हिंदी सत्य कथा: जब माँ के मरे दिल से आवाज़ निकली ( Hindi Satya Katha Maa ka Dil)

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हिंदी सत्य कथा: जब माँ के मरे दिल से आवाज़ निकली  ( Hindi Satya Katha Maa ka Dil)


हिंदी सत्य कथा: जब माँ के मरे  दिल से आवाज़ निकली


हम दिखाते हैं एक कुटिया के भीतर एक रोगी युवक गोपाल (24 वर्ष) खाट पर लेटा खांस रहा है और बीमारी में माँ माँ कह रहा है..वैधराज उसकी आखें और सीने को छूकर देखते हैं...शरीर पर कोई लेप मलते हैं...माँ परेशान होकर रोते-रोते बोलती है.

सावित्री देवी : आज पूरे छ: मास हो गए मेरे पुत्र को इसी प्रकार खाट पर लेटे लेटे किन्तु मेरा पुत्र स्वस्थ नहीं हुआ वैधराज जी...क्या हुआ है मेरे पुत्र को? कब स्वस्थ होगा ये.? आप कुछ भी कीजिये मेरे पुत्र के प्राण बचा लीजिये..मेरा इसके सिवा और कोई नहीं है वैधराज जी...

वैधराज : शांत हो जाओ...संकट के समय धीरज तो रखना ही पड़ता है सावित्री..रोग बहुत ही गंभीर प्रतीत हो रहा है तुम्हारे पुत्र का...किन्तु तुम चिंता ना करो, मैंने जो औषधि दी है बस उसे ही खिलाते रहो. ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएगा...एक बात और इस समय इसे आराम की बहुत ही अधिक आवश्यकता है..इसकी देह को जितना अधिक आराम मिलेगा ये उतनी ही शीघ्रता से स्वस्थ भी होता जाएगा...अब मैं चलता हूँ..ध्यान रखना.

वैधराज जाते हैं.. माँ अपने पुत्र के मुख के पसीने को आँचल से पोछती है.

गोपाल : ( बीमार स्वर में )  माँ ...माँ...

माँ : आज से दिन रात तेरी सेवा करुँगी मैं..चाहे कुछ भी हो जाए मैं तुझे स्वस्थ करके रहूंगी मेरे पुत्र..तुझे कुछ नहीं होने दूँगी मैं...

गोपाल : ( बीमार वाली आवाज़)  किन्तु माँ, घर और बाहर के सारे कार्य??

सामने पड़ी कुल्हाड़ी उठाकर बोलती है

माँ : उसकी चिंता तू मत कर मेरे लाल, तेरी माँ है ना, सब कर लेगी.. और आज से तेरे हिस्से का कार्य भी मैं ही करुँगी..किन्तु तुझे मैं कुछ नहीं होने दूँगी..

कुल्हाड़ी संभाल लेती है. कुल्हाड़ी एक सुखी लकड़ी को लगती है. हम दिखाते हैं सावित्री ने घर के आँगन में बहुत सारी लकडियाँ काट ली है. अब वो आखरी लकड़ी को काट रही है..वो पसीने से तर बतर है...उसकी हालत ख़राब है मगर वो लकड़ी काटे जा रही है. तभी उसका बेटा गोपाल किसी तरह घर से लंगडाकर बाहर निकलता है

गोपाल : माँ...माँ...

गोपाल गिराने को होता है तभी माँ जाकर बेटे को संभाल लेती है.

माँ : गोपाल !! तू बाहर क्यूँ आया पुत्र...वैध जी ने तुझे आराम करने के लिए कहा है..

गोपाल : ( बीमार स्वर )  अपनी माँ को इस दशा में देख, मैं कैसे आराम कर सकता हूँ..मेरे कारण तुझे इतना परिश्रम करना पड़ रहा है माँ..इससे अच्छा तो मैं मर जाता..

माँ : नहीं , ऐसा मत कहो मेरे पुत्र.. तुम्हारे अलावे मेरा इस संसार में और है ही कौन..अब तक मैं तुम्हारा मुख देख-देख कर ही तो जीती आ रही हूँ मेरे पुत्र...धीरज रख....सब ठीक हो जाएगा...देखना एक दिन तू दौड़ने लगेगा..हमारे अच्छे दिन पुन: लौट आयेंगे...भगवान पर विश्वास रख. जा भीतर जाकर आराम कर ले..मैं तब तक इन लकड़ियों को हाट पर बेच आती हूँ ताकि तेरे लिए कुछ भोजन का प्रबंध कर सकूं...मेरी प्रतीक्षा करना, मैं शीघ्र ही लौटूंगी मेरे पुत्र..जा आराम कर..अपनी माँ का कहा मान..

गोपाल फिर से भीतर जाता है. सावित्री सुखी लकड़ियों को समेटकर एक रस्सी से बांधकर गट्ठर बनाती है और फिर उसे सिर में डालकर निकल जाती है... हम दिखाते हैं सावित्री चूल्हे पर भोजन पका रही है. सामने बीमार खाट पर लेटा बेटा कभी माँ को तभी दूर रखे पानी के मटके को देखता है. वो माँ को हाथ बढाकर आवाज़ देना चाहता है मगर नहीं देता और फिर स्वयं ही उठने की कोशिश करता है..वो मटके तक लड़खड़ाकर जाने की कोशिश करता है..गोपाल गिरने वाला होता है तभी माँ का ध्यान जाता है भागकर जाकर पुत्र को संभालती है और उसे पानी पिलाकर फिर से खाट पर लिटा देती है...गोपाल सोया हुआ है और माँ अपने पुत्र के पाँव दबा रही है तभी माँ को पुरानी बात याद आती है. बीमार गोपाल लेटा है...वैधराज एक जड़ी को कटोरे के दूध में डूबोकर उसे बार बार सोये गोपाल के ओठो से छुवाते हैं. माँ देख रही है. वैधराज अपना सामान समेटकर जाने लगते हैं. तभी गोपाल की माँ भगाकर वैध के पीछे बाहर तक आती है.

सावित्री : वैध जी मैंने सुना है यदि कोई चाहे तो किसी का भी रोग अपनी देह पर धारण भी कर सकता है. क्या ये सत्य है??

वैधराज : हाँ ये सत्य है किन्तु इससे उसका जीवन संकट में आ जाता है जो दूसरों के रोग को अपने शरीर पर लेता है. तुम क्या सोच रही हो सावित्री ये मैं अच्छी तरह से समझ चुका हूँ. किन्तु स्मरण रहे यदि तुमने अपने पुत्र के रोग को स्वयं के शरीर में धारण करने की भूल की तो तुम्हारा जीवन जा सकता है. क्यूंकि रोग और दुःख व्यक्ति के कर्म से आते हैं जिसे स्वयं भगवान नियत करते हैं. यदि भगवान के बनाये नियमों के साथ खिलवाड़ किया गया तो इसका परिणाम भी बहुत भयंकर होता है. सावित्री सपने और उस विचार से बाहर आती है वो बार बार अपने पुत्र के मुख को देखती है.

सावित्री : मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगी पुत्र..मैंने निर्णय ले लिया है...तेरी ये गंभीर व्याधि अब तेरी माँ अपनी देह पर धारण करने वाली है. दुसरे दिन हम दिखाते हैं सावित्री देवी सिर पर एक पीला और लाल रंग से रंगा कलश रखे, हाथ में डंडा लेकर घर से निकली हुई है जो बडबडाती हुईं जा रही है.

सावित्री : पुत्र की व्याधि मुझे लग जाए..मेरा स्वस्थ उसको जाए...पुत्र की व्याधि मुझे लग जाए..मेरा स्वस्थ उसको जाए...सावित्री हाथ जोड़े ज़मीन पर रोल करती हुई लुढ़कती जा रही है..

सावित्री : : पुत्र की व्याधि मुझे लग जाए..मेरा स्वस्थ उसको जाए... लाल चुनरी से ढके एक पत्थर से ओपन करते हैं जिस पर सिन्दूर और लाल चूड़ीयाँ भी चढ़ाई हुई हैं. सावित्री हाथ जोड़े उस पत्थर की परिक्रमा कर रही है...और बीच बीच में शंख भी बजा रही है...

सावित्री : : पुत्र की व्याधि मुझे लग जाए..मेरा स्वस्थ उसको जाए...

धीरे धीरे उसे चक्कर आने लगते हैं वो गिरने को होती है तभी वैध जी आकर थाम लेते हैं..

वैधराज : सावित्री.. सावित्री ये तुमने क्या किया...मैंने तुम्हे माना भी किया था किन्तु तुम नहीं मानी..

बेहोश होते होते सावित्री बोलती है.

सावित्री : ( बीमार थकी) जो किया अपने पुत्र के लिए किया वैधराज जी..एक माँ अपने पुत्र के लिए कुछ भी कर सकती है...कुछ भी...आज से मेरा पुत्र मेरा जीवन जियेगा और मैं उसका...और सावित्री बेहोश हो जाती है..वैधराज सँभालते हैं. हम दिखाते हैं अब पुत्र के खाट पर बीमार माँ लेटी है उसे अब वही व्याधि लग चुकी है जो पुत्र गोपाल को थी. सामने वैधराज खड़े हैं पुत्र माँ के खाट के सामने रो रहा है.

गोपाल : ये तुमने क्या अनर्थ कर लिया माँ, मेरी व्याधि तुमने अपनी देह पर ले ली..?? तुमने ऐसा क्यूँ किया माँ..क्यूँ किया ऐसा बताओ मुझे ??

वैधराज : क्यूंकि इसके अतरिक्त तुम्हारी माँ के पास और कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं बचा था पुत्र..तुम्हारी माँ तुमसे अथाह प्रेम और स्नेह करती है गोपाल..ये तुम्हे मृत्यु पर्यंत खाट पर नहीं देख सकती थी... इसलिए तुम्हारी माँ ने तुम्हे स्वस्थ करने के लिए अपना पूरा जीवन ही दांव लगा दिया... पुत्र ,ऐसी माँ सौभग्यशाली बेटों को ही मिला करती है इसलिए तुम अब जीवन पर्यंत इनका ध्यान रखना पुत्र...

कहकर वैधराज चले जाते हैं. गोपाल माँ के सामने उनसे लिपटकर रोता है.

गोपाल : माँ...ये तुमने क्या किया माँ....क्यूँ किया ये सब मेरे लिए.. 

ऊपर भगवान भी ये दृश्य देखकर द्रवित हो जाते हैं.

नंदी : धन्य हैं ऐसी माँ जो अपने पुत्र के लिए अपने जीवन तक की परवाह नहीं करती. ऐसी माओं को नंदी कोटि कोटि बार प्रणाम करता है.. ( पार्वती से) माते, धरतीलोक पर ऐसी ममतामई, करुणामई माओं का जन्म होता है तो फिर उनके पुत्र भी तो धन्य हो जाते होंगे उन माओं की सेवा करके.?  गोपाल को भी एक अवसर मिला अपनी माँ की सेवा करने का..तो क्या प्रभु उस पुत्र के समक्ष कभी कोई कठिनाई नहीं आई..

शिव : कठिनाई नहीं नंदी अपितु उस पुत्र के समक्ष तो एक बहुत बड़ी परीक्षा आने वाली थी..

नंदी : परीक्षा प्रभु??

शिव : हाँ..नंदी एक भीषण परीक्षा...

नंदी सुनकर चौंक जाता है..


हिंदी सत्य कथा: जब माँ के मरे  दिल से आवाज़ निकली  ( Hindi Satya Katha Maa ka Dil)

हम दिखाते हैं गोपाल अपनी कुटिया के बाहर लकडियाँ काट रहा होता है. तभी दो पायल पहने हुए पाँव छम-छम करते हुए आगे बढ़ते हैं और आकर रुक जाते हैं. मगर गोपाल का ध्यान उस ओर नहीं जाता. पाँव फिर से छम-छम करते हैं मगर गोपाल नहीं देखता. तभी वो लड़की चूड़ी खनकाती है...हम दिखाते हैं ये एक सुन्दर सी नर्तिका स्वरा है. गोपाल का ध्यान नर्तिका की ओर जाता है और वो उसे देखकर देखता ही रह जाता है.

नर्तिका स्वरा : थोडा जल मिल सकता है क्या..मुझे प्यास लगी है? 

गोपाल हाँ में सिर हिलाता है और कुटिया के भीतर से मटका लेकर आता है और कुछ दूर से ही बोलता है.

गोपाल : वो पीने का पात्र आज ही माँ से टूट गया तो इसी से पीना होगा जल आपको..

नर्तिका : कोई बात नहीं..इसी से पी लूंगी....किन्तु तुम उतनी दूर खड़े रहोगे तो जल कैसे पिलाओगे मुझे... तनिक निकट तो आओ ?

गोपाल मटका लेकर आगे बढ़ता है. नर्तिका अपना चुल्लू बनाती है. गोपाल उसे जल पिलाता है और उसे देखता जाता है..गोपाल को नर्तिका से एक सुखद महक की अनुभूति होती है...जल पीने के बाद नर्तिका बोलती है.

नर्तिका : जल पिलाने के लिए धन्यवाद..मैं पास ही एक धनिसेठ के यहाँ की अतिथि हूँ..वहां बड़े बड़े घरों में मन नहीं लग रहा था तो इस ओर भ्रमण करने चली आई...

तभी घर के भीतर से बर्तन गिरने की आवाज़ आती है.

गोपाल : मेरी अस्वस्थ माँ को मेरी आवश्यकता है..मुझे भीतर जाना होगा

नर्तिका : जाइए...मैं कल पुन: आउंगी...

इतना बोलकर नर्तिका फिर से पायल छनका कर जाने लगती है...गोपाल उसे जाते हुए देखता है..तभी भीतर से फिर से कुछ गिरने की आवाज़ आती है..

गोपाल :  अभी आया माँ...

गोपाल भगाकर कुटिया के भीतर जाता है..

हम दिखाते हैं गोपाल आँगन के चूल्हे पर भोजन पका रहा होता है तभी अचानक उसका हाथ जल जाता है तो अचानक हंसने की आवाज़ सुनाई पड़ती है. गोपाल देखता है सामने वही नर्तिका युवती खड़ीं है जो उस पर हंस रही है.

नर्तिका : हा हा हा, भोजन बनाना पुरुषों का कार्य नहीं होता...हटो मैं बनाती हूँ..

गोपाल: किन्तु तुम तो धनिसेठ के यहाँ की अतिथि हो..फिर हमारे यहाँ भोजन??

नर्तिका : अतिथि वहां के लिए हूँ...तुम्हारे लिए नहीं......लाओ मुझे दो...

गोपाल : किन्तु ???

नर्तिका : अब किन्तु परन्तु छोडो और मुझे भोजन बनाने दो...

गोपाल हट जाता है..नर्तिका भोजन बनाने लगती है. गोपाल उसे भोजन बनाते हुए देखता है और मुस्कुराता है.

गोपाल : नाम क्या है तुम्हारा ?

नर्तकी : स्वरा..और तुम्हारा ?

गोपाल : गोपाल

नर्तिका : प्रत्येक दिन क्या तुम ही भोजन पकाते हो?

गोपाल : हाँ क्यूंकि माँ अस्वस्थ रहती हैं इसलिए..

तभी अचानक गोपाल की बीमार माँ खासते हुए कुटिया से बाहर आ जाती है. माँ को देखकर गोपाल सचेत होता है.

गोपाल : माँ !!

सावित्री : ( बीमार स्वर में)  कौन है ये युवती पुत्र ?

गोपाल : वो माँ ये धनिसेठ के यहाँ की अतिथि है...

नर्तिका : प्रणाम मांजी..

गोपाल : माँ ये कल भी आई थी हमारे यहाँ..प्यास लगी थी तो जल पीना था इन्हें. और देखो ना आज तो ये स्वयं ही आकर हमारे लिए भोजन भी पकाने लगी..

सावित्री : नाम क्या है पुत्री तुम्हारा?

नर्तकी : स्वरा....

सावित्री उस नर्तकी को ऊपर से नीचे तक देखती है.

सावित्री : ( बीमार खांसते हुए ) अच्छा नाम है...वैसे तुम्हारा कुल और गोत्र क्या है पुत्री..

ये सुनकर नर्तकी कुछ घबरा सी जाती है..

सावित्री : क्या हुआ? माता पिता ने बताया नहीं तुम्हे तुम्हारा कुल और गोत्र?

नर्तकी : मैं चलती हूँ वहां सभी मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे...

नर्तकी चली जाती है. सावित्री उसे जाते हुए देखती है.

गोपाल : वो तो बिना भोजन किये ही चली गयी माँ

सावित्री : उसका जाना ही उचित था पुत्र क्यूंकि वो और युवतियों से भिन्न है..

गोपाल : भिन्न है मैं कुछ समझा नहीं माँ...??

सावित्री : ( बीमार टोन) बस इतना समझ लो कि तुम्हे उस युवती से दूर रहना है..क्यूंकि वो ना तुम्हारे लिए हितकारी है ना हमारे कुल के लिए पुत्र...

माँ अपने आँचल से धागा निकालकर पुत्र की बाँह में बाँध देती है..

माँ : इसे संभाकर रखना..

माँ भीतर चली जाती है. हम दिखाते हैं नर्तकी एक जगह से छिपकर देख रही है जिससे बहुत गुस्सा आ रहा है.

नर्तकी : मेरा कुल और गोत्र जानना हैं ना मांजी आपको...अवश्य बताउंगी किन्तु तब जब आपका पुत्र इस नर्तकी की मुट्ठी में होगा..

हम दिखाते हैं गोपाल कुल्हाड़ी लेकर वन में लकडियाँ काटने निकला है. उसकी बाँह में वही धागा बंधा है. तभी उसे मनमोहक खुशबू का आभास होता है..

गोपाल : ऐसी मनमोहक सुगंध तो तभी आती है जब स्वरा आस पास हो..  

तभी उसे फिर से पायल की छम-छम सुनाई पड़ती है गोपाल उस ओर जाता है तो उसे स्वरा मिल जाती है जो पूजा की डलिया लिए होती है..

गोपाल : स्वरा तुम यहाँ ??

स्वरा : हाँ पूजा के लिए निकली थी किन्तु प्रतीत होता है भगवान मुझे यहीं मार्ग में मिल गए...

और स्वरा गोपाल के पैरों में फूल चढ़ा देती है...

नर्तकी : क्या तुम मुझे स्वीकार करोगे गोपाल ?

स्वरा को अपने चरणों से उठाते हुए.

गोपाल : तुम्हारी जैसी रूपवती कन्या को अस्वीकार करने का कोई भी कारण मेरे पास नहीं है स्वरा..

नर्तकी स्वरा : किन्तु तुम्हारी माँ के पास है...क्यूंकि उन्हें मेरा कुल गोत्र जानना है जबकि मुझे स्वयं मेरे बारे में कुछ नहीं पता..

गोपाल : किन्तु क्यूँ स्वरा...तुम्हे तुम्हारे कुल और गोत्र के बारे में कैसे नहीं पता?

स्वरा : क्यूंकि मैं ( रोने लगती है) अनाथ हूँ...और यही मेरा सबसे बड़ा दोष है गोपाल.

और वो गोपाल के कंधे पर अपना सिर रख देती है और आंसू गिराने लगती है. गोलाल स्वरा को संभालता है...

गोपाल : तुम चिंता मत करो स्वरा मैं अपनी माँ को मना लूँगा......हमारा विवाह होकर रहेगा.. तुम अपना ध्यान रखना...मैं कल पुन: मिलता हूँ..

गोपाल जाने लगता है हम दिखाते हैं गोपाल के बाजू का धागा अब स्वरा के हाथ में है...वो मुस्कुराती है...कुछ बुबुदाती है..धागा अब एक अंगूठी बन जाती है..जिसे वो अपनी उंगुली में धारण कर लेती है..

स्वरा : मैं केवल एक नर्तकी ही नहीं मायाविनी भी हूँ गोपाल और ये तुम्हे कभी ज्ञात नहीं होगा..अब तुम पूरी तरह से मेरी मुट्ठी में हो और अब तुम आज से वही करोगे जैसा मै कहूँगी...

नंदी : घोर आशचर्य प्रभु, उस सुन्दर स्त्री के दो रूप थे..वो नर्तकी भी थी और एक मायाविनी भी...?? तो क्या अब उसने गोपाल को अपने वश में कर लिया था.? वैसे थी तो वो एक षड्यंत्रकारी स्त्री ही जो गोपाल से विवाह करने की मंशा रखती थी..तो क्या उसने गोपाल को उसके साथ विवाह करने के लिए विवश कर दिया प्रभु?

शिव : केवल विवाह करने के लिए ही नहीं अपितु एक ऐसा जघन्य अपराध करने के लिए भी नंदी जो इस सृष्टी का सबसे बड़ा अपराध है...

नंदी : वो क्या प्रभु?

शिव : एक पुत्र के हाथों अपने ही माँ की ह्त्या...

ये सुनकर नंदी चौंक जाता है.

हम दिखाते हैं सावित्री द्वार पर बैठी अपने पुत्र की प्रतीक्षा में है तभी गोपाल लकड़ियों का गट्ठर लेकर आता है.

सावित्री : तू आ गया पुत्र...तुझे आज वो युवती मिली तो नहीं ना? उससे कोई बात तो नहीं की ना तूने..?

गोपाल : ( झल्लाकर)  तुम भी माँ क्या उस स्वरा के पीछे पड़ी हो जो स्वयं ही बेचारी एक अनाथ युवती है...जब उसका इस संसार में कोई नहीं..तो उसे उसके कुल गोत्र के बारे में कैसे पता होगा..? मैंने निर्णय ले लिया है माँ...मैं विवाह करूँगा तो उसी युवती से...

तभी माँ का ध्यान पुत्र की बाँह पर जाता है जिसमे धागा नहीं है. वो चकित रह जाती है.

माँ : पुत्र वो धागा कहाँ हैं जो मैंने तुम्हारी बाँह पर बाँधी थी..

गोपाल : अरे माँ तुम्हे उस धागे की पड़ी है और मैं अपने विवाह की बात कर रहा...जाकर ढूंढ लो पड़ी होगी वो धागा कहीं...

गोपाल गुस्से से भीतर चला जाता है..माँ परेशान हो जाती है.

सावित्री : वो स्त्री मात्र एक नर्तिकी नहीं हो सकती...उसने अवश्य ही मेरे पुत्र को प्राप्त करने के लिए अपनी काली विद्या का सहारा लेना आरम्भ कर दिया है...मुझे कल ही इसके काट के लिए कुछ करना होगा. बस आज किसी तरह रात्री का समय निकल जाए..

हम दिखाते हैं रात का समय है. गोपाल भूमि पर तो माँ खाट पर सो रही है..तभी गोपाल को स्वरा की विश्परिंग साउंड सुनाई पड़ती है.

स्वरा की विश्परिंग वौइस् : गोपालललल्ल..मेरे पास आओ गोपाल ...

गोपाल की आखें खुल जाती है और वो सम्मोहित होकर कुटिया के बाहर चला जाता है. हम दिखाते हैं माँ खाट पर सोयी हुई है.

गोपाल अँधेरी रात में ऐसे चलते हुए जाता है जैसे वो पूरी तरह से सम्मोहित हो. हम दिखाते हैं एक जगह स्वरा होम हवन जलाकर तंत्र क्रिया कर रही है. तभी वहां गोपाल आकर खड़ा हो जाता है. स्वरा उठकर उसके पास जाती है

स्वरा : तुम आ गए मेरे गोपाल? तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो ना?

गोपाल हाँ में सिर हिलाता है.

स्वरा : तो जाओ अपनी सोयी हुई माँ की ह्त्या करके उसका ह्रदय मेरे पास ले आओ...

गोपाल : ( सम्मोहित होकर) अभी लेकर आता हूँ स्वरा...क्यूंकि मुझे तुमसे ही विवाह करना है..और इसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ

गोपाल जाता है...स्वरा हंसती है.

स्वरा : अंतत: मैंने एक पुत्र को उसकी माँ की ह्त्या के लिए विवश कर ही दिया..यहीं आदेश था मेरे स्वामी कलयुग का जिसे आज मैं पूर्ण करने जा रही हूँ...गोपाल आता ही होगा यहाँ अपनी माँ का ह्रदय लेकर...

हम दिखाते हैं गोपाल के हाथ में माँ का खून से भरा हुआ ह्रदय है जिसे वो पकड़कर इसी ओर आ रहा है...

गोपाल : मै आ रहा हूँ स्वरा..तुम्हारे लिए अपनी माँ का ह्रदय लेकर....मुझे तुमसे विवाह करना है...

अचानक तभी गोपाल को एक पत्थर से ठेस लगती है और वो गिर पड़ता है..गोपाल के गिरने से माँ का ह्रदय भी एक ओर गिर जाता है जिससे आवाज़ आती है

माँ का ह्रदय : मेरे पुत्र गोपाल ! तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी पुत्र...??

गोपाल का अचानक से सम्मोहन टूटता है...

माँ का ह्रदय : पुत्र गोपाल, तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी मेरे लाल..?

गोपाल भागकर माँ के ह्रदय के पास आता है और उस ह्रदय को को सीने से लगाकर जोर से चिल्लाता है

गोपाल : माँ........ये मैंने क्या कर दिया माँ ???????

हम दिखाते हैं नंदी और पार्वती की आखों में अश्रु हैं.

नंदी : ये कैसा घोर अनर्थ कर डाला उस पुत्र ने अपनी माँ के साथ प्रभु? उसने समय रहते अपनी माँ की बात क्यूँ नहीं मानी?

शिव : जो माँ जीवित रहते अपने पुत्र का पालन-पोषण करती रही..उसके रोगी हो जाने पर भी दिन रात उसकी सेवा- करती रही, उस माँ के हृदय को मृत्यु के उपरान्त भी अपने ही पुत्र की चिंता थी...तभी तो उस माँ का ह्रदय बार बार उसके पुत्र से यही पूछता रहा कि पुत्र तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी...?

पार्वती : इस कथा ने हमे भी आज पूरी तरह से द्रवित कर डाला स्वामी..एक पुत्र के हाथों माँ की ह्त्या इस संसार का सबसे जघन्य अपराध है. ऐसे पुत्रों को नरक में भी स्थान नहीं मिलता. माँ इस संसार की सबसे बड़ी शक्ति है...सबसे बड़ा अनमोल उपहार है जो सारे दुःख और कष्ट झेलकर भी अपने संतानों को सुख देती है.

शिव : हाँ देवी इसलिए तो कहा जाता है एक माँ के ऋण को संसार में कोई भी नहीं चुका सकता चाहे वो हम त्रिदेव ही क्यूँ ना हों...

हिंदी सत्य कथा: जब माँ के मरे  दिल से आवाज़ निकली  ( Hindi Satya Katha Maa ka Dil)


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