महमूद गजनवी ( Mahmud gajnavi)
वंशावली वृक्ष : यामिनी-वंश
साशन काल - ९९८ -१०३०
धर्सुमं :- सुन्नी इस्लाम
विख्यात - मधुरा , वृन्दावन और सोनाथ मंदिर की लूट ह्त्या और बलात्कारी
Mahmud Gajnavi ne kab aur kitni baar bharat ko loota?
अपनी प्रारम्भिक विजयों के बावजूद अरब निवासी सिन्ध और मुल्तान के आगे अपने राज्य का विस्तार न कर सके थे । वास्तव में, नवीं शताब्दी के मध्य में उनके शासन का महत्त्व जाता रहा । किन्तु जिस कार्य को उन्होंने प्रारम्भ किया, उसे ने तुकों पूरा किया । जिस युग के सम्बन्ध में हम लिख रहे हैं, उससे थोड़ा ही पहले तुर्की ने इस्लाम अंगीकार कर लिया था। उनमें उस उत्साह और मस्तिष्क की संकीर्णता का आधिक्य था जो सर्वप्रथम किसी नये धर्म को अपनाने वालों में पायी जाती है। वे निर्भीक, वीर तथा पराक्रमी थे और आगे बढ़ने की प्रवृत्ति उनमें अत्यधिक बलवती थी। उनका दृष्टिकोण भी पूर्णतया भौतिकवादी था । इस्लाम ने उनकी असीम महत्त्वाकांक्षाओं को धार्मिकता का जामा पहना दिया था। अपने इन गुणों और दोषों के कारण वे पूरब में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने के पूर्णतया योग्य थे । उनके प्रारम्भिक धावे : सुबुक्तगीन
सर्वप्रथम जिन तुर्कों का भारत से सम्पर्क हुआ, वे गजनी के राजवंश के थे । उनका उत्थान बहुत तेजी से हुआ था। ६३२ ई० में अलप्तगीन नामक एक साहसी तुर्क नेता ने गजनी में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। प्रारम्भ में वह गुलाम था और खुरासान तथा बुखारा के समानी शासक के सामन्त की हैसियत से कार्य करता था । उसके एक उत्तराधिकारी पिराई ने पंजाब के हिन्दू राजा पर आक्रमण किया । वह राजा हिन्दूशाही-वंश का था और उसका विस्तृत राज्य चिनाव नदी से हिन्दूकुश पर्वत तक फैला हुआ था। काबुल भी उसमें सम्मिलित था। एक समय था जबकि सम्पूर्ण अफगानिस्तान पर हिन्दूशाही वंश का अधिकार था । भौगोलिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अफगानिस्तान भारत का ही भाग माना जाता था। राजनीतिक दृष्टि से भी वह चन्द्रगुप्त मोर्य के समय से (तीसरी शताब्दी ई० पू०) भारत का एक प्रान्त बना रहा, यद्यपि बीच में कभी-कभी यह सम्बन्ध टूट भी गया। काबुल आर जाबुल राज्य के शासक वंश ने बड़ी वीरता से अरब आक्रमण का सामना किया, किन्तु ६६४ ई० में अरबों को सफलता मिली और इस राज्य के कुछ भाग पर उनका अधिकार हो गया। उसके १२,००० निवासियों को उन्होंने इस्लाम ग्रहण करने पर वाध्य किया । अपनी रक्षा के लिए शाही राजाओं ने ३०० वर्षों तक अरबों और तुर्कों के विरुद्ध बीरतापूर्वक युद्ध किये। इसमें उन्हें सफलता भी मिला। गजनी के नये राज्य के शासक शाही राज्य का अस्तित्व ही पूर्णतया मिटा देना चाहते थे, क्योंकि उसकी उपस्थिति में उनके लिए भारत में प्रवेश करना अत्यन्त कठिन था ।
यही कारण या कि पिराई की विदेश नीति का उसके उत्तराधिकारी सुबुक्तगीन ने भी अनुसरण किया। सुबुक्तगीन अलप्तगीन का गुलाम तथा दामाद था और ६७७ ई० में गजनी के सिंहासन पर बैठा । वह पराक्रमी तथा महत्त्वाकांक्षी शासक था । यद्यपि वह मध्य एशिया की राजनीति में बराबर उलझा रहा, फिर भी भारत की सीमाओं पर धावे मारने के लिए उसने समय निकाल लिया। पंजाब का राजा जयपाल साव घान था और वह इस उदीयमान राज्य के अस्तित्व से उठ खड़ होने वाले संकट को भलाभांति समझता था । इसलिए उसने इस राज्य को पनपने के पहले ही नष्ट कर देने का संकल्प किया। इस उद्देश्य से ६८६-८७ ई० में उसने एक विशाल सेना लेकर गजनी पर आक्रमण किया । दोनों दलों की शक्ति समान थी और उनमें से कोई भी पराजय स्वीकार करने के लिए तैयार न था। किन्तु दुर्भाग्य से एक भीषण झंझावात के कारण जयपाल की सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और उसे सन्धि करने पर बाध्य होना पड़ा। उसने बहुत-सा युद्ध का हर्जाना, ५० हाथी तथा अपनी कुछ भूमि सुबुक्तगीन को देने का वचन दिया। किन्तु लाहौर वापस आने पर उसने इन अपमान- जनक शर्तों को पूरा करने से इन्कार कर दिया। तत्र बदला लेने की भावना से सुबुक्तगीन ने जयपाल के राज्य पर आक्रमण किया और लगान को लूटा । जयपाल ने अपनी सहायता के लिए अनेक भारतीय राजाओं को आमन्त्रित किया और एक विशाल सेना लेकर गजनी पर चढ़ गया। किन्तु इस बार भी युद्ध में सुबुक्तगीन की विजय हुई और लमगान तथा पेशावर तक उसका अधिकार हो गया । महमूद का सिंहासनारोहण
६६७ई० में सुबुक्तगीन की मृत्यु गयी। मरने से पहले उसने अपने छोटे पुत्र इस्माइल को उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। किन्तु उसके एक अन्य पुत्र महमूद ने इस्माइल को गृह-युद्ध में पराजित कर गद्दी पर अधिकार कर लिया । महमूद का जन्म १ नवम्बर, ६७१ ई० में हुआ था तथा ६६८ ई० में सिंहासन पर बैठने के समय उसकी अवस्था २७ वर्ष की थी। उस समय उसके राज्य में अफगानिस्तान और खुरासान सम्मिलित थे। बगदाद के खलीफा अल कादिर बिल्लाह ने महमूद के पद को मान्यता प्रदान की और उसे यमीन-उद्-दौला तथा यमीन-उल-मिल्लाह की उपाधियों से विभूषित किया । इसीलिए उनका वंश यमीनी के नाम से विख्यात है ।
महमूद का चरित्र ( Mahmud gajnavi kaisa vykati tha ?)
महमूद अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी युवक था। कहा जाता है कि जब खलीफा ने उसके पास मान्यता-पत्र भेजा उस समय उसने प्रतिज्ञा की कि मैं प्रति वर्ष भारत के काफिरों पर आक्रमण करूंगा । उसने इस प्रण को निबाहने का प्रयत्न किया। महमूद की आकृति राजाओं की-सी न थी। उसका कद बीच का और शरीर हृष्ट-पुष्ट था, किन्तु देखने में वह कुरूप था । सूरत्व भी उसमें असाधारण कोटि का न था, फिर भी वह महान सेनानायक और उतना ही अच्छा सैनिक था। वह बुद्धिमान तथा था और मनुष्यों को परखने का राज्योचित गुण उसमें विद्यमान था। साहस, बुद्ध सत्ता और साधनसम्पन्नता उसके विशेष गुण थे। इसके अतिरिक्त वह अत्यन्त और महत्त्वाकांक्षी था। राजनीति में वह दक्ष था और उसके स्वभाव हाव-भाव भी शासक के से थे। ऐसा कोई व्यक्तिन था जिसके बिना उसका कार्य न चल सक हो। अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन मात्र समझता था।
प्रोफेसर हबीब का मत है कि जीवन के प्रति महमूद को दृष्टिकोण पूर्णतया सांसारिक था और अन्धभक्तिपूर्वक मुस्लिम उलेमा की आज्ञाओं इस्लाम का पालन करने के लिए वह तैयार न होता था। विद्वान लेखक की यह भी धारणा है कि महमूद धर्मान्ध न था किन्तु उसके जीवन और कार्यों से स्पष्ट है कि में उसकी श्रद्धा थी और वह यह भी समझता था कि अकारण ही भारतीय काफिरों के राज्य पर आक्रमण करके में इस्लाम की सेवा कर रहा हूँ । उसका दरबारी इति हासकार उतबी उसके भारत पर आक्रमणों को जिहाद समझता था जिसका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार और कुफ का मूलोच्छेदन करना था। अपनी 'तारीख-ए-यमीनी' में वह तिलता है, "सुल्तान महमूद ने पहले साजिस्तान पर आक्रमण करने का संकल्प किया, किन्तु बाद में उसने हिन्द के विरुद्ध जिहाद (धर्म-युद्ध) करना ही अधिक अच्छा समझा।" उतबी यह भी लिखता है कि "सुल्तान ने अपने मन्त्रियों की सभा बुलायो और उसने कहा कि मुझे आर्शीवाद दो जिससे में धर्म का झण्डा ऊँचा करने, सदा- चार का क्षेत्र विस्तृत करने, सत्य को प्रकाशित करने और न्याय की जड़ों को दृढ करने की अपनी इस योजना में सफलता प्राप्त कर सकूं ।" इन शब्दों से स्पष्ट है कि महमूद के समकालीन विद्वानों का विश्वास था कि भारत पर आक्रमण करने की नीति का उसका मुख्य उद्देश्य धर्म प्रचार था। इसके अतिरिक्त और भी कारण थे, इसमें सन्देह नहीं । महमूद महत्त्वाकांक्षी था और अधिक से अधिक विस्तृत साम्राज्य पर शासन करने की उसकी अभिलाषा थी। सभी पराक्रमी लोगों की भांति वह भी धन का लोभी था और उसने भारत की अपार धन सम्पत्ति की कहानियाँ सुन रखी थी । इसके अतिरिक्त महान योद्धा होने के नाते वह सैनिक यश का भी भूखा या । वह यथार्थवादी था, और पड़ोस में स्थित एक शक्तिशाली तथा शत्रुतापूर्णं हिन्दू-राज्य के अस्तित्व से उसकी स्वतन्त्रता और विशेषकर आक्रमणकारी नीति को खतरा था, इस बात को भी वह भलीभाँति समझता था । इन्हीं सब कारणों से सिंहासन पर बैठने के उपरान्त शीघ्र ही उसने भारत के विरुद्ध आक्रमणकारी नीति जारी रखने का दृढ़ संकल्प कर लिया। महमूद के भारत पर आक्रमण
भारत पर आक्रमण
Mahmud gajnavi ka bharat par aakrman.
भारत पर महमूद ने कितने आक्रमण किये, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। लेखकों की राय एक-दूसरे के इतने विरुद्ध है कि उनकी निश्चित व्याख्या निर्धारित करना कठिन है। वास्तव में इस विवाद में पड़ना इतना आवश्यक भी नहीं है। हम यहाँ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आक्रमणों का उल्लेख करेंगे ।" सबसे पहला हमला १००० ई० में हुआ और महमुद ने कुछ सीमान्त किलों पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त उसने जयपाल के विरुद्ध कूच किया। जयपाल को महमुद के इतिहासकारों ने 'ईश्वर का शत्रु' लिखा है। इस आक्रमण के समय सुल्तान ने अत्यधिक सावधानी से काम लिया और स्वयं सेना का निरीक्षण करके उसमें से १५,००० सर्वोत्तम घुडसवार छोटे २७ नवम्बर, १००३ ई० के दिन पेशावर के निकट घोर संग्राम हुआ । महमूद ने अश्वारोहियों का सफलतापूर्वक संचालन किया और वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जयपाल की पराजय हुई। अपने पुत्रों, नातियों तथा अनेक सम्बन्धियों और पदाधिकारियों सहित वह बन्दी हुआ । उतवी लिखता है। कि उन सबको जिनके चेहरे पर कुफ के चिन्ह स्पष्ट दीख पड़ते थे, मजबूत रस्सियों से बांधकर पापियों की भांति सुल्तान के सम्मुख उपस्थित किया गया। ऐसा प्रतीत होता था मानो बांधकर उन्हें नरक भेजा जा रहा है। उसमें से कुछ के हाथ बलपूर्वक पोछे बांध दिये गये थे और कुछ की गर्दन पकड़कर घूंसों द्वारा धकेला गया था। महमूद के संनिकों ने जयपाल के कष्ठ से मणि की माला उतार ली थी जिसका मूल्य दो लाख दिरहम था।
इसी प्रकार उनके साथियों के आभूषण छीन लिये गये । विजेताओं को लूट में इतना धन मिला कि उसका हिसाब लगाना भी असम्भव है । जयपात मुक्त कर दिया गया और उसके बदले में उसने महमूद को बहुत-सा धन तथा ५० हाथी देने का वचन दिया। अपनी इस विजय के उपरान्त महमुद जयपाल की राजधानी वहन्द ( उदभण्डपुर, आधुनिक उण्ड) तक आगे बढ़ा और मार्ग के प्रदेश को उसने निर्दयतापूर्वक लूटा। विजय तिलक से विभूषित यह अपार धन लेकर गजनी को लौट गया। एक अपवित्र म्लेच्छ के हाथों जयपाल को इतना अपमानित होना पड़ा, इसको वह सहन न कर सका और पश्चाताप से पीड़ित होकर चिता में उसने अपने को भस्म कर दिया। उसका पुत्र आनन्दपाल २००२ ई० में सिहासन पर बैठा । इन घोर संकटों ने जयपाल के मित्रों तथा अनुयायियों को अत्यधिक हतोत्साह कर दिया होगा । इसके विपरीत विजय से महमुद तथा उसकी सेनाओं का मनोबल बहुत बढ़ गया होगा और उनकी विजय-पिपासा और भी अधिक तीव्र हो गयी ।
मुल्तान पर आक्रमण
mahmud gajnavi ka multan par aakrman
महमूद का दूसरा महत्त्वपूर्ण आक्रमण मुल्तान पर हुआ जहाँ पर करमाथी सम्प्रदाय का फतेह दाऊद शासन करता था। करमाथी लोग शिया सम्प्रदाय के अनुयायी थे और कट्टर सुन्नी उनमे घृणा करते थे। मुल्तान को विजय करने से पूर्व महमूद ने झेलम के बायें किनारे पर स्थित भेरा नगर पर आक्रमण किया। आनन्दपाल ने उसका विरोध किया किन्तु उसे मार्ग से धकेलते हुए महमूद १००६ ई० में मुल्तान पर चढ़ गया और उस पर अधिकार कर लिया। मुल्तान को महमूद ने जयपाल के
सर हेनरी इलियट, जिल्द १, परिशिष्ट डी, पृ० ४३४-७६ - " महमूद के सत्रह आक्रमणों का वर्णन", जिनसे प्रायः सब सहमत हैं। एक नाती मुखपाल के सुपुर्द कर दिया । जयपाल की पराजय के बाद सुखपाल महमूद बन्धक बनाकर गजनी ले गया और उसे बलपूर्वक मुसलमान बना लिया गया था। मुसलमान लोग उसे नोशाशाह कहते थे। अवसर पाकर सुखपाल ने इस्लाम त्याग दिया और महमूद के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। किन्तु १००८ ६० मुल्तान ने मुस्तान लौटकर विद्रोह को दबा दिया और सुखपाल तथा दाऊद को केंद्र कर लिया। इस प्रकार मुल्तान महमुद्र के विस्तृत साम्राज्य का अंग बन गया। आनन्दपाल ने दाऊद करमाथी को सहायता दी थी, इससे महमूद बहुत कुषित हुआ। उधर अफगानिस्तान के शासक के हाथों में मुल्तान के चले जाने से आनन्द पात्र के राज्य पर दो और से आक्रमण का भय उपस्थित हो गया था।
इसलिए दोनों प्रतिद्वन्द्रियों में संघर्ष होता अवश्यम्भावी या महमूद का विश्वास था कि पंजाब पर पूर्णतया अधिकार किये बिना भारत में आगे बढ़ना और अपार धन लूटना असम्भव है। जानन्द भी स्थिति को भली-भांति समझता था । उसने एक विशाल सेना एकत्रित की। पडोसी राजाओं ने भी जो तुर्की की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के इच्छुक थे, उनकी सहायतार्थ मेनाएं भेजी। इस सेना को लेकर आनन्दपाल ने पेशा पर की ओर कूच किया। महमूद ने बहन्द के सामने के मैदान में उसका मुकाबला (१००२ ई० के लगभग) किया और उसकी सेनाओं पर भयंकर प्रहार किया। भारतीय मेना त-विक्षत होकर भाग बड़ी हुई। महमूद ने उसको खदेड़ा और कांगडा के पास नगरकोट के किले को घेर लिया। तीन दिन के भयंकर युद्ध के बाद नगर पर शत्रु का अधिकार हो गया। महमूद को लूट में बहुत-सा धन मिला जिसमें सोना अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ सम्मिलित थी। इस तरह सिन्ध से नगरकोट तक का समस्त प्रदेश गजनी मुल्तान के अधीन हो गया।
महमूद का इतिहासकार उतवीं लिखता है कि नगरकोटकी में इतना धन मिला कि जितने भी उंट मिल सके, उन पर उसे बाद लिया गया. फिर भी बच रहा जिसे अफसरों में बांट दिया गया। केवल सिक्कों का मूल्य ही ७०,००० दिरहम या ७ लाख दिरहम के मूल्य का सोना-चांदी भी मिला जिसका वजन ४०० मनः था। इसके अतिरिक्त मोती और सुन्दर वस्त्र भी अत्यधिक मात्रा में प्राप्त हुए। इतने सुन्दर, कोमल और जड़ाऊ वस्त्र महमूद के लोगों ने कभी न देखे थे । लूट में एक सफेद चांदी का घर भी मिला, जिसकी बनावट धनी पुरुषों के घरों को-सो थी और जो तीस गज लम्बा और पन्द्रह गज चौड़ा था । उसके विभिन्न भागों को अलग-अलग करके पुनः पूर्ववत जोड़ा जा सकता था । एक रोमी कपड़े का शामियाना भी था जिसकी लम्बाई ४० गज और चौड़ाई २० गज थी ।
वह उसे हुए दो सोने और दो चांदी के खम्भों पर सधा हुआ था। इन पराजयों के कारण हिन्दूशाही राज्य संकुचित होकर बहुत छोटा रह गया किन्तु वोर राजा आनन्दपाल हतोत्साह नहीं हुआ, अपितु और भी अधिक दृढता के साथ उनसे शत्रु का प्रतिरोध करने का संकल्प किया। उसने नमक की पहाडियों के छोर पर स्थित नन्दन को अपनी राजधानी बना लिया। छोटी-सी सेना एकत्रित करके नमक की पहाड़ियों के क्षेत्र में उसने अपनी स्थिति को दृढ करने का प्रयत्न किया। यहीं पर शान्तिपूर्वक उसकी मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र विलोचनपाल गद्दी पर बैठा। नये राजा को भी महमूद ने चैन नहीं लेने दिया और वह आगे बढ़ता ही गया । १०१४ ई० में अल्पकालीन घेरे के बाद उसने नन्दन पर भी अधिकार कर लिया। इस घेरे में त्रिलोचनपाल के पुत्र भीमपाल ने अतुल वीरता का परिचय दिया । इस पराजय के उपरान्त त्रिलोचनपाल ने भागकर काश्मीर में शरण ली । महमूद उधर भी उसका पीछा करता हुआ गया और उसकी तथा उसके मित्र काश्मीर नरेश के सेनापति तुग की संयुक्त सेनाओं को उसने पराजित किया, परन्तु महमूद ने काश्मीर में प्रवेश करना उचित नहीं समझा। त्रिलोचनपाल भी शरणार्थी की भाँति काश्मीर में अपने दिन नहीं काटना चाहता था और अपने पूर्वजों के राज्य पंजाब पर शासन करने की उसकी आकांक्षा थी। इसलिए लौटकर वह फिर पूरवी पंजाब में आ गया और शिवालिक पहाड़ियों में पुनः अपनी शक्ति की स्थापना कर ली। उसने बुन्देल- एण्ड के चन्देल राजा विद्याधर को अपना मित्र बना लिया। इस काल में विद्याधर की उत्तरी भारत के शक्तिशाली शासकों में गणना थी। महमूद ने इस संगठन को तोडने के उद्देश्य से १०१६ ई० में फिर भारत पर आक्रमण किया और रामगंगा के निकट युद्ध में त्रिलोचनपाल को पराजित किया। अब त्रिलोचनपाल के पास केवल नाममात्र का राज्य रह गया और उसके अनुयायियों में फूट पड़ गयी। उनमें से ही किसी ने १०२१-२२ ई० में उसकी हत्या कर दी। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र भीमपाल हुआ जिसकी स्थिति एक साधारण सामन्त की-सी थी । १०२६ ई० में उसकी भी मृत्यु हो गयी और उसके साथ ही उत्तर-पश्चिमी भारत का शक्तिसम्पन्न तथा गौरवशाली हिन्दूशाही राज्य भी पतन के गर्त में विलीन हो गया।
हिन्दूशाही राज्य जिसको तुर्की आक्रमण का प्रथम प्रहार सहना पड़ा था उसके पराभव में महमूद के लिए उत्तरी भारत में प्रवेश करना सरल हो गया। सबसे पहले उसने १००४ ई० में भटिण्डा के किले का घेरा डाला जो उत्तर-पश्चिम से गंगा की घाटी के मार्ग में पड़ता था । स्थानीय राजा विजय राय ने अत्यन्त वीरता से किले की रक्षा की किन्तु महमुद की सैनिक शक्ति के सामने वह टिक न सका और किले पर शत्रु ने अधिकार कर लिया। नगर के उन सब निवासियों को जिन्होंने इस्लाम अंगीकार नहीं किया, तलवार के घाट उतार दिया गया। लूट में अतुल धन महमूद के हाथ लगा । इसके उपरान्त उसने हिन्दूशाही राज्य के पार्श्व को घेरने का प्रयत्न किया जिससे उस ओर से उसके यातायात के मार्ग को तथा उसकी आक्रमणकारी सेना के पिछावे को किसी प्रकार का संकट उपस्थित न हो सके। इसलिए १००६ ई० में उसने फतेह दाऊद करमाथी से मुल्तान छीनने का संकल्प किया, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं । १००६ ई० में महमूद ने वहन्द के पास आनन्दपाल को हराया और नगरकोट पर अधिकार कर लिया। उसी वर्ष उसने आधुनिक अलवर जिले में स्थित नारायनपुर को जीत लिया।
उस स्थान का व्यापारिक महत्त्व अधिक था क्योंकि मध्य एशिया तथा भारत के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तुएं वहाँ एकत्रित होती थी । १०१४६ में थानेश्वर के पवित्र नगर को जहाँ चक्रस्वामी का मन्दिर था, जीतने के उद्देश्य से महमूद ने गजनी से प्रस्थान किया। मार्ग में एक हिन्दू राजा ने उसका प्रतिरोध किया और उसे भारी क्षति पहुंचायी। किन्तु जब वह थानेश्वर पहुंचा तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि नगर-निवासियों ने अपनी रक्षा के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया । । महमूद ने नगर को लूटा और चक्रस्वामी की मूर्ति को गजनी भेज दिया जहाँ उसे एक सार्वजनिक चौक में फेंक दिया गया ।
१०१५ तथा १०२१ ई० के बीच महमुद ने काश्मीर को जीतने का दो बार प्रयत्न किया किन्तु दोनों बार उसे असफल होकर लौटना पड़ा। अन्त में उसने इस सुन्दर घाटी की विजय का विचार ही त्याग दिया । हिन्दूशाही राज्य एक बाँध की भाँति तुर्की आक्रमणों की बाढ़ को रोके हुए था। उसके टूट जाने से समस्त उत्तरी भारत उसमें डूब गया। अवसर का अत्यधिक लाभ उठाने के उद्देश्य से महमूद ने गंगा की घाटी की ओर कूच किया और १०१८ ई० में मथुरा के लिए प्रस्थान किया, जो उत्तरी भारत का सबसे घना बसा हुआ तथा समृद्धशाली नगर था। श्रीकृष्ण की जन्मभूमि होने के कारण वह हिन्दुओं का बेथेलहम था। नगर भलीभांति सुरक्षित तथा विशाल मन्दिरों से सुशोभित था, किन्तु रक्षा- सेना ने पवित्र नगर तथा कलापूर्ण मन्दिरों को बचाने का प्रयत्न नहीं किया। आक्रमणकारी सेना ने अनेक मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया तथा उनकी संचित सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया ।
मयरा कितना भव्य नगर था और धर्मान्ध युग-युग से मुसलमानों ने किस प्रकार उसका सत्यानाश किया, इसका अनुमान हम उतबी के लेख से लगा सकते हैं । वह लिखता है कि "महमूद ने एक ऐसा नगर देखा जो योजना तथा निर्माण-कला की दृष्टि से आश्चर्यजनक था। ऐसा प्रतीत होता था मानो उसके भवन स्वर्ग के हैं किन्तु नगर का सौन्दर्य शैतान लोगों की कृति का परिणाम था, इसलिए कोई बुद्धिमान व्यक्ति उसके वर्णन को सुनकर विश्वास नहीं कर सकता था "उसके चारों ओर पत्थर के बने हुए एक हजार दुर्ग थे जिनका मन्दिरों की भाँति प्रयोग किया जाता था। उसके मध्य में एक सबसे ऊँचा मन्दिर था जिसके सौन्दर्य और सजावट का वर्णन करने में न किसी लेखक की लेखनी समर्थ है और न किसी चित्रकार की तूलिका । उस पर मन का स्थिर करना और विचार करना भी कठिन है ।" सुल्तान महमूद अपनी यात्रा के संस्मरणों में स्वयं लिखता है कि "यदि कोई व्यक्ति उस जैसे भवन का निर्माण करना चाहे तो उसे एक हजार दीनार की एक लाख थैलियाँ व्यय करनी पड़ेगी और कुशल से कुशल शिल्पियों की सहायता से भी वह २० वर्षों में पूरा नहीं होगा।
महमूद गजनवी के दरबारी लेखक द्वारा लूट का पूरा व्योरा
" उतबी के कथनानुसार इन मन्दिरों में सोने की बहुमूल्य मूर्तियां थीं, उनमें से कुछ पाँच-पाँच हाथ ऊंची थीं और एक में ५०,००० दीनार के मूल्य की लाल मणियाँ जड़ी हुई थीं। एक अन्य मूर्ति में शुद्ध ठोस नीलम जड़ा हुआ था जिसका मूल्य ४०० मिश्काल था । आक्रमणकारियों को अनेक मूर्तियों के नीसे गढ़ा हुआ बहुत-सा धन मिला। एक मूर्ति के नीचे तो ४ लाख स्वर्ण-मिश्काल के मूल्य का कोष मिला । अनेक अन्य मूर्तियाँ भी चाँदी की बनी होने के कारण बहु- मूल्य महमूद ने समस्त नगर को धूल में मिला दिया और उसका कोना-कोना लूट लिया। वृन्दावन में भी बध- लूट, दाह, हत्या और बलात्कार का काण्ड हुआ ।
मथुरा से महमूद ने कन्नौज की ओर कूच किया जो हर्ष के समय से उत्तरी भारत के अनेक सम्राटों की राजधानी रह चुका था । यहाँ पर इस समय गुर्जर- प्रतिहार वंश का अन्तिम शासक राज्यपाल शासन कर रहा था । महमूद के आगमन का समाचार सुनते ही वह भाग खड़ा हुआ । आक्रमणकारी ने नगर को घेर लिया और बिना युद्ध के ही उस पर अधिकार कर लिया। कन्नौज को भी मथुरा की भाँति लूट तथा हत्याकाण्ड देखना पड़ा । यहाँ भी को लूट में अपार धन मिला। इसके बाद मार्ग के कुछ छोटे किलों को जीतता महमूद हुआ महमूद गजनी को लौट गया ।
मुसलमानों ने पवित्र मथुरा नगरी के मन्दिरों को जो अपवित्र और ध्वस्त किया उससे उत्तरी भारत के कुछ प्रमुख राजाओं की आत्मा को बड़ी ठेस लगी। इनमें बुन्देलखण्ड के चन्देल राजा का नाम अग्रगण्य है। इस शक्तिशाली राजा ने (उसे कोई गण्ड कहता है और कोई विद्याधर) अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए कुछ प्रमुख शासकों का एक संघ बनाया। इस संघ के सदस्य कन्नौज के राज्यपाल से बहुत असन्तुष्ट थे क्योंकि वह बिना युद्ध किये ही अपनी राजधानी से भाग गया था। इसलिए उन्होंने राज्यपाल पर आक्रमण किया और युद्ध में उसे मार डाला। इस पर कुपित होकर महमूद ने फिर भारत पर आक्रमण किया, क्योंकि वह अपने विरुद्ध भारतीय नरेशों का संघ नहीं बनने देना चाहता था ।
२०१६ ई० में महमूद गजनी से चला। मार्ग में हिन्दूशाही राजा त्रिलोचनपाल ने उसका मुकाबला किया किन्तु उसको हराता हुआ महमूद बुन्देलखण्ड की ओर बढ़ा। चन्देल राजा ने शक्तिशाली सेना लेकर उसके मार्ग को अवरुद्ध करना चाहा, किन्तु किसी अज्ञात कारण से रात्रि के समय वह रणक्षेत्र से यकायक ही भाग खड़ा हुआ । इतनी विशाल सेना को देखकर महमूद का उत्साह भंग हो गया था किन्तु गण्ड के भाग जाने से उसका काम बन गया। उसने चन्देलों के सम्पूर्ण राज्य को बुरी तरह लूटा और अतुल लूट का धन लेकर १०२२ ई० में गजनी को लौट गया ।
उसी वर्ष के अन्त में चन्देलों की शक्ति का पूर्णतया नाश करने के उद्देश्य से महमूद फिर भारत आया । चन्देलों के प्रसिद्ध गढ़ कालिंजर पहुंचने से पहले मार्ग में उसने ग्वालियर के किले को जीतने का प्रयत्न किया क्योंकि वहाँ का राजा चन्देलों का करद सामन्त था । परन्तु किला इतना सुदृढ़ था कि महमूद उस पर अधिकार न कर सका। उसने मार्ग में अधिक विलम्ब करना उचित नहीं समझा इसलिए ग्वालियर के कछवाह राजा से सन्धि करके वह कालिंजर की ओर बढ़ा। कालिंजर को घेर लिया
गया किन्तु सरलता से उस पर अधिकार न हो सका। घेरा दीर्घकाल तक चलता महमूद गजनी लौटने का इच्छुक था इसलिए उसने चन्देल राजा से सन्धि कर ली राजा ने कर के रूप में ३०० हाथी सुल्तान को देना स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि उसने महमूद की प्रशंसा में एक कविता भी लिखी जिसे सुनकर सुल्तान इतना प्रसन्न हुआ कि उसके १५ किले उसे इनाम के रूप में दे दिये । इस सन्धि के उपरान लूट का धन लेकर महमूद गजनी को लौट गया
'भारत में महमूद का अन्तिम प्रसिद्ध आक्रमण सोमनाथ पर हुआ जो काठियावार के तट पर स्थित था । कहा जाता है कि सोमनाथ के मन्दिर के पुजारियों ने यह शेखों मारी थी कि भगवान सोमनाथ दूसरे देवताओं से अप्रसन्न हो गये हैं जिसके कारण ही बुतशिकन महमूद उन्हें तोड़ने और लूटने में समर्थ हुआ है । ब्राह्मणों के इस अहंकार म कुद्ध होकर ही महमूद ने सोमनाथ पर आक्रमण करने का संकल्प किया।
सोमनाथ पर आक्रमण
Somnath mandir ki loot.
सोमनाथ मंदिर के लूट की उस दिन की कहानी महमूद गजनवी की जुबानी
Somnath mandir ka lutera mahmud gajnavi ke baare mein hindi mei jaankari.
१७ अक्टूबर, १०२४ ई० के दिन वह एक विशाल सेना लेकर गजनी से चल पड़ा। कहा जाता है कि इससे बड़ी सेना का उसने पहले कभी संचालन नहीं किया था। १० नवम्बर को वह मुल्तान पहुंचा। चूंकि उसे राजपूताना के दुर्गम मरुस्थल में से होकर गुजरना था इसलिए मार्ग में उसने अत्यधिक सावधानी से काम लिया । प्रत्येक सैनिक को अपने साथ सात दिन के लिए भोजन, पानी और चारा ले चलने के लिए बाध्य किया गया। इसके अतिरिक्त महमूद ने सम्पूर्ण सेना के लिए पर्याप्त भोजन और पानी का प्रबन्ध किया, जिसे ३०,००० ऊँटों पर लादा गया। जनवरी १०२५ ई० में जब सुल्तान अन्हिलवाद पहुंचा तो उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि राजा भीमदेव अपने अनुयायियों सहित राजधानी से भाग गया है। जो लोग पीछे रह गये. थे उन्हें आक्रमणकारियों ने हराया और लूट लिया। किन्तु नगर की जनता तथा सोमनाथ मन्दिर के पुजारी अपने स्थानों पर ही डटे रहे क्योंकि उनका विश्वास था कि भगवान सोमनाथ की उपस्थिति के कारण हम लोग पूर्णतया सुरक्षित हैं।
महमुद ने बिना अधिक कठिनाई के स्थान पर अधिकार कर लिया और कत्लेआम की आज्ञा दे दो । ५०,००० से भी अधिक स्त्री-पुरूष मौत के घाट उतार दिये गये । सुल्तान स्वयं सोमनाथ की मूर्ति को तोड़कर उसके टुकड़ों को गजनी, मक्का और मदीना भिजवा दिया। वहाँ वे गलियों में और खास मस्जिद की सीढ़ियों पर डलवा दिये गये। जिससे नमाज के लिए जाने वाले मुसलमान उन्हें अपने पैरों के नीचे रौंद सके। इस ने मूर्ति की गणना संसार की महान आश्चर्यजनक वस्तुओं में की जाती थी। वह मन्दिर के बीच में स्थित थी और नीचे अथवा ऊपर के बिना किसी सहारे के सधी हुई थी। हिन्दुओं की उसमें अत्यधिक श्रद्धा थी और मुसलमान अथवा काफिर जो भी उसे आकाश में स्थित देखता था, आश्चर्यान्वित हो जाता था। छत में चकमक पत्थर के जो टुकड़े लगे हुए थे, उन्हें महमूद ने हटवा दिया। तुरन्त ही मूर्ति पृथ्वी पड़ी और तोड़कर उसे छारछार कर दिया गया। कहा जाता है कि मन्दिर की लूट मे २०,००,००० दीनार से भी अधिक का धन आक्रमणकारियों को प्राप्त हुआ जिसे पर गिर लेकर महमूद सिन्ध के मार्ग से गजनी लौट गया। उसका अन्तिम आक्रमण सिन्ध के जाटों पर १०२७ ६० में हुआ क्योंकि सोमनाथ से पिछले वर्ष गजनी को जाते समय मार्ग में जाटों ने उसे क्षति पहुंचायी थी। इस आक्रमण के बाद ही भारत में महमूद के कार्यों का इतिहास समाप्त हो गया । १०३० ई० में वह इस संसार से चल बसा।
महमूद के कार्यों का मूल्यांकन
महमूद की गणना एशिया के महानतम मुसलमान शासकों में है। वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था जो इराक तथा कैस्पियन सागर से गंगा तक फैला हुआ था और बगदाद के खलीफा के साम्राज्य से भी कहीं अधिक विस्तृत था । उसने स्वयं अपने बाहुबल से इस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था । अपने पिता से विरासत में उसे केवल गजनी और खुरासान के प्रान्त मिले थे। महमूद पूर्ण स्वेच्छाचारी शासक था। राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसी के हाथ में केन्द्रित थी। उसके मन्त्…
महमूद स्वयं सुसंस्कृत तथा विद्वानों और कलाकारों का संरक्षक था। विद्वान था और कविता में भी उसकी कुछ गति थी। गजनी को उसने सुन्दर महलों मस्जिदों, विद्यालयों और समाधियों से सुशोभित किया। योग्य तथा विख्यात विद्वानों को उसने अपने दरबार में एकत्रित किया जिनसे वह साहित्यिक तथा धार्मिक विष पर वाद-विवाद किया करता था । अल-बरुनी, फिरदौसो, ऊ सुरी तथा फरखा उसके दरबार के सबसे अधिक देदीप्यमान रत्न थे। उसका सचिव प्रसिद्ध विद्वान उतवी ( था। महमूद तथा उसके युग की ऐतिहासिक जानकारी के लिए हम उसी की योग्यता के ऋणी है। महमूद ने गजनी में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और सम्पूर्ण मुस्लिम-जगत से प्रतिभावान कलाकारों को अपने दरबार में आमन्त्रित किया ।
अपने राज्य में महमूद अपनी न्यायप्रियता के लिए भी अधिक विख्यात था। एक विद्वान ने लिखा है कि “महमूद न्यायप्रिय शासक, विद्या का प्रेमी और दयालु स्वभाव तथा शुद्ध विचारों का व्यक्ति था।" वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था और धार्मिक नियमों का कट्टरता से पालन करता था। वह इस बात का भी ध्यान रखता था कि उसकी मुस्लिम प्रजा शुद्ध सुन्नी धर्म से विचलित न होने पाये। उसने धर्मद्रोहियों को दण्ड दिया और करमाथी आदि इस्लाम के विद्रोहियों पर धार्मिक अत्याचार भी किये ।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुहम्मद हबीब का मत है कि महमूद धर्मान्ध न था और भारत पर आक्रमण उसने धार्मिक उद्देश्यों को लेकर नहीं वरन् लूट के लालच से किये थे। विद्वान प्रोफेसर का यह भी कहना है कि चूंकि इस्लाम लूट और आततायीपन का समर्थन नहीं करता है अतः महमूद ने भारत में वर्बरतापूर्ण कृत्य करके तो इस्लाम का अपकार ही किया था। किन्तु महमूद एक पवित्र मुसलमान शासक था जो अपने धर्म के नियमों का अत्यन्त सावधानी से पालन करता था और इस सम्बन्ध में उसके समकालीन मुसलमानों को किसी प्रकार का सन्देह नहीं था बल्कि वे उसे आदर्श मुस्लिम शासक मानते थे। उस युग के सभी मुसलमान इस विषय में एकमत थे कि भारत पर आक्रमण करके महमूद ने इस्लाम की सेवा ही नहीं की थी बल्कि उसके गौरव को बहुत बढ़ाया था। जहाँ तक इस मत का सम्बन्ध है कि इस्लाम इस प्रकार के आततायीपन और अत्याचारों का समर्थन नहीं करता है, जो महमूद ने भारतवासियों पर किये थे, हमें केवल एक ही बात याद रखनी है और वह यह है कि इतिहास के विद्यार्थी को किसी धर्म के मतवादों से प्रयोजन नहीं है । उसे तो केवल यह देखना है कि उसके अनुयायियों के कार्यों और आचरण पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है और यह एक निर्विवाद सत्य है कि महमूद के समय में तथा उसके बाद शताब्दियों तक जो लोग इस्लाम की व्याख्या करने के अधिकारी समझे जाते थे, उनका यह स्पष्ट मत था कि गजनी का सुल्तान कभी भी इस्लाम के कट्टर नियमों से विचलित नहीं हुआ था और भारत में अपने आचरण द्वारा उसने इस्लाम का मस्तक ऊंचा किया। उस युग के भारतीय महमुद को शैतान का अवतार मानते थे। उनकी दृष्टि में वह एक साहसी डाकू, लालची लुटेरा तथा कला का निर्दयी नाशक था, क्योंकि उसने हमारे दर्जनों समृद्धशाली नगरों को लूटा तथा अनेक मन्दिरों को जो कला के आश्चर्यजनक आदर्श थे, धूल में मिला दिया। वह सहस्रों निर्दोष स्त्रियों और बच्चों को दास बनाकर ले गया। जहाँ भी वह गया, वहाँ अत्यन्त निर्दयतापूर्वक उसने हृत्याकाण्ड किया और हमारे सैकड़ों देशवासियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध मुसलमान बनाया। जो विजेता अपने पीछे ऊजड़ नगरों और गाँवों तथा निर्दोष मनुष्यों की लाशों को छोड़ जाता है उसे भावी पीढ़ियाँ केवल आततायी राक्षस समझकर ही याद रख सकती हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं । .
शासक की हैसियत से भारत के इतिहास में महमूद का कोई स्थान नहीं है । हिन्दूशाही राजवंश के पतन के बाद पंजाब को उसने भौगोलिक, सैनिक तथा सामाजिक कारणों से अपने राज्य में मिलाया, क्योंकि इस प्रदेश प…
महमूद का उत्तराधिकारी
mahmud gajnavi ka uttaradhikari kaun tha?
महमुद का साम्राज्य इतना बड़ा था कि उसका उचित रूप से प्रबन्ध नहीं किया जा सकता और इस बात को वह स्वयं भलीभांति समझता था । इसीलिए अपनी मृत्यु से पहले उसने उसके दो भाग कर दिये। एक अपने बेटे मसूद को दे दिया और दूसरा मुहम्मद को । किन्तु सिंहासनारोहण फिर भी शान्तिपूर्वक न हो सका और जैसे ही उसकी आंखें बन्द हुई, दोनों भाइयों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध आरम्भ हो गया। मसूद की विजय हुई। उसने अपने भाई को अन्धा करके कारागार में डाल दिया और १०३० से १०४० ई० तक १० वर्ष राज्य किया। खलीफा ने उसे सुल्तान की उपाधि प्रदान की। यद्यपि मसूद पराक्रमी था, फिर भी १०४० ई० में मवं के युद्ध में सल्बूकों ने उसे पराजित किया और भागकर उसने लाहौर में शरण ली। महमूद के अन्तिम दिनों में तथा ममूद के सम्पूर्ण शासनकाल में पंजाब का शासन नाइबों के हाथों में था और मुसलमान पदाधिकारियों के द्रोह, स्वार्थपरता तथा अयोग्यता के कारण प्रान्त की शासन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी। किन्तु तिलक नामक एक हिन्दू ने मसूद की वफादारी के साथ सेवा की। उसका जन्म एक अत्यन्त साधारण परिवार में हुआ या किन्तु अपनी योग्यता के कारण महमूद के समय में ही वह मन्त्री के पद पर पहुँच गया था। परन्तु तिलक की वफादारीके वावजूद जब मसूद-लाहौर पहुंचा उस समय पंजाब की दशा सन्तोषजनक नहीं थी। सल्जुकों द्वारा पराजित होने के कारण मसूद की सेना छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। मार्ग में उसके सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और उसे गद्दी से उतारकर उसके अन्धे भाई मुहम्मद के हवाले कर दिया। मुहम्मद ने मसूद का वध करवा दिया और स्वयं सुस्तान बन बैठा । परन्तु कुछ समय बाद मसूद के पुत्र माद ने कुछ प्रमुख सामन्तों की सहायता से अपना एक दल संगठित कर लिया, मुहम्मद को पराजित किया और उसका तथा उसके पुत्र का वध कर दिया।
माद दुर्बल शासक था। उसने १०४० से १०४६ ई० तक राज्य किया। उसकी मृत्यु के बाद फिर उत्तराधिकार के लिएयुद्ध हुआ और एक के बाद एक कई अयोग्य सुल्तान गजनी की गद्दी पर बैठे। उन सबने थोड़े-थोड़े समय तक शासन किया और उन्हें भी अपयश ही भोगना पड़ा। पंजाब की कठिनाइयों के अतिरिक्त उन्हें सदैव सल्जूकों की उदीयमान शक्ति का भय बना रहता था। किन्तु गजनी के पतनशील राजवंश को सबसे बड़ा संकट गोर के छोटे-से राज्य के कारण उपस्थित हुआ । गजनी और गोर के इन दोनों राजवंशों में कौटुम्बिक प्रतिद्वन्द्विता चलती रही और ११५५ ई० में चरमसीमा पर पहुंच गयी। गोर के अलाउद्दीन हुसैन ने गजनी पर आक्रमण किया, उसे बुरी तरह लूटा और पूर्णतया जलाकर नष्ट कर दिया। इसलिए उसका नाम जहाँ-सोज (विश्व को जलाने वाला) पड़ गया। उसने गजनी के सहस्रों व्यक्तियों का वध कर दिया और स्त्रियों तथा बच्चों को दासता की श्रृंखलाओं में जकड़ दिया। सभी इमारतों को नष्ट कर दिया गया। केवल महमूद की समाधि बच रही। बारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में शाहबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने महमूद के वंश का नाश कर दिया ।
गजनवी शासन के अन्तर्गत पंजाब को दशा
महमूद ने पंजाब को अपने राज्य में मिलाकर उसका शासन एक सूबेदार के सुपुर्द कर दिया। इस प्रकार सिन्ध और मुल्तान के बाद यह हमारे देश का तीसरा प्रान्त था जो उत्तर-पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारियों के हाथ में चला गया। महमूद पहला तुर्क था जिसने हमारे एक प्रान्त पर शासन किया और एक राजवंश की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारियों ने गजनी के पंतक राज्य को खो देने के बाद नाहौर में शरण ली और वहाँ ११८६ ई० तक शासन किया जिसके बाद उनके वंश का नाश हो गया । महमूद के उत्तराधिकारियों के समय में तुर्की पदाधिकारियों के दोह और अयोग्यता के कारण पंजाब की शासन व्यवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गयी । सूबेदार अरियारुख ने प्रान्त की आय को ही गबन कर लिया अतः महमूद ने उसे गजनी बुलाकर कत्ल करवा दिया। उसके बाद अहमद नियाल्तगीन सुबेदार हुआ जिसे यह भी पता न था कि ईमानदारी किसे कहते हैं और न शासन सम्बन्धी तथा सैनिक विषयों का ही अनुभव था । १०३३ ई० में उसने काजी अबुल हसन से झगड़ा कर लिया। लूटमार के उद्देश्य से उसने बनारस पर आक्रमण किया जहाँ बहुत सा धन उसके हाथ लगा । नियाल्तगीन के इन कामों और इस प्रकार के कुप्रबन्धों के समाचार सुनकर मसूद बहुत घबराया और उसको दण्ड देने के लिए उसने तिलक नामक हिन्दू सेनापति को भेजा । तिलक सुन्दर, योग्य तथा शिक्षित सैनिक था और महमूद के समय में ही उच्च पद पर पहुँच गया था। युद्ध में अहमद नियाल्तगीन मारा गया। तिलक ने उसका सिर काटकर मसूद के पास भेज दिया । १०३६ ई० में मसूद ने अपने पुत्र मादूद को नियाल्तगीन के स्थान पर सूबेदार नियुक्त किया और १०३७ ई० में मसूद स्वयं भारत आया । १ जनवरी, १०३६ ई० को उसने होसी को घेर लिया, सहस्रों की संख्या में निर्दोष जनता का वध किया और स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बनाया। परन्तु १०४० ई० में मसूद को सत्जूकों के हाथों भयंकर हार खानी पड़ी। इसलिए गजनी छोड़कर वह लाहौर की ओर भागा। मार्ग में उसके अनुयायियों ने विद्रोह किया, उसे कैद कर लिया तथा उसके भाई मुहम्मद को गद्दी पर बिठा दिया।
उसके बाद मादूद शासक हुआ (२०४०-४६ ई०) । उसने लाहौर के सूबेदार नामी को मारकर पंजाब पर अधिकार कर लिया। मादूद के शासनकाल में पंजाब गजनी राज्य का अंग बना रहा किन्तु वहां की जनता को उसके शासन में तनिक भी श्रद्धान थी । १०४४ ई० में दिल्ली के राजा महिपाल ने गजनवी सूबेदार के हांसी, थानेश्वर और कांगड़ा छीन लिये और उन स्थानों पर पुनः हिन्दू देवताओं को प्रतिष्ठित किया। उसने लाहौर को भी घेर लिया किन्तु उस पर अधिकार किये बिना ही उसे वापस लौटना पड़ा । १०४८ ई० में मादूद ने अपने बेटे महमूद और मंसूर को क्रमश: लाहौर और पेशावर का सुबेदार नियुक्त किया किन्तु शासन में भ्रष्टाचार और दुर्बलता पूर्ववत बनी रही । दिसम्बर १०४६ ई० में मादूद की मृत्यु हो गयी। उसके बाद दीर्घकाल तक पड्यन्त्र और दरबारी उपद्रव चलते रहे। एक के बाद एक कई दुर्बल सुल्तान गजनी
की गद्दी पर बैठे, किन्तु वे नाममात्र को शासक थे। उनमें से इब्राहीम ने अवश्य शान्तिपूर्वक दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग किया और ४२ वर्ष के शासन के बाद १०६६ ई० में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र मसूद तृतीय ने १७ वर्ष तक राज्य किया। उसकी मृत्यु (१११५ ई०) के बाद उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया जिसमें सल्जूकों ने असलों के विरुद्ध बहराम का साथ दिया । १११८ ई० में असला पराजित हुआ और मारा गया। उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी खुसरवशाह को ११६० ई० में गुज तुर्कमानों ने हराकर गजनी की गद्दी पर अधिकार कर लिया। वह भागकर पंजाब आया क्योंकि केवल वह प्रान्त ही अब गजनवी वंश के हाथों में रह गया था । उसकी मृत्यु के बाद (११६० ई०) उसका पुत्र मलिक खुसरव पंजाब की गद्दी पर बैठा जो कोमल हृदय तथा विलासी शासक था। उसके समय में जिलों के पदाधिकारी अर्द्ध- स्वतन्त्र शासक बन बैठे। इसी समय गजनवी वंश के लिए एक नया संकट उपस्थित हो गया । मुहम्मद गोरी ने जो अपने भाई गियासुद्दीन द्वारा गजनी का शासक नियुक्त किया गया था, थोड़ा-थोड़ा करके सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया और खुशरव को उसकी मृत्यु (११६२ ई०) तक कारागार में ही रखा ।
महमूद गजनवी के आक्रमणों के परिणाम
महमूद एक भाग्यशाली विजेता था। उसने भारत पर पन्द्रह-सोलह आक्रमण किये और उनमें से एक में भी उसे पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ा। रमेशचन्द्र मजूमदार का मत है कि महमूद के आक्रमणों के भारतीय इतिहास पर महत्त्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव पड़े। अन्य कुछ विद्वानों का विचार है कि महमूद भाग से केवल धन-सम्पत्ति लूटकर ले गया, इसके अतिरिक्त उसके आक्रमणों का कोई विशे प्रभाव नहीं पड़ा। फिर भी उसके हमलों के निम्नलिखित प्रभाव तो स्पष्ट दृष्टिगोच होते हैं :
(१) जन-धन की हानि - महमूद के अनेक आक्रमणों में भारत को जन-धन की अपार हानि सहनी पड़ी। लाखों व्यक्ति हताहत हुए और अरबों रुपये का सोना, चांदी, रत्न, तथा अन्य सम्पत्ति भारत से गजनी चली गई। इससे यह देश कंगाल हो गया और गजनी मालामाल हो गया ।
(२) भावी मुस्लिम आक्रान्ताओं के लिए मार्ग खुला - यह ठीक है कि महमूद गजनवी ने केवल लूट को ही अपना लक्ष्य रखा और भारत में अपना स्थायी साम्राज्य जमाने का प्रयत्न न किया, फिर भी उसके सफल आक्रमणों ने भावी मुस्लिम आक्रान्तानों
मुसलमानों के आक्रमण के लिए भारत का द्वार खोल दिया। उसके पदचिह्नों पर चल कर ही डेढ़ शताब्दी बाद मुहम्मद गोरी ने भारत में तुर्क सल्तनत की स्थापना की।
(३) भारत की राजनीतिक तथा सैनिक दुर्बलता प्रकट हो गई—महमूद के कणों से भारत की राजनीतिक तथा सैनिक दुर्बलता प्रकट हो गई। राजनीतिक दृष्टि से भारत के छोटे-छोटे विभिन्न राज्य आपस में मिल कर आक्रमणकारी का सामना करने में असमर्थ थे और सैनिक दृष्टि से भारतीयों की रणकला में कोई भारी कमी थी, जिसके फलस्वरूप वे एक बार भी महमूद को हरा नहीं सके। इन दुर्बलताओं के प्रकट हो जाने के फलस्वरूप मुहम्मद गौरी को भारत में अपना साम्राज्य जमाने की हिम्मत हुई ।
(४) भारतीय कला का नाश महमूद गजनवी के आक्रमणों से भारतीय कला को गहरी चोट पहुँची। न केवल शताब्दियों में निर्मित कलाकृतियाँ नष्ट हो गई, अति महमूद अपने साथ हजारों शिल्पियों को भी गजनी ले गया, जिन्होंने वहां सुन्दर भवनों और मस्जिदों का निर्माण किया।
(५) भारत में इस्लाम फैला अरबों की सिन्ध विजय से भारत में इस्लाम कासा प्रचार नहीं हुआ, जैसा कि महमूद की विजयों से महमूद का तो घोषित उद्देश्य ही इस्लाम का प्रचार था। उसकी विजयों से बहुत से हिन्दुओं की अपने देवताओं पर से आस्था उठ गई और उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। हजारों भय के कारण मुसलमान बन गये और कितनों को बलपूर्वक मुसलमान बना लिया गया। विजयी मुस्लिम सैनिकों ने अरक्षित स्त्रियों पर बलात्कार किये। वे स्त्रियों और उनकी सन्तानें मुसलमान हुई मानी गई।
(६) पंजाब पर गजनी का अधिकार यह नहीं कि महमूद ने भारत में अपना साम्राज्य बिल्कुल ही न जमाया हो। हिन्दूशाही राज्य को हराने के बाद उसने पंजाब को अपने राज्य का अंग बना लिया था। यहाँ उसका सूबेदार रहता था और पंजाब से कर के रूप में महमूद को बार्षिक आय होती थी। इतना ही नहीं, उसकी मृत्यु के बाद उसके वंशजों को जब भाग कर शरण लेनी पड़ी, तब पंजाब का राज्य उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ
(७) मुसलमानों का आतंक छा गया - महमूद की विजयों का हिन्दुओं पर ऐसा जातक खा गया कि वे उसे अजेय समझने लगे। इसका फल यह हुआ कि महमूद की मृत्यु के बाद जब उसके वंशजों की स्थिति कमजोर हो गई, तब भी हिन्दुओं ने उन्हें उखाड़ फेंकने की चेष्टा नहीं की।
परन्तु इस सबके बाद भी भारत की शासन व्यवस्था पर या राजनीतिक तथा सामाजिक दशा पर महमूद के आक्रमणों का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। जो भी नियाजसनिक गुण-दोष थे, वे उसके आक्रमणों के बाद भी ज्यों के त्यों बने रहे। हिन्दुओं ने अपनी बारम्बार पराजयों से कोई शिक्षा नहीं ली।
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