राजपूत वीर भी थे और कलाकार भी. उनकी वीरता युद्ध में दिखती थी और कलाकारी भवनों एवं मंदिरों में. प्रस्तुत लेख में हम राजपूतों के चित्र और स्थापत्य शैली को देखेंगे जो हमे राजस्थान के किलों और मंदिरों में दिखाई पड़ते हैं. temples & forts of Rajasthan are very unique & world wide famous.
राजस्थानी कला के नमूने
1. paintings in Rajasthan's temples
2. crafts in Rajasthan's temples & forts
1. चित्र शैली : - राजपूत शैली हिन्दू-जीवन -दर्शन को प्रस्तुत करने में प्रसिद्द रही है. उसमे पौराणिक तथा ऐतिहासिक चित्र भी बनाये गए हैं. राम और कृष्ण की लीलाओं के चित्र तो पर्याप्त मात्र में मिलते हैं. राजपूत पेंटिंग के अनुसार एक चित्र में वैकुण्ठ में निवास करने वाले विष्णु का चित्र है. लक्ष्मी पास बैठी है. शिव , गणेश और ब्रह्मा भी वहां दिखाई देते हैं ब्रह्मादी देवता विष्णु में अवतार ग्रहण करने की प्रार्थना कर रहे हैं.
2.स्थापत्य शैली : चित्र शैली की तरह स्थापत्य शैली में भी राजपूत हमेशा आगे रहें. स्थापत्य शैली का कांसेप्ट भी इनका भगवान पर ही रहा है. इसलिए कई कीले मंदिरों और भवनों में हुए उनकी कलाकारी के नमूने दृष्टिगोचर होते हैं. जैसे की ग्यालियर आमेर, जैसलमेर के स्थापत्य कला.
ग्वालियर शहर मध्य रेलवे के दिल्ली - मुम्बई मार्ग पर स्थित है. इसका प्राचीन किला एक नगरी ही है . कीले के कुछ स्मारकों को पुरातत्व विभाग ने काफी सुरक्षित कर रखा है. यहाँ सास- बहू के दो मंदिर ऐसे ही स्मारक हैं. इन दोनों मंदिरों में यही फर्क है कि इसमें एक बड़ा है और एक छोटा. स्थापत्य कला की दृष्टि से सास-बहू के मंदिर अति सुन्दर हैं. यहाँ महाबलीपुरम के मंदिरों के सामान राथाकृति है. प्रवेश करने की सीधी से लेकर भीतर स्तम्भ,दीवार और कंगूरों पर बड़ी नाजुक नक्काशी की गयी है.कहीं फूलों के और कहीं देवी - देवताओं के चित्र बने हैं. अर्थात यहाँ के मंदिर के कोई भी भाग चित्रों से खाली नहीं है. यह मंदिर राजस्थान के उदयपुर में स्थ्तित है जो पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान नारायण को समर्पत है.
सास बहु के मंदिर के दक्षिण दक्षिण तेलिका -मंदिर है. प्राचीन भारत में आने जाने के साधन कम थे. फिर भी सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहता था. तेलिका-मंदिर में ऐसे आदान प्रदान के नमूने मिलते हैं. 'तेलिका' का आदि स्त्रोत तेलिंगा है. यह नर्मदा नदी के दक्षिण का प्रदेश है. इस मंदिर का गोपुर वैसा ही है जैसा दक्षिण भारत में पाया जाता है.इस मंदिर का आयातकार आधार, आले और ऊपरी चपटे हिस्से यह सिद्ध करते हैं कि मंदिर एकदम दक्षिण -भारत की शैली का है.गोपुर काफी कलापूर्ण है. इसका निर्माण 11 वीं शताब्दी के आस पास माना जाता है. इस मंदिर के आस पास के क्षेत्रों में कभी मेवाड़ वंश फला-फुला था जिसके संस्थापक बप्पा रावल थे.
उस वक़्त के समकालीन दिल्ली सल्तनत के सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश जो भारतीय वस्तु कला से इर्ष्या रखते थे इसे नष्ट करवाने का प्रयास किया. इस मंदिर के पीछे दो मान्यताएं हैं. पहला , इसे मेवाड़ राजवंशी कि राज माता ने अपनी बहु के साथ मिलकर बनाया था इसलिए इसे सास-बहु मंदिर कहा जाता है . लेकिन एक और दूसरी मान्यता ये है कि ये दात्तातेय के शिष्य सहस्त्रबाहू का मंदिर है जो जिसका लोगों ने गलत उच्चारण करना शुरू किया और ये सहस्त्रबाहू से सास बाहू का मंदिर बन गया. किन्तु जो भी हो गुजरते वक़्त के साथ साथ इसकी निशानियाँ और पहचान मिटती जा रही है. इस मंदिर के ऊपर छज्जे पर महाभारत की कहानियाँ दराज़ है लेकिन वो भी और अपनी पहचान छोड़ती जा रही है. इसलिए आवश्यता है इस मंदिर के संरक्षण की.
आमेर की वस्तुकला
craft of Amer
आमेर जयपुर की पुरानी राजधानी है. यहाँ रमणीय भव्य स्थान चारों ओर पहाड़ियों से घिरा है. इन पहाड़ियों के प्राकृतिक दृश्यों के बीच यह स्थान स्फटिक मणि सा लगता है. विशाल चट्टानों के मुख के पास इसकी स्थिति माँ के पास बैठे भोले शिशु की-सी लगती है.एक बार इस दृश्य को देख लेने पर आखें इससे दूर नहीं हटती और बार बार इसी दृश्य का अवलोकन करने की इच्छा बलवती हो उठती है.
यहाँ के प्रसिद्द मंदिर दो हैं, जो वास्तुकला के बहुत ही उत्कृष्ट नमूने हैं.इनकी नक्काशी पच्चीकारी तथा मूर्तीकला अति प्राचीन हैं. प्रथम मंदिर का नाम अम्बिकेश्वर है, जिसमे शिव की प्रतीमा है और बाहर की ओर चारो ओर बहुत सुन्दर चौखट बना हुआ है. मंदिर के बाहर जो अष्टधातु का घंटा और घंटियाँ लगी हुई हैं, उनसे सहज ही पता चल जाता है कि कारीगर धातु -विज्ञान में भी कितने बढे-चढ़े थे. दूसरा मंदिर जगत -शिरोमणि जी का है, जो कोई देवता प्रतीक होते हैं. इस मंदिर के ऊपर का गुम्बद दो बहुत ही प्राचीन पत्थरों से तराशा हुआ है.
ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि वह एक ही पत्थर का बना हुआ है. इस मंदिर की नक्काशी बहुत ही प्राचीन और दर्शन योग्य है. आमेर का पूर्व वैभव और इसकी शान का इन मंदिरों के देखने से ही पता चलता है. आमेर के महलों के भीतर की नक्काशी की बारीकी और इसके अद्भूत सौंदर्य को देखते ही टकटकी-सी लग जाती है. राजपूत-वास्तुकला शैली से सम्बंधित महलों में ग्यालियर के बाद इसी का स्थान है. यहाँ के महलों के जालीदार झरोखों की नकाशी और पच्चीकारी राजपूतकालीन कारीगरी की शान है. नक्काशी और मूर्तिकला की तराशी सर्वथा सजीव है. वस्तुत: यह स्थान राजस्थान की प्राचीन कला का संगम है.
जैसलमेर की वास्तुकला
Jaisalmer fort
यह राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी छोर पर स्थित है. पकिस्तान की सीमा इससे मिलती है. दसवीं सदी में यवनों ने के आक्रमण से यदि उत्तर-भारत का कोई राज्य विनष्ट नहीं हुआ , तो वो था जैसलमेर. यह जैसलमेर के साहसी एवं वीर निवासियों के दृढ संकल्प का ही परिणाम था कि वे विदेशियों के चंगुल से विमुक्त रहें. फलस्वरूप यहाँ की प्राचीन संस्कृतिऔर कला ज्यों की त्यों बनी रही. यह नगर जैनमंदिरों और जैन संप्रदाय का केंद्र रहा. यहाँ के जैन-ग्रन्थ तालपत्रों पर संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में लिखे गए थे, जो संग्रहालय में सुरक्षित हैं.
अपनी शिल्प कला के लिए जैसलमेर काफी प्रसिद्द है. जैन मंदिरों, राजभवनों, नगर की हवेलियों तथा किलों में पत्थरों पर जो बारीक कारीगिरी कि गयी है,वह इतने ऊंचे दर्जे की है कि उसने भारत की कला - कृतियों में चार चाँद लगा दिए.यहाँ के पत्थरों पर की गयी उत्कुष्ट खुदाई का मुंह जवानी वर्णन नहीं किया जा सकता. फिर भी इसका वर्णन आपको Indian antiquity नामक प्रसिद्द पुस्तक में देखने को इल जाएगा. जैन मंदिरों के तोरणों और खम्भों पर जो बारीक खुदाई की गयी है वो 15 वीं सदी की है. जावा , सुमात्रा, आदि पूर्वी द्वीप में जो, जिनका सम्बन्ध भारत के साथ अति प्राचीन हैं , पुरातन भारतीय शिल्प कला के जो नमूने प्राप्त हुए हैं , वे जैसलमेर की शिल्प कला के साथ मेल खाते हैं.
जैसलमेर से चार मील दूर अमर सागर के मंदिर में मकरानी-पत्थर पर निर्मित जालियां शिल्प-कला की दृष्टि से अद्भूत हैं. यहाँ से दस मील दूर लोद्र्वा नगर में भारत का प्राचीन विश्वविधालय था. यहाँ शिव पार्वती के ८०० साल पुराने मंदिर हैं. यहाँ का किला संवत १२१२ ( 1212) में निर्मित हुआ था . उसमे एक हज़ार गृह बने थे. यह आश्चर्य का विषय है कि इस विशाल मरु-प्रदेश में , जहाँ जल एवं आवागमन के साधनों की बड़ी कठनाई है, स्थापत्य कला का इतना उत्कृष्ट नमूना कैसे निर्मित हो सकता है .? हमे इनसे सीखना चाहिए कि उस वक़्त उनके लिए यह सब कितना कठिन रहा होगा. संघर्ष तथा अभावों के बीच रहकर भी मनुष्य परिश्रम के द्वारा ऊंची से ऊंची चीज़ प्राप्त कर सकता है.
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