हूण कौन थे ? भारत में हूणों का आगमन कैसे हुआ?
भारत में हूणों का आक्रमण एवं शासन
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हूणों के आक्रमण ( huno ka aakrman)
हूण कौन थे ? हूण लोग मध्य एशिया के रहने वाले बर्बर रक्तपिपासु योद्धा थे। पहले ये चीनी साम्राज्य पर आक्रमण किया करते थे। परन्तु जब चीन के सम्राट शी-हुआंग-ती ने चीन की विशाल दीवार बनवा दी, तब उनके लिए चीन पर आक्रमण करना कठिन हो गया। तब हूणों ने पश्चिम की ओर बढ़ना शुरू किया। उन्होंने युइशियों को खदेड़ा और सीर नदी की घाटी पर अधिकार कर लिया। पश्चिम की ओर बढ़ते हुए हूणों की दो शाखाएं हो गईं। इनमें से एक तो यूरोप की ओर बढ़ गई और वहाँ उसने रोमन साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। अत्तिला के नेतृत्व में उन्होंने अधिकांश यूरोप को रौंद डाला । हूणों की दूसरी शाखा ने, जिन्हें श्वेत हूण कहा जाता है, वंश (आक्सस) नदी की घाटी पर अधिकार कर लिया। उसके बाद वे ईरान और भारत की ओर बढ़े। हिन्दूकुश पार कर उन्होंने गान्धार पर अधिकार कर महान् गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया।
भारत पर हूणों के आक्रमण -
भारत पर हूणों का पहला आक्रमण गुप्त सम्राटु स्कन्द गुप्त के समय सन् ४५५ ईस्वी के आसपास हुआ। परन्तु उस समय गुप्त साम्राज्य समृद्ध एवं शक्तिशाली था। स्कन्दगुप्त ने घोर युद्ध में हूणों को इतनी बुरी तरह हराया कि उसके बाद बीस वर्ष तक उन्होंने गुप्त साम्राज्य पर कोई आक्रमण नहीं किया । स्कन्दगुप्त के भितारी उत्कीर्ण लेख में स्कन्दगुप्त की इस विजय का रोमांचकारी वर्णन है । उसमें लिखा है कि “हूणों के साथ हुए उसके युद्ध में सारी पृथ्वी कांप उठी । "
हूणराज तोरमाण "स्कन्दगुप्त से परास्त होकर हूण लोग गान्धार में रुक गये थे। उससे आगे बढ़ने का प्रयत्न लगभग तीस वर्ष तक उन्होंने नहीं किया। परन्तु वे अपनी शक्ति बढ़ाते रहे। इस समय उनका राजा तोरमाण था । वह रणकुशल सेनापति था। गुप्त साम्राज्य को दुर्बल पड़ते देख कर उसने फिर भारत में पांव पसारने शुरू कर दिये। शीघ्र ही उसने काश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मालवा और उत्तर प्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। उपेन्द्र ठाकुर ने लिखा है कि "किसी भी विजेता के लिए इतने थोड़े समय में इतनी सफलताएँ प्राप्त कर लेना एक अद्भुत कार्य हो था।" समर-कौशल की दृष्टि से कुछ विद्वानों ने उसे सिकन्दर और मिनान्दर के समकक्ष माना है। परन्तु वह क्रूर और अत्याचारी था। लूटपाट और रक्तपात में उसे जानन्द जाता था ।
गुप्त साम्राज्य की सेनाओं से तोरमाण की पहली मुठभेड़ एरण नामक स्थान पर हुई। इसमें गुप्तों की हार हुई। परन्तु डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार के शब्दों में, "हूणों की ये विजयें अल्पकालिक थी, क्योंकि सन् ५१० ईस्वी में भानुगुप्त बालादित्य ने हूणों को हरा दिया।” मध्य भारत पर तोरमाण का अधिकार बहुत थोड़े समय तक ही रहा । परन्तु हूणों की यह पराजय तोरमाण को मृत्यु के बाद हुई।
मिहिरगुल - काशी में अपनी मृत्यु से पहले ही तोरमाण ने अपने पुत्र मिहिर- गुल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। तोरमाण की मृत्यु के बाद वह राजा बना। वह भी अपने पिता के समान ही पराक्रमी, कूर और अत्याचारी था । उसने एक बार फिर मध्य भारत पर आक्रमण किया। परन्तु मालवा में उसका मुकाबला यशोधर्मा नामक एक वीर राजा ने किया और मिहिरगुल को हरा दिया। उधर पूर्व में गुप्त सम्राट् भानुगुप्त बालादित्य ने मिहिरगुल को करारी हार दी। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी और प्रो० फ्लोट का मत है कि पूर्व में भानुगुप्त बालादित्य ने और पश्चिम में जनेन्द्र यशोधर्मा ने मिहिरगुल को पराजित किया। प्रो० हेरास का कथन है कि मिहिर- गुल को पहले यशोधर्मा ने हराया और उसके बाद भानुगुप्त बालादित्य ने प्रो० दांडेकर का विचार है कि पहले बालादित्य ने और बाद में यशोधर्मा ने मिहिरगुल को हराया। यशोधर्मा के मन्दसौर शिलालेख में लिखा है कि "मिहिरगुल ने उसके चरणों में सिर रख कर और तरह-तरह के उपहार देकर उसकी पूजा की।" सन् ५३० में यशोधर्मा से हार खाकर मिहिरगुल काश्मीर की ओर भाग गया। वहाँ के राजा को मार कर उसने राज्य पर अधिकार कर लिया। वहाँ उसने बौद्ध विहारों को नष्ट किया और बौद्धों पर भीषण अत्याचार किये । इसका कारण संभवतः यह था कि गुप्त सम्राट् भानुगुप्त बाला- दित्य पक्का वौद्ध था। इस प्रकार काश्मीर और गांधार प्रदेश पर हूणों का अधिकार बना रहा, पर शेय भारत से उन्हें खदेड़ दिया गया।
ग्रीक लेखक कस्मोंस इंडिकोप्लुस्टीज ने 'किश्चियन टोपोग्राफी' में जिस राजा गोल्लस का वर्णन किया है, वह मिहिरगुल ही था। इस लेख के अनुसार, मिहिर भारतवर्ष का स्वामी या और वह लोगों को सता कर उनसे कर वसूल करता था। इसी प्रकार ह्यूऐग्रसांग ने भी लिखा है कि "मिहिरगुल ने भारतवर्ष पर शासन किया और निरपवाद रूप से सभी पड़ोसी राज्यों का दमन किया। उसने बालादित्य को भी कर देने के लिए विवश किया। डॉ० मिलचन्द्र पांडेय के शब्दों में, "इन साक्ष्यों से प्रकट है कि कुछ समय के लिए मिहिरगुल उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली नरेशचन था।" ग्वालियर के उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि उसने कम से कम १५ वर्ष राज्य किया था। डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि उसकी अपार शक्ति और क्रूरता की गूंज ऐसांग द्वारा उल्लिखित जनश्रुतियों और 'राजतरंगिणी' में जाती है। भानुगुप्त बालादित्य और यशोधर्मा द्वारा उसके हरा दिये जाने के बाद भारत से हूणों का प्रभाव सदा के लिए समाप्त हो गया ।
खिनखिला या नरेन्द्रादित्य - मिहिरगुल ने शैव धर्म अंगीकार कर लिया था। उसका पुत्र या खिनखिला, जिसने अपना हिन्दू नाम नरेन्द्रादित्य रख लिया था। नरेन्द्रादित्य के काल में हूणों को तुकों ने हरा दिया था। परन्तु सन् ५५० ईस्वी के बाद उन्होंने भारत पर फिर आक्रमण शुरू कर दिये। यानेसर के राजा प्रभाकरवर्धन और कन्नौज के मौखरि राजा शर्ववर्मा ने हूणों को हराया। हारने के बाद भी हूण भारत से गये नहीं । वे इस देश के अनेक भागों में बस गये। ग्वालियर के पास हूणगाँव और चौतरा नाम के दो स्थान हैं, जो इस बात के सूचक हैं कि इस प्रदेश में उनका प्रभाव बाद में भी बना रहा।
छोटे-मोटे युद्ध-वालियर के आसपास के क्षेत्र में राजा देवपाल (शासन काल सन् ८१०-८५० ईस्वी) ने हूणों को हराया। इससे प्रकट है कि नौवीं शताब्दी के शुरू में भी हूणों की आक्रमण शक्ति समाप्त नहीं हुई थी। नौवीं शताब्दी के अन्त में प्रतिहार वंशी राजा बलवर्मा ने हूणों के सरदार जाज्जप को हराया। परमारशी राजाओं – हर्षं सीयक, वाक्पति मुंज, सिन्धुराज ने भी हूणों को पराजित किया। ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कलचुरी वंश के राजा लक्ष्मीकणं से उनका बुद्ध हुआ, जिसमें लक्ष्मीकणं की विजय हुई।
इस प्रकार ईसा की पाँचवी शताब्दी के मध्य से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक हूण किसी न किसी रूप में भारत में अपना प्रभाव बनाये रहे। गुप्तों की दुर्बलता का लाभ उठा कर तोरमाण और मिहिरगुल ने बड़े भूभागों पर अधिकार कर लिया, परन्तु बालादित्य और पशोधर्मा के कारण वे कोई स्थायी साम्राज्य न बना सके और न किसी राजवंश की स्थापना ही कर सके। उत्तर तथा मध्य भारत में उन्होंने अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित किये। धीरे-धीरे हूण भारतीय हिन्दू समाज में ही विलीन हो गये । उन्होंने हिन्दू नाम और हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिये। कुछ विद्वानों का मत है कि राजपूत वंश उन हूणों से ही प्रारम्भ हुए थे ।
हूणों का भारत पर प्रभाव -
यद्यपि हूणों का भारत पर प्रभुत्व बहुत समय के लिए रहा, फिर भी तोरमाण और मिहिरगुल के पराक्रमों का भारत पर गहरा राजनीतिक तथा सामाजिक प्रभाव पड़ा ।
(क) गुप्त साम्राज्य का पतन हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को दुर्बल कर दिया, जिसके फलस्वरूप वह नष्ट ही हो गया। यह ठीक है कि स्कन्दगुप्त ने और उसके बाद भी भानुगुप्त बालादित्य ने हूणों को हराया था, परन्तु हूणों ने गुप्त साम्राज्य की शक्ति को सोख लिया। हूणों के आक्रमणों की रोकथाम करने के लिए यशोधर्मा का उदय हुआ। वह भी गुप्तों के विनाश का कारण बना। अतः कहा जा सकता है कि गुप्त साम्राज्य का पतन हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप ही हुआ ।
(ख) उत्तर भारत का छोटे-छोटे राज्यों में विभाजन गुप्त काल तक भारत दे एक शक्तिशाली केन्द्रीय राजशक्ति थी। उसके अधीन सारा देश एक था। परन्तु हूणों के आक्रमण से वह केन्द्रीय राज्य नष्ट हो गया। उसके स्थान पर अनेक छोटे-छोटे राजवंशों ने अपने राज्य स्थापित कर लिये । हर्षवर्धन ने इस स्थिति को सुधारने का रत्न किया और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, परन्तु उसकी मृत्यु के साथ ही वह साम्राज्य समाप्त हो गया और देश फिर छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया ।
(ग) राजपूतों का आविर्भाव — गुप्त काल तक हमें राजपूतों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता । परन्तु गुप्त काल के बाद एक साथ अनेक राजपूत वंश इतिहास के रंगमंच पर आ प्रकट होते हैं। अधिकतर विद्वानों का मत है कि हूणों के हिन्दू जाति में विलीन हो जाने से ही ये राजपूत राजवंश बने। धीरे-धीरे हूणों ने हिन्दू नाम, धर्म और रीति-रिवाज अपना लिये। तब उन्हें हिन्दू समाज में ग्रहण कर लिया और उन्हें क्षत्रिय माना गया। ये नये क्षत्रिय ही राजपूत कहलाये ।
(घ) जातियों और उपजातियों में वृद्धि - हूणों के हिन्दू समाज में मिल जाने पर भी उन्हें पुरानी जातियों में स्थान नहीं दिया गया। उनकी अलग उपजातियाँ बना दी गई। हूणों के विवाह सम्बन्ध हिन्दू परिवारों से होते रहे। परन्तु इन विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को अलग ही नई उपजातियों में रखा गया। इससे देश में उपजातियों को संख्या बहुत अधिक बढ़ गई।
(ङ) सभ्यता और संस्कृति पर विशेष प्रभाव नहीं—भारत में तोरमाण और मिहिरगुल के समय केवल थोड़े समय तक हूणों का प्रबल प्रभुत्व रहा, अतः वे यहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति पर कोई प्रभाव नहीं डाल सके । धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं ही भारतीय संस्कृति को अपना लिया और भारतीय समाज के ही अंग बन गये ।
क्या तोरमाण और मिहिरगुल हूण थे ? – विद्वानों में इस विषय में मतभेद हैं कि तोरमाण और मिहिरगुल हूण थे या नहीं। डॉ० रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि "यद्यपि इस बात के निश्चित प्रमाण नहीं है कि वह हूण ही था, तथापि परिस्थितिजन्य प्रमाणों से वह हूण अवश्य जान पड़ता है।"
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