यजुर्वेद क्या है ? What is Yajurveda in hindi?

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यजुर्वेद ( Yajurved) में क्या है ? Yajurved में क्या-क्या है जानिये


यजुर्वेद क्या है ?  What is Yajurveda in hindi? pdf of Yajurveda in Hindi. What is there in the  Hindu mythology book Yajurveda in hindi? Importance of yagna in Yajurveda. यजुर्वेद में मंत्रों का महत्व क्या है ?. यजुर्वेद किसे कहते हैं ?  यजुर्वेद के मंत्र क्या हैं ? Matra in Yajuveda? Yajurveda kya hai? or Yajurveda mein kya-kya hai janiye. 
Yajurveda ke shloka ? यजुर्वेद के सूक्त ? sukt of Yajurveda.  



तमुत्वा पाथ्यो वृषा समीधे दस्यु हन्तमम्। धनंजय रणे रणे ॥ शत्रुओं के विनाशक और प्रत्येक युद्ध में विजय पाने वाले हे शक्तिमान अग्निदेव ! तू धनों को जीतनेवाला है। हम तुझे प्रज्ज्वलित करते हैं। सं वां मनाऽसि संव्रता समुचित्ता न्याकरम्। अग्ने पुरीष्याधिपा भवत्वं नऽइषमूर्जं यजमानाय धेहि ।


हे अग्ने। हम तेरे कार्यों, विचारों और भावनाओं को संयुक्त करते हैं। है पुरीष्य अग्ने ! तू हमारा स्वामी है। अपने यजमान को तू अन्न और शक्ति प्रदान कर । मधुमान्नो वनस्यतिर्मधुमां अस्तु सूर्य्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥


मधुर रसवाली औषधियां हमारे लिए आरोग्य प्रदायक हों। सूर्य हमें माधुय से परिपूर्ण करे और गौ हमें पौष्टिक दुग्ध प्रदान करे !


भूमिका


'यजुर्वेद' कर्म का वेद है। मनुस्मृति की मान्यता है कि यजुर्वेद की रचना वायु नामक ऋषि ने की थी। वायु गतिशीलता का प्रतीक है। कर्म में भी गति की प्रधानता होती है। कोई भी कर्म गति के बिना संभव नहीं है।


इस प्रकार यजुर्वेद में जिन मंत्रों को रखा गया है, वे प्राय: 'कर्मकाण्ड' से ही संबंधित हैं। वैदिककाल में यज्ञ करना ही सबसे बड़ा कर्मकाण्ड था। अतः यजुर्वेद में जो मंत्र संकलित किये गये हैं, वे यज्ञकर्म के ही मंत्र हैं। यजुर्वेद में यज्ञ को ही श्रेष्ठकर्म बताया गया है।


जिस प्रकार 'ऋग्वेद' का पुरोहित 'होता' देवों का आह्वान करता है, उसी प्रकार यजुर्वेद में देवों का आह्वान करने वाला ऋषि अथवा पुरोहित 'अध्वर्यु' नाम से जाना जाता है। यज्ञ के संचालन और यज्ञ से संबंधित विविध क्रिया- व्यापार में 'अध्वर्यु' का विशेष महत्त्व है।


विद्वानों ने 'यजुर्वेद' के विविध अर्थ किये हैं-प्रथम, जिन मंत्रों द्वारा यज्ञकर्म किये जाते हैं, वे यजुर्वेद के मंत्र हैं। दूसरे, अनियमित अक्षरों से समाप्त होने वाले वाक्यों को 'यजुः' कहा जाता है, अर्थात् गद्य शैली में लिखे गये मंत्र यजुर्वेद में आते हैं। इस प्रकार गद्यात्मक मंत्रों का संकलन 'यजुः ' है ।


इसका अर्थ यही है कि 'यजुर्वेद' गद्यात्मक वाक्यों का अथवा मंत्रों का वह संकलन है, जिसके द्वारा यज्ञादि कर्म किये जाते हैं। 'यजुः ' शब्द यज् धातु से बना है। जिसका अर्थ है- देवपूजा, संगति और दान यजुर्वेद में कर्मकाण्ड ही है, अतः इसकी समस्त क्रियाएं एवं गतियां देवपूजा, संगति और दान के अंतर्गत आती हैं। क्रिया और गति का इससे अच्छा कोई वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। ब्राह्मण ग्रंथों में इसे 'यजः' कहा गया है। वहां देवपूजा और कला-कौशल आदि का संगति-करण तथा दान करने से इसे यज: कहा गया है। कहीं इसे यन्+जूः भी कहा गया है, अर्थात् ज्ञान, गमन, प्राप्ति और मोक्ष का समन्वय करते हुए प्रयत्न या क्रिया के कौशल को कराने वाला यन्+जूः होते हुए यह यजुः है।


'ऋग्वेद' में ज्ञान-विज्ञान के प्रायः सभी गुणों को बखान ऋचाओं द्वारा किया गया है। इसमें सभी पदार्थों का विश्लेषण किया गया है जबकि इन पदार्थों के गुणों का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए और उनसे अधिकतम लाभ किस प्रकार उठाना चाहिए, उन सब कर्म साधनों का प्रकाशन 'यजुर्वेद' में किया गया है; क्योंकि जब तक कर्म करने का ढंग न आता हो, उसका यथेष्ठ ज्ञान न हो, तब तक उससे श्रेष्ठ लाभ अथवा सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। सोच-समझकर मंत्रों का उद्घोष करने से और पूर्ण नियमों के साथ यज्ञकर्म करने से ही उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। विवेक द्वारा धर्म और पुरुषार्थ का संयोग करना चाहिए।


सभी यज्ञकर्म वैज्ञानिक रूप से एवं शुद्ध प्रणाली से करने चाहिए। कर्मकाण्ड विज्ञान के निमित्त ही किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक रीति से कर्मकाण्ड करने पर उत्तम और मनोवांछित फल और शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है।


ऐसा कोई जीव नहीं है जो मन, प्राण, वायु और इंद्रियों के साथ-साथ शरीर को गति दिये बिना ही कर्मफल प्राप्त कर सके। जीव अल्पज्ञ होते हुए भी बुद्धि से चेतन है। इसलिए 'ऋग्वेद' में पदार्थों के गुणों-अवगुणों का जो उल्लेख प्राप्त होता है, उसे 'यजुर्वेद' में क्रिया द्वारा जीवन में उतारने की प्रेरणा दी गयी है। 'ऋ' और 'यजुः' शब्दों का अर्थ भी यही है। भाव यही है कि ईश्वरीय पदार्थ- ज्ञान को विद्वानों की संगति से, व्यावहारिक रूप से जन-जीवन में उतारा जाए, उन्हें जाना- समझा जाए।


सर्व जनकल्याण के लिए ईश्वरीय ज्ञान-विज्ञान को जब योग्यतम कर्मों के द्वारा प्रसारित करने की क्रिया की जाती है, तब उसे 'यजुर्वेद' नाम दिया जाता है।


'यजुर्वेद' में चालीस अध्याय हैं। इन चालीस अध्यायों में सब मिलाकर एक हज़ार नौ सौ पचहत्तर (1,975) मंत्र हैं। ये मंत्र जीवन की व्यापक गति को चिह्नित करते हैं। मानव-जीवन का विशद् स्वरूप इन मंत्रों में ध्वनित होता है।


कुछ विद्वान् इन्हें 'ब्राह्मण ग्रंथों' तथा 'श्रौत सूत्रों' में दिये गये विविध नामों वाले यज्ञों में की गई विभिन्न क्रियाओं वाले मंत्रों या यजुओं का संग्रह मानते हैं। उनका कहना है कि अमावस्या, पौर्णमास तथा अग्निहोत्र संबंधी मंत्रों का संकलन 'यजुर्वेद' में है, परंतु केवल इतना ही नहीं है। यहां और भी बहुत कुछ है।


यजुर्वेद का वर्गीकरण यजुर्वेद के दो प्रमुख वर्ग किये जाते हैं-'शुक्ल यजुर्वेद' और 'कृष्ण यजुर्वेद'। 'शुक्ल यजुर्वेद' की दो शाखाएं हैं-'माध्यन्दिन' और 'काण्व'। 'कृष्ण यजुर्वेद' की चार शाखाएं हैं— 'तैत्तिरीय, "मैत्रायणी, “काठक' और 'कपिष्ठलकठ' ।


'शुक्ल यजुर्वेद' और 'कृष्ण यजुर्वेद' के अन्तर को समझने के लिए इनके स्वरूप को समझना आवश्यक है। यह वेद दो सम्प्रदायों में बंटा हुआ है-'ब्रह्म सम्प्रदाय' और ‘आदित्य सम्प्रदाय'। ब्रह्म सम्प्रदाय का संबंध 'कृष्ण यजुर्वेद' से है जबकि आदित्य सम्प्रदाय का संबंध 'शुक्ल यजुर्वेद' से है।


'शुक्ल यजुर्वेद' में 'अमावस्या,' 'पूर्णिमा' और अग्निहोत्र के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के मंत्रों का संग्रह है और 'कृष्ण यजुर्वेद' में विधि वाक्यों, आख्यान तथा मंत्रों का मिश्रित स्वरूप उपलब्ध होता है।


'शुक्ल' का अर्थ है 'श्वेत,' अर्थात् शुद्ध और पवित्र मंत्रों का संकलन। 'कृष्ण' का अर्थ है 'काला' अर्थात् अशुद्ध मंत्रों का संग्रह, परंतु यहां काला से अशुद्ध मंत्रों का अर्थ करना भारी भूल होगी। यहां मंत्रों के साथ ब्राह्मण अंश, अर्थात् विधि-वाक्यों, आख्यान आदि का मिश्रण मानना चाहिए।


'शुक्ल यजुर्वेद' में जो मंत्र दिए गए हैं, उनकी व्याख्याएं और उनके प्रयोग की विधि, अर्थात् उन्हें प्रस्तुत करने का ढंग नहीं समझाया गया है। जबकि 'कृष्ण यजुर्वेद' में मंत्रों के साथ उनकी व्याख्या और प्रयोग विधि को भी बताया गया है। 'शुक्ल यजुर्वेद' विषय की दृष्टि से शुद्ध, पवित्र और निर्मल है, जबकि 'कृष्ण यजुर्वेद' में गद्य-पद्य और ब्राह्मणों मंत्रों के मिश्रण से मंत्रों को समझने में


थोड़ी कठिनाई आती है। 'शुक्ल यजुर्वेद' के मंत्रों का प्रचलन उत्तर भारत में अधिक पाया जाता है और 'कृष्ण यजुर्वेद' का दक्षिण में।


शुक्ल यजुर्वेद की विषयवस्तु


'शुक्ल यजुर्वेद' में चालीस अध्याय हैं, परंतु अनेक विद्वान् इसके प्रथम पच्चीस अध्यायों को ही मौलिक मानते हैं। बाद के अध्यायों को प्रक्षिप्त माना जाता है, अर्थात् ये अध्याय बाद में जोड़े गये प्रतीत होते हैं। कुछ विद्वान् यजुर्वेद के प्रथम अट्ठारह अध्यायों को ही मौलिक मानते हैं; क्योंकि बाद के अध्यायों में गद्य पद्य मिश्रित मंत्र बहुतायत से हैं, जो कि 'शुक्ल यजुर्वेद' की मंत्र-विधा से बिल्कुल अलग हैं।


यजुर्वेद में कर्म का विशेष महत्त्व है। इस कर्म में ही 'यज्ञ' आता है, परंतु कहीं-कहीं प्रसंगवश इसमें कुछ ऐसे मंत्र भी हैं, जिनके द्वारा मनोविज्ञान, अध्यात्मदर्शन और पर्यावरण आदि पर प्रकाश पड़ता है।


सामान्य रूप से जिस 'यजुर्वेद' का उल्लेख मिलता है, उसमें 'कण्व' और 'माध्यन्दिनीय' शाखाओं का विवेचन है।


'यजुर्वेद' के प्रथम तीन अध्यायों में, अमावस्या (दर्श), पौर्णमास, अग्निहोत्र (सायंकालीन) तथा चतुर्मास से सम्बन्धित मंत्र मिलते हैं। इन प्रथम तीन अध्यायों में (31+34+63 = 128) कुल एक सौ अट्ठाईस मंत्र हैं।


प्रथम अध्याय के प्रथम मंत्र में ही उत्तम उत्तम कार्यों की सिद्धि के लिए मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना करने की प्रेरणा दी गयी है-


'ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा स्तेनऽईशत माधश छं सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि ।'


अर्थात् विद्वान् व्यक्तियों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय कृपा से ऋग्वेद पढ़कर और उसके गुणों को समझकर सभी पदार्थों के प्रयोग से, पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए अत्यंत उत्तम कर्मों को करना चाहिए, ताकि परमेश्वर की से सभी मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य प्राप्त हो।


सब लोगों को चाहिए कि वे अपने सत्कर्मों द्वारा मानव-जाति की रक्षा करें और उत्तम गुणों के लिए अपने पुत्रों की शिक्षा का प्रबंध करें, ताकि सभी प्रकार के रोगों और प्रबल विघ्न-बाधाओं से मानव-जीवन तथा पुत्रों की रक्षा हो सके और सुख-समृद्धि प्राप्त की जा सके। हे लोगो! आओ, हम सब मिलकर उस परमपिता परमात्मा को धन्यवाद दें, उसकी उपासना करें, जिसने हमारे लिए आश्चर्यजनक पदार्थों की रचना की है।


वह ईश्वर परम दयालु है। वह अपनी कृपा से श्रेष्ठकर्मों को करते हुए हमारी सदैव रक्षा करता है। इस प्रकार यजुर्वेद में उस परमपिता की उपासना इसलिए की जाती है। क्योंकि वह हमारी रक्षा करता है, हमें सुख-समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करता है।


मनुष्य अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ को करते हैं, उससे पवित्रता का प्रकाश प्राप्त होता है, पृथ्वी का राज-सुख मिलता है, वायु के रूप में प्राणवायु प्राप्त होती है, यश और सभी की रक्षा की प्रेरणा मिलती है, लोक-परलोक में सुखों की वृद्धि होती है, कुटिलता का त्याग करने का उत्साह प्राप्त होता है और हृदय में श्रेष्ठतम गुणों को ग्रहण करने की आस्था उत्पन्न होती है। अतः सभी मनुष्यों के सुख के लिए प्रेमपूर्वक सदैव यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।


परमेश्वर ने तीन प्रकार की वाणियों का उल्लेख किया है-


सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वद्यायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग सोमेना तनच्मि विष्णो हव्य थं रक्ष ॥


(यजुर्वेद 1/4)


अर्थात् प्रथम वह वाणी, जो ब्रह्मचर्य के समय पूर्ण विद्याध्ययन और पूर्ण आयु की कामना के लिए बोली जाती है, दूसरी वह, जो गृहस्थाश्रम में अनेकानेक क्रियाओं तथा उद्योगों में सुख पाने के लिए बोली जाती है और तीसरी वह, जो इस संसार में सब प्राणियों के शरीर और आत्मा को सुख देने के लिए, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में निवास करते हुए ईश्वरोपासना के लिए बोली जाती है।


ऋषियों का कहना है कि इन तीन प्रकार को वाणी के बिना कैसा भी मुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस वाणी से ईश्वर की उपासना के लिए यज्ञ करना चाहिए। धार्मिक और परोपकारी मनुष्य वे हैं, जो ईश्वर को और धर्म को जानकर 'मोक्ष' के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।


जो ईश्वर सारे जगत् को धारण कर रहा है, वह पापी और दुष्ट जीवों को उनके कर्मानुसार दण्ड देता है और धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम फल प्रदान करता है। मनुष्य को चाहिए कि वह पारस्परिक कुटिलता त्याग कर एक दूसरे से प्रीति रखे और उनके सुख-दुःख में साथ रहे। परमेश्वर 'अच्छी संगति' की शिक्षा और विद्वानों का आश्रय प्राप्त करने की प्रेरणा देता है; क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति ही ईश्वर के सच्चिदानंद स्वरूप को पहचान पाता है।


जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों द्वारा 'यज्ञकर्म' करता है, वह यज्ञ के धुएं की सुगंध से वायु और वृष्टि के जल में सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर दिव्य सुखों को उत्पन्न करने वाला होता है। यज्ञ से शुद्ध किये अन्न, जल और पवन से सभी की शुद्धि होती है और उन्हें बल, पराक्रम, बुद्धि तथा दीर्घायु प्राप्त होती है। अतः मनुष्य को यज्ञकर्म नित्य करना चाहिए।


यजुर्वेद के विभिन्न अध्यायों में जिन विषयों पर प्रकाश डाला गया है, उनका ब्यौरा इस प्रकार है।


प्रथम अध्याय : ईश्वर द्वारा मनुष्यों को शुद्ध कर्मों के अनुष्ठान की प्रेरणा 'देना, 'दोषों का त्याग' करने का उपदेश और 'आत्म शुद्धि' के लिए यज्ञ करने तथा परोपकार की शिक्षा।


दूसरा अध्याय यज्ञ के साधनों का उल्लेख वेदी कैसी बनानी चाहिए, यज्ञ में कौन-कौन सामग्री उपयोग में लानी चाहिए, अग्नि के प्रकाश से आत्मा और इंद्रियों की शुद्धि, सुखों का भोग, पुरुषार्थसंधान, शत्रु विनाश, द्वेष का त्याग, ईश्वर में प्रीति, श्रेष्ठ गुणों का विस्तार, सत्य आचरण, प्राणिमात्र से प्रीति आदि का विधान।


तीसरा अध्याय : अग्निहोत्र यज्ञ और अग्नि के स्वभाव और अर्थ का वर्णन, पृथ्वी के भ्रमण का लक्षण, ईश्वर के स्वभाव का प्रतिपादन, सूर्य किरणों के कार्य का वर्णन, 'गायत्री मंत्र' के अर्थ का विश्लेषण, गृहस्थाश्रम के आवश्यक अनुष्ठानों का वर्णन, पापों से निवृत्ति का वर्णन, 'रुद्र' रूप का 'महामृत्युंजय मंत्र' द्वारा वर्णन, धर्म द्वारा आयु-ग्रहण का वर्णन।


इसी के साथ 'गायत्री मंत्र' में जगत् को उत्पन्न करने वाले, सर्वोत्तम, संपूर्ण दोषों को नष्ट करने वाले, अत्यंत शुद्ध परमेश्वर की उपासना करने की प्रेरणा और

'रुद्र' रूप का वर्णन अकाल मृत्यु न होने की प्रार्थना । चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक सोमयाग, वाजपेय एवं राजसूय नामक यज्ञों के मंत्रों का संग्रह है।


चौथा अध्याय: शिल्पविद्या, वर्षा की पवित्रता, विद्वानों की संगति, यज्ञ का अनुष्ठान, उत्साह की प्राप्ति, युद्ध-संचालन, यज्ञ के गुण, सत्यव्रत का धारण, अग्नि जल के गुण, पुनर्जन्म कथन, ईश्वर-प्रार्थना, यज्ञानुष्ठान, माता-पिता और सन्तान के लक्षण, दिव्य बुद्धि की साधना, पदार्थों का क्रय-विक्रय, सूर्य-गुण, मित्रता धर्म-प्रचार, चोरी के परिणाम आदि का वर्णन ।


पांचवां अध्याय : यज्ञ का अनुष्ठान, उसका स्वरूप, अग्नि द्वारा यज्ञ को सिद्धि, विद्वानों की संगति, विद्या प्राप्ति, योगाभ्यास के लक्षण, सृष्टि की उत्पत्ति प्राण अपान क्रिया का निरूपण, शूरवीरों के गुण, मोक्ष की प्राप्ति, बुरी संगति से छूटने के उपाय आदि की चर्चा ।


छठा अध्याय : राजा और राज्य कृत्य, प्रजा और राजा के पारस्परिक संबंध विष्णु का परमपद, गुरु शिष्य संबंध, विद्वानों के लक्षण, यज्ञ-अनुष्ठान, ईश्वर- प्रार्थना, योद्धा का वर्णन, दोष निवृत्ति, स्त्री-पुरुष व्यवहार, माता-पिता और संतानों के कर्तव्य आदि का उल्लेख।


सातवां अध्याय : मनुष्यों के पास्परिक व्यवहार, आत्मा के कर्म, मन और आत्मा का संबंध, सिद्ध योगी एवं योग के लक्षण, गुरु-शिष्य व्यवहार, स्वामी- सेवक व्यवहार, न्यायाधीश द्वारा प्रजा की रक्षा, राजपुरुष और सभासदों के कर्म, राजा का उपदेश, राजाओं के कर्तव्य, सेनापति की परीक्षा, राजा और प्रजाजन का सत्कार, राजा के कर्तव्य, सेनापति के कर्म, सैनिक का कर्तव्य, ब्रह्मचर्य सेवन की रीति, ईश्वर और जीव आदि के पारस्परिक संबंध।


आठवा अध्याय गृहस्थ धर्म के सेवन के लिए ब्रह्मचारिणी कन्या का ब्रह्मचारी कुमार युवक द्वारा ग्रहण गृहस्थ धर्म राजा, प्रजा, सभापति आदि के कर्तव्यों का विशद् वर्णन ।


नवां अध्याय : राजधर्म का वर्णन। 


दसवां अध्याय : राजा प्रजा के धर्म का।


ग्यारहवें अध्याय से अट्ठारहवें अध्याय तक होमाग्नि के लिए वेदी-निर्माण का वर्णन बहुत विस्तार के साथ किया गया है। इस प्रक्रिया को 'अग्नि-चयन' कहा जाता है। वेदी की रचना में दस हज़ार आठ सौ (10,800) इटै लगती हैं। इन्हें विशेष मिट्टी और आकार से बनाया जाता है। वेदी की आकृति पंख फैलाये पक्षी के समान बनाई जाती है।

इसके अलावा-


ग्यारहवां अध्याय : गृहस्थ, राजा, पुरोहित, सभा, सेना के अध्यक्ष और प्रजा द्वारा किए जाने योग्य कर्मों का वर्णन। बारहवां अध्याय: स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, खेती और पठन-पाठन आदि के


कर्मों का वर्णन मन और वाणी पर नियंत्रण उपदेश । तेरहवां अध्याय ईश्वर, स्त्री-पुरुष और व्यवहारकुशलता का वर्णन । चौदहवा अध्याय : वसंत आदि ऋतुओं का सौंदर्य तथा उसके गुणों का वर्णन।


पंद्रहवां अध्याय : वायु, जीवन, ईश्वर और वीर पुरुषों का गुणगान ।


सोलहवां अध्याय: भगवान रुद्र की स्तुति एवं उसके गुणों का वर्णन !


रुद्राभिषेक में विशेष रूप से इन मंत्रों का प्रयोग होता है। सत्रहवां अध्याय: सूर्य, मेघ, गृहस्थाश्रम और गणित विद्या तथा ईश्वर द्वारा प्रदत्त पदार्थ विद्या की विवेचना।


अट्ठारहवां अध्याय: गणित विद्या, राजा प्रजा, अध्यापक और शिष्य आदि के गुण-कर्म कहे गये हैं। उन्नीसवां अध्याय : सोम आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन।


बीसवां अध्याय : राजा प्रजा, धर्म के विविध अंग, प्रजापालक के गुण,


अभयदान, परस्पर विचार-विमर्श और सम्मति आदि का महत्त्व, स्त्रियों के गुण


एवं धन आदि पदार्थों की श्रीवृद्धि का विवेचन ।


इक्कीसवां अध्याय : वरुण, अग्नि, विद्वान्, राजा, प्रजा, शिल्प, वाणी, घर, अश्विन (वैद्य) आदि शब्दों का अर्थ और ऋतु तथा 'होता' के गुणों का वर्णन । बाईसवां अध्याय : आयु, वृद्धि, अग्नि के गुण, कर्म, यज्ञ, 'गायत्री मंत्र' और सब पदार्थों के शोधन का वर्णन ।


तेईसवां अध्याय : परमात्मा की महिमा, सृष्टि के गुण, योग की प्रशंसा, प्रश्नोत्तर, राजा के गुण, शास्त्रों का उपदेश, पठन-पाठन, स्त्री-पुरुषों के पारस्परिक गुण, ईश्वर के गुण, यज्ञ की व्याख्या और रेखा गणित आदि का विवेचन ।


चौबीसवां अध्याय : पशु-पक्षी, रेंगने वाले सर्प आदि, वन्य पशु-मृग, जल में रहने वाले प्राणी और कीड़े-मकोड़े आदि के गुणों का वर्णन, परमात्मा ही समस्त जीवों का कारण रूप है और दुख-सुख सभी को समान रूप से होता है आदि सिद्धांतों का सुंदर विश्लेषण ।


पच्चीसवां अध्याय : संसार के पदार्थों के गुणों, का वर्णन, पशुओं का पालन, अपने शरीर के अंगों की रक्षा, ईश्वर की प्रार्थना, यज्ञ की प्रशंसा, बुद्धि और ज्ञान को बांटना, धर्म की इच्छा, अश्वों के गुण और उसकी गति बताना, आत्मा का ज्ञान और धन प्राप्ति का विधान आदि ।


: पुरुषार्थ का फल, वेद पढ़ने और सुनने का अधिकार, परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् और सत्य का निरूपण, अग्नि आदि पदार्थ, यज्ञ, सुन्दर घरों को निर्मित करने का शिल्प तथा उत्तम स्थान का चयन आदि।


सत्ताईसवां अध्याय: सत्य की प्रशंसा, उत्तम गुणों को प्राप्त करना, राज्य का संवर्धन, अनिष्ट की निवृत्ति, आयुवृद्धि, मित्र का विश्वास, सर्वत्र यश का विस्तार, ऐश्वर्य की श्रीवृद्धि, अल्प मृत्यु का निवारण, शुद्धीकरण करना, सुकम का अनुष्ठान, यज्ञविधान, अत्यधिक धन की प्राप्ति, स्वामी स्वभाव का प्रदर्शन, मधुर वाणी को धारण करना, सद्गुणों की कामना, अग्नि की प्रशंसा, विद्या और धन की अभिवृद्धि, वायु के गुण, ईश्वर के गुण, शूरवीरों के कृत्य, मित्र की रक्षा, विद्वानों का आश्रय, आत्मा का उद्बोधन, ब्रह्मचर्यपालन, संतुलित आहार-विहार आदि का वर्णन ।


अट्ठाईसवां अध्याय : ‘होता' के गुणों का, वाणी का और अश्वियों के गुण का वर्णन, होता के कर्तव्य, यज्ञ की व्याख्या और विद्वानों की विस्तार प्रशंसा।


उनतीसवां अध्याय : अग्नि, विद्वान्, घर, प्राण-अपान, अध्यापक, उपदेशक, वाणी, अश्व, प्रशस्त पदार्थ, द्वार, रात्रि, दिन, शिल्प- शिल्पी शोभा, अस्त्र-शस्त्र, सेना, ज्ञानियों की रक्षा, सृष्टि का उपकार, विघ्ननिवारण, शत्रुसेना की पराजय, अपनी सेना की संगति और सुरक्षा, पशुओं के गुण और यज्ञों का निरूपण ।


तीसवां अध्याय : परमेश्वर के स्वरूप और राजा का वर्णन, ईश्वर के स्वरूप के संदर्भ में 'गायत्री महामंत्र' का उल्लेख यहां भी हुआ है और अपने दुष्कर्मों को दूर करके शुभ और शुद्ध आचरणों को प्राप्त करने के लिए परमात्मा से प्रार्थना ।


इकतीसवां अध्याय : ईश्वर, सृष्टि और राजा के गुणों का विवेचन । बत्तीसवां अध्याय : परमेश्वर, विद्वान्, बुद्धि तथा धन-प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की गई है।


तेंतीसवां अध्याय : अग्नि, प्राण, उदान (सांस), दिन-रात, सूर्य, राजा, ऐश्वर्य, उत्तम यान, विद्वान्, लक्ष्मी, वैश्वानर, ईश्वर, इन्द्र, बुद्धि, वरुण, अश्वि, अन्न, राजा प्रजा, परीक्षक, वायु आदि के गुणों का वर्णन ।


चौंतीसवां अध्याय : मन का लक्षण, शिक्षा, विद्या की इच्छा, विद्वानों की संगति, कन्याओं का प्रबोध, चेतनता, विद्वानों का लक्षण, रक्षा की प्रार्थना, बल तथा ऐश्वर्य की इच्छा, सोम औषधि का लक्षण, शुभ कर्मों की इच्छा, परमेश्वर और सूर्य का वर्णन, प्रातः काल का उठना, पुरुषार्थ द्वारा ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करना, ईश्वर द्वारा जगत् की रचना, महाराजाओं का स्वरूप, अश्वि के गुण, आयु का बढ़ना, प्राणों के लक्षण और ईश्वर के कर्तव्यों का विवेचन।


पैंतीसवां अध्याय : व्यवहार, जीव की गति, जन्म-मरण, सत्य, आशीर्वाद, अग्नि और सत्य इच्छा आदि का वर्णन।


छत्तीसवां अध्याय: परमेश्वर की प्रार्थना, सभी के सुख की कामना, परस्पर मैत्री भाव, दिनचर्या की शुद्धता, धर्म के लक्षण, परमात्मा के प्रति आस्था आदि का उल्लेख।


सैंतीसवां अध्याय : ईश्वर, योगी, सूर्य, पृथ्वी, यज्ञ, सन्मार्ग, स्त्री, पति और पिता के तुल्य परमेश्वर का वर्णन, साथ ही दिन-प्रतिदिन जीवन में किये जाने वाले आहार-विहार का अनुष्ठान।


अड़तीसवां अध्याय: सृष्टि में व्याप्त शुभगुणों का ग्रहण, अपना और दूसरों का पोषण, यज्ञ द्वारा जगत् के पदार्थों का शोधन, सर्वत्र सुख प्राप्ति के साधन, धर्म का अनुष्ठान, स्वस्थ शरीर की श्रीवृद्धि, ईश्वरीय गुण, बल-वृद्धि और सुख भोग आदि का उल्लेख।


उनतालीसवां अध्याय मनुष्य की मृत्यु के उपरांत 'अन्त्येष्टि कर्म' करना, मृत शोक नहीं करना आदि उपदेश ।


चालीसवां अध्याय : ईश्वर के गुणों का वर्णन, अधर्म का त्याग, सत्कर्मी का महत्त्व, अधर्माचरण की निंदा, परमेश्वर का सूक्ष्म रूप, विद्वान और मूर्ख को समझना, अहिंसा को जानना, मोह शोक आदि का त्याग, ईश्वर को जन्मादि दीपों से दूर मानना, वेद-विद्या का उपदेश, नश्वर जगत् को जरूप समझना, मोक्ष की सिद्धि, चैतन्य शक्ति की उपासना, जड़-चेतन की समझना, शरीर के स्वभाव की जानना, समाधि से परमेश्वर को पाना, आत्मा का शरीर त्याग, शरीर दाह के उपरान्त अन्य क्रियाओं के अनुष्ठान का निषेध, अधर्म का त्याग, धर्म के लिए परमात्मा की स्तुति, 'ओ३म्' की महत्ता का प्रतिपादन ।


कृष्ण यजुर्वेद की विषयवस्तु


'कृष्ण यजुर्वेद' की चार शाखाएं तैत्तिरीय, ' 'मैत्रायणी, 'काठक' और 'कपिष्ठलकठ' उपलब्ध होती हैं। इनमें तैत्तिरीय शाखा पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। इस संहिता में सात काण्ड हैं, जो 631 अनुवाकों में घंटे हैं। 'शुक्ल यजुर्वेद' की भांति इस संहिता का मुख्य विषय भी 'कर्मकाण्ड' ही है।


पहला काण्ड : 'दर्श' (अमावस्या) और पूर्णमास (पूर्णिमा) के यज्ञों का वर्णन तथा अग्निष्टोम, वाजपेय और राजसूय यज्ञों के मंत्रों का संकलन और इनकी विधि ।


दूसरा काण्ड : विभिन्न उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले पशु-विधान का वर्णन संतति, विजय, शौर्य आदि कामनाओं के साथ ही अन्न-विधान, भूति, ब्रह्मवर्चस्, ग्राम, शत्रु- विजय, उन्नति तथा स्वर्ग आदि की इच्छाओं की अभिव्यक्ति।


तीसरा काण्ड : सोमयाग का विस्तृत वर्णन के साथ जय-विजय और राष्ट्रकार्य से सम्बन्धित विविध मंत्र है। चौथा काण्ड : वेद कैसे बने ? यज्ञ में अग्नि का क्या महत्त्व है?


अग्निचयन कैसे किया जाए? जैसे प्रश्नों का समाधान और 'अश्वमेध यज्ञ' का


विधान और इसकी प्रारंभिक क्रियाओं का सांगोपांग वर्णन । पांचवां काण्ड : यज्ञ वेदी की मिट्टी से प्रारम्भ होकर 'अश्वमेध यज्ञ' को विस्तृत व्यवस्था ।


छठा काण्ड : यजमान की दीक्षा, यज्ञभूमि का चयन, विभिन्न यज्ञपात्रों तथा


दक्षिणा आदि ।


सातवां काण्ड : ‘ज्योतिष्टोम' होम और अश्वमेध यज्ञ की क्रियाओं का विस्तृत वर्णन।


यजुर्वेद के संबंध में एक प्रसंग अत्यंत प्रचलित है— महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने मामा वैशम्पायन से यजुर्वेद की शिक्षा ली थी। बाद में किसी कारणवश गुरु- शिष्य में मन-मुटाव हो गया, तो गुरु ने अपनी दी हुई शिक्षा अपने शिष्य से वापस मांगी। इस पर शिष्य ने वह सारा ज्ञान वमन कर दिया। तब गुरु की आज्ञा से अन्य शिष्यों ने तीतर बनकर उस वमन को खा लिया। इसी कारण यजुर्वेद कृष्ण शाखा का नाम 'तैत्तरीय' पड़ गया। कथाओं के माध्यम से इस तरह के प्रतीकों को आज समझने की आवश्यकता है। यह ऋषियों की अपनी एक विशिष्ट शैली रही है। इससे यह संकेत भी मिलता है कि ऋषि जहां स्मरण की सूक्ष्म विधियों को जानते थे, वहीं वे यह भी जानते थे कि मन की गहराई में पड़े सूक्ष्म संस्कार की रेखाओं को कैसे मिटाया जा सकता है।


यजुर्वेद का महत्त्व (Importance of Yajurveda)


प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से 'शुक्ल यजुर्वेद' के मंत्रों की प्रधानता है। यजुर्वेद में ‘वैदिक कर्मकाण्ड' का विस्तृत विवेचन किया गया है। वैदिक कर्मकाण्ड का पूरा इतिहास उसमें सिमटा हुआ है। जीव के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि संस्कार तक के सभी कर्मकाण्ड यजुर्वेद में समाहित हैं।


'यज्ञ' की दृष्टि से यजुर्वेद अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें यज्ञ से संबंधित सम्पूर्ण विधि-विधान विस्तार के साथ बताए गए हैं। सभी क्रियाओं का उल्लेख सविस्तार किया गया है। हमारी परम्पराएं, धार्मिक क्रियाएं तथा सभी सामाजिक अनुष्ठानों की व्याख्या पूरी रीति-नीति के साथ यजुर्वेद में बताई गयी है।


यहां यज्ञ के विविध प्रकारों का उल्लेख, मनुष्य के हित को सामने रखकर किया गया है।‘अश्वमेध,' 'नरमेध, ' 'सर्वमेध' आदि शब्दों की विस्तृत व्याख्या भी इसमें दी गई है। इन्हें इन शब्दों का आध्यात्मिक अर्थ भी कहा जा सकता है

जैसे कि-इन मंत्रों में प्रयुक्त 'मेघ' का तात्पर्य 'हित' से है, न कि 'बलि' से। 'शुक्ल यजुर्वेद' में जहां मंत्र पद्यात्मक शैली में हैं, वहां 'कृष्ण यजुर्वेद' में मंत्रों की प्रस्तुति गद्य शैली में की गई है। जैसे 'इंद्राय स्वाहा', या ' अग्नये स्वाहा'। ये मंत्र अत्यंत सरल हैं।


यजुर्वेद के देवता


कर्मकाण्ड की परंपराओं के अनुसार, यजुर्वेद में देवगणों का स्वरूप ऋग्वेद के देवताओं से अलग है। जैसे ऋग्वेद में 'प्रजापति, रुद्र, "विष्णु' आदि देवताओं " का इतना महत्त्व नहीं है, जितना यजुर्वेद में है। ऋऋग्वेद के 'रुद्र' को यहां 'शिव' 'शंकर, "महादेव' आदि नामों से पुकारा जाने लगा। 'शिव' कल्याण का देवता है। 'शंकर' जलाशय का देवता है और महादेव तो सभी देवताओं में उत्तम और शक्तिशाली हैं, तभी तो उन्हें देवाधिदेव महादेव के नाम से पुकारा जाता है। इसी प्रकार 'विष्णु' का महत्त्व भी यहां अधिक हो गया। उसे यहां यज्ञ का 'हविष्य' दिया जाने लगा है।


ऋग्वेद में 'असुर' को शक्तिशाली देव माना जाता है, परंतु यजुर्वेद तक आते-जाते वह दुरात्मा राक्षस के रूप में परिवर्तित हो गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद में' नागपूजा' कहीं नहीं है, किन्तु यजुर्वेद में नाग भी देवता बन गया है। वहां यज्ञ देवता के अनुग्रह के लिए किया जाता था, परंतु यजुर्वेद में यज्ञ का स्थान ही सर्वोपरि हो गया है।


यजुर्वेद में ईश्वरीय शक्ति को अलग-अलग समय पर अलग अलग नामों से पुकारा जाने लगा था, जबकि ऋग्वेद में एक ही सत्य को विविध नामों से पुकारा जाता था। यहां कुछ विशिष्ट देवता अधिकाधिक विशेषणों और नामों से पुकारे जाने लगे हैं, जैसे 'शिव सहस्रनाम,' 'विष्णु सहस्रनाम' आदि द्वारा उनके नामों का स्तुतिगान किया जाने लगा था।


यजुर्वेद में जिन देवताओं की स्तुति की जाती है, उनके प्रार्थना मंत्र सरल हैं। यहां देवता का नाम लेना पर्याप्त है और उसके नाम के साथ ही आहुति दी जाती है।


यजुर्वेद में मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का विवेचन सरलता से किया गया है। जीवन का उदात्त पक्ष यहां सुन्दरता से चित्रित किया गया है। मित्र के प्रति 'प्रेम, "विश्व- बन्धुत्व' की भावना तथा सभी के प्रति 'परोपकार' की कामना का उल्लेख यहां पर पूरी उदारता के साथ किया गया है।


यहां जीवन को कर्मक्षेत्र मानकर 'सौ वर्ष तक जीने की इच्छा' की गयी है। और समस्त विघ्न-बाधाओं में सुख तथा शान्ति को मांगा गया है। शान्ति ही मानो उनका लक्ष्य था।



यजुर्वेद :- 


यजुर्वेद ( Yajurveda) प्रथम अध्याय संस्कृत श्लोक के हिंदी अर्थ

Yajurveda Sankrit shloka ke hindi arth.

The first chapter of Yajurveda in Hindi. meaning of Shloka in Yajurveda in Hindi.

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अथ प्रथमोऽध्यायः


(ऋषि-परमेष्ठी, प्रजापति । देवता-सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, अप्सवितारौ, इन्द्र, वायु, द्यौविद्युतौ । छन्द- बृहती, उष्णिक्, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप्, पंक्ति, गायत्री।)


ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमायकर्मणऽ आप्यायध्वमध्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीर- नमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेनऽईशत माघश सोध्रुवाऽअस्मिन् गौपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि ॥ 1 ॥


हे शाखे ! रस और बल प्राप्त करने के लिए हम तुझे स्वच्छ करते हैं। तथा पलाश यज्ञ की फल रूप जो वृष्टि है, उसके निमित्त हम तुझे ग्रहण करते हैं। हे गोवत्सो! तुम खेल-स्थल में हो, अतः माता से अलग होकर दूर देश में द्रुतगति से जाओ। वायु देवता तुम्हारी रक्षा करने वाले हों। हे गौओ! ज्योतिर्मान परमात्मा तुम्हें श्रेष्ठ यज्ञ-कर्म के निमित्त तृण गोचर भूमि प्राप्त कराए, जो प्रेरणादायक और दिव्य-गुण संपन्न है। हे अहिंसक गौओ! निर्लेप मन से और निर्भय होकर तुम तृण रूप अन्न का सेवन करती हुई इन्द्र के निमित्त भाग रूप दुग्ध को सब प्रकार से वर्द्धित करो। रोगरहिता, अपत्यवती! तुम इस यजमान के आश्रय में रहो। कोई चोर आदि दुष्ट तुम्हें हिंसित न करे। उच्च स्थान पर अवस्थित होती हुई हे शाखे ! तू सब पशुओं की रक्षा करने वाली रहो। 


वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मो ऽसि विश्वधाऽ असि। परमेण धाम्ना दृहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिर्द्धार्षीत् ।। 2 ।।


हे दर्भमय, पवित्रे! तू इन्द्र के कामनायुक्त दुग्ध का शुद्धिकरण कार्य वाली है । तू इस स्थान पर रह । हे दुग्ध के पात्र ! तू वर्षा प्रदान करने वाल प्राप्ति में सहायक होता है। तू मिट्टी से बना है, अतः पृथ्वी ही हैं। हे मृत्तिका पात्र ! वायु का तू संचरण स्थल है तथा हवि के धारण करने में त्रैलोक्य रूप है। अपने दुग्ध धारण वाले तेज से युक्त हो। यदि तू टेढ़ा- मेढ़ा हुआ तो अनेक विघ्न उत्पन्न हो जाएंगे, अतः यथास्थित ही रहना।


वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्त्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः ॥ 3 ॥


दुग्ध को शोधित करने वाले हे पवित्र छन्ने ! इस हांडी पर सहस्र धार वाले दुग्ध को क्षरित कर। सैकड़ों धार वाले छन्ने द्वारा शुद्ध हुआ दुग्ध परमात्मा पवित्र करे। दुग्ध का दोहन करने वाले हे पुरुष ! इन गौओं में से तूने किस गौ को दुहा है।


सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग सोमेनातनच्मि विष्णो हव्यर्थ रक्ष ॥ 4 ॥


हमने दोहन की हुई जिस गौ के बारे में तुझसे पूछा है, वह ग यज्ञकर्त्ता ऋत्विजों की आयु बढ़ाने वाली है तथा यजमान की भी आयु वृद्धि करती है। सब कार्यों को संपादित करने वाली उस गौ के द्वारा सभी कृत्य संपन्न होते हैं। वह गौ सभी यज्ञीय देवताओं की पोषक है। जो दुग्ध इन्द्र का भाग है, हम उसे सोमवल्ली के रस से जामन देकर जमाते हैं। हे सबमें व्याप्त और सबके रक्षक ईश्वर ! यह हव्य रक्षा के योग्य है, अतः इसकी रक्षा कर ।


अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥ 5 ॥


हे यथार्थवादी, ऐश्वर्य संपन्न, यज्ञ के संपादक अग्ने ! तेरे अनुग्रह से हम इस अनुष्ठान को कर रहे हैं। हम इसमें समर्थ हों तथा हमारा यह अनुष्ठान निर्विघ्न संपूर्ण हो। हम यजमानों ने असत्य का त्याग कर सत्य का सहारा लिया है।



 कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वां वेषाय वाम् ॥ 6 ॥


परमेश्वर से व्याप्त जल को धारण करने वाले हे पात्र ! इस कार्य हेतु तू किसके द्वारा तथा किस प्रयोजन से नियुक्त किया गया है ? सभी कर्म परमेश्वर की उपासना के लिए किए जाते हैं, अतः उस प्रजापति परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए ही तेरी इस कर्म में नियुक्ति की गई है। हे शूर्पाग्निहोत्र हवनी ! तुम्हें यज्ञ कर्म के निमित्त ग्रहण किया गया है। तुम्हें अनेक कर्मों को करना है, इसलिए हम तुम्हें ग्रहण करते हैं।


प्रत्युष्टयं रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ता ऽ अरातयः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥ 7 ॥


हे शूर्पाग्निहोत्र (शूर्प और अग्निहोत्र) ! हवनी तप्त करने से राक्षसों द्वारा प्रेरित अशुद्धता भस्म हो गई। शत्रु भी भस्म हो गए। हविर्दान आदि कर्मों में विघ्न डालने वाले दुष्ट जल गए। इस ताप से शूर्प में लगी मलिनता, राक्षस और शत्रु भी दग्ध हो गए। हम इस अंतरिक्ष का अनुसरण करते हैं। हमारी यात्रा के समय सब विघ्न दूर हो जाएं।


धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान्धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामः । देवानामसि वह्नितम सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देव हूतमम् ॥ 8 ॥


दोषों का नाश करने और अंधेरे को मिटाने वाले हे अग्ने ! हिंसक असुरों और पापियों को नष्ट कर। जो दुष्ट यज्ञ में व्यवधान डाले, हमारी हिंसा करना चाहे, उसे भी संतप्त कर। जिसका हम नाश करना चाहें, उसे मार। हे शकट के ईषादंड! अत्यंत दृढ़, हव्यादि के योग्य धानों से भरा हुआ तू देवताओं के सेवनीय पदार्थों का वहन करता है और देवताओं का प्रीति-पात्र है तथा देवताओं का आह्वान करने वाला है।


अह्रुतमसि ह॑विर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्द्वार्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापहत रक्षो यच्छन्तां पंच ॥ १ ॥


हे ईषादंड! तू टेढ़ा नहीं है, अतः कुटिल न होना। तेरे स्वामी यजमान भी टेढ़े न हों। हे शकट! व्यापक यज्ञ पुरुष तुझ पर आरूढ़ हों । हे शकट! वायु के प्रवेश से तू शुष्क हो जा। इसलिए हम तुझे विस्तृत करते हैं। यज्ञ में पड़ने वाले विघ्न दूर हुए। हे उंगलियो ! तुम ब्रीहि रूप हव्य को ग्रहण कर इस शूर्प में रख दो।


देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। अग्नये जुष्टं गृह्णाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टं गृह्णामि ॥ 10 ॥


सवितादेव की प्रेरणा से हे हव्य पदार्थों ! अश्विनी कुमारों और पूषा के बाहुओं और हाथों के द्वारा हम तुम्हें ग्रहण करते हैं। प्रिय अंश को हम अग्नि के निमित्त ग्रहण करते हैं। अग्निषोमा देवताओं के निमित्त हम इस प्रिय अंश को ग्रहण करते हैं।


भूताय त्वा नारातये स्वरभिविख्येषंदृ हन्तां दूर्याः पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेमि । पृथिव्यास्त्वा नाभौ स दयाम्यदित्या उपस्थे ऽग्ने हव्यथं रक्ष ॥ 11 ॥


हे शकट स्थित ब्रीहिशेष ! तू संचित करने के लिए नहीं, ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए ग्रहण किया गया है। तू यज्ञ भूमि और स्वर्ग प्राप्ति का साधन रूप है। हम इसे अच्छी तरह देखते हैं। पृथ्वी पर बना हुआ यह यज्ञ मंडप सुदृढ़ हो। हम इस विशाल आकाश में गमन करते हैं। दोनों प्रकार के व्यवधान नष्ट हों । हे धान्य ! हम तुझे पृथिवी की नाभि | रूप वेदी में स्थापित करते हैं। तू इस मातृभूता वेदी की गोदी में उत्तम प्रकार से अवस्थित हो। हे अग्ने! देवताओं की यह हव्य सामग्री है। तू हवि रूप धान्य का रक्षाकारी हो, जिससे कोई व्यवधान उपस्थित न हो।


पवित्रे स्थो वैष्णव्यो सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभिः। देवीरापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपुवोऽग्रऽद्य यज्ञ नयताग्रे यज्ञपति सुधातुं यज्ञपतिं देवयुवम् ॥ 12 ॥


हे दो कुशाओ ! तुम यज्ञ से संबंधित पवित्र करने वाले हो। हे जलो! सर्वप्रेरक सवितादेव की प्रेरणा से हम तुम्हें छिद्र रहित पवित्र करने वाले वायु रूप से सूर्य की शोधक किरणों से मंत्राभिषिक्त कर शोधित करते हैं। हे जल! तू परमेश्वर के तेज से तेजस्वी हो। आज तू इस यज्ञानुष्ठान को निर्विघ्न संपूर्ण कर, क्योंकि तू सदा नीचे की ओर गमन करता रहता है। प्रथम शोधक तू हमारे यज्ञकर्त्ता यजमान को फल प्राप्ति में समर्थ कर। जो यजमान दक्षिणा आदि के द्वारा यज्ञ-कर्म का पालन करता है। और हवि प्रदान करने की कामना करता है, उसे यज्ञ कर्म में लगा, उसका उत्साह भंग न कर ।



युष्माऽइन्द्रो वृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्वं वृत्रतूर्ये प्रोक्षिता स्थ। अग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धाः पराजघ्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥ 13 ॥


इन्द्र ने वृत्र वध में लगने पर जल को अपने सहायक रूप में स्वीकार किया और जल ने भी हनन-कर्म में इन्द्र से प्रीति रखी। सभी यज्ञ-पदार्थ जल द्वारा ही शुद्ध होते हैं, अतः पहले जल को ही शोधित किया जाता है। हे जल! तू अग्नि का सेवनीय है, हम तुझे शुद्ध करते हैं। हे हवि ! अग्नि एवं सोम देवता के सेवनीय! हम तुझे शुद्ध करते हैं। हे कखल मूसलादि यज्ञ पात्रो ! तुम इस देवानुष्ठान कार्य में लगोगे, अतः शुद्ध जल द्वारा तुम भी स्वच्छ हो जाओ। बढ़ई ने तुम्हें बनाया और निर्माण काल में तुम अपवित्र हुए। अब जल द्वारा हम तुम्हें शुद्ध करते हैं।


शर्मास्यवधूत रक्षोऽवधूताऽअरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रतित्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुघ्नः प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु ॥ 14 ॥


हे कृष्णाजिन तू इस ऊखल को धारण करने योग्य है। इस मृग चर्म (कृष्णाजिन) में जो धूल, तिनका आदि मैल छिपा था, वह सब दूर हो गया। यजमान के शत्रु भी इस कर्म से पतित हो गए। पृथ्वी की त्वचा रूप कृष्णाजिन को पृथ्वी ग्रहण करती हुई अपनी ही त्वचा माने। हे उलूखल! काष्ठ द्वारा निर्मित होता हुआ भी तू पाषाण जैसा दृढ़ है। तेरा मूल देश स्थूल है। हे उलूखल ! नीचे बिछाई गई कृष्णाजिन रूप जो त्वचा है, वह तुझे स्वात्म भाव से मानें।


अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृह्णामि बृहद्ग्रावासि वानस्पत्यः स इदं देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व । हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ॥ 15 ॥


हे हविरूप धान्य ! तू अग्नि का देहरूप ही माना गया है, क्योंकि तुझे कुंड में डाले जाते ही अग्नि की ज्वालाएं प्रदीप्त हो उठती हैं। अग्नि में पहुंचते ही तू अग्नि रूप हो जाता है। यह हवि यजमान द्वारा मौन-त्याग करने पर 'वाची विसर्जन' नाम्नी हो जाती है। अग्न्यादि देवताओं के


निमित्त मैं तुझे ग्रहण करता हूं। हे मूसल! काष्ठ निर्मित होता हुआ भी त | हम महान् देवताओं के कर्म के निमित्त तुझे पाषाढ़ की भांति सुदृढ़ ग्रहण करते हैं। तू अग्न्यादि देवताओं के लाभार्थ इस ब्रीहि आदि हवि को भूसी आदि से अलग कर। अक्षतों में भूसी न रहे और वे अधिक न टूटे इस कार्य को संपूर्ण कर। हे हवि प्रदान करने वाले ! तुम इधर आओ और हे हवि संस्कारक! इधर आगमन कर। तुम इधर आओ (इस प्रकार तीन बार आह्वान करो)।


कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वऽइषमूर्जमावद त्वया वय संघात संघातं जेष्म वर्षवृद्धमसि प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु परापूतथं रक्षः परापूता अरातयोऽपहत रक्षो वायुर्वो विविनक्तु देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना । 16 ॥


यज्ञ का विशिष्ट शम्यारूप आयुध राक्षसों के प्रति घोर और देवताओं के लिए मधुर शब्द करने वाला है। हे आयुध ! तू राक्षसों का हृदय चीरने | और यजमान को अन्नादि प्राप्त करने वाला शब्द कर। तेरे शब्द से यज्ञ के फलार्थ अन्न की अधिकता हो। हे शूर्प ! वर्षा के जल से बढ़ने वाली सींकों से तू बनाया गया है। हे तंडुलरूप हव्य ! वर्षा के जल से तू बढ़ा है और यह शूर्प भी वृष्टि जल से ही वृद्धि को प्राप्त हुआ है, अतः यह तुझे अपना आत्मीय जाने । तू इसकी संगति कर। भूसी आदि निरर्थक द्रव्य और असुर आदि भी दूर हो गए। हवि के विरोध प्रमादादि शत्रु भी चले गए। हव्यात्मक विघ्नों को फेंक दिया गया। हे तंडुलो ! शूर्प चलने से पैदा हुई वायु भूसी आदि के सूक्ष्म कणों से तुमको अलग कर दे और सर्वप्रेरक सविता देवता सुवर्णालंकार से सुशोभित और सुवर्णहस्त है। वह उंगलीयुक्त हाथों से तुम्हें ग्रहण करे।


धृष्टिरस्यपाऽग्नेऽ अग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद सेधादेवयजं वह । ध्रुवमसि पृथिवीं दृथं ह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय ॥ 17 ॥


तीव्र अंगारों को चलाने में समर्थ उपवेश अत्यंत बुद्धिमान है। हे आह्वानीय अग्ने ! आमात् अग्नि को त्याग और क्रव्याद् अग्नि को दूर कर। हे गार्हपत्याग्ने! देवताओं के यज्ञ योग्य अपने तृतीय रूप को प्रकट कर।


कर हे अग्ने! तू हमारे विशाल अनुष्ठान को विघ्न रहित करके ग्रहण द्वितीय कपाल ! तू पुरोडाश का धारणकर्ता है, अतः अंतरिक्ष को सु कर। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य से स्वीकार योग्य पुरोडाश के संपादनार्थ और शत्रु, असुर एवं पापादि के विनाश के लिए हम तुझे नियुक्त करते हैं। हे तृतीय कपाल ! तू पुरोडाश का धारक है। तू स्वर्गलोक को सुदृढ़ कर। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य द्वारा संपादित को प्रस्तुत करने और विघ्नादि को दूर करने के लिए हम तुझे नियुक्त करते हैं। हे चतुर्थ कपाल! तू सभी दिशाओं को सुदृढ़ करने वाला हो। मैं तुम्हें इसीलिए स्थापित करता हूं। हे कपालो! तुम पृथक कपाल के दृढ़ करनेवाले और अन्य कपालों के हितैषी हो। हे समस्त कपालो! तुम भृगु और अंगिरा के वंशज ऋषियों के तप रूप अग्नि से तपो।


हे सिकोरे तू स्थिर हो जा तथा इस स्थान में पूर्ण दृढ़ता से अवस्थित रहता हुआ पृथ्वी को दृढ़ कर हवि-सिद्धि के लिए तू ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा ग्रहणीय हो। समान कुल में उत्पन्न यजमान के जाति वालों के हव्य योग्य शत्रु असुर और पाप को नष्ट करने के लिए हम तुझे अंगार पर स्थित करते हैं।


अग्ने ब्रह्म गृभ्णीष्व धरुणमस्यन्तरिक्षं दूध ह ब्रह्मवनि त्वा क्षेत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । धर्त्रमसि दिवं दृ ह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । विश्वाभ्यस्त्वाशाभ्यऽउपदधामि चित स्थोर्ध्वचितो भृगूणामंगिरसां तपसा तप्यध्वम् ॥ 18 ॥


शर्मास्यवधूत रक्षोऽवधूताऽअरातयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादि तिर्वेत्तु । धिषणासि पर्वती प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्त दिवः स्कम्भनीरसि धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती वेत्तु ॥ 19 ॥


शिला धारण करने में समर्थ कृष्णाजिन में धूल और तिनका रूप जो मैल छिपा था, वह दूर हो गया। इस कर्म के द्वारा यजमान के बैरी भी पतित हो गए। पृथ्वी के त्वचा रूप कृष्णाजिन को पृथ्वी धारण करे और अपनी त्वचा ही माने। हे शिला! तू पीसने की आश्रयभूता है और पर्वत के खंड से निर्मित हुई है तथा बुद्धि का धारणकर्ता है। यह मृग चर्म पृथ्वी  की त्वचा की भांति है और तू पृथ्वी का अस्थि रूप है। इस प्रकार जान हुआ तू सुसंगत हो। हे शम्या! तू स्वर्गलोक को धारण करने वाली हो इसीलिए तुम समर्थ हो। हे शिललोढ़े ! तू पीसने के व्यापार में कुशल और पर्वत से उत्पन्न शिल की पुत्री रूप है। इसलिए माता के समान यह शिल तुझे पुत्र भाव से अपने हृदय में बसाए ।


धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा। दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवों वः सविता हिरण्यपाणि: प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥ 20 ॥


तृप्तिकारक हव्य अग्नि आदि देवताओं को प्रसन्न करे। हे हवि। मुख में जो प्राण सचेष्ट रहता है, उस प्राण की प्रसन्नता के लिए तथा ऊर्ध्व स्थान में चेष्टा करने वाले उदान की वृद्धि के लिए और सब शरीर में व्यास होकर सचेष्ट रहने वाले व्यान की वृद्धि के लिए हम तुझे पीसते हैं। है हवि ! अविच्छिन्न कर्म को ध्यान में रखकर यजमान की आयु बढ़ाने के निमित्त हम तुझे कृष्णाजिन पर रखते हैं । सर्वप्रेरक और हिरण्यपाणि सवितादेव तुझे धारण करें। हे हवि ! यजमान के नेत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट होने के लिए हम तुझे देखते हैं। हे घृत ! तू गोदुग्ध से निर्मित होने के कारण गोदुग्ध ही है।


देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सं वपामि समापऽओषधीभिः समोषधयो रसेन। स रेवतीर्जगतीभिः पृच्यन्ता सं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम् ॥ 21 ॥


हे पिष्टि! पूषा देवता के हाथों से, अश्विनी कुमारों की भुजाओं से और सवितादेव की प्रेरणा से हम तुझे पात्र में स्थित करते हैं। हे जल! तू इन पिसे हुए चावलों में अच्छी तरह मिल। यह जल औषधियों का रस है और इसमें जो रेवती नामक जल भाग है, वह इस पिष्टि में अच्छी तरह मिल जाए। इसमें जो मधुमति नामक जलांश है, वह भी पिष्टि में मिलकर माधुर्य युक्त हो जाता है।


जनयत्यै त्वा संयौमीदमग्नेरिदमग्नीषोमयोरिषे त्वा धर्मोऽसि विश्वायुरुरुप्रथाऽउरु प्रथस्वोरु ते यज्ञपतिः प्रथताम् अग्निष्टे त्वच॑ मा हि सीद्देवस्त्वा सविता श्रपयतु वर्षिष्ठेऽधि नाके ॥ 22 ॥



 जल और पिष्टि दोनों को पुरोडाश की वृद्धि के निमित्त संयुक्त करते हैं। यह भाग अग्नि से संबंधित हो। यह अग्नि-सोम नामक देवताओं का भाग है। हे आज्य! देवताओं को अन्न प्रदान करने के लिए मैं तुझे आठ सिकोरों में रखता हूं । हे पुरोडाश! तू इस घृत पर दमकता है। इस कार्य के द्वारा हमारा यजमान दीर्घजीवी हो। हे पुरोडाश! तू स्वभावतः विस्तृत हो, अतः इस कपाल में भी अच्छी तरह विस्तृत हो और तेरा यह यजमान पुत्र, पशु आदि से संपन्न होकर यशस्वी बने । हे पुरोडाश! पाक क्रिया से उत्पन्न हव्य का उपद्रव जल के स्पर्श से ही शांत हो जाए और हे पुरोडाश! सर्वप्रेरक सवितादेव तुझे अत्यंत समृद्ध स्वर्गलोक में स्थित नाक नामक दिव्याग्नि में पक्व करे।


मा भेर्मा संविक्थाऽअतमेरुर्यज्ञोऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात् त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वा ॥ 23 ॥


हे पुरोडाश! तू भयभीत और चंचल मत हो, स्थिर ही रह तथा यज्ञ का कारण रूप तू भस्मादि के ढकने से बचे। इस प्रकार यजमान की संतति कभी दुःखी न हो। हे उंगली प्रक्षालन से छने हुए जल ! हम तुझे त्रित देवता की तृप्ति के लिए प्रदान करते हैं। हम तुझे द्वित नामक देवता की संतुष्टि के लिए देते हैं और एकत नामक देवता की तृप्ति के निमित्त देते हैं।


देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददेऽध्वरकृतं देवेभ्यऽइन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रभृष्टिः शततेजा वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतो वधः ॥ 24 ॥


अश्विनी कुमारों की भुजाओं से, पूषादेव के हाथों से और सवितादेव की प्रेरणा से हम खुरपा -कुदाल को ग्रहण करते हैं। हे खुरपे ! तू इन्द्र के दक्षिण बाहु के समान है तथा सहस्रों शत्रुओं और राक्षसों के विनाश करने में अनेक तेजों से संपन्न है। तुझमें वायु की भांति वेग है। जिस प्रकार वायु अग्नि की सहायक होकर ज्वलाओं को तीक्ष्ण करती है, उसी प्रकार खनन-कर्म में यह स्पष्ट तीव्र तेजयुक्त है और श्रेष्ठ कर्मों से द्वेष करने वाले राक्षसों का विनाश करने वाला है।


पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलं मा हिसिषं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव । सवितः परमस्यां पृथिव्याधशर पाशैर्योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥ 25 ॥


हे देवताओं के यज्ञ योग्य पृथ्वी! तेरी प्रिय संतति रूप औषधि के तृण-मूलादि को मैं नष्ट नहीं करता। हे पुरीष! तू गौओं के स्थान गोष्ट को प्राप्त हो। हे वेदी! स्वर्गलोक का अभिमानी देवता सूर्य जल की वृष्टि के लिए करे और इस वृष्टि से खनन द्वारा उत्पन्न पीड़ा की शांति हो। है सर्वप्रेरक सवितादेव ! जो व्यक्ति हमसे द्वेष करे अथवा हम जिससे द्वेष करें, ऐसे दोनों तरह के वैरियों को तू इस पृथ्वी की अंतर्सीमा रूप नरक में डाल और सैकड़ों बंधनों में बांध दे। उसका उस नरक से कभी पिंड न छूटे।


अपाररुं पृथिव्यै देवयजनाद्वध्यासं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैर्यो ऽस्मान्द्वेष्टि च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् । अररो दिवं मा पप्तो द्रप्सस्ते द्यां मा स्कन् व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैर्योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥ 26 ॥


विघ्नकारी अररु नामक राक्षस को पृथ्वी स्थित देवताओं के यज्ञ वाले स्थान वेदी से निकालकर मारते हैं। हे पुरीष! तू गौओं के गोष्ठ को प्राप्त हो । हे वेदी ! तेरे लिए सूर्य जल वर्षा करें, जिससे तेरा खननकालीन कष्ट दूर हो। हे सवितादेव ! जो हमसे द्वेष करे अथवा हम जिससे द्वेष करें, ऐसे वैरियों को नरक में डाल और सैकड़ों बंधनों से जकड़ दे। उस नरक से वे कभी न छूट पाएं। हे अररो ! यज्ञ के फल रूप स्वर्गलोक जैसे श्रेष्ठ स्थान को तू मत जाना। हे वेदी! तेरा पृथ्वी रूप उपजीह्न नामक रस स्वर्गलोक में न जाए, पुरीष गौओं के गोष्ठ में जाए, सूर्य वेदी के लिए जलवृष्टि करे, जिससे उसकी खनन-वेदना शांत हो। सवितादेव द्वेष करने वाले वैरियों को नरक के सैकड़ों पाशों में बांधे और वे उस घोर नरक से कभी मुक्त न हो सकें। गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टु भेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि  है। = रम '॥ हम तए ल


जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि । सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वीती च ॥ 27 ॥


हे सर्वव्यापक विष्णो! हम जप करने वाले की रक्षा करने वाले गायत्री छन्द से भावित स्पय द्वारा तुझे तीनों दिशाओं में ग्रहण करते हैं। हे विष्णो! हम तुझे त्रिष्टुप् और जगती छन्द से ग्रहण करते हैं। हे वेदी ! तू पाषाणादि से हीन होकर सुंदर हो गई है और अररु जैसे राक्षस के विघ्न दूर होने पर तू शांति रूप वाली हुई है। तू सुख की आश्रयभूत है एवं देवताओं के निवास योग्य है। तू अन्न और रस से परिपूर्ण हो ।


पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन्नु दादाय पृथिवीं जीवदानुम् । यामैरयंश्चन्द्रमसि स्वधाभिस्तामु धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते । प्रोक्षणीरासादय द्विषतो वधोऽसि ॥28॥


हे विष्णु ! तू यज्ञ स्थान में तीन वेद के रूप में अनेक शब्द करने वाला है। तू हमारी इस बात को अनुग्रहपूर्वक सुन। प्राचीनकाल में अनेक वीरों वाले समर में देवताओं ने प्राणियों के धारण करने वाली जिस पृथ्वी को ऊंचा उठाकर वेदों सहित चंद्रलोक में स्थित किया था, मेधावीजन उसी पृथ्वी के दर्शन से यज्ञ का संपादन करते हैं। हे आग्नीध्र ! वेदी एक समान हो गई है। जिसके द्वारा जल का सिंचन किया जाता है, उसे लाकर वेदी में स्थापित कर । हे स्फुय ! तू शत्रुओं को नष्ट करने वाला है, अतः हमारे शत्रु को भी नष्ट कर।


प्रत्युष्ट्रं रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशितोऽसि सपत्नक्षिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मामि । प्रत्युष्ट रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशिताऽसि सपत्नक्षिद्वाजिनीं त्वा वाजेध्यायै सम्माज्मि ॥ 29 ॥


असुर आदि सभी विघ्न इस ताप द्वारा भस्म हुए। सभी शत्रु भी भस्म हो गए। इस ताप द्वारा यहां उपस्थित बाधाएं, असुर और शत्रु आदि सब भस्म हुए। हे स्रुव ! तेरी धार तीक्ष्ण नहीं है, किन्तु तू शत्रुओं को क्षीण करने वाला है। इस यज्ञ द्वारा यह देश अन्न से संपन्न हो। हम तुझे प्रक्षालन करते हैं, जिससे यज्ञ दीप्ति से युक्त हो। इस ताप द्वारा संपूर्ण विघ्न और शत्रुजन भस्म हो गए। इस ताप से यहां उपस्थित बाधा और 


शत्रु आदि सभी भस्मीभूत हो गए। हे सुक्त्रय ! तू तीक्ष्ण धार वाला न होने पर भी शत्रु को नष्ट करने में समर्थ है। इसलिए हम तेरा प्रक्षालन करते हैं। कि यह देश प्रचुर अन्न से संपन्न रहे ।


अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्यो ऽस्यूर्जे त्वा ऽदब्धेन चक्षुषावपश्यामि।अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुर्व यजुषे ॥ 30 ॥


हे योक् ! तू भूमि की मेखला की भांति है। हे दाहिने पाश ! तू इस सर्वव्यापी यज्ञ को प्रशस्त करने में समर्थ है। हे आज्य ! हम तुझे उत्तम रस की प्राप्ति के उद्देश्य से द्रवीभूत करते हैं तथा स्नेहमयी दृष्टि द्वारा तुझे मुंह नीचा करके देखते हैं। तू उत्तम प्रकार से देवताओं का आह्वान करने वाला और अग्नि का जिह्वा रूप है, अतः तू हमारे इस यज्ञ फल की सिद्धि तथ यज्ञ की संपन्नता के योग्य हो ।


सवितुस्त्वा प्रसव ऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। सवितुर्वः प्रसव ऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धाम नामासि प्रियं देवानामनावृष्ट देवयजनमसि ॥ 31 ॥


हे आज्य! सवितादेव की प्रेरणा से हम तुझे छिद्र रहित वायु को भांति पवित्र और सूर्य की किरणों के तेज से शुद्ध करते हैं। तू उज्ज्वल देह वाला होने से तेजस्वी है। स्निग्ध होने से दीप्तियुक्त है और अमृत को भांति स्थायी तथा निर्दोष है। हे आज्य! तू देवताओं का हृदय स्थान है। तु सदा आनंद पहुंचाने वाला है। देवताओं के समक्ष तेरा नाम लिया जाता है। तू देवताओं का प्रीति भाजन है। सारयुक्त होने से तू तिरस्कृत नहीं होता। तू देवयाग का प्रमुख स्थल है। अतः हे आज्य! हम यजमान तुझे ग्रहण करते हैं।


(इति प्रथमोऽध्यायः )



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