भारत में मूर्तीपूजा ( शिव लिंग Shiva Linga ) कब शुरू हुई और कितनी पुरानी है? Shiva Linga pooja in India Hindi mein

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भारत में मूर्तीपूजा ( शिव लिंग Shiva Linga ) कब शुरू हुई और कितनी पुरानी है?  Shiva Linga pooja in India Hindi mein



भारत में मूर्तीपूजा (Moorti pooja in India ) अथवा शिव लिंग पूजा ( Shiva Linga pooja) कब शुरू हुई और कितनी पुरानी है?  ( Shiva Linga pooja in India Hindi mein) किस अंचल में आरम्भ हुई हम जानेंगे. भारत की सभ्यता प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है. विद्वानों का मत है कि सिंधु-सभ्यता (Sindhu civilization) प्रतीक (मूर्ती) पूजक थी. मोहनजोदडो तथा हड़प्पा (Mohenjo-Daro & Harappa ) में एक प्रकार की मृन्मयी मूर्तियाँ मिली हैं जिन्हें पुरात्व-शास्त्री मातृदेवी की मूर्ती मानते हैं. किन्तु ये मूर्तियाँ प्राय: नग्न हैं. मातृदेवी की पूजा प्राचीन काल में ईजीयन प्रांत में सिन्धु - प्रांत के बीच के सभी देशों- फारस, ईरान, मिस्त्र, सीरिया, इराक,ट्रांसकासिपिया, लघु एशिया आदि में प्रचलित थी. इन देशों की मूर्तियों में इतनी विशिष्ट समानताएं हैं कि यह धारणा स्वीकार करनी पड़ती है कि प्रागैतिहासिक युग में मातृ पूजाका भूमध्य सागर में भारत तक प्रचार था. बलूचिस्तान में भी मातृदेवी की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं.


कौन थीं मातृदेवी

 

मातृदेवी की मूर्ती पूजा की उत्पत्ति भूदेवी अर्थात धरती माता की पूजा से हुई होगी. बेबीलोन की कुछ मुद्राओ पर मातृदेवी की मूर्ती अनाज की बाल के डंठल के साथ दिखलाई गयी है. मेसोपोटामिया के लेखों से ज्ञात होता है कि मातृदेवी हर प्रकार के नगर निवासियों की रक्षा करती थी. इन्ही दृष्टिकोणों से सिन्धु - प्रांत में मातृदेवी की पूजा होती रही. ऋग्वेद में मातृदेवी के लिए  'अदिति' , 'प्रकृति', या 'पृथ्वी'  शब्द का प्रयोग हुआ है.


इन खुदाईयों से ऐसी मुद्रा मिली हैं, जिसमे पुरातत्व -पंडित प्रागैतिहासिक  शिव का चित्रण मानते हैं. इस आकृति में शिव के मुख है. शिवजी दोनों हाथ घुटनों  के ऊपर रखे ह्बुए हैं, और पलथी मारकर पूर्णयोग की अवस्था में एक तिपाई पर बैठे हैं. तिपाई की दायीं  ओर चीते तथा बाईं  ओर गैंडे भैंस के चित्र हैं. शिव जी सम्मुख द्विश्रींगी हिरण खड़े हैं. शिव जी के सिर पर दो  सींगे हैं, जो सिरबंद से बंधे हुए हैं. प्राचीन काल में सींग धार्मिक प्रतीक समझे जाते थे. संभवत: सिन्धु-प्रांत के शिव की सींग भी ऐसी ही धार्मिक भावना के प्रतीक हो सकते हैं.  


सर जॉन मार्शल की राय हा कि ऐतिहासिक युग में यही त्रिभंग प्रतीक त्रिशूल के रूप में आया. मोहनजोदड़ो की शिव - आकृति में संभवत: किन्ही तीन देवताओं को एक करने का प्रयत्न किया गया है. शिवजी के दुसरे प्रकार की मूर्ती एक ताम्रपत्र पर अंकित है. इसमें शिवयोगासन में हैं. शिवजी के दोनों घुटनों के पास दो भक्त बैठे हुए हैं. दो सर्प सम्मुख बैठे हैं. शिवजी अपने गले में सर्प धारण किये हुए हैं. कुछ प्रतिमाएँ ऐसी भी हैं  जिनमे आधा नारी का और आधा भाग पुरुष का है.इन्हें अर्धनारेश्वर के नाम से जाना गया. मोहनजोदड़ो में लिंग और योनि की कई वस्तुवें मिली हैं. इसके अतिरिक्त इन स्थानों  पर अनेक लिंग प्रतीक मिलते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है किसिन्धु-घाटी में लिंगोपासना का भी प्रचार था. इन प्रतीकों के जनन इन्द्रिय-सम्बन्धी होने में कोई संदेह नहीं. 


अत: सिन्धु-घाटी में जो कुछ पाया गया है ,वह विशेष  रूप से बड़े महत्व का है, क्यूंकि उससे भारतके आर्य-पूर्व युग के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है. किन्तु  मोहनजोदड़ो में शिव-फलक कि उपलब्धि की सिन्धु-घाटी की लिखावट में वेदों के नामों  के सपष्ट लेखों ने पक्षिम के विद्वानों की मान्यताओं को पूर्ण रूप से मूल रहित कर दिया है. अब यह नहीं कहा जा सकता कि मोहनजोदड़ो की सभ्यता द्रविड़ों की तथा वेद-पूर्वकी थी. मोहनजोदड़ो की सभ्यता भले ही वेद-पूर्व न हो, किन्तु वो आर्य-सभ्यता भी नहीं थी,क्यूंकि आर्य सभ्यता में मूर्ती-पूजा का प्रचलन भारत में निश्चित रूप से पहले नहीं था और अनार्यों की लिंग -पूजा का वेद में दो स्थलों पर उपहास किया गया है. 


ज्ञात हो कि आर्य सभ्यता और मोहनजोदड़ो की सभ्यता समकालीन सभ्यताएं थीं. क्यूंकि आर्य और अनार्य के संघर्ष का इतिहास लंबा था और संघर्ष काल में दोनों सभ्यताएं विभिन्न अंचलों में फलती-फूलती रहीं. केरल निश्चित रूप से द्रविड़ सभ्यता का प्रमुख अंचल था. वहाँ अनादी काल से शिव तथा  लिंग (Shiva Linga) के प्रति श्रद्धा, नाग -पूजा,अनंगपूजा,जीव-बलि तथा नरबलि आदि की प्रथा मोहनजोदड़ो  की सभ्यता से मेल खाती है न कि आर्य सभ्यता से. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सिन्धु घाटी की खोजों में हमें अप्रत्याशित सुराग मिले हैं, जो भारतीय धर्म और संस्कृति के बहुत से ऐसे पहलुओं को समझने में सहायक हुए हैं. 


शैव धर्म के इतिहास के लिए तो इन सिन्धु घाटी की खुदाई सम्बन्धी खोजों का महत्व है. इसमें शैवमत के उन्हीं रूपों का समुचित समाधान हो जाता है, जिनका अद्भव हम वैदिक धर्म में नहीं पा सकते, और जिनको अभी तक संतोषजनक ढंग से समझाया नहीं जा सका है. सबसे पहले हम  शैवमत के सबसे प्रमुख रूप लिंग - पूजा को लेते हैं. यह तो निश्चित है कि जिस लिंग-रूप में भगवान शिव की उपासना सबसे अधिक होती है , वह आरम्भ में जनेन्द्रिय संबंदी था. यह ठीक है कि कुछ विद्वान् ऐसा नहीं मानते और उन्होंने लिंग को अन्य प्रकार से समझाने का प्रयास किया है. उनके समस्त तर्कों का आधार यही है कि वैदिक युग के अपरकाल में लिंग का जनन इन्द्रियों से को सम्बन्ध नहीं था और वैदिक धर्म में भी जनन इन्द्रिय की उपासना का कोई संकेत बिल्कुल नहीं मिलता. 


परन्तु ये सब तर्क उन अखंडनीय प्रमाणों के आगे आमान्य सिद्ध हो जाते हैं, जो निश्चित रूप से यह सिद्ध कर देते है कि प्रारम्भ में लिंग जनन इन्द्रिय संबंदी था. कुछ अति प्राचीन और यथार्थ-रुपी बड़ी -बड़ी लिंग- मूर्तियाँ तो हमे मिली ही हैं. इनके अतिरिक्त महाभारत में सपष्ट और असंदिग्ध रुप से कहा गया है कि लिंग मूर्ती में भगवान शिव के जनन इन्द्रिय की ही उपासना होती है. प्राचीन पुराणों में भी लिंग मूर्ती को जननइन्द्रिय -सम्बन्धी माना गया और उसकी उपासना का कारण  बताने के लिए अनेक कथाएं बताई गयी हैं. 

देखा जाए तो प्राय: सभी देशों में लिंग और योनि की किसी -न किसी रूप में प्रतिष्ठा थी. India में Moorti और Shiva Linga pooja का महत्व बहुत प्राचीनतम है. एक ओर मिस्त्र में शिव के लिंग की  उपासना होती थी,जहाँ विशाल और यथार्थ-रुपी -लिंगों के जुलुस खुलेआम और बड़े समारोह के साथ निकाले जाते थे, तो दूसरी ओर जापान में भी वे पूजे जाते थे. किन्तु लिंग उपासना का प्रमुख केंद्र पक्षिम एशिया था, जहाँ बेबीलोन और असीरियन लोगों की महान सभ्यता की उत्पत्तिहुई और जहाँ वे विकसित हुई. 



लिंग पूजा ( Linga pooja)  का प्रचलन दक्षिण-पूर्व में तथा अरब और ईरान में भी था. किन्तु सन1954 में जब मुख्य भूमि और काठियावाड़ प्रायद्वीप को जोड़ने वाला दालान का सर्वेक्षण किया गया तो लोथल के बन्दरगाह नगर का पता चला.इस स्थान पर सन 1955  से 1969 तक जो खुदाई हुई है, उससे हड़प्पाकालीन संस्कृति की अनेक नई बातों पर प्रकाश पड़ा है.यह सभ्यता ईसा से 245 वर्ष पूर्व की है.         



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