एक महान तांत्रिक की कहानी Ek Mahan Tantrik ki Kahani
Hindi lok Katha.
दुनियाँ के सबसे बड़े तांत्रिक की कहानी जिन्हें तंत्र- मंत्र की शक्ति के ज़रिये हुए थे भारत में डाकिनी के दर्शन:
तंत्र विद्या ( Tantric story ) worl's famous Tantrik stories in Hindi. tantra-mantra yantra in Hindi
तान्त्रिक साधना भारतवर्ष में तथा विश्व के
अन्य देशों में बहुत प्राचीन- काल से प्रचलित है। वैदिक काल से भी पहले जो आदिम
जातियां इस भूभाग पर रहती थीं उनमें लिंग और योनि की पूजा प्रचलित थी। उन लोगों ने
देखा कि मनुष्यों के प्रजनन में इन इन्द्रियों का प्रमुख हाथ है तो वे इनकी
प्रतीका-त्मक रूप से पूजा करने लगे। आर्यों में जिस प्रकार सूर्य चन्द्र अग्नि
वायु तेज वर्षा आदि के देवताओं की पूजा होती थी उसी प्रकार आर्येतर जातियों में लिंग पूजा का प्रचलन था। जब आर्यों का सम्पर्क इन अनार्य
जातियों से हुआ तो उन्होंने इस प्रचलित लिंग योनि पूजा को अपने धर्म ग्रन्थों में
शिव व शक्ति फी पूजा के रूप में सम्मिलित कर लिया। कालान्तर में इसी का विकास
होते- होते शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों का गठन हुआ। बाद में बौद्ध धर्म का व्यापक
प्रसार हुआ और उस समय के बहुत से शैव व शाक्त मतावलम्बी भी इस धम में दीक्षित हो
गये। कालान्तर में उन लोगों ने बौद्ध धर्म में अपनी पूजा पद्ध- तियों का प्रवेश
करा दिया। बुद्ध-धर्म कई शाखा प्रशाखाओं में विभक्त हो गया और उनकी वह शाखा जो तान्त्रिक पूजा अनुष्ठानों
में विश्वास रखती थी वज्रयान कहलाई । मुसलमानों के राज्यकाल में हिन्दू
मन्दिरों मठों तथा बौद्ध विहारों पर बहुत अत्याचार हुए और इनके प्रसिद्ध मठ विहार
आदि भूमिसात कर दिये गये । यह लोग अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग गये और
इनकी बहुत बड़ी संख्या नेपाल, चीन तथा तिब्बत की ओर चली गई। बिहार तथा आसाम के भागों में
भी बहुत से लोग भूमिगत हो गये । शनै-शनै यह तान्त्रिक साधना लुप्त होती चली गई। आज तो बहुत कम
तन्त्रवेत्ता रह गये हैं जो प्रच्छन्न रूप में तिब्बत, नेपाल, बिहार, आसाम आदि के कुछ भागों में पाये जाते हैं। तन्त्र की साधना अति गोपनीय तथा दुष्कर साधना है।
माना जाता है गुप्त नवरात्रों में भी तांत्रिक पूजा की जाती है.
तंत्र साधना मूलतः कुण्डलिनी योग पर आधारित है। मेरुदण्ड के अन्दर इडा, पिगला, सुषुम्ना तीन मुख्य नाडियां तथा वज्रा चित्रणी व ब्रह्म नाडियां मस्तिष्क
से लेकर लिंग व गुदा के मध्य स्थान तक जहां मेरुदण्ड समाप्त होता है आपस में लिपटी
हुई होती है। इस स्थान को तन्त्र की भाषा में योनि कहा जाता है। यहां पर
स्वयंभूलिग है और कुण्डलिनी नाडी इस स्वयंभूलिग के साढे तीन कुण्डल मारे हुए नीचे
की ओर मुख किये अधोमुख पड़ी रहती है। पूरे मेरुदण्ड यानी रीढ को हड्डी के अन्दर कई
स्थानों पर ग्रन्थियां है जहां से निकल कर नाडियों का जाल सारे शरीर में फैला हुआ
है। सबसे नीचे जहां गुदा के पास कुण्डलिनी है वहां पर चार दल का एक कमल है यानि
वहां से चार ओर को नाडियों का विस्तार हुआ है। इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। इसका
वर्ण लाल (रक्त रंग) है इसको ज्ञानेन्द्रिय नासिका और कर्मेन्द्रिय गुदा है। यहां
पृथ्वी तत्व का वास है और इसे भूलोक की संज्ञा दी गई है। यथा पिण्डे तथा
ब्रह्माण्डे । जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में सात लोक माने गये हैं, उसी प्रकार शरीर में भी
सात लोक हैं। योगी लोग और योग की साधना करने वाले साधक जन इन चक्रों पर ध्यान
लगाकर प्राणायाम के द्वारा सोई हुई कुण्डलिनी को जगाने का प्रयत्न करते हैं। शरीर
व मन की शुद्धि होने पर ब्रह्मचयं पालन से प्राणों पर नियन्त्रण होने पर गुरु कृपा
से जब यह होने बाब जीती तो उसका मुख या फन जो नीचे की ओर होता है साधना से ऊपर की
ओर उठ जाता है और वह ब्रह्म नाडी के बन्दर ऊपर की यात्रा आरम्भ कर देती है। जितने
भी साधन परिश्रम तपस्या योग क्रियायें हैं वे सब इस सोई हुई कुण्डलिनी को जगाने के
लिए किये जाते हैं। जिस
साधक की कुण्डलिनी जागृत हो जाती है वह सबसे नीचे के मूलाधार चक्क पर ध्यानावस्थित
हो जाता है गौर उसमें काफी अलो-किक शक्तियां आ जाती हैं। वह उत्तम वक्ता लेखक कवि संगीतकार
और उत्तम विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है। उसका स्वर मधुर और बुद्धि तीव्र
हो जाती है। प्रसन्नचित्त व. स्वस्थ रहता है। उसके मुख पर तेज का निवास रहता है।
परन्तु इसके साथ-साथ काम वेग भी बहुत बढ़ता है। काम चेष्टा कामोद्दीपन तीव्र हो
जाता है और उसके मार्ग में अनायास ही स्त्रियां बाधा रूप में उसको इस मार्ग से
गिराने के लिए आ जाती हैं। परमार्थ के मार्ग पर चलने वाले साधकों की परीक्षा लेने
के लिए समझें या उसको परमार्थ के मार्ग से विमुख करने के लिये प्रलोभन स्वरूप
समझें उसको कुछ अलौकिक सिद्धियां
प्राप्त हो जाती हैं। जो साधक इनके चक्करों में
नहीं पड़ते और इन बाधाओं को पार करके आगे बढ़ते जाते हैं, अपनी साधना जारी रखते हैं, वे क्रमशः आगे के चक्रों
पर पहुंचते हैं तथा और अधिक अलौकिक शक्तियों के स्वामी बनते हैं। प्राणायाम के
द्वारा मन्त्र का श्वांस सुरति पर जाप करते हुए निरा- कार प्रकाश का या इष्ट देवता
का ध्यान करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र तफ पहुँचने में सफल होते हैं ।
स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान पेडू में है। यहां
पर सिन्दूरी वर्ण का षटदल कमल है, जहां से छ ओर को नाडियों का जाल निकल कर शरीर में फैलता है।
इसकी ज्ञानेन्द्रिय रसना तथा कर्मेन्द्रिय लिग है। यहाँ पर भुवः लोक है और जल तत्व
का वास है। यहाँ पर साधक के स्थित होते ही उसके काम, क्रोध, लोभ,
मोह, अहंकार का प्रायः नाश हो
जाता है। उसकी स्मरण शक्ति बहुत प्रबर हो जाती है, उसे कई अलोकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है
और उच्च लोक की देवात्माओं के उसे दर्शन होते रहते हैं। उन सिद्धियों के द्वारा
यदि वह यहाँ पर भी प्रलोभनों का शिकार हो गया तो नीचे गिर जाता है।
सिद्ध पुरुषों ने अपने शिष्यों के इन प्रलोभनों से मार्ग नष्ट होने की संभावनाओं पर विचार किया और अनेक साधन उपाय क्रियायें भाविष्कृत कीं जिनके द्वारा साधक इन बाधाओं को पार कर सके। साधना का अन्तिम लक्ष्य सहस्रसार में शिव व शक्ति तक पहुंचना है। शिव निष्क्रिय शव रूप में हैं तथा शक्ति इस सारे शरीर की क्रियाओं का संचालन करती है और समष्टि रूप में इस सारे ब्रह्माण्ड का संचालन करती है। बालक भाव से उत्स शक्ति की मां के रूप में साधना करना और उससे याचना करना कि वह इन सब विघ्न बाधाओं से पार कराके अपने पास तक पहुँचाने में सहायता करे। माँ की साधना में पथभ्रष्ट होने की आशंका नहीं रहती। माता बालक को खेलने के लिए कोई खिलौना दे भी देती है, उसको रोने से चुप कराने के लिए या उसे बहलाने के लिये तो बालक कुछ देर उससे खेल कर ऊब जाता है फिर रोने लगता है माँ का दूध पीने के लिये या माँ का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये तो माँ सब काम छोड़कर बालक की ओर ध्यान देती ही है।आज तक इस पृथ्वी पर और विशेष कर भारत भूमि पर सहस्रों को संख्या में इस तान्त्रिक साधना से सिद्ध होने वाले योगी महापुरुप हो चुके हैं।
अभी पिछली शताब्दी में कलकत्ता के दक्षिणेश्वर
मन्दिर में जिस महापुरुप ने अन्य अनेक साधनाओं के साथ-साथ तान्त्रिक साधना से भी
सिद्धि को प्राप्त किया था उनका नाम व यश सारे संसार में व्याप्त हो गया है। वह
सिद्ध महापुरुष स्वामी रामकृष्ण परमहंस थे । भैरवी ब्राह्मणी ने उनसे सभी
तान्त्रिक साधनायें कराई थीं । परमहंस ठाकुर के अपने ही शब्द उनकी जीवनी से यहां
उद्धृत कर रहा हूँ। "मुख्य मुख्य चौंसठ तन्त्रों में जो-जो साधनायें बतलाई गई
हैं, उन सभी साधनाओं
को ब्राह्मणी ने मुझसे एक के बाद एक कराया। कितनी कठिन हैं वे साधनायें। उन
साधनाओं का अभ्यास करते समय बहुतेरे साधक पथभ्रष्ट हो जाते हैं, पर माता की कृपा से मैं
उन सभी साधनाओं को पूरा कर सका। मुझे किसी भी साधना के लिये तीन दिन से अधिक समय
नहीं लगा ।" इससे स्पष्ट है कि साधनायें बहुत कठिन होती हैं और इनमें
पथभ्रष्ट होने का भय रहता है। साधक के आत्म संयम की बहुत कठिन परीक्षा होती है। इस
परीक्षा में सफल होने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है।
तान्त्रिक साधनाओं को बहुत गुप्त व गोपनीय रखा जाता है। इस कारण उनके प्रामाणिक विवरण आसानी से सुलभ नहीं होते। साधना की जो विस्तृत प्रक्रियायें हैं, वे तो गुरुमुख से ही प्राप्त होती हैं और गुरु जब तक साधक के अधिकारी होने के विषय में पूर्ण आश्वस्त नहीं हो जाता, वे सब बातें नहीं बताता । अतएव स्वामी राम कृष्णजी की जीवनी से तान्त्रिक साधना के विषय में जो बातें हमें ज्ञात होती हैं, उनको संक्षेप में यहां इसलिए दिया जा रहा है कि आपको उनकी दुष्करता का और महत्व का ज्ञान हो जाये। ब्राह्मणी भैरवी ने दो वेदियां बनवाई थीं। एक बिल्व वृक्ष के नीचे और दूसरी पंचवटी के नीचे । श्री रामकृष्ण जी ने जप ध्यान करने के लिए अपने ही हाथ से पांच वृक्ष दक्षिणेश्वर मन्दिर के बहाते में लगाये थे। अश्वत्य (पीपल), विल्व, बड, अशोक और आंवला । विल्व वृक्ष के नीचे वाली वेदी के नीचे तीन नरमुण्ड गाढ़े गये थे और पंचवटी वाली वेदी के नीचे पांच जीवों के मुण्ड गाढ़े गए थे। तन्त्र विधि से जगन्माता की यथाविधि पूजा कराने के लिए जिन साम- ग्रियों की आवश्यकता होती है, उनका प्रबन्ध भैरवी ब्राह्मणी कर देती थी और यथाविधि पूजा कराने के बाद उन वेदियों के ऊपर बिठाकर जप घ्यान कराती थी। एक दिन संध्या के समय अंधेरा होने पर ब्राह्मणी कहीं से एक सुन्दर युवती को अपने साथ लेकर आई और श्री रामकृष्ण जी को पुकारकर कहा कि इसे देवी मानकर इसकी पूजा करो। पूजा समाप्त होने पर उस स्त्री को निर्वस्त्र करके उनसे कहा कि अब इसकी गोद में बैठकर जप करो। श्री रामकृष्ण जी यह सुनकर डर के मारे व्याकुल हो गये और रोने लगे। उन्होंने मां से प्रार्थना की कि :- 'हे मां अपने इस दीन बालक को तू यह कैसी आज्ञा दे रही है। इस दीन बालक में ऐसा दुस्साहस करने का साहस कहां है ?"
श्री रामकृष्ण जी ने यह साधनायें जगन्माता का दर्शन लाभ प्राप्त हो जाने के बाद को थीं और जैसा कि वह अपने श्रीमुख से अपने शिष्यों को बताया करते थे कि इस प्रकार प्रार्थना करते ही उनके शरीर में कोई प्रवेश कर गया और उस युवती स्त्री की गोद में बैठते ही उनकी समाधि लग गई। जब ब्राह्मणी की सुश्रूषा से उनकी समाधि उतरी, तो ब्राह्मणी ने उनसे कहा कि बाबा डरो मत क्रिया सम्पूर्ण हो गई। अन्य साधक तो इस अवस्था में बड़े काट से धैर्य धारण करते हैं और किसी प्रकार थोड़ा सा जप करके क्रिया को शीघ्र समाप्त कर देते हैं पर तुम तो अञ्जनी देह की स्मृति भूलकर समाधिमग्न हो गए। ब्राह्मणी से यह सुनकर श्री रामकृष्ण जी के हृदय का बोझ हल्का हुआ और वे कृतज्ञतापूर्वक शुद्ध अंतःकरण से जगन्माता का धन्यवाद करने लगे कि इस कठिन साधना से सफलतापूर्वक पार करा दिया । उपरोक्त विवेचन से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि यह कितनी कठिन है। एक सुन्दर युवती एक स्वस्थ पुरुष की गोद में बैठी हो और उस परिस्थिति में वह काम विकार से विकल न होकर मन्त्र जाप करे व ध्यान करे। जो इसमें सफल होते हैं, वे निश्चय ही कामजित इन्द्रिय जित होते हैं और उनकी साधना सफल होती है। परन्तु इस परीक्षा में असफल होने की ही अधिक सम्भावना रहती है। मां जगदम्बा की कृपा का सहारा न मिले तो सफलता संदिग्ध ही समझिए। यह वीरभाव की साधनायें हैं। कोई-कोई दुःसाहसी साधक ही इसमें सफल हो पाते हैं गौर इसमें फिसलने का डर ही अधिक रहता है। पर जा सफल होते हैं, सिद्धियां उनके चरण चूमती हैं। तन्त्र की यह साधनाएं साधक को अग्नि परीक्षा से निकाल कर खरा सोना बना देती हैं।
जीव को सांसारिक साधनों में बांधने वाले अष्टपाश होते हैं जिनमें लज्जा घृणा, भय मुख्य तीन पाश हैं। तन्त्र की साधनाओं में साधक को इन्हीं पाशों से मुक्त कराने के उपाय किए जाते हैं। लज्जा का निवारण करने के लिए साधक को नग्न होकर कई प्रकार की साधनायें, जप आदि करने होते हैं। कभी-कभी हम लोग भगवत प्रेम में सुधबुध खोये हुए लोगों को नाचते गाते, मस्त होते हुए देखते हैं तो हमारा भी मन करता है कि उसके प्रेम आनन्द में हम भी वैसा ही करें, परन्तु यह लज्जा रूपी पाश हमको रोकता है कि लोग क्या कहेंगे । हम इतने बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति इस प्रकार पागलों की तरह नाचें गायें, कितनी लज्जा की बात है। तो यह लज्जा का भाव हमारा सबसे बड़ा पाश है । सबके सामने नंगा होकर विचरण करना तो बहुत बड़े साहस का कान है। हम अकेले में भी नंगे होकर ध्यान आदि करने में शरमाते हैं। जिन सम्प्रदायों में नंगे होकर विचरण करने की प्रथा है, उसके मूल में लज्जा पाश से मुक्त होने की भावना है। श्री रामकृष्ण परमहंस जी अपनी साधनावस्था में जप ध्यान करते समय निर्वस्त्र होकर भजन करते थे और प्रभु प्रेम में मतवाले होने पर तो उन्हें इसका ध्यान हो न रहता था कि कब उनके वस्त्र खुलकर अलग हो गए हैं। उनके शिष्य भक्त लोग ही उनके वस्त्रों को ठीक किया करते थे । भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ जो चीरहरण लीला की है, उसका रहस्य भी यही है। भगवान श्री कृष्ण महान् योगेश्वर अवतारी पुरुष थे और सांसारिक दृष्टि से भी देखें तो उनकी अवस्था उस समय मात्र दस वर्ष के लगभग थी । गोपियों ने माता कात्यायिनी का व्रत किया था और यह व्रत श्रेष्ट सुन्दर पति को प्राप्त करने के लिए किया था। गोपियों ने श्रीकृष्ण जैसा सुन्दर श्रेष्ठ पति प्राप्त करने के लिए मां कात्यायिनी से प्रार्थना की थी। ब्रज अंचल में उस समय स्त्रियों में यह प्रथा थी कि वे जल में नंगी होकर स्नान करती थीं। अतएव गोपियां अपने वस्त्रों को किनारे पर रखकर जल में स्नान करने के लिए पैठ गई। कुछ आचायों का मत है कि जल में नंगे स्नान करना बुरी बात है।
इससे जल देवता का अपमान होता है और इस बुरे रिवाज या प्रथा को मिटाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों को शिक्षा देकर सुधारने की दृष्टि से चीर हरण लीला की थी। यह मत भी ठीक है। परन्तु दूसरा अधिक सम्मत मत यह है कि भगवान गोपियों को लज्जापाश से मुक्त करना चाहते थे। भगवान की उपासना कितने ही भावों से की जाती है। यथा स्वामी सेवक भाव जैसी हनुमान जी की है, भगवान को पिता और अपने आपको पुत्र मानकर - जैसी भक्तराज ध्रुव ने की। तीसरी वात्सल्य भाव को भगवान को पुत्र मानकर, माता कौशल्या, माता देवकी और कितने ही भक्त जो भगवान की बालगोपाल रूप में उपासना करते हैं इस कोटि में आते हैं। सखा भाव से भगवान को अपना परम सखा सुहृद मानकर जैसा अर्जुन ने माना था । सखी भाव की, जिसमें भगवान को पत्ति भाव में माना जाता है और गोपियों का यही भाव था। मीराबाई का भी यही भाव था। शत्रु भाव की भी उपासना होती है इसमें शत्रु का ध्यान सदा रहता है चाहे शत्रु भाव ही हो और कहते हैं कि रावण का यही भाव था। एक वीर भाव की उपासना है जो तन्त्र में की जाती है। इसमें भगवान को या स्त्री स्ट्रेप शक्ति को पत्नी रूप में मानकर स्वयं को पति भाव से माना जाता है। अपने को शिव रूप समझ कर और स्त्रियों को शक्ति रूपिणी समझ कर। यह अन्तिम भाव बहुत कठिन भाव है, इसका निर्वाह दुष्कर होता है, बस्तु ।
गोपियों की भावना भवित सखी भाव की थी और वे भगवान की भक्ति पति भाव से करती थीं। भगवान के सामने या पति के सामने स्त्री को सम्पूर्ण लज्जा का परित्याग करके ही जाना होता है। जब तक जीव में लज्जा का पाश या आवरण है तब तक उस परम पुरुप का सामीप्य प्राप्त नहीं होता। ब्रज-बालाओं ने जल में खड़ी होकर जब श्रीकृष्ण भगवान से प्रार्थना की कि उनके वस्त्र उनको लौटा दिये जायें, तो भगवान ने उनसे जल से निकल कर अपने पास तक आने को कहा। भगवान उनके वस्त्र और चीर हरण करके उन वस्त्रों सहित पास के एक वृक्ष की डाल पर बैठे हुए मुस्करा रहे थे। गोपियां सकुचाई परन्तु जब उन्होंने देखा कि कोई चारा नहीं है, तो वे जल से बाहर निकलीं। वे निर्वस्त्र थीं, स्वाभाविक है कि लज्जा का थोड़ा बहुत अंश उन में अभी बाकी था। अतएव अपने गुह्य अंग पर हाथ रखकर उसे दृष्टि से छिपाते हुए वे जल से बाहर निकली। भगवान तो चाहते थे कि उनके लज्जा पाण का निबारण पूर्ण रूप से हो जाए। गोपियां भगवान की जन्म जन्मांतर से भक्ति करती चली आ रही थी और इस जन्म में उनको अपने आराध्य का सामीप्य लाभ प्राप्त हुआ था। अब वह समय आ गया था, जब उनको अपनी साधना का चरम लक्ष्य प्राप्त हो। वे अपने आराध्य के सम्मुख अपना सर्वस्व अर्पण करके अपने सभी पाशों और बन्धनों से मुक्त होकर भगवान की ही हो जायें। अतएव श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुमने व्रत के समय बिल्कुल नंगी होकर जल में स्नान किया है, इससे वरुण देवता का अपमान हुआ है।
इस अपराध 'की क्षमा मांगने के लिए तुम को अंजुलि बांध कर प्रार्थना करनी चाहिए । फिर मेरे पास आकर अपने वस्त्र धारण कर लो। अंजुलि बांध कर प्रार्थना करने के लिए गोपियों को अपने दोनों हाथ ऊपर उठाने पड़े और इससे उनके गुप्त अंग पर रखा हुआ उनका हाथ भी ऊपर उठ गया। इस प्रकार वे अपने स्वामी आराध्य के सामने बिल्कुल निरावरण होकर सर्मापत हो गई। वे इसी दशा में भगवान के समीप पहुंची। भगवान कृष्ण ने उनके वस्त्र लोटा दिए । 'भागवत में उल्लेख है कि कृष्ण भगवान इससे बहुत प्रसन्न हुए और गोपियों को अपनी वंशी वादन सुनाकर आनन्द विभोर कर दिया। श्रीकृष्ण के प्रसन्न व आनन्दित होने का एक कारण तो यह था कि उन्होंने अपनी अनुगामिनी गोपियों को लज्जा के पाश से मुक्त कर दिया था और दूसरा कारण तान्त्रिक दृष्टि से यह था कि उन्होंने अपनी एक साधना में भी सिद्धि प्राप्त कर ली थी। जितने भी अवतारी पुरुष हुए हैं उनको भी सभी विद्याओं की शिक्षा 'विधिवत लेनी पड़ी है। यह अलग बात है कि उनको बहुत थोड़े प्रयत्न व साधना से ही इनमें सिद्धि प्राप्त होती रही है। भगवान राम ने गुरु विश्वामित्र के पास रहकर धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की थी। गुरु वशिष्ठ के पास रहकर आध्यात्म की शिक्षा ली थी। चाहे ये सब ज्ञान उन्हें स्वयं सिद्ध रहा हो ।
'भगवान श्रीकृष्ण ने भी गुरु सांदीपनी के आश्रम में रहकर विधिवत शिक्षा ग्रहण की थी और सभी प्रकार की तान्त्रिक साधनायें भी की थीं तथा अनेक प्रकार की अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त किया था, जो उनके बाद के जीवन में बहुत काम आई थीं। भगवान राम कृष्ण परमहंस को तो माता जगदम्बा के दर्शन के बाद भी सभी तान्त्रिक साधनायें व योग की साधनायें विधिवत करनी पड़ी थीं । भगवान श्रीकृष्ण ने चाहे बाद में कितने ही विवाह किए और गृहस्थ धर्म का पालन किया, परन्तु इस सब के होते हुए भी वे महान योगीश्वर, इन्द्रिय- 'जित व काम पर विजय प्राप्त करने वालों में से थे। तान्त्रिक साधनाओं का मुख्य उद्देश्य काम पर विजय प्राप्त करना और इन्द्रियों की वासना पर विजय प्राप्त करना होता है। अपने ब्रज प्रवास काल में गोपियों के साथ जो लीलाए उन्होंने कीं, वे सब काम देव पर उनकी महान विजय की द्योतक हैं। वीरभाव की साधना के वे सबसे उत्कृष्ट नायक हैं। रस सम्राट् हैं। शिव और शक्ति का जो महारास सारे विश्व के कण-कण में हो रहा है, उसी की अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी महारास लीला के द्वारा कराई। नंगी युवती स्त्रियों को जो त्सव भांति सुडौल व सुन्दर शरीर की थीं उनको निर्वस्त्र देख कर भी उनको कोई काम विकार उत्पन्न नहीं हुआ। वे निर्विकार रहे और इस प्रकार अपने को निविकार सिद्ध करने में सफल रहे, इसका उन्हें आनन्द हुआ। उनकी यह तान्त्रिक साधना जिसे गवाक्ष योग साधन कहा जाता है सफल रही। लोग अपने दृष्टिकोण से देखते हैं और उन्हें यह बड़ा दुष्कर प्रतीत होता है कि कैसे कोई इतनी सारी सुन्दर व नंगी स्त्रियों को देखकर भी अपने पर नियंत्रण रख सकता है। अज्ञानी जन भगवान के पावन चरित्र पर लांछन लगाने में भी नहीं हिचकिचाते । परन्तु यह दुष्कर कार्य बिरले ही महापुरुषों और प्रबल आत्म शक्ति वाले अवतारी सिद्ध पुरुषों के द्वारा ही सम्भव है।
भगवान श्रीरामकृष्ण
परमहंस जो अभी पिछली शताब्दी में ही हुये हैं और जिनके बारे में बहुत से तथ्य
प्रामा- णिक रूप से उपलब्ध हैं, वे आजन्म गृहस्थ रहे परन्तु अपनी धर्मपत्नी मां शारदा के
साथ एक शैय्या पर सोते रहते हुए भी सदा उनमें मातृभाव ही रखा। कभी काम के वश होकर
शरीर संभोग की इच्छा तक नहीं की । तान्त्रिक साधना
का मुख्य उद्देश्य जीव का शिव शक्ति से मिलन है बोर जो तान्त्रिक क्रियायें हैं वे
साधक को कामवासना पर विजय प्राप्त कराने के लिये की जाती है। इन्हीं में एक साधना
षोडशी पूजन की है। इसमें एक सर्वांग सुन्दरी सोलह वर्षीय कन्या की पूजा साक्षात् भगवती
त्रिपुर सुन्दरी की भावता रख कर की जाती है। अमावस्या की रात्री को उस कन्या को
उत्तम वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित करके उच्चासन पर बिठाया जाता है और उसके अन्दर्
मां जगदम्बा की प्रतिष्ठा की जाती है। यदि साधक की सच्ची भावना होतो है तो उस
घोडशी कन्या में साक्षात् जगदम्बा का आविर्भाव हो जाता है। तत्पश्चात् उस सशरीरी जगदम्बा की पोडशोपचार से पूजा की जाती है। अपने हाथ से
नेवैद्य खिलाया जाता है और आत्म निवेदन किया जाता है।
वैष्णवोक्त तन्त्र साधनाबों में तो मद्य मांस का प्रयोग नहीं किया जाता और यह सब मधुर भाव से की जाती है। कितने ही ऐसे सम्प्रदाय वैष्णवों में हैं जिनमें स्त्रियां गोपी भाव या राधा भाव से साघना करती हैं और कृष्ण को ही पति मानती हैं। कहीं-कहीं किसी सुन्दर युवक में कृष्ण की भावना करके भक्ति करने का चलन है। ऐसी साधनाओं में मन पर नियंत्रण नहीं रहने पर बहुधा दोनों के ही पथ भ्रष्ट होने की पूरी आशंका रहती है। इसलिए इस प्रकार के सम्प्रदाय लोगों में बदनाम हो गये हैं। जिन महापुरुषों ने यह सम्प्रदाय चलाये थे, उनका उद्देश्य यही था कि कृष्ण पर व्यान लगाना या एक अव्यक्त पर प्रेम भावना को केन्द्रित करना अपेक्षाकृत कठिन होता है, इसलिए उसे पहले एक संशरीर व्यक्ति पर केन्द्रित किया जाये और बाद में उसे श्रीकृष्ण की ओर बदल दिया जाये परन्तु इसमें यही खतरा रहता है कि साधक भौतिक प्रेम में ही लिप्त होकर अवनति की ओर चला जाता है। सूफी मत में भी कुछ ऐसी ही साधना होती है। शाक्त सम्प्रदाय में प्रधानतः वीर भाव की साधना है। इसमें मद्य मांस का प्रयोग किया जाता है और साधक अपने में शिव भाव आरोपित करके शक्ति रूपिणी स्त्री को ग्रहण भी करते हैं। क्योंकि यह मार्ग सभी सीधे मागों से हट कर एक उल्टा रास्ता है, इसलिये इसे वाम मार्ग कहा जाता है। जैसे कोई आपसे मिलने सामने के सदर दरवाजे से आता है, कोई खिड़की के रास्ते से आता है और कोई शौचालय के मार्ग से आता है। षोडशी पूजा में यह साधक भगवती रूपी कन्या या स्त्री को कारण वारि यानी मद्य अर्पण करते हैं और स्वयं भी प्रसाद रूप में इतनी अधिक मद्य पीते हैं कि इन्हें अपना होश तक नहीं रहता ।
पीत्वा-पीत्वा पुनर्पीत्वा पीत्वा पतति भूतले। इतनी पियो कि पृथ्वी पर गिर पड़ो। यह इनका मूल मन्त्र होता है। मद्य पीने से मनुष्य अपने होश ह्वास खो बैठता है, उसे अपने शरीर की सुधि नहीं रहती और यह भी सत्य है कि स्त्री संभोग में जो विषयानन्द आता है, वह परम्मात्मा से आत्मा के मिलने के परमानन्द से कुछ ही कम है। स्त्री पुरुष के संभोग के समय जो चरम आनन्द की स्थिति होती है, उसे विपयानंद की संज्ञा दी गई है। आप कोई वस्तु खाते हैं और उस समय आपका ध्यान या मन कहीं और है तो आपको उस वस्तु का स्वाद या उससे आने वाले आनन्द का पता नहीं चलेगा। इसी प्रकार आप कोई मधुर संगीत सुन रहे हैं। यानी संगीत बज रहा है या कोई गायक गा रहा है परन्तु यदि बीच में आपका ध्यान कहीं और चला जाता है, तो उस संगीत का आनन्द आपको नहीं आयेगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भोगों का भी आनन्द लेने के लिये ज्ञानेन्द्रिय भोग्य वस्तु और आपके मन का एकाग्र होना आवश्यक है। किसी भी नशीली वस्तु के सेवन से शरीर के तन्तुओं में एक विशेष प्रकार की तीव्रता आ जाती है और मद्य में यह प्रभाव है कि शरीर व मन की अच्छी, बुरी प्रवृत्तियों को भी उभार देती है। क्रोधी व्यक्ति के क्रोध को, कामी व्यक्ति के काम को इसी प्रकार उस व्यक्ति के शरीर व मन में बसने वाले गुणों व दुर्गुणों को उभार देती है। विषयानन्द को परमानन्द का सहोदर बताया गया है। जिस समय संभोग क्रिया की चरम परिणति होती है, उस समय कुछ क्षणों के लिये प्रतीत होता है कि परमानन्द प्राप्त हो गया। क्योंकि यह क्षणिक होता है, नाशवान अस्थायी है और इससे शरीर व मन की हानि अवनति होती है, इस कारण सज्जन पुरुषों ने, महापुरुषों ने इसे हेय माना है। कुण्डलिनी शक्ति जहां सोई पड़ी है योनी व लिंग की इन्द्रियां उस स्थान के सबसे समीप हैं। हो सकता है किसी योगी साधक की कुण्डलिनी शक्ति स्त्री संभोग करते समय किये गये जप ध्यान आदि क्रियाओं के करने से जागृत हो गयी हो और उसने तत्त्व में वाम मार्ग का चलन प्रारम्भ कर दिया हो।
और बाद में इस प्रकार की विचारधारा के योगी साधक योग सम्बन्धी सफलता पाने के लिये व कुछ इन्द्रिय सुख की लालसा से इसमें सम्मिलित हो गये हों। यों तो अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग सभी सम्प्रदायों में होते हैं परन्तु तान्त्रिकों के नाम से आज आम लोग यही जानते हैं कि यह पूरी तरह से वाम मार्गी लोगों की ही जमात है । वृद्ध धर्म के आने से पहले भारतवर्ष में भी मांस खाने का आम रिवाज चा और यज्ञों में पशुबलि व कहीं-कहीं नरवलि तक दी जाती थी। बलि मांस को सब लोग यहां तक कि उस समय का ब्राह्मण ऋपि वर्ग भी निसंकोच ग्रहण करता था। सुरा का भी समाज में और पूजा यज्ञ आदि कार्यों में प्रचलन था। असुर कही जाने वाली जातियों में तो सारी पूजा उपासना मद्य मांस जैसी वस्तुओं के द्वारा ही होती है। और वह भी सर्व विदित है कि असुरों के पास कितनी ही विलक्षण आसुरी शक्तियां थीं, जो चाहे विध्वंसक ही हों, परन्तु इससे यह तो साबित हो ही जाता है कि मद्य मांस सुरा सुन्दरी को लेकर की जाने वाली तांत्रिक साधनाओं से अलौकिक सिद्धियां तो मिल ही सकती हैं। इसका साधन करने वाले लोग बासुरी शक्तियों पर अधिकार रखने, नियंत्रण करने में सफल होते पाये गए हैं। अहं ब्रह्मास्मि और शिवोहं यानी मैं ब्रह्म हूं या मैं शिव हूं, यह सिद्धांत हमारे शास्त्रों में एक मान्य सिद्धांत के रूप में प्राचीनकाल से ही प्रतिपादित है, परन्तु यह बहुत कठिन मार्ग है। अपने में शिवत्व की भावना का आरोपण भी यदि पूरी तरह से कोई करले, तो वह शिवरूप ही हो जाता है। वाम मार्गी तांत्रिक साधनाओं में अपने शरीर में शिवत्व का और नारी शरीर में शक्ति तत्व का बारोपण करके अपने उस विश्वास को पक्का करता है। वाम मार्ग में एक चक्रानुष्ठान किया जाता है जिसे भैरवी चक्र भी कहते हैं। इसमें कुछ पुरुष साधक तथा उतनी ही स्त्रो साधिकायें सम्मिलित होती हैं। कोई वाहर का आदमी जो इनके सिद्धांतों में विश्वास नहीं रखता उपस्थित नहीं रहने दिया जाता। ये लोग स्त्री साधि- फाओं को शक्ति रूप में स्थापना करके उनका पूजन करते हैं और कारण वारि (मद्य) का भोग लगाते हैं। प्रसाद रूप में सब साधक उसे पान करके शिवत्व को प्राप्त हो जाते हैं। तब वे सब नग्न हो जाते हैं। शक्तियों (स्त्रियों) के अधोवस्त्र एक स्थान पर एकत्र कर दिए जाते हैं।
जिस शिव (पुरुष) के हाथ में जिस स्त्री (शक्ति) का वस्त्र आ जाये वही उसकी उस अनुष्ठान के लिए शिव शक्ति होती है। वह शिवरूप पुरुष अपनी शक्ति को साथ लेकर मद्यपान करता है तथा काम क्रीड़ा, रास क्रीड़ा, करने में सब के साथ सामूहिक रूप से निमग्न होकर विषयानन्द रूपी परमानन्द की प्राप्ति करता है। उन लोगों का कहना है कि काम वासना की प्रवृत्तियों को बलपूर्वक शमन करने से वे उतने ही उग्र रूप से और अधिक मात्रा में जाग्रत होती हैं। इससे उनकी पूर्ति करके उनका उपराम हो जाता है और फिर इस अनुष्ठान में कामवासना न रहकर शिवत्व की भावना उत्तरोत्तर प्रबल होती जाती है। अघोरपंथ की साधना में घृणा के पाश से मुक्त होने पर अधिक जोर दिया गया है और भय भाव से भी मुक्ति मिलती है। इसमें श्मशान में बैठ-कर साधना करना, शव पर बैठकर साधना करना, शव मांस ग्रहण करना, विष्ठा, मूत्र, कीचड़ जैसे घृणित समझे जाने वाले पदार्थों में भी समभाव रखना और ऐसे मलिनवेश व रौद्र भेष में रहता जो शिवजी के गणों का शास्त्रों में णित है आदि बातें मुख्य हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि जीव के अष्ट- पाशों में लज्जा घृणा भय तीन मुख्य पाश हैं। सब में उस चेतना तत्व का निवास है और परमार्थ साधन करने वाले को संसार के सभी जीवों व पदार्थों में समभाव रखना चाहिए। अन्य सम्प्रदायों में इसका अभ्यास अपने-अपने ढंग से कराया जाता है। इस सम्प्रदाय में इसके लिए बड़े उग्र साघन हैं जो देखने सुनने में बड़े भयानक और वीभत्स प्रतीत होते हैं. परन्तु देखा यह गया है कि इनसे अलौकिक सिद्धियां चाहे वे निम्न कोटि की ही हों, बहुत शोघ्र प्राप्त हो जाती हैं । श्मशान एक ऐसा स्थान होता है जहां जाते ही संसार की नश्वरता का आभास तत्क्षण होता है, संसार से वैराग्य की भावना एकदम जाग्रत होती है, भोजनान्ते मैथुनान्ते श्मशानान्ते च या मते । सामते सर्वदा चेतसात् नरो नारा- यणा भवेत् । भोजन के उपरान्त पेट भर जाने पर जिस प्रकार भोजन से उप- राम हो जाता है, मैथुन कर्म करने के बाद उस कर्म से तबीयत हट जाती है और जिस प्रकार श्मशान में किसी दाहकर्म में जाने के बाद इस संसार से वैराग्य हो जाता है; तो शास्त्रकार कहता है कि जिस प्रकार की यह मति या बुद्धि थोड़ी देर के लिए होती है उसी प्रकार की बुद्धि यदि सदा बनी रहे तो यह नर साक्षात नारायण हो जाय । श्मशान में जाकर साधना करने का यही अभिप्राय होता है कि यहां पर संसार से वैराग्य भावना का उदय होता है और मन यदि एक बार इस संसार की मोह माया से हट जाय तो दूसरी ओर जल्दी लग जाता है।
दूसरा लाभ यह होता है कि शमशान में जाने से भय का नाश होता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी अपने साधनकाल में रात के बारह बजे श्मशान में जाकर नग्न होकर बैठते थे और अपनी शक्ति साधना करते थे । श्मशान में बहुत सी प्रेतात्मायें निवास करती हैं। उनका पार्थिव शरीर तो नहीं होता परन्तु सूक्ष्म शरीर होता है। यह वह आत्मायें होती हैं जिनकी वासनायें अतृप्त रह जाती हैं जिनकी गति नहीं हो पाती या अकाल मृत्यु हो गई होती है। उन्हें प्रेत योनी में रहना पड़ता है और ऐसी, अधिकतर नात्मायें शमशान में ही वास करती हैं। ऐसी प्रेतात्माओं के शरीर नहीं होता तो मुख आदि इन्द्रियां भी नहीं होतीं और वे कुछ खा पी नहीं सकतीं। परन्तु उनको इच्छित वस्तु मिलने पर उन्हें तृप्ति अवश्य होती है और वे इस प्रकार की वस्तुयें उन्हें अर्पण करने वाले पर शीघ्र प्रसन्न भी हो जाती हैं। नहीं तो वे तंग करती हैं और कमजोर आत्मशक्ति वाले लोग तो इन भयावह क्रियाकलापों से डर कर बेहोश हो जाते हैं। कभी-कभी तो उनके हृदय की गति रुक कर मृत्यु भी हो जाती है। श्रीरामकृष्ण जी (उस काल में उनका नाम गदाधर था) भी इसी लिए उन प्रेतात्माओं की वासना शान्ति के लिए अपने साथ एक खप्पर या हंडिया में उनको प्रसन्न करने वाली वस्तुयें ले जाते थे और उसे शमशान में एक स्थान पर रख देते थे । वह पात्र वहां से किसी वृक्ष की ओर उड़ जाता था और प्रेतात्मायें शान्त हो जाती थीं और उनको शान्ति से अपना भजन करने देती थीं। श्रीरामकृष्ण जी को तो प्रेतात्मायें सिद्ध करनी नहीं थीं। उनको तो अपना साधन निर्विघ्न करना था। परन्तु बन्य शमशान साधक प्रेतात्माओं को इत्ती प्रकार भेंट आदि देकर सिद्धकर लेते हैं और फिर उनके द्वारा अपने बहुत से स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कुछ आत्मायें भूतकाल की तथा वर्तमान काल की बातें ठीक बता देती है। कुछ अच्छी शुद्ध नात्मायें जो श्मशान में नहीं रहतीं, भविष्य के बारे में ज्ञान दे देती हैं। शमशान साधक जो भूत प्रेत सिद्ध करते हैं उनकी गति नहीं होती। वे उसी प्रेत योनी में जाते हैं। उनकी मृत्यु के समय वे ही प्रेत मल, मूत्र, विष्ठा जैसी घृणित वस्तुएं उनके मुख में भर देते हैं। लज्जा घृणा भय कुल शील जाति मान अभिमान यह अष्टपाश है। इन्हीं से मुक्त कराने के लिये भिन्न सम्प्रदायों में उनके प्रवर्तकों ने तरह तरह के साधन निर्धारित किये हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी शमशान में या पंचवटी में सारे बस्त्र उतार कर, यहां तक कि जाति नूचक जनेऊ भी उतार कर भजन करते थे। एक हाथ में सिक्के, दूसरे में कुछ मिट्टी के ढेले लेकर दोनों को गंगाजी में फेंक देते थे।
इस भावना को दृढ़ करने के लिये कि दोनों ही समान हैं। अपवित्र स्थान को साफ करना, भिखारियों तक की झूठन को प्रसाद रूप में ग्रहण करके और इसी प्रकार की साधनाओं से अष्ट पाशों से मुक्ति पाई जाती है। संसार में भांति भांति के लोग हैं और भांति भांति के पन्य हैं। जो जिसे अच्छा लगता है वह उसी की ओर आर्काषत होता है। रास्ते सब उस ईश्वर की ओर ही ले जाने वाले हैं। कोई सुगम कोई दुर्गम हो सकता है। किसी को दुर्गम मार्ग ही पसन्द होता है और कोई मार्ग ऐसा भी हो सकता है कि जिसमें मार्ग के प्रलोभन मंजिल तक पहुंचने की इच्छा को ही समाप्त कर सकते हैं। इसलिये सही मार्ग चुनना चाहिये । महाजनो येन गतः सः पन्था । जिस मार्ग पर चल कर महापुरुषों ने लक्ष्य की प्राप्ति की है वही मागं सही है। शाक्त तन्त्र के अन्तर्गत वाम, अघोरी, वामाचारी, कोलाचारी व कापालिक सम्प्रदाय हैं, उन सबकी साधानायें गूढ रहस्य से भरी हुई तामसिक क्रियाओं से युक्त होती हैं। बाम मार्ग की साधनाओं में चक्रानुष्ठान, शव साधना, चिता साधना मुख्य साधनायें हैं। इनसे अलौकिक सिद्धियां बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं परन्तु इनमें प्राणों तक का खतरा रहता है। एक तो इनमें गुरु के निर्देशन की पूरी आवश्यकता है। दूसरे इन साधनाओं को करने से पहले मन्त्र अभ्यास, कुण्डलिनी, योग ध्यान आदि के द्वारा इतना अधिक आदम बल इकट्ठा कर लेना चाहिये कि भयभीत न हों और साधना का फल जिस रूप में भी सामने आये उसे ग्रहण करने की शक्ति शरीर, मन व आत्मा रूपी पात्र में हो। नहीं तो साधक विक्षिप्त हो जाता है, उस निधि को संभाल नहीं पाता या कभी-कभी प्राणों तक की आहुति भी देनी पड़ती है। अभी हाल में ही एक ऐसे ही साधक की मृत्यु इसी प्रकार की साधना करते समय हो गई थी जिसका विवरण मनोहर कहानियाँ नाम की पत्रिका में छपा था । तांत्रिक साधना का राजमार्ग राजयोग की पद्धति से साधना करना हो अधिक श्रेयस्कर है जिसमें साधक गुरु के निर्देशन में चाहे धीरे-धीरे ही आगे बढता हो, पर पथभ्रष्ट होने की बाशंका नहीं होती और इसकी क्रियायें भी सात्विक होती हैं। प्राणायाम के सीधे, सरल अभ्यासों के द्वारा यम नियम का पालन करते हुये स्वांस सुरति पर मंत्र जप करते हुये शनैः शनैः एक-एक चक्र को पार करते हुए साधक आगे बढ़ता जाता है। जिस प्रकार रीड की हड्डी के अन्तर्गत सात मुख्य चक्र है, उसी प्रकार इस जीव के सात शरीर हैं। आप चाहें तो भी इन शरीरों में अपने को नहीं बदल सकते, परन्तु कुण्डलिनी योग का साधक जब शरीर के अन्दर के चक्रों को पार कर लेता है, तो उसको यह शक्ति प्राप्त हो जाती है। उसकी सभी इन्द्रियों की शक्ति बढ़ जाती है। जैसे हम अपने इस स्थूल शरीर के चर्म चक्षुओं के द्वारा अपने सामने के दृश्यों को अधिक से अधिक क्षितिज तक देख सकते हैं और उन्हीं स्वरूपों को देख सकते हैं जो हमारी तरह स्थूल शरीरधारी हैं। परन्तु यदि हमारी कुण्डलिनी शक्ति मूला- घार से उठकर स्वाधिष्ठान चक्र तक भी पहुंच जाती है तो हमें कुछ ऐसे लोक की आत्माओं के दर्शन होने लगते हैं जो हमसे ऊपर के लोक के निवासी हैं। हमें काफी दूर तक दिखाई देने लगता है। अन्तर्चक्षुओं से काफी दूर के दर्शन सुलभ हो जाते हैं। इसी प्रकार हमारे कानों के श्रवण यंत्र जो बहुत पास की आवाज ही सुन सकते हैं, दूर तक की ध्वनियों को सुनने में सक्षम हो जाते हैं और बहूत सी ऐसी ध्वनियां जिनकी फीक्वेन्सी यानी ध्वनि तरंग गति स्थूल कानों को सुनाई नहीं दे सकती, सुनाई देने लगती है। हमारे कानों का यंत्र २००० से १५००० तक गति की ध्वनियों को ही सुनने की क्षमता रखता है।
परन्तु जैसे-जैसे साधक साधना में आगे के चक्रों की ओर बढ़ता जाता है, उसे वे ध्वनियां भी सुनाई
देने लगती हैं जो इससे कम या ज्यादा गति के वायुमण्डल में रहती हैं। जैसे आप किसी
रिकार्ड को बजायें और उसको निश्चित गति से अधिक या कम पर बजायें तो उसमें से
चिर-फिर की आवाज आयेगी आपकी समझ में कुछ नहीं आयेगा। एक झींगुर की झंकार आपको झंकार
जैसी सुनाई देती है, परन्तु दूसरे
झींगुर के लिए जिसकी कर्णेन्द्रिय उसी फ्रीक्वेन्सी पर सेंट हैं वे ध्वनियां हैं
अर्थपूर्ण है। कहने का तात्वर्य यह है कि जैसे-जैसे साधक अन्तर अभ्यास में मणि
पूरक, अनाहत भादि
चक्रों को पार करता जाता है, उसका अतीन्द्रिय ज्ञान बढ़ता जाता है। वह सूक्ष्म शरीर में
प्रवेश करके अदृश्य होकर हवा में उड़ सकता है तत्काल एक स्थान से दूसरे स्थान पर
पहुँच सकता है। इस प्रकार के सिद्ध योगी हुये हैं और कदाचित अब भो तिब्बत, हिमालय जैसे त्यानों में
हों। इस प्रकार के सिद्ध योगी जन क्योंकि संसार से विरक्त होते हैं, अपने चमत्कारों का, अपनी अलौकिक सिद्धियों का
प्रदर्शन नहीं करते। अनायास आवश्यकता वश किसी चमत्कार का प्रदर्शन हो जाने पर ही
वह दूसरों की दृष्टि में आ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के जीवनवृत्त से
हमें पता चलता है कि एक बार वे शरीर से अपने शिष्यों के बीच में समाधिमग्न थे और
उसी समय वे काफी दूर मां के उत्सव में भी सम्मिलित हुए थे तथा वहां पर उपस्थित
लोगों ने उन्हें देखा था ।
किसी काल में तिब्बत में तंत्र -मंत्र का बहुत ही अधिक प्रचलन था .यहाँ के लोग महान तांत्रिक मिलेरप्पा से अवश्य हीअवगत होंगे . दुर्भाग्यवश बाल्यकाल में ही मिलेरप्पा ने अपने पिता को खो दिया था जिसके बाद मिलेरप्पा उसकी माँ और छोटी बहन को चाचा के सानिध्य में आना पड़ा. वैसे मिलेरप्पा के पिता परिवार के गुजारा कर लेने से अधिक की संपत्ति छोड़ गए थे .मगर मिलेरप्पा के चाचा ने वो सब कुछ हड़प लिया और उसके बाद वे अपनी भाभी और भतीजे- भतीजी को दुःख तकलीफ देने लगे.
यह देखकर मिलेरप्पा को गुस्सा आने लगा , मगर वो छोटा था इसलिए कुछ नहीं कर सकता था . लेकिन माँ और बहन पर बढ़ते अत्याचार ने मिलेरप्पा को घर से निकलने पर मजबूर कर दिया . बालक मिलेरप्पा कुछ ऐसी शक्तियां चाहता था जिससे वो बिना सामने आये अपने चाचा से बदला ले सके . इसके बाद मिलेरप्पा को पता चला तंत्र विद्या के बारे में. जिसके बाद मिलेरप्पा एक अघोरी की संगती में रहकर तंत्र विद्या सिखाने लगा और फिर अघोरी द्वारा बताये सारे कर्मो को करके उसने तांत्रिक विद्या सिख ली.
मगर जब -तक मिलेरप्पा अपनी तांत्रिक विद्या अपनी माँ बहन को बताकर खुश हो पाता, उसकी माँ औए बहन मर चुके थे .जब मिलेरप्पा को इसके बारे में पता चला तो फिर उसके क्रोध की कोई सीमा नहीं रही .मगर अब मिलेराप्पा अवसर की प्रतीक्षा में था.
और फिर एक दिन जब मिलेरप्पा के चाचा ने अपने बेटे की शादी का आयोजन रखा था तो मिलेरप्पा ने अपनी तांत्रिक शक्ति के द्वारा आंधी- तूफ़ान को उत्पन्न कर, सब कुछ तहस -नहस कर दिया जिसमे मिलेरप्पा के चाचा- चाची और चचेरे भाई के अलावे बहुत सारे लोग मारे गए. मिलेरप्पा कुछ दिनों तक तो खुश रहा मगर इसके बाद वो पश्चात और ग्लानी के सागर में डूबने लगा .उसके इस जघन्य अपराध ने उसे अन्दर तक हिलाकर रख दिया था. अशांत मिलेरप्पा अब मुक्ति की तलाश के लिए निकल पड़ता है .
फिर किसी से उसे एक बहुत बड़े गुरु मारपा के बारे में पता चलता है .मिलेरप्पा अब मारपा की खोज में निकल पड़ता है. कुछ समय के बाद उसे मारपा मिल भी जाता. जिसके बाद मिलेरप्पा गुरु के पास रहकर उनसे दीक्षा पाने की याचना करता है .मगर मारपा इसके लिए मिलेरप्पा के पास दो शर्तें रखते हैं – या तो दीक्षा या फिर भोजन. दोनों चीज़ें एक साथ नहीं मिल सकती थी उसे .जिसके बाद मिलेरप्पा खुद भोजन जुटाकर गुरु से दीक्षा लेने के लिए तैयार हो जाता है . मगर कुछ ही दिनों के बाद मिलेरप्पा को पता चलता है कि उनका गुरु उन्हें कुछ सिखा नहीं रहा बल्कि उससे घर के सारे काम करवा रहा .
मिलेरप्पा सालो तक मारपा के घरेलू काम करता रहता था. इस बीच गुरुकुल में बहुत सारे बच्चे आते, मारपा से दीक्षित होते और चले जाते . गुरु मारपा , मिलेरप्पा को उनके आश्रम के पास भी नहीं आने देते थे . वक़्त गुजरता गया . जब एक दिन मिलेरप्पा से रही नहीं गया तो वो चुपके से दुसरे बच्चों ले साथ बैठ कर शिक्षा लेने लगा . गुरु मारपा को पता चलने पर उसने मलेरप्पा की उस दिन जबरजस्त पिटाई कर दी .
मलेरप्पा को दीक्षा लेने थी और वो उसी काम के लिया वहां गया था .इसलिए उसने दूसरी बार भी वही गलती की. इस बार गुरु मारपा ने उसे आश्रम से घसीटकर बाहर का रास्ता दिखा दिया . जिसके बाद मलेराप्पा ने गुरु की पत्नी से बहुत अनुनय -विनय और विनती की.
गुरु माता ने किसी तरह पति को मना लिया जिसके बाद मलेरप्पा को फिर से आश्रम में रख लिया गया . मगर इसके बाद भी मिलेरप्पा को वही काम करने पड़ते रहे जो काम वो वर्षों से करता आ रहा था . धीरे -धीरे मिलेरप्पा की उम्र ढलने लगी और फिर एक दिन गुरु मारपा ने मलेरप्पा से कहा, "अब तुम्हारी प्रतीक्षा ख़त्म हुई" इसके बाद गुरु ने मलेरपा को अपना शिष्य बनाकर उसे दीक्षित करने लगे .
काफी समय के बाद मलेरप्प्पा को तांत्रिक की देवी डाकिनी की दर्शन हुए. डाकिनी ने मलेरप्पा को जब बताया की उसकी दीक्षा अभी पूरी नहीं हुई है बल्कि एक चीज़ बाकी रह गयी है तो मिलेरप्पा फिर से अपने गुरु के पास आता है .गुरु मारपा कहता है कि उसने तो उनको सारा ज्ञान दे दिया था . मगर डाकिनी ने कहा है तो कुछ तो है जो अभी भी बाकी है और जिसके बारे में मेरे गुरु ही बता सकते हैं . तब मारपा अपने शिष्य मलेरप्पा को लेकर अपने गुरु के पास जाने के लिए निकलते हैं जो भारत में ही कहीं थे .
मगर जब मारपा अपने गुरु से मिलकर उन्हें सारी बात बताते हैं तो मारपा का गुरु भी हैरान रह जाता है और बताता है कि "नहीं तो , मेरे पास ऐसा कोई ज्ञान शेष नहीं जो मैंने तुम्हे न दिया हो ? जब मारपा के गुरु को पता चलता है कि तांत्रिक की देवी डाकिनी ने यह बात उनके शिष्य मलेरप्पा को बतायी है तो मारपा का गुरु मारपा से कहता है -"आज से यही शिष्य तुम्हारा गुरु होगा " और फिर मारपा का गुरु फिर से दीक्षा पाने निकल पड़ता है और इधर अब मारपा अपने शिष्य मिलेरप्पा का शिष्य बनकर उनसे दीक्षा लेने लगता है.
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