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यस्ते गन्धः पृथिवी संबभूव वं विभत्योषधयोः यमापः । व गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृष्णु मानो द्विक्षत कश्चन।
पृथ्वी पर स्थित सुगंधित औषधियों और वनस्पतियों के रूप में जो गंध उत्पन्न होती है और जिसे गंधर्व और अप्सराएं धारण करती हैं। हे पृथ्वी! तू उस गध से हमें युक्त करे। हमसे ईर्ष्या न करने वाला कोई न हो। सभी हमारे प्रति मित्रभाव रखें।
माहिंसिष्टं कुमार्य स्थूणे देवकृते पथि शालाया देव्या द्वारे स्योनं कृष्मो वधूपथम् ॥
हे देवताओं! इस वधू को ले जाने वाले रथ को हानि न पहुंचाओ। हम गृहरूप देवता के द्वार पर इस वधू के मार्ग को मंगलकारी बनाते हैं। तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः । तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापि गच्छातात् । ताप के प्रभाव से, यज्ञादि साधनों द्वारा जो स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं और जिन्होंने दुष्कर तप साधना की है, हे प्रेतात्मन्! तू उन्हों के निकट गमन करे।
भूमिका
चारों वेदों में अथर्ववेद चौथा है। अथर्ववेद दो अक्षरों से मिलकर बना है। अथर्व वेद - अथर्ववेद अथर्व में 'पर्व' धातु का अर्थ 'चलना, ' अर्थात् 'गति' है। इसमें 'अ' उपसर्ग लग जाने से' अथर्व' बनता है। तब इसका अर्थ हो जाता है---निश्चात् अर्थात् स्थिर, परन्तु इसका अर्थ गतिहीनता नहीं है। इसका अर्थ है- वेद का वह अर्थ या ज्ञान, जो स्थिर है। यह 'स्थिर ज्ञान' एकरस, सर्वव्यापक परब्रह्म परमेश्वर का ज्ञान है। यह ज्ञान अचंचल है।
रचना-प्रक्रिया
अथर्ववेद की अनेक नामों से पुकारा जाता है। वैदिक साहित्य में अथर्ववेद के 'ब्रह्मवेदभैषज्य वेद' और 'अथर्वाङ्गिर' नाम भी हैं।
अथर्ववेद को मन्त्र साधना साधक को 'स्थितप्रज्ञ' बनाती है। यह आत्मानुशासन की साधना है। ऐसी साधना और चिन्तन करने वाले ऋषियों को 'अथर्वा' अथवा 'आथर्वण' कहा जाता था। ये लोग 'अग्नि' के उपासक थे।
'अथर्वा' और 'अंगिरस' नाम के दो भिन्न ऋषि थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम
अग्नि को प्रकट किया था। अग्नि की उपासना 'यज्ञ' द्वारा की जाती थी।
अथर्वा ऋषि द्वारा जो ऋचाएं प्रस्तुत की गयीं, वे अध्यात्मपरक, सुखकारक, आत्मा का उत्थान करने वाली तथा जीवन में मंगलकारक स्थितियां प्रदान करने वाली हैं। ये 'सृजनात्मक ऋचाएं' हैं।
अंगिरस ऋषि द्वारा जो ऋचाएं प्रस्तुत की गयी हैं, वे अभिचारकर्म को प्रकट करने वाली, शत्रुनाशक, जादू-टोना, मारण, वशीकरण आदि को प्रदान करने वाली हैं। ये 'संहारात्मक' ऋचाएं हैं। ऐसा ऊपर से देखने पर लगता है। क्योंकि सृजन के लिए उन परिस्थितियों का परिहार भी आवश्यक है, जो सृजन के बीच बाधा रूप
अथर्ववेद संहिता बीस काण्डों में विभक्त है। इसमें 726 सूक्त और 5,977 मन्त्र हैं। बीसवें काण्ड में अधिकांश मन्त्र 'ऋग्वेद' के हैं। अथर्ववेद के इन मन्त्रों में साधना, उपासना तथा तन्त्र-विधान से अध्यात्म, ब्रह्मविद्या व आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। दोषों-दुर्भाग्य, दैन्य, दुःख, दारिद्र्य, पाप, शाप, ताप, अनिष्ट, आपत्तियां, संकट, संघर्ष, कष्ट, प्रेतबाधाओं-आदि से जीवन की रक्षा होती है।
हुआ है-सौद, अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख 'महाभाष्य' में पैप्पलाद, मौद, शौनक, जाजल, ब्रह्मवद, देवदर्श और चारणवैद्य। इनमें से 'शौनक' और 'पैप्पलाद' ही उपलब्ध हैं। प्रचलन 'शौनक' शाखा का है। इसमें 'कर्मकाण्ड' का वृहद् जाल बिछा हुआ है।
अथर्ववेद की विषयवस्तु
'अथर्ववेद' के बीस काण्डों में- ब्रह्मविद्या, मातृभूमि, स्वराज्य शासन, गृहस्थाश्रम, दीर्घ जीवन और आरोग्य सन्धान, ज्ञान-वृद्धि, संगठन, विजय प्राप्ति, ओषधि-विज्ञान तथा जादू-टोना आदि के मन्त्र हैं। इनमें भी ब्रह्मज्ञान सर्वोपरि है। 'अथर्ववेद' के 13, 14, 15, 16, 17, 18 और 20 काण्ड पूरी तरह से व्यवस्थित हैं। इनमें विषय के अनुसार ही मन्त्रों का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम काण्ड से बारहवें काण्ड तक और उन्नीसवें काण्ड में, विषयों के अनुसार सूक्तों और मन्त्रों का संग्रह नहीं है। अथर्ववेद के सभी काण्डों में विषय की विविधता के दर्शन किये जा सकते हैं।
प्रथम काण्ड
इस काण्ड में विविध रोगों, शत्रुविनाश, प्रसूति, देह-पुष्टि कर्म, रोगनिवारण, दीर्घायु आदि के मन्त्र हैं। रोगविनाश का यह मन्त्र द्रष्टव्य है-
श्यामा सरूपं करणी पृथिव्या अध्युद्भृता । इदमूषु प्र साधय पुना रूपाणि कल्पय ॥
(अथ. 1/24/4)
अर्थात् जैसे उत्तम वैद्य ओषधों से रोग को दूर कर रोगी को सभी प्रकार से स्वस्थ करके उसे सुख पहुंचाता है, उसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सभी विघ्नों को हटाकर कार्यसिद्धि करके आनन्द भोगता है।
दूसरा काण्ड
इस काण्ड में भी पापमोचन, शत्रुविनाश, दीर्घायु, दस्युनाश, सुरक्षा, बल- प्राप्ति, कृमि-भंजन, विश्वकर्मा आदि का विवेचन किया गया है। समर्थ व्यक्ति सदैव विजयी होता है-
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा बिभेः ॥
(अथ. 2/14/6)
अर्थात् समर्थ और सत्य पथ पर चलने वाला व्यक्ति न अतीत में और न भविष्य में भयभीत होता है। वह सदैव विजयी होता है। भूत और भविष्य का विचार करके जो कर्म करते हैं, वे सदैव सुखी रहते हैं।
इसी प्रकार पृथिवी पर विचरण करने वाले विभिन्न कीड़े-मकोड़ों से बचने की शिक्षा भी यहां दी गयी है-
विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमि सारंगमर्जुनम् । शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ॥
(अथ. 2/32/2)
अर्थात् पृथिवी और अन्तरिक्ष में नाना प्रकार के और वर्ण के कीड़े-मकोड़े मक्खी-मच्छर आदि क्षुद्र जीवों को शुद्धि द्वारा दूर करके जो स्वस्थ रहते हैं, ये सभी प्रकार के आत्मिक दोषों को दूर करके आत्मिक शान्ति प्राप्त करते हैं।
तीसरा काण्ड
इस काण्ड में शत्रु की सेना का सम्मोहन, स्वराज्य स्थापना, राष्ट्र के लिए सुयोग्य राजा, शत्रुविनाश, दीर्घायु, दुखों का नाश, वाणिज्य, कृषि, वनस्पतियां, शान्ति और समृद्धि, आत्मरक्षा एवं पशुपालन आदि की चर्चा की गयी है।
चौथा काण्ड
इस काण्ड में ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या, शत्रुविनाश, बाजीकरण, रोगनिवारण पापमोचन, सेना की देखभाल, कीड़े-मकोड़ों से रक्षा, विषनाश, राज्याभिषेक आदि से जुड़े मन्त्र हैं। आत्मविद्या का यह मन्त्र देखिये-
नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभि शोचनम् । नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन ॥
(अथ. 4/9/5) अर्थात् जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थिर करता है, उसको आत्मिक और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है तथा उसके आधिभौतिक तथा आधिदैविक कष्टों का विनाश हो जाता है।
पांचवां काण्ड
इस काण्ड में ब्राह्मण जाति के महत्त्व का प्रतिपादन प्रचुर मात्रा में किया गया। है। साथ ही शत्रुविनाश, विजय, कुष्ठरोग से मुक्ति, ब्रह्मविद्या, आत्मा, आत्मरक्षा, सर्व-विनाश के उपाय, रोगों से मुक्ति, गर्भाधान, अग्नि, दीर्घायु आदि का भी वर्णन किया गया है। उत्तम राजा अपने उत्तम कुल के संस्कारों के आधार पर ही अपनी प्रजा के दुःख-सुख का ध्यान रखता है-
उत्तमो नाम कुष्ठास्युत्तमो नाम ते पिता। यक्ष्यं च नाशय तम्मानं चारसं कृधि ॥
अर्थात् हे गुणों की परीक्षा करने वाले राजन्! तू अपने नाम और कुल (माता-पिता के वंश) से अति उत्तम है। तू समस्त राज-रोगों को अवश्य नाश करने वाला है। दुखीजन और ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त प्रजा को सुखी बना तथा उनकी रक्षा कर।
आत्मा की उन्नति का उपदेश देते हुए अथर्ववेद कहता है कि परमेश्वर के लिए मधुर वचनों का प्रयोग कर (5/8/1 से 6 तक), पृथिवी को समृद्ध बनाने के लिए मधुर वचन कह, अन्तरिक्ष और अन्तरात्मा में स्थित हृदय की शुद्धि के लिए प्रार्थना कर, मध्यलोक, वायुमण्डल, अर्थात् द्युलोक के ज्ञान के लिए प्रार्थना कर, सुन्दर व्यवहार को पाने के लिए प्रार्थना कर तथा समृद्ध राज्य की प्राप्ति के लिए मधुर वाणी का प्रयोग कर।
भाव यही है कि आत्मा को जानने के लिए और सुख तथा आनंद का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए मधुर वचन और श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त कर ।
'हिंसा' कभी श्रेयस्कर नहीं होती। मनुष्य को सदैव उसका त्याग वैसे ही करना चाहिए, जैसे किसी उपद्रवी व्यक्ति को छोड़ दिया जाता है।
छठा काण्ड
इस काण्ड में दुःस्वप्नों का विनाश, अन्नादि की समृद्धि, शत्रुनाश, सर्प- विषनिवारण, ईर्ष्या का त्याग, औषधि-ज्ञान, पापनाश, दीर्घायु, रोगशमन, जल- चिकित्सा, यश-प्राप्ति, बाजीकरण, बल-प्राप्ति, गर्भधारण, कुष्ठरोग औषधि, चिकित्सा, मेखला-बन्धन व सौभाग्य वृद्धि आदि की चर्चा की गयी है।
मनुष्य को चाहिए कि कभी दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या न करे- ईर्ष्याया धाजि प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्। अग्निं हृदय्यंश्शोकं तं ते निर्वापयामसि ॥
(अथ. 6/18/1 )
अर्थात् मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी ईर्ष्या न करे। दूसरे की उन्नति अथवा सुख को अपना ही सुख और उन्नति माने ।
सातवां काण्ड
इस काण्ड में आत्मा, परमात्मा, शत्रुनाश, सरस्वती, राष्ट्रसभा, सविता, वृष्टि, विष्णु, दीर्घायु, पापमोचन, अग्नि, धर्म, दुःस्वप्ननाश, गौ, अमृत आदि के मन्त्र हैं। सर्वव्यापी परमात्मा की उपासना करना सुख पाने के सदृश है-
यद् देवा देवान् हविषायजन्तामर्त्यान् मनसामर्त्येन । मदेम तत्र परमे व्योमन् पश्येम तदुदितौ सूर्यस्य ॥
(अथ. 7/5/3)
[12:13, 04/04/2023] Shrikant Vishwakarma: अर्थात् जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणों को अपने पूर्ण विश्वास और पुरुषार्थ से ग्रहण करते हैं, वे पुरुष आनन्द का उपभोग करते हुए परमात्मा का दर्शन करते हैं। वे अविद्या को नष्ट करके व ज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार सर्वत्र विचरण करते हैं, जैसे सूर्य के निकलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है।
आठवां काण्ड
इस काण्ड में दीर्घायु, शत्रुनाश, गर्भदोषनिवारण, औषधि, विराट् परमात्मा आदि के मन्त्र हैं। कीड़े-मकोड़े और रोगाणुओं का नाश करने के लिए मनुष्य को सुगन्धित पदार्थों का उपयोग करना चाहिए परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्थित है-
विराड् वा इदमग्र आसीत् तत्या जाताया । सर्वमबिभेदियमे वेदं भविष्यतीति ॥
(अथ. 8/10/1) अर्थात् सृष्टि से पहले एक विराट् शक्ति थी। उसे ही ईश्वरीय शक्ति कहते हैं। उसी से सृष्टि का प्रारम्भ माना जाता है। उसी ने प्रकट होकर प्रत्येक जीवन में अपने को स्थित किया।
उस विराट् परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार में समस्त कार्यों में निपुण होता है।
नौवां काण्ड
इस काण्ड में मधुविद्या, काम, शाला, ऋषभ, अतिथिसत्कार, गौ, आत्मा आदि के मन्त्र हैं। जिनसे मधुर व्यवहार और माता-पिता द्वारा संतान को दी जाने वाली शिक्षा का संदेश प्राप्त होता है।
यथा सोमः प्रातः सवने अश्विनोर्भवति प्रियः । एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥
(अथ. 9/1/11)
अर्थात् जैसे ऐश्वर्यवान् आत्मा (सोम) प्रातः काल के यज्ञ में माता-पिता का प्रिय होता है, वैसे ही कार्यकुशल कर्मठ माता-पिता मेरी आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करें।
भाव यही है कि कुशल माता-पिता अपने होनहार बालकों का हितसन्धान करने में सदैव तत्पर रहते हैं। उन्हें आचार्य के समान अपनी सन्तान को शिक्षित करना चाहिए।
परमात्मा ही सभी अणुओं-परमाणुओं में स्थित है-
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः । अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिर्ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥
(अथ. 9/10/14)
अर्थात् पृथिवी गोल है। सभी प्राणी सोम, अर्थात् अन्न आदि के रस से बलवान् होते हैं। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अथवा आकर्षण-विकर्षण से समस्त संसार एक नाभि में स्थित है। परमेश्वर ही समस्त वाणियों, अर्थात् ज्ञान का भण्डार है। पृथिवी के गोल होने की बात वैदिक ऋषि जानते थे।
दसवां काण्ड
दसवें काण्ड में 10 सूक्त और 350 मन्त्र हैं।
इस काण्ड में ब्रह्म, सर्पविषनिवारण, विजय, मणिबन्ध, ब्रह्मचर्य आदि के मन्त्र हैं । सनातन ब्रह्म के विषय में की गयी जिज्ञासाओं के बारे में ऋषिगण का यह स्पष्ट कथन है-
सनातनमेनमाहुरुतायद्य स्यात् पुनर्णवः । आहेरात्रे प्र जायेते अन्यो अनस्य रूपयोः ॥
(अथ. 10/8/23)
अर्थात् परमात्मा नित्य है। सदैव स्थायी रूप से रहने वाले परमात्मा के गुण जिज्ञासुओं को नित्य नवीन रूप में विदित होते हैं, जैसे दिन रात्रि से और रात्रि दिन से नित्य नवीन उत्पन्न होती है।
इस मन्त्र में 'सनातन' शब्द प्रमुख है, जो ईश्वर के लिए आया है। यह परमात्मा अनादिकाल से पुनः नवीन रूप लेकर प्रकट होता रहा है। जो नित्य है, वह कभी पुराना नहीं हो सकता।
ग्यारहवां काण्ड
इस काण्ड में ब्रह्म, रुद्र, प्राण, ब्रह्मचर्य, पापमोचन, अध्यात्म, शत्रुनिवारण आदि के मन्त्र हैं। उस काल में यान, विमान, कला आदि के बारे में ऋषियों को पूरा ज्ञान था इन मंत्रों से यह भी सिद्ध होता है।
अभिक्रन्दन् स्तनयन्नरुणः शितिङ्गो बृहच्छेयोऽनु भूमौ जमार। ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः पृथिव्यां तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्त्र ॥
(अथ. 11/5/12)
अर्थात् विद्वान्, पुरुषार्थी व ब्रह्मचारी यन्त्र, कला, नौका, यान, विमान आदि की वृद्धि के अनेक साधनों से पृथिवी के जल, थल, पहाड़ को उपजाऊ बनाते हैं। 'अभिक्रन्दन' का अर्थ गर्जन करते हुए यन्त्र से है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग विविध यन्त्रों और विमान आदि के प्रयोग में प्रवीण 1
बारहवां काण्ड
इस काण्ड में मातृभूमि, स्वर्ग, आकाश आदि के मन्त्र हैं। भूमि पर विचरण करने वाले पशुओं का कृषि के लिए भी विशेष महत्त्व है। इस धरती पर विभिन्न रंग-रूप और वाणी बोलने वाले रहते हैं। उन सभी के लिए ऋषिगण धनवान होने तथा उनकी सुख-समृद्धि की कामना 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आधार पर करते हैं- जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवीमथौकसम् ।
सहस्त्र धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपम्फुरन्ती ॥
(अथ. 12/1/45) अर्थात् विविध भाषाओं को बोलने वाले, अनेक विचार और क्रियाकलाप वाले, बहुत से और बहुत प्रकार के आकार-प्रकार और रंग-रूप वाले लोगों-जैसे एक परिवार के छोटे-बड़े लोग घर में रहते हैं, वैसे ही हमारी यह धारण योग्य पृथिवी अथवा मातृभूमि उन सभी मनुष्यों को एक परिवार की तरह धारण करे। जैसे बिना हिले-डुले, निश्चल, स्थिर भाव से खड़ी गाय अपने स्तनों से दूध को धारा देती है, वैसे ही सभी को अन्न, धन, फल-फूल, सोना-चांदी, तांबा, लोहा आदि देकर उन्हें समृद्ध करें।
तेरहवां काण्ड
इस काण्ड में अध्यात्म का वर्णन किया गया है। योगीजन प्रकाशस्वरूप जगदीश्वर का ध्यान करके उसका सान्निध्य प्राप्त करते हैं और आनन्द की अनुभूति करते हैं। वह परमात्मा सबको समान रूप से देखता हुआ प्रकृति को नियमबद्ध रखता है। उसी का प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है-
सूर्योद्यां सूर्यः पृथिवीं सूर्य आपोऽति पश्यति । सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम् ॥
(अथ. 13/1/45)
अर्थात् सूर्य सबको चलाने वाला है। वह परमेश्वर है। वह प्रकाशमान सूर्य जो सर्वप्रेरक है, सर्वनियामक है, सारी पृथिवी को, सारे कार्यों को सदैव निहारत रहता है। वह सर्वनियन्ता, समस्त संसार का द्रष्टा, एक नेत्र स्वरूप ईश्वर आकाश और धरती पर सबसे ऊंचा है। वह पुरुषोत्तम है।
चौदहवां काण्ड
इस काण्ड में विवाह-संस्कार सम्बन्धी मन्त्र हैं। भारतीय जीवन में वैवाहिक संस्कारों का विशेष महत्त्व है।
पन्द्रहवां काण्ड
इस काण्ड में अध्यात्म प्रकरण, परमात्मा की महिमा आदि का विशद वर्णन
किया गया है।
सोलहवां काण्ड
इस काण्ड में दुःखमोचन के मन्त्र हैं। यह समस्त संसार दुःख से बंधा है। मनुष्य इस दुःख से निकलकर सुख की चाह में जीवन व्यतीत करना चाहता है।
सत्रहवां काण्ड
इस काण्ड में मोहन, वशीकरण और अभ्युदय प्रार्थना के मन्त्र हैं। जीवात्मा परमात्मा से सदैव सुख और आनन्द की कामना करता है-
उद्यते नम उदायते नम उदिताय नमः । विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥
(अथ. 17/1/22)
अर्थात् उदय होते हुए परमात्मा को नमस्कार है, ऊंचे उठते हुए परमात्मा को नमस्कार है, उदय हो चुके परमात्मा को नमस्कार है, विविध राजाओं को नमस्कार है, अपने आपको नमस्कार है, राजराजेश्वर सम्राट् को नमस्कार है।
भाव यही है कि परमात्मा प्रलय और सृष्टि की सन्धि अवस्था में, सृष्टि रचना की स्थिति में, सृष्टि की रचना कर चुकने की स्थिति में अपनी महानता प्रकट करता है। उस सर्वशक्तिमान् अद्वितीय जगदीश्वर को नमन करते हुए, हम सभी सुखी रहें। मोह-माया के बन्धनों से मुक्त रहें।
अट्ठारहवां काण्ड
इस काण्ड में अन्त्येष्टि कर्म का वर्णन है अर्थात मृत्यु के उपरान्त चिता कैसी बनानी चाहिए और अन्तिम कर्म करते हुए क्या-क्या करना चाहिए आदि ।
उन्नीसवां काण्ड
इस काण्ड में ज्योतिष ज्ञान का विशद वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें यज्ञकर्म, जगत्बीज पुरुष, नक्षत्रादि, शान्ति, दीर्घायु, अभय, सुरक्षा, ब्रह्मा, राष्ट्र, अश्व, अहंकार, मणिबन्ध, बल-प्राप्ति, रोगविनाश, जड़ी-बूटियां, रात्रि, ब्रह्मयज्ञ, काम, दुःस्वप्न, असुरविनाश, वेदमाता, काल आदि की चर्चा की गयी है। सभी विद्याओं के अध्ययन के लिए पुरुषार्थ और साधना की आवश्यकता होती है-
आयुषायुः कृतां जीवायुष्मान् जीव मा मृथाः । प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरुदगा वशम् ॥
(अथ. 19/27/8)
अर्थात् जीवन देने वाले के जीवन के साथ तू जीवित रह, उत्तम जीवन वाला होकर तू जीवित रह । तू मृत्यु को प्राप्त न हो, आत्मसाक्षात्कार करने वाले ज्ञानियों के जीवन-सामर्थ्य से तू जीवित रह, मृत्यु के वशीभूत मत हो ।
भाव यही है कि मानव-जीवन 'कर्मयोनि' और 'भोगयोनि' दोनों का समन्वित रूप है। यह मानव-शरीर हमें इसलिए मिला है कि हम अपने कर्मों के भोग को भोगें और नवीन कर्म करने के लिए प्रयासरत हों। जो आत्मज्ञानी मृत्यु के भय से मुक्त कराये, उसी के साथ अथवा उसके बताये मार्ग के अनुसार चलकर हम जीवन को सुखी बनाएं।
काल का भय मनुष्य को सदैव लगा रहता है। यह काल एक घोड़े के समान है, जो सदैव दौड़ता रहता है-
कालो अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भूरिरेताः । तमारोहन्ति कवयो वियश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥
(अथ. 19/53/1) अर्थात् भृगु ऋषि काल के बारे में बताते हैं कि काल सात रस्सियों वाला, हज़ारों धुरियों को चलाने वाला अजर-अमर है। वह महाबली समयरूपी घोड़े के समान दौड़ रहा है। समस्त उत्पन्न वस्तुएं, पदार्थ, जीव और सारे भुवन अथवा लोक उसके चक्र में, चक्रवत घूम रहे हैं। उस घोड़े पर ज्ञानी और क्रान्तदर्शी लोग ही सवार हो सकते हैं।
भाव यही है कि समयरूपी काल-अश्व तेजी से दौड़ रहा है। इस पर ज्ञानी और दूरदर्शी व्यक्ति ही सवार हो सकते हैं, अर्थात् जिन्होंने आत्मदर्शन से मुक्ति पा ली है, उन्हें मृत्यु-भय कभी नहीं सताता । जो विद्वान् हैं, पराक्रमी हैं, जितेन्द्रिय हैं, तपस्वी हैं, वे ही मृत्यु-भय से दूर होकर सुख प्राप्त करते हैं।
बीसवां काण्ड
यह सबसे बड़ा काण्ड है। इसमें ऋग्वेद के अधिकांश मन्त्र हैं और सामवेद के भी मन्त्रों की बहुतायत है। इस काण्ड में प्रमुख रूप से 'इन्द्र देवता' की उपासना के मन्त्र हैं। दानवीर यजमानों और राजाओं की भी प्रशंसा भी इसमें की गयी है।
अथर्ववेद के मन्त्रों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहां पर मानव जीवन के विविध पक्षों का सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसमें चारों वर्णों और चारों आश्रमों का विवेचन करते हुए मानव-जीवन में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के सिद्धान्त को समझाया गया है।
अथर्ववेद की रहस्य विद्या
'अथर्ववेद' के सम्पूर्ण मन्त्रों को 'शान्ति, ' 'पुष्टि' और 'अभिचार' इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। इन मंत्रों का लक्ष्य 'अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति' और 'प्राप्त वस्तु की रक्षा करना' है।
उपरोक्त विचार पण्डित देवदत्त शास्त्री जी के हैं। उन्होंने इसे 'योगक्षेम' का नाम दिया है। इस योगक्षेम को अथर्ववेद में 'शान्ति, ''पुष्टि' और 'अभिचार' द्वारा प्रकट किया गया है।
शास्त्री जी के अनुसार- 'अथर्ववेद रहस्य विद्या, तत्त्वज्ञान और जनकल्याणी कर्मों का वेद है।' इस वेद में 'कृत्यादूषण' एवं जो 'अभिचारकर्म' बताये गये हैं, उनका उद्देश्य किसी को हानि पहुंचाना नहीं है, अपितु उनका उद्देश्य आत्मरक्षार्थ कर्मों से है। वे शान्ति और पुष्टि के कर्मों को स्थायित्व देने वाले हैं। अभिचारकर्मों से शत्रुओं, दुष्टों और असुरों का दमन किया जाता है, ताकि मानव जाति का भला हो सके। किसी को हानि न हो। यहां उन्हें अपने अनुकूल बनाये जाने का प्रयास है, जिससे उनकी कृपा प्राप्त हो सके। यातुकर्म का आधार किसी को कष्ट पहुंचाना नहीं, अपितु उपासना से है।
यातुकर्म में औषधि, गण्डा-तावीज़, मणिबन्ध आदि की उपासना और मन्त्रों के अनुष्ठान से शक्ति और सफलता प्राप्त की जाती है। अतः यातुकर्म को जादू- टोना-टोटका आदि मानना नासमझी की बात है। पार्थिव पदार्थों की प्राप्ति के लिए जो क्रिया की जाती है, वही 'यातुकर्म' कहलाती है। ध्यान द्वारा, भक्ति के द्वारा और ज्ञान के द्वारा 'यातुकर्म' किया जा सकता है। इसी कारण अथर्ववेद को रहस्य विद्या का सागर माना गया है। यह विद्या अत्यन्त व्यापक और विराट् है ।
अध्यात्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान )
अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, अर्थात् धर्म सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण उपदेशों का उल्लेख किया गया है। साधना और चिन्तन के द्वारा अनेक ईश्वरीय शक्तियों को खोजा गया है। आत्मदर्शन से 'स्थितप्रज्ञ' की स्थिति पायी गयी है। यह स्थिति अथर्ववेद के अधिक निकट है; क्योंकि 'अथर्व' का अर्थ ही 'अचंचलता की स्थिति' है। 'स्थितप्रज्ञ' भी वही है, जिसने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया हो । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सभी प्रकार की चंचलता पर नियन्त्रण करने वाले व्यक्ति को 'स्थितप्रज्ञ' कहा जाता है। यूं तो इस वेद में मन्त्र- तन्त्र, जादू-टोना आदि की बात दोष के रूप में देखी जाती है, परन्तु वास्तव में अथर्ववेद में अधिकांश मन्त्र ब्रह्मसत्ता की उपासना से ही सम्बन्धित हैं।
यहां उसी 'अज्ञात' से साक्षात्कार का प्रयास दिखाई पड़ता है। वह अज्ञान
(परमात्मा) हमारी समझ से परे है, फिर भी वह हमारी रक्षा करता है, हमें विनाश से बचाता है, वह हमारे दुर्भाग्य का निवारण करने वाला है। उसी अज्ञात को प्राप्त करना, विनाश और दुर्भाग्य से अपने आपको बचाना, इस अथर्ववेद संहिता का प्रधान विषय है।
'अध्यात्म विद्या' को अथर्ववेद में 'गुह्य आध्यात्मिक विद्या, ' अर्थात् रहस्यमयी विद्या कहा गया है। परमात्मा का साक्षात्कार अत्यन्त रहस्यमय है। उसका साक्षात्कार जो विद्या कराती है, वह गूढ़ तत्त्वों का ज्ञान कराने वाली 'गुह्य आध्यात्मिक विद्या' है।
जितना हमारे शरीर का महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व हमारे शरीर में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान 'आत्मा' का है। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त ईश्वर की परम सत्ता का ज्ञान, अथर्ववेद की गुह्य अध्यात्म-विद्या के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे साधना द्वारा कोई भी प्राप्त कर सकता है।
'योग-विद्या' के सन्दर्भ में अथर्ववेद मानव शरीर को ही अयोध्यापुरी मानता है। आठ चक्रों और नौ द्वारों वाली यह अयोध्या तब तक ही देवताओं के अधीन रहती है, जब तक देवासुर संग्राम (सद्वृत्तियां- दुष्प्रवृत्तियां) नहीं छिड़ता ।।
'योग-विद्या' के अनुसार, इस मानव शरीर में मूलाधार आदि आठ चक्र हैं
और इन्द्रियों के रूप में 9 इन्द्रियां हैं। इस नगरी के केन्द्र हृदय में 'प्रकाशमान स्वर्ग'
स्थित है। यहीं यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणायाम आदि द्वारा ईश्वर को पाया जा
सकता है। शरीर में स्थित षट्चक्रों का भेदन करके 'कुण्डलिनी' शक्ति को जगाया जाता है और उसे ब्रह्मरन्ध्र में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाया जाता है, परन्तु यह कोई आसान कार्य नहीं है। इसके लिए कठोर और नियमित साधना की आवश्यकता होती है। प्राण-विद्या की साधना ही योग-साधना का लक्ष्य है।
अथर्ववेद के अध्यात्म सम्बन्धी मन्त्रों में उस 'सविता' देव की उपासना को जाती है, जिसके प्रकाश से ब्रह्माण्ड में स्थित असंख्य सूर्यो को प्रकाश और ऊर्जा प्राप्त होती है। यह 'सविता' देव सभी को उत्पन्न करने वाला है और सभी का पालन करता है। वह सत्य स्वरूप है। नित्य और अजन्मा है। यह शक्ति का स्रोत है। उत्तम दाता और कल्याणकारी है।
उपासक या साधक परमात्मा के इसी 'सविता' स्वरूप की आराधना करते हैं। उसके गुणों को अपने हृदय में धारण करते हैं। परमात्मा के तेजोमय स्वरूप को धारण करने वाला साधक अहिंसक हो जाता है।
अथर्ववेद के काण्ड 5 के सूक्त 1 में नौ मन्त्रों द्वारा अध्यात्म विद्या का गूढ़ उपदेश दिया गया है। इन मन्त्रों की भाषा भी अत्यन्त गूढ़ है तथा प्रत्येक मन्त्र गूढ़ अध्यात्म भावों से भरपूर है।
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अथर्ववेद संहिता (भाग एक) - 1
इन मन्त्रों का सार तत्त्व यही है कि हम सदा मृत्यु के भय से मुक्त होते हुए स्वयं को अमर मानें। दीन-हीन भावों से दूर रहें। सत्य निष्ठा से अपनी आत्मशक्ति को पहचानें। अपनी समस्त इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखें। सदैव उदात्त विचारों का निर्वहण करें, उदात्त जीवन का पालन करें। सदा सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करके आनन्दमय तथा शान्तिपूर्ण जीवन बितायें। इस मानव शरीर का शुद्ध और पवित्र रूप से प्रयोग करें। प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, स्नेह, संवेदना और सद्भाव रखें। उत्तम सत्संगति प्राप्त करें। अपनी शक्तियों का सदुपयोग करें। परमपिता की महान् शक्ति के सम्मुख अहंकाररहित नम्र भावना को प्रकट करें।
चोरी-चकारी, लूट-पाट, दुराचार, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, गर्भपात आदि कुकर्मों से बचें। सदाचार की मर्यादा के अनुसार आचरण करें। उत्तम व्रतों और नियमों का सदा पालन करें। पुरुषार्थी बनें, निर्भय रहें, माता-पिता और गुरु की सदा सेवा करें, उन्हें ही अपना परमात्मा मानें। परमात्मा सभी का रक्षक, पालनकर्ता और सभी को स्नेह करने वाला है। उसका गुणगान करते हुए जीवन-यापन चलायें। ऐसा करने से ही आत्मोन्नति और सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
अथर्ववेद की तान्त्रिक शक्ति
अथर्ववेद की रहस्य विद्या में निरामय सुखी जीवन बिताने, सद्गति प्राप्त करने, इच्छाओं की पूर्ति करने आदि के अनेकानेक विधान हैं। मानव-जीवन का प्रत्येक पक्ष इसमें समाहित हैं, जिसे संवारने का कार्य ऋषियों ने पूरी लगन के साथ किया है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त कराने के लिए अथर्ववेद में तन्त्र-विज्ञान के साधन उपलब्ध हैं।
वेद स्वतः प्रमाण हैं। उनके रहस्य को प्रकट करने के लिए किसी बाह्य साहित्य की आवश्यकता नहीं है। यहां पर ज्ञान-विज्ञान दोनों का सम्मिलन है। अथर्ववेद में 33 देवताओं का वर्णन किया गया है (10/7/27)। इन देवों को अथर्ववेद विश्व ब्रह्माण्ड का पालनकर्ता (10/7/23) मानता है। ये सभी देव 'तन्त्र शक्ति' के जनक हैं।
अथर्ववेद की तन्त्र शक्ति एक सशक्त अन्तः प्रक्रिया है। मन्त्रों के प्रयोग से जैसा संकल्प किया गया है, वैसी ही शक्ति उत्पन्न होती है। जब किसी भूत-प्रेत अथवा व्याधिग्रस्त व्यक्ति पर इन मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है, तो पीड़ित करने वाली मृतात्मा साधक के सामने साक्षात् आ खड़ी होती है। साधक उससे साक्षात् प्रश्न करता है और उसे मन्त्र-शक्तियों के द्वारा वश में करके व्याधिग्रस्त व्यक्ति को बाधा- - मुक्त करता है। यह शक्ति प्राण-शक्ति की साधना से ही प्राप्त की जाती है। अथर्ववेद की तन्त्र शक्ति केवल भौतिक लक्ष्यों तक या रोगों को दूर करने
तक ही सीमित नहीं है। इस शक्ति की साधना का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसका सीधा सम्बन्ध योग-साधना और अध्यात्म-साधना से जुड़ा हुआ है। इस तान्त्रिक शक्ति द्वारा विविध ऊपरी हवा के रोग, भूत-प्रेत-बाधा, कष्ट, दारिद्र्य, वशीकरण, मणिबन्ध, टोना-टोटका आदि का समाधान किया जा सकता है।
अथर्ववेद में इसके द्वारा समाधान करने की प्रक्रिया के बारे में उल्लेख करते हुए ऋषिगण का कहना है कि मनुष्य के शरीर के प्रत्येक भाग में प्राण-शक्ति का संचार अबाध रूप से होता रहता है, किन्तु जब किसी अंग में यह संचार अवरुद्ध हो जाता है, तब उसी स्थान पर रोग उत्पन्न हो जाता है। अथर्ववेद में दिये गये मन्त्रों के प्रयोग से ऐसे लाइलाज रोगों का उपचार आसानी से हो जाता है।
अथर्ववेद का तान्त्रिक प्राण-शक्ति की संचार गति का सूक्ष्मता के साथ अवलोकन करता है और रोग का निदान मन्त्रों द्वारा करता है। शरीर में 82,000/- नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है, जिनका मुख्य केन्द्र हाथ, पैर और सिर में होता है। अथर्ववेद के मन्त्रों का प्रायोजक रोगी के सिर पर हाथ फेरकर या उसके हाथों को अपने हाथों में में लेकर अपनी अन्तःप्रेरणा से जान जाता है कि प्राण-शक्ति का अवरोध कहां पर है। प्रायोजक उसी के अनुसार मन्त्र का चयन करके रोगों का उपचार करता है।
यदि किसी व्यक्ति के पेट में भयानक दर्द है, तो निश्चित रूप से यकृत में। सूजन होगी या तिल्ली में पीड़ा होगी। हृदय में चसक उठती है या उसे रक्त को उल्टियां होती हैं, तो ऐसे व्यक्ति का उपचार मणिबन्ध तथा मन्त्र- आदेश से किन जाता है। अथर्ववेद की 'प्राण-विद्या' रहस्यमयी विद्या है। इस प्राण-विद्या के द्वारा
शरीर की चेतन-अवचेतन क्रियाओं को नियन्त्रित किया जाता है।
पण्डित देवदत्त शास्त्री ने 'शरीर-तन्त्र' का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। उनका कहना है कि मनुष्य का शरीर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रियों से निर्मित है। इसमें हृदय है, कुण्डलिनी हैं, षट्चक्र सहस्रार चक्र है। ऐसे उत्तम शरीर को वेदों में, उपनिषदों में ब्रह्मपुरी कहा गया है और इस पुरी में निवास करने के कारण 'ब्रह्म' को 'पुरुष' कहा गया है। है
ऊर्ध्वो नु सृष्टा ऽस्तिर्यङ्नु सृष्टा ३ः सर्वा दिशः पुरुष आ बभूवा ३ । पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ।।
अर्थात् ऊंचा उत्पन्न होता हुआ और तिरछा उत्पन्न होता हुआ वह पुरुष दिशाओं में यथावत् व्याप्त है। जो मनुष्य ब्रह्म की उस पुरी को जानता है, उसी से बा उसे परमेश्वर, पूर्णपुरुष, अर्थात् 'पुरुषोत्तम' मानता है। (अथ. 10/2/21
यह अनन्त ब्रह्माण्ड ब्रह्म की रचना है। मनुष्य का शरीर इस ब्रह्माण्ड की ब्रह्मपुरी है। शरीर की इस प्रकार की दिव्यता का वर्णन करने के पीछे अथर्ववेद का प्रयोजन यही है कि रोग, दोष, पाप, शाप तथा दुर्भाग्य से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शरीर की दिव्यता का ज्ञान अवश्य रखना चाहिए। उसे मल, मूत्र, मेदा, मज्जा, रोग-दोष का ही केन्द्र नहीं समझना चाहिए और न जरा-जीर्ण होने वाला समझकर वह उसकी उपेक्षा ही करे। शरीर के रोम-रोम में ईश्वर का वास है, यही समझकर उसके प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए।
अथर्ववेद इस शरीर को सभी प्रकार की शारीरिक, मानसिक और दैविक व्याधियों से बचाने के उपाय तन्त्र-साधना द्वारा बताता है। यहां पर सभी पूर्वकृत अथवा ऐहिक पापों से उत्पन्न व्याधियों को दूर करने के लिए 'यातुकर्म' और 'धर्मकर्म' का प्रयोग बताया गया है।
प्रायः भारतीय विद्वान् और पाश्चात्य विद्वान्, 'यातुकर्म' को 'जादू, 'इन्द्रजाल, , 'टोना-टोटका' आदि मानने लगते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। पार्थिव पदार्थों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले अथर्ववेदीय प्रयोग 'यातुकर्म' कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त 'ज्ञान योग, भक्ति योग' और 'ध्यान योग' द्वारा किये जाने वाले कर्म 'धर्मकर्म' कहलाते हैं। सारांश यही है कि 'अर्थ' और 'काम' की प्राप्ति के लिए 'यातुकर्म' और 'मोक्ष' की प्राप्ति के लिए 'धर्म-कर्म' किया जाता है।
अथर्ववेद में भूत-प्रेत, टोने-टोटके और शत्रुविनाश आदि के लिए किये जाने वाले तान्त्रिक प्रयोगों को' अभिचारिक कर्म' अथवा 'कृत्या प्रतिहारक कर्म' कहा जाता है। इस प्रकार के प्रयोगों में वे मन्त्र आते हैं, जो प्रतिद्वन्द्विता के सूचक हैं। इन मन्त्रों में देवों का आह्वान करके रोगों और दोषों का निवारण करने की प्रार्थना की जाती है।
मन्त्र विद्या
अथर्ववेद में 'मन्त्र विद्या' को इन पांच भागों में विभाजित किया गया है- 1. संकल्प अथवा आवेश मन्त्र, 2. अभिमर्षण अथवा मार्जन मन्त्र, 3. आदेश मन्त्र, 4. मणिबन्धन मन्त्र और 5. कृत्या अथवा अभिचार मन्त्र ।
संकल्प मन्त्रों में दुःस्वप्न, दुःख, दुष्प्रवृत्तियों में रत, पाप, शाप आदि के प्रभाव को दूर करने के लिए मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रायोजक रोगी अथवा दुखी प्राणी के सिर पर हाथ रखकर मन्त्र पढ़ते हुए रोगी को नीरोग और सुखी होने का संकल्प कराता है। इसमें एक प्रकार से 'शक्तिपात' कराया जाता है। 'शक्तिपात' कराना सरल नहीं होता। इसके लिए प्रायोजक को साधना द्वारा एकाग्रता प्राप्त करनी होती है, तभी वह रोगों को और दोषों को दूर करने में समर्थ हो सकता है। आत्मशक्तिसम्पन्न प्रायोजक ही 'संकल्प' मन्त्रों का प्रयोग कर सकता है।
अभिमर्षण या मार्जन मन्त्रों में रोगी अथवा दोषी व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करके मन्त्र पढ़े जाते हैं। 'अभिमर्षण' का अर्थ है, दोनों हाथों की अंगुलियों से रोगी के शरीर के अंगों को ऊपर से नीचे तक स्पर्श करना। ऐसा करने से रोगी के शरीर में प्रयोक्ता द्वारा विद्युत् तरंगें प्रक्षेपित हो जाती हैं। सारे शरीर में सनसनाहट होने लगती है। शरीर रोमांचित होकर स्वस्थ हो जाता है। दिल के दौरे में, उच्चरक्तचाप, व वज्राघात आदि में यह मन्त्र-क्रिया तत्काल प्रभाव डालती है।
आदेश मन्त्रों में मन्त्रों की भावना के अनुसार रोग, दोष, मानसिक विकार आदि को दूर किया जाता है। अथर्ववेद में इसे 'संवशीकरण' भी कहा गया है। चंचल प्रवृत्ति के लोगों पर इसका प्रयोग तत्काल प्रभाव डालता है। घमण्डी और पागलपन लिये हुए व्यक्तियों पर आदेश मन्त्रों का सीधा प्रभाव पड़ता है। अंगरेजी में इसे 'हिप्नोटाइज़' कहते हैं-अर्थात् 'सम्मोहन' द्वारा रोगी की चित्तवृत्तियों को वश में करके उसे आदेश देना।
इन आदेश मन्त्रों द्वारा पागलों, उद्दण्ड लोगों, डाकुओं, हत्यारों, दुराचारियों, नशाखोरों, आलसियों, ईर्ष्यालुओं, चिन्तातुरों आदि को अपने वश में किया जा सकता है। घातक और असाध्य रोगों को भी आदेश मन्त्रों द्वारा ठीक किया जा सकता है।
मणिबन्धन मन्त्रों में युद्ध में विजय, शत्रु-पराजय, अनिष्ट, दुर्भाग्य, पाप, शाप आदि को सिद्ध करने और उनसे बचने का उपाय किया जाता है। 'मणि' का तात्पर्य अथर्ववेद में लताओं, वृक्षों की जड़ों, फूल-फल और बीज आदि को अभिमन्त्रित करके तावीज़ आदि में भरकर शरीर के किसी अंग में बांधना होता है। या शत्रु पर फेंका जाता है।
कृत्या अथवा अभिचार मन्त्रों में मारण, मोहन, उच्चाटन, कीलन, विद्वेषण और वशीकरण के मन्त्र आते हैं। अथर्ववेद में इनके प्रभाव को दूर करने के लिए 32 मन्त्रों द्वारा हवन करने का विधान बताया गया है। ये सभी कर्म 'अरिष्ट' में आते हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि कृत्या या अभिचारविषयक मन्त्रों में देवों का आह्वान किया जाता है। अथर्ववेद के 2/14वें सूक्त में तथा 3 / 9वें सूक्त में इन मन्त्रों का उल्लेख है। यहां कष्ट निवारण के लिए देवों और भूत-प्रेतों का आह्वान किया जाता है। इस प्रकार के तन्त्र-प्रयोग अभिचारिक या कृत्या प्रतिहारक कहे जाते हैं।
'स्त्रीवशीकरण' के लिए अथर्ववेद में अनेक मन्त्रों का प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद के 3/25, 4/5, 6/13, 7/90 सूक्तों में ऐसे मन्त्र दिये गये हैं। ये वशीभूत करने के अमोघ सिद्ध मन्त्र हैं।
इस प्रकार मनुष्य के चित्त, हृदय और मन को वश में करने के लिए तन्त्र- विद्या का प्रयोग किया जाता है। दाम्पत्य-जीवन की सुख-समृद्धि के लिए इस तन्त्र - शक्ति का प्रयोग अथर्ववेद में स्थान-स्थान पर किया गया है।
अथर्ववेद में 'भूत, प्रेत, पिशाच' की बाधा दूर करने के लिए 2/14/3 मन्त्रों का प्रयोग किया गया है। 'गृह, पशु और मनुष्यों की सुरक्षा' आदि के लिए 3/9/4 मन्त्रों को देखना चाहिए।
'विवाह योग्य कन्या के विवाह के लिए' 2/36/6-60 के मन्त्रों का प्रयोग • करना चाहिए। 'पति-पत्नी के बीच मनमुटाव' को दूर करने के लिए अथर्ववेद के 6/133 सूक्त के मन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।
'प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिपक्षी, प्रतिद्वेषी, शत्रु, वादी, प्रतिवादी' को सम्मोहित करने के
लिए अथर्ववेद के 3/1 सूक्त को सम्मोहन विधि से अभिमन्त्रित करना चाहिए।
अथर्ववेद में, भूत-प्रेतों द्वारा अभिचार कर्म करने वाले अथवा 'इन्द्रजाल' द्वारा अद्भुत कर्म करने वालों को 'यातुधान' कहा गया है। उनमें और राक्षसों में कोई भेद नहीं है।
अथर्ववेद में ओषधि-भेषज द्वारा आधि-व्याधि निवारण
अथर्ववेद में ओषधि, भेषज, आधि, व्याधि और रोग आदि के अर्थ को समझ लेना आवश्यक है। तभी इसके मन्त्रों का उपयोगी प्रभाव डालने का ढंग समझ में आ सकता है; क्योंकि हर कोई इन मन्त्रों का उचित प्रयोग नहीं कर सकता। कभी-कभी मन्त्रों का उलटा प्रभाव भी हो जाता है।
श्रद्धापूर्वक अथर्ववेद के मन्त्रों का जप करने से मन्त्र के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है। अथर्ववेद में व्याधियों और दोषों के निदान का वर्णन प्रचुरता के साथ मिलता है। रोग के लक्षण आदि को अथर्ववेद में 'निदान' की संज्ञा दी गयी है। पण्डित देवदत्त शास्त्री ने ओषधि आदि की परिभाषा इस प्रकार की है। ओषधि
ओषधि में 'ओष' का अर्थ 'रस' होता है। जो ओष, अर्थात् रस को धारण करे, वह 'ओषधि' है। रसप्रधान पदार्थ (ओषधि) शरीर और मन के दोषों व विकारों आदि को दूर करता है। उद्दीपन, पाचन, ओज, शक्ति, ऊर्जा आदि को बढ़ाने वाली और लेपन-बन्धन में काम आने वाले रसायन को ओषधि कहते हैं। भेषज
हठयोग, राजयोग, साम्ययोग, सांख्ययोग, हवन, यज्ञ, जप, अनुष्ठान, उपासना, आराधना, व्रत, उपस्थान, मार्जन, अवसेचन, अभिमर्षण, अभिमन्त्रणा, रक्षाकरण्ड बन्धन, मणिबन्धन, पुरोडाश, सर्षपप्रक्षेपण आदि मन्त्रों द्वारा व्याधियों को दूर करने की क्रिया ' भेषज' हैं।
रोग
शरीरगत धातुओं को क्षीण करने वाले, नाड़ियों, प्राणों, इन्द्रियों को शिथिल दुर्बल और निष्क्रिय बनाने वाले, प्रगति और अभ्युदय के बाधक 'उपताप' का नाम 'रोग' है।
आधि
सूक्ष्मतम, मानसिक उपताप का नाम 'आधि' है। मन से सम्बन्धित सभी रोग 'आधि' के अन्तर्गत आते हैं।
व्याधि
प्राण, मन, अन्तःकरण, चित्त और बौद्धिक उपताप को 'व्याधि' कहा जाता है। व्याधियां दो कारणों से जन्म लेती हैं- एक 'उत्पत्ति दोष' के कारण और दूसरे 'मिथ्या आहार-विहार' के कारण।
अथर्ववेद की प्रमुख व्याधियां और मृत्यु
अथर्ववेद में मुख्य रूप से पांच प्रकार की 'मृत्यु' बतायी गयी है-देवों (सदाचारी, विद्वानों) के शाप से, प्रेताग्नि से, अराति (शत्रु) द्वारा, निर्ऋऋति (दुर्गति) से और दीर्घकालीन रोगों से। इसके अलावा छोटे-मोटे कारणों से 101 प्रकार की 'मृत्यु' बतायी गयी है,
यथा-पिशाच ( रक्तचूस कीटाणु), राक्षस (कपटी व्यवहार करने वाले), दु (चापलूसी, धूर्त, अवसरवादी, स्वार्थी), तमः (क्रूर, कुचाली, दुर्मुख, लोभी, कामी, अज्ञानी) द्वारा, अभिचार (मारण, मोहन, उच्चाटन, कीलन आदि), नाष्ट्र (विषधारी जीवों के द्वारा, अस्त्र, प्रक्षेपास्त्र, विनाशक) द्वारा, शरीरं असवः आदि (विविध प्रकार की अकाल मृत्यु) द्वारा अकाल मृत्यु होती है।
'व्याधियां' पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण होती है। इन्हें 'कर्मज व्याधियों कहते हैं। ये हरण, अपहरण, हत्या, लूट, भ्रूणहत्या, अवैध गर्भपात, घृणा, ईर्ष्या पापाचरण, कुटिल व्यवहार, पूर्वजनिन्दा, परस्त्रीगमन, झूठी गवाही, झूठी शपथ धूर्तता आदि के कारण उत्पन्न होती हैं।
अथर्ववेद 'दुःस्वप्नों' को भी रोग का कारण मानता है। यही नहीं, अथर्ववेद के अनुसार हरे वृक्षों को काटने, तोड़ने या उखाड़ने से आयु व यश घटता है तथ आपदाएं घेरती हैं। इस प्रकार अथर्ववेद 'पर्यावरण' के बारे में भी सजग दिखा देता है।
रोग-शमन के उपाय
अथर्ववेद में अनेक स्थलों पर सभी प्रकार के रोगों के शमन के लिए विरिट पदार्थों और जड़ी-बूटियों का उल्लेख किया गया है। जैसे 'जल' और 'वनस्पतियों द्वारा रोगों के निदान के लिए अथर्ववेद के 6/25, 6/91, 6/95, 19/44 सूक्तों के मन्त्रों में विधि बतायी गयी है।
'स्वास्थ्य' और 'दीर्घायु के लिए 2/28, 3/11, 4/9/10, 5/30, 7/53, 8/1 और 19/26 सूक्तों के मन्त्रों को देखिये ।
'अभिचार' (भूत-प्रेत-पिशाच) शमन के लिए अथर्ववेद के 2/14, 3/9 5/778/28/29, 6/2/34, 7/110 मन्त्रों में प्रेतों, पिशाचों का संहार करने के लिए देवों का आह्वान किया गया है।
पुरुषों को वश में करने के लिए 1/34 सूक्त में उपाय बताया गया है। राज्य- शासन और शासक के यश को बढ़ाने तथा विजय प्राप्त कराने वाले मन्त्र अथर्ववेद के 1/19, 341, 3/2, 5/20/21, 6/97/99, 8/8, 11/9-10 सूक्तों में देखे जा सकते हैं।
'गर्भरक्षक' ओषधि (8/6/3) 'बज' है। आयुर्वेद में इसे 'काकजंघा' कहते हैं। रविवार के दिन इस ओषधि की लकड़ी गर्भवती स्त्री की कमर में बांध देने से गर्भपात कभी नहीं होता। गर्भस्राव तत्काल रुक जाता है। पीली सरसों भी गर्भस्थ शिशु की रक्षा करती है। यदि तीन महीने का गर्भ हो जाये, तो पीली सरसों गर्भवती की कमर में बांध देनी चाहिए। तब गर्भस्थ शिशु कन्या नहीं, पुत्र ही होता है।
'बन्ध्यापन' (बांझपन दूर करने के लिए अभिमन्त्रित सरसों का प्रयोग किया जाता है। भाष्यकार सायण ने अथर्ववेद के भाष्य (8/6/18) में इसके सूक्त (8/6) की भूमिका में कौशिक सूत्र (35/20) के वचनों को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गर्भिणी स्त्री के हाथ में पीली और सफ़ेद सरसों बांधने से गर्भपात नहीं होता। गर्भ पुष्ट होता है और पुत्र ही उत्पन्न होता है।
ये मात्र कुछ उदाहरण हैं, जो यहां दिये गये हैं, जबकि अथर्ववेद में भेषज सूक्तों का प्रचुर भण्डार भरा पड़ा है। अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में रोगों के सामान्य कारणों का उल्लेख करते हुए उनके शमन की विविध प्रणालियों का उल्लेख किया गया है। अथर्ववेद में मन्त्रों द्वारा ही रोगों का शमन नहीं किया जाता, वहां 'आयुर्वेदीय 'चिकित्सा' का भी विधान बताया गया है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा
'आयुर्वेदीय चिकित्सा' में ' आश्वासन चिकित्सा', 'उपचार चिकित्सा', 'सूर्य- किरण चिकित्सा', 'जल चिकित्सा, 'अग्नि चिकित्सा, 'केशरोग चिकित्सा', 'शिरोरोग चिकित्सा', ‘मानसिक रोग चिकित्सा, 'भूतोन्माद रोग चिकित्सा, 'अपस्मार' (मृगी, मूर्च्छा) चिकित्साएं, 'नेत्ररोग चिकित्सा', 'कासरोग' (खांसी, दमा) चिकित्सा, 'अपची (गण्डमाला) चिकित्सा' आदि का विशद विवेचन प्राप्त होता है।
उपरोक्त रोगों के अतिरिक्त अथर्ववेद में हृदयरोग, श्वासरोग, शूलरोग, अंगरोग, बाजीकरण, कृमिरोग, वातरोग, क्षयरोग, चर्मरोग आदि का भी पर्याप्त उल्लेख प्राप्त होता है।
इस प्रकार देखा जाये तो अथर्ववेद में रहस्य-ही-रहस्य भरा हुआ है। साधारण ज्ञान द्वारा इसमें छिपे रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसे समझने के लिए भरपूर अध्ययन और साधना की आवश्यकता है। एक ही सूक्त अथवा मन्त्र के भिन्न-भिन्न अर्थ और प्रयोजन बताये गये हैं। इन मन्त्रों के साधारण अर्थ पर नहीं जाना चाहिए। यदि एक ही मन्त्र में जलाभिमन्त्रण का संकेत है, तो वहीं दूसरे अर्थ में सौत को मार्ग से हटाकर पति को अपना बनाने का भाव प्रकट होता है, साथ ही, इसके द्वारा रोग-दोष दूर करने का अर्थ निकलता है। इस प्रकार अथर्ववेद के मन्त्रों में 'श्लेष' का प्रयोग स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है। सही अर्थ समझने में कठिनाई आती है।
अथर्ववेद के अनुसार, 'ग्लानि', 'क्लेश', 'दुःख' और 'संकट' ऐसे दोष हैं, जिनका उपचार किसी चिकित्सा पद्धति में नहीं है। साथ ही सूक्ष्म प्राणतत्त्व व वासना आदि से सम्बन्धित दोषों का निराकरण भी किसी औषधि से सम्भव नहीं है। ये रोग-दोष अथर्ववेदीय आथर्वणी और आङ्गिरसी भेषज द्वारा शमन किये जाते हैं।
'आथर्वणी' और 'आङ्गिरसी भेषज' से अकालमृत्यु, अपमृत्यु, आकस्मिक दुर्घटना, बाल्यावस्था तथा युवावस्था में मृत्यु को प्राप्त होना, अधःपतन, दिवालिय हो जाना, मानसिक रोग, पागलपन, उन्माद, वंशनाश आदि आधि-व्याधियां, कुल- परम्परा के दोष, शाप, घातक मारण और सर्वनाश आदि द्वारा सब कुछ तहस-नहस कर डालने वाले रोगों का शमन होता है। 'प्राण' के अन्दर एक ऐसा 'दिव्य भेषज' होता है, जो सहज ही शरीर के अनेकानेक रोगों को नष्ट कर डालता है। यह प्राण- तत्त्व की सहज प्रक्रिया है। प्राण को ही 'रुद्र' कहा गया है। रुद्र का एक अर्थ 'वैद्य' भी है। अथर्ववेद में कहा गया है कि 'प्राण में ओषधि' है। जब कोई इस प्रकार सोचता है कि वह अपनी प्राणशक्ति से अपने रोगों को दूर करके नौरोग बनेगा, तब उसकी आत्म-शक्ति निश्चित रूप से उसे शनैः-शनैः उसे नीरोग का देती है। यह आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच का परिणाम है। उसका ज विश्वास ही उसे नीरोगी होने में उसकी सहायता करता है। वस्तुतः 'प्राण' हो जीवन और मृत्यु का कर्ता है, नियन्ता है।
अथर्ववेद का उपदेश है—'भेषजं सेवस्व । त्वा जरदष्टिं कृणोमि, अधार उपयुक्त औषधि का सेवन और पथ्य करने से स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त होती है। तथा रोग दूर होते हैं।
अथर्ववेद में जीवन के विभिन्न पहलू भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के प्रत्येक पक्ष पर विचार किया है। इसीलिए वैदिक मंत्रों में जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसके संदर्भ में वेद में विधि
निषेध का निर्देश न दिया हो। नीचे उन्हीं में से कुछ प्रमुख क्षेत्रों की चर्चा संक्षेप में की गई है-
राजनीतिक जीवन
अथर्ववेद में राजा को देवता का स्वरूप माना गया है। राजा के सन्दर्भ में अथर्ववेद में राजा के कर्तव्य, राज्य के कर्तव्य, राज्य के भेद, उत्तम राजा के गुण, राजा का व्यवहार, राजस्व, राजसभा, ग्राम समितियां, स्वराष्ट्र शासन, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, राष्ट्र, छत्र, विश, विश्पति, संसद और ग्रामसभा आदि का विशद वर्णन प्राप्त होता है। इससे अथर्ववेदीय काल की राजनीतिक अवस्था तथा तात्कालिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
अथर्ववेद में पहली बार 'मातृभूमि' की कल्पना की गयी है। यह कल्पना अथर्ववेद के 'भूमि सूक्त' में है। राष्ट्र की उत्पत्ति परमात्मा से मानी गयी है। राष्ट्र की स्थिति को सुदृढ़ और सुसम्पन्न बनाने की नीतियों का विश्लेषण अनेक मन्त्रों में हुआ है।
सत्यं बृहदूतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्मं यज्ञः पृथिवी धारयन्ति । सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥
(अथ. 12/1/1)
अर्थात् राज्य में सत्यकर्मी, सत्यज्ञानी, जितेन्द्रिय, ईश्वर और विद्वानों से प्रीति करने वाले चतुर पुरुष पृथिवी पर उन्नति करते हैं। यह नियम (सभी राज्यों में) भूत और भविष्य के लिए सदा समान है।
भाव यही है कि राष्ट्र को सर्वोत्तम बनाने के लिए उपरोक्त गुणों को धारण करने वाले पुरुषों का होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रजा की तेजस्विता, वीरता, शौर्य, श्रेष्ठ चरित्र और पुरुषार्थ पर ही राष्ट्र का गौरव टिका रहता
वही राष्ट्र उत्तम है, जिसमें नाना वर्णों, जातियों और धर्मों के लोग एक परिवार की भांति रहते हैं- (12/1/15) राजा और प्रजा दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही राष्ट्र का अभ्युदय होता है।
जिस राष्ट्र का समाज अपने आत्मघाती दोषों को त्यागकर कृषि और वाणिज्य में तथा उद्योगों में पुरुषार्थ से कर्म करता है, वह राष्ट्र सदैव श्रीसम्पन्न रहता है।
सामाजिक जीवन
अथर्ववेद में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। सामाजिक संगठन का पूरा ब्योरा यहां प्राप्त होता है। परिवार और उसके कर्तव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवहार, वस्त्र, रहन-सहन, दिनचर्या, खाद्य- पदार्थों का संग्रह, जल, पेयजल, कृषिजल, कृषिभूमि, पशुपालन, गौरक्षा, नारी-
जीवन, दाम्पत्य-जीवन, घर की व्यवस्था, मनोरंजन, शिक्षा आदि पर भी अथर्ववेद में व्यापक प्रकाश डाला गया है।
धार्मिक जीवन
अथर्ववेद ने मनुष्य के धार्मिक जीवन को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ स्पर्श किया है। यज्ञ और ईश्वरीय आराधना प्रत्येक व्यक्ति का कर्म ही नहीं, धर्म है। उसके नित्य-नैमित्तिक क्रियाकलाप, अनुष्ठान, संस्कार, देवता की पूजा, ईश्वर में विश्वास, आत्मा में परमात्मा के स्वरूप का दर्शन प्रचुर मात्रा में अधिकाश मन्त्र में प्राप्त होता है।
यदि साधारण रूप से भी देखा जाये, तो अथर्ववेद के प्रायः सभी मन्त्रों में ईश्वर की आराधना के ही दर्शन होते हैं। यज्ञों द्वारा भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यातुधान, आसुरी शक्ति, ईश्वर आराधना, देवपूजा, सुख-समृद्धि की याचना आदि का खुलकर विवेचन हुआ है। 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' की कामना अनेक मंगे में की गयी है। अथर्ववेदीय जीवन पूर्णरूप से धार्मिक है। वहां जितने भी अनुष्ठान होते हैं, वे सब धर्म की परिधि में ही होते हैं।
अथर्ववेद में ज्योतिष-शास्त्र
वेदों में ऋग्वेद और यजुर्वेद की भांति अथर्ववेद में भी ज्योतिष-शास्त्र का विस्तृत विवेचन हुआ है। अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड में इसका विशद वर्णन उपलब्ध होता है। वहां नक्षत्रों की गणना सूक्ष्म रूप से की गयी है और अनेकानेक ऐसे ज्योतिषीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, जिन्हें देखकर और उनका मनन करके चमत्कृत रह जाना पड़ता है।
ज्योतिष शास्त्र का प्राचीनमत ग्रन्थ 'लगध' माना जाता है, जो कि प्राप्य है। यह ग्रन्थ लगध नाम के ऋषि पर ही है। लगध ऋषि को ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष का संग्रहकर्ता माना जाता है। उनके 'लगध ज्योतिष' में ऋग्वेद पर आधारित 36 कारिकाएं हैं और यजुर्वेद ज्योतिष पर आधारित 49 कारिकाएं।
अथर्ववेदीय संहिता में, 'अथर्ववेद ज्योतिष' (सोमसुधाकर द्वारा रचित भाषा) तथा भाष्यकार सायण द्वारा रचित 'सोमसुधाकर भाष्य' में ज्योतिष सम्बन्धी 162 मन्त्रों का विवरण है। इन मन्त्रों में सायण ने अथर्ववेदीय फलित ज्योतिष के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख किया है।
फलित ज्योतिष सम्बन्धी अथर्ववेद की 'शौनकीय शाखा' के 90, 91, 93, 103, 104, 105, 106, 107, 108 सूक्तों में तिथि, नक्षत्र, वार, करण, योग, तारा और चन्द्रमा के क्रम से 1, 4, 8, 16, 32, 60 और 100 उत्तरोत्तर गुण बताये गये। हैं। साथ ही 'वार' के स्वामियों का भी उल्लेख हुआ है। जन्म लेने वाले जातक के गृह-नक्षत्रों को लेकर बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से फल बताया गया है।
नक्षत्रों के अतिरिक्त राशियों का भी खगोलीय वर्णन अथर्ववेद में प्राप्त होता है । उत्तरवैदिककाल के ज्योतिष ग्रन्थ- 'वृहत्पाराशरहोराशास्त्र' के उपसंहार क्रम सूची में ग्रह, गुण, स्वरूप, राशि-स्वरूप, विशेष लग्न, षोडश वर्ग, राशि- दृष्टि कथन, अरिष्टाध्याय, अरिष्टभङ्गादि में तथा आकाश में स्थित 'भचक्र' के 360, अर्थात् 108 भाग तथा समस्त 'भचक्र' 12 राशियों में विभक्त है।
इस अथर्ववेदीय खगोल विद्या के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 30° अथवा 9 भाग की एक राशि होती है। यह 9 भाग अश्विनी आदि नक्षत्रों के 9 चरण होते हैं। इन्हीं की जाति, गुण और रूप आदि का यहां निरूपण किया गया है।
अथर्ववेद में ग्रह, उल्का, विद्युत्, भूकम्प, दिग्दाह का उल्लेख भी मिलता है और कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा को बलहीन मानकर अन्य ग्रहों के बलावल से कार्यों का निर्देश भी उपलब्ध है।
इसी अथर्ववेदीय सिद्धान्त के आधार पर आचार्य 'वराहमिहिर' ने अपने 'पञ्चसिद्धान्तिका' ग्रन्थ में पांच सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन किया है।
अथर्ववेदीय प्रश्न ज्योतिष
पण्डित देवदत्त शास्त्री ने अथर्ववेदीय प्रश्न ज्योतिष का उल्लेख अपने ग्रन्थ 'अथर्ववेदीय तन्त्र विज्ञान' में किया है। उनके अनुसार अथर्ववेद में इस प्रश्न के अन्तर्गत 10 प्रश्नों का प्रावधान है-
1. अभीष्ट कार्य करने से लाभ होगा या नहीं ?
2. युद्ध में, शास्त्रार्थ या विवाद में, द्यूत-क्रीड़ा में विजय होगी या नहीं ?
3. रोगी रोगमुक्त होगा या नहीं ?
4. नौकरी अथवा जीविका का व्यवसाय मिलेगा या नहीं ?
5. अनुष्ठित साधना या मन्त्र- यन्त्र-तन्त्र की साधना सिद्ध होगी या नहीं ? 6. नष्ट धन, अपहृत सम्पत्ति, चोरी गया धन, अपहृत या भागा हुआ प्राणी प्राप्त होगा या नहीं ?
7. किसी भी प्रकार की परीक्षा में सफलता मिलेगी या नहीं ? 8. वर को वधू या कन्या को योग्य वर मिलेगा या नहीं ?
9. पुत्र की प्राप्ति होगी या नहीं ?
10. उत्तम वर्षा, अच्छी फसल होगी या नहीं ? ऐसे अनेक भौतिक और आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर अथर्ववेद के काण्ड 1,
सूक्त 4 (अम्बयोमन्ति.) सूक्त 5 (आपोहिष्ठा.), सूक्त 6 (शन्नोदेवी.) से प्राप्त किये जाने का विधान है, जो शत-प्रतिशत सही होता है।
अथर्ववेदीय ज्योतिष के द्वारा दुष्ट ग्रहों का दोष-निवारण, गर्भ-दोष, सन्तदि- दोष, वैधव्य योग, वन्ध्या योग, कर्म की सफलता-असफलता, विदेश यात्रा, प्रवासी सम्बन्धी प्रश्न, विवाह सम्बन्ध, शुभाशुभ ज्ञान, मूल नक्षत्र दोष और उनकी शान्ति का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। प्रश्नों के उत्तरों के साथ-साथ और उनके समाधान की विधियां भी बतायी गयी हैं ।
वास्तव में अथर्ववेद में शकुन-अपशकुन और अद्भुत घटनाओं का वैज्ञानि ज्ञान प्राप्त होता है। भूकम्प, ज्वालामुखी, महाविनाश, महामारी, पारस्परिक कलह, युद्ध व उल्कापात आदि घटनाओं का पूर्वज्ञान अथर्ववेदीय ज्योतिष से प्राप्त कि जा सकता है।
अथर्ववेद में शकुन-अपशकुन सम्बन्धी परम्पराओं का प्रादुर्भाव दैवी का अनिवार्य अंग बन गया है। अथर्ववेद में यह विवरण व्यापक रूप से मिलता है। भावन
अथर्ववेद का पृथिवी सूक्त
एक बालक का अपनी माता के साथ जैसा सम्बन्ध होता है, वैसा ही हमारा सम्बन्ध क्षमाशील जननी पृथिवी के साथ है। पृथिवी माता का हृदय अमृत से भर है। यह अमृत रस उस परमपिता परमात्मा का दिया हुआ है, जो समस्त ब्रह्माण्ड छाया हुआ है।
हमारे सम्मुख पृथिवी माता का केवल स्थूल रूप ही है, जिस पर अनेक विशाल समुद्र, पर्वत, नदियां, वन, रेगिस्तान, वनस्पति, हिमशिखर आदि स्थित है। ये सभी मानव-जीवन के लिए कल्याण की वृष्टि करने वाले हैं। प्रकृति का यह असीम सौन्दर्य मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयोगी है।
पृथिवी पर फैले विशाल चारागाह, कृषि-सम्पन्न भूमि, उमड़ते-घुमड़ बादल, विविध ऋतुएं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर और वसन्त-आदि सर्वत्र मनोहारी छटा बिखेरती रहती हैं।
पृथिवी के गर्भ से निकले अन्न के दाने, खनिज पदार्थ, नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न, सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात, हमारी श्रीवृद्धि करते हैं। अनेक दुधारू पशु, रंग-बिरंगे पक्षी, जलचर, कीट-पतंग सभी तो इस धरती पर आश्रय लेते हैं।
पृथिवी माता का रम्य भौतिक स्वरूप सभी के लिए प्रत्यक्ष है। भौतिक समृद्धि का जो भी स्वरूप है, वह इस पृथिवी पर ही प्राप्त होता है।
पृथिवी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं-
'माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः । '
(मन्त्र 12 पृथिवी सूक्त)
पृथिवी पर निवास करने वाले अनेकानेक जीव अनेक समूहों और वर्गों में विभाजित हैं। फिर भी वे सभी एक सूत्र में बंधे हैं। मनुष्य मनुष्य हैं, पशु पशु हैं, पक्षी पक्षी हैं जलचर जलचर हैं। 'अनेकता में भी एकता' का संगीत समस्त पृथिवी पर फैला है। यही सब प्राणियों को इस पृथिवी से बांधे हुए है।
जीवन की मधुमय झंकार से झंकृत, दिव्य अनुभूतियों से भरा हुआ एकता के महान् सन्देश को प्रवाहित करता हुआ उस सत्ता का सत्य स्वरूप यह 'पृथिवी सूक्त' अथर्ववेद ही नहीं, विश्व साहित्य का सर्वोच्च गान है।
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प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ॥
हे विद्वान जन ! जो मनुष्य अज्ञान से सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर की प्रसिद्ध वेदवाणी को नहीं मानता है और भगवान् की भक्ति नहीं करता, उस कुत्ते के स्वभाव वाले पेट-पोषक मनुष्य का परित्याग करो, जैसे ब्रह्मज्ञानी सकाम कर्म का परित्याग कर देता है।
तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्भवे न शाकिने ॥
इंद्र की प्रशंसा करने एवं अपने कल्याण के लिए उसके स्तोत्र का गान करो, क्योंकि इंद्र ही सर्वशक्तियों का स्वामी है, सबका पूजनीय है। और वर्तमान में भी उपस्थित है।
अपामिवेदूर्मयस्तर्तुराणाः प्र मनीषा ईरते सोममच्छ । नमस्यन्तीरूप च यंति सं चाच विशन्त्युशतीरुशन्तम् ॥
तेजी से उठने वाली लहरों की तरह यजमान की स्तुतियां उठती हैं। यजमान शीघ्रता से अपनी स्तुति देवता तक पहुंचाना चाहते हैं। स्तुतियां देवता की प्रशंसा करती हैं, उनके पास पहुंचती हैं और उन्हीं में मिल जाती हैं।
भूमिका
वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। विद्वज्जन इन्हें प्राचीन ही नहीं, प्रारंभिक ग्रंथ भी मानते हैं। इन ग्रंथों की महत्ता केवल इसी से सिद्ध हो जाती है कि इनमें सृष्टि-विद्या के मूल तत्त्वों का विज्ञान और तर्कसम्मत वर्णन किया गया है। केवल इसी से वेदों की महत्ता सिद्ध नहीं हो जाती, वस्तुतः इनमें मनुष्य के कल्याण हेतु सरल जीवन, सदाचार, सात्त्विक आहार, ब्रह्मचर्य, शांतिमय व्यवहार और उदारतापूर्ण भावनाओं का उपदेश दिया गया है।
वेद संसार के सर्वोत्तम और गंभीरतम धर्मों के आदि स्रोत हैं, इसके साथ ही पराभौतिक दर्शनों के मूल आधार भी हैं। वेद का प्रतीकवाद इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य का जीवन यशरूप है, एक यात्रा है, एक युद्धक्षेत्र है। प्रायः संसार के समस्त विद्वानों ने वेदों की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की है और उनको सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रंथ माना है। हमारे भारत देश के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने चारों वेदों को साक्षात् ईश्वरीय वाणी माना। वेदों के प्रत्येक मंत्र ईश्वरीय प्रेरणा से ओतप्रोत हैं और ये मंत्र मनुष्य के लिए प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक समय में कल्याणकारी हैं।
वेदों को ईश्वर प्रेरित मानने वालों की कोई कमी नहीं, विद्वज्जन इस बात को स्वीकार करते हैं, और जब हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वेदों में जो सिद्धांत बतलाए गए हैं, जिन-जिन कर्मों और कर्त्तव्यों का पालन करने का उपदेश दिया गया है; सभी वर्ग, धर्म और जाति के मनुष्यों को उन-उन उपदेशों का पालन अपने जीवन में अवश्य करना चाहिए।
ऋषि-मुनि जिन ग्रंथों को प्रामाणिक मानते आए हैं, वे ग्रंथ केवल चार ही हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। चूंकि हमने अपने प्रेरक पाठकों को इस ग्रंथ के रूप में 'सामवेद' पठन-पाठन के लिए प्रेषित किया है, अतः आगे यहां पर केवल सामवेद पर ही प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
वेद के गेय मन्त्रों के संग्रह को 'सामवेद' कहा जाता है। ये स्तुति- मन्त्र मधुर स्वरों में गाए जाते हैं। मधुर वाणी का रस इन ऋचाओं के द्वारा ईश्वर की उपासना में नि:सृत होता है। ऋचाओं के इस रस को ही 'साम' कहा जाता है। सामगान से 'भटके हुए मन को शान्ति' मिलती है।
सामगान में मधुर स्वर को ऊंचे आलाप से प्रारम्भ करके धीरे-धीरे निचले आलाप पर लाया जाता है। सामवेद की महत्ता का प्रतिपादन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (10/22) में किया है— 'वेदानां सामवेदोऽस्मि ।' वेदों में सामवेद मैं हूं।
कुछ विद्वानों का कहना है कि सामवेद की गायन व पाठ शैली के कारण एक सहस्र शाखाएं थीं, जो धीरे-धीरे सामगान न होने के कारण विलुप्त होती चली गई। अब केवल तीन शाखाएं 'राणायणी, ''कौथुमी' और 'जैमिनीय' ही उपलब्ध हैं।
सामवेद के कुछ मन्त्रों को छोड़कर शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद के सभी मन्त्र गाए जाने वाले हैं। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए यज्ञ किया जाता है, उसकी स्तुति के लिए उचित और शुद्ध गेय स्वरों में उस देवता का आह्वान किया जाता । सामगान में संगीत के सप्त स्वरों का प्रयोग किया जाता है। श्रोता सामगान का रसास्वादन श्रवण मात्र से ही कर सकता है। भारतीय संगीत की उत्पत्ति की दृष्टि से 'सामवेद' का विशेष महत्त्व है। इसे साधना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
कुछ विद्वानों का मत है कि सामवेद का सर्वप्रथम साक्षात्कार आदित्य ऋषि के द्वारा किया गया था। सामवेद में 'वेदत्रयी' का प्रमुख स्थान है। वेदत्रयी का अर्थ–‘पद्य,’‘गद्य' और 'गायन' है। 'मनुस्मृति' में सामवेद का सम्बन्ध सूर्य से बताया गया है। सूर्य प्रकृति के मध्य सबसे अधिक तेजस्वी और आकृष्ट करनेवाला 'ग्रह' है। इसे 'ऋग्वेद' में प्रत्यक्ष देवता
के रूप में स्थान प्राप्त है। सभी ऋषियों ने इस प्रत्यक्ष देवता की स्तुति में सस्वर गान किया है, इस कल्पना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। इसलिए सूर्य से सामवेद का साम्य स्थापित किया जाता रहा है।
कुछ पूर्वपक्षीय विद्वान् यह शंका भी उठाते हैं कि 'सामवेद' कोई पृथक् वेद नहीं है। यदि इस प्रकार का कोई वेद मान भी लिया जाए, तो उसमें कुल 62 या 85 मन्त्रों का ही संग्रह है। शेष मन्त्र वे ही हैं, जो ऋग्वेद में संगृहीत हैं, परन्तु इस धारणा को सर्वथा निर्मूल माना जाता है। सामवेद में 1,875 मन्त्रों का ही संकलन हैं।
'सामवेद' के मन्त्रों का प्रारम्भ 'अग्न आयाहि वीतये' से और अन्त 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः' से होता है। वेद में किसी प्रकार की पुनरुक्ति नहीं है। सर्वत्र प्रभु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही दिया गया है, जो ऋषियों की वाणी से हम तक पहुंचा है।
'सामवेद' उपासना काण्ड है। इसमें जिस उपासना का उल्लेख है, वह 'ज्ञान' और 'कर्म' का समन्वय है। इसमें 'इष्ट, ' 'उपासक' और 'द्रष्टा' का समन्वय है। यह समन्वय परिशीलन, आचरण और उपासना के मध्य स्थित है। यही समन्वय 'जीव,' 'जगत्' और 'परमात्मा' के मध्य संगीतबद्ध होकर उभरता है। साम वस्तुतः इसी समन्वय का नाम है।
आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने 'साम' को एक बहुत ही व्यावहारिक उदाहरण द्वारा समझाया है। उनका कहना है कि विवाह संस्कार के अवसर पर जब वर-वधू प्रतिज्ञा के मन्त्र बोलते हैं, तब वर वधू से कहता है—“हे वधू! मैं 'अम' हूं और तू 'सा' है।" अतः दोनों का सम्बन्ध 'साम' है। तू ऋक् है और मैं साम हूं। मैं द्युलोक हूं और तू पृथिवी है। इन दोनों का सम्मिलन ही साम है।
अर्थात् चराचर विश्व में समन्वय ईश्वर की महती महिमा का परिचायक है। उपासक इसको अपनी उपासना में अभिव्यक्त कर ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः 'साम' वह विद्या है, जिसमें विश्व-संगीत हो, विश्व-समन्वय हो या जीव-प्रकृति की क्रीड़ा और परमात्मा का समन्वय हो ।
कुछ विद्वान् 'साम' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानते हैं सा+अम-साम। इसका अथ हुआ 'ऋचा' और 'अम' मिलकर आलाय के द्वारा मन्त्रों का किया गया गान। इस प्रकार 'गान' सामवेद का प्राणतन्त्र है। 'यज्ञ' में उद्गाता नामक पुरोहित सामगान करता है। 'उद्गाता शब्द में ही गान का भाव निहित है।
जैमिनी मीमांसा सूत्र में 'साम' का अर्थ गीत कहा है-'गीतिषु सामाख्या' (2/1/36)। ऋचा और साम के सम्बन्ध को छान्दोग्योपनिषद् में स्पष्ट किया गया है—‘या ऋकतत्साम' (1/3/4), अर्थात् ऋचाओं को ही साम कहते हैं। भाव यही है कि ऋचाओं के आधार पर किया गया गान ही 'साम' है।
'साम' शान्ति प्रदान करने वाले मन्त्रगान हैं। परमात्मा की भक्ति में साधक जब एकाग्रचित्त होकर मन्त्रगान करता है, तब उसे अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है।
सामवेद मधुर रस का भण्डार है। वेदों में 'ॐ' का महत्त्व सर्वोपरि है। यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। 'ॐ' के आलाप लेने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। 'ॐ' प्रणव है, उद्गीथ है। साम का रस ही यह उद्गीथ है।
भारतीय संस्कृति का चरम ब्रह्म से साक्षात्कार का है। विधिपूर्वक सामगान करने वाला व्यक्ति ही 'ब्रह्म' के निकट पहुंच पाता है। इस 'सामगान' के लिए अभ्यास और साधना की आवश्यकता होती है। शुद्ध उच्चारण में मन की संगीतमयी संगति जब हो जाती है, तब परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति होने लगती है।
यज्ञ की पूर्णता सामगान के शुद्ध उच्चारण की संगीतमय अभिव्यक्ति पर ही निर्भर करती है। देवगण उद्गाता द्वारा गाए साम-मन्त्रों से प्रसन्न होते हैं और उपासक के हृदय में प्रसन्नता के अनन्त भाव भर देते हैं।
'मीमांसा भाष्य' में शवर ऋषि ने लिखा है-'सामवेदे सहस्रं गीतेरुपायाः' अर्थात् वेद गाने के सहस्र ढंग हैं। इससे साम मन्त्रों की उपादेयता का पता चलता है और उस कथन का विरोध हो जाता है, जिसमें सामवेद को सहस्र भागों वाला कहा गया है। यहां आशय गायन
के ढंग से है, न कि उसके भागों से। गायन के विविध ढंगों का प्रमाण इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि प्रकृति के कण-कण में संगीत के स्वर विद्यमान हैं। हवा की सांय-सांय में, पत्तों की खड़खड़ाहट में, झरनों के बहने में, ओसकणों के ढुलकने में, सागर की उछलती लहरों में, बादलों के घुमड़ने में, पक्षियों की कुहूक में, गायों के रंभाने में, चिड़ियों की चहचहाहट में, बिजली की कड़क में, हिमशिखरों पर पिघलती बर्फ़ में, नदियों के वेग में, सभी में संगीत की स्वर लहरियां बिखरी हैं।
संगीत के सात स्वरों की पहचान भी इस प्रकृति के मध्य से ही पहचानी गई होगी। संगीत की स्वरलहरियों में वंशी की मधुर तान है, तो कल-कल करती नदियों की जलतरंग है। यह ऐसी सार्वभौम स्वर रचना है, जो अपने स्वरों में प्रस्फुटित होती है। इन स्वरों के उदात्त स्वर ही सामवेद के मन्त्रों में अभिव्यक्त होते हैं। संगीत के मूल स्वरों को ढूंढ़ने के लिए 'सामवेद' के मन्त्रों को ही स्वरबद्ध करना होगा। सामवेद का संगीत जीवन और प्रकृति से जुड़ा है। इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।
संगीत जीवन को उस भावभूमि पर ले जाने वाला मार्ग है, जहां आनन्द ही आनन्द है। जब ईश्वर संगीत को अथवा गायन को स्वीकार कर लेता है, तब वह स्तुति बन जाता है। सामवेद में गायन द्वारा इसी 'स्तुति' का चित्रण हुआ है।
उदात्त स्वरों का व्यवहार सामवेद में निराले ढंग से हुआ है। 'नारदीय शिक्षा' में कहा गया है-
अथातः स्वरशास्त्राणां सर्वेषां वेदनिश्चयम् । उच्चनीचविशेषाद्धि स्वरान्यत्वं प्रवर्त्तते ॥
(नारदीय शिक्षा सूत्र 1/1) अर्थात् अब सब स्वरशास्त्रों का वर्णन वेद निश्चय ही करते हैं; क्योंकि ऊंचे और नीचे के विशेष स्वर-भेद में यह लक्षित होता है।
नारदीय शिक्षा में गान-विद्या के 8 स्वरों का उल्लेख किया गया है—'षड्ज', 'ऋषभ,' 'गान्धार,' 'मध्यम,' 'पंचम,' 'धैवत' और
'निषाद'।
उदात्त स्वरों में निषाद और गान्धार स्वर आते हैं, अनुदात्त स्वरों में ऋषभ और धैवत तथा स्वरित में षड्ज, मध्यम और पंचम स्वर आते हैं।
उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्तऋषभधैवतौ ।
स्वरितप्रभवा ह्येते षड्जमध्यमपंचमा॥
(नारदीय शिक्षा सूत्र 2/2 ) सामवेद में इन स्वरों के लिए विशेष संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है—'1 प्रथम, 2 द्वितीय, 3 तृतीय, 4 चतुर्थ, 5 मन्द्र, 6 क्रुष्ट और 7 अतिस्वार। इन्हें साम-मन्त्रों का पाठ करने वाले उच्चारित करते हैं।'
मध्यम स्वरों में इन नामों का विशेष महत्त्व है। साम उद्गाता का प्रथम स्वर ही वेणु का 'मध्यम' है, द्वितीय स्वर 'गान्धार' है, तृतीय स्वर 'ऋषभ' है, चतुर्थ स्वर 'षड्ज' है, पंचम स्वर 'धैवत' है, छठा स्वर 'निषाद' है और सप्तम स्वर का नाम 'पंचम' है।
इस प्रकार साम-मन्त्रों के गायन में उतार-चढ़ाव का ध्यान इन स्वरों के माध्यम से रखना चाहिए-
1 मध्यम, 2 गान्धार, 3 ऋषभ, 4 षड्ज, 5 मन्द्र या धैवत, 6 क्रुष्ट
या निषाद और 7 पंचम या अतिस्वार ।
मध्यम स्वर - नाभि से उठा वायु उरः, हृदय, कण्ठ और शीर्ष से टकराकर ध्वनि के रूप में उत्पन्न होता है, तो इसे पंचम स्वर कहते हैं। गान्धार स्वर- नाभि से उठा वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराता हुआ नासिका में पवित्र गन्ध लाता है, तब उसे 'गान्धार' स्वर कहते हैं।
ऋषभ स्वर - नाभि से उठने वाला वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराकर जब बैल की भांति नांदता है, तो उसे 'ऋषभ स्वर' कहते हैं।
षड्ज स्वर - ये स्वर नासिका, कण्ठ, उरः (छाती, फेफड़े), तालु, जिह्वा और दन्त इन छः स्थानों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन्हें 'षड्ज' कहा जाता है।
धैवत स्वर - इन पूर्व में उठे हुए स्वरों को जब अतिसन्धान किया जाता है, तब उसे 'धैवत स्वर' कहते हैं।
निषाद स्वर - जिस कारण समस्त स्वर बैठ जाते हैं या धूमिल पड़ जाते हैं, या दब जाते हैं, तब उसे 'निषाद स्वर' माना जाता है।
पंचम या अतस्वर- इसके उच्चारण में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पांचों प्राणों का उपयोग होता है इसलिए इसे पंचम स्वर कहते हैं। कोकिला (कोयल) पंचम स्वर में कुहकती है। इसके उच्चारण में क्षिति, रक्ता, संदीपनी और आलापनी नाम की चार श्रुतियां लगती हैं।
सामगान की शिक्षा के लिए 'नारदीय शिक्षा' और 'रागाविरोध' ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
सामगान के उपख्यानस्वरूप आठ ब्राह्मण ग्रन्थों का उल्लेख भी मिलता है। ये ब्राह्मण ग्रन्थ हैं-
1. प्रौढ़ या ताण्ड्य महाब्राह्मण, 2. षविष, 3. साम विधान, 4. आर्षेय, 5. देवताध्याय, 6. उपनिषद्, 7. संहितोपनिषद् या मन्त्र ब्राह्मण, 8. वंश।
उपरोक्त ब्राह्मण ग्रन्थों में से चौथा और पांचवां सामवेद के ऋषियों, देवताओं और छन्दों का वर्णन करता है।' मन्त्र ब्राह्मण' में सभी मन्त्र संस्कारों से सम्बन्धित हैं। 'वंश' में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके सभी सामगों (साम- मन्त्रों को गाने वाले उद्गाता) की वंशावली दी गई है। अन्य में प्रयोग तो किए गए हैं, परन्तु सामवेद के अक्षरों की व्याख्या नहीं की गई है।
'नारदीय शिक्षा में संगीत शास्त्र का जैसा विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, वैसा बहुत कम देखने में आता है। वह संगीत शास्त्र का आधार है। 'सामवेद' के भाष्यकार मेरठ निवासी स्व. पण्डित तुलसीराम स्वामी ने अपने भाष्य में इसका अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया है।
सामवेद के मुख्यतः दो भाग हैं- 1. आर्चिक, 2. गान। आर्थिक का अर्थ है ऋचाओं का समूह। इसके भी दो भाग हैं-1. पूर्वाचिक, 2. उत्तरार्धिक। पूर्वार्चिक में छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई-कई खंड हैं। इन्हें 'दशती' भी कहा गया है। दशती से दस संख्याओं का बोध होता है, किन्तु प्रत्येक खण्ड में ऋचाओं की संख्या दस नहीं है। किसी में यह संख्या दस से कम है तो किसी में अधिक, अतः कई ग्रंथ संपादकों ने इसे दर्शाती न लिखकर खण्ड लिखा है।
सामवेद के प्रथम अध्याय में अग्नि से संबंधित ऋचाएं हैं, इसलिए इसे 'आग्नेय पर्व' कहा गया है। दूसरे से चौथे अध्याय तक इन्द्र की स्तुति की गई है, इसलिए यह 'ऐंद्र पर्व' कहलाया। पांचवा अध्याय 'पवमान पर्व' कहलाता है। इसमें सोम-विषयक ऋचाएं हैं, जो ऋग्वेद के नौवें मंडल से ली गई हैं। पहले से पांचवें अध्याय तक की ऋचाएं 'ग्राम गान' कहलाती हैं। छठा अध्याय 'आरण्यक पर्व' है, इसमें वस्तुत: देवताओं और छंदों की भिन्नता है तथा इसमें गान-संबंधी एकता दिखाई देती है। इस अध्याय की ऋचाएं' अरण्य गान' कही गई हैं।
पूर्वार्चिक के छह अध्यायों में कुल 640 ऋचाएं हैं। उत्तरार्चिक में इक्कीस अध्याय हैं, ऋचाओं की संख्या बारह सौ पच्चीस है। इस प्रकार सामवेद में कुल 1865 ऋचाएं हैं। सामवेद की इन ऋचाओं का यह भावार्थ सायण भाष्य पर आधारित है। जिस प्रकार एक राज मिस्त्री ईंट और सीमेंट से एक भव्य महल का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त वेदों के कुछ विशेष चुने हुए अंश संग्रह कर सामवेद की रचना की गई है।
आदिमकालीन यज्ञों में परमेश्वर (इन्द्र, अग्नि, सोम आदि) की जो सर्वश्रेष्ठ भावपूर्ण, मधुर और संगीतमय स्तुतियां की गई थीं, उन्हीं को चुनकर सामवेद को सजाया गया है। यों तो वेदों का प्रत्येक मंत्र ही ईश्वरीय ज्ञान का भंडार है और मनुष्य को मोक्ष मार्ग दिखलाने वाला है, पर सामवेद की भक्तिरसपूर्ण काव्यधारा में गोता लगाने से तुरंत ही मनुष्य का अंतर्मन निर्मल, विशुद्ध, पवित्र और रससिक्त हो जाता है। वास्तव में परमात्मा मनुष्य के हृदय को देखता है और जिसकी जैसी हार्दिक भावना होती है, उसे वो वैसा ही फल प्रदान करता है। सामवेद महान है, शिक्षाप्रद है, अमृततुल्य है, मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। मनुष्यों को इसका अध्ययन, मनन अवश्य करना चाहिए।
यजुर्वेद क्या है ? What is Yajurveda in hindi? pdf of Yajurveda in Hindi. What is there in the Hindu mythology book Yajurveda in hindi? Importance of yagna in Yajurveda. यजुर्वेद में मंत्रों का महत्व क्या है ?. यजुर्वेद किसे कहते हैं ? यजुर्वेद के मंत्र क्या हैं ? Matra in Yajuveda? Yajurveda kya hai? or Yajurveda mein kya-kya hai janiye.
Yajurveda ke shloka ? यजुर्वेद के सूक्त ? sukt of Yajurveda.
तमुत्वा पाथ्यो वृषा समीधे दस्यु हन्तमम्। धनंजय रणे रणे ॥ शत्रुओं के विनाशक और प्रत्येक युद्ध में विजय पाने वाले हे शक्तिमान अग्निदेव ! तू धनों को जीतनेवाला है। हम तुझे प्रज्ज्वलित करते हैं। सं वां मनाऽसि संव्रता समुचित्ता न्याकरम्। अग्ने पुरीष्याधिपा भवत्वं नऽइषमूर्जं यजमानाय धेहि ।
हे अग्ने। हम तेरे कार्यों, विचारों और भावनाओं को संयुक्त करते हैं। है पुरीष्य अग्ने ! तू हमारा स्वामी है। अपने यजमान को तू अन्न और शक्ति प्रदान कर । मधुमान्नो वनस्यतिर्मधुमां अस्तु सूर्य्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥
मधुर रसवाली औषधियां हमारे लिए आरोग्य प्रदायक हों। सूर्य हमें माधुय से परिपूर्ण करे और गौ हमें पौष्टिक दुग्ध प्रदान करे !
भूमिका
'यजुर्वेद' कर्म का वेद है। मनुस्मृति की मान्यता है कि यजुर्वेद की रचना वायु नामक ऋषि ने की थी। वायु गतिशीलता का प्रतीक है। कर्म में भी गति की प्रधानता होती है। कोई भी कर्म गति के बिना संभव नहीं है।
इस प्रकार यजुर्वेद में जिन मंत्रों को रखा गया है, वे प्राय: 'कर्मकाण्ड' से ही संबंधित हैं। वैदिककाल में यज्ञ करना ही सबसे बड़ा कर्मकाण्ड था। अतः यजुर्वेद में जो मंत्र संकलित किये गये हैं, वे यज्ञकर्म के ही मंत्र हैं। यजुर्वेद में यज्ञ को ही श्रेष्ठकर्म बताया गया है।
जिस प्रकार 'ऋग्वेद' का पुरोहित 'होता' देवों का आह्वान करता है, उसी प्रकार यजुर्वेद में देवों का आह्वान करने वाला ऋषि अथवा पुरोहित 'अध्वर्यु' नाम से जाना जाता है। यज्ञ के संचालन और यज्ञ से संबंधित विविध क्रिया- व्यापार में 'अध्वर्यु' का विशेष महत्त्व है।
विद्वानों ने 'यजुर्वेद' के विविध अर्थ किये हैं-प्रथम, जिन मंत्रों द्वारा यज्ञकर्म किये जाते हैं, वे यजुर्वेद के मंत्र हैं। दूसरे, अनियमित अक्षरों से समाप्त होने वाले वाक्यों को 'यजुः' कहा जाता है, अर्थात् गद्य शैली में लिखे गये मंत्र यजुर्वेद में आते हैं। इस प्रकार गद्यात्मक मंत्रों का संकलन 'यजुः ' है ।
इसका अर्थ यही है कि 'यजुर्वेद' गद्यात्मक वाक्यों का अथवा मंत्रों का वह संकलन है, जिसके द्वारा यज्ञादि कर्म किये जाते हैं। 'यजुः ' शब्द यज् धातु से बना है। जिसका अर्थ है- देवपूजा, संगति और दान यजुर्वेद में कर्मकाण्ड ही है, अतः इसकी समस्त क्रियाएं एवं गतियां देवपूजा, संगति और दान के अंतर्गत आती हैं। क्रिया और गति का इससे अच्छा कोई वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। ब्राह्मण ग्रंथों में इसे 'यजः' कहा गया है। वहां देवपूजा और कला-कौशल आदि का संगति-करण तथा दान करने से इसे यज: कहा गया है। कहीं इसे यन्+जूः भी कहा गया है, अर्थात् ज्ञान, गमन, प्राप्ति और मोक्ष का समन्वय करते हुए प्रयत्न या क्रिया के कौशल को कराने वाला यन्+जूः होते हुए यह यजुः है।
'ऋग्वेद' में ज्ञान-विज्ञान के प्रायः सभी गुणों को बखान ऋचाओं द्वारा किया गया है। इसमें सभी पदार्थों का विश्लेषण किया गया है जबकि इन पदार्थों के गुणों का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए और उनसे अधिकतम लाभ किस प्रकार उठाना चाहिए, उन सब कर्म साधनों का प्रकाशन 'यजुर्वेद' में किया गया है; क्योंकि जब तक कर्म करने का ढंग न आता हो, उसका यथेष्ठ ज्ञान न हो, तब तक उससे श्रेष्ठ लाभ अथवा सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। सोच-समझकर मंत्रों का उद्घोष करने से और पूर्ण नियमों के साथ यज्ञकर्म करने से ही उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। विवेक द्वारा धर्म और पुरुषार्थ का संयोग करना चाहिए।
सभी यज्ञकर्म वैज्ञानिक रूप से एवं शुद्ध प्रणाली से करने चाहिए। कर्मकाण्ड विज्ञान के निमित्त ही किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक रीति से कर्मकाण्ड करने पर उत्तम और मनोवांछित फल और शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है।
ऐसा कोई जीव नहीं है जो मन, प्राण, वायु और इंद्रियों के साथ-साथ शरीर को गति दिये बिना ही कर्मफल प्राप्त कर सके। जीव अल्पज्ञ होते हुए भी बुद्धि से चेतन है। इसलिए 'ऋग्वेद' में पदार्थों के गुणों-अवगुणों का जो उल्लेख प्राप्त होता है, उसे 'यजुर्वेद' में क्रिया द्वारा जीवन में उतारने की प्रेरणा दी गयी है। 'ऋ' और 'यजुः' शब्दों का अर्थ भी यही है। भाव यही है कि ईश्वरीय पदार्थ- ज्ञान को विद्वानों की संगति से, व्यावहारिक रूप से जन-जीवन में उतारा जाए, उन्हें जाना- समझा जाए।
सर्व जनकल्याण के लिए ईश्वरीय ज्ञान-विज्ञान को जब योग्यतम कर्मों के द्वारा प्रसारित करने की क्रिया की जाती है, तब उसे 'यजुर्वेद' नाम दिया जाता है।
'यजुर्वेद' में चालीस अध्याय हैं। इन चालीस अध्यायों में सब मिलाकर एक हज़ार नौ सौ पचहत्तर (1,975) मंत्र हैं। ये मंत्र जीवन की व्यापक गति को चिह्नित करते हैं। मानव-जीवन का विशद् स्वरूप इन मंत्रों में ध्वनित होता है।
कुछ विद्वान् इन्हें 'ब्राह्मण ग्रंथों' तथा 'श्रौत सूत्रों' में दिये गये विविध नामों वाले यज्ञों में की गई विभिन्न क्रियाओं वाले मंत्रों या यजुओं का संग्रह मानते हैं। उनका कहना है कि अमावस्या, पौर्णमास तथा अग्निहोत्र संबंधी मंत्रों का संकलन 'यजुर्वेद' में है, परंतु केवल इतना ही नहीं है। यहां और भी बहुत कुछ है।
यजुर्वेद का वर्गीकरण यजुर्वेद के दो प्रमुख वर्ग किये जाते हैं-'शुक्ल यजुर्वेद' और 'कृष्ण यजुर्वेद'। 'शुक्ल यजुर्वेद' की दो शाखाएं हैं-'माध्यन्दिन' और 'काण्व'। 'कृष्ण यजुर्वेद' की चार शाखाएं हैं— 'तैत्तिरीय, "मैत्रायणी, “काठक' और 'कपिष्ठलकठ' ।
'शुक्ल यजुर्वेद' और 'कृष्ण यजुर्वेद' के अन्तर को समझने के लिए इनके स्वरूप को समझना आवश्यक है। यह वेद दो सम्प्रदायों में बंटा हुआ है-'ब्रह्म सम्प्रदाय' और ‘आदित्य सम्प्रदाय'। ब्रह्म सम्प्रदाय का संबंध 'कृष्ण यजुर्वेद' से है जबकि आदित्य सम्प्रदाय का संबंध 'शुक्ल यजुर्वेद' से है।
'शुक्ल यजुर्वेद' में 'अमावस्या,' 'पूर्णिमा' और अग्निहोत्र के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के मंत्रों का संग्रह है और 'कृष्ण यजुर्वेद' में विधि वाक्यों, आख्यान तथा मंत्रों का मिश्रित स्वरूप उपलब्ध होता है।
'शुक्ल' का अर्थ है 'श्वेत,' अर्थात् शुद्ध और पवित्र मंत्रों का संकलन। 'कृष्ण' का अर्थ है 'काला' अर्थात् अशुद्ध मंत्रों का संग्रह, परंतु यहां काला से अशुद्ध मंत्रों का अर्थ करना भारी भूल होगी। यहां मंत्रों के साथ ब्राह्मण अंश, अर्थात् विधि-वाक्यों, आख्यान आदि का मिश्रण मानना चाहिए।
'शुक्ल यजुर्वेद' में जो मंत्र दिए गए हैं, उनकी व्याख्याएं और उनके प्रयोग की विधि, अर्थात् उन्हें प्रस्तुत करने का ढंग नहीं समझाया गया है। जबकि 'कृष्ण यजुर्वेद' में मंत्रों के साथ उनकी व्याख्या और प्रयोग विधि को भी बताया गया है। 'शुक्ल यजुर्वेद' विषय की दृष्टि से शुद्ध, पवित्र और निर्मल है, जबकि 'कृष्ण यजुर्वेद' में गद्य-पद्य और ब्राह्मणों मंत्रों के मिश्रण से मंत्रों को समझने में
थोड़ी कठिनाई आती है। 'शुक्ल यजुर्वेद' के मंत्रों का प्रचलन उत्तर भारत में अधिक पाया जाता है और 'कृष्ण यजुर्वेद' का दक्षिण में।
शुक्ल यजुर्वेद की विषयवस्तु
'शुक्ल यजुर्वेद' में चालीस अध्याय हैं, परंतु अनेक विद्वान् इसके प्रथम पच्चीस अध्यायों को ही मौलिक मानते हैं। बाद के अध्यायों को प्रक्षिप्त माना जाता है, अर्थात् ये अध्याय बाद में जोड़े गये प्रतीत होते हैं। कुछ विद्वान् यजुर्वेद के प्रथम अट्ठारह अध्यायों को ही मौलिक मानते हैं; क्योंकि बाद के अध्यायों में गद्य पद्य मिश्रित मंत्र बहुतायत से हैं, जो कि 'शुक्ल यजुर्वेद' की मंत्र-विधा से बिल्कुल अलग हैं।
यजुर्वेद में कर्म का विशेष महत्त्व है। इस कर्म में ही 'यज्ञ' आता है, परंतु कहीं-कहीं प्रसंगवश इसमें कुछ ऐसे मंत्र भी हैं, जिनके द्वारा मनोविज्ञान, अध्यात्मदर्शन और पर्यावरण आदि पर प्रकाश पड़ता है।
सामान्य रूप से जिस 'यजुर्वेद' का उल्लेख मिलता है, उसमें 'कण्व' और 'माध्यन्दिनीय' शाखाओं का विवेचन है।
'यजुर्वेद' के प्रथम तीन अध्यायों में, अमावस्या (दर्श), पौर्णमास, अग्निहोत्र (सायंकालीन) तथा चतुर्मास से सम्बन्धित मंत्र मिलते हैं। इन प्रथम तीन अध्यायों में (31+34+63 = 128) कुल एक सौ अट्ठाईस मंत्र हैं।
प्रथम अध्याय के प्रथम मंत्र में ही उत्तम उत्तम कार्यों की सिद्धि के लिए मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना करने की प्रेरणा दी गयी है-
'ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा स्तेनऽईशत माधश छं सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि ।'
अर्थात् विद्वान् व्यक्तियों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय कृपा से ऋग्वेद पढ़कर और उसके गुणों को समझकर सभी पदार्थों के प्रयोग से, पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए अत्यंत उत्तम कर्मों को करना चाहिए, ताकि परमेश्वर की से सभी मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य प्राप्त हो।
सब लोगों को चाहिए कि वे अपने सत्कर्मों द्वारा मानव-जाति की रक्षा करें और उत्तम गुणों के लिए अपने पुत्रों की शिक्षा का प्रबंध करें, ताकि सभी प्रकार के रोगों और प्रबल विघ्न-बाधाओं से मानव-जीवन तथा पुत्रों की रक्षा हो सके और सुख-समृद्धि प्राप्त की जा सके। हे लोगो! आओ, हम सब मिलकर उस परमपिता परमात्मा को धन्यवाद दें, उसकी उपासना करें, जिसने हमारे लिए आश्चर्यजनक पदार्थों की रचना की है।
वह ईश्वर परम दयालु है। वह अपनी कृपा से श्रेष्ठकर्मों को करते हुए हमारी सदैव रक्षा करता है। इस प्रकार यजुर्वेद में उस परमपिता की उपासना इसलिए की जाती है। क्योंकि वह हमारी रक्षा करता है, हमें सुख-समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करता है।
मनुष्य अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ को करते हैं, उससे पवित्रता का प्रकाश प्राप्त होता है, पृथ्वी का राज-सुख मिलता है, वायु के रूप में प्राणवायु प्राप्त होती है, यश और सभी की रक्षा की प्रेरणा मिलती है, लोक-परलोक में सुखों की वृद्धि होती है, कुटिलता का त्याग करने का उत्साह प्राप्त होता है और हृदय में श्रेष्ठतम गुणों को ग्रहण करने की आस्था उत्पन्न होती है। अतः सभी मनुष्यों के सुख के लिए प्रेमपूर्वक सदैव यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।
परमेश्वर ने तीन प्रकार की वाणियों का उल्लेख किया है-
सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वद्यायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग सोमेना तनच्मि विष्णो हव्य थं रक्ष ॥
(यजुर्वेद 1/4)
अर्थात् प्रथम वह वाणी, जो ब्रह्मचर्य के समय पूर्ण विद्याध्ययन और पूर्ण आयु की कामना के लिए बोली जाती है, दूसरी वह, जो गृहस्थाश्रम में अनेकानेक क्रियाओं तथा उद्योगों में सुख पाने के लिए बोली जाती है और तीसरी वह, जो इस संसार में सब प्राणियों के शरीर और आत्मा को सुख देने के लिए, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में निवास करते हुए ईश्वरोपासना के लिए बोली जाती है।
ऋषियों का कहना है कि इन तीन प्रकार को वाणी के बिना कैसा भी मुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस वाणी से ईश्वर की उपासना के लिए यज्ञ करना चाहिए। धार्मिक और परोपकारी मनुष्य वे हैं, जो ईश्वर को और धर्म को जानकर 'मोक्ष' के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
जो ईश्वर सारे जगत् को धारण कर रहा है, वह पापी और दुष्ट जीवों को उनके कर्मानुसार दण्ड देता है और धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम फल प्रदान करता है। मनुष्य को चाहिए कि वह पारस्परिक कुटिलता त्याग कर एक दूसरे से प्रीति रखे और उनके सुख-दुःख में साथ रहे। परमेश्वर 'अच्छी संगति' की शिक्षा और विद्वानों का आश्रय प्राप्त करने की प्रेरणा देता है; क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति ही ईश्वर के सच्चिदानंद स्वरूप को पहचान पाता है।
जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों द्वारा 'यज्ञकर्म' करता है, वह यज्ञ के धुएं की सुगंध से वायु और वृष्टि के जल में सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर दिव्य सुखों को उत्पन्न करने वाला होता है। यज्ञ से शुद्ध किये अन्न, जल और पवन से सभी की शुद्धि होती है और उन्हें बल, पराक्रम, बुद्धि तथा दीर्घायु प्राप्त होती है। अतः मनुष्य को यज्ञकर्म नित्य करना चाहिए।
यजुर्वेद के विभिन्न अध्यायों में जिन विषयों पर प्रकाश डाला गया है, उनका ब्यौरा इस प्रकार है।
प्रथम अध्याय : ईश्वर द्वारा मनुष्यों को शुद्ध कर्मों के अनुष्ठान की प्रेरणा 'देना, 'दोषों का त्याग' करने का उपदेश और 'आत्म शुद्धि' के लिए यज्ञ करने तथा परोपकार की शिक्षा।
दूसरा अध्याय यज्ञ के साधनों का उल्लेख वेदी कैसी बनानी चाहिए, यज्ञ में कौन-कौन सामग्री उपयोग में लानी चाहिए, अग्नि के प्रकाश से आत्मा और इंद्रियों की शुद्धि, सुखों का भोग, पुरुषार्थसंधान, शत्रु विनाश, द्वेष का त्याग, ईश्वर में प्रीति, श्रेष्ठ गुणों का विस्तार, सत्य आचरण, प्राणिमात्र से प्रीति आदि का विधान।
तीसरा अध्याय : अग्निहोत्र यज्ञ और अग्नि के स्वभाव और अर्थ का वर्णन, पृथ्वी के भ्रमण का लक्षण, ईश्वर के स्वभाव का प्रतिपादन, सूर्य किरणों के कार्य का वर्णन, 'गायत्री मंत्र' के अर्थ का विश्लेषण, गृहस्थाश्रम के आवश्यक अनुष्ठानों का वर्णन, पापों से निवृत्ति का वर्णन, 'रुद्र' रूप का 'महामृत्युंजय मंत्र' द्वारा वर्णन, धर्म द्वारा आयु-ग्रहण का वर्णन।
इसी के साथ 'गायत्री मंत्र' में जगत् को उत्पन्न करने वाले, सर्वोत्तम, संपूर्ण दोषों को नष्ट करने वाले, अत्यंत शुद्ध परमेश्वर की उपासना करने की प्रेरणा और
'रुद्र' रूप का वर्णन अकाल मृत्यु न होने की प्रार्थना । चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक सोमयाग, वाजपेय एवं राजसूय नामक यज्ञों के मंत्रों का संग्रह है।
चौथा अध्याय: शिल्पविद्या, वर्षा की पवित्रता, विद्वानों की संगति, यज्ञ का अनुष्ठान, उत्साह की प्राप्ति, युद्ध-संचालन, यज्ञ के गुण, सत्यव्रत का धारण, अग्नि जल के गुण, पुनर्जन्म कथन, ईश्वर-प्रार्थना, यज्ञानुष्ठान, माता-पिता और सन्तान के लक्षण, दिव्य बुद्धि की साधना, पदार्थों का क्रय-विक्रय, सूर्य-गुण, मित्रता धर्म-प्रचार, चोरी के परिणाम आदि का वर्णन ।
पांचवां अध्याय : यज्ञ का अनुष्ठान, उसका स्वरूप, अग्नि द्वारा यज्ञ को सिद्धि, विद्वानों की संगति, विद्या प्राप्ति, योगाभ्यास के लक्षण, सृष्टि की उत्पत्ति प्राण अपान क्रिया का निरूपण, शूरवीरों के गुण, मोक्ष की प्राप्ति, बुरी संगति से छूटने के उपाय आदि की चर्चा ।
छठा अध्याय : राजा और राज्य कृत्य, प्रजा और राजा के पारस्परिक संबंध विष्णु का परमपद, गुरु शिष्य संबंध, विद्वानों के लक्षण, यज्ञ-अनुष्ठान, ईश्वर- प्रार्थना, योद्धा का वर्णन, दोष निवृत्ति, स्त्री-पुरुष व्यवहार, माता-पिता और संतानों के कर्तव्य आदि का उल्लेख।
सातवां अध्याय : मनुष्यों के पास्परिक व्यवहार, आत्मा के कर्म, मन और आत्मा का संबंध, सिद्ध योगी एवं योग के लक्षण, गुरु-शिष्य व्यवहार, स्वामी- सेवक व्यवहार, न्यायाधीश द्वारा प्रजा की रक्षा, राजपुरुष और सभासदों के कर्म, राजा का उपदेश, राजाओं के कर्तव्य, सेनापति की परीक्षा, राजा और प्रजाजन का सत्कार, राजा के कर्तव्य, सेनापति के कर्म, सैनिक का कर्तव्य, ब्रह्मचर्य सेवन की रीति, ईश्वर और जीव आदि के पारस्परिक संबंध।
आठवा अध्याय गृहस्थ धर्म के सेवन के लिए ब्रह्मचारिणी कन्या का ब्रह्मचारी कुमार युवक द्वारा ग्रहण गृहस्थ धर्म राजा, प्रजा, सभापति आदि के कर्तव्यों का विशद् वर्णन ।
नवां अध्याय : राजधर्म का वर्णन।
दसवां अध्याय : राजा प्रजा के धर्म का।
ग्यारहवें अध्याय से अट्ठारहवें अध्याय तक होमाग्नि के लिए वेदी-निर्माण का वर्णन बहुत विस्तार के साथ किया गया है। इस प्रक्रिया को 'अग्नि-चयन' कहा जाता है। वेदी की रचना में दस हज़ार आठ सौ (10,800) इटै लगती हैं। इन्हें विशेष मिट्टी और आकार से बनाया जाता है। वेदी की आकृति पंख फैलाये पक्षी के समान बनाई जाती है।
इसके अलावा-
ग्यारहवां अध्याय : गृहस्थ, राजा, पुरोहित, सभा, सेना के अध्यक्ष और प्रजा द्वारा किए जाने योग्य कर्मों का वर्णन। बारहवां अध्याय: स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, खेती और पठन-पाठन आदि के
कर्मों का वर्णन मन और वाणी पर नियंत्रण उपदेश । तेरहवां अध्याय ईश्वर, स्त्री-पुरुष और व्यवहारकुशलता का वर्णन । चौदहवा अध्याय : वसंत आदि ऋतुओं का सौंदर्य तथा उसके गुणों का वर्णन।
पंद्रहवां अध्याय : वायु, जीवन, ईश्वर और वीर पुरुषों का गुणगान ।
सोलहवां अध्याय: भगवान रुद्र की स्तुति एवं उसके गुणों का वर्णन !
रुद्राभिषेक में विशेष रूप से इन मंत्रों का प्रयोग होता है। सत्रहवां अध्याय: सूर्य, मेघ, गृहस्थाश्रम और गणित विद्या तथा ईश्वर द्वारा प्रदत्त पदार्थ विद्या की विवेचना।
अट्ठारहवां अध्याय: गणित विद्या, राजा प्रजा, अध्यापक और शिष्य आदि के गुण-कर्म कहे गये हैं। उन्नीसवां अध्याय : सोम आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन।
बीसवां अध्याय : राजा प्रजा, धर्म के विविध अंग, प्रजापालक के गुण,
अभयदान, परस्पर विचार-विमर्श और सम्मति आदि का महत्त्व, स्त्रियों के गुण
एवं धन आदि पदार्थों की श्रीवृद्धि का विवेचन ।
इक्कीसवां अध्याय : वरुण, अग्नि, विद्वान्, राजा, प्रजा, शिल्प, वाणी, घर, अश्विन (वैद्य) आदि शब्दों का अर्थ और ऋतु तथा 'होता' के गुणों का वर्णन । बाईसवां अध्याय : आयु, वृद्धि, अग्नि के गुण, कर्म, यज्ञ, 'गायत्री मंत्र' और सब पदार्थों के शोधन का वर्णन ।
तेईसवां अध्याय : परमात्मा की महिमा, सृष्टि के गुण, योग की प्रशंसा, प्रश्नोत्तर, राजा के गुण, शास्त्रों का उपदेश, पठन-पाठन, स्त्री-पुरुषों के पारस्परिक गुण, ईश्वर के गुण, यज्ञ की व्याख्या और रेखा गणित आदि का विवेचन ।
चौबीसवां अध्याय : पशु-पक्षी, रेंगने वाले सर्प आदि, वन्य पशु-मृग, जल में रहने वाले प्राणी और कीड़े-मकोड़े आदि के गुणों का वर्णन, परमात्मा ही समस्त जीवों का कारण रूप है और दुख-सुख सभी को समान रूप से होता है आदि सिद्धांतों का सुंदर विश्लेषण ।
पच्चीसवां अध्याय : संसार के पदार्थों के गुणों, का वर्णन, पशुओं का पालन, अपने शरीर के अंगों की रक्षा, ईश्वर की प्रार्थना, यज्ञ की प्रशंसा, बुद्धि और ज्ञान को बांटना, धर्म की इच्छा, अश्वों के गुण और उसकी गति बताना, आत्मा का ज्ञान और धन प्राप्ति का विधान आदि ।
: पुरुषार्थ का फल, वेद पढ़ने और सुनने का अधिकार, परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् और सत्य का निरूपण, अग्नि आदि पदार्थ, यज्ञ, सुन्दर घरों को निर्मित करने का शिल्प तथा उत्तम स्थान का चयन आदि।
सत्ताईसवां अध्याय: सत्य की प्रशंसा, उत्तम गुणों को प्राप्त करना, राज्य का संवर्धन, अनिष्ट की निवृत्ति, आयुवृद्धि, मित्र का विश्वास, सर्वत्र यश का विस्तार, ऐश्वर्य की श्रीवृद्धि, अल्प मृत्यु का निवारण, शुद्धीकरण करना, सुकम का अनुष्ठान, यज्ञविधान, अत्यधिक धन की प्राप्ति, स्वामी स्वभाव का प्रदर्शन, मधुर वाणी को धारण करना, सद्गुणों की कामना, अग्नि की प्रशंसा, विद्या और धन की अभिवृद्धि, वायु के गुण, ईश्वर के गुण, शूरवीरों के कृत्य, मित्र की रक्षा, विद्वानों का आश्रय, आत्मा का उद्बोधन, ब्रह्मचर्यपालन, संतुलित आहार-विहार आदि का वर्णन ।
अट्ठाईसवां अध्याय : ‘होता' के गुणों का, वाणी का और अश्वियों के गुण का वर्णन, होता के कर्तव्य, यज्ञ की व्याख्या और विद्वानों की विस्तार प्रशंसा।
उनतीसवां अध्याय : अग्नि, विद्वान्, घर, प्राण-अपान, अध्यापक, उपदेशक, वाणी, अश्व, प्रशस्त पदार्थ, द्वार, रात्रि, दिन, शिल्प- शिल्पी शोभा, अस्त्र-शस्त्र, सेना, ज्ञानियों की रक्षा, सृष्टि का उपकार, विघ्ननिवारण, शत्रुसेना की पराजय, अपनी सेना की संगति और सुरक्षा, पशुओं के गुण और यज्ञों का निरूपण ।
तीसवां अध्याय : परमेश्वर के स्वरूप और राजा का वर्णन, ईश्वर के स्वरूप के संदर्भ में 'गायत्री महामंत्र' का उल्लेख यहां भी हुआ है और अपने दुष्कर्मों को दूर करके शुभ और शुद्ध आचरणों को प्राप्त करने के लिए परमात्मा से प्रार्थना ।
इकतीसवां अध्याय : ईश्वर, सृष्टि और राजा के गुणों का विवेचन । बत्तीसवां अध्याय : परमेश्वर, विद्वान्, बुद्धि तथा धन-प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की गई है।
तेंतीसवां अध्याय : अग्नि, प्राण, उदान (सांस), दिन-रात, सूर्य, राजा, ऐश्वर्य, उत्तम यान, विद्वान्, लक्ष्मी, वैश्वानर, ईश्वर, इन्द्र, बुद्धि, वरुण, अश्वि, अन्न, राजा प्रजा, परीक्षक, वायु आदि के गुणों का वर्णन ।
चौंतीसवां अध्याय : मन का लक्षण, शिक्षा, विद्या की इच्छा, विद्वानों की संगति, कन्याओं का प्रबोध, चेतनता, विद्वानों का लक्षण, रक्षा की प्रार्थना, बल तथा ऐश्वर्य की इच्छा, सोम औषधि का लक्षण, शुभ कर्मों की इच्छा, परमेश्वर और सूर्य का वर्णन, प्रातः काल का उठना, पुरुषार्थ द्वारा ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करना, ईश्वर द्वारा जगत् की रचना, महाराजाओं का स्वरूप, अश्वि के गुण, आयु का बढ़ना, प्राणों के लक्षण और ईश्वर के कर्तव्यों का विवेचन।
पैंतीसवां अध्याय : व्यवहार, जीव की गति, जन्म-मरण, सत्य, आशीर्वाद, अग्नि और सत्य इच्छा आदि का वर्णन।
छत्तीसवां अध्याय: परमेश्वर की प्रार्थना, सभी के सुख की कामना, परस्पर मैत्री भाव, दिनचर्या की शुद्धता, धर्म के लक्षण, परमात्मा के प्रति आस्था आदि का उल्लेख।
सैंतीसवां अध्याय : ईश्वर, योगी, सूर्य, पृथ्वी, यज्ञ, सन्मार्ग, स्त्री, पति और पिता के तुल्य परमेश्वर का वर्णन, साथ ही दिन-प्रतिदिन जीवन में किये जाने वाले आहार-विहार का अनुष्ठान।
अड़तीसवां अध्याय: सृष्टि में व्याप्त शुभगुणों का ग्रहण, अपना और दूसरों का पोषण, यज्ञ द्वारा जगत् के पदार्थों का शोधन, सर्वत्र सुख प्राप्ति के साधन, धर्म का अनुष्ठान, स्वस्थ शरीर की श्रीवृद्धि, ईश्वरीय गुण, बल-वृद्धि और सुख भोग आदि का उल्लेख।
उनतालीसवां अध्याय मनुष्य की मृत्यु के उपरांत 'अन्त्येष्टि कर्म' करना, मृत शोक नहीं करना आदि उपदेश ।
चालीसवां अध्याय : ईश्वर के गुणों का वर्णन, अधर्म का त्याग, सत्कर्मी का महत्त्व, अधर्माचरण की निंदा, परमेश्वर का सूक्ष्म रूप, विद्वान और मूर्ख को समझना, अहिंसा को जानना, मोह शोक आदि का त्याग, ईश्वर को जन्मादि दीपों से दूर मानना, वेद-विद्या का उपदेश, नश्वर जगत् को जरूप समझना, मोक्ष की सिद्धि, चैतन्य शक्ति की उपासना, जड़-चेतन की समझना, शरीर के स्वभाव की जानना, समाधि से परमेश्वर को पाना, आत्मा का शरीर त्याग, शरीर दाह के उपरान्त अन्य क्रियाओं के अनुष्ठान का निषेध, अधर्म का त्याग, धर्म के लिए परमात्मा की स्तुति, 'ओ३म्' की महत्ता का प्रतिपादन ।
कृष्ण यजुर्वेद की विषयवस्तु
'कृष्ण यजुर्वेद' की चार शाखाएं तैत्तिरीय, ' 'मैत्रायणी, 'काठक' और 'कपिष्ठलकठ' उपलब्ध होती हैं। इनमें तैत्तिरीय शाखा पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। इस संहिता में सात काण्ड हैं, जो 631 अनुवाकों में घंटे हैं। 'शुक्ल यजुर्वेद' की भांति इस संहिता का मुख्य विषय भी 'कर्मकाण्ड' ही है।
पहला काण्ड : 'दर्श' (अमावस्या) और पूर्णमास (पूर्णिमा) के यज्ञों का वर्णन तथा अग्निष्टोम, वाजपेय और राजसूय यज्ञों के मंत्रों का संकलन और इनकी विधि ।
दूसरा काण्ड : विभिन्न उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले पशु-विधान का वर्णन संतति, विजय, शौर्य आदि कामनाओं के साथ ही अन्न-विधान, भूति, ब्रह्मवर्चस्, ग्राम, शत्रु- विजय, उन्नति तथा स्वर्ग आदि की इच्छाओं की अभिव्यक्ति।
तीसरा काण्ड : सोमयाग का विस्तृत वर्णन के साथ जय-विजय और राष्ट्रकार्य से सम्बन्धित विविध मंत्र है। चौथा काण्ड : वेद कैसे बने ? यज्ञ में अग्नि का क्या महत्त्व है?
अग्निचयन कैसे किया जाए? जैसे प्रश्नों का समाधान और 'अश्वमेध यज्ञ' का
विधान और इसकी प्रारंभिक क्रियाओं का सांगोपांग वर्णन । पांचवां काण्ड : यज्ञ वेदी की मिट्टी से प्रारम्भ होकर 'अश्वमेध यज्ञ' को विस्तृत व्यवस्था ।
छठा काण्ड : यजमान की दीक्षा, यज्ञभूमि का चयन, विभिन्न यज्ञपात्रों तथा
दक्षिणा आदि ।
सातवां काण्ड : ‘ज्योतिष्टोम' होम और अश्वमेध यज्ञ की क्रियाओं का विस्तृत वर्णन।
यजुर्वेद के संबंध में एक प्रसंग अत्यंत प्रचलित है— महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने मामा वैशम्पायन से यजुर्वेद की शिक्षा ली थी। बाद में किसी कारणवश गुरु- शिष्य में मन-मुटाव हो गया, तो गुरु ने अपनी दी हुई शिक्षा अपने शिष्य से वापस मांगी। इस पर शिष्य ने वह सारा ज्ञान वमन कर दिया। तब गुरु की आज्ञा से अन्य शिष्यों ने तीतर बनकर उस वमन को खा लिया। इसी कारण यजुर्वेद कृष्ण शाखा का नाम 'तैत्तरीय' पड़ गया। कथाओं के माध्यम से इस तरह के प्रतीकों को आज समझने की आवश्यकता है। यह ऋषियों की अपनी एक विशिष्ट शैली रही है। इससे यह संकेत भी मिलता है कि ऋषि जहां स्मरण की सूक्ष्म विधियों को जानते थे, वहीं वे यह भी जानते थे कि मन की गहराई में पड़े सूक्ष्म संस्कार की रेखाओं को कैसे मिटाया जा सकता है।
यजुर्वेद का महत्त्व (Importance of Yajurveda)
प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से 'शुक्ल यजुर्वेद' के मंत्रों की प्रधानता है। यजुर्वेद में ‘वैदिक कर्मकाण्ड' का विस्तृत विवेचन किया गया है। वैदिक कर्मकाण्ड का पूरा इतिहास उसमें सिमटा हुआ है। जीव के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि संस्कार तक के सभी कर्मकाण्ड यजुर्वेद में समाहित हैं।
'यज्ञ' की दृष्टि से यजुर्वेद अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें यज्ञ से संबंधित सम्पूर्ण विधि-विधान विस्तार के साथ बताए गए हैं। सभी क्रियाओं का उल्लेख सविस्तार किया गया है। हमारी परम्पराएं, धार्मिक क्रियाएं तथा सभी सामाजिक अनुष्ठानों की व्याख्या पूरी रीति-नीति के साथ यजुर्वेद में बताई गयी है।
यहां यज्ञ के विविध प्रकारों का उल्लेख, मनुष्य के हित को सामने रखकर किया गया है।‘अश्वमेध,' 'नरमेध, ' 'सर्वमेध' आदि शब्दों की विस्तृत व्याख्या भी इसमें दी गई है। इन्हें इन शब्दों का आध्यात्मिक अर्थ भी कहा जा सकता है
जैसे कि-इन मंत्रों में प्रयुक्त 'मेघ' का तात्पर्य 'हित' से है, न कि 'बलि' से। 'शुक्ल यजुर्वेद' में जहां मंत्र पद्यात्मक शैली में हैं, वहां 'कृष्ण यजुर्वेद' में मंत्रों की प्रस्तुति गद्य शैली में की गई है। जैसे 'इंद्राय स्वाहा', या ' अग्नये स्वाहा'। ये मंत्र अत्यंत सरल हैं।
यजुर्वेद के देवता
कर्मकाण्ड की परंपराओं के अनुसार, यजुर्वेद में देवगणों का स्वरूप ऋग्वेद के देवताओं से अलग है। जैसे ऋग्वेद में 'प्रजापति, रुद्र, "विष्णु' आदि देवताओं " का इतना महत्त्व नहीं है, जितना यजुर्वेद में है। ऋऋग्वेद के 'रुद्र' को यहां 'शिव' 'शंकर, "महादेव' आदि नामों से पुकारा जाने लगा। 'शिव' कल्याण का देवता है। 'शंकर' जलाशय का देवता है और महादेव तो सभी देवताओं में उत्तम और शक्तिशाली हैं, तभी तो उन्हें देवाधिदेव महादेव के नाम से पुकारा जाता है। इसी प्रकार 'विष्णु' का महत्त्व भी यहां अधिक हो गया। उसे यहां यज्ञ का 'हविष्य' दिया जाने लगा है।
ऋग्वेद में 'असुर' को शक्तिशाली देव माना जाता है, परंतु यजुर्वेद तक आते-जाते वह दुरात्मा राक्षस के रूप में परिवर्तित हो गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद में' नागपूजा' कहीं नहीं है, किन्तु यजुर्वेद में नाग भी देवता बन गया है। वहां यज्ञ देवता के अनुग्रह के लिए किया जाता था, परंतु यजुर्वेद में यज्ञ का स्थान ही सर्वोपरि हो गया है।
यजुर्वेद में ईश्वरीय शक्ति को अलग-अलग समय पर अलग अलग नामों से पुकारा जाने लगा था, जबकि ऋग्वेद में एक ही सत्य को विविध नामों से पुकारा जाता था। यहां कुछ विशिष्ट देवता अधिकाधिक विशेषणों और नामों से पुकारे जाने लगे हैं, जैसे 'शिव सहस्रनाम,' 'विष्णु सहस्रनाम' आदि द्वारा उनके नामों का स्तुतिगान किया जाने लगा था।
यजुर्वेद में जिन देवताओं की स्तुति की जाती है, उनके प्रार्थना मंत्र सरल हैं। यहां देवता का नाम लेना पर्याप्त है और उसके नाम के साथ ही आहुति दी जाती है।
यजुर्वेद में मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का विवेचन सरलता से किया गया है। जीवन का उदात्त पक्ष यहां सुन्दरता से चित्रित किया गया है। मित्र के प्रति 'प्रेम, "विश्व- बन्धुत्व' की भावना तथा सभी के प्रति 'परोपकार' की कामना का उल्लेख यहां पर पूरी उदारता के साथ किया गया है।
यहां जीवन को कर्मक्षेत्र मानकर 'सौ वर्ष तक जीने की इच्छा' की गयी है। और समस्त विघ्न-बाधाओं में सुख तथा शान्ति को मांगा गया है। शान्ति ही मानो उनका लक्ष्य था।
ऋग्वेद क्या है ? What is Rigveda in hindi? What is there in the Hindu mythology book Rigveda in hindi? Importance of yagna in Rigveda. ऋग्वेद में मंत्रों का महत्व क्या है?. ऋग्वेद किसे कहते हैं ? ऋग्वेद के श्लोक क्या हैं ? ऋग्वेद के सुक्त? shloka in rigveda ? Rigved kya hai? rigveda kise kehte hain ? or Rigveda mein kya-kya hai janiye.
Content table of Rigveda
१.रचना क्रिया- Rigveda mein Rachna
२.विषय वस्तु - Rigveda ki vishayvastu
३.देवताओं की स्तुति- rigveda mein devtaon ki stuti.
४.धर्म साधना- rigveda mein dharm ki sthapna.
५.जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन- Rigveda mein jivan ki shresthata ka pratipadan
६.अज्ञानता का त्याग तथा ज्ञान की प्राप्ति की का मार्ग- Rigveda mein agyanta ka tyaag.
७.उत्तम आचरण की शिक्षा - Rigveda mein uttam acharan
८.राजा के कर्म.- Rigveda mein raja ke karm
९.मनुष्य के विविध रूप - rigveda mein manushy ke vividh roop
१०.प्राणी मात्र का सर्वोच्च जीव सुख - rigveda mein praani matr ka sarvocch sukh
११.गुरु शिष्य परंपरा की श्रेष्ठता- Rigveda mein guru shishy parampara
१३.कर्म का महत्व - Rigveda mein karm ka mahtva.
१४.स्वस्थ शरीर की प्रेरणा - Rigveda mein swasth sharir ki prerna.
15.ईश्वर का गुणगान - Rigveda mein ishwar ka gungaan
16.योग विद्या - Rigveda mein yog vidyaa
17आयुर्वेद - rigveda mein aayurved
18.पशुपालन कृषि और शिल्प - rigved mein pashu palan, krishi aur shilp kala
19.यज्ञ का महत्व - Rigveda mein yagna ka mahtva
20ऋग्वेद के प्रमुख देवता - rigved ke pramukh devtaa.
Content table:- 1. Creation 2. Content 3. Praise of the Gods 4. religious practice 5. Presentation of the excellence of life 6. Renunciation of ignorance and the way to attain knowledge. 7. Education of good conduct 8. Karma of the king. 9. Various forms of man .10. Supreme creature happiness of mere creature 11. The superiority of Guru Shishya Parampara .13. Importance of Karma .14. Healthy body motivation 15. Praise God .16. Yoga Vidya. 17Ayurveda .18. Animal Husbandry Agriculture and Crafts 19. Importance of Yagya .20 Major Gods of Rigveda
अग्नेवाजस्य गोतम ईशानः सहसो यहो ।
अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥ अन्न एवं गौ आदि धन से संपन्न करने वाले, बल से उत्पन्न हे जातवेदा (अग्ने) ! तू हमें भी धनादि से परिपूर्ण करे।
अधि पेशांसि वपते नृत्रिवापोर्णुते वक्ष उत्रेव बर्जहम् ।
ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वती गावो न वज्रं व्युषा आवर्तमः ॥ नर्तकी के समान अनेक रूपों को धारण करने वाली उषा गौ के समान पोषक प्रवाह प्रदान करने के निमित्त अपने वक्ष को खोल देती है तथा संपूर्ण लोकों में अपने प्रकाश को व्याप्त करती और सबकी सुरक्षा के निमित्त अंधकार को मिटा देती है।
अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याम रोदसी देवपुत्रे ।
उभे देवनामुभयेभिरह्नां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ कभी पीड़ित या शिथिल न होने वाले आकाश और पृथ्वी देवताओं की शक्ति के उत्पादक हैं और अपने रक्षा साधनों से प्राणियों की सुरक्षा करते हैं। ये रात- दिन पापों से हमारी रक्षा करें।
भूमिका
'ऋग्वेद' ऋचाओं का वेद है। इसमें ऋषि-मुनियों द्वारा समय-समय पर रचित मन्त्रों का संकलन है। इन मन्त्रों को ही ऋचा कहा जाता है। छन्द और पदों में रचित मन्त्रों को ऋचा नाम दिया गया है। कहीं-कहीं ऋग्वेद संहिता नाम भी प्रचलित है। संहिताओं का अर्थ ऋचाओं के संग्रह से है। इस प्रकार ऋचाओं का संगृहीत स्वरूप 'ऋग्वेद संहिता' कहा जाता है।
रचना-प्रक्रिया
'ऋग्वेद' में दस हज़ार पांच सौ इक्कीस (10,521) ऋचाएं अथवा मन्त्र हैं, जिन्हें एक हज़ार अट्ठाईस (1,028) सूक्तों में बांधा गया है।
'ऋग्वेद' में प्रायः अग्नि, इन्द्र, वायु, सविता, वरुण, विष्णु और रुद्र आदि देवताओं का वर्णन मिलता है। प्रत्येक देवता के लिए अलग-अलग सूक्तों में, थोड़ी-थोड़ी ऋचाएं निश्चित की गयी हैं।
'ऋग्वेद' में इन सूक्तों को मिलाकर 'मण्डल' बनाये गये हैं। सभी सूक्त दस मण्डलों में विभक्त हैं। इन मण्डलों को पिचासी (85) अनुवाकों (अध्यायों) में विभक्त किया गया है। ये अनुवाक ही सूक्तों में विभाजित हैं।
'ऋग्वेद' का एक अन्य विभाजन भी प्राप्त होता है। इस विभाजन के अनुसार ऋग्वेद को आठ अष्टकों में बांटा गया है। ये अष्टक कुछ ऋचाओं के समूह में विभाजित हैं। उन्हें 'वर्ग' नाम दिया गया है। ये वर्ग संख्या में दो हज़ार चौबीस (2,024) हैं, किन्तु यह विभाजन प्रचलन में नहीं है। प्रचलन में अनुवाक सूक्त वाला विभाजन ही सर्वमान्य है।
'ऋग्वेद' के प्रत्येक सूक्त के प्रारम्भ में, उसके रचयिता ऋषि, उसमें उपासित देवता का नाम और उस छन्द का नाम लिखा होता है, जिसमें उसे रचा गया है। महर्षि कात्यायन ने अपने ग्रन्थ 'ऋग्वेद-सर्वानुक्रमणी' में इन नामों का उल्लेख करके ऋषियों के रचनाक्रम की महत्ता को प्रकट किया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि महर्षि कात्यायन से पूर्व ऋषियों के नामों का उल्लेख ऋचाओं के सूक्तों पर नहीं था। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। महर्षि कात्यायन के पास इन नामों के
उल्लेख का कोई-न-कोई आधार अवश्य रहा होगा, अन्यथा ऋचाओं के रचयिता ऋषियों का नाम खोजना बिना किसी संकेत के सम्भव नहीं हो सकता।
यह भी कहा जाता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों और अन्य परम्पराओं का अन्वेषण करके सम्भवत: महर्षि कात्यायन ने ऋषियों की सूची बनायी होगी, परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के रचनाकाल से बहुत बाद के हैं। उनमें ऋषियों का जो क्रम आया होगा, वह भी किसी-न-किसी आधार पर निश्चित किया गया होगा।
विषयवस्तु:-
ऋग्वेद में जीवन के प्रत्येक पक्ष का विवेचन है। इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों की व्याख्या की गई है। कर्म, उपासना और ज्ञान की प्रत्येक विधा का इसमें समावेश किया गया है।
देवताओं की स्तुति
'ऋग्वेद' के सभी मन्त्रों में प्रायः अग्नि, इन्द्र, सूर्य, वायु, वरुण आदि देवताओं की स्तुति की गयी है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक सौ इक्यानवें (191) सूक्त हैं और एक हजार नौ सौ छिहत्तर मन्त्र (1,976) हैं।
इस सूक्त में 'अग्नि' को दिव्य पदार्थ के रूप में पूजित किया गया है अर्थात यह अग्नि ही ईश्वर का प्रतिरूप है। ऋषियों का कहना है कि जिस परमात्मा ने दिव्य गुणों वाली अग्नि की रचना की है, उस अग्नि से मनुष्यों को उत्तम उत्तम उपकार ग्रहण करने चाहिए। ईश्वर की भी यही इच्छा है।
'ऋग्वेद' के प्रथम मण्डल में ईश्वरीय उपासना, पुरुषार्थ, विद्या, ब्रह्मचर्य, विद्वानों की श्रेष्ठता, राजा और प्रजा के कर्तव्य, ईश्वर और सूर्य के गुण, वायु और वरुण के गुण, प्रकृति के विविध रूप और गुण, स्त्री-पुरुष के धर्म, सोमलता का महत्त्व और उसके गुण इसी के साथ मित्र अमित्र के गुण तथा अन्न आदि के गुणों का भी व्यापकता से उल्लेख किया गया है।
मन्त्रों द्वारा एक ओर तो देवता को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ में आहुति दी जाती है, तो दूसरी ओर गौ, पुत्र, धन-धान्य आदि के लिए प्रार्थना की जाती है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जबकि वास्तव में वह एक ही है। परमेश्वर के जितने कर्म और गुणों के स्वभाव हैं, उतने ही उस परमात्मा के नाम हैं। ईश्वर एक ही है, परन्तु लोग उसे विविध नामों से पुकारते हैं। उसे ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि कहा जाता है।
सूर्य और वायु द्वारा समस्त ऋतुओं का संरक्षण और संवर्धन होता है। इसलिए
आर्य ऋषियों ने सूर्य और वायु की उपासना भी की है। इस प्रकार पदार्थ विद्या की सिद्धि के लिए वायु और अग्नि की अनिवार्यता को ऋषियों ने मुख्य हेतु स्वीकार किया है। अग्नि और वायु के सहचरों के रूप में अश्वि (गुणों का प्रकाश करने वाले), सविता (सूर्य), अग्नि, देवी इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, आद्या पृथ्वी, भूमि, विष्णु आदि की कल्पना की गयी तथा उनके अर्थों को सूक्ष्मता के साथ स्पष्ट भी किया गया।
अनेक मन्त्रों में अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का भी वर्णन किया गया है। विद्या और पुरुषार्थ से सुख की प्राप्ति होती है। विद्वानों के साहचर्य से ज्ञान की उपलब्धि होती है। श्रेष्ठ व्यक्तियों के साथ मित्रता और दुष्टों पर अविश्वास की प्रेरणा तथा ऐश्वर्य-प्राप्ति और सुमार्गगामी होने का उपदेश दिया गया है 1
धर्म साधना
'धर्म' की प्राप्ति के लिए सभी विषयों का श्रवण करना, मित्र से प्रीति, सत्संगति, सहकारिता से कार्य करना, उत्तम व्यवहार करना, धर्म का अनुष्ठान करना, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या अर्जन करना, माता-पिता के महत्त्व को प्रतिपादित करना, प्राणवायु द्वारा शरीर की रक्षा करना, स्त्री-पुरुष के पारस्परिक महत्त्व को बताना, रात्रि और प्रभात के गुणों द्वारा स्त्री-पुरुष के कर्तव्यों को बताना, विद्वानों और राजधर्म का वर्णन, सोमलता के गुणों का वर्णन, शिक्षक और शिष्य के सम्बन्धों का विश्लेषण, मेधावी कर्मों का वर्णन तथा विषहरण ओषधियों के विषय में ऋषि-मुनियों ने अनेक मन्त्र रचे । इन सभी मन्त्रों का उल्लेख प्रथम मण्डल के सूक्तों में विस्तार से प्राप्त होता है।
ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक के मन्त्रों में एक अद्भुत एकरूपता लक्षित की जा सकती है। इनमें प्रत्येक मण्डल का एक-एक ऋषिवंश से सम्बन्ध दिखाई पड़ता है। इन्हें 'वंशज मण्डल' कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। ये मण्डल क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज और वसिष्ठ ऋषियों के वंशजों से सम्बन्धित हैं। सब सूक्तों का क्रम भी एक जैसा ही है। प्रत्येक मण्डल का प्रथम सूक्त 'अग्नि' को अर्पित है। उसके बाद 'इन्द्र' के सूक्त आते हैं और अन्त में अन्य देवों की उपासना से सम्बन्धित सूक्त हैं। इसी प्रकार अष्टम मण्डल का सम्बन्ध भी, इन्हीं सूक्तों के ऋषि वंशजों की भांति कण्व ऋषि के वंशजों से है, परन्तु इस मण्डल में कुछ सूक्त कण्व ऋषि के वंशजों से अलग कुछ अन्य ऋषियों से तथा उनके वंशजों से भी जुड़े हुए हैं।
नवम मण्डल के सूक्त 'सोम' देवता को समर्पित हैं। इस मण्डल के सूक्तों पर अधिकतर उन्हीं ऋषियों के नाम हैं, जिनके नाम 'दो' से 'सात' मण्डल तक के हैं।
प्रथम मण्डल की भांति दशम मण्डल में भी ऋषि, देवता और छन्द सभी में विविधता के दर्शन होते हैं। अधिकांश विद्वान् इन मण्डलों के वर्ण्य विषय, भाषा और छन्दों को देखकर इन्हें अर्वाचीन मानते हैं, परन्तु उनकी इस मान्यता में कोई विशेष दम नहीं है; क्योंकि प्रायः सभी मण्डलों में वर्ण्य विषय और भाषा तथा छन्दों की समानता लक्षित की जा सकती है। यदि लोकप्रियता की दृष्टि से 'प्रथम' और 'दशम' मण्डल के मन्त्रों को विशिष्टता प्राप्त हुई, तो वह उन मन्त्रों की विषय- वस्तु ही है। आज सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना किसी एक व्यक्ति और एक काल की नहीं है।
जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
इस प्रकार ऋग्वेद में केवल स्तुति पक्ष ही प्रबल नहीं है, वहां जीवन को सर्वांग रूप से उत्तम अथवा श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा भी दी गयी है।
ऋषि विश्वामित्र कुछ ऐसा ही मन्त्र आगे भी कहते हैं, जिसमें ब्रह्मचर्य की महत्ता को दर्शाया गया है-
एना वयं पयसा पिन्नमाना अनु योनि देवकृतं चरन्तीः । न वर्त्तवे प्रसवः सर्गतक्तः किंयुर्विप्रो नद्यो जोह वीति ॥
(ऋग्वेद 3/33/4)
अर्थात् जैसे जलसहित नदियां सभी का उपकार करती हैं और कभी जल से हीन नहीं होतीं, वैसे ही ब्रह्मचर्य से युक्त स्त्री और पुरुष की सन्तानें जन्म लेकर, धर्म सम्बन्धी ब्रह्मचर्य से सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त कर अपनी विद्वत्ता से सभी का उपकार कर सकती हैं।
अज्ञान का त्याग तथा ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य
अज्ञान का त्याग करना ही उनका अभीष्ट था। ज्ञान की प्राप्ति उनका सर्वोच्च लक्ष्य था। मित्रता और प्राणिमात्र के प्रति गहरी संवेदनशीलता उनका धर्म था। शक्ति और आरोग्यता में उनका पूर्ण विश्वास था। पवित्रता और विनम्रता उनका आचरण था। नीरोगी काया केवल उनका ही लक्ष्य नहीं था, वे पशु-पक्षियों तक को नीरोगी देखना चाहते थे । प्रकृति के मध्य सभी जड़-चेतन पदार्थ उनकी सहानुभूति के पात्र थे।
आर्य ऋषि-मुनि सभी मनुष्यों को यही प्रेरणा देने वाले थे कि जैसे वे अपने लिए उत्तम पदार्थों की कामना करते हैं, उसी प्रकार उन्हें दूसरों के लिए भी उत्तम पदार्थों की कामना करनी चाहिए।
उत्तम आचरण की शिक्षा
यही नहीं, वैदिक ऋषियों ने मनुष्यों को प्रेरणा दी कि उन्हें अग्नि के समान उत्तम आचरण करने वाला होना चाहिए और अविद्या से निवृत्त होकर यश प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति समाज के हित के लिए कर्म करते हैं और समाज को सुखी और सन्तुष्ट बनाते हैं, वे सूर्य की किरणों के सदृश सर्वत्र यश के भागी होते हैं।
उत्तम स्थान
श्रेष्ठजन अपनी सन्तान को श्रेष्ठ और उत्तम बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। वे उन्हें दुष्ट आचरणों का त्याग करने की शिक्षा देते हैं, उन्हें माता-पिता का आदर करना सिखाते हैं और चोरी जैसे जघन्य पापकर्म से सदैव दूर रहने के लिए उपदेश देते हैं।
'ऋग्वेद' में 'विद्या' और 'दान' कर्म को सर्वश्रेष्ठ माना है। जो व्यक्ति विद्या का दान करता है और गौ आदि के दान से ब्राह्मण तथा निर्धन व्यक्ति का सत्कार करता है, वह उत्तम यश को प्राप्त करता है।
राजा के कर्म
'ऋग्वेद' में राजा के कर्मों का विश्लेषण भी किया गया है। राजा का प्रथम कर्तव्य यही है कि वह अपनी प्रजा की सुरक्षा का प्रबन्ध करे, राज्य के धनी, विद्वान्, अध्यापक और धर्म का उपदेश देने वाले विद्वानों की केवल रक्षा ही नहीं, अपितु उन्हें धन से, व्यवहार से और सम्मान से सुखी करे तथा इस प्रकार समाज की उन्नति में सहयोग करे।
राजा के लिए आवश्यक है कि वह श्रेष्ठ आचरण करनेवाला हो, सभी शास्त्रों में पूर्ण रूप से निष्णात हो, स्वच्छ और उत्तम गुणों से युक्त हो, माता-पिता और प्रजापालन में दक्ष हो तथा राज्य की श्रीवृद्धि में अपना पूरा योगदान देने वाला हो।
राजा वही उत्तम होता है, जो दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुणीजन से जीवन की यथार्थ शिक्षा को ग्रहण करे और उसी के अनुरूप विनयपूर्वक तथा न्याय द्वारा राज्य का संचालन करे। ऐसा राजा संसार में यश प्राप्त करता हुआ मृत्यु के बाद देवलोकों को प्राप्त करता है।
मनुष्य के विविध रूप
'ऋग्वेद' में मूढ़, मूढ़तर, मूढ़तम, विद्वान्, विद्वत्तर, विद्वत्तम और अनूचान- इन सात प्रकार के मनुष्यों का वर्णन मिलता है। शाकिन सामर्थ्यवान् व्यक्ति को कहा जाता है और अनूचान उस व्यक्ति को
जो विद्वान् हो, वेदवेदांगों का ज्ञाता हो, विनम्र हो और सुशील हो। उन व्यक्तियों को, जो अशुद्ध व्यवहार, दुष्ट आचरण, लम्पटता, चुगलखोरी, कुसंगी और लापरवाह होते हैं, ज्ञान की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं होती। पवित्र आहार विहार, जितेन्द्रिय, अर्थात् सत्य को समझने वाले, सत्संगी, पुरुषार्थी और विनम्र स्वभाव वाले व्यक्ति ही विद्या को प्राप्त करने वाले होते हैं। जो अध्यापक अथवा उपदेशक अपने श्रेष्ठकर्मों से धर्मात्मा होता है और दूसरों को भी धर्म का उपदेश देता है, वह ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाला होता है।
ऋग्वेद के अनुसार, मनुष्यों को सदा ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे सब विजन को सुन्दर बुद्धि और वाणी देने वाले योगीजन को, राजा और शिल्पकारों (कलाकारों) को दिव्य ज्ञानरूपी पदार्थ प्राप्त हो सके।
मनुष्यों को ऐसा शील धारण करना चहिए, जिससे सज्जनता के गुणों का विकास हो और उनकी प्रीति से सभी पशुओं, विद्वानों और पितृमन को सुख की प्राप्ति हो।
प्राणिमात्र का सर्वोच्च लक्ष्य सुख
इस प्रकार ऋग्वेद की ऋचाओं में सर्वत्र प्राणिमात्र के सुख की कामना की गयी है। न केवल मनुष्य, अपितु पशु-पक्षियों के लिए भी इस सुख की कामना हमारे आर्य ऋषि-मुनि करते हैं। केवल सुख तक ही उनकी सीमा नहीं है। भौतिक सुख संसाधनों के अतिरिक्त वे उस सर्वव्यापी परमात्मा से सभी के हितों के लिए मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं।
केवल पुरुष (के लिए ही आर्य ऋषि सुख और मोक्ष की कामना नहीं करते, स्त्रियों के लिए भी वे श्रेष्ठता और सम्मान की कामना करते हैं। उनका कहना है कि जैसे पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियों के बीच मन की वाणी सुन्दर शोभा प्राप्त करती है तथा जैसे जल से भरी हुई नदी शोभा से युक्त होती है, उसी प्रकार विद्या
● और सत्य की कामना करने वाली स्त्री श्रेष्ठता और सम्मान को प्राप्त करती है। माता की श्रेष्ठता के विषय में ऋषियों का कथन विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है-
वह माता उत्तम है, जो ब्रह्मचर्य पूर्वक संतानों को जन्म दे और अच्छी शिक्षा देकर विद्या से उन्हें उन्नत बनाये। वही पिता श्रेष्ठ है, जो हिंसात्मक दोषों से रहित सन्तान उत्पन्न करे। वस्तुतः इस संसार में वे ही विद्वान् प्रशंसा के योग्य होते हैं, जो माता के समान मनुष्यों को पालते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा की श्रेष्ठता
जिस प्रकार सूर्य सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रेष्ठ अध्यापक
और उपदेशक सभी मनुष्यों की आत्मा को प्रकाशित करके उन्हें परमपिता परमात्मा की ओर प्रेरित करते हैं।
यहां यह कहना अधिक समीचीन लगता है कि परमात्मा ने पहले सृष्टि का निर्माण किया और अन्य पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों के साथ बुद्धिजीवी मनुष्य को बनाया। यही मनुष्य जब परमात्मा की सृष्टि के संसर्ग में आया, तभी उसके मन में इस विराट् चेतना के प्रति जिज्ञासा का भाव उत्पन्न हुआ होगा। यह जिज्ञासा का भाव ही वेदों का जन्मदाता है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त यह जिज्ञासा का भाव ही था, जिसने चैतन्य शक्ति को जन्म दिया और उसी से वेद मन्त्रों का निर्माण हुआ। इन मन्त्रों का निर्माण जिन लोगों के चिन्तन से सम्भव हो सका, वे ही लोग बाद में आर्य ऋषि कहलाये ।
कर्म का महत्त्व
'कर्म' मनुष्य के जीवन के आधार हैं इनके द्वारा उसका समस्त जीवन और भविष्य परिचालित होता है, परन्तु कर्मों के मनोरथरूपी सागर में पड़ा पड़ा मनुष्य बूढ़ा हो जाता है और कर्मों का अनुष्ठान करने से बचता रहता है। पुरुषार्थी मनुष्य को ही परमात्मा की कृपा होती है, तभी वह कर्मों का अनुष्ठान करके कर्मयोगी बनता है। इस आशय का संदेश ऋग्वेद में जगह-जगह मिलता है।
जिस प्रकार यजमान अपने यज्ञों में कर्मयोगी पुरुषों को बुलाकर उत्तमोत्तम अन्नादि पदार्थों को भेंट करते हैं, उसी प्रकार परमात्मा भी कर्म करने वाले प्राणियों को उनके कर्मानुसार फल देता है। अतः यश और ऐश्वर्य की चाहना रखने वाले लोगों को चाहिए कि वह कर्मयोगी और ज्ञानयोगी विद्वानों को अपने यज्ञकर्म में निमन्त्रित करें और उनसे सुमति का आशीर्वाद प्राप्त करें। विद्वानों के सत्कार के बिना किसी देश का सांस्कृतिक पक्ष प्रबुद्ध नहीं हो सकता। इसी आशय से ऋग्वेद के प्रायः प्रत्येक मन्त्र में श्रेष्ठ बुद्धि की कामना परमात्मा से की गयी है।
पवित्र संस्कारों का महत्त्व
यज्ञकर्म से याज्ञिक बना व्यक्ति, स्त्री-पुरुष और आबाल-वृद्ध में पवित्र संस्कारों को जन्म देता है। ये पवित्र संस्कार ही उसे निर्भय बनाते हैं और परमतत्त्व से योग स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं।
• सम्पूर्ण अनिष्टों को दूर करने वाला ज्ञान 'ब्रह्मज्ञान' है। यह ज्ञान, विद्या के रूप में माता सरस्वती के गर्भ से जन्म लेता है-
जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानदः । सरस्वन्तं हवामहे ॥
(मवेद 7/96/A)
अर्थात् शुभ सन्तान की इच्छा करते हुए, पुत्र वाले होने की कामना से दानी लोग ब्रह्म की समीपता चाहते हैं और सरस्वती के पुत्ररूपी ज्ञान को पाने का आह्वान करते हैं।
भाव यही है कि ब्रह्मज्ञान के लिए परमात्मा का आह्वान करो क्योंकि जो विद्यारूपी सरस्वती माता से उत्पन्न होता है और सम्पूर्ण प्रकार के अनिष्टों को दूर करता है वही सुपात्र और अधिकारी है। ऐश्वर्य को भोगने वाला कर्मयोगी होता है और वही ब्रह्मज्ञान के प्रति जिज्ञासु हो सकता है।
स्वस्थ शरीर की प्रेरणा
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आर्य ऋषियों ने शरीर रचना पर भी विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने लिखा-
त्रिबन्धुरेण त्रिवृता रथेना यातमश्विना । मध्वः सोमस्य पीतये ॥
(ऋग्वेद 8/85/8) अर्थात् बलदायक प्राण और अपान तथा माधुर्य आदि गुण से संयुक्त वीर्य- शक्ति को विलीन करने के लिए तीन प्रकार के बन्धनों वाले-'वात, 'पित्त' तथा 'कफ' इन तीनों प्रकृति वाले पदार्थों से बंधे हुए तीन गुण सत्त्व, रजस और तमस, इनके साथ वर्तमान रथरूप इस शरीर को प्राप्त हों।
भाव यही है कि 'प्राण' और 'अपान' की गति को नियन्त्रित करके वीर्यशक्ति को शरीर में खपाने के लिए शरीर रचना का ज्ञान आवश्यक है। इस शरीर में वात, पित्त और कफ इन तीन पदार्थों की प्रकृति के आधार पर हमारे भीतर 'सतोगुण, ' 'रजोगुण' व 'तमोगुण' का विकास होता है, परन्तु जो उपासक शरीर की इस संरचना
को भलीभांति जानता है, वह अपने प्राणों और अपान को नियन्त्रित कर लेता है। 'प्राणवायु' और 'अपान वायु' के नियन्त्रण से उपासकों का शरीर बलवान् बना रहता है। उनकी वाणी में ओज रहता है और वे प्रभुस्तुति में निरन्तर दिव्य आनन्द को प्राप्त करते रहते हैं।
'प्राण' और 'अपान' शरीर में ग्रहण करने और शरीर से विसर्जित करने की क्रियाएं हैं। इन्हें स्वस्थ शरीर का मित्र समझना चाहिए। इससे शरीर स्वस्थ बना रहता है।
आर्य ऋषि शरीर रचना से भली प्रकार परिचित थे और स्वस्थ कैसे रहा जाए, इसे अच्छी तरह जानते थे। यह भी जानते थे कि स्वस्थ शरीर से ही जीवनयात्रा सुख और सन्तोष के साथ पूरी हो सकती है। जीवनयात्रा के मुख्य साधक थे-ज्ञान और कर्मेन्द्रियां । प्राणशक्ति के द्वारा इन्हें बलवान् रखा जा सकता है और सुखपूर्वक जीवनयात्रा की जा सकती है।
ईश्वर का गुणगान
एक साधक की जीवनयात्रा में जब कभी विघ्न पड़ने की सम्भावना हो अथवा विघ्न पड़ हो जाए, तब साधक को परमेश्वर के गुणों का स्मरण करना चाहिए। परमेश्वर के गुणों का विशद वर्णन वेदवाणी में हुआ है। वह सहज और सुखकारक है। उसमें विचित्रता जैसी कोई बात नहीं है। ज्ञान, बल, धन आदि की समृद्धि प्राप्त करने में जब कभी रुकावटें आती हैं,
तब उपासक उन्हें भगवान् की सहायता से दूर कर सकता है। आत्म साक्षात्कार करना ही सोमरस का पान करना है। अपने अन्तर में परमात्मा का ध्यान करने से, उसके साथ सहज रूप से समागम होता है।
विराट् शक्तिमान् परमेश्वर इस अद्भुत सृष्टि के माध्यम से ही प्रकट है। उसे भला कौन अनुभव नहीं करता। उचित बोध, प्रेरणा और विश्वास के बिना, मनुष्य उसे देखकर भी अनदेखा कर देता है। इस सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है, प्रभु के अधीन है। जो साधक सृष्टि के पदार्थों का बोध प्राप्त करने में व्यस्त रहता है, उसको ज्ञानस्वरूप परमात्मा के कोश का दर्शन अवश्य होता है।
परमात्मा के कोश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न 'सूर्य' है। ऋग्वेद का सर्वाधिक प्रसिद्ध 'गायत्री महामन्त्र' सूर्य (सविता) से सम्बोधित है। उसके तेज से मनुष्य अपनी बुद्धि को तेजोमय करने की प्रेरणा प्राप्त करता है-
ओ३म् भूर्भुवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात ॥
(ऋग्वेद 3/62/10)
हे परमात्मा ! तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू। तुझसे ही पाते प्राण हम, दुखियों के कष्ट हरता है तू। तेरा महान् तेज हैं छाया हुआ सभी जगह। सृष्टि के कण-कण में तू हो रहा है विद्यमान। तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते तेरी दया। ईश्वर हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चला।
इस प्रकार जो मनुष्य समस्त आत्माओं के साक्षी परमपिता परमात्मा की स्तुति और प्रार्थना करके उपासना करते हैं, उनको परमात्मा अपनी कृपा के सागर से शुद्ध आचरण की ओर प्रवृत्त करते हैं और मनुष्य उनकी कृपा से धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को प्राप्त करता है।
संयमित जीवन की अनिवार्यता
'ऋग्वेद' में परमात्मा को सब यज्ञों की 'आत्मा' कहा है, अर्थात् देवयज्ञ, ध्यानयज्ञ और ज्ञानयज्ञ उसकी सत्ता के बिना नहीं हो सकते। परमात्मा मनुष्यों को संयमी रहने पर बल देते हैं। इन्द्रियलोलुपता मनुष्य के स्वभाव को बहिर्मुखी-
बनाती है। संयमी होकर मनुष्य आत्मा को पहचान सकता है और आत्मा में ही परमात्मा का अंश विद्यमान है, ऐसा जानकर आनन्दित हो सकता है। परमात्मा ने जिस ब्रह्माण्ड की रचना की है, उसमें असंख्य नक्षत्र विद्यमान
हैं, परन्तु सभी के मध्य एक ऐसा सन्तुलित संयम है कि वे अपनी-अपनी कक्षा में और अपनी-अपनी धुरी पर स्थित रहते हैं। पूरी तरह गतिशील होते हुए भी वे एक-दूसरे के आकर्षण - विकर्षण से बंधे हुए हैं। यह संयम ही उन्हें बिखरने नहीं देता। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन इन इन्द्रियों के आकर्षण-विकर्षण के मध्य इधर से उधर गतिशील रहता है। अति होते ही सन्तुलन टूट जाता है और जीवन बिखर जाता है।
हमारे वैदिक ऋषियों ने इस संयमित जीवन को विशेष महत्त्व दिया है। तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम् ॥
(ऋग्वेद 9/26/6) अर्थात् परमात्मा के साक्षात्कार के लिए मनुष्य का संयमी होना परम आवश्यक पुरुष संयमी नहीं होता, उसको परमात्मा का साक्षात्कार कदापि नहीं हो है। जो सकता। मन, वाणी तथा शरीर तीनों का संयम होना आवश्यक है। जो पुरुष अपनी इन्द्रियों का संयम रखता है और मन को वश में रखता है, व्यर्थ बोलकर वाणी- विलास नहीं करता, ऐसा व्यक्ति देवता कहलाता है। संयमी बनना ही मनुष्य जन्म का सर्वोच्च फल है। 1
योग विद्या
ऋग्वेद में 'योग विद्या' का भी वर्णन प्राप्त होता है। यह मन्त्र देखिये- तव त्ये सोम पवमान निण्ये विश्वेदेवास्त्रम एकादशासः ।
दश स्वधामिरधि सानो अव्यें मृजन्ति त्वा नद्यः सप्त यह्वीः ॥
(ऋग्वेद 9/92/4)
अर्थात् सम्पूर्ण देव जो तैंतीस (33) हैं, वे अन्तरिक्ष में विद्यमान हैं। परमात्मा (सोम)! आपके लिए पांच सूक्ष्म भूत और पांच स्थूल भूतों की सूक्ष्म शक्तियों द्वारा आपके उच्च स्वरूप में, जो सर्वरक्षक हैं, उनमें योग करने के लिए सात बड़ी नाड़ियां हैं।
भाव यही है कि 'वेद' में, योग विद्या का वर्णन करते हुए ऋषिवर का कहना है कि सात प्रकार की नाड़ियां इडा-पिंगला आदि मनुष्य के शरीर में विद्यमान रहती हैं। योगी पुरुष इन नाड़ियों के द्वारा संयम करके परमात्मा को प्राप्त करता है।
आयुर्वेद
'ऋग्वेद' के दशम मण्डल में ' ओषधियों' के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन मिलता है। यह आयुर्वेद के अन्तर्गत आता है।
ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवती प्रसूवरीः । अश्वाइव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिषावः
(ऋग्वेद 10/97/3)
अर्थात् पुष्पों वाली, फलों वाली, अश्वों के समान रोग पर विजय पाने वाली, रोगी को नीरोग करने वाली, लताओं वाली ओषधियां रोगी के ऊपर प्रभावशाली होती हैं।
ये ओषधियां माता के समान होती हैं। एक वैद्य रोगी मनुष्य की इन्द्रियों, नाड़ियों, रक्त और हृदय के स्पन्दन की परीक्षा करके इनके द्वारा रोगी का उपचार करता है।
इष्कृतिर्नाम वो मातायो यूयं स्थ निष्कृती: । सीराः पतत्रिणीः स्थन यदामयति निष्कृथ ॥
(ऋग्वेद 10/97/9)
अर्थात् इन ओषधियों की माता पृथिवी 'इष्कृति' है। अतः ये 'निष्कृति' हैं। ये शरीर की नस-नाड़ियों में वेग से गति करती हैं और जो रोग शरीर को पीड़ित कर रहा हो, उसे बाहर निकाल देती हैं।
जो ओषधियां चन्द्रमा की चांदनी में बढ़ती हैं, वे विविध प्रकार की हैं, परन्तु उनमें जो हृदय रोग के लिए हैं, वे उत्तम हैं। वैद्य विविध दवाओं के मेल से रोगी की काया को ठीक करता है। वे दवाएं मिलन प्रक्रिया से नया रूप धारण करने के उपरान्त भी अपना-अपना प्रभाव बनाये रखती हैं। ये ओषधियां जड़ी-बूटियों के रूप में इस पृथिवी पर सर्वत्र फैली हुई हैं।
प्राचीनकाल में आर्य ऋषियों ने इन जड़ी-बूटियों की खोज की थी और विविध रोगों पर उनका प्रयोग करके 'आयुर्वेद' को जन्म दिया था। ये ओषधियां जड़ी-बूटियों को कूट-पीसकर व उनका रस निकालकर बनाई जाती थीं।
पशु-पालन, कृषि और शिल्प
'ऋग्वेद' में 'गौ' पालन, 'अश्व' पालन और 'शिल्प' आदि का भी महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। उस समय ऋषिगण केवल यज्ञ ही नहीं करते थे, कृषि, पशु-पालन, कुएं और सिंचाई के साधनों का भी वे प्रयोग करते थे।
आर्य ऋषि मनुष्यों से कहते हैं कि अश्वों को चारा-पानी आदि देकर प्रसन्न करो। उत्तम और हितकारक खेतों को जोतो। सुखपूर्वक ले जाने वाले रथों को
बनाओ। काष्ठ के जलपात्र से युक्त, कवच के समान जल-रक्षण-कोश वाले पाषाणमय घेरे वाले और मनुष्यों के पानी पीने की व्यवस्था से युक्त कूप बनाकर सिंचाई का कार्य करो।
वे कहते हैं कि हे मनुष्यों! गोशाला बनाओ और वही आपके लिए दुग्धपान का स्थान हो। बहुत से बड़े और मोटे कवचों को सीकर बनाओ। लौहमयी और अनाक्रमणीय पुरी बनाओ। तुम्हारा यज्ञ का चमसपात्र (चमचा) कभी ढीला-ढाला न हो। वह सदा दृढ़ रहे, जिससे यज्ञ बराबर चलता रहे।
उपरोक्त विश्लेषण से पता चलता है कि वैदिक ऋषियों को पशु-पालन, कृषि, गृह निर्माण, कुएं और सुरक्षित जलपात्र बनाने का शिल्प आता था। वे लौह धातु से भी परिचित हो चुके थे। काष्ठ शिल्प का उन्हें पूरा ज्ञान था। सुरक्षित नगर अथवा गांव के महत्त्व को वे जानते थे।
यज्ञ का महत्त्व
वैदिक ऋषि यज्ञ के माध्यम से परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव को अभिव्यक्त करते हैं। वातावरण की शुद्धि पर उनका विशेष बल रहता है। उनकी दृष्टि समस्त प्राणियों के कल्याण की है। जिस प्रकार सूर्य सभी को समान रूप से अपनी आभा से आलोकित करता है, उसी प्रकार परमात्मा की प्रेरणा से समस्त वैदिक ऋषिगण समस्त प्राणियों के सुख की कामना करते हैं।
ऋग्वेद विश्व का ज्ञानकोश
ऋग्वेद में 'पुरुरवा उर्वशी' की प्रेमकथा ( 10/95), 'यम-यमी संवाद (10/10)' और 'सरभा-पाणी संवाद (10/130)' के आख्यान सूक्त भी मिलते हैं। ऋग्वेद में कहीं-कहीं पहेलियां भी दी गयी हैं, जो अत्यन्त प्रतीकात्मक भाषा में लिखी गयी हैं।
वास्तव में ऋग्वेद का कलेवर इतना विशाल है कि उसे थोड़े में समझना या समझाना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसका एक-एक सूक्त जीवन और दर्शन का विशाल कोश है। लेकिन इतना निश्चित है कि इन सूक्तों के द्वारा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति और धर्म को सहजता के साथ समझा जा सकता है। उस काल में व्यक्ति, परिवार, समाज, वैवाहिक सम्बन्ध, नियोग-चलन, जुआ, चोरी, राजदण्ड, प्रजा का व्यवहार, रोग, औषधि-ज्ञान, पशु-पालन, शिल्प, धर्म, सदाचार, पर्यावरण, प्रकृति का महत्त्व, विद्या और विद्वानों का महत्त्व, गुरु-शिष्य परम्परा, देव-दानव-युद्ध, इन्द्रिय-संयम, अग्नि, इन्द्र, सोम आदि का वर्णन व्यापक रूप से हुआ है।
ऋग्वेद (भाग एक) - 1
राजनीति की भी ऋग्वेद में विस्तृत जानकारी मिलती है। राजा का कर्म शत्रुओं को नष्ट करके प्रजा की रक्षा करना है। राजा का चुनाव उसकी योग्यता देखकर ही प्रजा द्वारा किया जाता था। उन्हें गृहपति, विश्वपति, जनपति और राजा कहा जाता था। श्रेष्ठ स्वराज्य की महिमा का अनेक स्थलों पर गुणगान ऋग्वेद में मिलता है। इन्द्र की शक्ति, आतंक अथवा लोगों को भयभीत करने के लिए नहीं है। उसकी शक्ति का प्रयोग विद्वानों, स्वजनों और राज्य की रक्षा करना होता है। वह प्रजापालक है।
ऋग्वेद मानव-जाति का प्राचीनतम धर्मग्रन्थ
हिन्दुओं के सभी धार्मिक कृत्यों को पूर्ण कराने के लिए ऋग्वेद में सैकड़ों मन्त्र हैं। ऋग्वेद को हिन्दुओं का सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रन्थ कहा जा सकता है, परन्तु अपनी विषयवस्तु की सघनता और मानव-जीवन के कल्याण की भावना को अपने भीतर संजोये रखने के कारण, ऋग्वेद समस्त मानव जाति का आदि ग्रन्थ है। जीवन के शाश्वत, अर्थात् सनातन मूल्यों की स्थापना तथा उनसे प्रेरित होकर उन्हें अपने जीवन का अंग बनाने की प्रेरणा ऋग्वेद के मन्त्रों से प्राप्त होती है। ऋग्वेद नास्तिकों का नहीं, आस्तिकों का ग्रन्थ है। मनुष्य के उत्कर्ष के लिए जिस धर्म की आवश्यकता है, वह ऋग्वेद में प्राप्त हो जाता है। यहां सहयोग पाने की नहीं, सहयोग देने की भावना के दर्शन होते हैं।
ऋग्वेद के धर्म से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' की प्राप्ति सम्भव है। इसमें मनुष्य के कल्याण, अभ्युदय, उन्नति और मुक्ति की भावना निहित है। इसमें धर्म, अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यह धर्म त्याग- मूलक है। यहां अर्थार्जन करना अथवा अपने स्वार्थ की पूर्ति करना ऋषियों का लक्ष्य नहीं है।
ऋग्वेद के मन्त्रों में प्राणी देवों की कृपा पाना चाहता है। वह उनसे प्रार्थना करता है और उनसे कृपा की आकांक्षा करता है। ऋषिगण देवताओं के गुणों का उल्लेख करके, मनुष्य को देवताओं जैसे गुण अपनाने के लिए उपदेश देते हैं।
यज्ञ के माध्यम से देवकृपा पाने की आशा की जाती है। प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों में ही परमात्मा का अंश विद्यमान है। मनुष्य उसी शक्ति से तादात्म्य करना चाहता है। ऋग्वैदिक यज्ञधर्म में पुरोहितों और विद्वानों का विशिष्ट स्थान है। वह यजमान और देवों के बीच का सेतु है। यज्ञ में पुरोहित ही यजमान के कल्याण के लिए देवता को आहुति देता है और बदले में उसके लिए धन-धान्य और दीर्घायु की कामना करता है। यजमान पुरोहित की प्रत्येक सुख सुविधा का ध्यान रखना • अपना कर्तव्य समझता है।
ऋग्वैदिक धर्म में जीवन से पलायन करने के मन्त्र नहीं हैं। ऋग्वेद के मन्त्र लोगों में जीवन की आशा का संचार करने वाले हैं। यह धर्म पूरी तरह से व्यावहारिक है। इस धर्म में सभी जड़-चेतन पदार्थों को देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की गयी है। इस धर्म में प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव को स्थान दिया गया है। वैदिक ऋषि सभी के लिए आयु, बल और बुद्धि चाहते थे। इस धर्म में न द्वेष है, न पाप है, अपितु द्वेष से मुक्ति और पापों का त्याग प्रमुख है
'ऋग्वेद' के प्रमुख देवता
'ऋग्वेद' की ऋचाओं में विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है, परन्तु ये सभी देवगण एक ही ईश्वर के विभिन्न नाम हैं। वैदिक ऋषियों ने इन देवगणों को प्रकृति के मध्य से खोजा है। सृष्टि की विराट् चेतना के मध्य, जो अतीन्द्रिय अनुभव वैदिक ऋषियों को हुए ये देवता उन्हीं अनुभवों का परिणाम थे।
वैदिक साहित्य पर विचार करने वाले मनीषियों को यह बात विचित्र लग सकती है कि वैदिक संहिताओं में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में 'ईश्वर' शब्द रूढ़ि रूप से परमेश्वर के अर्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, धर्मसूत्रों, पाणिनि की 'अष्टाध्यायी, ''व्याकरण महाभाष्य'
और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। वैदिक संहिताओं में दो-चार शब्द ही ऐसे मिलते हैं, जिनमें परमेश्वर के व्यापक स्वरूप को प्रकट किया गया है। वैदिक देवताओं में 'अग्नि,' 'इन्द्र, ' 'वायु 'सविता, 'विष्णु, 'वरुण, 'रुद्र' आदि नाम ईश्वर के परिप्रेक्ष्य में आये हैं।
वैदिक संहिताओं में परमेश्वर का वाचन मुख्य शब्द 'पुरुष' के रूप में मिलता है। 'भगवद्गीता' में इसे 'पुरुषोत्तम' कहा गया है। वेद की चारों संहिताओं के लगभग 20 सूक्तों में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग हुआ है। यजुर्वेदीय संहिता के 'पुरुष सूक्त' में परम पुरुष या विराट् पुरुष के अर्थ में इसका विशेष रूप से प्रयोग किया गया है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि वेद में देवताओं की स्तुति न होकर ईश्वर की ही स्तुति है। भले ही वे उसे 'अग्नि, 'इन्द्र' आदि नामों से पुकारते हों। उन सबके पीछे एक परमेश्वर की ही सत्ता विद्यमान है। मन्त्रों में जहां-जहां देवता का सम्बन्ध सृष्टि के साथ उद्धृत किया गया है, वहां यही समझना चाहिए कि परमार्थ में ईश्वर ही स्रष्टा है। देवगण उसी ईश्वर की शक्ति से सारे कार्य सम्पन्न करते हैं। मन्त्र वाक्यों का समन्वय करने से यही सिद्ध होता है कि ईश्वर ही इस जगत्
का स्रष्टा है तथा सम्पूर्ण शक्तियों का मूल उसी में विद्यमान है। केवल देवगण ही नहीं, सारा संसार ही ईश्वर का व्यापक स्वरूप है। वही पूरे ब्रह्माण्ड का नियन्ता है।
वैदिक देवताओं की सामान्य विशेषताएं
पाश्चात्य विद्वानों ने वैदिक देवताओं की कुछ सामान्य विशेषताओं और गुणों का उल्लेख किया है। उनका कहना है कि वैदिक देवता उन भौतिक पदार्थों के अधिक निकट हैं, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका यह स्वरूप पूरी तरह से प्राकृतिक है।
दूसरे, इन देवताओं का गुण उनकी परोपकारी वृत्तियों में निहित है। प्रायः सभी देवता जनकल्याण के लिए अपने प्रभामण्डल के साथ प्रकट होते हैं। ये सब देवता दिव्य शक्तियों से युक्त हैं।
तीसरे, वैदिक देवताओं का जन्म प्रकृति के मध्य से हुआ। प्रकृति के दिव्य पदार्थों ने वैदिक ऋषियों के मन में जिस जिज्ञासा-भाव को जन्म दिया, उसी ने अनेक देवताओं को जन्म दिया। ये देवता पुरुष-रूप में ही स्थापित किये गये थे। इस प्रकार वैदिक देवताओं का चौथा स्वरूप उनका मानवोचित स्वरूप है। ये सब देवता मानव के साथ सहयोग करने वाले हैं। अपवाद स्वरूप केवल रुद्र देवता को संहारक माना गया है; किंतु वेदों में इसका उल्लेख बहुत कम हुआ है। वैदिक देवताओं का नैतिक आचरण अत्यंत उदार है और उनकी कृपा से ही मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर पाता है .
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