ऋग्वेद क्या है ? What is Rigveda in hindi? What is there in the Hindu mythology book Rigveda in hindi? Importance of yagna in Rigveda. ऋग्वेद में मंत्रों का महत्व क्या है?. ऋग्वेद किसे कहते हैं ? ऋग्वेद के श्लोक क्या हैं ? ऋग्वेद के सुक्त? shloka in rigveda ? Rigved kya hai? rigveda kise kehte hain ? or Rigveda mein kya-kya hai janiye.
Content table of Rigveda
१.रचना क्रिया- Rigveda mein Rachna
२.विषय वस्तु - Rigveda ki vishayvastu
३.देवताओं की स्तुति- rigveda mein devtaon ki stuti.
४.धर्म साधना- rigveda mein dharm ki sthapna.
५.जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन- Rigveda mein jivan ki shresthata ka pratipadan
६.अज्ञानता का त्याग तथा ज्ञान की प्राप्ति की का मार्ग- Rigveda mein agyanta ka tyaag.
७.उत्तम आचरण की शिक्षा - Rigveda mein uttam acharan
८.राजा के कर्म.- Rigveda mein raja ke karm
९.मनुष्य के विविध रूप - rigveda mein manushy ke vividh roop
१०.प्राणी मात्र का सर्वोच्च जीव सुख - rigveda mein praani matr ka sarvocch sukh
११.गुरु शिष्य परंपरा की श्रेष्ठता- Rigveda mein guru shishy parampara
१३.कर्म का महत्व - Rigveda mein karm ka mahtva.
१४.स्वस्थ शरीर की प्रेरणा - Rigveda mein swasth sharir ki prerna.
15.ईश्वर का गुणगान - Rigveda mein ishwar ka gungaan
16.योग विद्या - Rigveda mein yog vidyaa
17आयुर्वेद - rigveda mein aayurved
18.पशुपालन कृषि और शिल्प - rigved mein pashu palan, krishi aur shilp kala
19.यज्ञ का महत्व - Rigveda mein yagna ka mahtva
20ऋग्वेद के प्रमुख देवता - rigved ke pramukh devtaa.
Content table:- 1. Creation 2. Content 3. Praise of the Gods 4. religious practice 5. Presentation of the excellence of life 6. Renunciation of ignorance and the way to attain knowledge. 7. Education of good conduct 8. Karma of the king. 9. Various forms of man .10. Supreme creature happiness of mere creature 11. The superiority of Guru Shishya Parampara .13. Importance of Karma .14. Healthy body motivation 15. Praise God .16. Yoga Vidya. 17Ayurveda .18. Animal Husbandry Agriculture and Crafts 19. Importance of Yagya .20 Major Gods of Rigveda
अग्नेवाजस्य गोतम ईशानः सहसो यहो ।
अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥ अन्न एवं गौ आदि धन से संपन्न करने वाले, बल से उत्पन्न हे जातवेदा (अग्ने) ! तू हमें भी धनादि से परिपूर्ण करे।
अधि पेशांसि वपते नृत्रिवापोर्णुते वक्ष उत्रेव बर्जहम् ।
ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वती गावो न वज्रं व्युषा आवर्तमः ॥ नर्तकी के समान अनेक रूपों को धारण करने वाली उषा गौ के समान पोषक प्रवाह प्रदान करने के निमित्त अपने वक्ष को खोल देती है तथा संपूर्ण लोकों में अपने प्रकाश को व्याप्त करती और सबकी सुरक्षा के निमित्त अंधकार को मिटा देती है।
अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याम रोदसी देवपुत्रे ।
उभे देवनामुभयेभिरह्नां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ कभी पीड़ित या शिथिल न होने वाले आकाश और पृथ्वी देवताओं की शक्ति के उत्पादक हैं और अपने रक्षा साधनों से प्राणियों की सुरक्षा करते हैं। ये रात- दिन पापों से हमारी रक्षा करें।
भूमिका
'ऋग्वेद' ऋचाओं का वेद है। इसमें ऋषि-मुनियों द्वारा समय-समय पर रचित मन्त्रों का संकलन है। इन मन्त्रों को ही ऋचा कहा जाता है। छन्द और पदों में रचित मन्त्रों को ऋचा नाम दिया गया है। कहीं-कहीं ऋग्वेद संहिता नाम भी प्रचलित है। संहिताओं का अर्थ ऋचाओं के संग्रह से है। इस प्रकार ऋचाओं का संगृहीत स्वरूप 'ऋग्वेद संहिता' कहा जाता है।
रचना-प्रक्रिया
'ऋग्वेद' में दस हज़ार पांच सौ इक्कीस (10,521) ऋचाएं अथवा मन्त्र हैं, जिन्हें एक हज़ार अट्ठाईस (1,028) सूक्तों में बांधा गया है।
'ऋग्वेद' में प्रायः अग्नि, इन्द्र, वायु, सविता, वरुण, विष्णु और रुद्र आदि देवताओं का वर्णन मिलता है। प्रत्येक देवता के लिए अलग-अलग सूक्तों में, थोड़ी-थोड़ी ऋचाएं निश्चित की गयी हैं।
'ऋग्वेद' में इन सूक्तों को मिलाकर 'मण्डल' बनाये गये हैं। सभी सूक्त दस मण्डलों में विभक्त हैं। इन मण्डलों को पिचासी (85) अनुवाकों (अध्यायों) में विभक्त किया गया है। ये अनुवाक ही सूक्तों में विभाजित हैं।
'ऋग्वेद' का एक अन्य विभाजन भी प्राप्त होता है। इस विभाजन के अनुसार ऋग्वेद को आठ अष्टकों में बांटा गया है। ये अष्टक कुछ ऋचाओं के समूह में विभाजित हैं। उन्हें 'वर्ग' नाम दिया गया है। ये वर्ग संख्या में दो हज़ार चौबीस (2,024) हैं, किन्तु यह विभाजन प्रचलन में नहीं है। प्रचलन में अनुवाक सूक्त वाला विभाजन ही सर्वमान्य है।
'ऋग्वेद' के प्रत्येक सूक्त के प्रारम्भ में, उसके रचयिता ऋषि, उसमें उपासित देवता का नाम और उस छन्द का नाम लिखा होता है, जिसमें उसे रचा गया है। महर्षि कात्यायन ने अपने ग्रन्थ 'ऋग्वेद-सर्वानुक्रमणी' में इन नामों का उल्लेख करके ऋषियों के रचनाक्रम की महत्ता को प्रकट किया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि महर्षि कात्यायन से पूर्व ऋषियों के नामों का उल्लेख ऋचाओं के सूक्तों पर नहीं था। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। महर्षि कात्यायन के पास इन नामों के
उल्लेख का कोई-न-कोई आधार अवश्य रहा होगा, अन्यथा ऋचाओं के रचयिता ऋषियों का नाम खोजना बिना किसी संकेत के सम्भव नहीं हो सकता।
यह भी कहा जाता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों और अन्य परम्पराओं का अन्वेषण करके सम्भवत: महर्षि कात्यायन ने ऋषियों की सूची बनायी होगी, परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के रचनाकाल से बहुत बाद के हैं। उनमें ऋषियों का जो क्रम आया होगा, वह भी किसी-न-किसी आधार पर निश्चित किया गया होगा।
विषयवस्तु:-
ऋग्वेद में जीवन के प्रत्येक पक्ष का विवेचन है। इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों की व्याख्या की गई है। कर्म, उपासना और ज्ञान की प्रत्येक विधा का इसमें समावेश किया गया है।
देवताओं की स्तुति
'ऋग्वेद' के सभी मन्त्रों में प्रायः अग्नि, इन्द्र, सूर्य, वायु, वरुण आदि देवताओं की स्तुति की गयी है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक सौ इक्यानवें (191) सूक्त हैं और एक हजार नौ सौ छिहत्तर मन्त्र (1,976) हैं।
इस सूक्त में 'अग्नि' को दिव्य पदार्थ के रूप में पूजित किया गया है अर्थात यह अग्नि ही ईश्वर का प्रतिरूप है। ऋषियों का कहना है कि जिस परमात्मा ने दिव्य गुणों वाली अग्नि की रचना की है, उस अग्नि से मनुष्यों को उत्तम उत्तम उपकार ग्रहण करने चाहिए। ईश्वर की भी यही इच्छा है।
'ऋग्वेद' के प्रथम मण्डल में ईश्वरीय उपासना, पुरुषार्थ, विद्या, ब्रह्मचर्य, विद्वानों की श्रेष्ठता, राजा और प्रजा के कर्तव्य, ईश्वर और सूर्य के गुण, वायु और वरुण के गुण, प्रकृति के विविध रूप और गुण, स्त्री-पुरुष के धर्म, सोमलता का महत्त्व और उसके गुण इसी के साथ मित्र अमित्र के गुण तथा अन्न आदि के गुणों का भी व्यापकता से उल्लेख किया गया है।
मन्त्रों द्वारा एक ओर तो देवता को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ में आहुति दी जाती है, तो दूसरी ओर गौ, पुत्र, धन-धान्य आदि के लिए प्रार्थना की जाती है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जबकि वास्तव में वह एक ही है। परमेश्वर के जितने कर्म और गुणों के स्वभाव हैं, उतने ही उस परमात्मा के नाम हैं। ईश्वर एक ही है, परन्तु लोग उसे विविध नामों से पुकारते हैं। उसे ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि कहा जाता है।
सूर्य और वायु द्वारा समस्त ऋतुओं का संरक्षण और संवर्धन होता है। इसलिए
आर्य ऋषियों ने सूर्य और वायु की उपासना भी की है। इस प्रकार पदार्थ विद्या की सिद्धि के लिए वायु और अग्नि की अनिवार्यता को ऋषियों ने मुख्य हेतु स्वीकार किया है। अग्नि और वायु के सहचरों के रूप में अश्वि (गुणों का प्रकाश करने वाले), सविता (सूर्य), अग्नि, देवी इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, आद्या पृथ्वी, भूमि, विष्णु आदि की कल्पना की गयी तथा उनके अर्थों को सूक्ष्मता के साथ स्पष्ट भी किया गया।
अनेक मन्त्रों में अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का भी वर्णन किया गया है। विद्या और पुरुषार्थ से सुख की प्राप्ति होती है। विद्वानों के साहचर्य से ज्ञान की उपलब्धि होती है। श्रेष्ठ व्यक्तियों के साथ मित्रता और दुष्टों पर अविश्वास की प्रेरणा तथा ऐश्वर्य-प्राप्ति और सुमार्गगामी होने का उपदेश दिया गया है 1
धर्म साधना
'धर्म' की प्राप्ति के लिए सभी विषयों का श्रवण करना, मित्र से प्रीति, सत्संगति, सहकारिता से कार्य करना, उत्तम व्यवहार करना, धर्म का अनुष्ठान करना, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या अर्जन करना, माता-पिता के महत्त्व को प्रतिपादित करना, प्राणवायु द्वारा शरीर की रक्षा करना, स्त्री-पुरुष के पारस्परिक महत्त्व को बताना, रात्रि और प्रभात के गुणों द्वारा स्त्री-पुरुष के कर्तव्यों को बताना, विद्वानों और राजधर्म का वर्णन, सोमलता के गुणों का वर्णन, शिक्षक और शिष्य के सम्बन्धों का विश्लेषण, मेधावी कर्मों का वर्णन तथा विषहरण ओषधियों के विषय में ऋषि-मुनियों ने अनेक मन्त्र रचे । इन सभी मन्त्रों का उल्लेख प्रथम मण्डल के सूक्तों में विस्तार से प्राप्त होता है।
ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक के मन्त्रों में एक अद्भुत एकरूपता लक्षित की जा सकती है। इनमें प्रत्येक मण्डल का एक-एक ऋषिवंश से सम्बन्ध दिखाई पड़ता है। इन्हें 'वंशज मण्डल' कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। ये मण्डल क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज और वसिष्ठ ऋषियों के वंशजों से सम्बन्धित हैं। सब सूक्तों का क्रम भी एक जैसा ही है। प्रत्येक मण्डल का प्रथम सूक्त 'अग्नि' को अर्पित है। उसके बाद 'इन्द्र' के सूक्त आते हैं और अन्त में अन्य देवों की उपासना से सम्बन्धित सूक्त हैं। इसी प्रकार अष्टम मण्डल का सम्बन्ध भी, इन्हीं सूक्तों के ऋषि वंशजों की भांति कण्व ऋषि के वंशजों से है, परन्तु इस मण्डल में कुछ सूक्त कण्व ऋषि के वंशजों से अलग कुछ अन्य ऋषियों से तथा उनके वंशजों से भी जुड़े हुए हैं।
नवम मण्डल के सूक्त 'सोम' देवता को समर्पित हैं। इस मण्डल के सूक्तों पर अधिकतर उन्हीं ऋषियों के नाम हैं, जिनके नाम 'दो' से 'सात' मण्डल तक के हैं।
प्रथम मण्डल की भांति दशम मण्डल में भी ऋषि, देवता और छन्द सभी में विविधता के दर्शन होते हैं। अधिकांश विद्वान् इन मण्डलों के वर्ण्य विषय, भाषा और छन्दों को देखकर इन्हें अर्वाचीन मानते हैं, परन्तु उनकी इस मान्यता में कोई विशेष दम नहीं है; क्योंकि प्रायः सभी मण्डलों में वर्ण्य विषय और भाषा तथा छन्दों की समानता लक्षित की जा सकती है। यदि लोकप्रियता की दृष्टि से 'प्रथम' और 'दशम' मण्डल के मन्त्रों को विशिष्टता प्राप्त हुई, तो वह उन मन्त्रों की विषय- वस्तु ही है। आज सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना किसी एक व्यक्ति और एक काल की नहीं है।
जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
इस प्रकार ऋग्वेद में केवल स्तुति पक्ष ही प्रबल नहीं है, वहां जीवन को सर्वांग रूप से उत्तम अथवा श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा भी दी गयी है।
ऋषि विश्वामित्र कुछ ऐसा ही मन्त्र आगे भी कहते हैं, जिसमें ब्रह्मचर्य की महत्ता को दर्शाया गया है-
एना वयं पयसा पिन्नमाना अनु योनि देवकृतं चरन्तीः । न वर्त्तवे प्रसवः सर्गतक्तः किंयुर्विप्रो नद्यो जोह वीति ॥
(ऋग्वेद 3/33/4)
अर्थात् जैसे जलसहित नदियां सभी का उपकार करती हैं और कभी जल से हीन नहीं होतीं, वैसे ही ब्रह्मचर्य से युक्त स्त्री और पुरुष की सन्तानें जन्म लेकर, धर्म सम्बन्धी ब्रह्मचर्य से सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त कर अपनी विद्वत्ता से सभी का उपकार कर सकती हैं।
अज्ञान का त्याग तथा ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य
अज्ञान का त्याग करना ही उनका अभीष्ट था। ज्ञान की प्राप्ति उनका सर्वोच्च लक्ष्य था। मित्रता और प्राणिमात्र के प्रति गहरी संवेदनशीलता उनका धर्म था। शक्ति और आरोग्यता में उनका पूर्ण विश्वास था। पवित्रता और विनम्रता उनका आचरण था। नीरोगी काया केवल उनका ही लक्ष्य नहीं था, वे पशु-पक्षियों तक को नीरोगी देखना चाहते थे । प्रकृति के मध्य सभी जड़-चेतन पदार्थ उनकी सहानुभूति के पात्र थे।
आर्य ऋषि-मुनि सभी मनुष्यों को यही प्रेरणा देने वाले थे कि जैसे वे अपने लिए उत्तम पदार्थों की कामना करते हैं, उसी प्रकार उन्हें दूसरों के लिए भी उत्तम पदार्थों की कामना करनी चाहिए।
उत्तम आचरण की शिक्षा
यही नहीं, वैदिक ऋषियों ने मनुष्यों को प्रेरणा दी कि उन्हें अग्नि के समान उत्तम आचरण करने वाला होना चाहिए और अविद्या से निवृत्त होकर यश प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति समाज के हित के लिए कर्म करते हैं और समाज को सुखी और सन्तुष्ट बनाते हैं, वे सूर्य की किरणों के सदृश सर्वत्र यश के भागी होते हैं।
उत्तम स्थान
श्रेष्ठजन अपनी सन्तान को श्रेष्ठ और उत्तम बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। वे उन्हें दुष्ट आचरणों का त्याग करने की शिक्षा देते हैं, उन्हें माता-पिता का आदर करना सिखाते हैं और चोरी जैसे जघन्य पापकर्म से सदैव दूर रहने के लिए उपदेश देते हैं।
'ऋग्वेद' में 'विद्या' और 'दान' कर्म को सर्वश्रेष्ठ माना है। जो व्यक्ति विद्या का दान करता है और गौ आदि के दान से ब्राह्मण तथा निर्धन व्यक्ति का सत्कार करता है, वह उत्तम यश को प्राप्त करता है।
राजा के कर्म
'ऋग्वेद' में राजा के कर्मों का विश्लेषण भी किया गया है। राजा का प्रथम कर्तव्य यही है कि वह अपनी प्रजा की सुरक्षा का प्रबन्ध करे, राज्य के धनी, विद्वान्, अध्यापक और धर्म का उपदेश देने वाले विद्वानों की केवल रक्षा ही नहीं, अपितु उन्हें धन से, व्यवहार से और सम्मान से सुखी करे तथा इस प्रकार समाज की उन्नति में सहयोग करे।
राजा के लिए आवश्यक है कि वह श्रेष्ठ आचरण करनेवाला हो, सभी शास्त्रों में पूर्ण रूप से निष्णात हो, स्वच्छ और उत्तम गुणों से युक्त हो, माता-पिता और प्रजापालन में दक्ष हो तथा राज्य की श्रीवृद्धि में अपना पूरा योगदान देने वाला हो।
राजा वही उत्तम होता है, जो दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुणीजन से जीवन की यथार्थ शिक्षा को ग्रहण करे और उसी के अनुरूप विनयपूर्वक तथा न्याय द्वारा राज्य का संचालन करे। ऐसा राजा संसार में यश प्राप्त करता हुआ मृत्यु के बाद देवलोकों को प्राप्त करता है।
मनुष्य के विविध रूप
'ऋग्वेद' में मूढ़, मूढ़तर, मूढ़तम, विद्वान्, विद्वत्तर, विद्वत्तम और अनूचान- इन सात प्रकार के मनुष्यों का वर्णन मिलता है। शाकिन सामर्थ्यवान् व्यक्ति को कहा जाता है और अनूचान उस व्यक्ति को
जो विद्वान् हो, वेदवेदांगों का ज्ञाता हो, विनम्र हो और सुशील हो। उन व्यक्तियों को, जो अशुद्ध व्यवहार, दुष्ट आचरण, लम्पटता, चुगलखोरी, कुसंगी और लापरवाह होते हैं, ज्ञान की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं होती। पवित्र आहार विहार, जितेन्द्रिय, अर्थात् सत्य को समझने वाले, सत्संगी, पुरुषार्थी और विनम्र स्वभाव वाले व्यक्ति ही विद्या को प्राप्त करने वाले होते हैं। जो अध्यापक अथवा उपदेशक अपने श्रेष्ठकर्मों से धर्मात्मा होता है और दूसरों को भी धर्म का उपदेश देता है, वह ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाला होता है।
ऋग्वेद के अनुसार, मनुष्यों को सदा ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे सब विजन को सुन्दर बुद्धि और वाणी देने वाले योगीजन को, राजा और शिल्पकारों (कलाकारों) को दिव्य ज्ञानरूपी पदार्थ प्राप्त हो सके।
मनुष्यों को ऐसा शील धारण करना चहिए, जिससे सज्जनता के गुणों का विकास हो और उनकी प्रीति से सभी पशुओं, विद्वानों और पितृमन को सुख की प्राप्ति हो।
प्राणिमात्र का सर्वोच्च लक्ष्य सुख
इस प्रकार ऋग्वेद की ऋचाओं में सर्वत्र प्राणिमात्र के सुख की कामना की गयी है। न केवल मनुष्य, अपितु पशु-पक्षियों के लिए भी इस सुख की कामना हमारे आर्य ऋषि-मुनि करते हैं। केवल सुख तक ही उनकी सीमा नहीं है। भौतिक सुख संसाधनों के अतिरिक्त वे उस सर्वव्यापी परमात्मा से सभी के हितों के लिए मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं।
केवल पुरुष (के लिए ही आर्य ऋषि सुख और मोक्ष की कामना नहीं करते, स्त्रियों के लिए भी वे श्रेष्ठता और सम्मान की कामना करते हैं। उनका कहना है कि जैसे पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियों के बीच मन की वाणी सुन्दर शोभा प्राप्त करती है तथा जैसे जल से भरी हुई नदी शोभा से युक्त होती है, उसी प्रकार विद्या
● और सत्य की कामना करने वाली स्त्री श्रेष्ठता और सम्मान को प्राप्त करती है। माता की श्रेष्ठता के विषय में ऋषियों का कथन विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है-
वह माता उत्तम है, जो ब्रह्मचर्य पूर्वक संतानों को जन्म दे और अच्छी शिक्षा देकर विद्या से उन्हें उन्नत बनाये। वही पिता श्रेष्ठ है, जो हिंसात्मक दोषों से रहित सन्तान उत्पन्न करे। वस्तुतः इस संसार में वे ही विद्वान् प्रशंसा के योग्य होते हैं, जो माता के समान मनुष्यों को पालते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा की श्रेष्ठता
जिस प्रकार सूर्य सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रेष्ठ अध्यापक
और उपदेशक सभी मनुष्यों की आत्मा को प्रकाशित करके उन्हें परमपिता परमात्मा की ओर प्रेरित करते हैं।
यहां यह कहना अधिक समीचीन लगता है कि परमात्मा ने पहले सृष्टि का निर्माण किया और अन्य पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों के साथ बुद्धिजीवी मनुष्य को बनाया। यही मनुष्य जब परमात्मा की सृष्टि के संसर्ग में आया, तभी उसके मन में इस विराट् चेतना के प्रति जिज्ञासा का भाव उत्पन्न हुआ होगा। यह जिज्ञासा का भाव ही वेदों का जन्मदाता है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त यह जिज्ञासा का भाव ही था, जिसने चैतन्य शक्ति को जन्म दिया और उसी से वेद मन्त्रों का निर्माण हुआ। इन मन्त्रों का निर्माण जिन लोगों के चिन्तन से सम्भव हो सका, वे ही लोग बाद में आर्य ऋषि कहलाये ।
कर्म का महत्त्व
'कर्म' मनुष्य के जीवन के आधार हैं इनके द्वारा उसका समस्त जीवन और भविष्य परिचालित होता है, परन्तु कर्मों के मनोरथरूपी सागर में पड़ा पड़ा मनुष्य बूढ़ा हो जाता है और कर्मों का अनुष्ठान करने से बचता रहता है। पुरुषार्थी मनुष्य को ही परमात्मा की कृपा होती है, तभी वह कर्मों का अनुष्ठान करके कर्मयोगी बनता है। इस आशय का संदेश ऋग्वेद में जगह-जगह मिलता है।
जिस प्रकार यजमान अपने यज्ञों में कर्मयोगी पुरुषों को बुलाकर उत्तमोत्तम अन्नादि पदार्थों को भेंट करते हैं, उसी प्रकार परमात्मा भी कर्म करने वाले प्राणियों को उनके कर्मानुसार फल देता है। अतः यश और ऐश्वर्य की चाहना रखने वाले लोगों को चाहिए कि वह कर्मयोगी और ज्ञानयोगी विद्वानों को अपने यज्ञकर्म में निमन्त्रित करें और उनसे सुमति का आशीर्वाद प्राप्त करें। विद्वानों के सत्कार के बिना किसी देश का सांस्कृतिक पक्ष प्रबुद्ध नहीं हो सकता। इसी आशय से ऋग्वेद के प्रायः प्रत्येक मन्त्र में श्रेष्ठ बुद्धि की कामना परमात्मा से की गयी है।
पवित्र संस्कारों का महत्त्व
यज्ञकर्म से याज्ञिक बना व्यक्ति, स्त्री-पुरुष और आबाल-वृद्ध में पवित्र संस्कारों को जन्म देता है। ये पवित्र संस्कार ही उसे निर्भय बनाते हैं और परमतत्त्व से योग स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं।
• सम्पूर्ण अनिष्टों को दूर करने वाला ज्ञान 'ब्रह्मज्ञान' है। यह ज्ञान, विद्या के रूप में माता सरस्वती के गर्भ से जन्म लेता है-
जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानदः । सरस्वन्तं हवामहे ॥
(मवेद 7/96/A)
अर्थात् शुभ सन्तान की इच्छा करते हुए, पुत्र वाले होने की कामना से दानी लोग ब्रह्म की समीपता चाहते हैं और सरस्वती के पुत्ररूपी ज्ञान को पाने का आह्वान करते हैं।
भाव यही है कि ब्रह्मज्ञान के लिए परमात्मा का आह्वान करो क्योंकि जो विद्यारूपी सरस्वती माता से उत्पन्न होता है और सम्पूर्ण प्रकार के अनिष्टों को दूर करता है वही सुपात्र और अधिकारी है। ऐश्वर्य को भोगने वाला कर्मयोगी होता है और वही ब्रह्मज्ञान के प्रति जिज्ञासु हो सकता है।
स्वस्थ शरीर की प्रेरणा
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आर्य ऋषियों ने शरीर रचना पर भी विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने लिखा-
त्रिबन्धुरेण त्रिवृता रथेना यातमश्विना । मध्वः सोमस्य पीतये ॥
(ऋग्वेद 8/85/8) अर्थात् बलदायक प्राण और अपान तथा माधुर्य आदि गुण से संयुक्त वीर्य- शक्ति को विलीन करने के लिए तीन प्रकार के बन्धनों वाले-'वात, 'पित्त' तथा 'कफ' इन तीनों प्रकृति वाले पदार्थों से बंधे हुए तीन गुण सत्त्व, रजस और तमस, इनके साथ वर्तमान रथरूप इस शरीर को प्राप्त हों।
भाव यही है कि 'प्राण' और 'अपान' की गति को नियन्त्रित करके वीर्यशक्ति को शरीर में खपाने के लिए शरीर रचना का ज्ञान आवश्यक है। इस शरीर में वात, पित्त और कफ इन तीन पदार्थों की प्रकृति के आधार पर हमारे भीतर 'सतोगुण, ' 'रजोगुण' व 'तमोगुण' का विकास होता है, परन्तु जो उपासक शरीर की इस संरचना
को भलीभांति जानता है, वह अपने प्राणों और अपान को नियन्त्रित कर लेता है। 'प्राणवायु' और 'अपान वायु' के नियन्त्रण से उपासकों का शरीर बलवान् बना रहता है। उनकी वाणी में ओज रहता है और वे प्रभुस्तुति में निरन्तर दिव्य आनन्द को प्राप्त करते रहते हैं।
'प्राण' और 'अपान' शरीर में ग्रहण करने और शरीर से विसर्जित करने की क्रियाएं हैं। इन्हें स्वस्थ शरीर का मित्र समझना चाहिए। इससे शरीर स्वस्थ बना रहता है।
आर्य ऋषि शरीर रचना से भली प्रकार परिचित थे और स्वस्थ कैसे रहा जाए, इसे अच्छी तरह जानते थे। यह भी जानते थे कि स्वस्थ शरीर से ही जीवनयात्रा सुख और सन्तोष के साथ पूरी हो सकती है। जीवनयात्रा के मुख्य साधक थे-ज्ञान और कर्मेन्द्रियां । प्राणशक्ति के द्वारा इन्हें बलवान् रखा जा सकता है और सुखपूर्वक जीवनयात्रा की जा सकती है।
ईश्वर का गुणगान
एक साधक की जीवनयात्रा में जब कभी विघ्न पड़ने की सम्भावना हो अथवा विघ्न पड़ हो जाए, तब साधक को परमेश्वर के गुणों का स्मरण करना चाहिए। परमेश्वर के गुणों का विशद वर्णन वेदवाणी में हुआ है। वह सहज और सुखकारक है। उसमें विचित्रता जैसी कोई बात नहीं है। ज्ञान, बल, धन आदि की समृद्धि प्राप्त करने में जब कभी रुकावटें आती हैं,
तब उपासक उन्हें भगवान् की सहायता से दूर कर सकता है। आत्म साक्षात्कार करना ही सोमरस का पान करना है। अपने अन्तर में परमात्मा का ध्यान करने से, उसके साथ सहज रूप से समागम होता है।
विराट् शक्तिमान् परमेश्वर इस अद्भुत सृष्टि के माध्यम से ही प्रकट है। उसे भला कौन अनुभव नहीं करता। उचित बोध, प्रेरणा और विश्वास के बिना, मनुष्य उसे देखकर भी अनदेखा कर देता है। इस सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है, प्रभु के अधीन है। जो साधक सृष्टि के पदार्थों का बोध प्राप्त करने में व्यस्त रहता है, उसको ज्ञानस्वरूप परमात्मा के कोश का दर्शन अवश्य होता है।
परमात्मा के कोश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न 'सूर्य' है। ऋग्वेद का सर्वाधिक प्रसिद्ध 'गायत्री महामन्त्र' सूर्य (सविता) से सम्बोधित है। उसके तेज से मनुष्य अपनी बुद्धि को तेजोमय करने की प्रेरणा प्राप्त करता है-
ओ३म् भूर्भुवः स्वः ।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात ॥
(ऋग्वेद 3/62/10)
हे परमात्मा ! तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू। तुझसे ही पाते प्राण हम, दुखियों के कष्ट हरता है तू। तेरा महान् तेज हैं छाया हुआ सभी जगह। सृष्टि के कण-कण में तू हो रहा है विद्यमान। तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते तेरी दया। ईश्वर हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चला।
इस प्रकार जो मनुष्य समस्त आत्माओं के साक्षी परमपिता परमात्मा की स्तुति और प्रार्थना करके उपासना करते हैं, उनको परमात्मा अपनी कृपा के सागर से शुद्ध आचरण की ओर प्रवृत्त करते हैं और मनुष्य उनकी कृपा से धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को प्राप्त करता है।
संयमित जीवन की अनिवार्यता
'ऋग्वेद' में परमात्मा को सब यज्ञों की 'आत्मा' कहा है, अर्थात् देवयज्ञ, ध्यानयज्ञ और ज्ञानयज्ञ उसकी सत्ता के बिना नहीं हो सकते। परमात्मा मनुष्यों को संयमी रहने पर बल देते हैं। इन्द्रियलोलुपता मनुष्य के स्वभाव को बहिर्मुखी-
बनाती है। संयमी होकर मनुष्य आत्मा को पहचान सकता है और आत्मा में ही परमात्मा का अंश विद्यमान है, ऐसा जानकर आनन्दित हो सकता है। परमात्मा ने जिस ब्रह्माण्ड की रचना की है, उसमें असंख्य नक्षत्र विद्यमान
हैं, परन्तु सभी के मध्य एक ऐसा सन्तुलित संयम है कि वे अपनी-अपनी कक्षा में और अपनी-अपनी धुरी पर स्थित रहते हैं। पूरी तरह गतिशील होते हुए भी वे एक-दूसरे के आकर्षण - विकर्षण से बंधे हुए हैं। यह संयम ही उन्हें बिखरने नहीं देता। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन इन इन्द्रियों के आकर्षण-विकर्षण के मध्य इधर से उधर गतिशील रहता है। अति होते ही सन्तुलन टूट जाता है और जीवन बिखर जाता है।
हमारे वैदिक ऋषियों ने इस संयमित जीवन को विशेष महत्त्व दिया है। तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम् ॥
(ऋग्वेद 9/26/6) अर्थात् परमात्मा के साक्षात्कार के लिए मनुष्य का संयमी होना परम आवश्यक पुरुष संयमी नहीं होता, उसको परमात्मा का साक्षात्कार कदापि नहीं हो है। जो सकता। मन, वाणी तथा शरीर तीनों का संयम होना आवश्यक है। जो पुरुष अपनी इन्द्रियों का संयम रखता है और मन को वश में रखता है, व्यर्थ बोलकर वाणी- विलास नहीं करता, ऐसा व्यक्ति देवता कहलाता है। संयमी बनना ही मनुष्य जन्म का सर्वोच्च फल है। 1
योग विद्या
ऋग्वेद में 'योग विद्या' का भी वर्णन प्राप्त होता है। यह मन्त्र देखिये- तव त्ये सोम पवमान निण्ये विश्वेदेवास्त्रम एकादशासः ।
दश स्वधामिरधि सानो अव्यें मृजन्ति त्वा नद्यः सप्त यह्वीः ॥
(ऋग्वेद 9/92/4)
अर्थात् सम्पूर्ण देव जो तैंतीस (33) हैं, वे अन्तरिक्ष में विद्यमान हैं। परमात्मा (सोम)! आपके लिए पांच सूक्ष्म भूत और पांच स्थूल भूतों की सूक्ष्म शक्तियों द्वारा आपके उच्च स्वरूप में, जो सर्वरक्षक हैं, उनमें योग करने के लिए सात बड़ी नाड़ियां हैं।
भाव यही है कि 'वेद' में, योग विद्या का वर्णन करते हुए ऋषिवर का कहना है कि सात प्रकार की नाड़ियां इडा-पिंगला आदि मनुष्य के शरीर में विद्यमान रहती हैं। योगी पुरुष इन नाड़ियों के द्वारा संयम करके परमात्मा को प्राप्त करता है।
आयुर्वेद
'ऋग्वेद' के दशम मण्डल में ' ओषधियों' के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन मिलता है। यह आयुर्वेद के अन्तर्गत आता है।
ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवती प्रसूवरीः । अश्वाइव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिषावः
(ऋग्वेद 10/97/3)
अर्थात् पुष्पों वाली, फलों वाली, अश्वों के समान रोग पर विजय पाने वाली, रोगी को नीरोग करने वाली, लताओं वाली ओषधियां रोगी के ऊपर प्रभावशाली होती हैं।
ये ओषधियां माता के समान होती हैं। एक वैद्य रोगी मनुष्य की इन्द्रियों, नाड़ियों, रक्त और हृदय के स्पन्दन की परीक्षा करके इनके द्वारा रोगी का उपचार करता है।
इष्कृतिर्नाम वो मातायो यूयं स्थ निष्कृती: । सीराः पतत्रिणीः स्थन यदामयति निष्कृथ ॥
(ऋग्वेद 10/97/9)
अर्थात् इन ओषधियों की माता पृथिवी 'इष्कृति' है। अतः ये 'निष्कृति' हैं। ये शरीर की नस-नाड़ियों में वेग से गति करती हैं और जो रोग शरीर को पीड़ित कर रहा हो, उसे बाहर निकाल देती हैं।
जो ओषधियां चन्द्रमा की चांदनी में बढ़ती हैं, वे विविध प्रकार की हैं, परन्तु उनमें जो हृदय रोग के लिए हैं, वे उत्तम हैं। वैद्य विविध दवाओं के मेल से रोगी की काया को ठीक करता है। वे दवाएं मिलन प्रक्रिया से नया रूप धारण करने के उपरान्त भी अपना-अपना प्रभाव बनाये रखती हैं। ये ओषधियां जड़ी-बूटियों के रूप में इस पृथिवी पर सर्वत्र फैली हुई हैं।
प्राचीनकाल में आर्य ऋषियों ने इन जड़ी-बूटियों की खोज की थी और विविध रोगों पर उनका प्रयोग करके 'आयुर्वेद' को जन्म दिया था। ये ओषधियां जड़ी-बूटियों को कूट-पीसकर व उनका रस निकालकर बनाई जाती थीं।
पशु-पालन, कृषि और शिल्प
'ऋग्वेद' में 'गौ' पालन, 'अश्व' पालन और 'शिल्प' आदि का भी महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। उस समय ऋषिगण केवल यज्ञ ही नहीं करते थे, कृषि, पशु-पालन, कुएं और सिंचाई के साधनों का भी वे प्रयोग करते थे।
आर्य ऋषि मनुष्यों से कहते हैं कि अश्वों को चारा-पानी आदि देकर प्रसन्न करो। उत्तम और हितकारक खेतों को जोतो। सुखपूर्वक ले जाने वाले रथों को
बनाओ। काष्ठ के जलपात्र से युक्त, कवच के समान जल-रक्षण-कोश वाले पाषाणमय घेरे वाले और मनुष्यों के पानी पीने की व्यवस्था से युक्त कूप बनाकर सिंचाई का कार्य करो।
वे कहते हैं कि हे मनुष्यों! गोशाला बनाओ और वही आपके लिए दुग्धपान का स्थान हो। बहुत से बड़े और मोटे कवचों को सीकर बनाओ। लौहमयी और अनाक्रमणीय पुरी बनाओ। तुम्हारा यज्ञ का चमसपात्र (चमचा) कभी ढीला-ढाला न हो। वह सदा दृढ़ रहे, जिससे यज्ञ बराबर चलता रहे।
उपरोक्त विश्लेषण से पता चलता है कि वैदिक ऋषियों को पशु-पालन, कृषि, गृह निर्माण, कुएं और सुरक्षित जलपात्र बनाने का शिल्प आता था। वे लौह धातु से भी परिचित हो चुके थे। काष्ठ शिल्प का उन्हें पूरा ज्ञान था। सुरक्षित नगर अथवा गांव के महत्त्व को वे जानते थे।
यज्ञ का महत्त्व
वैदिक ऋषि यज्ञ के माध्यम से परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव को अभिव्यक्त करते हैं। वातावरण की शुद्धि पर उनका विशेष बल रहता है। उनकी दृष्टि समस्त प्राणियों के कल्याण की है। जिस प्रकार सूर्य सभी को समान रूप से अपनी आभा से आलोकित करता है, उसी प्रकार परमात्मा की प्रेरणा से समस्त वैदिक ऋषिगण समस्त प्राणियों के सुख की कामना करते हैं।
ऋग्वेद विश्व का ज्ञानकोश
ऋग्वेद में 'पुरुरवा उर्वशी' की प्रेमकथा ( 10/95), 'यम-यमी संवाद (10/10)' और 'सरभा-पाणी संवाद (10/130)' के आख्यान सूक्त भी मिलते हैं। ऋग्वेद में कहीं-कहीं पहेलियां भी दी गयी हैं, जो अत्यन्त प्रतीकात्मक भाषा में लिखी गयी हैं।
वास्तव में ऋग्वेद का कलेवर इतना विशाल है कि उसे थोड़े में समझना या समझाना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसका एक-एक सूक्त जीवन और दर्शन का विशाल कोश है। लेकिन इतना निश्चित है कि इन सूक्तों के द्वारा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति और धर्म को सहजता के साथ समझा जा सकता है। उस काल में व्यक्ति, परिवार, समाज, वैवाहिक सम्बन्ध, नियोग-चलन, जुआ, चोरी, राजदण्ड, प्रजा का व्यवहार, रोग, औषधि-ज्ञान, पशु-पालन, शिल्प, धर्म, सदाचार, पर्यावरण, प्रकृति का महत्त्व, विद्या और विद्वानों का महत्त्व, गुरु-शिष्य परम्परा, देव-दानव-युद्ध, इन्द्रिय-संयम, अग्नि, इन्द्र, सोम आदि का वर्णन व्यापक रूप से हुआ है।
ऋग्वेद (भाग एक) - 1
राजनीति की भी ऋग्वेद में विस्तृत जानकारी मिलती है। राजा का कर्म शत्रुओं को नष्ट करके प्रजा की रक्षा करना है। राजा का चुनाव उसकी योग्यता देखकर ही प्रजा द्वारा किया जाता था। उन्हें गृहपति, विश्वपति, जनपति और राजा कहा जाता था। श्रेष्ठ स्वराज्य की महिमा का अनेक स्थलों पर गुणगान ऋग्वेद में मिलता है। इन्द्र की शक्ति, आतंक अथवा लोगों को भयभीत करने के लिए नहीं है। उसकी शक्ति का प्रयोग विद्वानों, स्वजनों और राज्य की रक्षा करना होता है। वह प्रजापालक है।
ऋग्वेद मानव-जाति का प्राचीनतम धर्मग्रन्थ
हिन्दुओं के सभी धार्मिक कृत्यों को पूर्ण कराने के लिए ऋग्वेद में सैकड़ों मन्त्र हैं। ऋग्वेद को हिन्दुओं का सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रन्थ कहा जा सकता है, परन्तु अपनी विषयवस्तु की सघनता और मानव-जीवन के कल्याण की भावना को अपने भीतर संजोये रखने के कारण, ऋग्वेद समस्त मानव जाति का आदि ग्रन्थ है। जीवन के शाश्वत, अर्थात् सनातन मूल्यों की स्थापना तथा उनसे प्रेरित होकर उन्हें अपने जीवन का अंग बनाने की प्रेरणा ऋग्वेद के मन्त्रों से प्राप्त होती है। ऋग्वेद नास्तिकों का नहीं, आस्तिकों का ग्रन्थ है। मनुष्य के उत्कर्ष के लिए जिस धर्म की आवश्यकता है, वह ऋग्वेद में प्राप्त हो जाता है। यहां सहयोग पाने की नहीं, सहयोग देने की भावना के दर्शन होते हैं।
ऋग्वेद के धर्म से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' की प्राप्ति सम्भव है। इसमें मनुष्य के कल्याण, अभ्युदय, उन्नति और मुक्ति की भावना निहित है। इसमें धर्म, अर्थ और काम को धर्मानुकूल रखने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यह धर्म त्याग- मूलक है। यहां अर्थार्जन करना अथवा अपने स्वार्थ की पूर्ति करना ऋषियों का लक्ष्य नहीं है।
ऋग्वेद के मन्त्रों में प्राणी देवों की कृपा पाना चाहता है। वह उनसे प्रार्थना करता है और उनसे कृपा की आकांक्षा करता है। ऋषिगण देवताओं के गुणों का उल्लेख करके, मनुष्य को देवताओं जैसे गुण अपनाने के लिए उपदेश देते हैं।
यज्ञ के माध्यम से देवकृपा पाने की आशा की जाती है। प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों में ही परमात्मा का अंश विद्यमान है। मनुष्य उसी शक्ति से तादात्म्य करना चाहता है। ऋग्वैदिक यज्ञधर्म में पुरोहितों और विद्वानों का विशिष्ट स्थान है। वह यजमान और देवों के बीच का सेतु है। यज्ञ में पुरोहित ही यजमान के कल्याण के लिए देवता को आहुति देता है और बदले में उसके लिए धन-धान्य और दीर्घायु की कामना करता है। यजमान पुरोहित की प्रत्येक सुख सुविधा का ध्यान रखना • अपना कर्तव्य समझता है।
ऋग्वैदिक धर्म में जीवन से पलायन करने के मन्त्र नहीं हैं। ऋग्वेद के मन्त्र लोगों में जीवन की आशा का संचार करने वाले हैं। यह धर्म पूरी तरह से व्यावहारिक है। इस धर्म में सभी जड़-चेतन पदार्थों को देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की गयी है। इस धर्म में प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव को स्थान दिया गया है। वैदिक ऋषि सभी के लिए आयु, बल और बुद्धि चाहते थे। इस धर्म में न द्वेष है, न पाप है, अपितु द्वेष से मुक्ति और पापों का त्याग प्रमुख है
'ऋग्वेद' के प्रमुख देवता
'ऋग्वेद' की ऋचाओं में विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है, परन्तु ये सभी देवगण एक ही ईश्वर के विभिन्न नाम हैं। वैदिक ऋषियों ने इन देवगणों को प्रकृति के मध्य से खोजा है। सृष्टि की विराट् चेतना के मध्य, जो अतीन्द्रिय अनुभव वैदिक ऋषियों को हुए ये देवता उन्हीं अनुभवों का परिणाम थे।
वैदिक साहित्य पर विचार करने वाले मनीषियों को यह बात विचित्र लग सकती है कि वैदिक संहिताओं में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में 'ईश्वर' शब्द रूढ़ि रूप से परमेश्वर के अर्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, धर्मसूत्रों, पाणिनि की 'अष्टाध्यायी, ''व्याकरण महाभाष्य'
और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। वैदिक संहिताओं में दो-चार शब्द ही ऐसे मिलते हैं, जिनमें परमेश्वर के व्यापक स्वरूप को प्रकट किया गया है। वैदिक देवताओं में 'अग्नि,' 'इन्द्र, ' 'वायु 'सविता, 'विष्णु, 'वरुण, 'रुद्र' आदि नाम ईश्वर के परिप्रेक्ष्य में आये हैं।
वैदिक संहिताओं में परमेश्वर का वाचन मुख्य शब्द 'पुरुष' के रूप में मिलता है। 'भगवद्गीता' में इसे 'पुरुषोत्तम' कहा गया है। वेद की चारों संहिताओं के लगभग 20 सूक्तों में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग हुआ है। यजुर्वेदीय संहिता के 'पुरुष सूक्त' में परम पुरुष या विराट् पुरुष के अर्थ में इसका विशेष रूप से प्रयोग किया गया है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि वेद में देवताओं की स्तुति न होकर ईश्वर की ही स्तुति है। भले ही वे उसे 'अग्नि, 'इन्द्र' आदि नामों से पुकारते हों। उन सबके पीछे एक परमेश्वर की ही सत्ता विद्यमान है। मन्त्रों में जहां-जहां देवता का सम्बन्ध सृष्टि के साथ उद्धृत किया गया है, वहां यही समझना चाहिए कि परमार्थ में ईश्वर ही स्रष्टा है। देवगण उसी ईश्वर की शक्ति से सारे कार्य सम्पन्न करते हैं। मन्त्र वाक्यों का समन्वय करने से यही सिद्ध होता है कि ईश्वर ही इस जगत्
का स्रष्टा है तथा सम्पूर्ण शक्तियों का मूल उसी में विद्यमान है। केवल देवगण ही नहीं, सारा संसार ही ईश्वर का व्यापक स्वरूप है। वही पूरे ब्रह्माण्ड का नियन्ता है।
वैदिक देवताओं की सामान्य विशेषताएं
पाश्चात्य विद्वानों ने वैदिक देवताओं की कुछ सामान्य विशेषताओं और गुणों का उल्लेख किया है। उनका कहना है कि वैदिक देवता उन भौतिक पदार्थों के अधिक निकट हैं, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका यह स्वरूप पूरी तरह से प्राकृतिक है।
दूसरे, इन देवताओं का गुण उनकी परोपकारी वृत्तियों में निहित है। प्रायः सभी देवता जनकल्याण के लिए अपने प्रभामण्डल के साथ प्रकट होते हैं। ये सब देवता दिव्य शक्तियों से युक्त हैं।
तीसरे, वैदिक देवताओं का जन्म प्रकृति के मध्य से हुआ। प्रकृति के दिव्य पदार्थों ने वैदिक ऋषियों के मन में जिस जिज्ञासा-भाव को जन्म दिया, उसी ने अनेक देवताओं को जन्म दिया। ये देवता पुरुष-रूप में ही स्थापित किये गये थे। इस प्रकार वैदिक देवताओं का चौथा स्वरूप उनका मानवोचित स्वरूप है। ये सब देवता मानव के साथ सहयोग करने वाले हैं। अपवाद स्वरूप केवल रुद्र देवता को संहारक माना गया है; किंतु वेदों में इसका उल्लेख बहुत कम हुआ है। वैदिक देवताओं का नैतिक आचरण अत्यंत उदार है और उनकी कृपा से ही मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर पाता है।
Rigveda sukta number 1to5 t meaning of shloka
Rigveda 1 to 5 Sukta & Shloka ke arth hindi mein
ऋग्वेद सूक्त संख्या १ से ५ श्लोक के अर्थ
प्रथम मंडलम् (प्रथमाष्टकः )
अथ प्रथमोऽध्यायः
(प्रथमोऽनुवाक)
पहला सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र। देवता- अग्नि। छन्द- गायत्री ।) ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं
रत्नधातमम् ॥ 1 ॥
यज्ञ का पुरोहित, देवता, ऋषि और देवों का आह्वान करने वाला होता तथा याजकों को यज्ञ का लाभ प्रदान करने वाला जो अग्नि है, हम उसकी उपासना करते हैं।
अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवां एह
वक्षति ॥ 2 ॥
पूर्वकालीन ऋषियों द्वारा प्रशंसित अग्नि इस काल में भी ऋषिगण द्वारा स्तुत्य है। वो अग्नि इस यज्ञ में देवताओं को आह्वाहित करे। अग्निना दिवेदिवे । यशसं
रयिमश्नवत् पोषमेव
वीरवत्तमम् ॥ 3 ॥
धन और यश प्रदान करने वाला अग्नि यजमानों (मनुष्यों) को प्रतिदिन पुत्र-पौत्रादि तथा वीरत्व (वीर पुरुष) प्रदान करने वाला है। अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद् देवेषु
गच्छति ॥ 4 ॥
सबका रक्षण करने समर्थ हे अग्ने ! स्वर्ग में रहने वाले देवगण को तू जिस यज्ञ द्वारा तृप्त करता है, विघ्नरहित उस यज्ञ को तू सभी ओर से आवृत किए रहता है।
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत् ॥ 5 ॥
इस यज्ञ में देवताओं के साथ आगमन करने वाले हे अग्ने ! तू हवि प्रदान करने वाला, ज्ञान और कार्य की संयुक्त शक्ति का प्रेरक, सत्यरूप तथा विलक्षणरूप से युक्त है । यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत
सत्यमंगिरः ॥ 6 ॥
हविदाता के कल्याण के निमित्त हे अग्ने ! जो तू धन, आवास संतान और समृद्धि आदि प्रदान करता है, भविष्य के किए गए कर्म (यज्ञ) के द्वारा वो तुझे ही प्राप्त होता है।
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त
एमसि ॥ 7 ॥ हे अग्ने! तेरे उपासक हम तेरा सान्निध्य पाने के लिए उत्तम बुद्धि
द्वारा तेरी उपासना करते हैं, रात-दिन तेरा सतत् गुणगान करते हैं।
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥ 8 ॥ हे दीप्तिमान अग्ने ! तू यज्ञों का रक्षक, सत्य को प्रकाशित करने वाला तथा यज्ञस्थल में वृद्धि प्राप्त होने वाला है। स नः पितेव सूनवे ऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः
स्वस्तये ॥ 9 ॥
हे अग्ने ! जैसे पुत्र को पिता सहज ही प्राप्त होता है, वैसे ही तू बाधारहित होकर सुखपूर्वक हमें प्राप्त हो और हमारे मंगल के लिए सदैव हमारे समीप रहे।
दूसरा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र । देवता-वायु, इन्द्रवायु, मित्र, वरुण । छन्द- गायत्री।)
वायवा याहि दर्शते मे सोमा अरंकृताः । तेषा पाहि श्रुधी
हवम् ॥ 1 ॥ हे प्रियदर्शी वायो (वायुदेव) ! हमारी पुकार को सुनकर तू यज्ञ-
तू इसका स्थल पर आगमन कर। तेरे निमित्त शोधित सोम प्रस्तुत पान कर।
वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः । सुतसोमा
अहर्विदः ॥ 2 ॥
हे वायो! सोम निष्पन्न करने वाले, उसके गुणों के ज्ञाता स्तोता अपने स्तोत्रों द्वारा तेरी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं। वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे । उरूची
सोमपीतये ॥। 3 ॥
हे वायो! मर्म को स्पर्श करने वाली तेरी वाणी सोम का गुणगान करती हुई सोम-पान के अभिलाषी याचकों तक पहुंचती है।
इन्द्रवायु इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशन्ति fr 114 11
अन्न आदि पदार्थों सहित आगमन करने वाले हे इन्द्र और वायो! यह सोम तुम्हारे लिए अभिषुत किया गया है और यह तुम दोनों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है। वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू । तावा यातमुप द्रवत् ॥ 5 ॥
हे इन्द्र और वायो ! तुम दोनों धन व अन्नादि से युक्त सोमरस के ज्ञाता हो, अतः इस यज्ञ में शीघ्र आगमन करो।
वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम्। मक्ष्वि त्था धिया नरा ॥ 6 ॥
हे वायो! हे इन्द्र! यजमान द्वारा शोधित सोम के समीप आगमन करो। इसके लिए तुम सर्वत्र सामर्थ्यशाली हो।
मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥ 7 ॥
हम बंधु और वरुण का आह्वान करते हैं। वे घृत-समान प्राणपद वृष्टि कराने वाले हैं तथा हमें बल संपन्न करने और हमारे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं।
ऋत क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥ 8 ॥
हमारे पुण्यदायी कार्यों को सत्य से संपन्न करने वाले मित्र और वरुण सत्य से वृद्धि को प्राप्त होने वाले हैं।
कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥ 9 ॥
अनेक स्थानों में निवास करने वाले, जल द्वारा कर्मों को प्रेरित करने वाले, हमारी क्षमताओं, कार्यों और अधिकारों को पुष्टि प्रदान करने वाले मित्र और वरुण सर्वत्र व्याप्त, विवेकशील और शक्तिशाली हैं।
तीसरा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र। देवता- अश्विनी कुमार, इन्द्र, विश्वेदेव, सरस्वती । छन्द-गायत्री ।)
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती । पुरुभुजा
चनस्यतम् ॥1॥ शुभ कर्मों के पालक, द्रुतगति से कार्यों को परिपूर्ण करने वाले हे विशाल बाहुओं वाले अश्विनी कुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित यज्ञ के हविष्यान्नों से तुम अच्छी प्रकार तृप्त होओ।
अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं
अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमारी याचनाओं को स्वीकार करने वाले हे अश्विनी कुमारो! तुम अत्यंत धैर्यशाली, बुद्धिमान और विभिन्न कर्मों को करने वाले हो ।
दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः । आ यातं रुद्रवर्तनी ॥ 3 ॥
सत्य वाणी से युक्त, रोगनाशक, रुद्र के समान शत्रु-संहारक प्रवृत्ति वाले, दुर्धर्ष-मार्ग पर चलने वाले हे अश्विनी कुमारो ! यहां आगमन कर, कुशासन पर स्थित होकर छाने हुए सोमरस का पान करो।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः । अण्वीभिस्तना
पूतासः ॥ 4 ॥
अलौकिक कांति से युक्त हे इन्द्र ! पवित्रता से युक्त और उंगलियों द्वारा शोधित यह सोमरस तेरे लिए रखा है। इस सोमरस का पान करने के निमित्त तू यहां आगमन कर ।
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः । उप ब्रह्माणि वाघतः ॥ 5 ॥ हे इन्द्र ! उत्तम बुद्धि द्वारा प्रार्थना किया गया तू सोम सिद्ध करने वाले
स्तोताओं द्वारा आमंत्रित किया गया है। उनकी स्तुति को जानकर तू यज्ञ-
स्थल पर पदार्पण करे।
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः । सुते दधिष्व नश्चनः ॥ 6 ॥
हे अश्वयुक्त इन्द्र ! तू यज्ञ स्थल पर शीघ्र आगमन कर हमारी स्तुतियों को सुने तथा हमारे द्वारा प्रदत्त हवियों को ग्रहण करे। ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत । दाश्वांसो दाशुषः
सुतम् ॥ 7 ॥ सबको सुरक्षा एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, सभी प्राणियों के आधारभूत हे विश्वेदेवो ! इस हविदाता के यज्ञ में आगमन करो।
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः । उस्रा इव स्वसराणि ॥ 8 ॥
सूर्य की रश्मियों के समान गतिशील होकर हमें प्राप्त होने वाले हे विश्वे देवताओ! तुम कर्मवान् और द्रुतगति से कार्य करने वाले हो । विश्वे देवासो अस्त्रिध एहिमायासो अद्रुहः । मेधं जुषन्त
वह्नयः ॥ 9 ॥
हमारे यज्ञ में उपस्थित होकर अन्नादि ग्रहण करने वाले हे विश्वे देवताओ ! तुम किसी के भी द्वारा न मारे जाने वाले, सुखप्रद, कार्य-सक्षम और द्रोहरहित हो ।
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं वष्टु धियावसुः॥ 10 ॥
बुद्धिमत्तापूर्वक धन-अन्न, ऐश्वर्य प्रदान करने वाली एवं पावन करने वाली हे सरस्वते! ज्ञान-कर्म के द्वारा तू हमारे यज्ञ को सफल करे ।
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती ॥ 11 ॥
हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमें मनवांछित फल (वैभव) `प्रदान करने वाली देवी सरस्वती उत्तम बुद्धि को प्रशस्त करने वाली, सत्य एवं प्रिय वाणी बोलने की प्रेरणा देने वाली तथा यज्ञानुष्ठान को सफल करने वाली है।
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वावि राजति ॥ 12 ॥
सबकी बुद्धियों को जाग्रत और याचकों के ज्ञान को प्रखर करने
वाली देवी सरस्वती ज्ञान के समुद्र को प्रवाहित करने वाली है।
(द्वितीयोऽनुवाक)
चौथा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा। देवता – इन्द्र । छन्द- गायत्री ।)
सुरुपकृत्नुमतये सुदुघामिव गोदुहे । जुहूमसि द्यविद्यवि ॥ 1 ॥ दुग्ध के दोहन के लिए जिस प्रकार गौओं को बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपनी रक्षा के लिए उत्तम यज्ञकर्मा इन्द्र को आह्वाहित करते हैं।
उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब । गोदा इद् रेवतो
मदः ॥ 2 ॥
हे सोमपायी इन्द्र ! सोम का पान करने हेतु तू हमारे यज्ञ में आगमन करे और सोम ग्रहण करने के उपरांत प्रसन्नचित्त होकर हम याचकों को गौ आदि धन प्रदान करे।
अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम् । मा नो अतिख्य आ गहि ॥ 3 ॥
इन्द्र! हम तेरे अधिक समीप रहने वाले श्रेष्ठ प्रज्ञावान् पुरुषों की उपस्थिति में रहकर तेरे विषय में अधिकाधिक ज्ञान की प्राप्ति करें। तू भी हमारे अतिरिक्त किसी अन्य के सम्मुख अपना स्वरूप प्रकट न करे।
परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्। यस्ते सखिभ्य आ वरम् ॥ 4 ॥
हे ज्ञानीजन ! तुम अपराजित, कार्यपालक, विशेष बुद्धि वाले इन्द्र के समीप जाकर मित्र और बांधवों के निमित्त धन-ऐश्वर्य को प्राप्त करो।
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इद्
इन्द्र की उपासना करने वाले उस (इन्द्र) की निंदा करने वालों को दूर चले जाने को कहें, जिससे वो देश से भी दूर भाग जाएं। उत नः सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः । स्यामेदिन्द्रस्य
शर्मणि ॥ 6 ॥
तेरे अनुग्रह से हे इन्द्र ! हम सभी वैभव आदि प्राप्त करें, जिससे जो भी शत्रु या मित्र हमें देखें, वो हमें सौभाग्य-संपन्न मानें।
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्।
पतयन् मन्दयत्सखम् ॥ 7 ॥
यज्ञ को शोभित करने वाले, आनंद प्रदान करने वाले, प्रसन्नतादायक, यज्ञ को संपन्न और बांधवों को हर्षित करने वाले शीघ्रगामी इन्द्र को सोम समर्पित करो।
अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः । प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥ 8 ॥
सैकड़ों यज्ञ संपन्न करने वाले हे इन्द्र ! इस सोम के पान से बलिष्ठ होकर तू दैत्यों का नाशक हुआ है। इसी के बल से तू समर-भूमि में योद्धाओं का रक्षाकारी हो ।
तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो । धनानमिन्द्र सातये ॥ 9 ॥
हे शतकर्मा इन्द्र! युद्धों में बल प्रदान करने वाले तुझको हम धनों
की प्राप्ति और ऐश्वर्य के निमित्त हविष्यान्न समर्पित करते हैं।
यो रायो वनिर्महान्त् सुपारः सुन्वतः सखा । तस्मा इन्द्राय गायत ॥ 10 ॥
जो धनों का सर्वत्र रक्षाकारी, कष्टों का नाशक और याज्ञिकों से मैत्री का भाव रखने वाला है है याचको ! उस इन्द्र के लिए स्तोत्रों का गान करो।
सखायः (ऋषि- मधुच्छन्दा। देवता – इन्द्र । छन्द-गायत्री।) गायत । आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र
पांचवां सूक्त
स्तेमवाहसः ॥ 1 ॥
स्तवन करने वाले हे मित्र स्तोताओ! इन्द्र को प्रसन्न करने के निमित्त यहां आकर बैठो और उसके गुणों का गान करो।
पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥ 2 ॥ सब एकत्रित होकर संयुक्त रूप से सोमरस को शोधित करो और शत्रुनाशक ऐश्वर्यवान् इन्द्र की स्तुतियों द्वारा प्रार्थना करो।
स घा नो योग आ भुवत् स राये स पुरंध्याम्। गमद्वाजेभिरा स
वह इन्द्र अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा हमें प्राप्त हो और हमें धन- धान्य से परिपूर्ण करे तथा हमारे पुरुषार्थ को प्रखर कर हमें सुमति दे। यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः । तस्मा इन्द्राय
गायत ॥ 4 ॥
उस इन्द्र के अद्भुत गुणों का गान करो, समर-भूमि में जिसके
अश्वों से युक्त रथ के आगे शत्रु टिक नहीं पाते हैं ।
सुतपाने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये । सोमासो
दध्याशिरः ।। 5 ।।
यह शोधित और छाना हुआ, दही मिश्रित सोमरस सोम का पान करने वाले इन्द्र के निमित्त स्वतः प्राप्त हो। त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय
सुक्रतो ॥ 6 ॥
हे श्रेष्ठकर्मा इन्द्र ! तू सोमपान द्वारा देवताओं में उन्नत होने के लिए सतत् तत्पर रहता है।
आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः । शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ 7 ॥
स्तुति योग्य हे इन्द्र ! तीनों सवनों में व्याप्त यह सोम सदा तेरे सम्मुख रहे और तेरे लिए सुखपूर्वक हो तथा तेरे ज्ञान को समृद्ध करे।
त्वां स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो । त्वां वर्धन्तु नो
हे शतकर्मा इन्द्र ! स्तुतियों द्वारा तू वृद्धि को प्राप्त हो। हमारी वाणी द्वारा उच्चारित ये स्तोत्र तेरी महत्ता को बढ़ाएं।
अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम्। यस्मिन् विश्वानि
पौंस्या ॥ 9 ॥
सामर्थ्यशाली, बलशाली और बल-पराक्रम प्रदान करने वाला इन्द्र हजारों के पालन का सामर्थ्य हमें प्रदान करे तथा अनेक रूपों में विद्यमान सोमरूप अन्न का सेवन करे।
मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूनामिन्द्र गिर्वणः । ईशानो यवया
वधम् ॥ 10 ॥
हमें सुरक्षा प्रदान करने वाले हे स्तुत्य इन्द्र ! हमें कभी कोई हिंसित न करे। कोई भी शत्रु हमारे शरीर को क्षतिग्रस्त न कर सके।
Rigveda sukta number 1to5 t meaning of shloka
Rigveda 1 to 5 Sukta & Shloka ke arth hindi mein
ऋग्वेद सूक्त संख्या १ से ५ श्लोक के अर्थ
प्रथम मंडलम् (प्रथमाष्टकः )
अथ प्रथमोऽध्यायः
(प्रथमोऽनुवाक)
पहला सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र। देवता- अग्नि। छन्द- गायत्री ।) ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं
रत्नधातमम् ॥ 1 ॥
यज्ञ का पुरोहित, देवता, ऋषि और देवों का आह्वान करने वाला होता तथा याजकों को यज्ञ का लाभ प्रदान करने वाला जो अग्नि है, हम उसकी उपासना करते हैं।
अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवां एह
वक्षति ॥ 2 ॥
पूर्वकालीन ऋषियों द्वारा प्रशंसित अग्नि इस काल में भी ऋषिगण द्वारा स्तुत्य है। वो अग्नि इस यज्ञ में देवताओं को आह्वाहित करे। अग्निना दिवेदिवे । यशसं
रयिमश्नवत् पोषमेव
वीरवत्तमम् ॥ 3 ॥
धन और यश प्रदान करने वाला अग्नि यजमानों (मनुष्यों) को प्रतिदिन पुत्र-पौत्रादि तथा वीरत्व (वीर पुरुष) प्रदान करने वाला है। अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद् देवेषु
गच्छति ॥ 4 ॥
सबका रक्षण करने समर्थ हे अग्ने ! स्वर्ग में रहने वाले देवगण को तू जिस यज्ञ द्वारा तृप्त करता है, विघ्नरहित उस यज्ञ को तू सभी ओर से आवृत किए रहता है।
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत् ॥ 5 ॥
इस यज्ञ में देवताओं के साथ आगमन करने वाले हे अग्ने ! तू हवि प्रदान करने वाला, ज्ञान और कार्य की संयुक्त शक्ति का प्रेरक, सत्यरूप तथा विलक्षणरूप से युक्त है । यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत
सत्यमंगिरः ॥ 6 ॥
हविदाता के कल्याण के निमित्त हे अग्ने ! जो तू धन, आवास संतान और समृद्धि आदि प्रदान करता है, भविष्य के किए गए कर्म (यज्ञ) के द्वारा वो तुझे ही प्राप्त होता है।
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त
एमसि ॥ 7 ॥ हे अग्ने! तेरे उपासक हम तेरा सान्निध्य पाने के लिए उत्तम बुद्धि
द्वारा तेरी उपासना करते हैं, रात-दिन तेरा सतत् गुणगान करते हैं।
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥ 8 ॥ हे दीप्तिमान अग्ने ! तू यज्ञों का रक्षक, सत्य को प्रकाशित करने वाला तथा यज्ञस्थल में वृद्धि प्राप्त होने वाला है। स नः पितेव सूनवे ऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः
स्वस्तये ॥ 9 ॥
हे अग्ने ! जैसे पुत्र को पिता सहज ही प्राप्त होता है, वैसे ही तू बाधारहित होकर सुखपूर्वक हमें प्राप्त हो और हमारे मंगल के लिए सदैव हमारे समीप रहे।
दूसरा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र । देवता-वायु, इन्द्रवायु, मित्र, वरुण । छन्द- गायत्री।)
वायवा याहि दर्शते मे सोमा अरंकृताः । तेषा पाहि श्रुधी
हवम् ॥ 1 ॥ हे प्रियदर्शी वायो (वायुदेव) ! हमारी पुकार को सुनकर तू यज्ञ-
तू इसका स्थल पर आगमन कर। तेरे निमित्त शोधित सोम प्रस्तुत पान कर।
वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः । सुतसोमा
अहर्विदः ॥ 2 ॥
हे वायो! सोम निष्पन्न करने वाले, उसके गुणों के ज्ञाता स्तोता अपने स्तोत्रों द्वारा तेरी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं। वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे । उरूची
सोमपीतये ॥। 3 ॥
हे वायो! मर्म को स्पर्श करने वाली तेरी वाणी सोम का गुणगान करती हुई सोम-पान के अभिलाषी याचकों तक पहुंचती है।
इन्द्रवायु इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशन्ति fr 114 11
अन्न आदि पदार्थों सहित आगमन करने वाले हे इन्द्र और वायो! यह सोम तुम्हारे लिए अभिषुत किया गया है और यह तुम दोनों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है। वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू । तावा यातमुप द्रवत् ॥ 5 ॥
हे इन्द्र और वायो ! तुम दोनों धन व अन्नादि से युक्त सोमरस के ज्ञाता हो, अतः इस यज्ञ में शीघ्र आगमन करो।
वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम्। मक्ष्वि त्था धिया नरा ॥ 6 ॥
हे वायो! हे इन्द्र! यजमान द्वारा शोधित सोम के समीप आगमन करो। इसके लिए तुम सर्वत्र सामर्थ्यशाली हो।
मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥ 7 ॥
हम बंधु और वरुण का आह्वान करते हैं। वे घृत-समान प्राणपद वृष्टि कराने वाले हैं तथा हमें बल संपन्न करने और हमारे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं।
ऋत क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥ 8 ॥
हमारे पुण्यदायी कार्यों को सत्य से संपन्न करने वाले मित्र और वरुण सत्य से वृद्धि को प्राप्त होने वाले हैं।
कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥ 9 ॥
अनेक स्थानों में निवास करने वाले, जल द्वारा कर्मों को प्रेरित करने वाले, हमारी क्षमताओं, कार्यों और अधिकारों को पुष्टि प्रदान करने वाले मित्र और वरुण सर्वत्र व्याप्त, विवेकशील और शक्तिशाली हैं।
तीसरा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा, वैश्वामित्र। देवता- अश्विनी कुमार, इन्द्र, विश्वेदेव, सरस्वती । छन्द-गायत्री ।)
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती । पुरुभुजा
चनस्यतम् ॥1॥ शुभ कर्मों के पालक, द्रुतगति से कार्यों को परिपूर्ण करने वाले हे विशाल बाहुओं वाले अश्विनी कुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित यज्ञ के हविष्यान्नों से तुम अच्छी प्रकार तृप्त होओ।
अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं
अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमारी याचनाओं को स्वीकार करने वाले हे अश्विनी कुमारो! तुम अत्यंत धैर्यशाली, बुद्धिमान और विभिन्न कर्मों को करने वाले हो ।
दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः । आ यातं रुद्रवर्तनी ॥ 3 ॥
सत्य वाणी से युक्त, रोगनाशक, रुद्र के समान शत्रु-संहारक प्रवृत्ति वाले, दुर्धर्ष-मार्ग पर चलने वाले हे अश्विनी कुमारो ! यहां आगमन कर, कुशासन पर स्थित होकर छाने हुए सोमरस का पान करो।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः । अण्वीभिस्तना
पूतासः ॥ 4 ॥
अलौकिक कांति से युक्त हे इन्द्र ! पवित्रता से युक्त और उंगलियों द्वारा शोधित यह सोमरस तेरे लिए रखा है। इस सोमरस का पान करने के निमित्त तू यहां आगमन कर ।
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः । उप ब्रह्माणि वाघतः ॥ 5 ॥ हे इन्द्र ! उत्तम बुद्धि द्वारा प्रार्थना किया गया तू सोम सिद्ध करने वाले
स्तोताओं द्वारा आमंत्रित किया गया है। उनकी स्तुति को जानकर तू यज्ञ-
स्थल पर पदार्पण करे।
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः । सुते दधिष्व नश्चनः ॥ 6 ॥
हे अश्वयुक्त इन्द्र ! तू यज्ञ स्थल पर शीघ्र आगमन कर हमारी स्तुतियों को सुने तथा हमारे द्वारा प्रदत्त हवियों को ग्रहण करे। ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत । दाश्वांसो दाशुषः
सुतम् ॥ 7 ॥ सबको सुरक्षा एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, सभी प्राणियों के आधारभूत हे विश्वेदेवो ! इस हविदाता के यज्ञ में आगमन करो।
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः । उस्रा इव स्वसराणि ॥ 8 ॥
सूर्य की रश्मियों के समान गतिशील होकर हमें प्राप्त होने वाले हे विश्वे देवताओ! तुम कर्मवान् और द्रुतगति से कार्य करने वाले हो । विश्वे देवासो अस्त्रिध एहिमायासो अद्रुहः । मेधं जुषन्त
वह्नयः ॥ 9 ॥
हमारे यज्ञ में उपस्थित होकर अन्नादि ग्रहण करने वाले हे विश्वे देवताओ ! तुम किसी के भी द्वारा न मारे जाने वाले, सुखप्रद, कार्य-सक्षम और द्रोहरहित हो ।
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं वष्टु धियावसुः॥ 10 ॥
बुद्धिमत्तापूर्वक धन-अन्न, ऐश्वर्य प्रदान करने वाली एवं पावन करने वाली हे सरस्वते! ज्ञान-कर्म के द्वारा तू हमारे यज्ञ को सफल करे ।
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती ॥ 11 ॥
हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमें मनवांछित फल (वैभव) `प्रदान करने वाली देवी सरस्वती उत्तम बुद्धि को प्रशस्त करने वाली, सत्य एवं प्रिय वाणी बोलने की प्रेरणा देने वाली तथा यज्ञानुष्ठान को सफल करने वाली है।
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वावि राजति ॥ 12 ॥
सबकी बुद्धियों को जाग्रत और याचकों के ज्ञान को प्रखर करने
वाली देवी सरस्वती ज्ञान के समुद्र को प्रवाहित करने वाली है।
(द्वितीयोऽनुवाक)
चौथा सूक्त
(ऋषि- मधुच्छन्दा। देवता – इन्द्र । छन्द- गायत्री ।)
सुरुपकृत्नुमतये सुदुघामिव गोदुहे । जुहूमसि द्यविद्यवि ॥ 1 ॥ दुग्ध के दोहन के लिए जिस प्रकार गौओं को बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपनी रक्षा के लिए उत्तम यज्ञकर्मा इन्द्र को आह्वाहित करते हैं।
उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब । गोदा इद् रेवतो
मदः ॥ 2 ॥
हे सोमपायी इन्द्र ! सोम का पान करने हेतु तू हमारे यज्ञ में आगमन करे और सोम ग्रहण करने के उपरांत प्रसन्नचित्त होकर हम याचकों को गौ आदि धन प्रदान करे।
अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम् । मा नो अतिख्य आ गहि ॥ 3 ॥
इन्द्र! हम तेरे अधिक समीप रहने वाले श्रेष्ठ प्रज्ञावान् पुरुषों की उपस्थिति में रहकर तेरे विषय में अधिकाधिक ज्ञान की प्राप्ति करें। तू भी हमारे अतिरिक्त किसी अन्य के सम्मुख अपना स्वरूप प्रकट न करे।
परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्। यस्ते सखिभ्य आ वरम् ॥ 4 ॥
हे ज्ञानीजन ! तुम अपराजित, कार्यपालक, विशेष बुद्धि वाले इन्द्र के समीप जाकर मित्र और बांधवों के निमित्त धन-ऐश्वर्य को प्राप्त करो।
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इद्
इन्द्र की उपासना करने वाले उस (इन्द्र) की निंदा करने वालों को दूर चले जाने को कहें, जिससे वो देश से भी दूर भाग जाएं। उत नः सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः । स्यामेदिन्द्रस्य
शर्मणि ॥ 6 ॥
तेरे अनुग्रह से हे इन्द्र ! हम सभी वैभव आदि प्राप्त करें, जिससे जो भी शत्रु या मित्र हमें देखें, वो हमें सौभाग्य-संपन्न मानें।
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्।
पतयन् मन्दयत्सखम् ॥ 7 ॥
यज्ञ को शोभित करने वाले, आनंद प्रदान करने वाले, प्रसन्नतादायक, यज्ञ को संपन्न और बांधवों को हर्षित करने वाले शीघ्रगामी इन्द्र को सोम समर्पित करो।
अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः । प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥ 8 ॥
सैकड़ों यज्ञ संपन्न करने वाले हे इन्द्र ! इस सोम के पान से बलिष्ठ होकर तू दैत्यों का नाशक हुआ है। इसी के बल से तू समर-भूमि में योद्धाओं का रक्षाकारी हो ।
तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो । धनानमिन्द्र सातये ॥ 9 ॥
हे शतकर्मा इन्द्र! युद्धों में बल प्रदान करने वाले तुझको हम धनों
की प्राप्ति और ऐश्वर्य के निमित्त हविष्यान्न समर्पित करते हैं।
यो रायो वनिर्महान्त् सुपारः सुन्वतः सखा । तस्मा इन्द्राय गायत ॥ 10 ॥
जो धनों का सर्वत्र रक्षाकारी, कष्टों का नाशक और याज्ञिकों से मैत्री का भाव रखने वाला है है याचको ! उस इन्द्र के लिए स्तोत्रों का गान करो।
सखायः (ऋषि- मधुच्छन्दा। देवता – इन्द्र । छन्द-गायत्री।) गायत । आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र
पांचवां सूक्त
स्तेमवाहसः ॥ 1 ॥
स्तवन करने वाले हे मित्र स्तोताओ! इन्द्र को प्रसन्न करने के निमित्त यहां आकर बैठो और उसके गुणों का गान करो।
पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥ 2 ॥ सब एकत्रित होकर संयुक्त रूप से सोमरस को शोधित करो और शत्रुनाशक ऐश्वर्यवान् इन्द्र की स्तुतियों द्वारा प्रार्थना करो।
स घा नो योग आ भुवत् स राये स पुरंध्याम्। गमद्वाजेभिरा स
वह इन्द्र अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा हमें प्राप्त हो और हमें धन- धान्य से परिपूर्ण करे तथा हमारे पुरुषार्थ को प्रखर कर हमें सुमति दे। यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः । तस्मा इन्द्राय
गायत ॥ 4 ॥
उस इन्द्र के अद्भुत गुणों का गान करो, समर-भूमि में जिसके
अश्वों से युक्त रथ के आगे शत्रु टिक नहीं पाते हैं ।
सुतपाने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये । सोमासो
दध्याशिरः ।। 5 ।।
यह शोधित और छाना हुआ, दही मिश्रित सोमरस सोम का पान करने वाले इन्द्र के निमित्त स्वतः प्राप्त हो। त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय
सुक्रतो ॥ 6 ॥
हे श्रेष्ठकर्मा इन्द्र ! तू सोमपान द्वारा देवताओं में उन्नत होने के लिए सतत् तत्पर रहता है।
आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः । शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ 7 ॥
स्तुति योग्य हे इन्द्र ! तीनों सवनों में व्याप्त यह सोम सदा तेरे सम्मुख रहे और तेरे लिए सुखपूर्वक हो तथा तेरे ज्ञान को समृद्ध करे।
त्वां स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो । त्वां वर्धन्तु नो
हे शतकर्मा इन्द्र ! स्तुतियों द्वारा तू वृद्धि को प्राप्त हो। हमारी वाणी द्वारा उच्चारित ये स्तोत्र तेरी महत्ता को बढ़ाएं।
अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम्। यस्मिन् विश्वानि
पौंस्या ॥ 9 ॥
सामर्थ्यशाली, बलशाली और बल-पराक्रम प्रदान करने वाला इन्द्र हजारों के पालन का सामर्थ्य हमें प्रदान करे तथा अनेक रूपों में विद्यमान सोमरूप अन्न का सेवन करे।
मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूनामिन्द्र गिर्वणः । ईशानो यवया
वधम् ॥ 10 ॥
हमें सुरक्षा प्रदान करने वाले हे स्तुत्य इन्द्र ! हमें कभी कोई हिंसित न करे। कोई भी शत्रु हमारे शरीर को क्षतिग्रस्त न कर सके।
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