320 -550 CE गुप्त साम्राज्य ( Gupta dynasty ) समुद्रगुप्त की उपलब्धियाँ एवं इतिहास

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 गुप्त साम्राज्य


( Gupta dynasty in hindi )

समुद्रगुप्त के कार्य तथा उसकी सफलताओं का कीजिए ।

(आगरा, १६६८, १९३२)

समुद्रगुप्त की उपलब्धियाँ  ( जन्म सन् ३२५ मृत्यु सन् ३७५ ई)




320 -550 CE  गुप्त साम्राज्य  ( Gupta dynasty ) समुद्रगुप्त की उपलब्धियाँ एवं इतिहास




गुप्त राजवंश  एक प्राचीन भारतीय राजवंश था जिसने  320 से 550 CE तक क्षेत्र में शासन किया  जो अब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में आता है। यह श्री गुप्त  ( Gupta Dynasty) द्वारा स्थापित किया गया था जो कला, वास्तुकला, विज्ञान, गणित और साहित्य में अपनी उपलब्धियों के लिए जाना जाता था. इस वंश में चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय जैसे  महान शासक  उल्लेखनीय व्यक्ति रहे हैं । गुप्त युग को भारतीय इतिहास में एक स्वर्ण युग माना जाता है, जो शांति, समृद्धि और सांस्कृतिक उपलब्धियों द्वारा चिह्नित है।

 

320 -550 CE  गुप्त साम्राज्य  ( Gupta dynasty ) समुद्रगुप्त की उपलब्धियाँ एवं इतिहास 

Gupta Vansh ke bare mein hindi mein jaankaari

Gupta samrajya ke bare hindi mein jaankari.

महान संनिक — डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि "समुद्रगुप्त को गणना देश के महान और बहुमुखी प्रतिभा से युक्त सैनिकों में की जाती है। उसने उत्तर भारत में तो अनेक राजाओं को पराजित करके उनके राज्यों को अपने राज्य में मिलाया हो, दक्षिण भारत में भी उसने ग्यारह या बारह राजाओं को परास्त किया। यद्यपि उसने उनके राज्य नहीं छीने, परन्तु उन्हें कर देने तथा अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।


1.तत्कालीन इतिहास के ज्ञान के साधन- समुद्रगुप्त के विषय में जानकारी देने वाले प्रमुख साधन हैं उसके शिलालेख और सिक्के । ये शिलालेख दो है : (१) प्रा में अशोक के एक स्तम्भ पर राजकवि हरिषेण द्वारा लिखित प्रशस्ति और (२) मध्य प्रदेश में एरण नामक स्थान से प्राप्त एक शिलालेख, जिसे पहले पहल कनिंघम ने प्राप्त किया था और जो अब कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में रखा हुआ है। समुद्रगुप्त के बहुत से सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, जिनसे उस काल के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक पक्षों पर काफी प्रकाश पड़ता है ।


2.प्रयाग स्तम्भ वालो हरिषेण कृत प्रशस्ति- इस समय प्रयाग (इलाहाबाद) के किले में जो एक स्तम्भ विद्यमान है, वह मूलतः मौर्य सम्राट अशोक का स्थापित करवाया हुआ है। गुप्तकाल में इसी स्तम्भ पर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति भी गई। इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है कि "काल का यह अद्भुत व्यंग है कि अशोक के शान्तिप्रद आचार-उपदेशों के साथ। रक्तरंजित विजयों का भी परिगणन उसी स्तम्भ पर हो। खुदवा ही समुद्रगुप्त दी की


लेखक प्रामाणिक प्रयाग प्रशस्ति में लिखा है कि यह प्रशस्ति "भट्टारक चरणों के दास महादंडनायक ध्रुवभूति के पुत्र सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य महादंड- १. डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार प्राचीन भारत १९६ २. डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी प्राचीन भार इतिहास, पृष्ठ १७३ | के हरियण ने लिखी, जिसकी बुद्धि सम्राट के समीप रहने के अनुग्रह के फलस्वरूप  (विकसित) हो गई थी।" स्पष्ट है कि हरिषेण समुद्रगुप्त का राजकवि, राजकर्मचारी तथा घनिष्ठ रूप से परिचित व्यक्ति था । उसका वर्णन कुछ अरिजित भले ही हो, किन्तु प्रामाणिक माना जा सकता है |


अश्वमेध से पहले लिखी गई इस प्रशस्ति में इसके लिखे जाने का काल नहीं दिया गया, परन्तु अनुमान किया जाता है कि यह सन् ३६० ईस्वी के आसपास लिया होगा। उस समय तक समुद्रगुप्त उत्तर तथा दक्षिण भारत में विजय तो प्राप्त कर किन्तु तब उसने अश्वमेघ यज्ञ नहीं किया था, क्योंकि इस प्रशस्ति में अश्वमेध का उल्लेख नहीं है।


3.परिष्कृत रचना - प्रयाग की इस प्रशस्ति की कई पंक्तियों या उनके अंश काल हम में घिस कर समाप्त हो गये हैं। आरम्भ के श्लोकों की पहली आठ पंक्तियों में से हो एक भी पूरी नहीं है। फिर भी इस प्रशस्ति का बड़ा भाग बचा हुआ है। यह अत्यन्त सुगठित एवं परिष्कृत रचना है। इससे निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है ।


(१) समुद्रगुप्त की वंशावली - इसमें समुद्रगुप्त के पूर्वजों का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया गया है। समुद्रगुप्त का पिता महाराजाधिराज लिच्छिविदोहित चन्द्रगुप्त और माता कुमारदेवी थी। चन्द्रगुप्त का पिता महाराज घटोत्कच और उसका पिता महाराज श्रीगुप्त था । इससे आगे के पूर्वजों का उल्लेख नहीं है।


(२) समुद्रगुप्त का उत्तराधिकार के लिए संघर्ष - इस प्रशस्ति में लिखा है कि समुद्रगुप्त के पिता चन्द्रगुप्त ने राजसभासदों को एक सभा बुलाई और उन सभासदों ने सब राजकुमारों के गुण-दोषों पर विचार करके समुद्रगुप्त को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का निश्चय किया। इससे अन्य राजकुमारी के मुख मलिन हो गये, चन्द्रगुप्त को रोमांच हो आया, आंखें डबडबा आई और उसने समुद्रगुप्त को छाती से लगाकर कहा 'आर्य, तुम्ही इस निखिल पृथ्वी का पालन-पोषण करो।" इससे अनुमान किया गया है कि समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। सिहासन के दावेदार अन्य राजकुमार भी थे, परन्तु पिता उसे सबसे योग्य समझता था। इसलिए सभासदों द्वारा उसके युवराज चुन लिये जाने पर वह बहुत प्रसन्न हुआ ।


● परन्तु इस निर्वाचन के बाद भी चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् समुद्रगुप्त को को सिहासन पर अधिकार बनाये रखने के लिए संभवतः अपने बड़े भाई काच के विरुद्ध युद्ध लड़ना पड़ा । काल के भी समर्थक रहे होंगे। परन्तु विजय समुद्रगुप्त की हुई। यद्यपि प्रयाग-प्रशस्ति के बचे हुए अंश में काच का नाम नहीं है, फिर भी उसमें उत्तराधिकार के लिए हुए युद्ध का यथेष्ट संकेत है। यह भी संभव है कि इस अप्रिय घटना आभाव उत्कणि रोम



(३) उत्तर भारत पर समुद्रगुप्त की विजय- डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार दे शब्दों में "वह (समुद्रगुप्त ) कौटिल्य के इस सिद्धान्त का मूर्त रूप था कि जो भी शक्ति में बड़ा होगा, वह अवश्य युद्ध छोड़ेगा ।"" सबसे पहले उसने अपने पड़ोसी उत्तर भारत के राज्यों की समाप्ति के लिए उन पर चढ़ाई की। डॉ० विमलचन्द्र पांडेय ने 'आर्यावर्त का प्रथम युद्ध' कहा है। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार अपने इस अभियान में समुद्रगुप्त ने निम्नलिखित राजाओं को हरा कर उनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया : (१) अच्युत, जो संभवत: अहिच्छत्र (बरेली) का शासक था; (२) नागसेन, जो मथुरा का नागवंशी शासक था। (३) गणपति नाग, जो विदिशा का शासक पा और (४) कोट कुलज अर्थात् कोटवंशी राजा, जिसका नाम इस समय उपलब्ध नहीं है।


समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के राजवंशों को समाप्त कर दिया और विजयोत्सव मनाया । इससे उसका राज्य खूब विस्तृत हो गया । 


(४) दक्षिण-विजय — उत्तर भारत में अपना शासन सुदृढ़ कर लेने के बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर चढ़ाई की। यहाँ उसने निम्नलिखित राजाओं को हराया (१) कोसल का राजा महेन्द्र। यह कोसल उत्तर भारत का अयोध्या बाला कोसल न होकर दक्षिण कोसल था, जिसकी राजधानी श्रीपुर थी। वर्तमान रायपुर, विलासपुर आदि जिले इस प्रदेश को सूचित करते हैं । (२) महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज । (३) कौरान (उड़ीसा) का मंत्रराज । (४) पिष्टपुर (वर्तमान पीठापुर) का राजा महेन्द्रगिरि । (५) कोट्टूर (वर्तमान गंजाम जिले में कोट्टूर) का राजा स्वाभिदत । (६) एरंडपल्ल का राजा दमन । (७) कांची का विष्णुगोप। (६) अवमुक्त का नीलराज । (६) वेंगी का हस्तिवर्मा। (१०) पालक्क (पालघाट) का राजा उग्रसेन । (११) देवराष्ट्र (महाराष्ट्र) का राजा कुबेर और (१२) कुस्थलपुर का राजा धनजय ।


4.समुद्रगुप्त को दक्षिण नीति- दक्षिण भारत के राज्यों के विषय में समुद्रगुप्त की नीति बिल्कुल भिन्न थी। उत्तर भारत में तो उसने अपने पड़ोसी राज्यों को समाप्त करके आत्मसात् कर लिया था। परन्तु दक्षिण भारत के राजाओं को परास्त करने के बाद भी उसने उनके राज्य होने नहीं, अपितु कर, भेंट आदि लेकर और उनसे अपनी अधीनता मनवा कर उन्हें उनके राजा पदों पर बना रहने दिया। यह वही नीति थी जिसे उसके कई शताब्दी बाद अलाउद्दीन खिलजी और शाहजहां ने अपनाया। समुद्रगुप्त के सम्मुख अशोक का कटु अनुभव था। अशोक ने दक्षिण भारत को अपने सीधे शासन में रखने का यत्न किया, जो उस काम के यातायात के साधनों को देखते हुए संभव नहीं हुआ। इस दूरदर्शी सम्राट ने दक्षिण के राजाओं को अपना 'करद (कर देने वाला) राजा बना लिया। इसके फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य एक शताब्दी से अधिक समय तक पनपता रहा।


5.उत्तर भारत की पुनः विजय (आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध ) – दक्षिण भारत पर से पहले समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के केवल चार राज्यों को समाप्त किया था। है कि जिस समय समुद्रगुप्त दक्षिण-विजय पर निकला हुआ था, उस समय नमें से कुछ सजाओं ने फिर सिर उठाया था । समुद्रगुप्त ने दक्षिण-विजय से लौट र उन्हें तो कुचला ही, उनके पास-पड़ोस के अन्य राज्यों को भी हरा कर उनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया । प्रयाग प्रशस्ति में इन राजाओं का उल्लेख है : (१) इंद्रदेव, (२) मतिल, (३) नागदत्त, (४) चन्द्रवर्मा (५) गणपतिनाग, (६) नागसेन, (७) अच्युत (=) नन्दी और (६) बलवर्मा । गणपतिनाग और अच्युत को आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में भी पराजित किया गया था। डॉ० विमलचन्द्र पांडेय ने उत्तर भारत में समुद्रगुप्त के इस द्वितीय अभियान को 'आर्यावर्त का दूसरा युद्ध' नाम दिया है।


6.इन दिग्विजयों के फलस्वरूप समुद्रगुप्त के राज्य का विस्तार--डॉ० पलोट और डॉ० विरसेट स्मिथ का विचार है कि समुद्रगुप्त पूर्वी समुद्रतट के साथ-साथ बढ़ता हुआ दक्षिण में चेर राज्य (केरल) तक पहुंचा और ऐरंडोल, पालघाट तथा महाराष्ट्र में पश्चिमी समुद्र तट के साथ-साथ चलकर खानदेश के रास्ते वापस लौटा। उसकी दक्षिण- विजय पूर्ण थी और प्रो० जोवो दुनिये का यह मत मान्य नहीं है कि कांची के राजा विष्णुगोप के नेतृत्व में बने दक्षिणी राज्यों के संघ ने समुद्रगुप्त को पराजित करके लौटने को विवश कर दिया था। दक्षिण विजय से लौटने के बाद समुद्रगुप्त का प्रताप दूर-दूर तक छा गया था और प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्य कर प्रदान, आशा- पालन, प्रणाम और आगमन द्वारा उस प्रतापी सम्राट् को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगे थे। डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि बंगाल, असम और नेपाल आदि पूर्व के राज्य तथा मालवा, यौधेय, आर्जुनायन, मंद्र और आभोर आदि पंजाब और राजस्थान के पश्चिमी गणराज्य एवं मालवा और मध्य प्रदेश के अनेक छोटे-छोटे राज्यों ने स्वयं उसकी अधीनता मानकर गुप्त सम्राट् को कर देना स्वीकार कर लिया। 'गुप्तों की सेना का आतंक इतना अधिक था कि सुदूर अफगानिस्तान के कुषाण राजा और गुजरात के शक क्षत्रप भी समुद्रगुप्त की अनुकम्पा पाने के लिए उत्सुक थे ।"" इन सबका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में है।


7.अश्वमेध यज्ञ – समुद्रगुप्त ने अपनी इन विजयों के बाद एक अश्वमेध यज्ञ भी किया था । स्कन्दगुप्त के भिंतारी शिलालेख में उसे 'चिरोत्सन्नाश्वमेधाहर्ता' (चिरकाल से लुप्त हो गये अश्वमेध यज्ञ को फिर शुरू करने वाला) कहा गया है। इसके अतिरिक्त समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर भी अश्वमेध का प्रमाण मिलता है। इनके एक पार्श्व पर यूप से बँधा घोड़ा और दूसरी ओर हाथ में चेंबर लिये महारानी अंकित है । इन मुद्राओं पर एक ओर ‘राजाधिराजः पृथिवीमवित्वा दिव जयत्याहृतवाजिमेधः' (राजा- धिराज पृथ्वी की रक्षा करके वाजिमेध यज्ञ द्वारा स्वर्ग को जीत रहा है) और दूसरी ओर 'अश्वमेध पराक्रमः' लिखा है। यह अश्वमेध संभवतः प्रयाग के लिखे जाने के बाद किया गया था, अन्यथा उस प्रशस्ति में भी इसका होता ।


राजनयिक सफलताएँ उच्चकोटि का सफल सेनापति होने के बाद भी । गुप्त कुशल राजनेता था। जहाँ बिना रक्तपात किये विजय प्राप्त होती हो, वहाँ युद्ध करने के लिए जरा भी लालायित नहीं था। जिन राजाओं ने केवल आतंकित कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, उनको उसने छोड़ा नहीं। परन्तु इस भारत भू में एक चक्रवर्ती राज्य को स्थापना करने का लक्ष्य उसके सामने था और उसे उ पूरा किया। अपने पड़ोसी देशों के साथ उसके सम्बन्ध मित्रतापूर्ण थे । सिहल के राज मेघवर्ण को उसने गया में एक बौद्ध विहार बनाने की अनुमति दी थी।


8.समुद्रगुप्त का साम्राज्य – समुद्रगुप्त का सारा साम्राज्य एक से शासन है अधीन नहीं था। इसमें चार प्रकार के प्रदेश थे (१) एक तो राज्य का केन्द्रीय प्रवेश था, जिस पर सम्राट का प्रत्यक्ष शासन था। यह उत्तर में हिमालय से दक्षिण में। जबलपुर और विदिशा तक, तथा पश्चिम में यमुना और चम्बल से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुर नदी तक फैला था। (२) इस केन्द्रीय भाग के पूर्व और पश्चिम में कर देने वाले अधीनस्थ राज्य कमशः बंगाल, असम, नेपाल आदि और मालव, यौधेय, आर्जुनायन आदि गणराज्य । (३) इनसे भी आगे शक और कुषाणों के राज्य फैले थे। ये समुद्रगुप्त के अधीन तो नहीं थे, परन्तु उसकी कृपा अवश्य चाहते थे- प्रत्यन्त राज्य (४) प्रकार के राज्य दक्षिण भारत के वे बारह राज्य थे, जिनके शासकों को समुद्रगुप्त ने एक बार हराकर पुन: उनके राजसिहासनों पर बिठा दिया था। ये करद राज्य थे।


9.कला प्रेमी और कलाकार— समुद्रगुप्त एक महान सैनिक और सेनापति था। अनेक युद्ध में उसके शरीर पर अनेक घाव लगे थे। परन्तु वह केवल तलवार काही धनी नहीं था। यदि उसके सुसंस्कृत व्यक्तित्व और कलाप्रेम का उल्लेख न किया जाये तो वह निरा अत्तिला या चंगेज खान हो जान पड़ेगा । वस्तुतः वह इन विजेताओं से बहुत भिन्न या प्रयाग प्रशस्ति में उसे विद्याव्यसनी, उच्च कोटि का कवि और संगीतकार भी कहा गया है। एक मुद्रा पर उसकी वीणा बजाते हुए मूर्ति अंकित है। यह उसके संगीत प्रेम का पुष्ट प्रमाण है। समुद्रगुप्त को सैनिक तथा राजनयिक सफल तात्रों के साथ उसको साहित्यिक तथा कलात्मक उपलब्धियों को मिलाकर देखने से हम इस महान गुप्त सम्राट का वास्तविक रूप जान सकते हैं। संक्षेप में, समुद्रगुप्त की उपलब्धियों, जिनके कारण वह भारत के इतिहास में अनुपम वीर माना जाता है।



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