मुंशी प्रेमचंद एक प्रसिद्ध हिंदी लेखक हैं, जिन्हें हिंदी-उर्दू साहित्य के सबसे महान साहित्यकारों में से एक माना जाता है। उनकी कुछ सबसे प्रसिद्ध पुस्तकें हैं:
Hindi stories of premchand. Premchand ki hindi kahaniyan. books of premchand in hindi. story of premchand in hindi.
1.गोदान
2.गबन
3.निर्मला
4.सेवासदन
5.मानसरोवर
6.कर्मभूमि
7.बड़े घर की बेटी
8.धूल पौधों पर
9.कलाम का कारवां
10.प्रतिज्ञा
इन पुस्तकों को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट कार्य माना जाता है, और सभी उम्र के लोगों द्वारा व्यापक रूप से पढ़ा और सराहा गया है...Munshi Premchand की लोकप्रिय किताबें और उनकी कहानियाँ हिंदी में पढ़िए.
Books of Premchand in hindi & short stories of Premchand in hindi.
Munshi Premchand ki hindi books ke naam aur Premchand ki hindi kahaniyan.
1."गोदान" मुंशी प्रेमचंद के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है। यह पहली बार 1936 में प्रकाशित हुआ था और इसे व्यापक रूप से हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है।
"गोदान" की कहानी होरी नाम के एक गरीब किसान के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो भारत के एक छोटे से गांव में रहता है। उपन्यास ग्रामीण गरीबों के संघर्षों और कठिनाइयों को दर्शाता है, और गरीबी, भ्रष्टाचार और सामाजिक अन्याय के मुद्दों पर केंद्रित है। कहानी के दौरान, होरी को कई कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें साहूकारों का शोषण और जाति व्यवस्था का पतन शामिल है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह एक मजबूत और दृढ़निश्चयी व्यक्ति बना हुआ है, अपने और अपने परिवार के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है।
"गोदान" एक शक्तिशाली सामाजिक टिप्पणी के साथ-साथ एक आकर्षक और प्रेरक कथा है। गरीबी, भ्रष्टाचार और सामाजिक न्याय के इसके विषय आज भी पाठकों के साथ गूंजते रहते हैं, जो इसे हिंदी साहित्य में एक कालातीत क्लासिक बनाते हैं।
2.गबन" मुंशी प्रेमचंद का एक और प्रसिद्ध उपन्यास है। यह पहली बार 1966 में प्रकाशित हुआ था और इसे व्यापक रूप से हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कार्यों में से एक माना जाता है। "गबन" की कहानी झुमरी नाम के एक मध्यवर्गीय एकाउंटेंट के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने निजी और पेशेवर जीवन को संतुलित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। वह एक धनी व्यापारी के लिए काम करता है और बच्चों के साथ शादीशुदा है, लेकिन अपनी कड़ी मेहनत और समर्पण के बावजूद, वह अपने परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है।
पूरी कहानी के दौरान, झुमरी भौतिक धन की अपनी इच्छा में तेजी से लीन हो जाता है, और अंततः प्रलोभन का शिकार हो जाता है और अपने नियोक्ता से चोरी करना शुरू कर देता है। जैसे-जैसे वह इस अनैतिक व्यवहार में अधिक गहराई से शामिल होता जाता है, वह अपराध और पश्चाताप की भावनाओं से पीड़ित होने लगता है, जो अंततः उसके पतन का कारण बनता है।
"गबन" लालच के खतरों और भौतिक संपदा के भ्रष्ट प्रभाव पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। झुमरी के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद आधुनिक समाज के मूल्यों और प्राथमिकताओं और अपने नैतिक सिद्धांतों के प्रति सच्चे रहने के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। उपन्यास को व्यापक रूप से हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है, और आज भी इसे व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है।
3."निर्मला" मुंशी प्रेमचंद का एक उपन्यास है जो पहली बार 1917 में प्रकाशित हुआ था। इसे हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है। "निर्मला" की कहानी निर्मला नाम की एक युवती के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी शादी कम उम्र में जगत नारायण नाम के एक व्यक्ति से हो जाती है। शादी में नाखुश होने के बावजूद, वह अपने पति के प्रति समर्पित रहती है और स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास करती है। पूरे उपन्यास में, निर्मला को गरीबी, बीमारी और अपने पति की मृत्यु सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बनी हुई है, अपने परिवार की रक्षा और प्रदान करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। "निर्मला" पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और विवाह और पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को नेविगेट करने में उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। निर्मला के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद समाज में महिलाओं की भूमिका और महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। उपन्यास आज भी व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है, और इसे हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है।
4."सेवासदन" मुंशी प्रेमचंद का एक उपन्यास है जो पहली बार 1913 में प्रकाशित हुआ था। इसे हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है। "सेवासदन" की कहानी आशा नाम की एक युवती के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी शादी कम उम्र में भोला नाम के व्यक्ति से हो जाती है। शादी में नाखुश होने के बावजूद, वह अपने पति के प्रति समर्पित रहती है और स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास करती है। उपन्यास के दौरान, आशा को गरीबी, बीमारी और अपने पति की उपेक्षा सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बनी हुई है, अपने परिवार की रक्षा और प्रदान करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। "सेवासदन" पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और विवाह और पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को नेविगेट करने में उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। आशा के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद समाज में महिलाओं की भूमिका और महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। उपन्यास आज भी व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है, और इसे हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है।
5."मानसरोवर" मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित लघु कथाओं का संग्रह है। यह पहली बार 1915 में प्रकाशित हुआ था और इसे व्यापक रूप से हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी कृतियों में से एक माना जाता है। "मानसरोवर" की कहानियों में गरीबी, सामाजिक अन्याय, जाति व्यवस्था और महिलाओं के संघर्ष सहित कई विषयों को शामिल किया गया है। प्रेमचंद अपनी सशक्त कहानी कहने और अंतर्दृष्टिपूर्ण टिप्पणी के माध्यम से 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ग्रामीण भारत में जीवन का एक ज्वलंत और अंतरंग चित्र प्रदान करते हैं। "मानसरोवर" में सबसे प्रसिद्ध कहानियों में से एक "ईदगाह" है, जो हामिद नाम के एक युवा लड़के की कहानी बताती है जो ईद पर अपनी दादी के लिए उपहार खरीदने के लिए पैसे बचाता है। अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, वह एक उपहार नहीं ढूंढ पा रहा है जिसे वह वहन कर सकता है, और अंततः अन्य चीजों पर अपना पैसा खर्च करने के लिए मजबूर हो जाता है। इस झटके के बावजूद, वह अपनी दादी को सम्मान देने का एक तरीका खोजने के लिए दृढ़ संकल्पित है, और उसका दृढ़ संकल्प और दयालुता अंत में उसके समुदाय को खुशी देती है।
"मानसरोवर" को व्यापक रूप से हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है, और आज भी इसे व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है। मुंशी प्रेमचंद अपनी सशक्त कहानी कहने और अंतर्दृष्टिपूर्ण टिप्पणी के माध्यम से ग्रामीण भारत में जीवन का एक ज्वलंत और अंतरंग चित्र प्रदान करते हैं, और आधुनिक समाज के मूल्यों और प्राथमिकताओं के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं।..
6.कर्मभूमि" मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक उपन्यास है। यह पहली बार 1935 में प्रकाशित हुआ था और इसे व्यापक रूप से हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है। "कर्मभूमि" की कहानी कर्मी नाम के एक युवक के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो ग्रामीण भारत में एक गरीब परिवार में पैदा होता है। अपनी विनम्र शुरुआत के बावजूद, कर्मी अपने आप को कुछ बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित है, और अंततः वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए शहर चला जाता है। उपन्यास के दौरान, कर्मी गरीबी, बीमारी और शहरी जीवन की कठोर वास्तविकताओं सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बना रहता है, अपनी स्थिति को सुधारने और अपने परिवार को प्रदान करने के लिए लगातार प्रयास करता है।
"कर्मभूमि" भारत में ग्रामीण गरीबों के संघर्षों और उनके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश में आने वाली चुनौतियों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। कर्मी के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद आधुनिक समाज के मूल्यों और प्राथमिकताओं के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं, और विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ता और दृढ़ संकल्प के महत्व पर सवाल उठाते हैं। उपन्यास आज भी व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है, और इसे हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है।
7..बड़े घर की बेटी" मुंशी प्रेमचंद का एक उपन्यास है। यह पहली बार 20वीं सदी की शुरुआत में प्रकाशित हुआ था और इसे हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है। "बड़े घर की बेटी" की कहानी राम नाम की एक युवती के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो ग्रामीण भारत के एक धनी परिवार की बेटी है। अपनी विशेषाधिकार प्राप्त परवरिश के बावजूद, रामा ने खुद के लिए कुछ करने का दृढ़ निश्चय किया है, और वह अंततः अपने सपनों को पूरा करने के लिए शहर चली जाती है।
पूरे उपन्यास में, राम को गरीबी, बीमारी और शहरी जीवन की कठोर वास्तविकताओं सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बनी हुई है, अपनी स्थिति को सुधारने और अपने लिए बेहतर जीवन बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है।
"बड़े घर की बेटी" पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं के जीवन और सामाजिक मानदंडों और अपेक्षाओं से मुक्त होने की कोशिश में उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। राम के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद समाज में महिलाओं की भूमिका और महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। उपन्यास आज भी व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है, और इसे हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है।
8."धूल पौधो पर" मुंशी प्रेमचंद की एक लघुकथा है। यह पहली बार 20वीं सदी की शुरुआत में प्रकाशित हुआ था और इसे व्यापक रूप से उनकी सबसे बड़ी कृतियों में से एक माना जाता है। "धूल पौधो पर" की कहानी लछमी नाम की एक युवती के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी शादी एक ऐसे व्यक्ति से होती है, जो अपना सारा समय और पैसा जुए में लगा देता है। अपने पति की उपेक्षा और दुर्व्यवहार के बावजूद, लछमी अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए दृढ़ रहती है, और अंततः उसे पता चलता है कि उसके पति के जुए ने उनके परिवार की वित्तीय स्थिति को बर्बाद कर दिया है। कहानी के दौरान, लछमी को गरीबी, बीमारी और ग्रामीण भारत में जीवन की कठोर वास्तविकताओं सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बनी हुई है, अपनी स्थिति में सुधार करने और अपने परिवार को प्रदान करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है।
"धूल पौधो पर" भारत में ग्रामीण महिलाओं के संघर्षों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है, और गरीबी और उपेक्षा की स्थिति में अपने परिवारों को जीवित रहने और प्रदान करने की कोशिश में वे जिन चुनौतियों का सामना करती हैं। लछमी के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद आधुनिक समाज के मूल्यों और प्राथमिकताओं के बारे में और विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ता और दृढ़ संकल्प के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। कहानी आज भी व्यापक रूप से पढ़ी और पढ़ी जाती है, और इसे हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी कृतियों में से एक माना जाता है।
9.प्रतिज्ञा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास है। यह पहली बार 20वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रकाशित हुआ था और इसे हिंदी साहित्य की सबसे महान कृतियों में से एक माना जाता है। "प्रतिज्ञा" की कहानी सुशीला नाम की एक युवती के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी शादी रघुवीर नाम के व्यक्ति से होती है। अपने पति के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, सुशीला अपनी शादी में नाखुश रहती है और पारंपरिक भारतीय समाज की बाधाओं से घुटन महसूस करती है। आखिरकार, वह अपने जीवन को नियंत्रित करने और बदलाव करने का फैसला करती है, जिससे कई घटनाएं होती हैं जो उसकी शादी और रघुवीर के साथ उसके रिश्ते को चुनौती देती हैं। पूरे उपन्यास में, सुशीला को भारत में गरीबी, बीमारी और ग्रामीण जीवन की कठोर वास्तविकताओं सहित कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों के बावजूद, वह मजबूत और लचीला बनी हुई है, अपनी स्थिति को सुधारने और अपने जीवन में खुशी और पूर्णता पाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है।
"प्रतिज्ञा" पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं के जीवन और सामाजिक मानदंडों और अपेक्षाओं से मुक्त होने की कोशिश में उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी है। सुशीला के चरित्र के माध्यम से, प्रेमचंद समाज में महिलाओं की भूमिका और महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के महत्व के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। उपन्यास आज भी व्यापक रूप से पढ़ा और पढ़ा जा रहा है, और इसे हिंदी साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है।.
मुंशी प्रेमचंद की कहानी "न्याय"
Munshi premchand ki Hindi Kahani Nyaay
न्याय ( justice)
हजरत मुहम्द को इलहाम हुए थोड़े दिन हुए थे। दस-पांच पड़ोसियों तथा निकट सम्बन्धियों के सिवाऔर कोई उनके दीन पर ईमान ना लाया था, यहां तक कि उनकी लड़की जैनब और दामादअबुलआस भी जिनका विवाह इलहाम से पहले ही हो चुका था, अभी तक दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गई थी और अपने पूज्य पिता की ज्ञानमय वाणी सुन चुकी थी। वह दिल से इस्लाम पर ईमान ला चुकी थी, लेकिन अबुल आस धार्मिक मनोवृत्ति का आदमी न था। वह कुशल व्यापारी था। मक्का के खजूर, मेवे आदि जिन्सें लेकर बंदरगारों को चालान किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, मेहनती आदमी था, जिसे इहलोक से इतनी फुरसत न थी कि परलोक की फिक्र करे ।
जैनब के सामने कठिन समस्या थी। आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर। न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को। उसके घर के सभी आदमी मूर्तिपूजक थे। इस नए सम्प्रदाय से सारे नगर में हलचल मची हुई थी। जैनब सबसे अपनी लगन को छिपाती, यहां तक कि पति से भी न कह सकती थी। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे, बात-बात पर खून की नदी बह जाती थी, खानदान-के-खानदान मिट जाते थे। उन दिनों अरब की वीरता पारस्परिक कलहों में प्रकट होती थी। राजनैतिक संगठन का जमाना न था । खून का बदला खून, धन हानि का बदला खून, अपमान का बदला खून- मानव रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार और मुहम्मद तथा इनके इने-गिने अनुयायियों में देवासुरों का संग्राम छेड़ना था। उधर प्रेम का बंधन पैरों को जकड़े हुए था। नए धर्म में दीक्षित होना अपने प्राणप्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरैश-जाति के ऐसे लोग मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी। धर्म का अनुराग एक दुर्बल वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग होता है तो हृदय के रोके नहीं रुकता। दोपहर का समय था, धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते आंखों से चिन्गारियां निकलती थीं। हजरत मुहम्मद
चिन्ता में डूबे हुए बैठे थे। निराश चारों ओर अंधकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी सिर झुकाए पास ही बैठी हुई एक फटा कुर्ता-सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन की भेंट हो चुकी थी। शत्रुओं का दुराग्रह दिनो-दिन बढ़ता जाता था। उसके मतानुयायियों को भांति-भांति की यंत्रणाएं दी जा रही थीं। स्वयं हजरत का घर से निकलना मुश्किल था। यह खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी, आज फलां, 'मुस्लिम' का घर लुट गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हजरत ये खबरे सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे। हजरत ने फरमाया-"मुझे ये लोग अब यहां न रहने देंगे, मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूं, लेकिन अपने दोस्तों की तकलीफें नहीं देखी जातीं।" खुदैजा- "हमारे चले जाने से इन बेचारों की और भी कोई शरण न रहेगी, अभी कम-से-कम तुम्हारे पास आकर रो तो लेते हैं, मुसीबत में रोने का सहारा ही बहुत होता है।"
हजरत-‘“मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूं। मैं सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूं। अभी हम लोग यहां बिखरे हुए हैं, कोई किसी की मदद को नहीं पहुंच सकता, हम सब एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने का साहस न होगा। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं, जिस पर चढ़ने की किसी की भी हिम्मत न होगी ?"
सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था, न आदमजात। मालूम होता था, कहीं से भागी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर पूछा- “क्या हुआ जैनब, खैरिगत तो है ?" जैनब ने अपने अंतर-संग्राम की कथा कह सुनाई और पिता से दीक्षा की याचना की। हजरत मुहम्मद आंखों में आंसू भरकर बोले- "बेटी, मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की ओर कोई बात नहीं हो सकती, लेकिन जानता हूं, तुम्हारा क्या हाल होगा ?" जैनब - “या हजरत! खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया है। दुनिया के लिए अपनी नजात को नहीं खोना चाहती।" हजरत-"जैनब, खुदा की राहों में कांटे हैं।"
जैनब-“अब्बाजान, लगन को कांटों की परवाह नहीं होती।"
हजरत-‘“ससुराल से नाता टूट जाएगा।"
जैनब - "खुदा से तो नाता जुड़ जाएगा।"
हजरत-‘"और अबुलआस ?"
जैनब की आंखों में आंसू डबडबा आए। क्षीण स्वर में बोली- "अब्बाजान, उन्होंने इतने दिनों मुझे बांध रखा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण में आ चुकी होती। मैं जानती हूं उनसे जुदा होकर मैं जिन्दा न रहूंगी और शायद उनसे भी मेरा वियोग न सहा जाए, पर मुझे विश्वास है कि वह किसी-न-किसी दिन जरूर ख़ुदा पर ईमान लाएंगे और फिर मुझे उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।"
हजरत- "बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है। सद्वक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अंत तक उसे ईश्वर से विमुख रखे । वह तकदीर को नहीं मानता, रूह को नहीं मानता ? स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ख़ुदा की जरूरत ही क्या है ? हम उससे क्यों डरें ? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है। ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। कुफ्र को तोड़ना आसान है, लेकिन वह जब दर्शन की सूरत पकड़ लेता है तो उस पर किसी का जोर नहीं चलता।"
जैनब ने दृढ़ होकर कहा-"या हजरत, आत्मा का उपकार जिसमें हो, मुझे वही चाहिए। मैं किसी इंसान को अपने और खुदा के बीच में न आने दूंगी।"
हजरत ने कहा- "खुदा तुझ पर दया करे बेटी! तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया।"
यह कहकर उन्होंने जैनब को गले लगा लिया। दूसरे दिन जैनब को यथाविधि आम मस्जिद में कलमा पढ़ाया गया। कुरैशियों को जब यह खबर लगी तो वे जल उठे। गजब खुदा का । इस्लाम ने तो बड़े-बड़े घरों पर भी हाथ साफ करना शुरू कर दिया। अगर यही हाल रहा तो धीरे-धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाएगी कि हमारे लिए उसका सामना करना कठिन हो जाएगा।
अबुल आस के घर पर एक बड़ी मजलिस हुई। अबूसिफियान- "तो क्या तुम भी मुसलमान हो जाओगे ?" अबुलअस - "हरगिज नहीं।" अबूसिफियान-"तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।" अबुलस-"हरगिज नहीं, आप लोग मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे मैं अपने घर लाऊं।"
अबूसिफियान - "हरगिज नहीं।"
अबुल आस-"तो फिर आप लोग मुझे समाज से पतित कर दीजिए, मुझे पतित होना मंजूर है, आप लोग और जो सजा चाहें दें, वह सब मंजूर है, मगर मैं अपनी बीवी को नहीं छोड़ सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता और वह भी अपनी बीवी की।"
अबूसिफियान - "कुरैश में क्या और लड़कियां नहीं हैं ?" अबुलास - "जैनब की-सी कोई नहीं है।" असिफियान -"हम ऐसी लड़कियां बता सकते हैं, जो चांद को भी लज्जित कर दें।"
अबुल आस- "मैं सौंदर्य का उपासक नहीं ।" अबूसिफियान- "ऐसी लड़कियां दे सकता हूं, जो गृह-प्रबंध में निपुण हों, बातें ऐसी करें कि मुंह से फूल झड़ें, खाना ऐसा पकाएं कि बीमार को भी रुचिकर हो, सिलाई-कढ़ाई में इतनी कुशल कि पुराने कपड़े को नया कर दें। "
अबूलआस—“मैं इन गुणों में से किसी का भी उपासक नहीं। मैं प्रेम और केवल प्रेम का उपासक हूं और मुझे विश्वास है कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में कहीं नहीं मिल सकता।"
अबूसिफियान–“प्रेम होता तो तुम्हें छोड़कर यह बेवफाई करती ?" अबुल आस - "मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए वह अपने आत्म-स्वात्रंय
का त्याग करे।" अबूसिफियान-“इसका आशय यह है कि तुम समाज के विरोधी बनकर रहना चाहते हो। आंखों की कसम ! समाज तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करने देगा। मैं कहे देता हूं, इसके लिए तुम रोओगे।”
अबूसिफियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियां देकर उधर गए, इधर अबुलआस ने लकड़ी सम्भाली और हजरत मुहम्मद के घर जा पहुंचे। शाम हो गई थी, हजरत दरवाजे पर अपने मुरीदों के साथ मगरिब की नमाज पढ़ रहे थे। अबुलआस ने उन्हे सलाम किया और जब तक नमाज होती रही, गौर से देखते रहे। जमाअत का एक साथ उठना-बैठना और झुकना देखकर उनके मन में श्रद्धा की तरंगें उठने लगीं। उन्हें मालूम न होता था कि मैं क्या कर रहा हूं, पर अज्ञात भाव से वह जमाअत के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहां एक-एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था। एक क्षण के लिए अबुल आस भी उसी अंतर-प्रवाह में बह गए। जब नमाज खत्म हुई और लोग सिधारे तो अबुलआस ने हजरत के पास जाकर सलाम किया और कहा-"मैं जैनब को विदा कराने आया हूं।" हजरत ने विस्मित होकर पूछा- “तुम्हें मालूम नहीं कि वह खुदा और
उसके रसूल पर ईमान ला चुकी है ?" - "जी हां, मालूम है।" अबुल आस-
हजरत–“इस्लाम ऐसे सम्बन्धों का विरोध करता है, यह भी तुम्हें मालूम है ?"
हजरत मुहम्मद ने मक्का छोड़कर कहीं ओर चले जाने का निश्चय किया। मक्के में मुस्लिमों के घर सारे शहर में बिखरे हुए थे। एक की मदद को दूसरे मुसलमान न पहुंच सकते थे। हजरत मुहम्मद किसी ऐसी जगह आबाद होना चाहते थे, जहां सब मिले हुए रहें और शत्रुओं की संगठित शक्ति का प्रतिकार कर सकें। अंत में उन्होंने मदीने को पसंद किया और अपने समस्त अनुयायियों को सूचना दे दी । भक्तजन उनके साथ हुए और एक दिन मुस्लिमों ने मक्के से मदीने को प्रस्थान किया। यही हिज़रत थी। मदीने पहुंचकर मुसलमानों में एक नई शक्ति, नई स्फूर्ति का उदय हुआ। वे निःशंक होकर अपने धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी । आत्मविश्वास बढ़ा। इधर भी विधर्मियों का स्वागत करने की तैयारियां होने लगीं। दोनों पक्ष सेना इकट्ठी करने लगे। विधर्मियों ने संकल्प किया कि संसार से इस्लाम का नाम ही मिटा देंगे। इस्लाम ने भी उनके दांत खट्टे करने का निश्चय किया। एक दिन अबुल आस ने आकर पत्नी से कहा-"जैनब, हमारे नेताओं ने इस्लाम पर जिहाद करने की घोषणा कर दी है।" जैनब ने घबराकर कहा-“अब तो वे लोग यहां से चले गए। फिर इस जिहाद की क्या जरूरत ?” अबुल आस- "मक्के से चले गए, अरब से तो नहीं चले गए। उन लोगों की ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं, जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं है। जिहाद में मेरा शरीक होना जरूरी है।"
जैनब-"अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर करता है। शौक से जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी।"
अबुल आस-"मेरे साथ ?" जैनब-“हां, वहां आहत मुसलमानों की सेवा-सुश्रूषा करूंगी।" अबुल आस - "शौंक से चलो।"
घोर संग्राम हुआ। दोनों दल वालों ने खूब दिल के अरमान निकाले । भाई, भाई से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया कि मजहब का बंधन रक्त और वीर्य के बंधन से सुदृढ़ है।
दोनों दल वाले वीर थे। अंतर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी। दिलों में वह अटल विश्वास था, जो नवजात सम्प्रदायों का लक्षण है। विधर्मियों में 'बलिदान' का यह भाव लुप्त था। कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी, पर अंत में उनके धर्मोंत्साह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में कितने ही
मारे गए, कितने की घायल हुए और कितने ही कैद कर लिए गए। अबुल आस भी इन्हीं कैदियों में थे।
जैनब ने ज्योंही सुना कि अबुलआस पकड़ लिए गए, उसने तुरन्त हजरत मोहम्मद की सेवा में मुक्ति धन भेजा। यह वही बहुमूल्य हार था, जो खुदैजा ने उसे दिया था। जैनव अपने पूज्य पिता को उस धर्म संकट में एक क्षण के लिए भी न डालना चाहती थी. जो मुक्ति-धन के अभाव की दशा में उन पर पढ़ता, किन्तु अबुलआस को इच्छा होते हुए भी पक्षपात भय से न छोड़ सके।
सब कैदी हजरत के सामने पेश किए गए। कितने ही तो ईमान लाए, कितनों के घरों से मुक्ति धन आ चुका था, वे मुक्त कर दिए गए। हजरत ने अबुल आस को देखा, सबसे अलग सिर झुकाए खड़े हैं। मुख पर लज्जा का भाव झलक रहा है।
हजरत ने कहा- 'अबुलआस, खुदा ने इस्लाम की हिमायत की, वरना
उसे यह विजय न प्राप्त होती।'
अबुल आस-"अगर आपके कथानुसार संसार में एक ख़ुदा है, तो वह
अपने एक बंदे को दूसरे का गला काटने में मदद हीं दे सकता। मुसलमानों की विजय उनके रणोत्साह से हुई।" एक सहाबी ने पूछा- "तुम्हारा फिदिया (मुक्ति-धन) कहां है ?"
हजरत ने फरमाया-"अबुलआस का हार निहायत बेशकीमती है, इनके
बारे में आप क्या फैसला करते हैं? आपको मालूम है, यह मेरे दामाद हैं ?"
अबूबकर - "आज तुम्हारे घर में जैनब है, जिन पर ऐसे सैकड़ों हार
कुर्बान किए जा सकते हैं।"
अबुल आस-"तो आपका मतलब यह है कि जैनब मेरी फिदिया हो ?" जैद-"बेशक हमारा मतलब यह है।"
अबुल आस-"उससे तो कहीं बेहतर था कि आप मुझे कत्ल कर देते।" अबूबकर "हम रसूल के दामाद को कत्ल नहीं करेंगे, चाहे वह विधर्मी ही क्यों न हो। तुम्हारी यहां उतनी खातिर होगी, जितनी हम कर सकते हैं।" अबुल आस के सामने विषय समस्या थी। इधर यहां की मेहमानी में
अपमान था, उधर जैनब के वियोग की दारुण वेदना थी। उन्होंने निश्चय किया कि यह वेदना सहूंगा, किन्तु अपमान न सहूंगा। प्रेम आत्मा के गौरव पर बलिदान कर दूंगा।
अबुल आस बोले- "मुझे आपका फैसला मंजूर है, जैनब मेरी फिदिया होगी। मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए, उतनी ही होती थी। सुख था, ऐश्वर्य था, धर्म था, पर प्रेम न था। अबुलआस के वियोग में रोया करती थी।
तीन वर्ष युगों की भांति बीते, मगर अबुलआस के दर्शन न हुए। उधर अबुल आस पर उसकी बिरादरी का दबाव पड़ रहा था कि विवाह कर लो, पर जैनब की मधुर स्मृतियां ही उसके प्रणय-वंचित हृदय को तसकीन देने को काफी थीं, वह उत्तरोत्तर उत्साह के साथ अपने व्यवसाय में तल्लीन हो गया। महीनों घर न आता। धनोपार्जन ही अब उसके जीवन का मुख्य आधार था। लोगों को आश्चर्य होता था कि अब यह धन के पीछे क्यों प्राण दे रहा है। निराशा और चिन्ता बहुधा शराब के नशे से शांत होती है, प्रेम उन्माद से। अबुल आस को धनोन्माद हो गया था। धन के आवरण में
ढका हुआ यह प्रेम-नैराश्य था, माया के परदे में छिपा हुआ प्रेम-वैराग्य। एक बार वह मक्के से माल लादकर ईराक की तरफ चला। काफिले में और भी कितने ही सौदागर थे। रक्षकों का एक दल भी साथ था। मुसलमानों के कई काफिले विधर्मियों के हाथों लुट चुके थे। उन्हें ज्यों ही इस काफिले की खबर मिली, जैद ने कुछ चुने हुए आदमियों के साथ उन पर धावा बोल दिया। काफिले के रक्षक लड़े और मारे गए। काफिले वाले भाग निकले। अतुल धन मुसलमानों के हाथ लगा। अबुलआस फिर कैद हो गए।
दूसरे दिन हजरत मुहम्मद के सामने अबुलआस की पेशी हुई। हजरत ने एक बार उसकी तरफ करुण-दृष्टि डाली और सिर झुका लिया। साहिबियों ने कहा-“यह हजरत, अबुलआस के बारे में आप क्या फैसला करते हैं ?"
मुहम्मद–“इसके बारे में फैसला करना तुम्हारा काम है। यह मेरा
दामाद है। सम्भव है, मैं पक्षपात का दोषी हो जाऊं।"
यह कहकर वह मकान में चले गए। जैनब रोकर पैरों पर गिर पड़ी और बोली–‘अब्बाजान, आपने औरों को तो आजाद कर दिया। अबुल आस क्या उन सबसे गया-बीता है ?"
हजरत -“नहीं जैनब, न्याय के पद पर बैठने वाले आदमी को पक्षपात और द्वेष से मुक्त होना चाहिए, यद्यपि यह नीति मैंने ही बनाई है, तो भी अब उसका स्वामी नहीं, दास हूं। मुझे अबुलआस से प्रेम है, मैं न्याय को प्रेमकलंकित नहीं कर सकता।"
सहाबी हजरत की इस नीति-भक्ति पर मुग्ध हो गए। अबुल आस को सब माल असबाब के साथ मुक्त कर दिया।
अबुलआस पर हजरत की न्याय-परायणता का गहरा असर पड़ा। मक्के आकर उन्होंने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों का माल लौटाया, कर्ज अदा किया और घर-बार त्याग कर हजरत मुहम्मद की सेवा में पहुंच गए। जैनब की मुराद पूरी हुई।
मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी गुप्त धन
Munshi Premchand Hindi story Gupt dhan
गुप्त धन ( Gupt Dhan hindi story)
बाबू हरिदास का ईंटों का पजावा शहर से मिला हुआ था। आसपास के देहातों से सैकड़ों स्त्री, पुरुष, लड़के नित्य आते और पजावे से ईंटें सिर पर उठाकर ऊपर कतारों से सजाते। एक आदमी पजावे के पास एक टोकरी में कौड़ियां लिये बैठा रहता था। मजदूरों को ईंटों की संख्या के हिसाब से कौड़ियां बांटता। ईंटें जितनी ही ज्यादा होतीं, उतनी ही ज्यादा कौड़ियां मिलतीं। इस लोभ में बहुत से मजदूर बूते के बाहर काम करते। वृद्धों और बालकों की ईंटों के बोझ से अकड़े हुए देखना एक करुणाजनक दृश्य था । कभी-कभी बाबू हरिदास स्वयं आकर कौड़ी वाले का पास बैठ जाते और ईंटें लादने को प्रोत्साहित करते। यह दृश्य तब और भी दारूण हो जाता था जब ईंटों की कोई असाधारण आवश्यकता आ पड़ती। उसमें मजूरी दूनी कर दी जाती और मजूर लोग अपनी सामर्थ्य से दूनी ईंटें ले कर चलते। एक-एक पग उठना कठिन हो जाता। उन्हें सिर से पैर तक पसीने में डूबे पजावे की राख चढ़ाये ईंटों का एक पहाड़ सिर पर रखें, बोझ से दबे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो लोभ का भूत उन्हें जमीन पर पटक कर उनके सिर पर सवार हो गया है, सबसे करूण दशा एक छोटे लड़के की थी, जो सदैव अपनी अवस्था के लड़कों से दुगनी ईंटें उठाता और सारे दिन अविश्रांत परिश्रम और धैर्य के साथ अपने काम में लगा रहता। उसके मुख पर दीनता छायी रहती थी, उसका शरीर इतना कृश और दुर्बल था कि उसे देखकर दया आ जाती थी। और लड़के बनिये की दुकान गुड़ लाकर खाते, कोई सड़क पर जाने वाले इक्कों और हवागाड़ियों की बहार देखता और कोई व्यक्तिगत संग्राम में अपनी जिह्वा और बाहु के जौहर दिखाता, लेकिन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चंचलता थी, न शरारत, न खिलाड़ीपन, यहां तक कि उसके होठों पर कभी हंसी भी न आती थी। बाबू हरिदास को उसकी दशा पर दया आती। कभी- कभी कौड़ी वाले को इशारा करते कि उसे हिसाब से अधिक कौड़ियां दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देते।
एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुलाकर अपने पास बैठाया और उसके समाचार पूछने लगे। ज्ञात हुआ कि उसका घर पास ही के गांव में है। घर में एक वृद्ध माता के सिवा और कोई नहीं है और वह वृद्धा भी किसी पुराने रोग से ग्रस्त रहती है। घर का सारा भार इसी लड़के के सिर था। कोई उसे रोटियां बनाकर देने वाला भी न था। शाम को जाता तो अपने हाथों से रोटियां बनाता और अपनी मां को खिलाता था। जाति का ठाकुर था। किसी समय उसका कुल धन-धान्य सम्पन्न था। लेन-देन होता था और शक्कर का कारखाना चलता था। कुछ जमीन भी थी किन्तु भाइयों की स्पर्धा और विद्वेष ने उसे इतनी हीनावस्था को पहुँचा दिया कि अब रोटियों के लाले थे। लड़के का नाम मगनसिंह था।
हरिदास ने पृष्ठा—गांववाले तुम्हारी कुछ मदद नहीं करते ? मगन-वह, उनका वश चले तो मुझे मार डालें। सब समझते हैं कि मेरे घर में रुपये गड़े हैं। हरिदास ने उत्सुकता से पूछा-पुराना घराना है, कुछ-न-कुछ तो होगा ही तुम्हारी मां ने इस विषय में तुमसे कुछ नहीं कहा ? मगन- बाबूजी नहीं, एक पैसा भी नहीं। रुपये होते तो अम्मां इतनी तकलीफ क्यों उठातीं ?
बाबू हरिदास मगनसिंह से इतने प्रसन्न हुए कि मजूरों की श्रेणी से उठाकर अपने नौकरों में रख लिया। उसे कौड़ियां बांटने का काम दिया और पजावे में मुंशी जी को ताकीद कर दी कि इसे कुछ पढ़ना-लिखना सिखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे। मगनसिंह बड़ा कर्त्तव्यशील और चतुर लड़का था। उसे कभी देर न होती, कभी नागा न होता। थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साहब का विश्वास प्राप्त कर लिया। लिखने-पढ़ने में भी कुशल हो गया। बरसात के दिन थे। पजावे में पानी भरा हुआ था। कारोबार बंद था। मगनसिंह तीन दिनों से गैरहाजिर था। हरिदास को चिंता हुई, क्या बात है, कहीं बीमार तो नहीं हो गया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी? कई आदमियों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला। चौथे दिन पूछते-पूछते मगनसिंह के घर पहुँचे। घर क्या था पुरानी समृद्धि का ध्वंसावशेष मात्र था। उनकी आवाज सुनते ही मगनसिंह बाहर निकल आया। हरिदास ने पूछा-कई दिन से आये क्यों नहीं, माता का क्या हाल है ?
मगनसिंह ने अवरुद्ध कंठ से उत्तर दिया-अम्मां आजकल बहुत बीमार है, कहती है अब न बचूंगी। कई बार आपको बुलाने के लिए मुझसे कह चुकी है, पर मैं संकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गये हैं, तो जरा चलकर उसे देख लीजिए। उसकी लालसा भी पूरी हो जाय। हरिदास भीतर गये। सारा घर भौतिक निस्सारता का परिचायक था। सुर्खी, कंकड़, ईंटों के ढेर चारों ओर पड़े हुए थे। विनाश का प्रत्यक्ष स्वरूप था। केवल दो कोठरियां गुजर करने लायक थीं। मगनसिंह ने एक कोठरी की ओर से उन्हें इशारे से बताया। हरिदास भीतर गये तो देखा कि वृद्धा एक सड़े हुए काठ के टुकड़े पर पड़ी कराह रही है।
उनकी आहट पाते ही आंखें खोलीं और अनुमान से पहचान गयी, बोली- आप आ गये, बड़ी दया की। आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। मेरे अनाथ बालक के नाथ अब आप ही हैं। जैसे आपने अब तक उसकी रक्षा की है, वही निगाह उस पर सदैव बनाये रखिएगा। मेरी विपत्ति के दिन पूरे हो गये। इस मिट्टी को पार लगा दीजिएगा। एक दिन घर में लक्ष्मी का वास था। अदिन आये तो उन्होंने भी आंखे फेर लीं। पुरखों ने इसी दिन के लिए थाती धरती माता को सौंप दी थी। उसका बीजक बड़े यत्न से रखा था; पर बहुत दिनों से उसका कहीं पता न लगता था। मगन के पिता ने बहुत खोजा पर न पा सके, नहीं तो हमारी दशा इतनी हीन न होती। आज तीन दिन हुए मुझे वह बीजक आप ही आप रद्दी कागजों में मिल गया। तब से छिपाकर रखे हुए हूँ, मगन बाहर है। मेरे सिरहाने जो बंदूक रखी है, उसी में वह बीजक है। उसमें सब बातें लिखी हैं। उसी से ठिकाने का पता चलेगा। अवसर मिले तो उसे खुदवा डालिएगा। मगन को दे दीजिएगा। यही कहने के लिए आपको बार-बार बुलवाती थी। आपके सिवा मुझे किसी पर विश्वास न था। संसार से धर्म उठ गया। किसकी नीयत पर भरोसा किया जाए।
हरिदास ने बीजक का समाचार किसी से न कहा। नीयत बिगड़ गयी। दूध में मक्खी पड़ गयी। बीजक से ज्ञात हुआ कि धन उस घर से 500 डग पश्चिम की ओर एक मंदिर के चबूतरे के नीचे है। हरिदास धन को भोगना चाहते थे, पर इस तरह किसी को कानोकान खबर न हो। काम कष्ट-साध्य था। नाम पर धब्बा लगने की प्रबल आशंका थी जो संसार में सबसे बड़ी यंत्रणा है। कितनी घोर नीचता थी। जिस अनाथ की रक्षा की, जिसे बच्चे की भांति पाला, उसके साथ विश्वासघात । कई दिनों तक आत्म-वेदना की पीड़ा सहते रहे। अंत में कुतर्क ने विकेक को परास्त कर दिया। मैंने कभी धर्म का परित्याग नहीं किया और न कभी करूंगा। क्या कोई ऐसा प्राणी भी है जो जीवन में एक बार भी विचलित न हुआ हो। यदि है तो वह मनुष्य नहीं देवता है। मैं मनुष्य हूँ। मुझे देवताओं की पंक्ति में बैठने का दावा नहीं है।
मन को समझाना बच्चे को फुसलाना है। हरिदास सांझ को सैर करने के लिए घर से निकल जाते। जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता तो मंदिर के चबूतरे पर आ बैठते और एक कुदाली से उसे खोदते। दिन में दो एक बार इधर-उधर तांक-झांक करते कि कोई चबूतरे के पास खड़ा तो नहीं है। रात की निस्तब्धता में उन्हें अकेले बैठे ईंटों को हटाते हुए उतना ही भय होता था जितना की किसी भ्रष्ट वैष्णव को आमिष भोजन से होता है।
चबूतरा लम्बा-चौड़ा था। उसे खोदते एक महीना लग गया और अभी आधी मंजिल भी तय न हुई। इन दिनों उनकी दशा उस मनुष्य की सी थी, जो कोई मंत्र जगा रहा हो। चित्त की चंचलता छायी रहती। आंखों की ज्योति तीव्र हो गयी थी। बहुत गुम-सुम रहते, मानों ध्यान में हो। किसी से बातचीत न करते, अगर कोई छेड़कर बात करता तो झुंझला पड़ते। पंजावे की ओर बहुत कम जाते। विचारशील पुरुष थे। आत्मा बार बार इस कुटिल व्यापार से भागती, निश्चय करते कि अब चबूतरे की ओर न जाऊंगा, पर संध्या होते ही उन पर एक नशा-सा छा जाता, बुद्धि-विवेक का अपहरण हो जाता। जैसे कुत्ता मार खाकर थोड़ी देर के बाद टुकड़े के लालच में जा बैठता है, वही दशा उनकी थी। यहां तक कि दूसरा मास भी व्यतीत हुआ ।
अमावस की रात थी। हरिदास मलिन हृदय में बैठी हुई कालिमा की भांति चबूतरे पर बैठे हुए थे। आज चबूतरा खुद जायेगा। जरा देर तक और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई चिंता नहीं। घर में लोग चिंतित हो रहे होंगे। पर अभी निश्चित हुआ जाता है कि चबूतरे के नीचे क्या है। पत्थर का तहखाना निकल आया तो समझ जाऊंगा कि धन अवश्य होगा। तहखाना न मिले तो मालूम हो जायेगा कि सब धोखा ही धोखा है। कहीं सचमुच तहखाना न मिले तो बड़ी दिल्लगी हो। मुफ्त में उल्लू बनूं। पर नहीं, कुदाली खट-खट बोल रही है। हां, पत्थर की चट्टान है। उन्होंने टटोल कर देखा । भ्रम दूर हो गया। चट्टान थी। तहखाना मिल गया; लेकिन हरिदास खुशी से उछले-कूदे नहीं।
● आज वे लौटे तो सिर में दर्द था। समझे थकान है। लेकिन यह थकान नींद से न गयी। रात को ही उन्हें जोर से बुखार हो गया। तीन दिन तक ज्वार में पड़े रहे। किसी दवा से फायदा न हुआ।
इस रुग्णावस्था में हरिदास को बार-बार भ्रम होता था-कहीं यह मेरी तृष्णा का दंड तो नहीं है। जी में आता था, मगनसिंह को बीजक दे दूं और क्षमा की याचना करूं; पर भंडाफोड़ होने का भय मुंह बंद कर देता था। न जाने ईसा के अनुयायी अपने पादरियों के सम्मुख कैसे अपने जीवन भर के पापों की कथा सुनाया करते थे ?
हरिदास की मृत्यु के पीछे यह बीजक उसके सुपुत्र प्रभुदास के हाथ लगा। बीजक मगनसिंह के पुरखों का लिखा हुआ है, इसमें लेशमात्र भी | संदेह न था। लेकिन उन्होंने सोचा-पिताजी ने कुछ सोचकर ही इस मार्ग पर पग रखा होगा। वे कितने नीतिपरायण, कितने सत्यवादी पुरुष थे। उनकी नीयत पर कभी किसी को संदेह नहीं हुआ। जब उन्होंने इस आचार को- घृणित नहीं समझा तो मेरी क्या गिनती है। कहीं यह धन हाथ आ जाय तो कितने सुख से जीवन व्यतीत हो। शहर के रईसों को दिखा दूं कि धन का सदुपयोग क्योंकर होना चाहिए? बड़े-बड़ों का सिर नीचा कर दूं। कोई आंखें न मिला सके। इरादा पक्का हो गया। शाम होते ही वे घर से बाहर निकले। वहीं समय था, वही चौकन्नी आंखें थीं और वही तेज कुदाली थी। ऐसा ज्ञात होता था कि मानो हरिदास की आत्मा इस नये भेष में अपना काम कर रही है।
चबूतरे का धरातल पहले ही खुद चुका था। अब संगीन तहखाना था, जोड़ों को हटाना कठिन था। पुराने जमाने का पक्का मसाला था; कुल्हाड़ी उचट उचट कर लौट आती थी। कई दिनों में ऊपर की दरारें खुलीं, लेकिन चट्टानें जरा भी न हिलीं । तब वह लोहे की छड़ से काम लेने लगे, लेकिन कई दिनों तक जोर लगाने पर भी चट्टानें न खिसकीं। सब कुछ अपने ही हाथों करना था। किसी की सहायता न मिल सकती थी। यहां तक कि फिर वही अमावस्या की रात आयी। प्रभुदास को जोर लगाते बारह बज गये और चट्टानें भाग्य रेखाओं की भांति अटल थी। पर, आज इस समस्या को हल करना आवश्यक था। कहीं तहखाने पर किसी की निगाह पड़ जाय तो मेरे मन की लालसा मन में ही रह जाय ।
वह चट्टान पर बैठकर सोचने लगे-क्या करूं, बुद्धि कुछ काम नहीं करती। सहसा उन्हें एक युक्ति सूझी, क्यों न बारूद से काम लूं ? इतने अधीर हो रहे थे कि कल पर इस काम को न छोड़ सके। सीधे बाजार की तरफ चले, दो मील तक का रास्ता हवा की तरह तय किया। पर वहां पहुँचे तो दुकानें बंद हो चुकी थीं। आतिशबाज हीले करने लगा। बारूद इस समय नहीं मिल सकती। सरकारी हुक्म नहीं है। तुम कौन हो ? इस वक्त बारूद लेकर क्या करोगे ? न भैया; कोई वारदात हो जाय तो मुफ्त फिरूंगा। तुम्हें कौन पूछेगा ? में बंधा-बंधा प्रभुदास की शांति-वृत्ति कभी इतनी कठिन परीक्षा में न पड़ी थी। वे अंत तक अनुनय-विनय ही करते रहे, यहां तक कि मुद्राओं की सुरीली झंकार से उसे वशीभूत कर लिया। प्रभुदास यहां से चले तो धरती पर पांव न पड़ते थे।
रात के दो बजे थे। प्रभुदास मंदिर के पास पहुंचे। चट्टानों की दराजों में बारूद रख पतीला लगा दिया और दूर भागे। एक क्षण में बड़े जोर क धमाका हुआ। चट्टान उड़ गयी। अंधेरा गार सामने था, मानों कोई पिशार उन्हें निगल जाने के लिए मुंह खोले हुए है।
• प्रभात का समय था। प्रभुदास अपने कमरे में लेटे हुए थे। सामने लोहे के संदूक में दस हजार पुरानी मुहरें रखीं हुई थी। उनकी माता सिरहाने बैठ पंखा झल रही थी। प्रभुदास ज्वार की ज्वाला में जल रहे थे। करवटें बदलते थे, करहाते थे, हाथ-पांव पटकते थे; पर आंखें लोहे के सन्दूक की ओर लगी हुई थीं। इसी में उनके जीवन की आशाएं बंद थीं।
मगनसिंह अब पजावे का मुंशी था। इसी घर में रहता था। आकर बोला- पजावे चलिएगा ? गाड़ी तैयार कराऊं ? प्रभुदास ने उसके मुख की ओर क्षमा-याचना की दृष्टि से देखा और बोले-नहीं, मैं आज न चलूंगा, तबीयत अच्छी नहीं है। तुम भी मत जाओ
मगनसिंह उनकी दशा देखकर डॉक्टर को बुलाने चला। दस बजते-बजते प्रभुदास का मुख पीला पड़ गया। आंखें लाल है गयीं। माता ने उनकी ओर देखा तो शोक विह्वल हो गयीं। बाबू हरिदास की अंतिम दशा उसकी आंखों में फिर गयी। जान पड़ता था, यह उसी शोक घटना की पुनरावृत्ति है। वह देवताओं की मनौतियां मान रहीं थीं, किन्तु प्रभुदास की आंखें उसी लोहे के संदूक की ओर लगी हुई थीं, जिस पर उन्होंने अपनी आत्मा अर्पण कर दी थी।
उनकी स्त्री आकर उनके पैताने बैठ गयी और बिलख-बिलख कर रोने लगी। प्रभुदास की आंखों से भी आंसू बह रहे थे, पर वे आंखें उसी लोहे के संदूक की ओर निराशा पूर्ण भाव से देख रही थीं। डॉक्टर ने आकर देखा, दवा दी और चला गया, पर दवा का असर उल्टा हुआ। प्रभुदास के हाथ-पांव सर्द हो गये, मुख निस्तेज हो गया, हृदय की गति मंद पड़ गयी, पर आंखें संदूक की ओर से न हटीं ।
मुहल्ले के लोग जमा हो गये। पिता और पुत्र के स्वभाव और चरित्र पर टिप्पणियां होने लगीं। दोनों शील और विनय के पुतले थे। किसी को भूलकर भी कड़ी बात न कही। प्रभुदास का सम्पूर्ण शरीर ठंडा हो गया था। प्राण था तो केलय आंखों में। वे अब भी उसी लोहे के सन्दूक की ओर सतृष्ण भाव से देख रही थीं।
घर में कोहराम मचा हुआ था। दोनों महिलाएं पछाड़े खा-खा कर में गिरती थीं। मुहल्ले की स्त्रियां उन्हें समझाती थीं। अन्य मित्रगण आंखों पर रुमाल जमाये हुए थे। जवानी की मौत संसार का सबसे करुण, सबसे अस्वाभाविक और भयंकर दृश्य है। यह वज्रघात है, विधाता की निर्दयी लीला है। प्रभुदास का सारा शरीर प्राणहीन हो गया था, पर आंखे जीवत थीं। वे अब भी उसी संदूक की ओर लगी हुई थीं। जीवन ने तृष्णा का रूप धारण कर लिया था। सांस निकलती है, पर आस नहीं निकलती ।
इतने में मगनसिंह आकर खड़ा हो गया। प्रभुदास की निगाह उस पर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानो उसके शरीर में फिर से रक्त का संचार हुआ। अंगों में स्फूर्ति के चिन्ह दिखाई दिये। इशारे से अपने मुंह के निकट बुलाया, उसके कान में कुछ कहा, एक बार लोहे के सन्दूक की ओर इशारा किया और आंखें उलट गयीं, प्राण निकल गये।
प्रेमचंद हिंदी कहानी घर जमाई
premchand ki hindi kahani Ghar jamai
हरिधन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुआं उठता नजर आया था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गये। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये, पर हरिधन अंदर न जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहां जो बर्ताव हो रहा था और विशेषकर उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पांव में बेड़ियां-सी डाले हुए थे। कल उसकी सास ने तो कहा था, मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारी जिंदगी भर का ठीका लिये बैठी हूं क्या-और सबसे बढ़कर अपने स्त्री की निठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े कर दिये थे।
वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार भी तो उसके मुंह से न निकला, अम्मां, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो ! बैठी गट-गट सुनती रही। शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी। इस घर में वह कैसे जाये ? क्या फिर वही गालियां खाने, वही फटकार सुनने के लिये ? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है। मैं किसी से कम काम करता हूं। दोनों साले मीठी नींद सोते रहते हैं और मैं बैलों को सानी- पानी देता हूं, छांटी काटता हूं। वहां सब लोग पल-पल पर चिलम पीते हैं, मैं आंखें बंद किये अपने काम में लगा रहता हूं। संध्या समय घरवाले गाने- बजाने चले जाते हैं, मैं घड़ी रात तक गायें-भैंसें दुहता रहता हूं। उसका यह पुरस्कार मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उल्टे गालियां मिलती हैं। उसकी स्त्री घर में से डोल लेकर निकली और बोली- जरा इसे कुयें से खींच लो। एक बूंद पानी नहीं है।
हरिधन ने डोल लिया और कुयें से पानी भर लाया। उसे जोर से भूख लगी हुई थी, समझा अब खाने को बुलाने आवेगी, मगर स्त्री डोल लेकर अंदर गई तो वहीं की हो रही। हरिधन थका-मांदा क्षुधा से व्याकुल पड़ा- पड़ा सो गया। सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आकर उसे जगाया। हरिधन ने पड़े-पड़े कहा-क्या है? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिये।
गुमानी कटु स्वर में बोली–गुर्राते क्या हो, खाने को तो बुलाने आई हूँ। हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किये चले आ रहे थे। उसकी देह में आग लग गई। मेरी अब यह नौबत पहुंच गई कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता! ये लोग मालिक हैं। मैं इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूं। मैं इनका कुत्ता हूं, जिसे खाने के बाद एक टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है। यही घर है जहां आज से दस साल पहले उसका कितना आदर-सत्कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास मुंह जोहती रहती थी। स्त्री पूजा करती थी। जब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। अब वह दरिद्र है, उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले हैं। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक्त अंदर जाकर सास को और सालों को भिगो- भिगोकर लगाए: पर जब्त करके रह गया। पड़े-पड़े बोला- मुझे भूख नहीं है। आज न खाऊंगा। गुमानी ने कहा- न खाओगे मेरी बला से, हां नहीं तो! खाओगे, तुम्हारे पेट में जायेगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायेगा।
हरिधन का क्रोध आंसू बन गया। यह मेरी स्त्री है, जिसके लिये मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब निकाल देना चाहते हैं। वह अब कहां जाये! क्या करे! उसकी सास आकर बोली-चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो ? यहां तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं है। जो देते हो वह मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी ब्याही है, कुछ तुम्हारी जिंदगी का ठीका नहीं लिया है। "हरिधन ने मर्माहत होकर कहा-हा अम्मा, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी जिंदगी का ठीका लोगी। जब मेरे पास भी धन था तब सब कुछ आता था। अब दरिद्र हूँ, तुम क्यों बात पूछोगी। बूढी सास भी मुंह फुलाकर भीतर चली गई। बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज-एक विलास की वस्तु है, जैसे घोड़े के लिये चने या बाबुओं के लिये मोहनभोग। मां रोटी-दाल है।
मोहनभोग उम्र भर न मिले तो किसका नुकसान है; मगर एक दिन रोटी- दाल के दर्शन न हों, तो फिर देखिये क्या हाल होता है। पिता के दर्शन कभी-कभी शाम-सवेरे हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में लेकर या उंगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसके कर्त्तव्य की इति है। वह परदेश चला जाये, बच्चों को परवा नहीं होती; लेकिन मां तो बच्चों का सर्वस्व है। बालक एक मिनट के लिये भी उसका वियोग नहीं सह सकता। पिता कोई हो, उसे परवा नहीं, केवल एक उछलने-कूदने वाला आदमी होना चाहिये; लेकिन माता तो अपनी ही होनी चाहिये, सोलहों आने अपनी; वही रूप, वही रंग, वही प्यार, वही सब कुछ। वह अगर वहीं है तो बालक के जीवन का स्त्रोत मानो सूख जाता है, फिर वह शिव का नंदी है, जिस पर फूल या जल चढ़ाना लाजिमी नहीं, अख्तियारी है । हरिधन की माता का आज दस साल हुए देहांत हो गया था, उस वक्त उसका विवाह हो चुका था। वह सोलह साल का कुमार था।
पर मां के मरते ही उसे मालूम हुआ, मैं कितना निसस्हाय हूं। जैसे उस घर पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो। बहनों के विवाह हो चुके थे। भाई कोई दूसरा न था । बेचारा अकेला घर में जाते भी डरता था। मां के लिये रोता था, पर मां की परछाई से डरता था। जिस कोठरी में उसने देह त्याग दिया था, उधर वर आंखें तक न उठाता। घर में एक बुआ थी, वह हरिधन को बहुत दुलार करती । हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता, काम भी कम करना पड़ता। बुआ बार-बार पूछती-बेटा! कुछ खाओगे ? बाप भी अब उसे प्यार करता, उसके लिये अलग एक गाय मंगवा दी, कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे देता कि जैसे चाहे खर्च करे। पर इन मरहमों से वह घाव न पूरा होता था, जिसने उसकी आत्मा को आहत कर दिया था। यह दुलार और उसे बार-बार मां की याद दिलाता। मां की घुड़कियों में जो मजा था, वह क्या इस दुलार था? मां से मांगकर, लड़कर, घुनककर, रूठकर लेने में जो आनंद था, वह क्या इस भिक्षादान में था ? पहले वह स्वस्थ था, मांगकर खाता, लड़- लड़कर खाता; अब वह बीमार था, अच्छे-से-अच्छे पदार्थ उसे दिये जाते थे; पर भूख न थी।
साल-भर तक वह इस दशा में रहा। फिर दुनिया बदल गई। एक नई स्त्री जिसे लोग उसकी माता कहते थे, उसके घर में आई और देखते-देखते एक काली घटा की तरह उसके संकुचित भूमंडल पर छा गई सारी हरियाली, सारे प्रकाश पर अंधकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली मां से बात तक न की, कभी उसके पास गया तक नहीं। एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया।
बाप ने बार-बार बुलाया: पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में गया। जिस दिन उसके पिता के देहान्त की सूचना मिली, उसे एक प्रकार का ईर्ष्यामय हर्ष हुआ। उसकी आंखों से आंसू की एक बूंद भी न आई। न इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ-स्नेह का आनंद मिला। उसकी सास ने ऋषि-वरदान की भांति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया। मरुभूमि में हरियाली उत्पन्न हो गई। सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन की सारी आकांक्षायें पूरी हो गयीं। सास कहती- बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आंखों के तारे हो।
वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था, सास जी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं। बाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से की जायदाद को कूड़ा करके रुपयों की थैली लिये हुए आ गया। अब उसका दूना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी संपत्ति सास के चरणों पर अपर्ण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भीषण कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिये अच्छा था। वह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसका मनोयोग, उसका परिश्रम देखकर गांव के लोग दांतों तले उंगली दबाते थे। उसके ससुर का भाग बखानते, जिसे ऐसा दामाद मिल गया; लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गये, उनका मान-सम्मान घटता गया। पहले देवता था, फिर घर का आदमी, अंत में घर का दास हो गया। रोटियों में भी बाधा पड़ गई। अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत न होती। लेकिन जब देखता, और लोग मूंछों पर ताव दे रहे हैं, केवल मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूं, तो उसके अंतस्तल से एक लम्बी, ठंडी आह निकल आती। अभी उसकी उम्र पच्चीस ही साल की थी। इतनी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी? और तो और उसकी स्त्री ने भी आंखें फेर ली! यह उस विपत्ति का सबसे क्रूर दृश्य था ।
हरिधन तो उधर भूखा-प्यासा चिंता दाह में जल रहा था, इधर घर में सास जी और दोनों सालों में बातें हो रही थीं। गुमानी भी हां में हां मिलाती जाती थी। बड़े साले ने कहा-हम लोगों की बराबरी करते हैं। यह नहीं समझते कि किसी ने उनकी जिंदगी भर का बीड़ा थोड़े ही लिया है। दस साल हो गये। इतने दिनों में क्या दो-तीन हजार न हड़प गये होंगे ?- छोटे साले बोले-मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, डांटे भी, अब इनसे क्या कहें। न जाने इनसे कभी पिंड छूटेगा भी या नहीं। अपने दिल में समझते होंगे, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिये हैं? यह नहीं समझते कि उनके दो हजार कब के उड़ चुके। सवा सेर तो एक जून को चाहिये । सास ने गंभीर भाव से कहा-बड़ी भारी खोराक है! गुमानी माता के सिर से जूं निकाल रही थी। सुलगते हुए हृदय से बोली- निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है ? बड़े साले-खाने की कोई बात नहीं है। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाये, लेकिन कुछ पैदा भी तो करना चाहिये। यह नहीं समझते कि पहुनई में किसी के दिन कटे हैं! छोटे साले-मैं एक दिन कह दूंगा, अब अपनी राह लीजिये, आपका करजा नहीं खाया है।
गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इसी घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बनकर रहती । न जाने क्यों बाहर जाकर कमाते उसकी नानी मरती है। गुमानी की मनोवृत्तियां अभी तक बिलकुल बालकपन की-सी थीं। उसका अपना कोई घर न था । उसी घर का हित- अहित उसके लिये प्रधान था। वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आंखों से देखती जैसे उसके घरवाले देखते थे। सच तो, दो हजार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे ? दस साल में दो हजार होते ही क्या हैं। दो सौ ही तो साल भर के हुए। क्या दो आदमी साल भर में दो सौ भी न खायेंगे। फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये एक पीतल का छल्ला नहीं बना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्रान निकलते हैं। जानते हैं जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जन्म-भर होती रहेगी। यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी, अब और बात है । बहू ही पहले ससुराल जाती है तो कितना महातम होता है। उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गांव-मुहल्ले की औरतें उसका मुंह देखने आती हैं और रुपये देती हैं। महीनों उसे घर भर से अच्छा खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता; लेकिन छः महीने के बाद कोई उसकी बात नहीं पूछता, वह घर-भर की लौंडी हो जाती है। उनके घर में मेरी भी तो वही गति होती। फिर काहे का रोना। जो यह कहो कि मैं तो काम
करता हूँ, तो तुम्हारी भूल है, मजूर की और बात है। उसे आदमी डांटता भी है, मारता भी है, जब चाहता है, रखता है, जब चाहता है, तब निकाल देता है। कसकर काम लेता है। यह नहीं है कि जब जी में आया, कुछ काम किया, जब जी में आया, पड़कर सो रहे । हरिधन अभी पड़ा अंदर-ही-अंदर सुलग रहा था, कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले-भैया, उठो तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे? सारा खेत पड़ा हुआ है। हरिधन चट उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला- क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है ? दोनों साले हक्का-बक्का हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बांधे हाजिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो जाये, यह उनको चौंका देने के लिये काफी था। कुछ जवाब न सूझा..हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढंग से बोला- मेरी भी आँखें हैं। अंधा नहीं हूं, न बहरा ही हूं। छाती फाड़कर काम करूं और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊं; ऐसे गधे कहीं और होंगे !
अब बड़े साले भी गर्म पड़े तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है। अबकी हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी। बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा- अगर तुम यह चाहो कि जन्म-भर पाहुने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहे तो यह हमारे वश की बात नहीं है...हरिधन ने आंखें निकालकर कहा- क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूं। बड़े साले - यह कौन कहता है ? हरिधन तो तुम्हारे घर की नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखों मारा जाये ? बड़े साले -तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर डाल देता ? हरिधन ने ओंठ चबाकर कहा-मैं खुद खाने नहीं गया ? कहते तुम्हें लाज नहीं आती ? नहीं है, तो क्या करतीं। प्रेमचंद की सदाबहार कहानियां
"नहीं आयी थी बहन तुम्हें बुलाने ?" छोटे साले ने कहा-अम्मां भी तो आई थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख
सास भीतर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोला- कितना कहकर हार गई, कोई उठे न तो मैं क्या करूं? हरिधन ने विष, खून और आग से भरे स्वर में कहा-मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिये हूं? मैं कुत्ता हूं कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रूखी रोटी का एक टुकड़ा फेंक दो ? बुढ़िया ने ऐंठकर कहा- तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे ? हरिधन परास्त हो गया। बुढ़िया ने एक ही वाक् प्रहार में उसका काम तमाम कर दिया। उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गयीं, आंखों की आग बुझ गई, फड़कते हुए नथुने शान्त हो गये। किसी आहत मनुष्य की भांति वह जमीन पर गिर पड़ा। 'क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?' यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था-न हृदय का अंत था, न उस भाले का। सारे घर ने खाया; पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर थक गये। हरिधन न उठा, वहीं द्वार पर एक टाट पर पड़ा था। उसे उठाकर सबसे अलग कुयें पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ा रहा।
रात भीग चुकी थी। अनन्त आकाश में उज्जवल तारे बालकों की भांति क्रीड़ा कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आंखें मींचकर फिर खोल देता था। रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहां छिप जाता था। हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल-स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्जवलित हो गईं। वह अपना छोटा-सा घर, वह आम के बाग जहां वह केरियां चुना करता था, वह मैदान जहां कबड्डी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपने स्नेहमयी माता की सदह मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गई। उन आंखों में कितनी करूणा थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा जान पड़ा मानो माता आंखों में आंसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिये हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है। वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ा मानो माता ने छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर हाथ फेर रही है। वह रोने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा। उसी आत्म-सम्मोहित दशा में उसके मुंह से यह शब्द निकले-अम्मां, तुमने मुझे इतना भुला दिया, देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है ? कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता। क्या जहां तुम हो, वहां मेरे लिये जगह है ?
सहसा गुमानी ने आकर पुकारा-क्या सो गये तुम, नौज किसी को राक्षसी नींद आये! चलकर खा क्यों नहीं लेते? कब तक कोई तुम्हारे कि बैठा रहे ? हरिधन उस कल्पना जगत से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया। वही कुये जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी-के तक कोई तुम्हारे लिये बैठा रहे ? हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला-भ तुम्हें मेरी सुध तो आई। मैंने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है। गुमानी तो कै दिन न खाओगे ?
"अब इस घर का पानी न पीऊंगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं? दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठ बोली-कहां जा रहे हो ? हरिधन ने मानो नशे में कहा- तुझे इससे क्या मतलब? मेरे साम चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं। गुमानी आपत्ति के भाव से बोली-तुम बताते क्यों नहीं, कहां जा रहे हो "तू मेरे साथ चलेगी या नहीं ?" "जब तक तुम बता न दोगे, मैं नहीं जाऊंगी।" “तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना या नहीं अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता।” यह कहकर वह उठा और अपने घर की ओर चला। गुमानी पुकारती रही - "सुन लो, सुन लो"; पर उसने पीछे फिरकर भी न देखा।
तीस मील की मंजिल हरिधन ने पांच घंटों में तय की। जब वह अपने गांव की अमराइयों के सामने पहुंचा, तो उसकी मातृ-भावना ऊषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन वृक्षों को देखकर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा। मंदिर का वह सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा मानी एक छलांग में उसके ऊपर जा पहुंचेगा। वह वेग में दौड़ा जा रहा था मानो उसकी माता गोद फैलाये उसे बुला रही हो। जब वह आमों के बाग पहुंचा, जहां डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनंद पाता था. जहां की कच्ची बेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुकाकर रोने लगा, मानो अपनी माता को अपनी | में
विपत्ति-कथा सुना रहा हो। वहां की वायु में, वहां के प्रकाश में, मानो उसकी विराट रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी, वहां की अंगुल-अंगुल भूमि माता के पद-चिन्हों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानो आकाश में गूंज रहे थे । इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन- सी संजीवनी थी जिसने उसके शोकार्त्त हृदय को बालोत्साह से भर दिया। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और अधर से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द, स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान वह भूल गया। उसके पांव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनंद में उसे किसी बात का ध्यान न था ।
सहसा रखवाले ने पुकारा- वह कौन ऊपर चढ़ा हुआ है रे ? उतर अभी, नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा कि वहीं ठंडे हो जाओगे। उसने कई गालियां भी दीं। इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को अलौकिक आनंद मिल रहा था। वह डालियों में छिप गया, कई आम काट-काटकर नीचे गिराए, और जोर से ठट्ठा मारकर हँसा । ऐसी उल्लास से भरी हुई हँसी उसने बहुत दिन से न हँसी थी ।
रखवाले को वह हँसी परिचित-सी मालूम हुई। मगर हरिधन यहां कहां! वह तो ससुराल की रोटियां तोड़ रहा है। कैसा हँसोड़ा था, कितना चिबिल्ला! न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ ? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गांव में ऐसा कौन है ?
डांटकर बोला-वहां बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी निकाल दूंगा, नहीं सीधे से उतर आओ। वह गालियां देने जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी। सिर सहलाता हुआ बोला- यह कौन शैतान है ? नहीं मानता, तो, मैं आकर तेरी खबर लेता हूं। ठहर
उसने अपनी लकड़ी नीचे रख और बंदरों की तरह चटपट ऊपर चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुस्करा रहा है। चकित होकर बोला- अरे हरिधन! तुम यहां कब आये ? इस पेड़ पर कब से बैठो हो ?
दोनों बचपन-सखा वहीं गले मिले।
"यहां कब आये ? चलो, घर चलो भले आदमी, क्या वहां आम भी मयस्सर न होते थे ?"
हरिधन ने मुस्कराकर कहा-मंगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं है। गांव का क्या रंग-ढंग है ?
मंगरू-सब चैनचान है भैया! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गांव-घर छोड़ देता है ? जब से तुम्हारे दादा मरे सारी 35
गिरस्ती चौपट हो गई। दो छोटे-छोटे लड़के हैं उनके किये क्या होता है ? हरिधन- मुझे अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई ? मैं तो अपना ले-दे चुका । मजूरी तो मिलेगी न ? तुम्हारी गैया मैं ही चरा दिया करूंगा. मुझे खाने को दे देना।
मंगरू ने अविश्वास के भाव से कहा-अरे भैया कैसी बात करते हो, तुम्हारे लिये जान तक हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे ? कोई चिंता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे संभालो ! छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो। तुम नई अम्मां से नाहक डरते थे। बड़ी सीधी है बेचारी! बस, अपनी मां ही समझो, तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायेगी। अच्छा घरवाली को भी तो लाओगे ? हरिधन-उसका मुंह अब न देखूंगा। मेरे लिये वह मर गई।
मंगरू–तो दूसरी सगाई हो जायेगी। अबकी ऐसी मेहरिया ला दूंगा उसके पैर धो-धोकर पिओगे; लेकिन कहीं पहली भी आ गई तो ? हरिधन वह न आयेगी।
हरिधन अपने घर पहुंचा तो दोनों भाई, 'भैया आये!' कहकर भीतर दौड़े और मां को खबर दी । उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ है। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहां पहले अभिमान था, आग्रह था, हेकड़ी थी, वहां अब निराशा थी, पराजय थी और याचना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था, तब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थी; किले की दीवारें छिद चुकी थीं, अब उसमें घुस जाना असाध्य न था । वही घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। हरिधन का निरावलम्ब मन यह आश्रय पाकर मानो तृप्त हो गया।
शाम को विमाता ने कहा- बेटा तुम घर आ गये, हमारे धन भाग । अब इन बच्चों को पालो; मां का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी। तुम्हारी अम्मां से मेरा बहना का नाता है। उस नाते से भी तुम मेरे लड़के होते हो ? हरिधन की मातृ-विह्वल आंखों को विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन हुए। घर के एक-एक कोने में मातृ-स्मृतियों की छटा चांदनी की भांति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुखमंडल भी उसी छटा से रंजित
दूसरे दिन हरियन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आंखों में गर्व। वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था; किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था। एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर लिया। मां से बोला- तुमने सुना काकी! गुमानी ने घर कर लिया। काकी ने कहा-घर क्या कर लेगी, ठट्टा है ? बिरादरी में ऐसा अंधेरा ? पंचायत नहीं, अदालत तो है ? हरिधन ने कहा- नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ। ला, महाबीर जी को लड्डू चढ़ा आऊं। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान् ने मेरी सुन ली। मैं वहां से यही ठानकर चला था, अब उसका मुंह न देखूंगा।
मुंशी प्रेमचंद की हिंदी कहानी कैदी
Munshi Premchand ki hindi kahani Quadi
चौदह साल तक निरंतर मानसिक वेदना और शारीरिक यातना भोग के बाद आज आइवन ओखोटस्क जेल से निकला; पर उस पक्षी की भा नहीं, जो शिकारी के पिंजरे से पंखहीन होकर निकला हो, बल्कि उस सिं की भांति, जिसे कठघरे की दीवारों ने और भी भयंकर तथा और में रक्तलोलुप बना दिया हो। उसके अंतस्तल में एक द्रव ज्वाला उमड़ रही थी जिसने अपने ताप से उसके बलिष्ठ शरीर, सुडौल अंग-प्रत्यंग और लहरात हुई अभिलाषाओं को झुलस डाला था और आज उसके अस्तित्त्व का एक- एक अणु एक-एक चिनगारी बना हुआ था-क्षुधित, चंचल और विद्रोहमय जेलर ने उसे तौला । प्रवेश के समय दो मन तीन सेर था, आज केवल एक मन पांच सेर । जेलर ने सहानुभूति दिखाकर कहा- तुम बहुत दुर्बल हो गये हो, आइवन अगर जरा भी कुपथ्य हुआ, तो बुरा होगा। आइवन ने अपने हड्डियों के ढांचे को विजय भाव से देखा और अपने अंदर एक अग्निमय प्रवाह का अनुभव करता हुआ बोला-कौन कहता है। कि मैं दुर्बल हो गया हूं ?
"तुम खुद देख रहे होंगे।" "दिल की आग जब तक नहीं बुझेगी, आइवन नहीं मरेगा, मिस्टर जेलर, सौ वर्ष तक नहीं, विश्वास रखिये।" आइवन इसी प्रकार बहकी-बहकी बातें किया करता था, इसलिये जेलर ने ज्यादा परवाह न की। सब उसे अर्द्ध-विक्षिप्त समझते थे। कुछ लिखा-पढ़ी हो जाने के बाद उसके कपड़े और पुस्तकें मंगवाई गईं; पर वे सारे सूट अब उसे उतारे हुए से लगते थे। कोटों की जेबों में कई नोट निकले, कई नकद रूबल। उसने सब कुछ वहीं जेल के वार्डरों और निम्न कर्मचारियों को दे दिया, मानों उसे कोई राज्य मिल गया है। जेलर ने कहा- यह नहीं हो सकता, आइवन! तुम सरकारी आदमियों को रिश्वत नहीं दे सकते।
आइवन साधु-भाव से हँसा-यह रिश्वत नहीं है, मिस्टर जेलर ! इन्हें रिश्वत देकर अब मुझे इनसे क्या लेना-देना है ? अब ये अप्रसन्न होकर मेरा क्या बिगाड़ लेंगे और प्रसन्न होकर मुझे क्या देंगे ? यह उन कृपाओं का धन्यवाद है, जिनके बिना चौदह साल तो क्या, मेरा यहां चौदह घंटे रहना असह्य हो जाता है। जब वह जेल के फाटक से निकला तो जेलर और सारे अन्य कर्मचारी उसके पीछे उसे मोटर तक पहुंचाने चले। पन्द्रह साल पहले आइवन मास्को के सम्पन्न और सम्भ्रान्त कुल का दीपक था।
उसने विद्यालय में ऊंची शिक्षा पायी थी, खेल में अभ्यस्त था, निर्भीक था, उदार और सहृदय था। दिल आईने की भांति निर्मल, शील का पुतला, दुर्बलों की रक्षा के लिये जान पर खेलने वाला, जिसकी हिम्मत संकट के सामने नंगी तलवार हो जाती थी। उसके साथ हेलेन नाम की एक युवती पढ़ती थी, जिस पर विद्यालय के सारे युवक प्राण देते थे। वह जितनी ही रूपवती थी, उतनी ही तेज थी। बड़ी कल्पनाशील, पर अपने मनोभावों को ताले में बंद रखने वाली। आइवन में क्या देखकर वह उसकी ओर आकर्षित हो गई, यह कहना कठिन है। दोनों में लेश-मात्र भी सामंजस्य न था । आइवन सैर और शराब का प्रेमी था, हेलेन कविता, संगीत और नृत्य पर जान देती थी।
आइवन की निगाह में रूपए केवल इसलिये थे कि दोनों हाथों से उड़ाये जायें, हेलेन अत्यन्त कृपण । आइवन को लेक्चरहॉल कारागार- सा लगता था; हेलेन इस सागर की मछली थी। पर कदाचित् यह विभिन्नता ही उनमें स्वाभाविक आकर्षण बन गई, जिसने अंत में विकल प्रेम का रूप लिया। आइवन ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया और उसने स्वीकार कर लिया और दोनों किसी शुभ मुहूर्त में पाणिग्रहण करके सोहागरात बिताने के लिये किसी पहाड़ी जगह में जाने के मनसूबे बांध रहे थे कि सहसा राजनीतिक संग्राम ने उन्हें अपने ओर खींच लिया। हेलेन पहले से ही राष्ट्रवादियों की ओर झुकी हुई थी। आइवन भी उसी रंग में रंग उठा। खानदान का रईस था, उसके लिये प्रजा-रक्षा लेना एक महान् तपस्या थी, इसलिये जब कभी वह संग्राम में हताश हो जाता, तो हेलेन उसको हिम्मत बंधाती और आइवन उसके साहस और अनुराग से प्रभावित होकर अपनी दुर्बलता पर लज्जित हो जाता।
इन्हीं दिनों उक्रायेन (वर्तमान में यूक्रेन-सं०) प्रान्त की सूबेदारी पर रोमनाफ नाम का एक गवर्नर नियुक्त होकर आया बड़ा ही कट्टर, राष्ट्रवादियों का जानी दुश्मन, दिन में दो-चार विद्रोहियों को जब तक जेल न भेज लेता, उसे चैन न आता। आते-ही-आते उसने कई संपादकों पर राजद्रोह का अभियोग चलाकर उन्हें साइबेरिया भेजवा दिया, कृषकों की सभायें तोड़ दीं, नगर की म्युनिसिपैलिटी तोड़ दी, और जब जनता ने अपना रोष प्रकट करने के लिये जलसे किये, तो पुलिस से भीड़ पर गोलिया चलवायीं, जिससे कई बेगुनाहों की जानें गईं। मार्शल-लॉ जारी कर दिया। सारे नगर में हाहाकार मच गया। लोग मारे डर के घरों से नहीं निकलते थे; क्योंकि पुलिस हर किसी की तलाशी लेती थी और उसे पीटती थी। हेलेन ने कठोर मुद्रा में कहा- यह अंधेर तो अब नहीं देखा जाता, आइवन! इसका कुछ उपाय होना चाहिये।
आइवन ने प्रश्न की आंखों से देखा-उपाय ! हम क्या कर सकते हैं? हेलेन ने उसकी जड़ता पर खिन्न होकर कहा- तुम कहते हो, हम क्या कर सकते हैं? मैं कहती हूं, हम सब कुछ कर सकते हैं। मैं उन्हीं के हाथों से उसका अंत कर दूंगी। आइवन ने विस्मय से उसकी ओर देखा-तुम समझती हो, उसे कत्ल करना आसान है ? वह कभी खुली गाड़ी में नहीं निकलता। उसके आगे- पीछे सशस्त्र सवारों का एक दल हमेशा रहता है। रेलगाड़ी में भी वह रिजर्व डिब्बों में ही सफर करता है। मुझे तो असंभव लगता है, हेलेन, बिलकुल असंभव।
हेलेन कई मिनट तक चाय बनाती रही। फिर दो प्याले मेज पर रखकर उसने प्याला मुंह लगाया और धीरे-धीरे पानी पीने लगी। वह किसी विचार में तन्मय हो रही थी। सहसा उसने प्याला मेज पर रख दिया और बड़ी-बड़ी आंखों में तेज भरकर बोली- यह सब कुछ होते हुए भी मैं उसे कत्ल कर सकती हूं, आइवन! आदमी एक बार अपनी जान पर खेलकर सब कुछ कर सकता है। जानते हो, मैं क्या करूंगी? मैं उससे राहोरस्म पैदा करूंगी, उसका विश्वास प्राप्त करूंगी, उसे इस भ्रान्ति में डालूंगी कि मुझे उससे प्रेम है ।
मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके हृदय के किसी-न-किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा ही रहता है-मैं तो समझती हूं कि रोमनाफ की यह दमन-नीति उसकी अवरूद्ध अभिलाषा की गांठ है, और कुछ नहीं किसी मायाविनी के प्रेम में असफल होकर उसके हृदय का रसस्त्रोत सूख गया है। वहां रस का संचार करना होगा और किसी युवती का एक मधुर शब्द, एक सरल मुस्कान भी जादू का काम करेगी! ऐसों को तो वह में अपने पैरों पर गिरा सकती है। तुम जैसे सैलानियों को रिझाना इसे कहीं चुटकियों कठिन है। अगर तुम यह स्वीकार करते हो कि मैं रूपहीन नहीं हूं, तो मैं प्रेमचंद की सदाबहार कहानियां
तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि मेरा कार्य सफल होगा। बतलाओ, मैं रूपवती हूं या नहीं ? उसने तिरछी आंखों से आइवन को देखा। आइवन इस भावविलास पर मुग्ध होकर बोला- तुम यह मुझसे पूछती हो, हेलेन ? मैं तो तुम्हें संसार की हेलेन ने उसकी बात काटकर कहा- अगर तुम ऐसा समझते हो, तो तुम मूर्ख हो, आइवन! इसी नगर में, नहीं हमारे विद्यालय में ही, मुझसे कहीं रूपवती बालिकायें मौजूद हैं। हां, तुम इतना ही कह सकते हो कि तुम कुरूपा नहीं हो। क्या तुम समझते हो, मैं तुम्हें संसार का सबसे रूपवान युवक समझती हूं ? कभी नहीं। मैं ऐसे एक नहीं, सौ नाम गिना सकती हूं, जो चेहरे-मोहरे से तुमसे कहीं बढ़कर हैं, मगर तुममें कोई ऐसी वस्तु है, जो तुम्हीं में है और वह मुझे और कहीं नजर नहीं आती। तो मेरा कार्यक्रम सुनो। एक महीना तो मुझे उससे मेल करते लगेगा। फिर वह मेरे साथ सैर करने निकलेगा । और तब एक दिन हम और वह दोनों रात को पार्क में जायेंगे और तालाब के किनारे बेंच पर बैठेंगे। तुम उसी वक्त रिवाल्वर लिये आ जाओगे वहीं पृथ्वी उसके बोझ से हल्की हो जायेगी।
जैसा हम पहले कह चुके हैं, आइवनएक रईस का लड़का था और क्रांतिमय राजनीति से उसका हार्दिक प्रेम न था । हेलेन के प्रभाव से कुछ मानसिक सहानुभूति अवश्य पैदा हो गई थी और मानसिक सहानुभूति प्राणों को संकट में हीं डालती। उसने प्रकट रूप से तो कोई आपत्ति नहीं की; लेकिन कुछ संदिग्ध भाव से बोला- यह तो सोचो हेलेन, इस तरह की हत्या • कोई मानुषीय कृति है ?
हेलेन ने तीखेपन से कहा-जो दूसरों के साथ मानुषीय व्यवहार नहीं करता, उसके साथ हम क्यों मानुषीय व्यवहार करें ? क्या वह सूर्य की भांति प्रकट नहीं है कि आज सैकड़ों परिवार इस राक्षस के हाथों तबाह हो रहे हैं? कौन जानता है, इसके हाथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे हुए हैं ? ऐसे व्यक्ति के साथ किसी तरह की रिआयत करना असंगत है। तुम न जाने क्यों इतने ठंडे हो। मैं तो उसके दुष्टाचारण देखती हूं, तो मेरा रक्त खौलने लगता है। मैं सच कहती हूं, जिस वक्त उसकी सवारी निकलती है, मेरी बोटी-बोटी हिंसा के आवेग से कांपने लगती है। अगर मेरे सामने कोई उसकी खाल भी खींच ले, तो मुझे दया न आये। अगर तुममें इतना साहस नहीं है, तो कोई हरज नहीं। मैं खुद सब कुछ कर लूंगी। हां, देख लेना, मैं कैसे उस कुत्ते को जहन्नुम पहुंचाती हूं।
हेलेन का मुखमंडल हिंसा के आवेग से लाल हो गया। आइवन ३ लज्जित होकर कहा-नहीं-नहीं, यह बात नहीं है, हेलेन ! मेरा यह आशय न था कि दुर्दशा से कितनी विकल है; लेकिन मैं फिर यहीं कहूंगा कि यह काम इतना आसान नहीं है और हमें बड़ी सावधानी से काम लेना पड़ेगा। हेलेन ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा- तुम इसकी करो, आइवन! संसार में मेरे लिये जो वस्तु सबसे प्यारी है, उसे दांव पर रखते कुछ हुए क्या सावधानी से काम न लूंगी ? लेकिन तुमसे एक याचना करती हूँ; अगर इस बीच में मैं कोई ऐसा काम करूं, जो तुम्हें बुरा मालूम हो, तो मुझे क्षमा करोगे न ? चिन्ता न
आइवन ने विस्मयभरी आंखों से हेलेन के मुख की ओर देखा। उसका आशय उसकी समझ में न आया। हेलेन डरी, आइवन कोई नहीं आपत्ति तो नहीं खड़ी करना चाहता। आश्वासन के लिये अपने मुख को आतुर अधरों के समीप ले जाकर बोली- प्रेम का अभिनय करने में मुझे वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिस पर एकमात्र तुम्हारा ही अधिकार है। डरती हूं, कहीं तुम मुझ पर संदेह न करने लगो । आइवन ने उसे कर-पाश में लेकर कहा- यह असम्भव है हेलेन, विश्वास प्रेम की पहली सीढ़ी है। अंतिम शब्द कहते-कहते उसकी आंखें झुक गईं। इन शब्दों में उदारता का जो आदर्श था, वह उस पर पूरा उतरेगा या नहीं, वह यही सोचने लगा।
इसके तीन दिन पीछे नाटक का सूत्रपात हुआ। हेलेन अपने ऊपर पुलिस के निराधार संदेह की फरियाद लेकर रोमनाफ से मिली और उसे विश्वास दिलाया कि पुलिस के अधिकारी उससे केवल इसलिये असंतुष्ट हैं। कि वह उनके कलुषित प्रस्तावों को ठुकरा रही है। यह सत्य है कि विद्यालय में उसकी संगति कुछ उग्न युवकों से हो गई थी, पर विद्यालय से निकलने के बाद उसका उनसे कोई संबंध नहीं है।
रोमनाफ जितना चतुर था, उससे कहीं चतुर अपने को समझता था। अपने दस साल के अधिकारी-जीवन में उसे किसी ऐसी रमणी से साबिका न पड़ा था, जिसने उसके ऊपर इतना विश्वास करके अपने को उसकी दया पर छोड़ दिया हो। किसी धन-लोलुप की भांति सहसा यह धन-राशि देखकर उसकी आंखों पर परदा पड़ गया। अपनी समझ में तो वह हेलेन से उग्र युवकों के विषय में ऐसी बहुत-सी बातों का पता लगाकर फूला न समाया, जो खुफिया पुलिस वालों को बहुत सिर मारने पर भी ज्ञात न हो सकी थी; पर इन बातों में मिथ्या का कितना मिश्रण है, यह वह न भांप सका। इस आध घंटे में एक युवती ने एक अनुभवी अफसर को अपने रूप की मंदिरा से उन्मत्त कर दिया था। जब हेलेन चलने लगी तो रोमनाफ ने कुर्सी से खड़े होकर कहा- - मुझे आशा है, यह हमारी आखिरी मुलाकात न होगी।
हेलेन ने हाथ बढ़ाकर कहा- हुजूर ने जिस सौजन्य से मेरी विपत्ति- कथा सुनी है, उसके लिये मैं आपको धन्यवाद देती हूं। "कल आप तीसरे पहर यहीं चाय पियें।" रक्त-जब्त बढ़ने लगा। हेलेन आकर रोज की बातें आइवन से कह सुनाती। रोमनाफ वास्तव में जितना बदनाम है, उतना बुरा नहीं। नहीं, वह बड़ा रसिक, संगीत और कला का प्रेमी और शील तथा विनय की मूर्ति है । इन थोड़े ही दिनों में हेलेन से उसकी घनिष्ठता हो गई है और किसी अज्ञात रीति से नगर में पुलिस का अत्याचार कम होने लगा है।
अंत में वह निश्चित तिथि आई। आइवन और हेलेन दिन-भर बैठे- बैठे इसी प्रश्न पर विचार करते रहे। आइवन का मन आज बहुत चंचल हो रहा था। वह कभी अकारण ही हँसने लगता, कभी अनायास रो पड़ता। शंका, प्रतीक्षा और किसी अज्ञात चिंता ने उसके मनोसागर को इतना अशान्त कर दिया था उसमें भावों की नौकायें डगमगा रही थीं-न मार्ग का पता था, न दिशा का। हेलेन भी आज बहुत चिंतित और गंभीर थी। आज के लिये उसने पहले ही से सजीले वस्त्र बनवा रखे थे। रूप को अलंकृत करने के न जाने किन-किन विधानों का प्रयोग कर रही थी; पर इसमें किसी योद्धा का उत्साह नहीं, कायर का कंपन था । सहसा आइवन ने आंखों में आंसू भरकर कहा- तुम आज इतनी मायाविनी हो हेलेन कि मुझे न जाने क्यों तुमसे भय हो रहा है! हेलेन मुस्करायी। उस मुस्कान में करुणा भरी हुई थी-मनुष्य को कभी- कभी कितने ही अप्रिय कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है, आइवन! आज मैं सुधा से विषय का काम लेने जा रही हूं। अलंकार का ऐसा दुरुपयोग तुमने कहीं और देखा है ?
आइवन उड़े हुए मन से बोला-इसी को राष्ट्र-जीवन कहते हैं। "यह राष्ट्र-जीवन नहीं है यह नरक है ।" "मगर संसार में अभी कुछ दिन और इसकी जरूरत होगी।" "यह अवस्था जितनी जल्दी बदल जाये, उतना ही अच्छा।" पासा पलट चुका था, आइवन ने गर्म होकर कहा-अत्याचारियों को संसार में फलने-फूलने दिया जाये, जिससे एक दिन कांटों के मारे पृथ्वी पर कहीं पांव रखने की जगह न रहे ? हेलेन ने कोई जवाब न दिया; पर उसके मन में जो अवसाद उत्पन्न हो गया था, वह उसके मुख पर झलक रहा था। राष्ट्र उसकी दृष्टि से सर्वोपरि था, उसके सामने व्यक्ति का कोई मूल्य न था। अगर इस समय उसका मन किसी कारण दुर्बल भी हो गया था, तो उसे खोल देने का उसमें साहस न था।
दोनों गले मिलकर विदा हुए। कौन जाने, यह अंतिम दर्शन हो! दोनों के दिल भारी थे, और आंखे सजा।
आइवन ने उत्साह के साथ कहा-मैं ठीक समय पर आ जाऊंगा। हेलेन ने कोई जवाब न दिया। आइवन ने फिर सानुरोध कहा-खुदा से मेरे लिये दुआ करना हेलेन! हेलेन ने जैसे रोते हुए गले से कहा-मुझे खुदा पर भरोसा नहीं है। "मुझे तो है!" "कब से ?" "जब से मौत मेरी आंखों के सामने खड़ी हो गई।" वह वेग के साथ चला गया। संध्या हो गई थी और दो घंटे के बाद ही उस कठिन परीक्षा का समय आ जायेगा, जिससे उसके प्राण कांप रहे थे। वह कहीं एकान्त में बैठकर सोचना चाहता था। आज उसे ज्ञात हो रहा था कि वह स्वाधीन नहीं है। बड़ी मोटी जंजीर उसके एक-एक अंग को जकड़े हुए थी। इन्हें वह कैसे तोड़े ? दस बज गये थे। हेलेन और रोमनाफ पार्क के एक कुंज में बेंचों पर बैठे हुए थे। तेज बर्फीली हवा चल रही थी। चाँद किसी क्षीण आंशा की भांति बादलों में छिपा हुआ था। हेलेन ने इधर-उधर सशंक नेत्रों से देखकर कहा-अब तो देर हो गई; यहां से चलना चाहिये।
रोमनाफ ने बेंच पर पांव फैलाते हुए कहा- अभी तो ऐसी देर नहीं हुई है, हेलेन! कह नहीं सकता, जीवन के यह क्षण स्वप्न हैं या सत्य; लेकिन सत्य भी हैं तो स्वप्न से अधिक मधुर, और स्वप्न भी है, तो सत्य से अधिक उज्जवल । हेलेन बेचैन होकर उठी और रोमनाफ का हाथ पकड़कर बोली- मेरा जी आज कुछ चंचल हो रहा है। सिर में चक्कर-सा आ रहा है। चलो, मुझे मेरे घर पहुंचा दो । रोमनाफ ने उसका हाथ पकड़कर अपनी बगल में बैठाते हुए कहा- लेकिन मैंने मोटर तो ग्यारह बजे बुलाई है! प्रेमचंद की सदाबहार कहानियां
हेलेन के मुख से एक चीख निकल गई-ग्यारह बजे ! “हां, अब ग्यारह बजा चाहते हैं। आओ, तब तकऔर कुछ बातें हों। रात तो काली बला-सी मालूम होती है। जितनी ही देर उसे दूर रख सकूं, उतना ही अच्छा। मैं तो समझता हूं, उस दिन तुम मेरे सौभाग्य की देवी बनकर आई थीं हेलेन, नहीं तो अब तक मैंने न जाने क्या-क्या अत्याचार किये होते। इस उदार नीति ने वातावरण में जो शुभ परिवर्तन कर दिया, उस पर मुझे स्वयं आश्चर्य हो रहा है। महीनों के दमन से जो कुछ न कर पाया था, वह दिनों के आश्वासन ने पूरा कर दिखाया है। और इसके लिये मैं तुम्हारा ऋणी हूं, हेलेन, केवल तुम्हारा। पर खेद यही है कि हमारी सरकार दया करना नहीं जानती, केवल मारना जानती है। जार के मंत्रियों में अभी से मेरे विषय में संदेह होने लगा है, और मुझे यहां से हटाने का प्रस्ताव हो रहा है।"
सहसा टॉर्च का चकाचौंध पैदा करने वाला प्रकाश बिजली की भांति चमक उठा और रिवाल्वर छूटने की आवाज आई। उसी वक्त रोमनाफ ने उछलकर आइवन को पकड़ लिया और चिल्लाया- पकड़ो, पकड़ो! खून! हेलेन, तुम यहां से भागो! पार्क में कई संतरी थे। चारों ओस से दौड़ पड़े। आइवन घिर गया। एक क्षण में न जाने कहां से टाऊन-पुलिस, सशस्त्र- पुलिस, गुप्त-पुलिस और सवार पुलिस के जत्थे के जत्थे आ पहुंचे। आइवन गिरफ्तार हो गया। रोमनाफ ने हेलेन से हाथ मिलाकर संदेह के स्वर में कहा-यह आइवन
तो वही युवक है, जो तुम्हारे साथ विद्यालय में था ? हेलेन ने क्षुब्ध होकर कहा- हां, है; लेकिन मुझे इसका जरा भी अनुमान न था कि वह क्रांतिवादी हो गया है। "गोली मेरे सिर पर से सन्न-सन्न करती हुई निकल गई।"
"या ईश्वर!" "मैंने दूसरा फायर करने का अवसर ही न दिया। मुझे इस युवक की दशा पर दुःख हो रहा है, हेलेन! ये अभागे समझते हैं कि इन हत्याओं से वे देश का उद्धार कर लेंगे। अगर मैं मर ही जाता, तो क्या मेरी जगह कोई मुझसे भी ज्यादा कठोर मनुष्य न आ जाता ? लेकिन मुझे जरा भी क्रोध, दुःख या भय नहीं है हेलेन, तुम बिलकुल चिंता न करना। चलो, मैं तुम्हें पहुंचा दूं।” रास्ते भर रोमनाफ इस आघात से बच जाने पर अपने को बधाई और ईश्वर को धन्यवाद देता रहा और हेलेन विचारों में मग्न बैठी रही। दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट के इजलास में अभियोग चला, और हेलेन सरकारी गवाह थी। आइवन का मालूम हुआ कि दुनिया अंधेरी हो गई है और वह उसकी अथाह गहराई में धंसता जा रहा है।
चौदह साल के बाद ।
आइवन रेलगाड़ी से उतरकर हेलेन के पास जा रहा है। उसे घरवालों हिंसाभाव से उन्मत्त, की सुध नहीं है। माता और पिता उसके वियोग में मरणासन्न हो रहे हैं, उसे परवाह नहीं है। वह अपने चौदह साल के पाले हुए हेलेन के पास जा रहा है; पर उसकी हिंसा में रक्त की प्यास नहीं है, केवल । गहरी दाहक दुर्भावना है। इन चौदह सालों में उसने जो यातनायें झेली हैं. उनका दो-चार वाक्यों में मानो सत्त निकालकर, विषय के समान हेलेन की धमनियों में भरकर उसे तड़पते हुए देखकर, वह अपनी आंखों को तृप्त करना चाहता है। और वह वाक्य क्या है ?-"हेलेन, तुमने मेरे साथ जो दगा की है, वह शायद त्रिया चरित्र के इतिहास में भी अद्वितीय है। मैंने अपना सर्वस्व तुम्हारे चरणों में अपर्ण कर दिया। मैं केवल तुम्हारे इशारों का गुलाम था । तुमने ही मुझे रोमनाफ की हत्या के लिये प्रेरित किया, और तुमने ही मेरे विरुद्ध साक्षी दी; केवल अपनी कुटिल काम-लिप्सा को पूरा करने के लिये। मेरे विरुद्ध कोई दूसरा प्रमाण न था। रोमनाफ और उसकी सारी पुलिस झूठी शहादतों से मुझे परास्त कर सकती थी; मगर तुमने केवल अपनी वासना को तृप्त करने के लिये, केवल रोमनाफ के विषाक्त आलिंगन का आनंद उठाने के लिये मेरे साथ यह विश्वासघात किया; पर आंखें खोलकर देखो कि वही आइवन, जिसे तुमने पैर के नीचे कुचला था, आज तुम्हारी उन सारी मक्कारियों का परदा खोलने के लिये तुम्हारे सामने खड़ा है। तुमने राष्ट्र की सेवा का बीड़ा उठाया था। तुम अपने को राष्ट्र की वेदी पर होम कर देना चाहती थी; किन्तु कुत्सित कामनाओं के पहले ही प्रलोभन में तुम अपने सारे बहुरूप को तिलांजिल देकर भोग-लालसा की गुलामी करने पर उतर गईं। अधिकार और समृद्धि के पहले ही टुकड़े पर तुम दुम हिलाती हुई टूट पड़ीं। धिक्कार है तुम्हारी भोग-लिप्सा को, तुम्हारे इस कुत्सित जीवन को !"
संध्या काल था । पश्चिम के क्षितिज पर दिन की चिता जलकर ठंडी हो रही थी और रोमनाफ के विशाल भवन में हेलेन की अर्थी को ले चलने की तैयारियां हो रही थीं। नगर के नेता जमा थे और रोमनाफ अपने शोककंपित हाथों से अर्थी को पुष्पहारों से सजा रहा था एवं उन्हें अपने आत्मजल से शीतल कर रहा था। उसी वक्त आइवन उन्मत्त वेश में, दुर्बल, झुका हुआ, प्रेमचंद की सदाबहार कहानियां सिर के बाल बढ़ाए, कंकाल-सा आकर खड़ा हो गया। किसी ने उसकी ओर ध्यान न दिया। समझे, कोई भिक्षुक होगा, जो ऐसे अवसरों पर दान के लोभ से आ जाया करते हैं।
" जब नगर के बिशप ने अंतिम संस्कार समाप्त किया और मरियम की बेिटियां नये जीवन के स्वागत का गीत गा चुंकी, तो आइवन ने अर्थी के पास जाकर आवेश से कांपते हुए स्वर में कहा-यह दुष्टा है, जिसे सारी दुनिया की पवित्र आत्माओं की शुभ कामनायें भी नरक की यातना से नहीं बचा सकतीं। वह इस योग्य थी कि उसकी लाश ।
कई आदमियों ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और उसे धक्के देते हुए फाटक की ओर ले चले। उसी वक्त रोमनाफ ने आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया और उसे अलग ले जाकर पूछा-दोस्त, क्या तुम्हारा नाम क्लाडियस आइवनाफ है ? हां, तुम वही हो, मुझे तुम्हारी सूरत याद आ गई। मुझे सब कुछ मालूम है-रत्ती-रत्ती मालूम है। हेलेन ने मुझसे कोई बात नहीं छिपाई। अब वह इस संसार में नहीं है, मैं झूठ बोलकर उसकी कोई सेवा नहीं कर सकता। तुम उस पर कठोर शब्दों का प्रहार करो या कठोर आघातों का, वह सामान रूप से शांत रहेगी, लेकिन अंत समय तक वह तुम्हारी याद करती रही। उस प्रसंग की स्मृति उसे सदैव रूलाती रहती थी। उसके जीवन की यह सबसे बड़ी कामना थी कि तुम्हारे सामने घुटने टेक कर क्षमा की याचना करे। मरते-मरते उसने यह वसीयत की कि जिस तरह भी हो सके, उसकी यह विनय तुम तक पहुंचाऊं कि वह तुम्हारी अपराधिनी है और तुमसे क्षमा चाहती है। क्या तुम समझते हो, जब वह तुम्हारे सामने आंखों में आंसू भरे आती, तो तुम्हारा हृदय पत्थर होने पर भी न पिघल जाता ? क्या इस समय भी वह तुम्हें दीन-याचना की प्रतिमा-सी खड़ी नहीं दिखती ? जरा चलकर उसका मुस्कराता हुआ चेहरा देखो। मोशियो आइवन, तुम्हारा मन अब भी उसका चुम्बन लेने के लिये विकल हो जायेगा। मुझे जरा भी ईर्ष्या न होगी। उन फूलों की सेज पर लेटी हुई वह ऐसी लग रही है, मानो फूलों की रानी हो। जीवन में उसकी एक ही अभिलाषा अपूर्ण रह गई आइवन, वह तुम्हारी क्षमा है। प्रेमी-हृदय बड़ा उदार होता है आइवन, वह | क्षमा और दया का सागर होता है। ईर्ष्या और दम्भ के गन्दे नाले उसमें मिलकर उतने ही विशाल और पवित्र हो जाते हैं। जिसे एक बार तुमने प्यार
किया, उसकी अंतिम अभिलाषा की तुम उपेक्षा नहीं कर सकते। उसने आइवन का हाथ पकड़ा और सैकड़ों कुतूहलतापूर्ण नेत्रों के सामने उसे लिये हुए अर्थी के पास आया और ताबूत का ऊपरी तख्ता हटाकर हेलेन का शांत मुख-मंडल उसे दिखा दिया। उस निस्पन्द, निश्चेष्ट, निर्विकार छवि को मृत्यु ने एक गरिमा-सी प्रदान कर दी थी, मानो स्वर्ग सारी विभूतियां उसका स्वागत कर रही हैं।
आइवन की कुटिल आंखों में एक दिव्य ज्योति-सी चमक उठी और वह दृश्य सामने खिंच गया, जब उसने हेलेन को प्रेम से आलिंगित किया और अपने हृदय के सारे अनुराग और उल्लास को पुष्पों में गूंथकर उसके गले में डाला था। उसे जान पड़ा, यह सब कुछ जो उसके सामने हो रहा है स्वप्न है और एकाएक उसकी आंखें खुल गई हैं और वह उसी भांति हेलेन को अपनी छाती से लगाए हुए है। उस आत्मानंद के एक क्षण के लिये क्या वह फिर चौदह साल का कारावास झेलने के लिये न तैयार हो जायेगा! क्या अब भी उसके जीवन की सबसे सुखद घड़ियां वही न थीं, जो हेलेन के साथ गुजरी थीं और क्या उन घड़ियों के अनुपम आनंद को वह इन चौदह सालों में भी भूल सका था ?
उसने ताबूत के पास बैठकर श्रद्धा से कांपते हुए कंठ से प्रार्थना की- "ईश्वर, तू मेरी प्राणों से प्रिय हेलेन को अपनी क्षमा के दामन में ले!" और जब वह ताबूत कंधे पर लिये चला, तो उसकी आत्मा लज्जित थी अपनी संकीर्णता पर, अपनी उद्विग्नता पर अपनी नीचता पर और जब ताबूत कब्र में रख दिया गया, तो वह वहां बैठकर न जाने कब तक रोता रहा। दूसरे दिन रोमनाफ जब फातिहा पढ़ने आया तो देखा, आइवन सिजदे में सिर झुकाए हुए है और उसकी आत्मा स्वर्ग को प्रयाण कर चुकी है।
**********************************************************************************************************************
Hi ! you are most welcome for any coment