सामवेद दशती श्लोक 1 to 5 के अर्थ (SAMAVEDA SHALOKA MEANING 1TO 5)
Samaveda ke shaloka ke arth hindi mein 1 to 5. meaning of Samaveda shaloka in hindi. SAMAVEDA SHLOKA IN HINDI. PFD OF SAMAVEDA . सामवेद ग्रन्थ. अध्याय प्रथम. सामवेद रचियता. सामवेद ( samveda) सम्पूर्ण विवरण. सामवेद दशती श्लोक (SAMVEDA SHLOKA) 1 to 5 के अर्थ
पूर्वार्चिकः
अथ प्रथमोऽध्यायः
(आग्नेय काण्डम् )
प्रथम दशती
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि जीवन का ध्येय है। इसकी सरलतम व्याख्या यह है कि धर्म द्वारा 'अर्थ' (धन) कमाना, धर्मानुकूल 'काम' (मन और इंद्रियों के सुख-भोग प्रमोद) का उपभोग और इन तीनों द्वारा सात्त्विकतापूर्वक कर्त्तव्य कर्म करते हुए मोक्ष की उपलब्धि, यह मनुष्य- जीवन की सफलता है।
(ऋषि-भरद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीतिपुरुमीढौवांगिरसौ, वामदेव । देवता- अग्नि । छंद - गायत्री ।) अग्न आ याहि वीतये गुणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि ॥ 1 ॥
हे परमेश्वर अग्ने ! सबने तेरी स्तुति की, क्योंकि तू ही सबका दाता और विश्व ब्रह्मांड में व्यापक है। तू ज्ञान तथा उत्तम पदार्थों के लिए हमें प्राप्त हो।
त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः । देवेभिर्मानुषे जने ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू विद्वानों और दिव्य पदार्थों के द्वारा मनुष्य-समाज पर उपकार करने वाला तथा समस्त उत्तम व्यवहारों का दाता है।
अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥ 3 ॥
इस संसाररूपी यज्ञ के उत्तम निर्माता और पापियों को दंड देने वाले अग्नि (ईश्वर) की हम स्तुति करते हैं।
अग्निर्वृत्राणि जंघनद् द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥ 4 ॥ स्तुति एवं उपासना से साक्षात् किया हुआ, शुद्धस्वरूप तथा समस्त
धनों का स्वामी अग्नि अज्ञानियों के अंधकार का विनाश करता है। प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्ने रथन्न वेद्यम् ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! मित्र के समान प्रिय और सूर्य के समान जानने योग्य, कालबंधन रहित तथा अत्यंत प्रिय तुझ प्रभु की मैं स्तुति करता हूं। त्वन्नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मत्त्र्त्यस्य ॥ 6 ॥
महान् गुणों और कर्मों द्वारा समस्त अदानशीलता के भावों और द्वेष करने वाले मनुष्य के संपर्क से हे अग्नि ! तू हमें बचा।
एह्यूषु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः । एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥ 7 ॥
हे अग्ने ! मैं मनुष्यों की वाणी से भिन्न तेरी वेदमयी वाणी अथवा स्तुति को उत्तम रूप से बोलूं। इस प्रकार तू मुझे प्राप्त हो और इन यज्ञादिकों द्वारा मुझे बढ़ा।
आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वां कामये गिरा ॥ 8 ॥
हे अग्ने ! तेरा पुत्र रूप जीव हृदय-देश में साथ रहने वाला तुझ परम प्रभु से मनन योग्य ज्ञान को प्राप्त करता है। मैं भी स्तुति द्वारा तेरी कामना करता हूं।
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्वो विश्वस्य वाघतः ॥ १ ॥ हे अग्ने! महान् अहिंसावादी योगी तुझे हृदयाकाश में प्राप्त करता है और मेधावीजन तुझे मूर्त पदार्थों के आधारभूत संसार के मध्य देखते हैं।
सामवेद-1
अग्ने विवस्वदाभरास्मभ्यमूतये महे। देवो ह्यसि नो दृशे ॥ 10 ॥ हे अग्ने ! निश्चय ही तू हमारे ज्ञान के लिए है, अतः हमारी पूर्ण रक्षा के लिए हमें अज्ञान-निवारक ज्ञान दे।
द्वितीय दशती
(ऋषि- आयुंग्क्ष्वाहि, वामदेव, गौतम, प्रयोगो, भार्गव, मधुच्छंदा, शुनःशेप, मेधातिथि, वत्स । देवता-अग्नि । छंद- गायत्री।) नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमेर मित्रमर्दय ॥ 1 ॥
हे अग्ने ! मनुष्य जन बल को प्राप्त करने के लिए तुझे नमस्कार करते हैं, तेरी स्तुति करते हैं। तू अपनी शक्ति द्वारा पाप का संहार कर ।
दूतं वो विश्ववेदसं हव्यवाहममत्र्त्त्यम्। यजिष्ठमृ॑जसे गिरा ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू अमर, सर्वज्ञ, कर्मफलदाता और दुःखनाशक है, मैं वाणी रूप स्तुति से तुझे प्रवृद्ध करता हूं।
उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः । वायोरनीके अस्थिरन् ॥ 3 ॥
हे अग्ने! ज्ञान प्राप्त कराने वाली स्तुतियां तेरी सेवा में जाती हुई वायुमण्डल को प्रदीप्त कर, उसमें स्थित हो जाती हैं।
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ॥ 4 ॥ हे अग्ने! हम सदैव तेरे पास उपस्थित रहते हैं और श्रेष्ठ बुद्धिपूर्वक
प्रातः व सायं तुझे नमस्कार करते हैं। जराबोध तद्वितिड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमं रुद्राय दृशीकम् ॥ 5 ॥
हे स्तुति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले ! तू उस अग्नि की मनोहर स्तुति कर जो प्रत्येक मनुष्य के लिए पूजनीय है।
प्रतित्यंचारुमध्वरंगोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! विद्वान मनुष्यों द्वारा इस संसार यज्ञ को उद्देश्य में रखकर,
दोनों लोकों में पदार्थों की रक्षा के लिए तू पुकारा जाता है। तू इस यज्ञ में आगमन कर।
अश्वन्न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निन्नमोभिः | सम्राजंतमध्वराणाम्॥ 7 ॥
हे अग्ने! तू यज्ञों के अधिपति रूप से प्रसिद्धि प्राप्त अश्वन्न (सूर्य)
के समान है। हम स्तुतियों के द्वारा तुझे नमस्कार करते हैं। और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदाहुवे । अग्निं समुद्रवाससम् ॥ 8 ॥
पृथ्वी पर बसने वाले विद्वान एवं कर्म करने वाले मनुष्यों की भांति आकाश में व्याप्त उस पवित्र अग्नि की मैं स्तुति करता हूं। अग्निमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत्त्र्त्यः । अग्निमिन्धे विवस्वभिः ॥ 9 ॥
अग्नि को प्रदीप्त करने वाले योगी पुरुष हार्दिक भावना एवं बुद्धि को संयुक्त कर ज्ञान ज्योतियों से परमेश्वर को चैतन्य करें। आदित्प्रत्नस्त्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवि ॥ 10 ॥
सूर्य आदि पदार्थों में भी प्रकाशमान अग्नि की सर्वत्र व्याप्त परम ज्योति को योगीजन सहज ही देख लेते हैं।
तृतीय दशती
(ऋषि-प्रयोगो, भरद्वाज, वामदेव, वसिष्ठ, विरूप, शुनःशेप, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिंधुद्वीप, अम्बरीष, त्रित आत्यो
या उशना । देवता- अग्नि । छंद-गायत्री।) अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम्। अच्छा नप्त्रे सहस्वते ॥ 1 ॥
पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए याज्ञिकों के बंधु, बलशील और ज्वालाओं से प्रवृद्ध अग्नि की शरण में जाओ। हे मनुष्यो ! उसकी स्तुति करो। अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यंसद्विश्वं न्य३त्रिणम् । अग्निर्नो वंसते रयिम् ॥ 2 ॥
अग्नि अपने प्रचण्ड तेज तथा तीक्ष्ण ज्वालाओं से पाप और विघ्नों को दूर करने एवं धन, वैभव प्रदान करने वाला है। अग्ने मृड महां अस्यय आ देवयुंजनम् । इयेथ बर्हिरासदम् ॥ 3 ॥
हे अग्ने ! तू महान है एवं समस्त स्थानों पर स्थित है। तू संपत्तिवान एवं ज्ञानवान मनुष्य को भी सर्व प्रकार से सुखी रखने वाला है। अग्ने रक्षा णो अंहसः प्रति स्व देव रीषतः । तपिष्ठैरजरो दह ॥ 4 ॥ हे अग्ने ! पाप से हमारी रक्षा कर और हमारे हिंसात्मक विचारों को अपने संतापक तेज से भस्म कर ।
अग्ने युंग्क्ष्वा हि ये तपाश्वासो देव साधवः । अरं वहन्त्याशवः ।। 5 ।। हे अग्ने ! तेरे प्रताप से विद्वजन भली-भांति परिचित होते हैं और तेरे द्वारा प्रदान ज्ञान को अपने में समाहित कर लेते हैं। ऐसा ज्ञान सबको अर्पण कर ।
नि त्वा नक्ष्य विश्पते द्यु मंतं धीमहे वयम्। सुवीरमग्न आहुत ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! तू उपासना का पात्र और धन का स्वामी है। जो तेरी स्तुति करते हैं, उन्हीं को सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं।
अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपां रेतांसि जिन्वति ॥ 7 ॥ अग्नि जलों के साररूप जंगम जीवों को जीवन देने वाला ईश्वर ही स्वर्ग के महान देवताओं में श्रेष्ठ और पृथ्वी का अधीश्वर है ।
इममूषु त्वमस्माकं स नि गायत्र्यं नव्यांसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥ 8॥
हे अग्ने ! तू विद्वानों को भजन करने योग्य इस वेद का बोध कराता है तथा ऐसे ज्ञान को प्रदान करता है जो प्रतिदिन स्मरण करने योग्य है । तन्त्वा गोपवनो गिरा जनिष्ठदग्ने अंगिरः । स पावक श्रुधी हवम् ॥ १ ॥
हे अग्ने! तू सर्वत्र गमनशील है। बुद्धिमान मनुष्य तुझे स्तुति रूप तू वाणी से प्रवृद्ध करते हैं। तू हमारी विनती को श्रवण कर। परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत्।
दधद्रत्नानि दाशुषे ॥ 10 ॥ काव्यादि का कर्त्ता, बलवान, रत्नों आदि से सुशोभित ईश्वर, सभी हव्य पदार्थों में निरंतर गतिशील है।
उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ 11 ॥
प्राणियों के निमित्त सूर्य की किरणें जातवेद सूर्यात्मक अग्नि को प्रदीप्त करती हैं।
कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम् ॥ 12 ॥
हे मनुष्यो! सत्य को धारण करने वाले तथा अज्ञान के निवारक ईश्वर में ध्यान लगाओ। शन्नो देवीरभिष्टये भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥ 13 ॥ हमारे लिए
अग्नि की अलौकिक विभूतियां अभीष्ट की सिद्धि हेतु
कल्याणकारी हों और हम पर सुख की सदा वर्षा करें।
कस्य नूनं परीणसि धियो जिन्वसि सत्पते। गोषाता यस्य ते गिरः ॥ 14 ॥
हे अग्ने ! तू अज्ञानियों के ज्ञान को पूर्ण करने वाला ऐसे सज्जनों का पालनकर्त्ता है जो वेदवाणियों के भजन से तेरी स्तुति करते हैं ।
चतुर्थ दशती
(ऋषि- शंयुवार्हस्पत्य, भर्ग, वसिष्ठ, प्रस्कण्व, कण्व । देवता - अग्नि । छंद- बृहती ।)
यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे। प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रन्न शंसिषम् ॥ 1 ॥
मित्र की भांति प्रिय, यज्ञों में बढ़ने वाले, अमर और सर्वत्र अग्नि
की स्तुतियों का कीर्तन बल प्राप्त करने वाले मनुष्य करते हैं।
पाहि नो अग्न एकया पाहयू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पार्हि चतसृभिर्वसो ॥ 2 ॥
हे अग्ने! हमारी संपूर्ण रूप से रक्षा कर। तू समस्त वेदवाणियों से युक्त, संपूर्ण ज्ञानों का स्वामी तथा अंतर्यामी है।
बृहद्भिरग्ने अर्चिभिः शुक्रेण देव शोचिषा । भरद्वाजे समिधानो यविष्ठय रेवत् पावक दीदिहि ॥ 3 ॥
हे तेजयुक्त, शुद्धि करने वाले, सर्व गुणों से संपन्न अग्नि ! अपने उज्ज्वल तेज से भरद्वाज के लिए प्रकाशवान होने वाले अत्यंत तेजस्वी और ऐश्वर्यवान होकर हमें भी प्रकाशित कर ।
त्वे अग्ने स्वाहुत प्रियासः सन्तु सूरयः । यन्तारो ये मघवानो जनानामूत्रं दयन्त गोनाम् ॥ 4 ॥
हे अग्ने ! जो मनुष्य यज्ञकर्त्ता होते हैं, विद्वानों का सम्मान करते हैं। और गायों की सेवा में तत्पर रहते हैं वो तुझ उपास्य देव की दया के पात्र होते हैं।
अग्ने जिरितविंशपतिस्तपानो देव रक्षसः ।
अप्रोषिवान् गृहपते महां असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों का पालनकर्त्ता, संसाररूपी गृह का निर्माता, पापियों को नष्ट करने वाला, लोकों का रक्षक और स्वामी है।
अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा स्वमद्या देवां उषर्बुधः ॥ 6 ॥
हे अग्ने ! तू अविनाशी, व्यापक एवं दर्शनीय है। समस्त प्राणियों को सुख देने वाला, उषाकाल की संचय शक्तियों का प्रदाता तथा मन को चेतना देने वाला है।
त्वन्नश्चित्र ऊत्या वसो राधांसि चोदय । अस्य रायस्त्वमग्ने रथीरसि विदा गाधं तुचे तु नः ॥ 7 ॥
हे रोम-रोम में बसने वाले अग्ने ! तू द्रव्यों का अधिपति है, हमें भी द्रव्य प्रदान कर। हे दाता ! हमारी संतान को दिव्य गुणों से अलंकृत कर,
उसे रक्षा-साधन उपलब्ध करा ।
त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातऋतः कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदित आ विवसन्ति वेधसः ॥ 8 ॥
हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों की रक्षा करने वाला, ज्ञान का प्रकाश देने वाला, दुःखों को हरने वाला, सत्यस्वरूप एवं महान है। मेधावीजन स्तुति द्वारा तेरी उपासना करते हैं।
आ नो अग्ने वयोवृधं रयिं पावक शस्यम् । रास्वा च न उपमाते पुरूस्पृहं सुनीती सुयशस्तरम् ॥ १॥
हे पवित्र, पापों को नष्ट करने वाले एवं सृष्टि के निर्माता अग्ने ! अपनी श्रेष्ठ नीति के द्वारा सुयशरूप धन हमें प्रदान कर। हमें उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु दे।
यो विश्वा दधते वसु होता मन्द्रो जनानाम्। मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्वग्नये ॥ 10 ॥
मधुपात्र की भांति धनदाता, परम पूजनीय अग्नि की हम स्तुति करते हैं, ये स्तुति उसे प्राप्त हों।
पंचम दशती
(ऋषि-वसिष्ठ, भर्ग, मनु, सुदीति और पुरुमीढ, प्रस्कण्व, मेधातिथि और मेध्यातिथि, विश्वामित्र, कण्व । देवता- अग्नि, इन्द्र । छंद - बृहती।)
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमाहुवे ।
प्रियं चेतिष्ठमरतिं स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम् ॥ 1 ॥ समस्त संसार के दुःख-निवारण करने वाले, श्रेष्ठ ज्ञान वाले, संपूर्ण जगत् के स्वामी, प्रिय, बल के पुत्र और रक्षक, अविनाशी अग्नि की है स्तुति करता हूं।
शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्य वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥ 2 ॥
हे अग्ने ! तू पृथ्वी, आकाश एवं जलादि सभी स्थानों में स्थित है। प्राणीजन के अंतस् में समाकर तू उनके ज्ञान को रोशन करता है। समस्त दिव्य शक्तियां तेरे कारण ही प्रकाशित हैं और तू ही सबको द्रव्य प्रदान करने वाला है।
अदशिं गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः
॥ 3 ॥ जिस अग्नि के द्वारा बुद्धिमान मनुष्यों ने कर्मों को किया, वो दर्शनीय रूप से प्रकट हुआ। उस सुप्रसिद्ध सदाचारी को उन्नत करने वाले अग्नि को हमारी स्तुति रूप वाणी समर्पित हो ।
अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे । ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पते देवा अवो वरेण्यम् ॥ 4 ॥ ब्रह्माण्ड के पालनहार और संसाररूपी अग्नियज्ञ में ऋत्विजों द्वारा
वेदी में स्थापित हुए अग्नि से रक्षा की मैं विनती करता हूं । अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम् । अग्निं राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निः सुदीतये छर्दिः ॥ 5 ॥
हे मनुष्यो ! अग्नि की शरण में जाओ तथा संपदा की प्राप्ति और स्वयं की रक्षा के लिए उसकी वेदवाणी से स्तुति करो ।
श्रधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवेरग्ने सयावभिः । आ सीदतु बर्हिषी मित्रो अर्यमा प्रातर्यावभिरध्वरे ॥ 6 ॥
हे श्रवण शक्ति से युक्त कर्ण वाले विद्वान मनुष्य! समस्त गतिशील अलौकिक शक्ति का स्वामी परमेश्वर (अग्नि) आकाश में स्थित है। वह नित्य कर्मयुक्त और न्याय का कारक है।
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥ 7 ॥ पृथ्वी और आकाश में विद्युत की भांति व्याप्त अग्नि स्वर्ग में स्थित
है और मोक्षगामी को सुख का देने वाला है। अधज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥ 8 ॥ परमेश्वर से ज्ञानवान कोई नहीं। वह समस्त लोकों में सर्वत्र व्याप्त
है, वह उत्तम ज्ञान का प्रदाता और उत्पन्न हुए पदार्थों का पालनकर्त्ता है। कायमानो वना त्वं यन्मातृरजगन्नपः । न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तनं यद्दूरै सन्निहाभुवः ॥ 9 ॥
हे अग्ने ! तू हमसे दूर होकर भी हमें अत्यंत निकट अनुभव होता है। तू वनों की इच्छा करके भी जगत् का निर्माण करने वाले जलादि द्रव्यों को प्राप्त हुआ है।
नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो या नमस्यन्ति कृष्टयः ॥ 10 ॥
हे अग्ने ! तू प्रकाशवान है और ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान का प्रकाश तुझ से ही प्राप्त होता है। तू सत्यस्वरूपा है। सत्य एक तू ही है और मनुष्यजन स्तुति कर तुझे नमस्कार करते हैं।
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