सभी जानते हैं की ब्रह्मांड की रचना ब्रह्मदेव ने की है. किन्तु ब्रह्मदेव ने ब्रह्मांड की रचना कैसे की जानिये. विश्वकर्मा देव की कथा ( story of vishwakarma) Brhmand ki rachna kaise hui in hindi? ब्रह्मदेव ने ब्रह्मांड की रचना कैसे की जानिये ? ( Brhmand ki rachna lord brhma ne kaise ki)
आदिपुरुष महादेव की आज्ञा मिलने पर ब्रह्माजी (lord brhma) ने जल में एक अण्डा स्थापित किया। धीरे-धीरे यह अण्डा बड़ा होने लगा। इससे ब्रह्माण्ड की रचना हुई। (universe was build) जैसे अहंकार अपना विकराल रूप धारण करता है, वैसे ही अण्डे के विकराल रूप धारण करने से ब्रह्माजी को चित्ता सताने लगी कि इसे कहाँ स्थापित किया जाय। प्रभु ने ब्रह्माजी की चिन्ता को दूर करने हेतु इसे शेषनाग के मस्तक पर स्थापित कर दिया। शेषनाग के मस्तक पर यह ब्रह्माण्ड सरसों के दाना जैसा दिखता था। गोल दाना होने के कारण हमेशा अस्थिर रहता तथा बार-बार, इधर-उधर गिर पड़ता। इस प्रकार ब्रह्माण्ड पर जो रचना की जाती थी, वह बार-बार गिरकर नष्ट हो जाती थी। इसका उपाय न समझ पाने के कारण ब्रह्माजी चिन्तित हो उठे। जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो उन्होंने परमात्मा की स्तुति की। तब प्रभु विश्वकर्माजी प्रकट हुए और सृष्टि निर्माण कार्य हेतु नवीन रूप धारण किया और ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड स्थिर करने का उपाय बताया। तब आठों दिशाओं में करोड़ों हाथियों के बल वाले आठ हाथी रख दिये गये। वे हाथी अपनी सूड़ों की सहायता से पृथ्वी के भार को टिका कर रखने लगे। इस प्रकार ब्रह्माण्ड स्थिर हुआ। परन्तु कभी-कभी हाथियों की रसाकस्सी के कारण पृथ्वी डांवाडोल हो उठती थी। इससे ब्रह्माजी की चिन्ता अभी बनी रह गयी थी। इस नयी मुसीबत को देखकर प्रभु ने पृथ्वी पर मेरू पर्वत रखवा दिया। इस प्रकार पृथ्वी की डांवाडोल स्थिति स्थिर हो गयी। तब ब्रह्माजी ने किस प्रकार रचना की इसे जानना बहुत्र रोचक है.
प्रभु विश्वकर्मा की आज्ञा से ब्रह्माजी ने
पूरे ब्रह्माण्ड को चौदह खण्डों में बाँट दिया। इनमें नीचे के सात खण्डों को सात
पाताल नाम दिया। इनके नाम हैं-अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल तथा पाताल। इसी प्रकार ऊपर के सात खण्डों के नाम
हैं-भूलोंक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक ।
ब्रह्माण्ड की रचना ठीक प्रकार होने के बाद
ब्रह्माजी ने जीवसृष्टि आरम्भ की। पातालों में नाग, राक्षस, यक्ष, दानव, पिशाच आदि का निवास कल्पित किया। भूर्लोक में मनुष्य निवास
करते हैं, भूवर्लोक में
पितृ निवास करते हैं, स्वर्लोक में
देवता निवास करते हैं। महर्लोक में महर्षि निवास करते हैं, जनलोक में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर निवास करते हैं।
तपलोक में प्रभु प्रिय भक्त निवास करते हैं। सत्यलोक में परमब्रह्म का निवास है।
इस प्रकार चौदह भुवनों का सृजन कर ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन करना आरम्भ किया।
इनमें सबसे पहले देवताओं की उत्पत्ति की गई। इन देवताओं में जो आदिपुरुष के अंश से
उत्पन्न हुए थे, उन्हें इन्द्र
नाम दिया और सभी राजाओं के राजा के रूप में इनका अभिषेक किया गया।
उसके बाद विभिन्न तत्वों का आश्रय लेकर ब्रह्माजी ने तैंतीस करोड़ देवता उत्पन्न किये। इसके बाद इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान- इन नाम के आठ देवताओं को आठ दिशाओं का अधिपति बनाकर उन आठ दिशाओं में उन्हें विराजमान किया और ब्रह्मा को सृष्टि के ऊपर तथा अनन्त को सृष्टि के नीचे स्थापित किया। ये दस दिशाओं में रहकर सृष्टि का रक्षण करने लगे। अब जो शेष देवता थे। उनके गुण, कर्मों के आधार पर उन्हें अधिकार सौंपे गये। तदनन्तर ब्रह्माजी ने दैत्य, दानव, यक्ष, राक्षस, पिशाच, नाग आदि अनेक पाताल की सृष्टियों की रचना की तथा उन्हें यथास्वरूप पाताल में स्थान दिया गया। जो कार्य जिसके योग्य था, उन्हें वह कार्य सौंपा गया। उसके बाद किन्नर, गंधर्व, अप्सरा, विद्याधर वगैरह की उत्पत्ति की गई। इन सबको भी इनके योग्य कार्य सौंपे गये। इन सबकी उत्पत्ति करने तथा उनके योग्य अधिकार सौंपने के बाद ब्रह्माजी ने मनुष्यों की सृष्टि करने की सोची। इन्हें पृथ्वी पर स्थान दिया गया। सृष्टि का सन्तुलन बना रहे इसलिये आदिपुरुष ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन देवताओं की नियुक्ति की। ब्रह्मा को सृष्टि का सर्जन करना था। विष्णु को पालन करना था और महेश को संहार करना था। तीनों देवताओं ने स्वतन्त्र रूप से कार्य करना शुरु कर दिया। ब्रह्माजी सृष्टि करते। विष्णुजी उसका पालन-पोषण करते और महेश उसका संहार कर देते। इस प्रकार सृष्टि का आरम्भ, विस्तार और संहार सब एक साथ होने से सब कुछ शून्य होता गया। इससे ब्रह्माजी धर्मसंकट में पड़ गये। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि अब क्या किया जाय। तब ब्रह्माजी ने पुनः तप का मार्ग अपनाया। काफी समय तक तप करने के बाद आदिनारायण प्रसन्न हुए तथा ब्रह्माजी को दर्शन दिया।
ब्रह्माजी ने अपनी व्यथा सुनाई तथा उपाय पूछा। प्रार्थना से द्रवित होकर श्रीनारायण ने उनको मैथुन धर्म से उत्पन्न होने वाली सृष्टि करने का आदेश दिया। तब ब्रह्माजी ने प्रजापतियों की उत्पत्ति मैथुन क्रिया से प्रारम्भ की। मैथुन धर्म सरल मार्ग था अतः सरलता से प्रजा की वृद्धि अपने आप होने लगी। तब ब्रह्माजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और पुनः अप तपस्या करने लगे। सूतजी बोले-ऋषिगण। इस प्रकार परमात्मा के मात्र रति-क्रीड़ा करने की इच्छा से इस जगत की उत्पत्ति हुई। फि एक जगत से अनेक जगत की उत्पत्ति अनेक गुणों और कयों मिलकर होती गई। सूतजी बोले- हे ऋषिगण! परमात्मा तो स्वयं आनन्दस्वरूप है रति-क्रिया का आश्रय लेकर परमात्मा ने सृष्टि को आगे ही बढ़ाया है। जिस सृष्टि की अस्थिरता से ब्रह्माजी चिन्तित थे उसे दूर किया औ स्वयं प्रभु मैथुन क्रिया का तटस्थ रहकर आनन्द लेने लगे। एक तरफ सृष्टि तो दूसरी तरफ इस सृष्टि को स्थिरता भी प्रदान करनी थी। प्रष स्वयं आनन्दस्वरूप और उन्होंने जो लीला की वह वन्दनीय है और सृष्टि का विस्तार करने वाली कोटि-कोटि आनन्ददायिनी हैं।
इसलिये हे ऋषिगण! परम कृपालु परमात्मा की इस लीला का जो श्रवण
करने हैं, उनको भी माया का
मोह नहीं हो सकता। वे रति-क्रीड़ा में रत रहने हुए भी आनन्दस्वरूप परमपिता के अंश
में समाहित हो जाते हैं। इस लीला का पाठ करने वाला पुरुषार्थी होता है। उसे इस जगत
और उस जगत दोनों जगह भोग और सुख की प्राप्ति होती है। आनन्दस्वरूप प्रभु अपने आनन्दित
भक्तों को अपने पास रखते हैं। उन्हें दर्शन देते हैं। सूतजी के इस गंभीर वाणी को
सुनकर शौनक आदि ऋषिगण अत्यन्त आनन्दित हुए और परमेश्वर का ध्यान कर उनकी करबद
प्रार्थना करने लगे। इस प्रकार जो भक्त सृष्टि के सृजन, प्रलय और संहार के सभी
वृत्तान्तों को सुनते हैं,
उनके कोटि-कोटि
जन्मों के पाप जलकर समाप्त हो जाते हैं।
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