अथर्ववेद सूक्त श्लोक ७ से १० के अर्थ Atharvaveda Sukta Shloka 7 to10 meaning

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Atharvaveda shloka sukta meaning अथर्ववेद सूक्त श्लोक ७ से १० के अर्थ


अथर्ववेद  द्वितीयोऽनुवाक


Atharvaveda  Sukta Shhloka meaning अथर्ववेद सूक्त श्लोक ७ से १० के अर्थ

अथर्ववेद के श्लोक सूक्त १ से 10 तक के अर्थ जानिये . Meaning of Shloka Sukta in Arthrvaveda Sukta Shloka 7 to10



सातवां सूक्त


(ऋषि- -चातन। देवता-अग्नि और इंद्र। छन्द-अनुष्टुप्, त्रिष्टुप् ।) स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनम्। त्वं हि देव वन्दितो हंता दस्योर्बभूविथ ॥ 1 ॥


हवि द्वारा प्रसन्न तथा स्तुति योग्य देवता को हे अग्ने ! हमारे तू समीप लाने वाला हो। हे दिव्य गुणों से युक्त अग्ने ! तू अपने प्रभाव से राक्षसों और बैरियों को नष्ट कर देता है, अतः उन्हें भी अपने पास बुला और सब ओर शांति को व्याप्त कर ।


आज्यस्य परमेष्ठिन् जातवेदस्तनूवशिन्। अग्ने तौलस्य प्राशान यातुधाना वि लापय ॥ 2 ॥


हे अग्ने ! तू दुष्टों और राक्षसों को विलाप कराने वाला, उनका संहार करने वाला, जठराग्नि के रूप में शरीर का संतुलन बनाने वाला, हमारे द्वारा स्रुवे में तौली हुई आज्याहुति को ग्रहण करने वाला तथा स्वर्गादि श्रेष्ठ स्थानों में निवास करने वाला है।


विलपन्तु यातुधाना अत्रिणो ये किमीदिनः । अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम् ॥ 3 ॥


इन्द्रादि सहित हमारे हविष्य को स्वीकार करने वाले हे अग्ने ! तू सबका भक्षण करने वाले और सर्वत्र विचरने वाले, दूसरों को दुःखी करने वाले समाज के बैरियों को विलाप कराने वाला तथा उन्हें नष्ट करने वाला हो ।


अग्निः पूर्व आ रभतां प्रेन्द्रो नुदतु बाहुमान्। ब्रवीतु सर्वो यातुधानयमस्मीत्येत्य ॥ 4 ॥


अग्नि देवता सबसे पहले असुरों का विनाश करना प्रारंभ करे और शक्तिसंपन्न इंद्र इस कार्य के निमित्त उसे प्रेरित करे। इन दोनों के प्रभाव से असुर स्वयं उपस्थित होकर अपना परिचय दें और प्रायश्चित करें। 

पश्याम ते वीर्य जातवेदः प्र णो ब्रू हि यातुधानान् नृचक्षः । त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आयन्तु प्रब्रुवाणा उपेदम् ॥ 5 ॥


हे अग्ने ! तू ज्ञान का भंडार है। तेरा पराक्रमरूपी प्रकाश हम देखें।


अतीन्द्रिय ज्ञान वाले, उपासनाओं आदि से साक्षात् होने वाले हे अग्न! तू अपने प्रभाव से राक्षसों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे। तेरी आज्ञा से राक्षस अपना-अपना परिचय देते हुए आगमन करें।


आ रभस्व जातवेदोऽस्माकार्थय जज्ञिषे । दूतो नो अग्ने भूत्वा यातधानान् वि लापय ॥ 6 ॥ 


हे ज्ञानस्वरूप अग्ने ! तू हमारे अभीष्ट प्रयोजनों को सफल बनाने के उद्देश्य से तथा अनर्थों का शमन करने के निमित्त उत्पन्न हुआ है। हमारे हितार्थ तू हमारा प्रतिनिधि (दूत) बनकर दुष्कर्म करने वाले राक्षसरूपी मानवों को दूर हटा।


त्वमग्ने यातुधानानुपबद्धां इहा वह । अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ॥ 7 ॥


दुष्टों को अपने पाश आदि में जकड़कर यहां लाने वाले हे अने।। इन्द्र अपने वज्र के तीव्र प्रहार से उन दुष्टों के सिरों को खंड-विखंड करे।


आठवां सूक्त


(ऋषि- चातन। देवता- बृहस्पति आदि। छन्द–अनुष्टुप्, त्रिष्टुप।) इदं हविर्यातुधानान् नदी फेनभिवा वहत् । य इदं स्त्री पुमान्करिह स स्तुवतां जनः ॥ 1 ॥


जिस प्रकार नदी अपने प्रवाह से फेन का स्थान परिवर्तन कर देती है, उसी प्रकार देवताओं को अर्पित की गई हविर्दानादि दुष्टों और पापियों को दूर हटाए। अभिचार आदि में निरत स्त्री और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले दुष्ट पुरुष प्रायश्चित हेतु तेरी उपासना करें।


अयं स्तुवान आगमदिमं स्म प्रति हर्यत । बृहस्पते वशे लब्ध्वाग्नीषोमा वि विध्यतम् ॥ 2 ॥ 


हे अग्ने! हे सोम! तुमसे त्रासित हुआ असुर प्रायश्चित की विनती करता हुआ तुम्हारी शरण में आया है। इसे हमारा शत्रु जानते हुए भी तुम उपचार हेतु इसका परीक्षण करो। बृहस्पति देवता इसे अपने वश में रखे।


यातुधानस्य सोमप जहि प्रजां नयस्व च । नि स्तुवानस्य पातय परमक्ष्युतावरम् ॥ 3 ॥


हे सोमरस का पान करने वाले अग्ने ! तू राक्षसों का विनाश कर और उनकी संतानों तक पहुंचकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर तथा उनके नेत्रों में, जो तेरी स्तुति करने वाले हैं, शालीनता को व्याप्त कर दे।


यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामत्रिणां जातवेदः । तांस्त्वं ब्रह्मणा वावृधानो जह्येषां शततर्हमग्ने ॥ 4 ॥


हे अग्ने ! ज्ञानसंपन्न तू ब्राह्मणों के द्वारा प्राप्त मंत्र बल से वृद्धि पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्ट करने वाला हो। गुफाओं में रहने वाले इन दुष्टों की संतानों को भी तू अच्छी तरह जानता है, अतः तेरे द्वारा उनका भी समूल नाश हो।


नौवां सूक्त


(ऋषि-अथर्वा । देवता-मंत्र में वर्णित इन्द्र, वसु, पूषा, वरुणादि । छन्द-त्रिष्टुप् ।)


अस्मिन् वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः । इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिञ्ज्योतिषि धारयन्तु ॥ 1 ॥ 


धन, वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन-वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें।


अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम्। सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम्॥ 2 ॥ 


इस पुरुष में हे देवो! सूर्य, अग्नि, इन्द्र और सुवर्णादि का तेज विद्यमान रहे। जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त हुआ पुरुष दुःखों से रहित परमश्रेष्ठ दिव्य लोक (स्वर्ग) में जाकर वास करे।


येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः । तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रेष्ठय या धेह्येनम् ॥ 3 ॥


हे जातवेद (अग्ने) ! ज्ञान का स्रोत तूने जिन अद्भुत दिव्य मंत्रों से इन्द्र के निमित्त दुग्धादि रस हवि रूप में प्रदान किया है, उन्हीं दिव्य मंत्रों से इस लोक में इस पुरुष की वृद्धि कर। इसे अपने तेज से प्रकाशित करते हुए देवताओं के समान उच्च स्थान में स्थापित कर, ताकि यह पुरुष जाति में श्रेष्ठता को प्राप्त कर देवों की भांति जीवन को भोगने वाला हो।


हे सोमरस का पान करने वाले अग्ने ! तू राक्षसों का विनाश कर और उनकी संतानों तक पहुंचकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर तथा उनके नेत्रों में, जो तेरी स्तुति करने वाले हैं, शालीनता को व्याप्त कर दे।


यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामत्त्रिणां जातवेदः । तांस्त्वं ब्रह्मणा वावृधानो जह्येषां शततर्हमग्ने ॥ 4 ॥


हे अग्ने ! ज्ञानसंपन्न तू ब्राह्मणों के द्वारा प्राप्त मंत्र बल से वृद्धि पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्ट करने वाला हो। गुफाओं में रहने वाले इन दुष्टों की संतानों को भी तू अच्छी तरह जानता है, अतः तेरे द्वारा उनका भी समूल नाश हो।


नौवां सूक्त


(ऋषि-अथर्वा । देवता-मंत्र में वर्णित इन्द्र, वसु,


पूषा, वरुणादि । छन्द- - त्रिष्टुप् ।) अस्मिन् वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः । इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिञ्ज्योतिषि धारयन्तु ॥ 1 ॥


धन, वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन-वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें। अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम् ।


सपना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम् ॥ 2 ॥ इस पुरुष में हे देवो! सूर्य, अग्नि, इन्द्र और सुवर्णादि का तेज विद्यमान रहे। जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त हुआ पुरुष दुःखों से रहित परमश्रेष्ठ दिव्य लोक (स्वर्ग) में जाकर वास करे।


येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः । तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रेष्ठय या धेह्येनम् ॥ 3 ॥


हे जातवेद (अग्ने) ! ज्ञान का स्रोत तूने जिन अद्भुत दिव्य मंत्रों से इन्द्र के निमित्त दुग्धादि रस हवि रूप में प्रदान किया है, उन्हीं दिव्य मंत्रों से इस लोक में इस पुरुष की वृद्धि कर। इसे अपने तेज से प्रकाशित करते हुए देवताओं के समान उच्च स्थान में स्थापित कर, ताकि यह पुरुष जाति में श्रेष्ठता को प्राप्त कर देवों की भांति जीवन को भोगने वाला हो।



एषां यज्ञमृत वर्चो ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने । सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥ 4 ॥


हे तेजस्वी अग्ने ! तू इस मनुष्य (यजमान) को दु:खरहित श्रेष्ठ स्वर्ग में पहुंचा दे। इसे उत्तम सुख और शांति प्राप्त हो । तेरी कृपा से शत्रु हमारे वश में हो जाएं। हम उनके तेज, धर्म, पुण्यकर्म को स्वीकार करते हैं।


दसवां सूक्त


(ऋषि—अथर्वा । देवता—असुर, वरुण । छन्द-त्रिष्टुप्, अनुष्टुप् ।) अयं देवानामसुरो वि राजति वसाहि सत्या वरुणस्य राज्ञः । ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि ॥ 1 ॥ सर्वत्र प्रकाशित, सबका नियामक, सत्य भाषण को वश में रखने वाला, देवताओं में बली देव वरुण पापियों का दंडाधिकारी है। हम दुःखी मनुष्यों को मंत्र - ज्ञान से संपन्न होकर स्तुतियों द्वारा वरुण के प्रचंड क्रोध से सुरक्षित रखते हैं।


नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वद्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्। सहस्रमन्यान् प्रसुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥ 2 ॥ हमारे दोषों को भली प्रकार जानने वाले हे तेजस्वी वरुणदेव! तेरे प्रचंड प्रकोप से पीड़ित हम तेरे शरणागत होकर तुझे नमन करते हैं। हम हजारों दोषियों को तेरी शरण में भेजते हैं। तेरी कृपा से वो सब दीर्घायु हों।


यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिनं बहु । राज्ञस्त्वा सत्यधर्मणो मुंचामि वरुणादहम् ॥ 3 ॥ 


हे व्याधिग्रस्त मनुष्यो! तुमने अपनी जिह्वा (वाणी) के दुरुपयोग द्वारा अनेक असत्य वचन बोलने का जो अपराध किया है, हम उस अपराध से तुम्हें मुक्ति, वरुण की कृपा और अनुग्रह प्राप्त होने पर ही दिलाने में समर्थ होते हैं।


मुंचामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्परि । सजातानुग्रहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः ॥ 4 ॥ 


सर्वज्ञ वरुणदेव स्तोताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होने वाला उनके अपराधों को क्षमा करने वाला है। हे मनुष्यो ! हम प्रचंड बल और वाले,


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