अथर्ववेद भाग- १ ( Athrvaveda) सूक्त श्लोक १ से ६ के अर्थ ( Sukta shloka meaning 1 to 6 in Athrvaveda)

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अथर्ववेद भाग- १ ( Athrvaveda) सूक्त श्लोक १ से ६ का अर्थ ( Sukta shloka meaning 1 to 6 in Athrvaveda)



अथर्ववेद संहिता


Athrvaveda Sanhita . सूक्त एवं श्लोक संख्या १ से ६ तक के अर्थ.

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अथ प्रथमं काण्डम्


प्रथमोऽनुवाक


पहला सूक्त


(ऋषि—अथर्वा । देवता— वाचस्पति । छन्द–अनुष्टुप्, बृहती ।)


ये त्रिसप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः । वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥ 1 ॥


पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, तन्मात्रा और अहंकार- ये सात पदार्थ और सत्व, रज तथा तम-ये तीन गुण, इस प्रकार जगत् में तीन गुणा सात 'इक्कीस' देवता सब ओर आवागमन करते हैं। वाणी का स्वामी ब्रह्मा उनके अद्भुत बल को हमें प्रदान करे।


पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह । वसोष्पते नि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥ 2 ॥


हे वाणी के स्वामी परमेश्वर ! हम आनंदित हों, इसके लिए तू हमारी कामनाओं को पूर्ण कर और पढ़े हुए ज्ञान को धारण करने के निमित्त हमारी बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला हो।


इहैवाभि वि तनूभे आर्ली इव ज्यया । वाचस्पतिर्नियच्छतु मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥ 3 ॥


जैसे संग्राम में शूरवीर द्वारा धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने से उसके दोनों छोर समान रूप से खिंच जाते हैं, वैसे ही हे वाणी के स्वामी! हमें वेदादि धारण करने की बुद्धि और आनंद का उपभोग करने के निमित्त सुख के साधन उपलब्ध करा। तेरा दिया हुआ यह दान हममें स्थित रहे।



उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्हृयताम्। सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि ॥ 4 ॥


हम उस परमेश्वर का आह्वान करते हैं जो वाणी का स्वामा है। वाचस्पति देवता हमें आमंत्रित करे। हम वेदाध्ययन से कभी मुंह न मोड़ें। हमारा हृदय वेदज्ञान से परिपूर्ण रहे।


दूसरा सूक्त


(ऋषि- अथर्वा । देवता- पर्जन्य । छन्द- अनुष्टुप् गायत्री।) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् । विद्मो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम् ॥ 1 ॥


यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि सभी जड़-चेतन का धारण और पोषणकर्ता पर्जन्य इस बाण का पिता और समस्त तत्त्वों से परिपूर्ण पृथ्वी इसकी माता है। इनसे ही शर 'पुत्र' उत्पन्न होता है।


ज्याके परिणो नमाश्मानं तन्वं कृधि । वीडुर्वरीयोऽरातीरप द्वेषांस्या कृधि ॥ 2 ॥


हे देवपति ! शत्रुओं के द्वेषपूर्ण कर्मों को हमसे दूर करते हुए उनका बल नष्ट कर। यह प्रत्यंचा हमारी ओर न झुकते हुए शत्रुओं की ओर झुके। तू हमारे शरीर को पाषाण जैसा सुदृढ़ और बल-संपन्न कर।


वृक्षं यद् गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्यृभुम् । शरुमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र ॥ 3 ॥


गर्मी से पीड़ित गौएं जिस प्रकार वट वृक्ष की सघन छाया में शीघ्रता से शरण लेती हैं, उसी प्रकार हम पर शत्रु के वीरों द्वारा चलाए बाणों को हमसे दूर हटा दे।


यया द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम्। एवा रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुंज इत् ॥ 4 ॥ 


जैसे पृथ्वीलोक और द्युलोक के मध्य प्रकाश रहता है, वैसे ही औषध (शोधन करने वाला परमेश्वर) शरीर में रोग, रक्तस्राव अथवा घावों के मध्य स्थित हो ।



अथर्ववेद संहिता (भाग एक)-


तीसरा सूक्त


(ऋषि- अथर्वा । देवता- पर्जन्य । छन्द-पंक्ति, अनुष्टुप् ।) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 1 ॥


शर का पिता सैकड़ों सामर्थ्यवाला और आत्मबल की शक्ति से युक्त मेघ है। यह हम अच्छी तरह जानते हैं। हे रोगी! उस शर (बाण) से हम मूत्र से संबंधित तेरी व्याधियों का शमन करते हैं। तेरे शरीर में रुका हुआ मूत्र बाहर निकल जाए।


विद्मा शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 2 ॥


अत्यंत पराक्रमी (वीर्यवान्) और अनन्त शक्ति से युक्त शर के मित्र सैकड़ों सामर्थ्य वाले सूर्य को हम जानते हैं। हे रोगग्रस्त मानव ! इस बाण से हम तेरे रोग को नष्ट करते हैं। पेट में रुका हुआ तेरा मूत्र बाहर निकले और पृथ्वी पर तेरी वृद्धि हो ।


विद्मा शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 3 ॥


शत्रुनाशक शर (बाण) के सैकड़ों सामर्थ्यो से युक्त पिता वरुण को हम जानते हैं। हे रोग पीड़ित ! हम इस बाण से तेरे रोगों का शमन करते हैं। शीघ्र ही मूत्र बाहर आकर तेरे शरीर को शुद्ध करे। पृथ्वी पर तेरी बहुत वृद्धि हो ।


विद्मा शरस्य पितरं चन्द्रं शतवृष्ण्यम् । तेना. ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 4 ॥


हम उस शर के पिता चंद्रमा को जानते हैं, जो सैकड़ों सामर्थ्य वाला, अनन्त वीर्यवान्, आनंद प्रदान करने वाला और पृथ्वी पर अपनी किरणों से अन्नादि औषधों को पुष्ट करके प्राणियों को बल देने वाला है। ऐसे शर से हम रोगों का शमन करते हैं। शब्द करता हुआ मूत्र शरीर से बाहर निकले।


विद्मा शरस्य पितरं सूर्यं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 5 ॥



सैकड़ों सामर्थ्य वाले, बहुत बलशाली, पराक्रमी और तेज से प्रकाशित सूर्य को हम शर के पिता समान जानते हैं। हे रोगिणी! इस शर से हम तेरे जल (मूत्र) शरीर की व्याधियों को हटाते हैं। पृथ्वी पर उदरस्थ दूषित ध्वनि करता हुआ तीव्रता से बाहर निकल जाए।


यदान्त्रेणु गवीन्योर्यद्वस्तावधि संश्रुतम् । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 6 ॥


शरीर में रुका हुआ सारहीन मूत्र पीड़ा देता है और उसको निकाल देने से शांति मिलती है। जो मूत्र तेरे मूत्राशय और मूत्र वाहिनी नाड़ियों में रुका हुआ है, वह शब्द (ध्वनि) करता हुआ शीघ्र बाहर निकल आए


प्र ते भिनद्भि मेहनं वर्त्र वेशन्त्या इव। एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 7॥


हे व्याधि से पीड़ित रोगी ! तेरे मूत्र के मार्ग को हम उसी प्रकार मूत्र खोलते हैं, जैसे तालाब (जलाशय) के जल को बाहर निकालने के लिए मार्ग को खोदते हैं।


विषितं ते वस्तिबिलं समुद्रस्योदधेरिव । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 8 ॥


हे मूत्र रोगी ! तेरे मूत्र को बाहर निकालने के लिए हमने वैसे ही मार्ग बना दिया है, जैसे जलाशय के जल को निकालने के लिए मार्ग बनाय जाता है। तेरा रुका हुआ मूत्र ध्वनि करता हुआ बाहर निकल जाए। 


यथेषुका परापतदवसृष्टाधि धन्वनः । एवा ते मूत्रं मुच्यता बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 9 ॥


जिस प्रकार धनुष से छूटा बाण शीघ्रता से अपने लक्ष्य का भेदन करता है, उसी प्रकार तेरा रुका हुआ मूत्र ध्वनि करता हुआ बाहर निकले।



(ऋषि-सिंधुद्वीप या कृति। देवता-जल। छन्द-गायत्री, बृहती अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । प्रञ्चतीर्मधुना पयः॥ 1॥


यज्ञ के निमित्त मधु (शहद) के साथ दुग्ध को मिलाने वाले माताओं और बहनों का हितकारी यज्ञकर्त्ता यज्ञ-स्थल पर गमन करता है।



अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥ 2 ॥ सूर्य के सान्निध्य में रहने वाला वाष्पीकृत जल यज्ञ की सफलतापूर्वक संपन्नता के निमित्त शक्ति प्रदान करे।


अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबंति नः । सिंधुभ्यः कर्त्तं हविः ॥ 3 ॥


हम उस जल के अधिष्ठाता देवता का आह्वान करते हैं, जो समुद्र का पान करके, वृष्टिकर हवि प्रदान करता है और जहां बहने वाली जलपूर्ण नदियों और जलाशयों के जल का सेवन कर हमारी गौएं तृप्त होती हैं। 


अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम् । अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः ॥ 4 ॥


रोग निवारक और पुष्टिवर्धक पदार्थ जिस जल से उत्पन्न होते हैं, वह जल अमृतरूपी औषधियों से परिपूर्ण है। उसके दिव्य गुणों से गौएं और अश्व बलवान् होकर उपकारी होते हैं।


पांचवां सूक्त


(ऋषि - सिंधुद्वीप या कृति। देवता- जल। छन्द- गायत्री ।) आपोहिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे ॥1॥


हे सुख प्रदाता जल! तू परब्रह्म से साक्षात्कार करने, सुख का उपभोग करने और रमणीक तत्त्वों का दर्शन करने के लिए हमें परिपूर्ण कर ।


यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥ 2 ॥ जिस प्रकार माताएं प्रीति के साथ अपनी संतानों को दूध पिलाकर


पुष्टि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार हे जलो! तुममें जो तत्त्वरूप परमकल्याणकारी रस है, हमें उस रस का भागीदार बनाकर उससे पुष्टि प्रदान करो।


तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥ 3 ॥


हम वृद्धि प्रदान करने वाले उस जल का सान्निध्य पाना चाहते हैं, 

जो अन्नादि उत्पन्न करके प्राणिमात्र को पोषण देने वाला है। ईशाना वार्याणं क्षयंतीश्चर्षणीनाम् ।


अपो याचामि भेषजम् ॥ 4 ॥ प्राणिमात्र की व्याधियों का औषधियों द्वारा निवारण करने


जल दिव्य गुणों से युक्त एवं सुख-साधनों का स्वामी है। हम  औषधिरूप जल की उपासना करते हैं।


छठा सूक्त


(ऋषि-सिंधुद्वीप। देवता-जल । छन्द-गायत्री, पंक्ति।)


शं नो देवीरभिष्टय आपो भवंतु पीतये ।। शं योरभि स्त्रवन्तु नः ॥ 1 ॥


हे दिव्य गुणयुक्त जल! तू हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने वाल सुखकारी, सेवन योग्य तथा पूर्ण शांति प्रदान करने वाला हो। 


अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तदर्विश्वानि भेषजा । अग्निं च विश्वशम्भुवम् ॥ 2 ॥


सोम ने ऐसा उपदेश किया है कि जल में सब दिव्य औषधि विद्यमान हैं तथा सारे जगत् को आनंद पहुंचाने वाला और कल्याण क वाला अग्नि देवता भी अवस्थित है।


आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम । ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥ 


हे जल! तू हमें रोगों के निवारणार्थ औषधियां प्रदान कर तथा ह शरीरों को स्वस्थ कर जिससे हम चिरकाल तक सूर्य का दर्शन करते हैं 


शं न आपो धन्वन्याः शमु सन्त्वनूप्याः शं नः खनित्रिमा आपः ।

शमु याः कुंभ आभृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥ 4 ॥ 


निर्जल देश का जल हमारे लिए सुखकारी हो, जल वाले देश जल सुख प्रदान करने वाला हो। भूमि आदि खोदकर निकाला गया है का जल तथा घड़े में भरकर लाया गया जल सुख प्रदान करे। इसी प्रक वर्षा से प्राप्त हुआ जल भी कल्याणकारी हो ।


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