताओ ने देवराज के कथनुसार माँ लक्ष्मी का आवाहन किया.. देवी लक्ष्मी तुरंत प्रकट हुई और देवताओ ने उनसे महिषासुर का अंत करने का
निवेदन किया.. देवी अपनी असमर्थता जतलाते हुए
बोली की यह कार्य उनके अकेले के लिए संभव नहीं था क्योंकि महिषासुर ने धन संपत्ति,ज्ञान और मन का तो दुरूपयोग किया था ही परन्तु उससे कही ज्यादा उसने अपने
शक्ती, बल, समय (काल) का अनुचित प्रयोग किया था.. देवी
लक्ष्मी धन संपत्ति की रक्षिका होने के कारन अकेले महिषासुर का दंडित नहीं कर सकती
थी..
देवताओ
तथा समस्त संसार की चिंता हरने , देवी लक्ष्मी ने देवतो से कहा
कि इस सन्दर्भ में ,वे प्रयन्त जरुर करेंगी.. उसके पश्चात देवी लक्ष्मी , देवी सरस्वती के पास गयी और फिर
वे दोनों साथ मिलकर शिव-संगिनी देवी पारवती के पास गयी.. देवी पारवती के सुझाव अनुसार , तीनों 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ' का जाप कर, तपस्या में लींन होकर , तीनो ज्योति में परवर्तित हो
गयी और तीनों ज्योतिया संघठित होकर एक अज्ञात स्थान में अदृश्य हो गयी.. देवता इस बात से काफी प्रसन्न हुए मगर असुर गुरु शुक्राचार्य चिंता में पड़
गये... स्वर्ग, में वासना के रंग में डूबे, महिषासुर को उन्होंने इस घटना
से अवगत कराया.. महिषासुर भी चिंतीत हो गया और अपने गुरु से इस परेशानी का उपाय पूछने लगा, क्योकि
त्रिदेवियो के सम्मिलत ज्योति से महिषासुर
का अंत हो सकता था. शुक्राचार्य ने महिषासुर को
महादेव की तपस्या करने का आदेश दिया.. गुरु की
आज्ञा का अनुसरण कर , महिषासुर तपस्या करने लगा और
उसमे सफल भी हुआ.. तपस्या करने के कारण महिषासुर
सत्कर्म सत्कर्म करने लगा पर वो भी अपने स्वार्थ के खातिर .. महादेव को भी आखिरकार उसे उसकी तपस्या का फल देने प्रकट होना ही पड़ा...
ब्रह्मदेव
से मिले वरदान में उसने बदलाव करने हेतु इच्छा प्रकट कि और कोई स्त्री भी उसका वध
न कर सके ऐसा वरदान माँगा.. महादेव
ने कहा की यह संभव नहीं , क्योंकि भक्त और आराध्य के बीच
के सबंध के चलते , आराध्य द्वारा दिए वरदान जैसा
था वेसा ही रहता हैं..इसी कारण, उसका अंत एक स्त्री द्वारा
निश्चित हैं.. महिषासुर ने कुछ समय विचार कर यह कहा की पुरषों के द्वारा
उत्पन्न हुई स्त्री उसका वध कर सके , और वध
करते समय वस्त्रहीन अवस्था में रहे.. महादेव
को यह वरदान उसे देना ही पड़ा.. इससे
महादेव तो अत्यधिक क्रोधित हुए ही तथा विष्णु, ब्रह्मा
और अन्य सरे देवता भी क्रोधित हुए.. उनके
क्रोध ने उर्जा का रूप लिया और उनकी देह से निकलर त्रिदेवियो की समिल्लित
ज्योतियों से जा टकराए.. ज्योति तीव्र गति से पृथ्वी की
और बढ़ी और विस्पोट के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ी .. एक अत्यंत सुंदर स्त्री वहा प्रकट हुई..
महर्षि कात्यायन के आश्रम में देवी अवतरित हुई.. ऋषि ने देवी की पुजा की और उनको नमन किया.. ऋषि से प्रसन्न होकर, देवी ने उन्हें पिता का दर्जा
देते हुए, स्वयं कात्यायिनी का नाम दिया..
त्रिदेव, देवराज, बाकि सरे देवता और अन्य लोग वहाँ पधारे.. सबने देवी शक्ती के सामने अपने मस्तक झुकाकर उन्हें नमन किया.. सबसे पहले, भगवन विष्णु के सुदर्शन चक्र से
एक दुसरा समान चक्र बहार निकलकर, देवी के दहिने हाथ की ऊँगली पर
विराजित हुआ.. उसी प्रकार , शिव के त्रिशुल, ब्रह्मा के कमंडल, देवराज के वज्र से घंटा , वरुणदेव के शंक, यमराज के गदे, इत्यादि अस्त्रों से उनके जेसे
अस्त्र निकलकर देवी के अनेक हथेलियों में थामे गए.. इस प्रकार , देवी के अठराह हाथ बने.. पर्वत राज हिमवान ने देवी को भेट स्वरुप एक वाहन दिया जो एक सिंह और बाघिन का
समिश्रण था दिया.. दूध जैसे साफ़ समुद्र से मुकुट, गहने अति सुंदर अस्त्रों के साथ, एक कभी
न मुरझाने वाले कमलो से बनी, अति सुंदर माला, देवी को और भी रूपवान बनाने हेतु, उन्होंने
(देवी ने) धारण किये.. सिंह पर विराजित देवीने अति
तीव्र अट्हास मारी और साथ ही साथ उनके वाहन वनराज ने भी जोरो से दहाड़ मरी की
पर्वत, आकाश सभी जगह, उस अट्हास और दहाड़ से हलचल हो पड़ी .. सुमद्र में लहरें उठ पड़ी , पहाड़ो से ज्वाला उमड़ने लगी, धरती कंपन करने लगी और पूर्ण
आकाश में आवाज गुजने लगी और स्वर्ग तक जा पहुँची.. वासना में चूर हुए, महिषासुर को जब गूंज सुनाई पड़ी
तो उसे बड़ा क्रोध आया.. उसने अपने सेवको से ,उस आवाज की रहस्य का पता लगने कहा.. और जब
उसे पता लगा की यह आवाज अति सुंदर रूपवान स्त्री की थी..तो महिषासुर के मन में उस
स्त्री को पाने की इच्छा जागृत हुई और वो स्वयं देवी के सामने आया.. महिषासुर बहुत समय तक स्वयं की प्रशंसा करता रहा और देवी को उसके साथ चलने का
निवेदन करता रहा.. देवी अट्हास ले लेकर उसके साथ
विनोद करने लगी.. आखिर कर जब देवी द्वारा विनोद
में अपमानित होने का आभास उसे हुआ तो उसने अपने सेवको द्वारा, देवी को पकड़ने की कोशिश की पर एक ही प्रयास में सारे के सारे देवी द्वारा मरे
गए.. महिषासुर को देवी के शक्तियों
का आभास होने लगा और उसने अपने वीर सेनापती चीक्सूर को बड़ी सेना, अनगिनत रथ, हाथीयो के साथ, देवी पर आक्रमण करने का आदेश दिया.. देवी ने
भी स्त्रियों की सेना प्रकट की और भीषण युद्ध चालु हुआ.. चिक्सूर रथ पर सवार होकर, देवी पर हमला करने लगा .. उसने देवी पर बाणों से हमला किया तो देवी ने चमत्कार से उस बाणों को उलटी दिशा
में भिजवाकर चिक्सुर के रथ के घोड़ो और उसके चालको को मार दिया.. क्रोधित होकर, चिक्सुर ने तलवार से हमला किया
जो वनराज को चुहकर, देवी की हथेली पर लगी और जेसे
ही तलवार देवी को स्पर्श कर गयी, उस तलवार के टुकड़े टुकड़े हो
गए फिर उसने देवी पर भाला फेक वर किया तो देवी ने भी अपना भाला फेंका और चिक्सूर
का भाले का नाश करके, देवी का भाला चिक्सुर के सीने
में जा लगा और वह मारा गया l
भीषण
युद्ध का दृश्य देखकर, देवी को बहुत क्रोध आया l..तभी, असिलोमे नामक राक्षस ने देवी पर बाणों से वार किया तो देवी एक ही झटके में
अपने चलाये बाण से उसके बाणों के साथ साथ उसका भी अंत कर दिया.. फिर, वेडाल नामक असुर ने देवी पर
कुल्हाड़ी फेंकी तो उसे भी देवी अपने हंसिये से मार गिराया.. उसके बाद, देवी पर दूरदारा और दुरमुदा नमक
राक्षस भईयो ने तलवारों से हमला किया तो
देवी अपना कवच से वो तलवारे उन्ही पर फेक उनका वध किया.. कमाला नमक राक्षस से, वनराज ने युद्ध किया और उसे मार
दिया .. एसे
करते देवी ने अनगिनत राक्षसों का अंत किया..
महिषासुर
की सारी सेना को देवी, वनराज और देवी के महिलाओ वाली
सेना ने मार गिराया.. अब बच गया था तो स्वयं महिषासुर.. अपनी सेना का अंत होता देख महिषासुर अत्यंत क्रोध में आ गया.. ब्रह्मदेव के वरदान द्वारा उसने विभिन्न अस्त्र-शतर प्रकट किये और उनसे देवी
पर वार किये परन्तु देवी ने उनके दिव्य अस्त्रों से महिषासुर के सारे वार विफल कर
दिए.. देवी तीव्र अट्हास मरने लगी और
महिषासुर पर विनोद करने लगी.. अब
महिषासुर ने छल का रास्ता अपनाया.. ब्रह्मदेव
के वरदान द्वारा, उसे अनेक रूप धारण करने की
क्षमता थी.. उसने सबसे पहले एक भैसे का रूप
धारण किया और देवी की और दौड़ पड़ा.. वनराज
भी महिष रुपी महिषासुर की और दौड़ने लगा और एक पंजे से ही उसे गिरा दिया.. फिर उसने मनुष्य का रूप लिया और तलवार द्वारा वनराज पर प्रहार करने ही वाला था
की देवी ने आकार उसका मस्तक काट दिया .. अब उसने देवी को भ्रमित करने केलिए
सिंह का रूप लिया.. देवी के वनराज ने उस सिंह रुपी
महिषासुर तमाचा मारा तथा देवी ने उस सिंह का भी मस्तिक काट दिया.. महिषासुर ने अब हाथी का रूप लिया और वनराज को अपनी सूंड से अपनी और खींचने लगा.. देवी ने अपनी तलवार से उसकी सूंड ही काट दी.. उसने फिरसे भैसे का रूप लिया.. देवी
वनराज पर तुरंत सवार हो गयी और वनराज ने भैसे को दबोच लिया और देवीने तलवार से ,भैंसे का मस्तक काट दिया.. पर फिर
भी उस भैंसे रुपी शरीर में जान बाकी थी.. देवी ने
त्रिशुल से उसका वध किया पर अचानक कटे मुह वाले भैंसे से महिषासुर का असली सिर
निकल आया तो देवी उसे भी त्रिशुल से काट दिया.. काटने के पश्चात भी महिषासुर के प्राण उसके कटे सिर
में शेष थे.. महिषासुर ने देवी को शिव द्वारा
मिले वरदान से अवगत कराया कि उसका वध, वही
स्त्री कर सकती हैं , जो वस्त्रहीन अवस्था में हो.. अस्मान में बिजली कड़की और देवी को अत्यंत क्रोध आया.. देवी दुर्गा के अंग से, महासरस्वती तथा महालक्ष्मी बहार
निकली और दुर्गा , महाकाली में परिवर्तित हो गयी.. सारा वातावरण अंधकार में डूप गया l महाकाली
काले वर्ण वाली होने के कारन, इस अंधकार में ,उनकी क्रोध से भरी आंखे के अलावा कुछ भी दिखाए नहीं पड़ रहा था.. देवी ने दानवो के कटे हाथो को स्वयं के कटि में धारण किया.. महाकाली दिखने में बिलकुल दुर्गा तथा पारवती जेसी थी, किन्तु अंतर था तो केवल यह की दुर्गा गोरे वर्ण वाली थी और कलिका काले वर्ण
वाली.. इसका अर्थ यह हुआ था कि दुर्गा
ही काली है और वे ही शिव संगिनी पारवती भी हैं.. वरदान के अनुसार महाकाली ने कुछ वस्त्र नहीं पहने थे. पर वस्त्रो के जगह दानवो के हाथो को कटि में और गले में दानवो के कटे सिर, माला के रूप में धारण किये थे.. इस
संग्राम में देवी को वस्त्रहीन होना पड़ा, इसका
देवी को बड़ा क्रोध आया.. इसीकारण
महाकाली, महिषासुर के कटे सिर को पकड़कर, तांडव करने लगी.. तांडव करते करते, महिषासुर के सिर से उसके प्राण तो निकल गए पर देवी का क्रोध शांत नहीं हुआ और
आवेश में आकार उन्होंने अपना तांडव जरी रखा.. सारे देवी देवता, तांडव से भयभीत हो गए.. देवी जहाँ जहाँ अपने पैर रखती, वहा-वहा
धरती फट जाती.. ऐसे में महादेव उनके मार्ग में
अकस्मत आकार लेट गए.. इस बात से अनजान , देवीने ने महादेव के वक्ष पर अपना
दाहिना पैर रख दिया और जब उन्हें यह आभास हुए के उनके पैर के नीचे उनके पति थे, तो उन्होंने शर्म के मरे अपनी जीभ बहार निकली.. उन्होंने तांडव भी रोका तथा शांत भी हो गयी और फिरसे देवी दुर्गा में
परिवर्तित हुई.. सभी देवताओ ने त्रिदेवियो यानी
दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती को नमन करते
हुए उनकी पूजा की और भविष्य में संकटकाल के समय मदत करने का निवेदन किया.. देवी दुर्गा उन्हें आश्वस्त कर, उन्हें
वादा किया कि वे संकट में उनकी मदत करने हेतु फिर प्रकट होंगी.. देवी दुर्गा अपने निर्गुण रूप (दुर्गा) से सगुन रूप अर्थात पारवती में
परिवारित हो गयी.... देवी देवता को पार्वती की इस शक्ति के बारे में पता चलता है
कि उनके ९ रूप हैं जिसके बाद हम एक सूत्रधार के द्वारा बाकी देवियों की कथा बताते
हैं.
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