परशुराम ( Parshuram) की बाल लीलाएं एवं शिक्षा संस्कार

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महर्षि जमदग्नि के आश्रम में जन्मोत्सव हर्षोल्लास पूर्ण हुआ। जातकर्म संस्कार हुए फिर शुद्धि होने पर नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। बालक का नाम 'राम' रखा गया। शिष्यों ने इनकी जन्मकुण्डली बनाकर गुरुदेव को दिखायी तो ग्रहयोग देखकर मातापिता को बहुत आनंद हुआ। शिशु सामान्य नहीं था। अत्यन्त सुन्दर पुष्ट- बलिष्ट एंव विलक्षण था। भृगुवंश को गौरव प्रदान करेगा सब विद्याएँ उसे सहज प्राप्त होंगी। भृगुसंहिता तो इस परिवार की ही वस्तु थी, उससे कुण्डली मिलाकर देखी तो बालक सर्वथा विलक्षण और अद्भुत गुणों से युक्त होगा। ऋषि त्रिकालदर्शी थे, अतः बालक राम के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करके परम सन्तुष्ट थे। राम के चारों बड़े भाई तथा आश्रम के ब्रह्मचारी सभी बच्चे राम को गोद में लेकर यहाँ-वहाँ लिये फिरते, स्वयं इनसे खेलते और इन्हें भी खिलाते। राम रोते तो कभी थे ही नहीं। 


परशुराम ( Parshuram) की बाल लीला- एवं शिक्षा संस्कार


माता समय पर इन्हें दूध पिला देती और ये बालकों की गोद में खेलते रहते। बालक किसी भी काम अथवा अन्य कार्य से कहीं जाते तो कुशा के झूले में इन्हें लिटाकर आम्रवृक्ष के नीचे झुकी शाखा पर लटका जाते। अभी ये एक महीने के ही थे, झूले में सो रहे थे कि एक दिन आम का कच्चा फूल उनको दिखा, उछले और आम की एक शाखा को गिरा दिया सबने देखा और सब चकित रह गये, कुछ समय पश्चात् राम घुटनों के बल चलने लगे तो आश्रम में, घर में तथा पाठशाला में जाने लगे। माँ रेणुका इस बात का विशेष ध्यान रखती थी कि बालक यज्ञशाला में न चला जाए. इसी प्रकार गौशाला में भी न जाने देती उन्हें भय रहता था कि वही कहीं अग्नि को न पकड़ ले अथवा किसी गाय या बछड़े के नीचे न चला जाय। राम जब पैरों के बल चलने लगे तो आश्रम में सब जगह चले जाते. पूजा सामग्री को देखकर प्रसन्न होते, ऋषियों के कमण्डलु उठा लेते, फिर पूजा करने लग जाते, पूजा के छोटे-छोटे पात्रों को साफ करते, उन्हें बछड़ों के आगे रख देते। मालाओं को गले में पहन लेते. लम्बी होने के कारण ये इनके पैरों तक लटकती रहती, फिर चलते हुए इनके पैरों में अटकती और ये गिर पड़ते। गिर जाने पर उन्हें इतने जोर से फेंकते कि एक-एक रुद्राक्ष सारे आँगन में बिखरा जाता। इस प्रकार फिर उनको एकत्रित करते और उन्हें देख-देखकर हँसने लगते। छठे महीने में महर्षि जमदग्नि ने बालक राम का अन्न प्रासन संस्कार कराया। पिता ने बालक को गोद में बिठाया, माता उनके वाम भाग में बैठी। मन्त्रपाठ एवं हवन हुआ। समस्त ब्रह्मचारियों ने इसमें भाग लिया। माता के गर्भ में जो मलिनता शिशु में आ गयी, उसकी शुद्धि, श्राद्ध, पूजन मन्त्र हवन की प्रक्रिया से निपट कर ऋषि जमदग्नि जी ने उनके मुख में अन्न का ग्रास देकर संस्कार किया।


श्री परशुराम जी की बाल लीलाएँ एवं शिक्षा संस्कार


Parshuram ki baal leela in  hindi

Parshuram ki Bachpan ki kahani hindi mein.

Parshuram ki baal katha aur shiksha in hindi





 चूड़ाकरण


 बालक राम जब तीन वर्ष के हुए पिता ने इनका चूड़ाकर्म संस्कार कराया। इस संस्कार में केशों का मुण्डन करके सिर में चोटी रख दी जाती है। गर्भावस्था के बाल कटवा कर अपवित्रता दूर की जाती है, इससे आयु, बल आदि की वृद्धि होती है। शिखा के नीचे ब्रह्मरन्ध्र रहता है और उसके ऊपर ही सहस्रादल कमल में परमात्मा का केन्द्र स्थान होता है यदि परमात्मा का ध्यान किया जाए तो शिखा के मार्ग से ओज प्रकट होता है। ओज, आत्मा के बल का नाम है। परमात्मा की शक्ति भी थी शिखा के मार्ग से व्यक्ति के भीतर प्रवेश करती है। कोई व्यक्ति तर्क कर सकता है कि सन्यासी लोग तो शिखा नहीं रखते वे परमात्मा की शक्ति से वंचित रह जाते होंगे तो इस का उत्तर यह है कि सन्यासी महात्मा शिखा नहीं उच्चकोटी के उस शिखर को प्राप्त करते हैं, जिसके बाद कोई भी शाखा या शिखर नहीं रह जाता। वे ब्रह्म से मिल जाते हैं। उन्हें शिखा के द्वारा शक्ति खींचने की आवश्यकता नहीं होती।


बालक राम के सिर के केशों का मुण्डन कराया गया और मोटी चोटी रख दी गयी, आश्रम में विशेष उत्सव मनाया गया। इस क्रम में देव पूजन, श्राद्ध-हवन एवं वेदपाठ, ब्रह्मभोज का आयोजन किया गया। माताओं ने अवसर के अनुरूप मांगलिक गीत गाये। राम अब आश्रम में छोटी-मोटी बाल लीला करने लगे। गौशाला में जाकर बछड़ों को खोल देते, बछड़े पूरे गोष्ठ में छलांग लगाते फिरते कोई कूद कर जंगल में निकल जाता तो कोई आश्रम के निकट हिरणशावकों के झुण्ड में जा खड़ा होता। इधर उधर सब जगह दौड़ते हुए बछड़ों के कानों में वायु भर जाती और इसके प्रभाव में वे और भी जोर से कुलांच मारते फिरते विद्यार्थी जब उन्हें पकड़ने जाते तो बछिया - बछड़े और भी दूर भाग जाते, उनके हाथ न आते। पूंछ उठाकर, कान खड़े कर दौड़ते-फिरते। उधर गाएं। भी गोष्ठ में रंभाती रहती तो कुछ भागकर उनके पास ही पहुंच जाती। माता रेणुका जी जब गाय बछड़ों को नाम से लेकर पुकारती, तभी सब वापस आती और अपने-अपने स्थान पर आकर शांत हो जाती। रेणुका जी ने सबके नाम रखे हुए थे जैसे भूरी, धोली, चीटी आदि नाम थे और सम्पूर्ण गौवंश अपने नाम पहचानता था। राम विद्यार्थियों के लिखने की तख्ती - वर्तिका ले आते और लेखनी लेकर तख्ती पर टेढी सीधी लकीरें खींच देते, किसी की तख्ती पर स्याही उड़ेल देते जिससे तख्ती स्याही से पुत जाती। छात्रों की कौपीन, मेखला, दण्ड उठा लाते, उन्हें कहीं का कहीं डाल देते। आवश्यकता पड़ने पर विद्यार्थी अपनी वस्तुएँ खोजते फिरते और राम प्रसन्न होकर उन्हें छिपायी फेंकी वस्तुएँ दिखा देते। इस प्रकार आश्रम में सबको प्रसन्न करते रहते। किसी भी वस्तु को तोड़ते-फोड़ते न थे। 



एक बात विशेष थी, बालकराम अपने माता-पिता का कहना मानते थे, उनसे कभी हल नहीं करते थे। माता उनको डाँटती थी तो चुपचाप उनके पैरों में लिपट जाते और गोद में सो जाते। पिता के पीछे घूमते फिरते और उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता होती तो तुरन्त लाकर उन्हें दे देते। पूजा एवं वेदपाठ करते हुए ऋषि बोलते नहीं थे तो ये उनके संकेत करने पर वांछित वस्तु लाकर दे दिया करते थे। बालक राम अपने साथियों समवयस्कों में सबसे विलक्षण थे। अन्य बच्चे जाकर नदी के किनारे रेत में खेलते, पत्थरों के टुकड़े इकट्ठे कर घर बना कर खेलते और खेल पूरा कर उन्हें बिगाड़ देते और खेल बिगड़ गया कहते हुए भाग जाते परन्तु राम उस घरोंदे बनाने बिगाड़ने के खेल में कोई रुचि न लेते। वे तो पत्थर इकट्ठे कर दुर्ग बनाते थे। उसमें प्रवेश के मार्ग, मुख्य द्वार, फाटक, खाई, दुर्गरक्षकों के शिविर, ध्वजरक्षकों की गुमटियां, सैनिकों के प्रकोष्ठ, हाथियों की शालाएं, अश्वशालाएं, भण्डार, खाद्य-सामग्री, वस्त्रागार, धनुष बाण, अस्त्र-शस्त्रागार, आयुध निर्माण कक्ष, तन्त्र -मन्त्र पीठ, पूजागृह, अभ्यासशाला, ग्रन्थाकार, कोषागार, आभूषण और रत्न भण्डारगृह और न जाने क्या-क्या निर्माण करते। बच्चे इनके खेल देखने के लिए पुनः वहाँ इकठ्ठा हो जाते। उनसे ये छोटे-छोटे जलपात्रों में सरस्वती नदी से जल मंगवाते और दुर्ग की खाई में डलवाते। जलभर कर कहते, चलो दुर्ग तैयार हो गया परन्तु इसका राजा अन्यायी हो गया है, असहाय प्रजा पर अत्याचार कर रहा है, इसे धर्म का पाठ पढ़ाना है, सबको छोटे-छोटे धनुष-बाण बनाकर देते और समझाते, देखो वह खम्भा लक्ष्य है, उस पर निशाना साधकर बाँण मारो और किले को ध्वस्त कर डालो। 



दुष्ट पापी राजा को बाँधकर, पावन सरस्वती में स्नान कराके फिर धर्म में दीक्षित करेंगे। इस प्रकार सर्वथा असामान्य राजोचित बल विक्रम के खेले खेलते। अनेक बार नदी के ऊपर पहाड़ों में चढ़ जाते कुछ बच्चे तो भय के मारे बीच में से ही छिपकर भाग जाते। ये पर्वत और वनों में भ्रमण करते, इस अभियान में कभी-कभी हिंसक पशु भी मिलते परन्तु राम को भय तो किसी से लगता ही न था वे अपने लघु धनुष पर बाण चढ़ाकर उससे प्रहार करते और उसे भगाकर ही छोड़ते। बाघ के बच्चों को पकड़ लेते थे, उनकी मूँछ पकड़कर खींचते और मुँह पर हाथ फेरते फिर उनको उठा उठाकर दूर फेंक देते, यदि कोई बाघ आंखें निकालता, गुर्राता या पँजों से प्रहार करता, तो उसे रोक लेते, बच्चों को साथ मिलकर उसे बांधते घसीटते और पीटते, इसी प्रकार घूमते-घूमते कभी वनवासी लोगों के निकट पहुँच जाते और उनके साथ घूम फिर कर लक्ष्य साधन का अभ्यास करते आँखों में पट्टी बाँधकर लक्ष्य भेदन करते इस प्रक्रिया में आँखों में पट्टी बँधी रहती और लक्ष्य में किसी डण्डे से शब्द किया जाता और ये शब्द के अनुसार बाण साधन करके उस लक्ष्य को भेद देते और इसी साधन क्रम में मन में संकल्प शक्ति द्वारा •लक्ष्य भेद देते और इसी साधन क्रम में मन में संकल्प शक्ति द्वारा लक्ष्य भेद का अभ्यास करते इस प्रक्रिया में वनवासी बालक एक लक्ष्य स्थापित कर देते और आंखों में पट्टी बाँध देते लक्ष्य पर शब्द करके उसे उक्त स्थान से हटा देते और उनको उस पर बाण छोड़ने को कहते ये मन में संकल्प द्वारा उस लक्ष्य पर बाण संधान करते और तत्काल उसे काट कर गिरा देते वनवासियों के साथ इनकी प्रतियोगिता होती तो ये ही विजयी रहते थे। 



इनकी अलौकिक बाण शक्ति को देखकर सभी दांतों से उँगली दबाते थे इतनी शक्ति होते हुए भी ये किसी निरपराध असहाय एवं निर्बल को नहीं सताते थे, असहायों की सहायता करते थे और सूर्यास्त से पूर्व आश्रम में अवश्य ही लौट आते। प्रातःकाल निवृत होने के अनन्तर दूध पीकर गो-सेवकों के साथ जंगल में निकल जाते और गायों के साथ-साथ उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए हाँकते और उनकी पीठ पर हाथ फेरने की चेष्टा करते। इनका हाथ गायों की पीठ तक न पहुँचता था इसलिए उनके मुख-सींग-पूँछ आदि को ही छूकर देखते, गले से लिपट जाते और प्रसन्न होते बछिया-बछड़ों को दौड़ाते फिरते, उनकी पीठ पर हाथ फेरते तथा साथ-साथ चलते रहते। जहाँ अधिक कोमल हरी घास अथवा वनस्पतियाँ दिखाई देती, वहाँ उन्हें चराने ले जाते। यदि कभी किसी हिंसक पशु ने किसी गाय अथवा बछिया-बछड़े पर आक्रमण कर देते तो ये क्रोध में भरकर पकड़ लेते और इतना तंग करते कि वह दुबारा इस प्रकार का दुस्साहस न कर सके यों तो ये गायें भी अपनी रक्षा करने में समर्थ थीं, परन्तु बालक राम अपने स्वभाववश ऐसा उद्योग अवश्य करते थे। खेल-खेल में ही बच्चों को एकत्र कर सरोवर में चले जाते और पूजा के लिए एक हजार पुष्प ले आते और ऋषि लोग आनन्द से भगवान् आशुतोष का सहस्र कमल से सामूहिक अभिषेक करते। वन से, यज्ञ के लिए समिधा एकत्रित करके ले आते। आम के अशोक के तथा अन्य पवित्र पल्लव वाले वृक्षों से पत्ते तोड़ लाते, गूँज की डोरी में बाँधकर उनके बन्दनवार बनाते और यज्ञशाला, गौशाला, पाठशाला के द्वारों पर बाँधकर उनकी सजावट बढ़ा देते। मुख्य द्वार पर केले के खम्भों से सजावट करके ऊपर भगवा पताका फहराते थे।



उपनयन संस्कार बालक राम के सात वर्ष पूर्ण कर आठवें में प्रवेश करते ही महर्षि जमदग्नि ने इनका उपनयन संस्कार कराने के. लिए मुहूर्त देखा और बसन्त ऋतु में इसका आयोजन किया। स्वयं जमदग्नि जी ही इसके आचार्य थे। शास्त्रों के अनुसार पिता को ही पुत्र का उपनयन संस्कार करना चाहिए। यदि पिता जीवित नहीं है, अथवा आचार्यत्व वहन करने की शक्ति नहीं रखते तो बच्चे के पितामह यह कार्य करा सकते हैं। उपनयन के पहले, पूरे आश्रम में सजावट की गयी। ब्राह्मणों, ब्रह्मचारी -विद्यार्थियों द्वारा गायत्री जप कराया गया। गणेश-पूजन कलश स्थापन और नन्दी श्राद्धादि कर्म कराये गये। उपनयन संस्कार के दिन बालक राम का क्षौर कराया गया। सरस्वत में स्नान कराया, फिर सब विद्यार्थी उन्हें अपने साथ लेकर आश्रम में आये, चारों बड़े भाई भी हर्ष में डूबे हुए मंगलकार्यों में सहयोग कर रहे थे। कुछ विद्यार्थी और भी थे जिनका उपनयन संस्कार इसी दिन होना था, वे भी क्षौर कराके स्नान आदि करके आश्रम में पहुंच गये। 



आश्रम के सभी कक्षों को गोबर से लीप कर पहले ही तैयार कर लिया गया था। बंदनवार, पताकाएं आदि लगाये गये थे। गायों को गेरू आदि से रंगकर उनके सींगों में मोरपंख बांधे गये थे। उनका विधिवत पूजन किया गया था। वेद मन्त्रों के साथ सभी उपनयनार्थियों को तत् तत् आचार्यों के दक्षिण भाग में आसनों पर बिठाया गया। उनके लिए निर्धारित दण्ड, मृगचर्म तथा कौपीन लाये गये। गूँज की मेखला को परम्परानुसार गाँठें लगाकर राम की कमर में तीन बार लपेट कर बाँध दिया गया। इसके बाद विहित कृत्य करके मन्त्रानुष्ठान पूर्वक यज्ञोपवीत के नौ तारों में नौ देवताओं का विन्यास करके मन्त्रोच्चारण करके बालक को पहना दिया गया। आचार्य ने अपने हाथ से ढाक का दण्ड दिया। यज्ञोपवीत संस्कार के विधान में अनेक विस्तृत कार्यक्रम बताये गये हैं। यहाँ उनका विवेचन करना अभीष्ट नहीं है। जिज्ञासुओं को षोडश संस्कार सम्बन्धी ग्रन्थों में देखना चाहिए। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का बहुत महत्व है। धर्मसम्राट पूज्यपाद अनन्त श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज का संस्कारों के विषय में कथन है, "गर्भ को पवित्र करने वाले होम, जातकर्म, चूड़ाकर्म, मौन्जी, बन्धन आदि संस्कारों से द्विजों के बैजिक और गार्भिक दोष नष्ट हो जाते हैं। स्वाध्याय, व्रत होम, वेदयत्री का अध्ययन एवं तदनुकूल कर्म, देव ऋषि, पितृ तर्पण, प्रजोत्पादन, पञ्चमहायज्ञ तथा ज्योतिष्टोमादि यज्ञों के द्वारा शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। इन वचनों से सिद्ध होता है, कि जिन कर्मों से दोषों का दूरीकरण और गुणों का आधान हो, वहीं संस्कार या संस्कृति है। “संस्कारो-संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोषापयनने वा"


 इस दृष्टि से भी देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, अन्तरात्मा को निर्दोष बनाकर भूषित अलंकृत एवं गुणवान बनाना संस्कार है। प्रकृतिबद्ध आत्मा को निम्न स्तरों से उठा कर मुक्त, अनन्त चिदात्मवाद पर प्रतिष्ठित करना संस्कृति है। उपनयन का अर्थ है निकट ले जाना अर्थात् आचार्य गुरु के पास विद्याध्ययन के लिए ले जाना। बिना यज्ञोपवीत के वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है, इसलिए उपनयन की आवश्यकता होती है। यज्ञोपवीत का अर्थ यज्ञ में अधिकार देने वाला उपवीत । यज्ञोपवीत पहन कर वेदाध्ययन एवं वेदव्रत आदि के अनुष्ठान द्वारा मानव देवत्व प्राप्त करता है और ब्रह्मसाक्षात् भी।


 यज्ञोपवीत का महत्व


 यज्ञोपवीत बनाने में हाथ की चारों उँगलियों के ऊपर कच्चे सूत को 96 बार लपेटते हैं। फिर उसे उतार कर त्रिगुणात्मक किया जाता है। इसके पश्चात ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के हिसाब से तीन ग्रन्थि लगायी जाती है। इसके अनन्तर ब्रह्मग्रन्थि लगायी जाती है। इसका अर्थ है ब्रह्मा अथवा वेद मर्यादा। इसके बाद अपने-अपने प्रवर के हिसाब से तीन या पाँच गाँठें लगायी जाती हैं। छियानवे तार क्यों लिये जाते हैं? पूरे सौ का नियम बना देते तो ठीक था । इसका रहस्य भी जान लेना चाहिए। वेद में एक लाख मन्त्र हैं। इनमें अस्सी हजार ऋचाएँ केवल कर्मकाण्ड की हैं। सोलह हजार उपासना-काण्ड की हैं और चार हजार मात्र ज्ञानकाण्ड की हैं। कर्मकाण्ड से तात्पर्य, पूजा-पाठ अनुष्ठान एंव यज्ञ आदि कर्म करने से। उपासना में जप-ध्यान आदि आते हैं, इनसे चित्त की चंचलता शान्त होती है। ज्ञान काण्ड का अर्थ विद्या-अविद्या का ज्ञान करना फिर मोक्ष प्राप्ति। विद्वानों का मत है कि ज्ञान एवं कर्म के विषय में दो वाक्य उद्धृत करना उपयोगी सिद्ध होगा। वे कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञान द्वारा अज्ञान निवृति होते हुए भी ज्ञान साधन में रुचिजनक होने से परम्परागत कर्म भी ज्ञान साधन भाव को प्राप्त होते हैं और संसार में रहते हुए सामान्य जीवन बिताने के लिए एवं आत्मकल्याण के लिए गृहस्थाश्रम में कर्मकाण्ड एवं उपासना-काण्ड की ही आवश्यकता पड़ती है। ज्ञानकाण्ड की चार हजार ऋचाएं तो केवल सन्यासियों और उपासना काण्ड के सोलह हजार मिलाकर छियानवे हजार मंत्र हुए, उन्हीं को सूत्रात्मक जनेऊ छियानवे तार का बनाया जाता है। इन छियानबे को पहले तिगुना करके फिर तिगुना किया जाता है, इस प्रकार नवगुणा करने का भी रहस्य है। नौ तन्तुओं में नौ गुणों एवं नौ देवताओं का अधिष्ठान है। श्रीरामचरित मानस में श्री परशुराम के प्रति श्रीराम जी का वचन-“देव एक गुन धनुष हमारे, नवगुन परम पुनीत तुम्हारे" भी इसी ओर संकेत करता है। बाघ से भिड़न्त एक दिन विचित्र घटना घटी। माँ ने देखा, राम दूध पीकर फिर कहीं चला गया। भोजन के समय नहीं आया।


सभी शिष्य आश्रम में हैं परन्तु उनका पता नहीं, माता रेणुका को चिंता हो गयी । बालकों से कहा, देखो कहीं छिप तो नहीं रहा, गायों के आस पास जाकर ढूंढो, कुटिया के कोनों में हो, यज्ञशाला में, भण्डार में, पाठशाला में जाकर देखो। कहीं सो तो नहीं रहा। बालकों ने पूरा आश्रम छान मारा परन्तु राम वहाँ न मिला। अब सबको चिन्ता हो गयी। महर्षि जमदग्नि ने आदेश दिया, शंख बजाओ। अकस्मात बिना किसी पूजा, पाठ, आरती एवं नित्य निश्चित समय के अतिरिक्त शंख बजाने का अर्थ था सबको सावधान एवं एकत्र होकर सूचना आदेश सुनाना ऋषि ने सबके उपस्थित हो जाने पर आदेश दिया, एक एक अध्यापक चार चार शिष्यों को साथ लेकर जंगल में चारों ओर प्रस्थान करें। वन में एक-एक वृक्ष को देखें, एक एक शाखा को देखें। कांटे को हटा कर देखें। सरस्वती के तट पर जाओ। अन्य सरोवरों, झरनों में देखो। कंदराओं गुफाओं में ढूंढो पूरा क्षेत्र ढूंढ मारो, जहां भी हो निकाल के लाओ। तन्त्र-मन्त्र आरम्भ किये गये। प्रश्न यह था कि राम किसी से डरता तो है नहीं। ऋषि ने कुण्डली देखकर गणित लगाया। फल बताया कि शीघ्र ही वह जंगल में मिल जाएगा। उधर जंगल में जो लोग ढूंढ रहे थे। उन्हें बाघ की हल्की दबी आवाज सुनाई दी। उधर जाकर देखा तो राम एक बाघ को दबाये हुए पड़ा था। बाघ के मुंह से रक्त की धार बह रही थी और घायल भी था। राम पर बाघ ने आक्रमण किया था और राम ने बाघ के मुंह में हाथ डालकर उसकी जीभ पकड़ कर खींच ली थी। जल्दी से इन लोगों ने राम को


पकड़ा और कहा, इसकी जीभ को छोड़ दो। बाघ तो मरने वाला हो रहा है। सिसकियां भर रहा है राम के शरीर पर जड़ी बूटियों का रस निचोड़ा और उसका रक्त बहना बंद हुआ। आश्रम में ले आये। बाघ दम तोड़ चुका था। माता रेणुका ने राम को देखा तो रो पड़ी। सबने घटना सुनायी और बताया कि राम ने बाघ से कुश्ती की और उसे मार डाला है। राम ने -पिता के चरण स्पर्श किये और कहा बाघ ने ही माता- आक्रमण किया था। मेरे पा तो उस समय धनुष भी नहीं था। मैंने उसे पटक कर उसके जबाड़े में हाथ डाला तो उसके दांतों से और पंजों से मेरे खून निकला हैं चोट कुछ नहीं है। माँ ने राम के ऊपर राई नमक उतारा (नजर उतारने के लिए और प्रसाद बाँटा)।


 

 भगवान शिव द्वारा परशुराम को उपदेश-शिक्षा


 नृतावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम् ।


उद्धर्तुकामा सनाकादिसिद्धान एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥ पिण्डं कुण्डलिनं शक्तिः पदं हंसः प्रकीर्तितः । रूपं बिन्दुरिति ख्यातं रूपातीतस्तु चिन्मयः ॥ अर्थात्- भगवान शिव परशुराम को उपदेश देते हुए कहते हैं कि कुण्डलिनी, हंस बिन्दु और चित्तिशक्ति सब एक ही शक्ति के रूप में है। पिण्डरूपा कुण्डलिनी, त्राण पद स्वरूपा हंस, रूपात्मिका बिन्दु और रूपातीता चित्ति-शक्ति है। प्रसुप्त कुण्डलिनी का स्थान आधार चक्र के नीचे और जागृत कुण्डलिनी का स्थान स्वाधिष्ठान में है। हंसरूपा हृदय चक्र में रहती है। बिन्दु के विषय में अन्यत्र लिखा जाता है और चित्तिशक्ति का स्थान सहस्रार है। विशुद्ध चक्र में शक्ति का विशुद्ध स्वरूप रहता है। यद्यपि जागने के पश्चात इन केन्द्रों पर शक्ति सदा रहती है। परन्तु उनके विकास की तारतम्यता में अन्तर होता रहता है।


 ग्रन्थित्रयय और अध्यास


ऊपर कहा जा चुका है कि ग्रन्थियाँ तीन है। ब्रह्मग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि । ग्रन्थि गांठ को कहते हैं। दो भिन्न वस्तुओं को जोड़ने या बाँधने के लिए गांठ से काम लिया जाता है और प्राय: एक ही वस्तु में विकार आने पर उलझनों की ग्रन्थियाँ भी पड़ जाया करती हैं। जैसे केशों अथवा धागों में। अध्यात्म ग्रन्थि के स्वरूप का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन शब्दों में किया है- जड़ चेतनहिं ग्रन्थि पीर गई, जदपि मृषा छूटत कठिनाई ।


 अर्थात् जड़ प्रकृति और चेतन आत्मा की गांठ पड़ गई है यद्यपि वह झूठी है तो भी बड़ी कठिनाई से खोली जा सकती है। आत्मा शुद्ध चेतन स्वरूप निर्विकारी से खोली जा सकती है। आत्मा शुद्ध चेतन स्वरूप निर्विकारी है और देह, इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि का संघात प्रकृति के विकार है। दोनों में गठबंधन होना असम्भव है, परन्तु दोनों का भिन्न-भिन्न स्तरों पर ऐसा तादात्म्य दिखता है कि उनके पृथक होने का ज्ञान अति दुर्लभ हो रहा है जैसे देह के अभिमान से आत्मा अपने को देह के धर्म वाला समझता है। दार्शनिक परिभाषा में इस मिथ्या प्रतीति को अध्यास, विपर्यय ज्ञान अथवा ख्याति कहते हैं। श्रीमत् शंकर भगवत्पाद ने अध्यास शब्द को इस प्रकार समझाया है- आत्मा अहं अथवा अस्मत् पद है और प्रकृति युष्मत पद है। पहला विषयी और दूसरा विषय है। दोनों प्रकाश और तमवत् विरुद्ध स्वभाव वाले हैं परन्तु दोनों एक दूसरे के भाव को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् चिदात्मक विषयी आत्मा के युष्मत प्रत्यय की प्रतीति, गोचर विषय, उस युष्मत् के धर्मों का भाव और इसके विपरीत विषय और विषय के धर्मों में विषयी और उसके धर्मों का आभास दिखने लगता है। इस इतरेतर अध्यारोपण के मिथ्या ज्ञान को अध्यास कहते हैं। अध्यास स्मृतिरूप होता है और पूर्वदृष्ट अर्थात् पहले हुए किसी पदार्थ के अन्यत्र अवभास द्वारा उत्पन्न हुआ करता है। पूर्व मीमांसा वाले इसे अख्याति, असत् ख्याति, बौद्ध लोग आत्म ख्याति, सांख्यवाद सरसत ख्याति और वेदान्तवादी इसे अनिवर्चनीय ख्याति कहते हैं। 



परन्तु इस सिद्धान्त में सब एक मत हैं कि यह एक वस्तु का अन्यत्र मिथ्या अवभास मात्र है। उक्त मिथ्या अवभास की निवृत्ति और आत्म-तत्त्व के शुद्ध चेतन ब्रह्मस्वरूप के ज्ञान को कहते हैं। आत्मा में देहाध्यास अथवा देह में आत्मा ध्यास की निवृत्ति करना ही जड़ चेतन ग्रन्थि का छुडाना है जिसका सुन्दर निरूपण श्री गोस्वामी जी ने ज्ञान दीपक में किया है। अध्यात्मध्यास प्रकृति के तीन गुणों के योग से तीन स्तरों पर प्रतीत होता है। सत्वगुण के योग से उत्पन्न हुए अध्यास को विष्णु-ग्रन्थि रजोगुण के योग से उत्पन्न अध्यास को ब्रह्मग्रन्थि और अन्त:करण के योग से उत्पन्न अध्यास को ब्रह्मग्रन्थि और तमोगुण के योग से उत्पन्न अध्यास को रुद्रग्रन्थि कहते हैं। इस तरह स्थूल देहाध्यास को रुद्रग्रन्थि, इन्द्रिय जनित अध्यास को ब्रह्म ग्रन्थि और अन्तःकरण के योग से उत्पन्न अध्यास को विष्णु ग्रन्थि कहते हैं। रुद्रग्रन्थि का स्थान मूलाधार में, विष्णु ग्रन्थि का स्थान हृदय में और ब्रह्म ग्रन्थि का स्थान आज्ञा चक्र में बताया जाता है। परन्तु ललिता सहस्रनाम में ग्रन्थित्रय के स्थानों का वर्णन इस प्रकार है।


मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी। 

मणिपूरान्तकरुदिता विष्णु ग्रन्थि विभेदिनी ॥ 

आज्ञा चक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि विभेदिनी ।

 सहस्राम्बुजारूढ़ा सुधासाराभिवर्षिणी॥


भूत-जय होने पर रुद्रग्रन्थि, इन्द्रियजय होने पर ब्रह्मग्रन्थि और मनोजय होने पर विष्णु ग्रन्थि का भेद जानना चाहिए। भूत जय होने पर मधु प्रतीका भूमिका का इनसे पूर्व कुण्डलिनी जागरणोपरान्त रज-तमोभिमत सत्वगुण की भूमिका का नाम प्रारम्भ कल्पिका है और ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय होने पर शुद्ध सत्वगुण प्रधान भूमिका का नाम मधुमति भूमिका है। (देखें योगदर्शन, विभूतिपाद सूत्र 51 पर व्यास भाष्य ) । बिन्दु पंचाग्नि विद्या और ब्रह्मचर्य


संवर्ताग्नि प्रलयाग्नि को कहते हैं। उसे पाताल स्थित कालाग्नि भी कहते हैं। शंकर भगवतप्राद ने निम्न चक्रों में स्थित अग्नि को जो लयाभिमुख होकर सब तत्त्वों को अपने-अपने कारण में लीन करता है, संवर्ताग्नि कहा है। क्योंकि तीन ही अग्नियों का यहाँ वर्णन है अर्थात् स्वाधिष्ठानस्थ संवर्त अग्नि मणि पूरस्थ विद्युताग्नि और हृदय में सूर्य अग्नि वास्तव में 5 अग्नि जानने चाहिए इस विषय पर पांच ही अग्नियों का ध्यान बताया गया है, वह इस प्रकार है:-


 स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्ममणोवपुः ।

स्थूलं शुक्रात्मकं बिन्दुः सूक्ष्मं पंचाग्निरूपकम्। 

शोभात्मकः परः प्रोक्तः सदा साक्षी सदाच्युतः ।


 (योगशिखापनिषद, 5, 28) अर्थात् ब्रह्म का शरीर त्रिविध है, स्थूल, सूक्ष्म और पर। शुक्र (वीर्य) स्थूल रूप है पंचाग्नि सूक्ष्म रूप है और सोम रूप है। जो अच्युत सदा साक्षी है। स्थूल बिन्दु से पंचाग्नि प्रथम ग्रन्थि है पंचाग्नि से पर बिन्दु का सम्बन्ध दूसरी ग्रन्थि है और पर बिन्दु से आत्मा का सम्बन्ध तीसरी ग्रन्थि है। आगे पंचाग्नियों का वर्णन करते हैं।




पातालनामधोभागे कालग्निर्यः प्रतिष्ठतः॥ स मूलाग्निः शरीरेऽग्निर्यस्मान्नादः। प्रजायते वड्वग्नि शरीरस्थो स्वाधिष्ठाने प्रवर्तते। काष्ट पाषाणायोर्वहनिहर्यस्थिमध्ये प्रवर्तते। काष्ठ पाषाणजो वहिनः पार्थिवो ग्रहणंगतः ॥ अन्तरिक्षगतो बहिर्वेद्युतः स्वान्तरात्मकः । नभस्थ सूर्यरूपाऽग्निभिमण्डलमाश्रितः॥ विषं वर्षति सूर्याऽसोसन्वत्यभूतमुन्मुखः । तालूमूले स्थितश्चन्द्रः सुधा वर्षत्यधोमुखः ॥ भूमध्यो निलयो बिन्दुः शुद्धस्फटिक सन्निभः । महाविष्णोश्च देवस्य तत्सूक्ष्मं रूपमुच्यते ॥ एतत्पश्चाग्निरूपं यो भावयेदबुद्धिमानधियः ॥ तेन भुक्तं च पीतं च हुतमेव न संशयः ।।


(योगशिखोपनिषद, 5.29-35) अर्थ- पातालों के अधोभाग में जो कालाग्नि रहता है, वह शरीर में मूलाधार का अग्नि है जिससे नाद उत्पन्न होता है। स्वाधिष्ठान में वड़वाग्नि रहता है। काष्ठ-पाषण का जो अग्नि है, वह अस्थियों में रहता है, उसे पार्थिव-अग्नि कहते हैं। अन्तरिक्ष अर्थात् मणिपुर में जाकर वही स्वरान्तरात्मा स्वरूप विद्युतअग्नि है। आकाशस्थ अग्नि सूर्य है, वह नाभि मण्डल में आश्रित है। यह सूर्य विष की वर्षा करता रहता है। परन्तु उन्मुख होकर अमृत का स्राव करता है। बिन्दु मध्य में लीन होकर शुद्ध स्फटिक-सदृश हो जाता है जो महाविष्णु देव का सूक्ष्म रूप कहलाता है। इस प्रकार पंचाग्नि का जो बुद्धिमान ध्यान करता है, उसका ध्यान किया हुआ आहुति के तुल्य है इसमें संदेह नहीं है छान्दोग्य उपनिषद् पाँचवे अध्याय के खण्ड से नवम खण्ड तक जिस पंचाग्नि विद्या का वर्णन मिलता है उसी का यहां लयक्रम बताया गया है। 



छान्दोग्य-कथित पंचाग्नि विद्या की गाथा इस प्रकार है। आरुणि के पुत्र श्वेत केतु से पांचाल देश के राजा प्रवाहण जैबालि के पांच प्रश्न किये, वह एक का भी उत्तर न दे सका। उसने जाकर अपने पिता से पूछा, परन्तु वह भी नहीं जानता था। इसलिए अरूणि अपने पुत्र को साथ लेकर राजा के पास गया और उसने उन प्रश्नों का उत्तर जानने की जिज्ञासा की। राजा ने कहा कि यह पंचाग्नि विद्या कहलाती है। वे प्रश्न इस प्रकार है:- क्या तुम जानते हो कि सब जीव मर कर यहां से कहा जाते हैं? क्या तुम जानते हो कि वे फिर लौट कर आते हैं? क्या पितृयान और देवयान दोनों मार्गों को जानते हो कि यह लोक कभी क्यों नहीं भरता अर्थात् इस आवागमन का चक्र कभी बन्द क्यों नहीं होता और क्या यह भी जानते हो कि पांचवीं आहुति में जल से यह देह कैसे बनता है? इन प्रश्नों को पूछने से राजा का अभिप्राय स्पष्ट है कि जो मनुष्य प्रसवक्रम को जानता है। वही आगमन से छूटने के लिए, देवयान मार्ग का द्वार खोलते समय इसके प्रतिकार-स्वरूप प्रतिप्रसवक्रम को भी जानने का यत्न करेगा, नहीं तो आवागमन का चक्र कभी बंद नहीं होगा। राजा ने जो प्रसवक्रम बताया वह इस प्रकार है


1. द्युलोक प्रथम अग्नि है जिसमें सूर्य रूपी ईंधन जल रहा है उसमें देवता श्रद्धा की आहुति देते हैं और उससे सोम उत्पन्न होता है।


 2. पर्जन्य दूसरी अग्नि है। उसमें सोम की आहुति दी जाती है और वर्षा उत्पन्न होती है।


 3. पृथ्वी तीसरी अग्नि है। उसमें वर्षा की आहुति दी जाती है और अन्न उत्पन्न होता है।


 4. मनुष्य की देह चौथी अग्नि उसमें अन्न की आहुति दी


 जाती है और शुक्र उत्पन्न होता है।


 5. स्त्री का गर्भ पांचवी अग्नि है। उसमें शुक्र की आहुति दी जाती है और बालक का देह उत्पन्न होता है।


 जो मनुष्य के क्रम को उलटना चाहते हैं उनको ब्रह्मचर्य अर्थात् ऊर्ध्वरेता रहने का व्रत धारण करके तप करना चाहिए। तब देवयान का मार्ग खुलता है। बहिर्मुख शुक्र सन्तानोत्पादक होने से सृष्टिक्रमाभिमुख रहता है। परन्तु ऊर्ध्व होकर अभ्यन्तर पंचाग्नियों द्वारा उत्तरोत्तर सूक्ष्म होकर भ्रूमध्य में सोमात्मक परमबिन्दु के रूप में लौट जाता है। मूलाधार से शक्ति का उत्थान होना प्रथम आभ्यन्तर अग्नि है, जिसके योग से शुक्र की ऊर्ध्व गति होती है। फिर वह स्वाधिष्ठान की अग्नि से सूक्ष्म होकर सब अस्थियों में पृथ्वी तत्त्व का भेदन करता है और माँस एवं रुधिर में भी जल का भेदन करके मणिपुर चक्र में अधिक सूक्ष्म विद्युत रूप होकर, सूर्य को उन्मुख करता हुआ चन्द्रमण्डल में पहुँचकर सोम में परिणत हो जाता है । प्रसव-क्रम में. सोम ही शुक्र के रूप में परिणत हुआ था। प्रतिप्रसव-क्रम में वह फिर अपने पूर्व रूप में आ जाता है। श्रद्धा के सकाम होने से सोम प्रसवाभिमुख होता है और उसी श्रद्धा के निष्काम होने पर वह अपने कारण हिरण्यगर्भ रूपी समष्टि प्राण में लीन हो जाता है। समष्टि प्राण स्वयं ब्रह्म की किरण ही है। कहा है- स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुज्योतिरायः पृथ्वी इत्यादि


 अर्थः- उसने प्राण की सृष्टि की, प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी इत्यादि हुए। उक्त प्रतिप्रसवक्रम षट्चक्र भेदन का विषय है। पृथ्वी के गर्भरूपी पातालों में जो अग्नि है। वह अग्नि का एक रूप है। दूसरा रूप भूतल पर काष्ठ-पाषाणादि में है। जल में रहने वाला तीसरा रूप है। विद्युत अग्नि का चौथा रूप है और सूर्य में अग्नि का पांचवा रूप है। उष्णता, प्रकाश और प्राण शक्ति तीनों का सूर्य के ताप में युगपद समावेश रहता है। चन्द्रमा सूर्य के ताप की शक्ति स्वयं पी लेता है और शीतल प्रकाश एवं सोम के रूप में प्राण शक्ति को अपनी चन्द्रिका के साथ पृथ्वी पर भेजा करता है। प्राण ही जीवन शक्ति है जिसको चेतन शक्ति भी कहते है।। प्राणमय कोष की प्राण-अपनादि प्रवृत्तियाँ चेतन शक्ति की स्थूल क्रियाएँ हैं। चित्ति स्वरूप प्राण को उपरोक्त श्रुति में ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला सोम कहा गया है। अग्नि के उपरोक्त पाँचो रूप आधिभौतिक स्तर बताये गये हैं। वे परस्पर में सम्बन्धित हैं। अग्नि के ही रूपान्तर हैं तथा उनका चन्द्रमा से भी सम्बन्ध हैं अब इसका अध्यात्म रूप समझाते हैं। जैसे पृथिवी के गर्भ में सात पाताल माने जाते हैं। वैसे ही देह के अधोभाग में चरणों का तलभाग, ऊपर का भाग गुल्फ,


जंघा, जानु, उरू और नितम्ब-सात पाताल समझे जाते हैं। इनमें फैली हुई नाड़ियां मणिपुर चक्र से निकलती हैं। इनके द्वारा जो अग्नि इन अंगों को तप्त रखता है। वह पातालग्नि हैं, उसका स्थान मूलाधार तक है वही अग्नि ऊपर के भाग में हड्डियों में व्याप्त है जिसे पार्थिव अग्नि कहा गया है, अस्थि, मज्जा और शुक्र में भी यही अग्नि कार्य करती है। शुक्र में भी दो शक्तियाँ कार्य करती हैं। मज्जा से बनने के कारण उसमें एक प्रजनन शक्ति वाला भाग है, दूसरा प्राण शक्ति वाला भाग है, प्रजनन के लिए प्राण शक्ति आवश्यक नहीं होती, इसलिए प्रश्नोपनिषद् में कहा है कि राशि में रति-क्रिया में रमण करने वालों की प्राण शक्ति का ह्रास नहीं होता और वे ब्रह्मचारी के ही तुल्य हैं। परन्तु दिन में रमण करने वालों के प्राण भी नष्ट होते हैं, इसलिए दिन में रतिक्रिया का निषेध है।


 प्राणं वा एते प्रस्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते । ब्रह्मचर्यमेव


 तद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते ॥


(प्रश्नोपनिषद् 1.13) प्रजनन द्रव्य में सात धातुओं का बीज है। यह भाग ऊर्ध्व होकर अन्नमय कोष को पुष्ट करेगा और दूसरा प्राण वाला भाग प्राणमय को पुष्ट करेगा। इस स्तर पर दोनों का पृथक्करण होने से अन्नमय कोष से प्राणमय कोष का पृथक्करण होगा। शुक्र में दोनों कोषों की बीज रूप से ग्रन्थि रहती है। जिसके टूटने से दोनों कोषों की बीज रूप से ग्रन्थि रहती है। जिसके टूटने से दोनों कोषों की गाँठ खुल जायेगी। इसलिए काम-वासना की वृद्धि से यह ग्रन्थ दृढ़ होती है और ब्रह्मचर्य अर्थात् ऊर्ध्वरेखा होने से शिथिल होती है। प्रजनन शक्ति वाले द्रव्य से प्राण शक्ति का पृथक्करण होने से वह विद्युताग्नि, सूर्याग्नि क्रम से सोम में परिणत हो जायेगी। प्राण का सोम से पृथक्करण दूसरी ग्रन्थि का और सोम का आत्मतत्व में लयकरण तीसरी ग्रन्थि का भेद्य है। 


दूसरा प्रजनन शक्तियुक्त द्रव्य जो रुधिर और अण्डकोषों के योग से बनता है। वह भी प्राण-शक्तियुक्त होता है, परन्तु वहाँ दोनों का वीर्य में एकीकरण रहता है। स्वाधिष्ठान में जल और अग्नि का सन्धि-स्थान है इसलिए जलस्थ अग्नि को वडवाग्नि नाम दिया गया है। समुद्र में रहने वाले अग्नि को वडवानल कहते हैं। मणिपुर में सौदामिनी स्वरूपा विद्युत अग्नि है जिनको अन्न पचाने वाला वैश्वानर अग्नि भी कहते हैं। उसी को समान वायु भी कहते हैं और उसे ही स्वान्तरात्मा कहा गया है। जब कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। तब इसे मूलाग्नि का प्रज्ज्वल समझना चाहिए जिसकी क्रिया नीचे पैरों में, ऊपर हड्डियों में और साथ ही जल में भी होती है। अर्थात् मांस, रुधिर, मेद-स्नायु, अस्थि, मज्जा, शुक्र सातों धातुएँ सन्तप्त हो जाती हैं। इनके क्षुब्ध अथवा मन्थन होने से शुक्र की आहूति मूलाधार में पड़ती है। वह बहिर्मुख होकर जब स्त्री के गर्भाश्य में पोषण पाता है, तो एक नये शरीर की रचना करता है, परन्तु अन्तर्मुखी करके उसकी मूलाग्नि में आहुति दी जाती है तो वह ऊर्ध्वमुख होकर सूक्ष्म स्तरों पर चढ़ने लगता है। जिसको ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म के चरणों का स्पर्श करके जो भृकुटी के ऊपर ब्रह्म सहस्रार मेढ़ में रहता है। उन सूक्ष्म स्तरों पर चढ़ने की क्रिया को अन्तः पंचाग्नि योग कहते हैं। 


छान्दोग्य उपनिषद में प्राकृतिक ब्रह्म पंचाग्नि योग का वर्णन है। योगशिखोपनिषद् में लयाभिमुख अन्तर्योग का वर्णन है। इस सम्बन्ध में यह बात भी जानने योग्य है कि विशुद्ध चक्र की डाकिनी शक्ति का सम्बन्ध त्वचा से, अनाहत की शाकिनी शक्ति का रुधिर से मणिपुर की लाकिनी शक्ति का माँस से, स्वाधिष्ठान की काकिनी शक्ति का वेद से, मूलाधार की साकिनी शक्ति का, अस्थि से, आज्ञा की हाकिनी शक्ति का मज्जा से और सहस्रार की याकिनी शक्ति का सम्बन्ध शुक्र से है। वहाँ इनके प्रिय अन्न भी बताये गये हैं जो क्रमशः दुग्धोदन, धूतोदन, गुडोदन, दध्योदन, मुग्दोदन और हरिद्रोदन है (यह योगियों की अनुभव की हुई क्रियाएँ हैं।) जिसका वर्णन यह है। सूर्य का ताप वायुमण्डल के भूमि के निकटस्थ निम्न स्तरों को ही सन्तप्त कर सकता है। ऊपर के पर्वत शिखरों के स्तर को नहीं तपा सकता। इसका कारण यह है कि निम्न स्तरों की वायु, भूमि अथवा समुद्र के जल की उष्णता से तप्त होकर उष्णता चली जाती है। परन्तु ऊपर के स्तरों की तरल वायु उतनी तप्त नहीं हो सकती, इस प्रकार जब अधोमुख होता है तो देह की सब धातुओं को सन्तप्त कर देता है और उसको विष बरसाने वाले वाला कहा जाता है। परन्तु जब वह उर्ध्व मुख होता है। तब सुषुम्ना पथ के सूक्ष्म स्तरों पर चमकने लगता है और उस देह को सन्तप्त करने वाली शक्ति उर्ध्वगामिनी हो जाती है। जिससे ऊपर के भूमध्यस्थ चन्द्र मण्डल पर प्रकाश पड़ने लगता है उस प्रकाश को सोम कहते  हैं और चन्द्रमा का नाम भी सोम है और मध्य के विशुद्ध चक्र पर विशुद्ध सोम का ही प्रकाश चमकने लगता है।


वास्तव में अग्नि विद्युत और सूर्य तीनों एक ब्रह्म तेज से ही प्रकाशमान हैं। इसी प्रकार पाँचों अग्नियाँ एक चित्ति शक्ति से ही प्रकाशमान समझनी चाहिए। चित्ति शक्ति का स्थान आज्ञा चक्र से ऊपर है और सोम ही उसका शुद्ध स्वरूप है। इसलिए उसे बिन्दु अथवा ब्रह्म का पररूप कहते हैं।


 श्रद्धा का ब्रह्मचर्य से सम्बन्ध


 जिन साधकों की कुण्डलिनी शक्ति का जागरण नहीं है। परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। उनकी अपनी हुआ श्रद्धा पर संयम करना अत्यावश्यक है। क्योंकि कामवासना भी स्त्री संग की ओर प्रेरणा करने वाली एक प्रकार की राजसी श्रद्धा का ही रूप है। जब सात्विक श्रद्धा का उदय होता है। और देव अथवा पूज्य बुद्धि उत्पन्न होती है। तब तुरन्त काम वासना शान्त हो जाया करती है। श्रद्धा ही बहिर्मुखी होकर सृष्टि का कारण बन जाती है। जैसा कि ऊपर पंचाग्नि विद्या में कहा गया है और अन्तर्मुखी रहने पर श्रद्धा ही मोक्ष का साधन होती है इसलिए श्रद्धा को सात्विक रखने पर स्थूल बिन्दु की उर्ध्वगति सम्भव है, अन्यथा नहीं। देवता उसकी आहुति सृष्टि के हेतु बर्हिर्यागार्थ निम्न स्तरों पर देते हैं और मुमुक्षु आत्मचिंतन रूपी अन्तयोग द्वारा उसके उल्टे क्रम का अनुष्ठान करता है। गुरु शिष्य के सम्बन्ध भी श्रद्धा के सूत्र से बँधा होता है इसलिए गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पर भी कुछ विचार प्रकट करके हम यहाँ विषयान्तर के दोष को पाठकों के लाभार्थ ग्रहण करते हैं। गुरु शिष्य का सम्बन्ध और श्रद्धा गुरु और शिष्य का सम्बन्ध मात्र श्रद्धा का होत है। यदि शिष्य की श्रद्धा शिथिल हो जाए, तो वह सम्बन्ध शिथिल हो जाता है। यह सम्बन्ध वास्तव में एक पक्षीय ही है। उभयपक्षीय नहीं क्योंकि गुरु की शिष्य के प्रति श्रद्धा की भावना का होना सम्भव नहीं श्रद्धा हमेशा अपने से बड़ों के प्रति हुआ करती है। परन्तु श्रद्धा की प्रतिक्रिया भी प्रेम के रूप में प्रकट हुआ करती है। जिससे शिष्य को गुरु की विद्या फलीभूत होती है। शिष्य गुरु की शरण में श्रद्धा की प्रेरणा से प्रेरित होकर जाता है। कि उसको वहाँ से उसकी जिज्ञासा विद्या की उपलब्धि होगी। आध्यात्म-पथ का पथिक-गुरु से भौतिक स्तर पर उस प्रकाश की जिज्ञासा रखता है। जो उसे तीन तापों से मुक्त कर दे इसीलिए वही ज्ञानी गुरु की खोज करता है। परोक्ष ज्ञानी की नहीं वरन् अनुभवी तत्वज्ञानी की। श्री भगवान ने ऐसे ही ज्ञानी गुरु की शरण में जाने का आदेश किया है-


 तद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ॥ उपदेक्ष्यान्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥


 (गीता-4.34)


ज्ञानी गुरु योगी तो होना ही चाहिए, क्योंकि बिना योग संसिद्ध के ज्ञान नहीं होता। श्री भगवान् स्वयं कहते हैं-


 तत्स्वर्य योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति। (गीता-4.38) परन्तु योग से भोग और भोगों से रोग भी होते हैं यह देखने में आता है। इसलिए यदि गुरु में योग के साथ-साथ भोग भी हो तो हर्ष की बात है, क्योंकि योगी के पास भोगों की समृद्धि उसकी सिद्धियों का परिचय देती है । परन्तु भोगों के साथ रोग भी गुरु में आ गये और रोगों के निवारणार्थ गुरु घबराकर साधारण डॉक्टरों-वैद्यों का आश्रय ढूँढता फिरे, तो उसके योग को कलंक लगने की आशंका है। इससे शिष्य की श्रद्धा में भी ठेस लगने की सम्भावना है। भोग और रोग दोनों पूर्वार्जित प्रारब्ध कर्मों का फल हो सकते हैं। जिनका योग की सिद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं होता। परन्तु एक योगी और ज्ञानी महापुरुष से यह भी आशा की जाती है कि वह वीतराग होने के कारण भोगों से फँसेगा नहीं और योग तथा प्रारब्ध दोनों प्रकार के भोगों को पास नहीं फटकने देगा। यदि उनसे रोग उत्पन्न होते दिखाई देते हैं, यदि प्रारब्ध वश रोगों का आक्रमण भी हो तो अपने योगबल से उनका परास्त करता हुआ वह उन्हें सहन करेगा। न कि साधारण मनुष्यों के सदृश भोगशक्ति का कुपथ्य-करके उनका पोषण करेगा।


 यदि किसी गुरु को भोगासक्त और रोगाक्रान्त देखा जाये तो स्वभावतः शिष्य की श्रद्धा भंग हो जाने में आश्चर्य नही। परन्तु उसका दुष्परिणाम शिष्य के लिए उसके सर्वनाश का कारण बन जाता है। तैत्तिरियोनिषद की ब्रह्मानन्दवल्ली के चतुर्थ अनुवाक् में श्रद्धा को विज्ञानात्मा का शिर बताया गया है और योग को उसकी आत्मा विज्ञानात्मा के ऋत् और सत्य दोनों पक्ष हैं और महत् उसी का प्रतिष्ठा-पुच्छ है। शिर के कट जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ देती है और सिर के विकार से दोनों हाथ निकम्मे अर्थात् पक्षाघात के रोगी हो जाते हैं तथा प्रतिष्ठा भी नहीं रहती। अर्थात् श्रद्धा की कमी होते ही उससे योग, सत्य और ऋत् तीनों ही विदा होने लगते हैं और महत् का सहारा छूट जाता है। महत् से आनन्दमय सगुण ब्रह्म का ही यहाँ अभिप्राय है, क्योंकि साधक की प्रतिष्ठा उसी के आधार पर होती है, न कि लोक प्रतिष्ठा पर । विज्ञानमय कोष का आधार आनन्दमय आत्मा ही है, उसे स्वयं परमात्मा का प्रतीक समझना चाहिए। जब विज्ञानात्मा ही न रहा तो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय आत्मा की क्या दशा होगी? यह पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं। मणिपुर चक्र तडित्वतवं शक्त्या तिमिर परिपन्थ स्फुरणया। स्फुरन्नाना रत्ना भरण परिणद्धेन्द्र धनुषम। तव श्याम मेघं कमपि मणि पूरैक शरणं । विषं वे वर्षन्तं हरिमिहिर तप्तं त्रिभुवनम्॥


अर्थात् तेरे मणिपुर की शरण में गये हुए श्याम मेघों के रूप धारण करने वाले के जल का सेवन करता हूँ जिसमें अंध कार की परिपन्थिनी अर्थात् प्रतिद्वन्द्विनी बिजली की चमक आभरणों में जटित नाना रत्नों की चमक, सदृश सदृश इन्द्रधनुष का रूप धारण किए हुए हैं और जो अग्नि और सूर्य के ताप से सन्तप्त त्रिभुवन पर वर्षा कर रहे हैं। मणिपुर चक्र में मेघेश्वर और सौदामिनी के रूप में शिव-शक्ति का ध्यान बताया गया है। सूर्य का स्थान ऊपर सूर्यमण्डल में और अग्नि का स्थान नीचे स्वाधिष्ठान चक्रस्थ अग्नि-मण्डल में होने  से सारा देहरूपी तीन खण्डों का त्रिभुवन तप्त होने पर जल वाष्प-रूप से मणिपुर चक्र का रूप धारण कर लेता है और मेघों में अग्नि विद्युताकार चमकने लगती है। जिनको मेघेश्वर और सौदामिनी कहते हैं। इन दोनों के योग से वर्षावत् सारे शरीर में रस का सिंचन होने लगता है। मूलाधार


 तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया शिवात्मानं मन्ये नवरस महाताण्डवनटम् । उभाभ्यामेताभ्यामुद य विधिमुद्दिश्य दययां सनाथाभ्यां जज्ञे जनक जननीमज्जगदिदम् ॥


अर्थात् तेरे मूलाधार में लास्यपरा अर्थात नृत्य करने वाले नटेश्वर नवात्मा शिवजी का मैं चिंतन करता हूँ यह जगत इन दोनों को जनक - जननीवत् दया से प्रभवाभिमुख होने के कारण अपने को सनाथ मानता है। समया देवी से समयाचार की उपास्य देवीनिर्दिष्ट है, लास्य भगवती के नृत्य का नाम है और ताण्डव शंकर के नृत्य का नाम है। नवरसयुक्त ताण्डव नृत्य को महाताण्डव कहते हैं। नौ रस ये है श्रृंगार, वीभत्स, रौद्र, अद्भुत, भयानक, वीर, हास्य, करुणा और शान्त। ये नौ रस साहित्य, कविता, नृत्य और गायन-विद्या के अंग हैं। नवात्मा शिवजी को कहते हैं। जिसकी व्याख्या पहले श्लोक 34 में दी जा चुकी है। आधार चक्र में प्राण का विरोध होने पर योगी नृत्य करने लगता है। योगशिखोपनिषद् में कहा है- आधारवातरोधेन शरीर कम्पते यदा


 आधारवतारोधेन योगी नृत्यति सर्वदा ॥

 आधारवातरोधेने विश्वं तत्रैव दृश्यते ।

 सृष्टिराधारममाधारमा धारे सर्वदेवताः

 आधारे सर्ववेदाश्चस्मादा धारमाश्रयेत ॥


 (योगशिखोपनिषद् 6, 28-29) अर्थात् आधार चक्र में जब प्राणशक्ति का विरोध होता है तब शरीर कांपने लगता है, यानी नृत्य करने लगता है और वही सारा विश्व दिखने लगता है। आधार चक्र में जो सृष्टि आधार है, सब देवता, सब वेद रहते हैं, इसलिए आधार-चक्र का आश्रय लेना चाहिए। समया देवी का नाम मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों के ध्यान में मिलता है, अन्य चक्रों के ध्यान में नहीं। इससे यह प्रतीत होती है। कि शंकर भगवत्पाद ने इन दोनों चक्रों में विशेषरूप से समयाचार की और लक्ष्य कराया है। क्योंकि उनका ध्यान कौलमतल वालों को ही अभीष्ठ है। समाचार वालों को उनके चक्रों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों पर नहीं इसका कारण हम अन्यत्र भी बता आये हैं। स्वाधिष्ठान चक्र भेदन से वीर्यपात इत्यादि की क्रियाएँ होने की संभावना है और इन क्रियाओं से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम के साधनों का पतन होने की आशंका है, इसलिए भेदन-क्रम को भी इसी प्रकार बताया गया है कि स्वाधिष्ठान चक्र को नहीं छेड़ा जाता। यह स्मरण रहे कि ऊपर के अनाहत अथवा आज्ञा चक्र का पूर्ण भेदन होने पर नीचे के चक्रों का भी भेदन स्वयं हो जाता है। इसलिए कामवासना की दीप्ति से रक्षा करने के लिए अनाहत और आज्ञा चक्रों का अथवा नादानुसंधान का आश्रय विद्या और नाद श्रवण लेना श्रेयस्कर है हृदय चक्र में दहर विद्या आज्ञा चक्र में शाम्भवी विद्या के साधन से ही ऊर्ध्वरेतस् की सिद्धि हो जाती है। फिर बजौली क्रिया का झंझट वृक्ष मोल लेकर पथभ्रष्ट होने की संभावना का क्यों आह्वाहन किया जाये? पृथ्वी तत्त्व की किरणें आधी-आधी ताण्डवनटेश्वर और लास्यपरा समया देवी से अद्भुत समझनी चाहिए।


 शिव ताण्डव


 हिरणयमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । 

तत्त्वं पुषान्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥


 यजुर्वेद में कहा गया है कि सत्य का मुख सुवर्ण के पात्र से ढका हुआ है। मानो सत्य की देवी ने सुनहरी घूँघट से अपना सुन्दर बदन छिपा लिया है उसकी सुनहरी अलके ही मुख पर आ पड़ी है जो घूँघट का काम कर रही है। यदि कहें कि सूर्य अपनी ही किरणों में स्वयं छिप गया है तो अधिक ठीक है। यह उपमा आत्मदेव के लिए दी गई है। अध्यात्म सूर्य, जो सत्य है। अपनी माया के सुनहरी परदे में स्वयं अन्तर्हित ही रहा है। कोई-कोई दार्शनिक विद्वान् माया की अन्धकार से तुलना करते हैं। परन्तु माया का अर्थ सुवर्णमय विस्तार भी तो किया जाता है। क्या यह दूसरा अर्थ सुन्दर नहीं है? सुवर्ण में तो एक कान्ति चमकती है अँधकार में कान्ति कहाँ? इसलिए हम तो यही समझते हैं कि पाया का परदा अथवा घूँघट हिरणयमय ठीक बताया गया है जिसके आकर्षण में पड़कर जीव अनादिकाल से मर-मर कर भी


 उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। आधुनिक युग का भौतिक विज्ञान तो इस सुनहरी घूँघट के सौन्दर्य से सन्तुष्ट ही नहीं होता, उसने उस पर हजारों रहस्यमय सितारे लगा दिये हैं, मानी प्रकृति के विद्युत कण इलेक्ट्रोन्स अनन्त संख्या में चमक रहे हैं। यद्यपि भौतिक विज्ञानियों की दृष्टि परदे के पीछे छिपे हुए सत्य के मौलिक सौन्दर्य नहीं जाती, तो भी वह अपने मनोरंजन में व्यस्त है इसमें किसी का क्या दोष है?


 हिरणमय घूँघट की शोभा ही इतना आकर्षण रखती है। कि उसे स्वयं आत्मदेव ने ही ओढ़ लिया है अपना मुख छिपाने की दृष्टि से नहीं परन्तु इसमें उसका मुख्य उद्देश्य अपने सौन्दर्य का विकास करने का ही जान पड़ता है। शायद शून्यवादी इस रहस्य से परिचित नहीं हैं। उनका तो विश्वास यह जान पड़ता है, कि घूँघट के पीछे कोई तत्त्व नहीं है, केवल शून्य पर ही परदा पड़ा हुआ है। वास्तव में जाँच तो उसकी किसी हद तक ठीक सी ही जान पड़ती है। परन्तु क्या शून्य ही सत्य है ? वेद मिथ्या क्यों बहकाने लगे, इसी धारणा से शायद वृद्ध भारत के कतिपय पागल जिज्ञासु उस शून्य में ही मौलिक सत्य की खोज के लिए कटिबद्ध रहते हैं। जिसका घूँघट भी, जो उसी की किरणों की प्रथा की जाली से बना हुआ है। इतना सुन्दर तो उस सत्य के मुख की शोभा कितनी ऊँची होनी चाहिए? पाठकगण ! यह अनुमान का विषय नहीं है। परन्तु कोई-कोई सत्य के अन्वेषक साक्षी देते हैं कि वह अवश्य दर्शनीय है। इसलिए इन भौतिकवादियों की बातों में आकर उसे शून्य मत समझो। वह शून्य नहीं है।


 मुख को ढकने वाला हिरणयमय पात्र तेजोमय विराजमान है। उस तेज में शक्ति और शक्ति में तेज है। तेज से शक्ति में कान्ति है और उसकी तेजोमयी प्रभा आदि मूलशक्ति की प्रत्येक स्तर की परिणति में चमक रही है। विद्युत अणु में वह विद्युत है और प्रत्येक विद्युत कण उसके तेज से परिपूर्ण है। अग्नि, सूर्य सब में शक्ति हैं और शक्ति कहीं भी तेज से रहित नहीं है। शक्ति रजोगुण और तमोगुण युक्त अनेक रूपों का स्वाँग भरकर सर्वत्र नृत्य कर रही है और तेज भी, युगपद अपरिणामी होते हुए भी, उसके नृत्य के साथ ताण्डव नृत्य का अभिनय है और उनके ताण्डव के अँगहार अथवा अंगविक्षेप ही मानो सत् शक्ति के परिणाम क्रम के विभिन्न स्तरों पर उसकी स्वाँग भरी नृत्य कलाएँ हैं जिनके श्रृंगार के नवधा रस परिपूर्ण हाव भावों में शंकर के चिदानन्दस्वरूप का प्रत्याभास हो रहा है। इस नृत्य को आनन्द ब्रह्म के उन्मेष से प्रेरणा मिलती है और प्रलयकालीन विराम भी नृत्य के परिश्रम के अनन्तर विश्रामरूपी आनन्द का आभोगरूपी निमेष है। शिवजी के इस आनन्दोन्मेषरूपी ताण्डव को वेदों ने संवर्तन और शंकर भगवत्पाद ने विवर्तन कहा है। दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए से दिखते हैं। ताण्डव नृत्य को तालबद्ध करने के लिए उन दिगम्बर एवं चिदम्बर शिवजी के पास डमरू के अतिरिक्त कोई दूसरा वाद्य यंत्र नहीं है। डमरू में दो विपरीत दिशाओं के शिव-शक्त्यात्मक दोनों ही प्रकार के शब्द ताल दिया करते हैं। जिसमें सरस्वती देवी अ-क-च-ट-त-प-य-श के वर्ण-वर्गों की वर्णमाला की



शिक्षा ग्रहण करके समस्त बैंखरी वाणी की सृष्टि पर किया करती है। अर्थात ताण्डव की तालों से निकलने वाली शिव-शक्त्यात्मक ध्वनि ही शंकर का डमरू वाद्य है। जिसकी उनके चिदाकाशरूपी देह की स्पन्द ध्वनि का वाचिक व्यंजक अभिनय कह सकते हैं। शिव ताण्डव का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण तारों की टिम टिमाहटरूपी डिमडिम में ग्रहों के नृत्य में, सूर्य के नेत्रोल्लास में, पृथ्वी की षडऋतुओं के श्रृंगारयुक्त नाटक में, चन्द्रमा की कलाओं में, विद्युत क्रीड़ा में, बसन्त की मन्द सुगन्धित वायु के झोंकों में पुष्पों के हास्य में समुद्र की तरंगों में, हिमपात के हिमकणों के नर्तन में, आँधी तूफान की द्रुतगति में, नदियों के कल-कलनिनाद में, पर्वतों के श्रृंगार में शस्यश्यामला भूतल के अंचल की हिलारों में, पशु पक्षियों की अठखेलियों में मनुष्य की मस्ती भरी चालों में और अन्यत्र सर्वत्र किया जा सकता है। यह बस विराट विश्व सृष्टि- -प्रचार का निम्नतम स्तर रूपी मूलाधार है जिसमें भगवती के इस लास्य नृत्य और शंकर के ताण्डव को युगपद देखने वाले उपासक जीवन-मुक्ति का आनन्द लेते हैं। जो मूढ़ अपने तुच्छ स्वार्थों के अन्धकारणवश इसका साक्षात्कार नहीं कर पाते और मिथ्या अज्ञानवश शोक-मोह के कूपों में पड़े रोते हैं, वे दिव्यास्त्रों की प्राप्ति वास्तव में दया के पात्र हैं। श्री भगवान परशुराम ने अपने संकल्प के अनुसार उत्तराखण्ड की यात्रा आरम्भ कर दी। पिता का आशीर्वाद तथा स्वयं की दृढ़ता ये दो प्रकार का बल था अतः सिद्धि में कोई संदेह नहीं था। पर्वतराज हिमालय की पावन छटा में प्राकृतिक सम्पदा एवं वैभव का दर्शन करते हुए गंगाजी के किनारे किनारे यात्रा करने लगे। मन में पावन ब्रह्म- देव की कथा स्मरण कर के अलौकिक आनन्द का अनुभव कर रहे थे।


 भगवान शंकर वैकुण्ठ में भगवान विष्णु के दर्शन करने पहुँचे भगवान विष्णु के चरणों का स्पर्श किया हुआ जल चरणामृत कहलाता है, जिसका सेवन असमय आयी हुई मृत्यु एवं रोग को रोकता है। विष्णु पादोदक भी कहा जाता है-


 अकालमृत्युहरण सर्वव्याधिविनाशम्


 विष्णु पादोदकम पीत्वा पुनर्जन्म न लभ्यते ॥ ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी कहा है भगवान विष्णु ने नृत्य का आग्रह किया है। इस द्रव को धर्मद्रव भी कहा है। भगवान द्रवित होकर निराकार हो गये। गंगाजी की महिमा का इसी से अनुमान कर लेना चाहिए। पुराणेतर साहित्य के अतिरिक्त गंगालहरी आदि काव्यों में भी यह महिमा वर्णित है। जैसे कि बड़े-बड़े कवियों ने इस प्रकार कहा है-


धमकि धूम सौं धाइ धँसै जबहीं ब्रह्मद्रव। उथल पुथल तल होइ कुलाहल मचहि उपद्रव ॥ जगत जलाजल होइ कुलाहल त्रिभुवन व्यापै । है सनद्ध कटिबद्ध कौन थिरता फिरि थापै ॥


 (गंगावतरण सर्ग 6/21)


अस्त्युतस्यां दिशि देवात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः । पूर्वाऽपरौ तोयनिधिवगाह्य, स्थितः पृथ्विया इव मानदण्डः॥


 (कुमारसम्भव)


 इसी चिन्तन में भी परशुराम सिद्ध योगी तपोधन एवं देवताओं की भूमि हिमालय के प्रान्त एवं शिखरों पर विचर रहे थे जो साधारण व्यक्ति तो आज की सुविधाओं से युक्त मार्ग होने पर भी हिमालय के नगरों तक ही प्रायः आते जाते हैं। तपस्वी तितिक्षु महात्मा ही किसी शिखर पर जाने का साहस करेगा, वहाँ साधना करेगा। पर्वतरोहियों की बात यहां नहीं की जा रही । परशुराम जी हिमालय में स्थिति रम्यस्थली में पहुंचे, वहां की दिव्य स्थिति एवं सहज मनोहारी छटा को देखकर इन का मन तपस्या करने को आतुर हो गया। ये स्वयं भी परम तपस्वी ब्रह्मचारी थे फिर साधना के लिए ही आये थे इस पर भी साधना स्थली देवभूमि हिमालय। बस साधना आरम्भ हो गयी। स्थान की विशेषता होती है। हिमालय की एक गुफा में नारद जी पहुँच गये। गुफा की स्थिति और साधना के अनुकूल वातावरण का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनका मन रस में रम गया, वहीं आसन लगाकर बैठ गये और हरि का स्मरण करने लगे। स्मरण करने से उनकी वहीं समाधि लग गयी और शाप का प्रभाव भी बाधित हो गया। श्रीपरशुराम जी भी समाधिस्थ हो गये और भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए सभी वृत्तियाँ उनके चिन्तन में लगा दी। कितने बसन्त बीते पता नहीं घोर आँधी-तूफान, धाम, हिम-वारि-वयारि कितने झेले, कौन गिनता? हिमालय नाम से ही सिद्ध है कि वहाँ बर्फ ही बर्फ है, बर्फ की वर्षा होती है, बर्फ की शिलाएँ फिसलती हैं। हिमपात में कोई स्थान पर बैठा रहे तो क्या दशा बनेगी कितने दिन जीवित रह सकेगा। बर्फ में ता मकानों का पता नहीं चलता, पर्वत टूट-फूटकर गंगाजी की वेगवती उज्ज्वल जलधारा में लुढ़क लुढ़क कर हरिद्वार तथा ऋषिकेश पहुँच जाते हैं। 



पूरे क्षेत्र में बर्फ ही बर्फ दिखायी पड़ती है। मानो पर्वतों को श्वेत चादर से ढक दिया हो। इसी कारण तो भारत माता को हिमकिरीटनी नाम से पुकारा जाता है। वहाँ हिमवर्षा होने के कारण यहाँ मैदानी क्षेत्रों में भी जब शीत लहर चलती हैं तो कितना हा-हाहाकार मच जाता है। कामकाज ठप्प हो जाता है। इस क्रम अन्य ऋतुयें भी आयी और गई परशुराम जी अपने लक्ष्य में लीन थे, समय आने पर श्री परशुराम जी की घोर तपस्या पूर्ण हुई। भगवान शंकर जी प्रसन्न हो गये उनके सामने प्रकट हुए और स्पर्श करते हुए बोले वत्स हम तुम्हारी कठिन तपस्या से पूर्ण रूप से प्रसन्न हैं वर मांगो, भगवान परशुराम जी बोले कि प्रभु तुम सब कुछ जानते हो और उनके चरणों में झुक गये। भगवान शंकर ने उन्हें बहुत से अस्त्र-शस्त्र एवं दिव्य अस्त्र दिव्यशस्त्र और एक पाशुपत अस्त्र परशु प्रदान किया पहले परशुराम का नाम राम था परशु प्राप्त करने के पश्चात् उनका नाम परशुराम हुआ दिव्यास्त्र प्राप्त करके परशुराम जी अपने आश्रम चल दिए कुछ ही समय के पश्चात् परशुराम जी अपने आश्रम में वापस आ गये और माता पिता के चरणों में प्रणाम किया गुरुजनों को नमन किया और सारा विवरण अपने माता-पिता गुरुजनों तथा विद्यार्थियों को सुनाया तो सभी बहुत प्रसन्न हुये । पद्म पुराण के अनुसार श्री परशुराम जी ने भगवान विष्णु से भी वैष्णवी शक्ति प्राप्त की थी।

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