सामवेद में मन्त्रों का महत्व Samaveda Mantra in Hindi

@Indian mythology
0

 

सामवेद क्या है या?  What is Samveda in hindi? pdf of Samaveda in Hindi. What is there in the  Hindu mythology book Samaveda ? Importance of yagna in Samaveda. Samaveda in hindi . सामवेद में मंत्रों का महत्व. सामवेद किसे कहते हैं ?  सामवेद के मंत्र क्या हैं ? Matra in Samaveda . Samaveda kya hai? or Samaveda mein kya-kya hai janiye. सामवेड में सूक्तो की संख्या कितनी है? ( Sukton ki sankhya in Samaveda) meaning ऑफ़ samaveda? सामवेद का अर्थ क्या है ? सामवेद की सामग्री क्या है? सामवेद का पूरा परिचय .  introduction of Samaveda ? Samaveda parichay . Samveda किसने लिखा है ? who wrote samaveda in hindi.? samaveda or saamved ke bare mein jankari.


सामवेद ( Samaveda) क्या है ? Samaveda में क्या क्या है जानिए ?


 प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ॥


हे विद्वान जन ! जो मनुष्य अज्ञान से सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर की प्रसिद्ध वेदवाणी को नहीं मानता है और भगवान् की भक्ति नहीं करता, उस कुत्ते के स्वभाव वाले पेट-पोषक मनुष्य का परित्याग करो, जैसे ब्रह्मज्ञानी सकाम कर्म का परित्याग कर देता है।


तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्भवे न शाकिने ॥


इंद्र की प्रशंसा करने एवं अपने कल्याण के लिए उसके स्तोत्र का गान करो, क्योंकि इंद्र ही सर्वशक्तियों का स्वामी है, सबका पूजनीय है। और वर्तमान में भी उपस्थित है।


अपामिवेदूर्मयस्तर्तुराणाः प्र मनीषा ईरते सोममच्छ । नमस्यन्तीरूप च यंति सं चाच विशन्त्युशतीरुशन्तम् ॥


तेजी से उठने वाली लहरों की तरह यजमान की स्तुतियां उठती हैं। यजमान शीघ्रता से अपनी स्तुति देवता तक पहुंचाना चाहते हैं। स्तुतियां देवता की प्रशंसा करती हैं, उनके पास पहुंचती हैं और उन्हीं में मिल जाती हैं।


भूमिका


वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। विद्वज्जन इन्हें प्राचीन ही नहीं, प्रारंभिक ग्रंथ भी मानते हैं। इन ग्रंथों की महत्ता केवल इसी से सिद्ध हो जाती है कि इनमें सृष्टि-विद्या के मूल तत्त्वों का विज्ञान और तर्कसम्मत वर्णन किया गया है। केवल इसी से वेदों की महत्ता सिद्ध नहीं हो जाती, वस्तुतः इनमें मनुष्य के कल्याण हेतु सरल जीवन, सदाचार, सात्त्विक आहार, ब्रह्मचर्य, शांतिमय व्यवहार और उदारतापूर्ण भावनाओं का उपदेश दिया गया है।


वेद संसार के सर्वोत्तम और गंभीरतम धर्मों के आदि स्रोत हैं, इसके साथ ही पराभौतिक दर्शनों के मूल आधार भी हैं। वेद का प्रतीकवाद इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य का जीवन यशरूप है, एक यात्रा है, एक युद्धक्षेत्र है। प्रायः संसार के समस्त विद्वानों ने वेदों की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की है और उनको सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रंथ माना है। हमारे भारत देश के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने चारों वेदों को साक्षात् ईश्वरीय वाणी माना। वेदों के प्रत्येक मंत्र ईश्वरीय प्रेरणा से ओतप्रोत हैं और ये मंत्र मनुष्य के लिए प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक समय में कल्याणकारी हैं।


वेदों को ईश्वर प्रेरित मानने वालों की कोई कमी नहीं, विद्वज्जन इस बात को स्वीकार करते हैं, और जब हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वेदों में जो सिद्धांत बतलाए गए हैं, जिन-जिन कर्मों और कर्त्तव्यों का पालन करने का उपदेश दिया गया है; सभी वर्ग, धर्म और जाति के मनुष्यों को उन-उन उपदेशों का पालन अपने जीवन में अवश्य करना चाहिए।


ऋषि-मुनि जिन ग्रंथों को प्रामाणिक मानते आए हैं, वे ग्रंथ केवल चार ही हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। चूंकि हमने अपने प्रेरक पाठकों को इस ग्रंथ के रूप में 'सामवेद' पठन-पाठन के लिए प्रेषित किया है, अतः आगे यहां पर केवल सामवेद पर ही प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।


वेद के गेय मन्त्रों के संग्रह को 'सामवेद' कहा जाता है। ये स्तुति- मन्त्र मधुर स्वरों में गाए जाते हैं। मधुर वाणी का रस इन ऋचाओं के द्वारा ईश्वर की उपासना में नि:सृत होता है। ऋचाओं के इस रस को ही 'साम' कहा जाता है। सामगान से 'भटके हुए मन को शान्ति' मिलती है।


सामगान में मधुर स्वर को ऊंचे आलाप से प्रारम्भ करके धीरे-धीरे निचले आलाप पर लाया जाता है। सामवेद की महत्ता का प्रतिपादन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (10/22) में किया है— 'वेदानां सामवेदोऽस्मि ।' वेदों में सामवेद मैं हूं।


कुछ विद्वानों का कहना है कि सामवेद की गायन व पाठ शैली के कारण एक सहस्र शाखाएं थीं, जो धीरे-धीरे सामगान न होने के कारण विलुप्त होती चली गई। अब केवल तीन शाखाएं 'राणायणी, ''कौथुमी' और 'जैमिनीय' ही उपलब्ध हैं।


सामवेद के कुछ मन्त्रों को छोड़कर शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद के सभी मन्त्र गाए जाने वाले हैं। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए यज्ञ किया जाता है, उसकी स्तुति के लिए उचित और शुद्ध गेय स्वरों में उस देवता का आह्वान किया जाता । सामगान में संगीत के सप्त स्वरों का प्रयोग किया जाता है। श्रोता सामगान का रसास्वादन श्रवण मात्र से ही कर सकता है। भारतीय संगीत की उत्पत्ति की दृष्टि से 'सामवेद' का विशेष महत्त्व है। इसे साधना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।


कुछ विद्वानों का मत है कि सामवेद का सर्वप्रथम साक्षात्कार आदित्य ऋषि के द्वारा किया गया था। सामवेद में 'वेदत्रयी' का प्रमुख स्थान है। वेदत्रयी का अर्थ–‘पद्य,’‘गद्य' और 'गायन' है। 'मनुस्मृति' में सामवेद का सम्बन्ध सूर्य से बताया गया है। सूर्य प्रकृति के मध्य सबसे अधिक तेजस्वी और आकृष्ट करनेवाला 'ग्रह' है। इसे 'ऋग्वेद' में प्रत्यक्ष देवता

के रूप में स्थान प्राप्त है। सभी ऋषियों ने इस प्रत्यक्ष देवता की स्तुति में सस्वर गान किया है, इस कल्पना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। इसलिए सूर्य से सामवेद का साम्य स्थापित किया जाता रहा है।


कुछ पूर्वपक्षीय विद्वान् यह शंका भी उठाते हैं कि 'सामवेद' कोई पृथक् वेद नहीं है। यदि इस प्रकार का कोई वेद मान भी लिया जाए, तो उसमें कुल 62 या 85 मन्त्रों का ही संग्रह है। शेष मन्त्र वे ही हैं, जो ऋग्वेद में संगृहीत हैं, परन्तु इस धारणा को सर्वथा निर्मूल माना जाता है। सामवेद में 1,875 मन्त्रों का ही संकलन हैं।


'सामवेद' के मन्त्रों का प्रारम्भ 'अग्न आयाहि वीतये' से और अन्त 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः' से होता है। वेद में किसी प्रकार की पुनरुक्ति नहीं है। सर्वत्र प्रभु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही दिया गया है, जो ऋषियों की वाणी से हम तक पहुंचा है।


'सामवेद' उपासना काण्ड है। इसमें जिस उपासना का उल्लेख है, वह 'ज्ञान' और 'कर्म' का समन्वय है। इसमें 'इष्ट, ' 'उपासक' और 'द्रष्टा' का समन्वय है। यह समन्वय परिशीलन, आचरण और उपासना के मध्य स्थित है। यही समन्वय 'जीव,' 'जगत्' और 'परमात्मा' के मध्य संगीतबद्ध होकर उभरता है। साम वस्तुतः इसी समन्वय का नाम है।


आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने 'साम' को एक बहुत ही व्यावहारिक उदाहरण द्वारा समझाया है। उनका कहना है कि विवाह संस्कार के अवसर पर जब वर-वधू प्रतिज्ञा के मन्त्र बोलते हैं, तब वर वधू से कहता है—“हे वधू! मैं 'अम' हूं और तू 'सा' है।" अतः दोनों का सम्बन्ध 'साम' है। तू ऋक् है और मैं साम हूं। मैं द्युलोक हूं और तू पृथिवी है। इन दोनों का सम्मिलन ही साम है।


अर्थात् चराचर विश्व में समन्वय ईश्वर की महती महिमा का परिचायक है। उपासक इसको अपनी उपासना में अभिव्यक्त कर ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः 'साम' वह विद्या है, जिसमें विश्व-संगीत हो, विश्व-समन्वय हो या जीव-प्रकृति की क्रीड़ा और परमात्मा का समन्वय हो ।


कुछ विद्वान् 'साम' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानते हैं सा+अम-साम। इसका अथ हुआ 'ऋचा' और 'अम' मिलकर आलाय के द्वारा मन्त्रों का किया गया गान। इस प्रकार 'गान' सामवेद का प्राणतन्त्र है। 'यज्ञ' में उद्गाता नामक पुरोहित सामगान करता है। 'उद्गाता शब्द में ही गान का भाव निहित है।


जैमिनी मीमांसा सूत्र में 'साम' का अर्थ गीत कहा है-'गीतिषु सामाख्या' (2/1/36)। ऋचा और साम के सम्बन्ध को छान्दोग्योपनिषद् में स्पष्ट किया गया है—‘या ऋकतत्साम' (1/3/4), अर्थात् ऋचाओं को ही साम कहते हैं। भाव यही है कि ऋचाओं के आधार पर किया गया गान ही 'साम' है।


'साम' शान्ति प्रदान करने वाले मन्त्रगान हैं। परमात्मा की भक्ति में साधक जब एकाग्रचित्त होकर मन्त्रगान करता है, तब उसे अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है।


सामवेद मधुर रस का भण्डार है। वेदों में 'ॐ' का महत्त्व सर्वोपरि है। यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। 'ॐ' के आलाप लेने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। 'ॐ' प्रणव है, उद्गीथ है। साम का रस ही यह उद्गीथ है।


भारतीय संस्कृति का चरम ब्रह्म से साक्षात्कार का है। विधिपूर्वक सामगान करने वाला व्यक्ति ही 'ब्रह्म' के निकट पहुंच पाता है। इस 'सामगान' के लिए अभ्यास और साधना की आवश्यकता होती है। शुद्ध उच्चारण में मन की संगीतमयी संगति जब हो जाती है, तब परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति होने लगती है।


यज्ञ की पूर्णता सामगान के शुद्ध उच्चारण की संगीतमय अभिव्यक्ति पर ही निर्भर करती है। देवगण उद्गाता द्वारा गाए साम-मन्त्रों से प्रसन्न होते हैं और उपासक के हृदय में प्रसन्नता के अनन्त भाव भर देते हैं।


'मीमांसा भाष्य' में शवर ऋषि ने लिखा है-'सामवेदे सहस्रं गीतेरुपायाः' अर्थात् वेद गाने के सहस्र ढंग हैं। इससे साम मन्त्रों की उपादेयता का पता चलता है और उस कथन का विरोध हो जाता है, जिसमें सामवेद को सहस्र भागों वाला कहा गया है। यहां आशय गायन

के ढंग से है, न कि उसके भागों से। गायन के विविध ढंगों का प्रमाण इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि प्रकृति के कण-कण में संगीत के स्वर विद्यमान हैं। हवा की सांय-सांय में, पत्तों की खड़खड़ाहट में, झरनों के बहने में, ओसकणों के ढुलकने में, सागर की उछलती लहरों में, बादलों के घुमड़ने में, पक्षियों की कुहूक में, गायों के रंभाने में, चिड़ियों की चहचहाहट में, बिजली की कड़क में, हिमशिखरों पर पिघलती बर्फ़ में, नदियों के वेग में, सभी में संगीत की स्वर लहरियां बिखरी हैं।


संगीत के सात स्वरों की पहचान भी इस प्रकृति के मध्य से ही पहचानी गई होगी। संगीत की स्वरलहरियों में वंशी की मधुर तान है, तो कल-कल करती नदियों की जलतरंग है। यह ऐसी सार्वभौम स्वर रचना है, जो अपने स्वरों में प्रस्फुटित होती है। इन स्वरों के उदात्त स्वर ही सामवेद के मन्त्रों में अभिव्यक्त होते हैं। संगीत के मूल स्वरों को ढूंढ़ने के लिए 'सामवेद' के मन्त्रों को ही स्वरबद्ध करना होगा। सामवेद का संगीत जीवन और प्रकृति से जुड़ा है। इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।


संगीत जीवन को उस भावभूमि पर ले जाने वाला मार्ग है, जहां आनन्द ही आनन्द है। जब ईश्वर संगीत को अथवा गायन को स्वीकार कर लेता है, तब वह स्तुति बन जाता है। सामवेद में गायन द्वारा इसी 'स्तुति' का चित्रण हुआ है।


उदात्त स्वरों का व्यवहार सामवेद में निराले ढंग से हुआ है। 'नारदीय शिक्षा' में कहा गया है-


अथातः स्वरशास्त्राणां सर्वेषां वेदनिश्चयम् । उच्चनीचविशेषाद्धि स्वरान्यत्वं प्रवर्त्तते ॥


(नारदीय शिक्षा सूत्र 1/1) अर्थात् अब सब स्वरशास्त्रों का वर्णन वेद निश्चय ही करते हैं; क्योंकि ऊंचे और नीचे के विशेष स्वर-भेद में यह लक्षित होता है।


नारदीय शिक्षा में गान-विद्या के 8 स्वरों का उल्लेख किया गया है—'षड्ज', 'ऋषभ,' 'गान्धार,' 'मध्यम,' 'पंचम,' 'धैवत' और


'निषाद'।

उदात्त स्वरों में निषाद और गान्धार स्वर आते हैं, अनुदात्त स्वरों में ऋषभ और धैवत तथा स्वरित में षड्ज, मध्यम और पंचम स्वर आते हैं।


उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्तऋषभधैवतौ ।


स्वरितप्रभवा ह्येते षड्जमध्यमपंचमा॥


(नारदीय शिक्षा सूत्र 2/2 ) सामवेद में इन स्वरों के लिए विशेष संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है—'1 प्रथम, 2 द्वितीय, 3 तृतीय, 4 चतुर्थ, 5 मन्द्र, 6 क्रुष्ट और 7 अतिस्वार। इन्हें साम-मन्त्रों का पाठ करने वाले उच्चारित करते हैं।'


मध्यम स्वरों में इन नामों का विशेष महत्त्व है। साम उद्गाता का प्रथम स्वर ही वेणु का 'मध्यम' है, द्वितीय स्वर 'गान्धार' है, तृतीय स्वर 'ऋषभ' है, चतुर्थ स्वर 'षड्ज' है, पंचम स्वर 'धैवत' है, छठा स्वर 'निषाद' है और सप्तम स्वर का नाम 'पंचम' है।


इस प्रकार साम-मन्त्रों के गायन में उतार-चढ़ाव का ध्यान इन स्वरों के माध्यम से रखना चाहिए-


1 मध्यम, 2 गान्धार, 3 ऋषभ, 4 षड्ज, 5 मन्द्र या धैवत, 6 क्रुष्ट


या निषाद और 7 पंचम या अतिस्वार ।


मध्यम स्वर - नाभि से उठा वायु उरः, हृदय, कण्ठ और शीर्ष से टकराकर ध्वनि के रूप में उत्पन्न होता है, तो इसे पंचम स्वर कहते हैं। गान्धार स्वर- नाभि से उठा वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराता हुआ नासिका में पवित्र गन्ध लाता है, तब उसे 'गान्धार' स्वर कहते हैं।


ऋषभ स्वर - नाभि से उठने वाला वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराकर जब बैल की भांति नांदता है, तो उसे 'ऋषभ स्वर' कहते हैं।


षड्ज स्वर - ये स्वर नासिका, कण्ठ, उरः (छाती, फेफड़े), तालु, जिह्वा और दन्त इन छः स्थानों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन्हें 'षड्ज' कहा जाता है।


धैवत स्वर - इन पूर्व में उठे हुए स्वरों को जब अतिसन्धान किया जाता है, तब उसे 'धैवत स्वर' कहते हैं।


निषाद स्वर - जिस कारण समस्त स्वर बैठ जाते हैं या धूमिल पड़ जाते हैं, या दब जाते हैं, तब उसे 'निषाद स्वर' माना जाता है।

पंचम या अतस्वर- इसके उच्चारण में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पांचों प्राणों का उपयोग होता है इसलिए इसे पंचम स्वर कहते हैं। कोकिला (कोयल) पंचम स्वर में कुहकती है। इसके उच्चारण में क्षिति, रक्ता, संदीपनी और आलापनी नाम की चार श्रुतियां लगती हैं।


सामगान की शिक्षा के लिए 'नारदीय शिक्षा' और 'रागाविरोध' ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।


सामगान के उपख्यानस्वरूप आठ ब्राह्मण ग्रन्थों का उल्लेख भी मिलता है। ये ब्राह्मण ग्रन्थ हैं-


1. प्रौढ़ या ताण्ड्य महाब्राह्मण, 2. षविष, 3. साम विधान, 4. आर्षेय, 5. देवताध्याय, 6. उपनिषद्, 7. संहितोपनिषद् या मन्त्र ब्राह्मण, 8. वंश।


उपरोक्त ब्राह्मण ग्रन्थों में से चौथा और पांचवां सामवेद के ऋषियों, देवताओं और छन्दों का वर्णन करता है।' मन्त्र ब्राह्मण' में सभी मन्त्र संस्कारों से सम्बन्धित हैं। 'वंश' में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके सभी सामगों (साम- मन्त्रों को गाने वाले उद्गाता) की वंशावली दी गई है। अन्य में प्रयोग तो किए गए हैं, परन्तु सामवेद के अक्षरों की व्याख्या नहीं की गई है।


'नारदीय शिक्षा में संगीत शास्त्र का जैसा विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, वैसा बहुत कम देखने में आता है। वह संगीत शास्त्र का आधार है। 'सामवेद' के भाष्यकार मेरठ निवासी स्व. पण्डित तुलसीराम स्वामी ने अपने भाष्य में इसका अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया है।


सामवेद के मुख्यतः दो भाग हैं- 1. आर्चिक, 2. गान। आर्थिक का अर्थ है ऋचाओं का समूह। इसके भी दो भाग हैं-1. पूर्वाचिक, 2. उत्तरार्धिक। पूर्वार्चिक में छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई-कई खंड हैं। इन्हें 'दशती' भी कहा गया है। दशती से दस संख्याओं का बोध होता है, किन्तु प्रत्येक खण्ड में ऋचाओं की संख्या दस नहीं है। किसी में यह संख्या दस से कम है तो किसी में अधिक, अतः कई ग्रंथ संपादकों ने इसे दर्शाती न लिखकर खण्ड लिखा है।


सामवेद के प्रथम अध्याय में अग्नि से संबंधित ऋचाएं हैं, इसलिए इसे 'आग्नेय पर्व' कहा गया है। दूसरे से चौथे अध्याय तक इन्द्र की स्तुति की गई है, इसलिए यह 'ऐंद्र पर्व' कहलाया। पांचवा अध्याय 'पवमान पर्व' कहलाता है। इसमें सोम-विषयक ऋचाएं हैं, जो ऋग्वेद के नौवें मंडल से ली गई हैं। पहले से पांचवें अध्याय तक की ऋचाएं 'ग्राम गान' कहलाती हैं। छठा अध्याय 'आरण्यक पर्व' है, इसमें वस्तुत: देवताओं और छंदों की भिन्नता है तथा इसमें गान-संबंधी एकता दिखाई देती है। इस अध्याय की ऋचाएं' अरण्य गान' कही गई हैं। 


पूर्वार्चिक के छह अध्यायों में कुल 640 ऋचाएं हैं। उत्तरार्चिक में इक्कीस अध्याय हैं, ऋचाओं की संख्या बारह सौ पच्चीस है। इस प्रकार सामवेद में कुल 1865 ऋचाएं हैं। सामवेद की इन ऋचाओं का यह भावार्थ सायण भाष्य पर आधारित है। जिस प्रकार एक राज मिस्त्री ईंट और सीमेंट से एक भव्य महल का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त वेदों के कुछ विशेष चुने हुए अंश संग्रह कर सामवेद की रचना की गई है। 


आदिमकालीन यज्ञों में परमेश्वर (इन्द्र, अग्नि, सोम आदि) की जो सर्वश्रेष्ठ भावपूर्ण, मधुर और संगीतमय स्तुतियां की गई थीं, उन्हीं को चुनकर सामवेद को सजाया गया है। यों तो वेदों का प्रत्येक मंत्र ही ईश्वरीय ज्ञान का भंडार है और मनुष्य को मोक्ष मार्ग दिखलाने वाला है, पर सामवेद की भक्तिरसपूर्ण काव्यधारा में गोता लगाने से तुरंत ही मनुष्य का अंतर्मन निर्मल, विशुद्ध, पवित्र और रससिक्त हो जाता है। वास्तव में परमात्मा मनुष्य के हृदय को देखता है और जिसकी जैसी हार्दिक भावना होती है, उसे वो वैसा ही फल प्रदान करता है। सामवेद महान है, शिक्षाप्रद है, अमृततुल्य है, मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। मनुष्यों को इसका अध्ययन, मनन अवश्य करना चाहिए।


Samaveda ke shaloka ke arth hindi mein 1 to 5. meaning of Samaveda shaloka in hindi. SAMAVEDA SHLOKA IN HINDI. PFD OF SAMAVEDA . सामवेद ग्रन्थ. अध्याय प्रथम. सामवेद रचियता. सामवेद ( samveda) सम्पूर्ण विवरण. सामवेद दशती श्लोक (SAMVEDA SHLOKA) 1 to 5 के अर्थ


पूर्वार्चिकः


अथ प्रथमोऽध्यायः


(आग्नेय काण्डम् )


प्रथम दशती


धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि जीवन का ध्येय है। इसकी सरलतम व्याख्या यह है कि धर्म द्वारा 'अर्थ' (धन) कमाना, धर्मानुकूल 'काम' (मन और इंद्रियों के सुख-भोग प्रमोद) का उपभोग और इन तीनों द्वारा सात्त्विकतापूर्वक कर्त्तव्य कर्म करते हुए मोक्ष की उपलब्धि, यह मनुष्य- जीवन की सफलता है।


(ऋषि-भरद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीतिपुरुमीढौवांगिरसौ, वामदेव । देवता- अग्नि । छंद - गायत्री ।) अग्न आ याहि वीतये गुणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि ॥ 1 ॥


हे परमेश्वर अग्ने ! सबने तेरी स्तुति की, क्योंकि तू ही सबका दाता और विश्व ब्रह्मांड में व्यापक है। तू ज्ञान तथा उत्तम पदार्थों के लिए हमें प्राप्त हो।


त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः । देवेभिर्मानुषे जने ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू विद्वानों और दिव्य पदार्थों के द्वारा मनुष्य-समाज पर उपकार करने वाला तथा समस्त उत्तम व्यवहारों का दाता है।


अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥ 3 ॥


इस संसाररूपी यज्ञ के उत्तम निर्माता और पापियों को दंड देने वाले अग्नि (ईश्वर) की हम स्तुति करते हैं।


अग्निर्वृत्राणि जंघनद् द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥ 4 ॥ स्तुति एवं उपासना से साक्षात् किया हुआ, शुद्धस्वरूप तथा समस्त


धनों का स्वामी अग्नि अज्ञानियों के अंधकार का विनाश करता है। प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्ने रथन्न वेद्यम् ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! मित्र के समान प्रिय और सूर्य के समान जानने योग्य, कालबंधन रहित तथा अत्यंत प्रिय तुझ प्रभु की मैं स्तुति करता हूं। त्वन्नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मत्त्र्त्यस्य ॥ 6 ॥


महान् गुणों और कर्मों द्वारा समस्त अदानशीलता के भावों और द्वेष करने वाले मनुष्य के संपर्क से हे अग्नि ! तू हमें बचा।


एह्यूषु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः ।


एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥ 7 ॥


हे अग्ने ! मैं मनुष्यों की वाणी से भिन्न तेरी वेदमयी वाणी अथवा स्तुति को उत्तम रूप से बोलूं। इस प्रकार तू मुझे प्राप्त हो और इन यज्ञादिकों द्वारा मुझे बढ़ा।


आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वां कामये गिरा ॥ 8 ॥


हे अग्ने ! तेरा पुत्र रूप जीव हृदय-देश में साथ रहने वाला तुझ परम प्रभु से मनन योग्य ज्ञान को प्राप्त करता है। मैं भी स्तुति द्वारा तेरी कामना करता हूं।


त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत ।


मूर्ध्वो विश्वस्य वाघतः ॥ १ ॥ हे अग्ने! महान् अहिंसावादी योगी तुझे हृदयाकाश में प्राप्त करता है और मेधावीजन तुझे मूर्त पदार्थों के आधारभूत संसार के मध्य देखते हैं।


सामवेद-1



अग्ने विवस्वदाभरास्मभ्यमूतये महे। देवो ह्यसि नो दृशे ॥ 10 ॥ हे अग्ने ! निश्चय ही तू हमारे ज्ञान के लिए है, अतः हमारी पूर्ण रक्षा के लिए हमें अज्ञान-निवारक ज्ञान दे।


द्वितीय दशती


(ऋषि- आयुंग्क्ष्वाहि, वामदेव, गौतम, प्रयोगो, भार्गव, मधुच्छंदा, शुनःशेप, मेधातिथि, वत्स । देवता-अग्नि । छंद- गायत्री।)


नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमेर मित्रमर्दय ॥ 1 ॥


हे अग्ने ! मनुष्य जन बल को प्राप्त करने के लिए तुझे नमस्कार करते हैं, तेरी स्तुति करते हैं। तू अपनी शक्ति द्वारा पाप का संहार कर ।


दूतं वो विश्ववेदसं हव्यवाहममत्र्त्त्यम्। यजिष्ठमृ॑जसे गिरा ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू अमर, सर्वज्ञ, कर्मफलदाता और दुःखनाशक है, मैं वाणी रूप स्तुति से तुझे प्रवृद्ध करता हूं।


उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः ।


वायोरनीके अस्थिरन् ॥ 3 ॥ हे अग्ने! ज्ञान प्राप्त कराने वाली स्तुतियां तेरी सेवा में जाती हुई


वायुमण्डल को प्रदीप्त कर, उसमें स्थित हो जाती हैं।


उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।


नमो भरन्त एमसि ॥ 4 ॥ हे अग्ने! हम सदैव तेरे पास उपस्थित रहते हैं और श्रेष्ठ बुद्धिपूर्वक


प्रातः व सायं तुझे नमस्कार करते हैं। जराबोध तद्वितिड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमं रुद्राय दृशीकम् ॥ 5 ॥


हे स्तुति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले ! तू उस अग्नि की मनोहर स्तुति कर जो प्रत्येक मनुष्य के लिए पूजनीय है।


प्रतित्यंचारुमध्वरंगोपीथाय प्र हूयसे ।


मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! विद्वान मनुष्यों द्वारा इस संसार यज्ञ को उद्देश्य में रखकर,


दोनों लोकों में पदार्थों की रक्षा के लिए तू पुकारा जाता है। तू इस यज्ञ में आगमन कर।


अश्वन्न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निन्नमोभिः |


सम्राजंतमध्वराणाम्॥ 7 ॥


हे अग्ने! तू यज्ञों के अधिपति रूप से प्रसिद्धि प्राप्त अश्वन्न (सूर्य)


के समान है। हम स्तुतियों के द्वारा तुझे नमस्कार करते हैं। और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदाहुवे । अग्निं समुद्रवाससम् ॥ 8 ॥


पृथ्वी पर बसने वाले विद्वान एवं कर्म करने वाले मनुष्यों की भांति आकाश में व्याप्त उस पवित्र अग्नि की मैं स्तुति करता हूं। अग्निमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत्त्र्त्यः । अग्निमिन्धे विवस्वभिः ॥ 9 ॥


अग्नि को प्रदीप्त करने वाले योगी पुरुष हार्दिक भावना एवं बुद्धि को संयुक्त कर ज्ञान ज्योतियों से परमेश्वर को चैतन्य करें। आदित्प्रत्नस्त्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् ।


परो यदिध्यते दिवि ॥ 10 ॥


सूर्य आदि पदार्थों में भी प्रकाशमान अग्नि की सर्वत्र व्याप्त परम ज्योति को योगीजन सहज ही देख लेते हैं।


तृतीय दशती


(ऋषि-प्रयोगो, भरद्वाज, वामदेव, वसिष्ठ, विरूप, शुनःशेप, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिंधुद्वीप, अम्बरीष, त्रित आत्यो


या उशना । देवता- अग्नि । छंद-गायत्री।)


अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम्। अच्छा नप्त्रे सहस्वते ॥ 1 ॥


पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए याज्ञिकों के बंधु, बलशील और ज्वालाओं से प्रवृद्ध अग्नि की शरण में जाओ। हे मनुष्यो ! उसकी स्तुति करो। अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यंसद्विश्वं न्य३त्रिणम् । अग्निर्नो वंसते रयिम् ॥ 2 ॥


अग्नि अपने प्रचण्ड तेज तथा तीक्ष्ण ज्वालाओं से पाप और विघ्नों को दूर करने एवं धन, वैभव प्रदान करने वाला है। अग्ने मृड महां अस्यय आ देवयुंजनम् । इयेथ बर्हिरासदम् ॥ 3 ॥


हे अग्ने ! तू महान है एवं समस्त स्थानों पर स्थित है। तू संपत्तिवान एवं ज्ञानवान मनुष्य को भी सर्व प्रकार से सुखी रखने वाला है। अग्ने रक्षा णो अंहसः प्रति स्व देव रीषतः । तपिष्ठैरजरो दह ॥ 4 ॥ हे अग्ने ! पाप से हमारी रक्षा कर और हमारे हिंसात्मक विचारों को अपने संतापक तेज से भस्म कर ।


अग्ने युंग्क्ष्वा हि ये तपाश्वासो देव साधवः । अरं वहन्त्याशवः ।। 5 ।। हे अग्ने ! तेरे प्रताप से विद्वजन भली-भांति परिचित होते हैं और तेरे द्वारा प्रदान ज्ञान को अपने में समाहित कर लेते हैं। ऐसा ज्ञान सबको अर्पण कर ।


नि त्वा नक्ष्य विश्पते द्यु मंतं धीमहे वयम्। सुवीरमग्न आहुत ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! तू उपासना का पात्र और धन का स्वामी है। जो तेरी स्तुति करते हैं, उन्हीं को सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् ।


अपां रेतांसि जिन्वति ॥ 7 ॥ अग्नि जलों के साररूप जंगम जीवों को जीवन देने वाला ईश्वर ही स्वर्ग के महान देवताओं में श्रेष्ठ और पृथ्वी का अधीश्वर है ।


इममूषु त्वमस्माकं स नि गायत्र्यं नव्यांसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥ 8॥


हे अग्ने ! तू विद्वानों को भजन करने योग्य इस वेद का बोध कराता है तथा ऐसे ज्ञान को प्रदान करता है जो प्रतिदिन स्मरण करने योग्य है । तन्त्वा गोपवनो गिरा जनिष्ठदग्ने अंगिरः ।


स पावक श्रुधी हवम् ॥ १ ॥


हे अग्ने! तू सर्वत्र गमनशील है। बुद्धिमान मनुष्य तुझे स्तुति रूप तू वाणी से प्रवृद्ध करते हैं। तू हमारी विनती को श्रवण कर। परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत्।


दधद्रत्नानि दाशुषे ॥ 10 ॥ काव्यादि का कर्त्ता, बलवान, रत्नों आदि से सुशोभित ईश्वर, सभी हव्य पदार्थों में निरंतर गतिशील है।


उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ 11 ॥


प्राणियों के निमित्त सूर्य की किरणें जातवेद सूर्यात्मक अग्नि को प्रदीप्त करती हैं।


कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम् ॥ 12 ॥


हे मनुष्यो! सत्य को धारण करने वाले तथा अज्ञान के निवारक ईश्वर में ध्यान लगाओ। शन्नो देवीरभिष्टये भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥ 13 ॥ हमारे लिए


अग्नि की अलौकिक विभूतियां अभीष्ट की सिद्धि हेतु


कल्याणकारी हों और हम पर सुख की सदा वर्षा करें।


कस्य नूनं परीणसि धियो जिन्वसि सत्पते।


गोषाता यस्य ते गिरः ॥ 14 ॥


हे अग्ने ! तू अज्ञानियों के ज्ञान को पूर्ण करने वाला ऐसे सज्जनों का पालनकर्त्ता है जो वेदवाणियों के भजन से तेरी स्तुति करते हैं ।


चतुर्थ दशती


(ऋषि- शंयुवार्हस्पत्य, भर्ग, वसिष्ठ, प्रस्कण्व, कण्व । देवता - अग्नि । छंद- बृहती ।)


यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे। प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रन्न शंसिषम् ॥ 1 ॥


मित्र की भांति प्रिय, यज्ञों में बढ़ने वाले, अमर और सर्वत्र अग्नि


की स्तुतियों का कीर्तन बल प्राप्त करने वाले मनुष्य करते हैं।


पाहि नो अग्न एकया पाहयू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पार्हि चतसृभिर्वसो ॥ 2 ॥


हे अग्ने! हमारी संपूर्ण रूप से रक्षा कर। तू समस्त वेदवाणियों से युक्त, संपूर्ण ज्ञानों का स्वामी तथा अंतर्यामी है।


बृहद्भिरग्ने अर्चिभिः शुक्रेण देव शोचिषा । भरद्वाजे समिधानो यविष्ठय रेवत् पावक दीदिहि ॥ 3 ॥


हे तेजयुक्त, शुद्धि करने वाले, सर्व गुणों से संपन्न अग्नि ! अपने उज्ज्वल तेज से भरद्वाज के लिए प्रकाशवान होने वाले अत्यंत तेजस्वी और ऐश्वर्यवान होकर हमें भी प्रकाशित कर ।


त्वे अग्ने स्वाहुत प्रियासः सन्तु सूरयः ।


यन्तारो ये मघवानो जनानामूत्रं दयन्त गोनाम् ॥ 4 ॥

हे अग्ने ! जो मनुष्य यज्ञकर्त्ता होते हैं, विद्वानों का सम्मान करते हैं। और गायों की सेवा में तत्पर रहते हैं वो तुझ उपास्य देव की दया के पात्र होते हैं।


अग्ने जिरितविंशपतिस्तपानो देव रक्षसः ।


अप्रोषिवान् गृहपते महां असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों का पालनकर्त्ता, संसाररूपी गृह का निर्माता, पापियों को नष्ट करने वाला, लोकों का रक्षक और स्वामी है।


अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा स्वमद्या देवां उषर्बुधः ॥ 6 ॥


हे अग्ने ! तू अविनाशी, व्यापक एवं दर्शनीय है। समस्त प्राणियों को सुख देने वाला, उषाकाल की संचय शक्तियों का प्रदाता तथा मन को चेतना देने वाला है।


त्वन्नश्चित्र ऊत्या वसो राधांसि चोदय ।


अस्य रायस्त्वमग्ने रथीरसि विदा गाधं तुचे तु नः ॥ 7 ॥


हे रोम-रोम में बसने वाले अग्ने ! तू द्रव्यों का अधिपति है, हमें भी द्रव्य प्रदान कर। हे दाता ! हमारी संतान को दिव्य गुणों से अलंकृत कर,


उसे रक्षा-साधन उपलब्ध करा ।


त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातऋतः कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदित आ विवसन्ति वेधसः ॥ 8 ॥


हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों की रक्षा करने वाला, ज्ञान का प्रकाश देने वाला, दुःखों को हरने वाला, सत्यस्वरूप एवं महान है। मेधावीजन स्तुति द्वारा तेरी उपासना करते हैं।


आ नो अग्ने वयोवृधं रयिं पावक शस्यम् ।


रास्वा च न उपमाते पुरूस्पृहं सुनीती सुयशस्तरम् ॥ १॥


हे पवित्र, पापों को नष्ट करने वाले एवं सृष्टि के निर्माता अग्ने ! अपनी श्रेष्ठ नीति के द्वारा सुयशरूप धन हमें प्रदान कर। हमें उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु दे।


यो विश्वा दधते वसु होता मन्द्रो जनानाम्।


मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्वग्नये ॥ 10 ॥

मधुपात्र की भांति धनदाता, परम पूजनीय अग्नि की हम स्तुति करते हैं, ये स्तुति उसे प्राप्त हों।


पंचम दशती


(ऋषि-वसिष्ठ, भर्ग, मनु, सुदीति और पुरुमीढ, प्रस्कण्व, मेधातिथि और मेध्यातिथि, विश्वामित्र, कण्व । देवता- अग्नि, इन्द्र । छंद - बृहती।)


एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमाहुवे ।


प्रियं चेतिष्ठमरतिं स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम् ॥ 1 ॥ समस्त संसार के दुःख-निवारण करने वाले, श्रेष्ठ ज्ञान वाले, संपूर्ण जगत् के स्वामी, प्रिय, बल के पुत्र और रक्षक, अविनाशी अग्नि की है स्तुति करता हूं।


शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते ।


अतन्द्रो हव्य वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥ 2 ॥


हे अग्ने ! तू पृथ्वी, आकाश एवं जलादि सभी स्थानों में स्थित है। प्राणीजन के अंतस् में समाकर तू उनके ज्ञान को रोशन करता है। समस्त दिव्य शक्तियां तेरे कारण ही प्रकाशित हैं और तू ही सबको द्रव्य प्रदान करने वाला है।


अदशिं गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः


॥ 3 ॥ जिस अग्नि के द्वारा बुद्धिमान मनुष्यों ने कर्मों को किया, वो दर्शनीय रूप से प्रकट हुआ। उस सुप्रसिद्ध सदाचारी को उन्नत करने वाले अग्नि को हमारी स्तुति रूप वाणी समर्पित हो ।


अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे । ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पते देवा अवो वरेण्यम् ॥ 4 ॥ ब्रह्माण्ड के पालनहार और संसाररूपी अग्नियज्ञ में ऋत्विजों द्वारा


वेदी में स्थापित हुए अग्नि से रक्षा की मैं विनती करता हूं । अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम् । अग्निं राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निः सुदीतये छर्दिः ॥ 5 ॥


हे मनुष्यो ! अग्नि की शरण में जाओ तथा संपदा की प्राप्ति और स्वयं की रक्षा के लिए उसकी वेदवाणी से स्तुति करो ।


श्रधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवेरग्ने सयावभिः । आ सीदतु बर्हिषी मित्रो अर्यमा प्रातर्यावभिरध्वरे ॥ 6 ॥


हे श्रवण शक्ति से युक्त कर्ण वाले विद्वान मनुष्य! समस्त गतिशील अलौकिक शक्ति का स्वामी परमेश्वर (अग्नि) आकाश में स्थित है। वह नित्य कर्मयुक्त और न्याय का कारक है।


प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥ 7 ॥ पृथ्वी और आकाश में विद्युत की भांति व्याप्त अग्नि स्वर्ग में स्थित


है और मोक्षगामी को सुख का देने वाला है। अधज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥ 8 ॥ परमेश्वर से ज्ञानवान कोई नहीं। वह समस्त लोकों में सर्वत्र व्याप्त


है, वह उत्तम ज्ञान का प्रदाता और उत्पन्न हुए पदार्थों का पालनकर्त्ता है। कायमानो वना त्वं यन्मातृरजगन्नपः ।


न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तनं यद्दूरै सन्निहाभुवः ॥ 9 ॥


हे अग्ने ! तू हमसे दूर होकर भी हमें अत्यंत निकट अनुभव होता है। तू वनों की इच्छा करके भी जगत् का निर्माण करने वाले जलादि द्रव्यों को प्राप्त हुआ है।


नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।


दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो या नमस्यन्ति कृष्टयः ॥ 10 ॥


हे अग्ने ! तू प्रकाशवान है और ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान का प्रकाश तुझ से ही प्राप्त होता है। तू सत्यस्वरूपा है। सत्य एक तू ही है और मनुष्यजन स्तुति कर तुझे नमस्कार करते हैं।



( Sukton ki sankhya in Samaveda) meaning ऑफ़ samaveda? सामवेद का अर्थ क्या है ? सामवेद की सामग्री क्या है? सामवेद का पूरा परिचय .  introduction of Samaveda ? Samaveda parichay . Samveda किसने लिखा है ? who wrote samaveda in hindi.? samaveda or saamved ke bare mein jankari.


सामवेद ( Samaveda) क्या है ? Samaveda में क्या क्या है जानिए ?


 प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ॥


हे विद्वान जन ! जो मनुष्य अज्ञान से सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर की प्रसिद्ध वेदवाणी को नहीं मानता है और भगवान् की भक्ति नहीं करता, उस कुत्ते के स्वभाव वाले पेट-पोषक मनुष्य का परित्याग करो, जैसे ब्रह्मज्ञानी सकाम कर्म का परित्याग कर देता है।


तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्भवे न शाकिने ॥


इंद्र की प्रशंसा करने एवं अपने कल्याण के लिए उसके स्तोत्र का गान करो, क्योंकि इंद्र ही सर्वशक्तियों का स्वामी है, सबका पूजनीय है। और वर्तमान में भी उपस्थित है।


अपामिवेदूर्मयस्तर्तुराणाः प्र मनीषा ईरते सोममच्छ । नमस्यन्तीरूप च यंति सं चाच विशन्त्युशतीरुशन्तम् ॥


तेजी से उठने वाली लहरों की तरह यजमान की स्तुतियां उठती हैं। यजमान शीघ्रता से अपनी स्तुति देवता तक पहुंचाना चाहते हैं। स्तुतियां देवता की प्रशंसा करती हैं, उनके पास पहुंचती हैं और उन्हीं में मिल जाती हैं।


भूमिका


वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। विद्वज्जन इन्हें प्राचीन ही नहीं, प्रारंभिक ग्रंथ भी मानते हैं। इन ग्रंथों की महत्ता केवल इसी से सिद्ध हो जाती है कि इनमें सृष्टि-विद्या के मूल तत्त्वों का विज्ञान और तर्कसम्मत वर्णन किया गया है। केवल इसी से वेदों की महत्ता सिद्ध नहीं हो जाती, वस्तुतः इनमें मनुष्य के कल्याण हेतु सरल जीवन, सदाचार, सात्त्विक आहार, ब्रह्मचर्य, शांतिमय व्यवहार और उदारतापूर्ण भावनाओं का उपदेश दिया गया है।


वेद संसार के सर्वोत्तम और गंभीरतम धर्मों के आदि स्रोत हैं, इसके साथ ही पराभौतिक दर्शनों के मूल आधार भी हैं। वेद का प्रतीकवाद इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य का जीवन यशरूप है, एक यात्रा है, एक युद्धक्षेत्र है। प्रायः संसार के समस्त विद्वानों ने वेदों की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की है और उनको सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रंथ माना है। हमारे भारत देश के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने चारों वेदों को साक्षात् ईश्वरीय वाणी माना। वेदों के प्रत्येक मंत्र ईश्वरीय प्रेरणा से ओतप्रोत हैं और ये मंत्र मनुष्य के लिए प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक समय में कल्याणकारी हैं।


वेदों को ईश्वर प्रेरित मानने वालों की कोई कमी नहीं, विद्वज्जन इस बात को स्वीकार करते हैं, और जब हम इस बात को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वेदों में जो सिद्धांत बतलाए गए हैं, जिन-जिन कर्मों और कर्त्तव्यों का पालन करने का उपदेश दिया गया है; सभी वर्ग, धर्म और जाति के मनुष्यों को उन-उन उपदेशों का पालन अपने जीवन में अवश्य करना चाहिए।


ऋषि-मुनि जिन ग्रंथों को प्रामाणिक मानते आए हैं, वे ग्रंथ केवल चार ही हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। चूंकि हमने अपने प्रेरक पाठकों को इस ग्रंथ के रूप में 'सामवेद' पठन-पाठन के लिए प्रेषित किया है, अतः आगे यहां पर केवल सामवेद पर ही प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।


वेद के गेय मन्त्रों के संग्रह को 'सामवेद' कहा जाता है। ये स्तुति- मन्त्र मधुर स्वरों में गाए जाते हैं। मधुर वाणी का रस इन ऋचाओं के द्वारा ईश्वर की उपासना में नि:सृत होता है। ऋचाओं के इस रस को ही 'साम' कहा जाता है। सामगान से 'भटके हुए मन को शान्ति' मिलती है।


सामगान में मधुर स्वर को ऊंचे आलाप से प्रारम्भ करके धीरे-धीरे निचले आलाप पर लाया जाता है। सामवेद की महत्ता का प्रतिपादन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (10/22) में किया है— 'वेदानां सामवेदोऽस्मि ।' वेदों में सामवेद मैं हूं।


कुछ विद्वानों का कहना है कि सामवेद की गायन व पाठ शैली के कारण एक सहस्र शाखाएं थीं, जो धीरे-धीरे सामगान न होने के कारण विलुप्त होती चली गई। अब केवल तीन शाखाएं 'राणायणी, ''कौथुमी' और 'जैमिनीय' ही उपलब्ध हैं।


सामवेद के कुछ मन्त्रों को छोड़कर शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद के सभी मन्त्र गाए जाने वाले हैं। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए यज्ञ किया जाता है, उसकी स्तुति के लिए उचित और शुद्ध गेय स्वरों में उस देवता का आह्वान किया जाता । सामगान में संगीत के सप्त स्वरों का प्रयोग किया जाता है। श्रोता सामगान का रसास्वादन श्रवण मात्र से ही कर सकता है। भारतीय संगीत की उत्पत्ति की दृष्टि से 'सामवेद' का विशेष महत्त्व है। इसे साधना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।


कुछ विद्वानों का मत है कि सामवेद का सर्वप्रथम साक्षात्कार आदित्य ऋषि के द्वारा किया गया था। सामवेद में 'वेदत्रयी' का प्रमुख स्थान है। वेदत्रयी का अर्थ–‘पद्य,’‘गद्य' और 'गायन' है। 'मनुस्मृति' में सामवेद का सम्बन्ध सूर्य से बताया गया है। सूर्य प्रकृति के मध्य सबसे अधिक तेजस्वी और आकृष्ट करनेवाला 'ग्रह' है। इसे 'ऋग्वेद' में प्रत्यक्ष देवता

के रूप में स्थान प्राप्त है। सभी ऋषियों ने इस प्रत्यक्ष देवता की स्तुति में सस्वर गान किया है, इस कल्पना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। इसलिए सूर्य से सामवेद का साम्य स्थापित किया जाता रहा है।


कुछ पूर्वपक्षीय विद्वान् यह शंका भी उठाते हैं कि 'सामवेद' कोई पृथक् वेद नहीं है। यदि इस प्रकार का कोई वेद मान भी लिया जाए, तो उसमें कुल 62 या 85 मन्त्रों का ही संग्रह है। शेष मन्त्र वे ही हैं, जो ऋग्वेद में संगृहीत हैं, परन्तु इस धारणा को सर्वथा निर्मूल माना जाता है। सामवेद में 1,875 मन्त्रों का ही संकलन हैं।


'सामवेद' के मन्त्रों का प्रारम्भ 'अग्न आयाहि वीतये' से और अन्त 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः' से होता है। वेद में किसी प्रकार की पुनरुक्ति नहीं है। सर्वत्र प्रभु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही दिया गया है, जो ऋषियों की वाणी से हम तक पहुंचा है।


'सामवेद' उपासना काण्ड है। इसमें जिस उपासना का उल्लेख है, वह 'ज्ञान' और 'कर्म' का समन्वय है। इसमें 'इष्ट, ' 'उपासक' और 'द्रष्टा' का समन्वय है। यह समन्वय परिशीलन, आचरण और उपासना के मध्य स्थित है। यही समन्वय 'जीव,' 'जगत्' और 'परमात्मा' के मध्य संगीतबद्ध होकर उभरता है। साम वस्तुतः इसी समन्वय का नाम है।


आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने 'साम' को एक बहुत ही व्यावहारिक उदाहरण द्वारा समझाया है। उनका कहना है कि विवाह संस्कार के अवसर पर जब वर-वधू प्रतिज्ञा के मन्त्र बोलते हैं, तब वर वधू से कहता है—“हे वधू! मैं 'अम' हूं और तू 'सा' है।" अतः दोनों का सम्बन्ध 'साम' है। तू ऋक् है और मैं साम हूं। मैं द्युलोक हूं और तू पृथिवी है। इन दोनों का सम्मिलन ही साम है।


अर्थात् चराचर विश्व में समन्वय ईश्वर की महती महिमा का परिचायक है। उपासक इसको अपनी उपासना में अभिव्यक्त कर ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः 'साम' वह विद्या है, जिसमें विश्व-संगीत हो, विश्व-समन्वय हो या जीव-प्रकृति की क्रीड़ा और परमात्मा का समन्वय हो ।


कुछ विद्वान् 'साम' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानते हैं सा+अम-साम। इसका अथ हुआ 'ऋचा' और 'अम' मिलकर आलाय के द्वारा मन्त्रों का किया गया गान। इस प्रकार 'गान' सामवेद का प्राणतन्त्र है। 'यज्ञ' में उद्गाता नामक पुरोहित सामगान करता है। 'उद्गाता शब्द में ही गान का भाव निहित है।


जैमिनी मीमांसा सूत्र में 'साम' का अर्थ गीत कहा है-'गीतिषु सामाख्या' (2/1/36)। ऋचा और साम के सम्बन्ध को छान्दोग्योपनिषद् में स्पष्ट किया गया है—‘या ऋकतत्साम' (1/3/4), अर्थात् ऋचाओं को ही साम कहते हैं। भाव यही है कि ऋचाओं के आधार पर किया गया गान ही 'साम' है।


'साम' शान्ति प्रदान करने वाले मन्त्रगान हैं। परमात्मा की भक्ति में साधक जब एकाग्रचित्त होकर मन्त्रगान करता है, तब उसे अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है।


सामवेद मधुर रस का भण्डार है। वेदों में 'ॐ' का महत्त्व सर्वोपरि है। यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। 'ॐ' के आलाप लेने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। 'ॐ' प्रणव है, उद्गीथ है। साम का रस ही यह उद्गीथ है।


भारतीय संस्कृति का चरम ब्रह्म से साक्षात्कार का है। विधिपूर्वक सामगान करने वाला व्यक्ति ही 'ब्रह्म' के निकट पहुंच पाता है। इस 'सामगान' के लिए अभ्यास और साधना की आवश्यकता होती है। शुद्ध उच्चारण में मन की संगीतमयी संगति जब हो जाती है, तब परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति होने लगती है।


यज्ञ की पूर्णता सामगान के शुद्ध उच्चारण की संगीतमय अभिव्यक्ति पर ही निर्भर करती है। देवगण उद्गाता द्वारा गाए साम-मन्त्रों से प्रसन्न होते हैं और उपासक के हृदय में प्रसन्नता के अनन्त भाव भर देते हैं।


'मीमांसा भाष्य' में शवर ऋषि ने लिखा है-'सामवेदे सहस्रं गीतेरुपायाः' अर्थात् वेद गाने के सहस्र ढंग हैं। इससे साम मन्त्रों की उपादेयता का पता चलता है और उस कथन का विरोध हो जाता है, जिसमें सामवेद को सहस्र भागों वाला कहा गया है। यहां आशय गायन

के ढंग से है, न कि उसके भागों से। गायन के विविध ढंगों का प्रमाण इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि प्रकृति के कण-कण में संगीत के स्वर विद्यमान हैं। हवा की सांय-सांय में, पत्तों की खड़खड़ाहट में, झरनों के बहने में, ओसकणों के ढुलकने में, सागर की उछलती लहरों में, बादलों के घुमड़ने में, पक्षियों की कुहूक में, गायों के रंभाने में, चिड़ियों की चहचहाहट में, बिजली की कड़क में, हिमशिखरों पर पिघलती बर्फ़ में, नदियों के वेग में, सभी में संगीत की स्वर लहरियां बिखरी हैं।


संगीत के सात स्वरों की पहचान भी इस प्रकृति के मध्य से ही पहचानी गई होगी। संगीत की स्वरलहरियों में वंशी की मधुर तान है, तो कल-कल करती नदियों की जलतरंग है। यह ऐसी सार्वभौम स्वर रचना है, जो अपने स्वरों में प्रस्फुटित होती है। इन स्वरों के उदात्त स्वर ही सामवेद के मन्त्रों में अभिव्यक्त होते हैं। संगीत के मूल स्वरों को ढूंढ़ने के लिए 'सामवेद' के मन्त्रों को ही स्वरबद्ध करना होगा। सामवेद का संगीत जीवन और प्रकृति से जुड़ा है। इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।


संगीत जीवन को उस भावभूमि पर ले जाने वाला मार्ग है, जहां आनन्द ही आनन्द है। जब ईश्वर संगीत को अथवा गायन को स्वीकार कर लेता है, तब वह स्तुति बन जाता है। सामवेद में गायन द्वारा इसी 'स्तुति' का चित्रण हुआ है।


उदात्त स्वरों का व्यवहार सामवेद में निराले ढंग से हुआ है। 'नारदीय शिक्षा' में कहा गया है-


अथातः स्वरशास्त्राणां सर्वेषां वेदनिश्चयम् । उच्चनीचविशेषाद्धि स्वरान्यत्वं प्रवर्त्तते ॥


(नारदीय शिक्षा सूत्र 1/1) अर्थात् अब सब स्वरशास्त्रों का वर्णन वेद निश्चय ही करते हैं; क्योंकि ऊंचे और नीचे के विशेष स्वर-भेद में यह लक्षित होता है।


नारदीय शिक्षा में गान-विद्या के 8 स्वरों का उल्लेख किया गया है—'षड्ज', 'ऋषभ,' 'गान्धार,' 'मध्यम,' 'पंचम,' 'धैवत' और


'निषाद'।

उदात्त स्वरों में निषाद और गान्धार स्वर आते हैं, अनुदात्त स्वरों में ऋषभ और धैवत तथा स्वरित में षड्ज, मध्यम और पंचम स्वर आते हैं।


उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्तऋषभधैवतौ ।


स्वरितप्रभवा ह्येते षड्जमध्यमपंचमा॥


(नारदीय शिक्षा सूत्र 2/2 ) सामवेद में इन स्वरों के लिए विशेष संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है—'1 प्रथम, 2 द्वितीय, 3 तृतीय, 4 चतुर्थ, 5 मन्द्र, 6 क्रुष्ट और 7 अतिस्वार। इन्हें साम-मन्त्रों का पाठ करने वाले उच्चारित करते हैं।'


मध्यम स्वरों में इन नामों का विशेष महत्त्व है। साम उद्गाता का प्रथम स्वर ही वेणु का 'मध्यम' है, द्वितीय स्वर 'गान्धार' है, तृतीय स्वर 'ऋषभ' है, चतुर्थ स्वर 'षड्ज' है, पंचम स्वर 'धैवत' है, छठा स्वर 'निषाद' है और सप्तम स्वर का नाम 'पंचम' है।


इस प्रकार साम-मन्त्रों के गायन में उतार-चढ़ाव का ध्यान इन स्वरों के माध्यम से रखना चाहिए-


1 मध्यम, 2 गान्धार, 3 ऋषभ, 4 षड्ज, 5 मन्द्र या धैवत, 6 क्रुष्ट


या निषाद और 7 पंचम या अतिस्वार ।


मध्यम स्वर - नाभि से उठा वायु उरः, हृदय, कण्ठ और शीर्ष से टकराकर ध्वनि के रूप में उत्पन्न होता है, तो इसे पंचम स्वर कहते हैं। गान्धार स्वर- नाभि से उठा वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराता हुआ नासिका में पवित्र गन्ध लाता है, तब उसे 'गान्धार' स्वर कहते हैं।


ऋषभ स्वर - नाभि से उठने वाला वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराकर जब बैल की भांति नांदता है, तो उसे 'ऋषभ स्वर' कहते हैं।


षड्ज स्वर - ये स्वर नासिका, कण्ठ, उरः (छाती, फेफड़े), तालु, जिह्वा और दन्त इन छः स्थानों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन्हें 'षड्ज' कहा जाता है।


धैवत स्वर - इन पूर्व में उठे हुए स्वरों को जब अतिसन्धान किया जाता है, तब उसे 'धैवत स्वर' कहते हैं।


निषाद स्वर - जिस कारण समस्त स्वर बैठ जाते हैं या धूमिल पड़ जाते हैं, या दब जाते हैं, तब उसे 'निषाद स्वर' माना जाता है।

पंचम या अतस्वर- इसके उच्चारण में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पांचों प्राणों का उपयोग होता है इसलिए इसे पंचम स्वर कहते हैं। कोकिला (कोयल) पंचम स्वर में कुहकती है। इसके उच्चारण में क्षिति, रक्ता, संदीपनी और आलापनी नाम की चार श्रुतियां लगती हैं।


सामगान की शिक्षा के लिए 'नारदीय शिक्षा' और 'रागाविरोध' ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।


सामगान के उपख्यानस्वरूप आठ ब्राह्मण ग्रन्थों का उल्लेख भी मिलता है। ये ब्राह्मण ग्रन्थ हैं-


1. प्रौढ़ या ताण्ड्य महाब्राह्मण, 2. षविष, 3. साम विधान, 4. आर्षेय, 5. देवताध्याय, 6. उपनिषद्, 7. संहितोपनिषद् या मन्त्र ब्राह्मण, 8. वंश।


उपरोक्त ब्राह्मण ग्रन्थों में से चौथा और पांचवां सामवेद के ऋषियों, देवताओं और छन्दों का वर्णन करता है।' मन्त्र ब्राह्मण' में सभी मन्त्र संस्कारों से सम्बन्धित हैं। 'वंश' में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके सभी सामगों (साम- मन्त्रों को गाने वाले उद्गाता) की वंशावली दी गई है। अन्य में प्रयोग तो किए गए हैं, परन्तु सामवेद के अक्षरों की व्याख्या नहीं की गई है।


'नारदीय शिक्षा में संगीत शास्त्र का जैसा विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, वैसा बहुत कम देखने में आता है। वह संगीत शास्त्र का आधार है। 'सामवेद' के भाष्यकार मेरठ निवासी स्व. पण्डित तुलसीराम स्वामी ने अपने भाष्य में इसका अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया है।


सामवेद के मुख्यतः दो भाग हैं- 1. आर्चिक, 2. गान। आर्थिक का अर्थ है ऋचाओं का समूह। इसके भी दो भाग हैं-1. पूर्वाचिक, 2. उत्तरार्धिक। पूर्वार्चिक में छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई-कई खंड हैं। इन्हें 'दशती' भी कहा गया है। दशती से दस संख्याओं का बोध होता है, किन्तु प्रत्येक खण्ड में ऋचाओं की संख्या दस नहीं है। किसी में यह संख्या दस से कम है तो किसी में अधिक, अतः कई ग्रंथ संपादकों ने इसे दर्शाती न लिखकर खण्ड लिखा है।


सामवेद के प्रथम अध्याय में अग्नि से संबंधित ऋचाएं हैं, इसलिए इसे 'आग्नेय पर्व' कहा गया है। दूसरे से चौथे अध्याय तक इन्द्र की स्तुति की गई है, इसलिए यह 'ऐंद्र पर्व' कहलाया। पांचवा अध्याय 'पवमान पर्व' कहलाता है। इसमें सोम-विषयक ऋचाएं हैं, जो ऋग्वेद के नौवें मंडल से ली गई हैं। पहले से पांचवें अध्याय तक की ऋचाएं 'ग्राम गान' कहलाती हैं। छठा अध्याय 'आरण्यक पर्व' है, इसमें वस्तुत: देवताओं और छंदों की भिन्नता है तथा इसमें गान-संबंधी एकता दिखाई देती है। इस अध्याय की ऋचाएं' अरण्य गान' कही गई हैं। 


पूर्वार्चिक के छह अध्यायों में कुल 640 ऋचाएं हैं। उत्तरार्चिक में इक्कीस अध्याय हैं, ऋचाओं की संख्या बारह सौ पच्चीस है। इस प्रकार सामवेद में कुल 1865 ऋचाएं हैं। सामवेद की इन ऋचाओं का यह भावार्थ सायण भाष्य पर आधारित है। जिस प्रकार एक राज मिस्त्री ईंट और सीमेंट से एक भव्य महल का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त वेदों के कुछ विशेष चुने हुए अंश संग्रह कर सामवेद की रचना की गई है। 


आदिमकालीन यज्ञों में परमेश्वर (इन्द्र, अग्नि, सोम आदि) की जो सर्वश्रेष्ठ भावपूर्ण, मधुर और संगीतमय स्तुतियां की गई थीं, उन्हीं को चुनकर सामवेद को सजाया गया है। यों तो वेदों का प्रत्येक मंत्र ही ईश्वरीय ज्ञान का भंडार है और मनुष्य को मोक्ष मार्ग दिखलाने वाला है, पर सामवेद की भक्तिरसपूर्ण काव्यधारा में गोता लगाने से तुरंत ही मनुष्य का अंतर्मन निर्मल, विशुद्ध, पवित्र और रससिक्त हो जाता है। वास्तव में परमात्मा मनुष्य के हृदय को देखता है और जिसकी जैसी हार्दिक भावना होती है, उसे वो वैसा ही फल प्रदान करता है। सामवेद महान है, शिक्षाप्रद है, अमृततुल्य है, मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। मनुष्यों को इसका अध्ययन, मनन अवश्य करना चाहिए।


Samaveda ke shaloka ke arth hindi mein 1 to 5. meaning of Samaveda shaloka in hindi. SAMAVEDA SHLOKA IN HINDI. PFD OF SAMAVEDA . सामवेद ग्रन्थ. अध्याय प्रथम. सामवेद रचियता. सामवेद ( samveda) सम्पूर्ण विवरण. सामवेद दशती श्लोक (SAMVEDA SHLOKA) 1 to 5 के अर्थ


पूर्वार्चिकः


अथ प्रथमोऽध्यायः


(आग्नेय काण्डम् )


प्रथम दशती


धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि जीवन का ध्येय है। इसकी सरलतम व्याख्या यह है कि धर्म द्वारा 'अर्थ' (धन) कमाना, धर्मानुकूल 'काम' (मन और इंद्रियों के सुख-भोग प्रमोद) का उपभोग और इन तीनों द्वारा सात्त्विकतापूर्वक कर्त्तव्य कर्म करते हुए मोक्ष की उपलब्धि, यह मनुष्य- जीवन की सफलता है।


(ऋषि-भरद्वाज, मेधातिथि, उशना, सुदीतिपुरुमीढौवांगिरसौ, वामदेव । देवता- अग्नि । छंद - गायत्री ।) अग्न आ याहि वीतये गुणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि ॥ 1 ॥


हे परमेश्वर अग्ने ! सबने तेरी स्तुति की, क्योंकि तू ही सबका दाता और विश्व ब्रह्मांड में व्यापक है। तू ज्ञान तथा उत्तम पदार्थों के लिए हमें प्राप्त हो।


त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः । देवेभिर्मानुषे जने ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू विद्वानों और दिव्य पदार्थों के द्वारा मनुष्य-समाज पर उपकार करने वाला तथा समस्त उत्तम व्यवहारों का दाता है।


अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥ 3 ॥


इस संसाररूपी यज्ञ के उत्तम निर्माता और पापियों को दंड देने वाले अग्नि (ईश्वर) की हम स्तुति करते हैं।


अग्निर्वृत्राणि जंघनद् द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥ 4 ॥ स्तुति एवं उपासना से साक्षात् किया हुआ, शुद्धस्वरूप तथा समस्त


धनों का स्वामी अग्नि अज्ञानियों के अंधकार का विनाश करता है। प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्ने रथन्न वेद्यम् ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! मित्र के समान प्रिय और सूर्य के समान जानने योग्य, कालबंधन रहित तथा अत्यंत प्रिय तुझ प्रभु की मैं स्तुति करता हूं। त्वन्नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मत्त्र्त्यस्य ॥ 6 ॥


महान् गुणों और कर्मों द्वारा समस्त अदानशीलता के भावों और द्वेष करने वाले मनुष्य के संपर्क से हे अग्नि ! तू हमें बचा।


एह्यूषु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः ।


एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥ 7 ॥


हे अग्ने ! मैं मनुष्यों की वाणी से भिन्न तेरी वेदमयी वाणी अथवा स्तुति को उत्तम रूप से बोलूं। इस प्रकार तू मुझे प्राप्त हो और इन यज्ञादिकों द्वारा मुझे बढ़ा।


आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वां कामये गिरा ॥ 8 ॥


हे अग्ने ! तेरा पुत्र रूप जीव हृदय-देश में साथ रहने वाला तुझ परम प्रभु से मनन योग्य ज्ञान को प्राप्त करता है। मैं भी स्तुति द्वारा तेरी कामना करता हूं।


त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत ।


मूर्ध्वो विश्वस्य वाघतः ॥ १ ॥ हे अग्ने! महान् अहिंसावादी योगी तुझे हृदयाकाश में प्राप्त करता है और मेधावीजन तुझे मूर्त पदार्थों के आधारभूत संसार के मध्य देखते हैं।


सामवेद-1



अग्ने विवस्वदाभरास्मभ्यमूतये महे। देवो ह्यसि नो दृशे ॥ 10 ॥ हे अग्ने ! निश्चय ही तू हमारे ज्ञान के लिए है, अतः हमारी पूर्ण रक्षा के लिए हमें अज्ञान-निवारक ज्ञान दे।


द्वितीय दशती


(ऋषि- आयुंग्क्ष्वाहि, वामदेव, गौतम, प्रयोगो, भार्गव, मधुच्छंदा, शुनःशेप, मेधातिथि, वत्स । देवता-अग्नि । छंद- गायत्री।)


नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमेर मित्रमर्दय ॥ 1 ॥


हे अग्ने ! मनुष्य जन बल को प्राप्त करने के लिए तुझे नमस्कार करते हैं, तेरी स्तुति करते हैं। तू अपनी शक्ति द्वारा पाप का संहार कर ।


दूतं वो विश्ववेदसं हव्यवाहममत्र्त्त्यम्। यजिष्ठमृ॑जसे गिरा ॥ 2 ॥ हे अग्ने ! तू अमर, सर्वज्ञ, कर्मफलदाता और दुःखनाशक है, मैं वाणी रूप स्तुति से तुझे प्रवृद्ध करता हूं।


उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः ।


वायोरनीके अस्थिरन् ॥ 3 ॥ हे अग्ने! ज्ञान प्राप्त कराने वाली स्तुतियां तेरी सेवा में जाती हुई


वायुमण्डल को प्रदीप्त कर, उसमें स्थित हो जाती हैं।


उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।


नमो भरन्त एमसि ॥ 4 ॥ हे अग्ने! हम सदैव तेरे पास उपस्थित रहते हैं और श्रेष्ठ बुद्धिपूर्वक


प्रातः व सायं तुझे नमस्कार करते हैं। जराबोध तद्वितिड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमं रुद्राय दृशीकम् ॥ 5 ॥


हे स्तुति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले ! तू उस अग्नि की मनोहर स्तुति कर जो प्रत्येक मनुष्य के लिए पूजनीय है।


प्रतित्यंचारुमध्वरंगोपीथाय प्र हूयसे ।


मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! विद्वान मनुष्यों द्वारा इस संसार यज्ञ को उद्देश्य में रखकर,


दोनों लोकों में पदार्थों की रक्षा के लिए तू पुकारा जाता है। तू इस यज्ञ में आगमन कर।


अश्वन्न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निन्नमोभिः |


सम्राजंतमध्वराणाम्॥ 7 ॥


हे अग्ने! तू यज्ञों के अधिपति रूप से प्रसिद्धि प्राप्त अश्वन्न (सूर्य)


के समान है। हम स्तुतियों के द्वारा तुझे नमस्कार करते हैं। और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदाहुवे । अग्निं समुद्रवाससम् ॥ 8 ॥


पृथ्वी पर बसने वाले विद्वान एवं कर्म करने वाले मनुष्यों की भांति आकाश में व्याप्त उस पवित्र अग्नि की मैं स्तुति करता हूं। अग्निमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत्त्र्त्यः । अग्निमिन्धे विवस्वभिः ॥ 9 ॥


अग्नि को प्रदीप्त करने वाले योगी पुरुष हार्दिक भावना एवं बुद्धि को संयुक्त कर ज्ञान ज्योतियों से परमेश्वर को चैतन्य करें। आदित्प्रत्नस्त्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् ।


परो यदिध्यते दिवि ॥ 10 ॥


सूर्य आदि पदार्थों में भी प्रकाशमान अग्नि की सर्वत्र व्याप्त परम ज्योति को योगीजन सहज ही देख लेते हैं।


तृतीय दशती


(ऋषि-प्रयोगो, भरद्वाज, वामदेव, वसिष्ठ, विरूप, शुनःशेप, गोपवन, प्रस्कण्व, मेधातिथि, सिंधुद्वीप, अम्बरीष, त्रित आत्यो


या उशना । देवता- अग्नि । छंद-गायत्री।)


अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम्। अच्छा नप्त्रे सहस्वते ॥ 1 ॥


पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए याज्ञिकों के बंधु, बलशील और ज्वालाओं से प्रवृद्ध अग्नि की शरण में जाओ। हे मनुष्यो ! उसकी स्तुति करो। अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यंसद्विश्वं न्य३त्रिणम् । अग्निर्नो वंसते रयिम् ॥ 2 ॥


अग्नि अपने प्रचण्ड तेज तथा तीक्ष्ण ज्वालाओं से पाप और विघ्नों को दूर करने एवं धन, वैभव प्रदान करने वाला है। अग्ने मृड महां अस्यय आ देवयुंजनम् । इयेथ बर्हिरासदम् ॥ 3 ॥


हे अग्ने ! तू महान है एवं समस्त स्थानों पर स्थित है। तू संपत्तिवान एवं ज्ञानवान मनुष्य को भी सर्व प्रकार से सुखी रखने वाला है। अग्ने रक्षा णो अंहसः प्रति स्व देव रीषतः । तपिष्ठैरजरो दह ॥ 4 ॥ हे अग्ने ! पाप से हमारी रक्षा कर और हमारे हिंसात्मक विचारों को अपने संतापक तेज से भस्म कर ।


अग्ने युंग्क्ष्वा हि ये तपाश्वासो देव साधवः । अरं वहन्त्याशवः ।। 5 ।। हे अग्ने ! तेरे प्रताप से विद्वजन भली-भांति परिचित होते हैं और तेरे द्वारा प्रदान ज्ञान को अपने में समाहित कर लेते हैं। ऐसा ज्ञान सबको अर्पण कर ।


नि त्वा नक्ष्य विश्पते द्यु मंतं धीमहे वयम्। सुवीरमग्न आहुत ॥ 6 ॥ हे अग्ने ! तू उपासना का पात्र और धन का स्वामी है। जो तेरी स्तुति करते हैं, उन्हीं को सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् ।


अपां रेतांसि जिन्वति ॥ 7 ॥ अग्नि जलों के साररूप जंगम जीवों को जीवन देने वाला ईश्वर ही स्वर्ग के महान देवताओं में श्रेष्ठ और पृथ्वी का अधीश्वर है ।


इममूषु त्वमस्माकं स नि गायत्र्यं नव्यांसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥ 8॥


हे अग्ने ! तू विद्वानों को भजन करने योग्य इस वेद का बोध कराता है तथा ऐसे ज्ञान को प्रदान करता है जो प्रतिदिन स्मरण करने योग्य है । तन्त्वा गोपवनो गिरा जनिष्ठदग्ने अंगिरः ।


स पावक श्रुधी हवम् ॥ १ ॥


हे अग्ने! तू सर्वत्र गमनशील है। बुद्धिमान मनुष्य तुझे स्तुति रूप तू वाणी से प्रवृद्ध करते हैं। तू हमारी विनती को श्रवण कर। परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत्।


दधद्रत्नानि दाशुषे ॥ 10 ॥ काव्यादि का कर्त्ता, बलवान, रत्नों आदि से सुशोभित ईश्वर, सभी हव्य पदार्थों में निरंतर गतिशील है।


उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ 11 ॥


प्राणियों के निमित्त सूर्य की किरणें जातवेद सूर्यात्मक अग्नि को प्रदीप्त करती हैं।


कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम् ॥ 12 ॥


हे मनुष्यो! सत्य को धारण करने वाले तथा अज्ञान के निवारक ईश्वर में ध्यान लगाओ। शन्नो देवीरभिष्टये भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥ 13 ॥ हमारे लिए


अग्नि की अलौकिक विभूतियां अभीष्ट की सिद्धि हेतु


कल्याणकारी हों और हम पर सुख की सदा वर्षा करें।


कस्य नूनं परीणसि धियो जिन्वसि सत्पते।


गोषाता यस्य ते गिरः ॥ 14 ॥


हे अग्ने ! तू अज्ञानियों के ज्ञान को पूर्ण करने वाला ऐसे सज्जनों का पालनकर्त्ता है जो वेदवाणियों के भजन से तेरी स्तुति करते हैं ।


चतुर्थ दशती


(ऋषि- शंयुवार्हस्पत्य, भर्ग, वसिष्ठ, प्रस्कण्व, कण्व । देवता - अग्नि । छंद- बृहती ।)


यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे। प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रन्न शंसिषम् ॥ 1 ॥


मित्र की भांति प्रिय, यज्ञों में बढ़ने वाले, अमर और सर्वत्र अग्नि


की स्तुतियों का कीर्तन बल प्राप्त करने वाले मनुष्य करते हैं।


पाहि नो अग्न एकया पाहयू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पार्हि चतसृभिर्वसो ॥ 2 ॥


हे अग्ने! हमारी संपूर्ण रूप से रक्षा कर। तू समस्त वेदवाणियों से युक्त, संपूर्ण ज्ञानों का स्वामी तथा अंतर्यामी है।


बृहद्भिरग्ने अर्चिभिः शुक्रेण देव शोचिषा । भरद्वाजे समिधानो यविष्ठय रेवत् पावक दीदिहि ॥ 3 ॥


हे तेजयुक्त, शुद्धि करने वाले, सर्व गुणों से संपन्न अग्नि ! अपने उज्ज्वल तेज से भरद्वाज के लिए प्रकाशवान होने वाले अत्यंत तेजस्वी और ऐश्वर्यवान होकर हमें भी प्रकाशित कर ।


त्वे अग्ने स्वाहुत प्रियासः सन्तु सूरयः ।


यन्तारो ये मघवानो जनानामूत्रं दयन्त गोनाम् ॥ 4 ॥

हे अग्ने ! जो मनुष्य यज्ञकर्त्ता होते हैं, विद्वानों का सम्मान करते हैं। और गायों की सेवा में तत्पर रहते हैं वो तुझ उपास्य देव की दया के पात्र होते हैं।


अग्ने जिरितविंशपतिस्तपानो देव रक्षसः ।


अप्रोषिवान् गृहपते महां असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥ 5 ॥ हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों का पालनकर्त्ता, संसाररूपी गृह का निर्माता, पापियों को नष्ट करने वाला, लोकों का रक्षक और स्वामी है।


अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा स्वमद्या देवां उषर्बुधः ॥ 6 ॥


हे अग्ने ! तू अविनाशी, व्यापक एवं दर्शनीय है। समस्त प्राणियों को सुख देने वाला, उषाकाल की संचय शक्तियों का प्रदाता तथा मन को चेतना देने वाला है।


त्वन्नश्चित्र ऊत्या वसो राधांसि चोदय ।


अस्य रायस्त्वमग्ने रथीरसि विदा गाधं तुचे तु नः ॥ 7 ॥


हे रोम-रोम में बसने वाले अग्ने ! तू द्रव्यों का अधिपति है, हमें भी द्रव्य प्रदान कर। हे दाता ! हमारी संतान को दिव्य गुणों से अलंकृत कर,


उसे रक्षा-साधन उपलब्ध करा ।


त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातऋतः कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदित आ विवसन्ति वेधसः ॥ 8 ॥


हे अग्ने ! तू समस्त प्राणियों की रक्षा करने वाला, ज्ञान का प्रकाश देने वाला, दुःखों को हरने वाला, सत्यस्वरूप एवं महान है। मेधावीजन स्तुति द्वारा तेरी उपासना करते हैं।


आ नो अग्ने वयोवृधं रयिं पावक शस्यम् ।


रास्वा च न उपमाते पुरूस्पृहं सुनीती सुयशस्तरम् ॥ १॥


हे पवित्र, पापों को नष्ट करने वाले एवं सृष्टि के निर्माता अग्ने ! अपनी श्रेष्ठ नीति के द्वारा सुयशरूप धन हमें प्रदान कर। हमें उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु दे।


यो विश्वा दधते वसु होता मन्द्रो जनानाम्।


मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्वग्नये ॥ 10 ॥

मधुपात्र की भांति धनदाता, परम पूजनीय अग्नि की हम स्तुति करते हैं, ये स्तुति उसे प्राप्त हों।


पंचम दशती


(ऋषि-वसिष्ठ, भर्ग, मनु, सुदीति और पुरुमीढ, प्रस्कण्व, मेधातिथि और मेध्यातिथि, विश्वामित्र, कण्व । देवता- अग्नि, इन्द्र । छंद - बृहती।)


एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमाहुवे ।


प्रियं चेतिष्ठमरतिं स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम् ॥ 1 ॥ समस्त संसार के दुःख-निवारण करने वाले, श्रेष्ठ ज्ञान वाले, संपूर्ण जगत् के स्वामी, प्रिय, बल के पुत्र और रक्षक, अविनाशी अग्नि की है स्तुति करता हूं।


शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते ।


अतन्द्रो हव्य वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥ 2 ॥


हे अग्ने ! तू पृथ्वी, आकाश एवं जलादि सभी स्थानों में स्थित है। प्राणीजन के अंतस् में समाकर तू उनके ज्ञान को रोशन करता है। समस्त दिव्य शक्तियां तेरे कारण ही प्रकाशित हैं और तू ही सबको द्रव्य प्रदान करने वाला है।


अदशिं गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः


॥ 3 ॥ जिस अग्नि के द्वारा बुद्धिमान मनुष्यों ने कर्मों को किया, वो दर्शनीय रूप से प्रकट हुआ। उस सुप्रसिद्ध सदाचारी को उन्नत करने वाले अग्नि को हमारी स्तुति रूप वाणी समर्पित हो ।


अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे । ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पते देवा अवो वरेण्यम् ॥ 4 ॥ ब्रह्माण्ड के पालनहार और संसाररूपी अग्नियज्ञ में ऋत्विजों द्वारा


वेदी में स्थापित हुए अग्नि से रक्षा की मैं विनती करता हूं । अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम् । अग्निं राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निः सुदीतये छर्दिः ॥ 5 ॥


हे मनुष्यो ! अग्नि की शरण में जाओ तथा संपदा की प्राप्ति और स्वयं की रक्षा के लिए उसकी वेदवाणी से स्तुति करो ।


श्रधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवेरग्ने सयावभिः । आ सीदतु बर्हिषी मित्रो अर्यमा प्रातर्यावभिरध्वरे ॥ 6 ॥


हे श्रवण शक्ति से युक्त कर्ण वाले विद्वान मनुष्य! समस्त गतिशील अलौकिक शक्ति का स्वामी परमेश्वर (अग्नि) आकाश में स्थित है। वह नित्य कर्मयुक्त और न्याय का कारक है।


प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥ 7 ॥ पृथ्वी और आकाश में विद्युत की भांति व्याप्त अग्नि स्वर्ग में स्थित


है और मोक्षगामी को सुख का देने वाला है। अधज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥ 8 ॥ परमेश्वर से ज्ञानवान कोई नहीं। वह समस्त लोकों में सर्वत्र व्याप्त


है, वह उत्तम ज्ञान का प्रदाता और उत्पन्न हुए पदार्थों का पालनकर्त्ता है। कायमानो वना त्वं यन्मातृरजगन्नपः ।


न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तनं यद्दूरै सन्निहाभुवः ॥ 9 ॥


हे अग्ने ! तू हमसे दूर होकर भी हमें अत्यंत निकट अनुभव होता है। तू वनों की इच्छा करके भी जगत् का निर्माण करने वाले जलादि द्रव्यों को प्राप्त हुआ है।


नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।


दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो या नमस्यन्ति कृष्टयः ॥ 10 ॥


हे अग्ने ! तू प्रकाशवान है और ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान का प्रकाश तुझ से ही प्राप्त होता है। तू सत्यस्वरूपा है। सत्य एक तू ही है और मनुष्यजन स्तुति कर तुझे नमस्कार करते हैं।



एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

Hi ! you are most welcome for any coment

एक टिप्पणी भेजें (0)