तिरुपति बालाजी श्रीवेङ्कटेश्वर कहानी : Mythological Context of Venkatachala mountain & Tirupati Balaji story

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तिरुपति बालाजी श्रीवेङ्कटेश्वर कहानी   : Mythological Context of Venkatachala mountain & Tirupati Balaji story

तिरुपति'  ( Tupati/ Tirupathi Balaji )भारत के अत्यधिक ख्यात तीर्थ स्थानों में प्रथम गण्य है। यह पवित्र क्षेत्र 13°41′ उत्तर अक्षांस (नार्थ लॉटिट्यूड) और 79°24 पूर्व रेखाश (ईस्ट लागिट्यूड) पर आजकल के आन्ध्रप्रदेश के चित्तूर जिले की दक्षिणी छोर पर है। इस शहर के पास ही स्थित शैल शिखर पर भगवान श्रीवेङ्कटेश्वर स्वामी के अवतरित होने के कारण ही इस शहर का नाम तिरुपति है। तिरुमल शैल शिखरमाला, 'शेपाचल' नाम से ख्यात है। यह पहाडी प्रांत कडपा जिले में शेपाचल कहलाता है. तो कर्नूल जिले के उत्तरी प्रांत में 'नलमल' (काला पहाड)। चित्तूर, कडपा और कर्नल जिला में व्याप्त तीनों पहाडी श्रृंखलाओं की जोड पूर्वी घाटियों का आधा उत्तरी भाग है। इन पहाडी घाटियों का ऊपरी भाग अनेक पंक्तियों में वहु वलयों में और पर्वत श्रेणियों के रूप में तीन जिलों में परिव्याप्त हैं। इन को देखने से ऐसा लगता है कि एक महानाग कुंडली डालकर वहुत ही प्रशस्त और प्रशांत हो आराम कर रहा है। पुराणों के अनुसार ये आदिशेष ही हैं जो समस्त विश्व को अपने सहस्र फणों पर संभालते रहते हैं। पौराणिक परंपरा में मान्यता है कि ये श्रीवेङ्कटेश्वर स्वामी को अपने सात फणों पर लेकर उनकी सेवा में रत हैं। साथ साथ अहोवल नरसिंह को अपनी कुंडलीकृत शय्या पर तथा पवित्र कृष्णा नदी के दक्षणी तट पर विराजमान श्रीशैल पर्वत रूपी अपनी पूँछ पर श्री मलिकार्जुन ग्यामी को वहन किये हुए है। अहोवल क्षेत्र और श्रीशैल क्षेत्र दोनों कर्नल जिले में हैं। नलमल पहाडी श्रृंखलाओं में हैं। ये तिरुपति मे क्रमशः 120 और 180 मील की दूरी पर स्थित हैं। श्रीकालहस्तीश्वर, तिरुर्यात के पास ही केवल 25 मील की दूरी पर विलसित है। श्रीकालहस्ति क्षेत्र, शेप के फण के मुखस्थान पर स्थित है।


तिरुपति ( Tirupati Balaji) पहाड़ी तल बंगाल की खाड़ी तल में 2820 फुट की ऊँचाई पर है और उसका विस्तार क्षेत्र लगभग 100 वर्गमील में है। यह पहाडी विस्तार मात श्रृंखलाओं से युक्त है जो सर्पराज आदिशेष के सप्त फणों के रूप में मान्य है। इनमें पहले के चार लगभग सपाट और लगातर हैं जव कि पाँचवाँ और छटवाँ गहरी और सघन गिरि कंदराओं से युक्त है। इसे 'अवसारि' या 'अव्वाचारी' कोना' कहते हैं। कोना का अर्थ "व्यॉनी" (घाटी) है। इन सप्त गिरियों को शेपाचल, वेदाचल, गरुडाचल, अंजनाचल, वृषभाचल, नारायणाचल और वेङ्कटाचल नामों से अभिहित किया गया है। इनमें श्रीवेङ्कटेश्वर सातवी गिरि श्रृंखला पर श्रीग्यामी पुष्करिणी के दक्षिणी तट पर स्थित अपने मंदिर विमान में विलसित हैं। यह नारायण गिरि की ऊंचा गिरि से लगभग दो मील के अंतराल में है। नारायण गिरि शिखर समुद्री तल से लगभग 3600 फुट की ऊंचाई पर है।


ऐसे महान वेड्टाचल पर विलसित होने के कारण ही भगवान को चेटुटेश्वर नाम मिला है। श्रीवेङ्कटेश्वर मप्र्तागांर के अधिदेवता हैं। वैसे कोई अन्य नाम इतना विशेष ख्यात नहीं है, यद्यपि ये


तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर


सहस्र नामों से अचिंत है। तिरुपति (श्रीपतिपुर) नाम जिसका अर्थ लक्ष्मीपति है. वैसे तो वेङ्कटाचल को मिलना चाहिए था, जहां पर श्रीवेङ्कटेश्वर मंदिर में विलसित है। लेकिन यह नाम पहाडी तान में (नीचे) स्थित नगर को मिला है। तिरुपति नगर मुन्सिपल टाउन है (हाल ही में कापरिपन वना है।। पहाड़ के ऊपर, गिरि शिखर पर मंदिर के आसपास का गांव तिरुमन' (पवित्र गिरि) कहलाता है। तिरुमल को 'ऊपरी तिरुपति' (= एगुव तिरुपति) तया तिरुपति नाम से प्रसिद्ध नगर को दिगुव तिरुपति' (= निचला तिरुपति) भी कहा जाता है।

ऊपरी तिरुपति अथवा तिरुमल पर श्रीवेङ्कटेश्वर का पवित्र मंदिर है तो श्री गोविन्दराज स्वामी एव श्रीकोदंडराम स्वामी के मंदिर 'निचला तिरुपति' में है। श्रीकपिलेश्वर स्वामी का मंदिर पहाड़ के चरण तल में स्थित है। पास ही के तिरुचानूर में श्रीवेङ्कटेश्वर स्वामी की पट्टरानी श्रीपद्मावती देवी का मंदिर विराजमान है। इनको श्रीमहालक्ष्मी और श्रीअलरमेलमंगा (अलमेलुमंगा) भी कहते हैं। इसी मंदिर के पास ही श्रीकृष्ण और श्रीवलराम के मंदिर भी देखने को मिलते हैं। श्रीसुंदरराज स्वामी का भी मंदिर यहाँ स्थित है।

श्रीपराशरेश्वर स्वामी तिरुचानूर के पास के योगिमलारम गाँव में है। योगिमारम, प्राचीन समय में तिरुचानूर का ही भाग था। तिरुचानूर 'तिरुच्योगिनूर का विकसित रूप है। 'तिरुच्चोगिनूर' मानी 'श्री योगी का गाँव' है। इसमें 'योगी' शब्द पराशर बोगी के साथ जुडता है जिन के कारण योगि मलारम' नाम पड़ा है। यहां के पराशरेश्वर (मंदिर की स्थापना इनके द्वारा होने के कारण उनके नाम पर पराशरेश्वर है) आराध्य देव के रूप में स्थापित हैं। कालांतर में तिरुच्चोगिन् 'तिरुच्चुकनूर' यन। शुकपुर, शुकपुरी और शुकग्राम आदि नामों के पीछे श्रीशुक योगी का संवन्ध भी जुड़ जाता है। श्रीशुक योगी या श्रीशुक महर्षि के वारे में कहा जाता है कि उन्होंने यहाँ विलसित श्रीकृष्ण की आराधना की थी।

आळ्वारों और आचार्यों ने तिरुपति पहाड को वेङ्कटाचल, वेडूटगिरि और वेंगडम (वेङ्कटम्) नामो से अभिहित किया है। यहाँ पर दिव्य आनंद निलय विमान में श्रीवेङ्कटेश भगवान विराजमान है। इस क्षेत्र को विशिष्ट धार्मिक और पौराणिक प्रसिद्धि मिली है। दक्षिण भारत के तीर्थ क्षेत्रों में विशिष्ट स्थान तिरुमल को प्राप्त है। भगवान श्रीवेङ्कटेश्वर का लीला पर्वत मानते हुए भक्त इस पहाड को 'कीडाद्रि' भी कहते हैं। यह श्रीमहाविष्णु का श्रीवैकुण्ठ ही मानते हैं। वैसे तो वैकुण्ठ विष्णु भगवान का वास स्थल ही है। यहीं श्रीमहालक्ष्मी समेत हो वे रहते हैं। गरुड ने भगवान के आदेश से ही इस वैकुण्ठ को भूमि पर लाकर रखा है। मान्यता है कि श्रीश्वेतवराह ग्वामी ने इस प्रकार की आज्ञा दी थी। श्वेत वराह स्वामी भी विष्णु के अवतार ही थे।



अध्याय 2

श्वेतवराह कल्प की गाथा 1

(श्रीवराह स्वामी का पाताल से भूमि का उद्धार करना, और गरुड द्वारा क्रीडादि का धरती पर जाना)

(यह गाथा वगह पुराण, भाग-1, अध्याय तथा 3 में वर्णित है)

दो हजार चतुर युगों के बीच (अर्थात् आठ हजार युगों के बीच के समय में जा कि ब्रा के लिए एक दिन और एक रात का समय है. सूर्य भगवान ने अपनी तीक्ष्ण किरणों द्वारा आग उगली था। उस समय अनेका अनेको वयों तक वर्षाएँ भी नहीं हुई थी। इस कारण से तापित और व्यचित साधुजन और तपोधनों ने, जिन्होंने अपनी तपस्या के बल पर आत्मानुभूति प्राप्त की थी. भूमाता का दुःख का दूर करते और जनलोक (सप्त लोकों में से एक, पृथ्वी) के रक्षार्थ ब्रह्मा के प्रास पहुंचकर प्रार्थनापूर्वक कहा कि जंगल और पर्वतमालाएं प्रचंड अग्नि ज्वालाओं में जल कर राख हो गयी है। उस पर बायुदेव ने यहुयपों तक शुद्ध हो झंझाएं चलायी। घनघोर घटा समूह बने। मेघों ने मुसलाधार चपाएं की। परिणामस्वरूप पृथ्वी पिघल कर पाताल में इबी। इस स्थिति में पृथ्वीमाता एक हजार पुरा पर्यन्त रही।

यह समय ब्रह्म के लिए एक रात का अश था। युगा पर्वन्न का वह समय प्रलयकन्य था।

उस समय विष्णु, जो जीय तथा प्रदायों के सर्जक संरक्षक और संहारक थे. एक वट पच पर

शयन रत थे। उस समय वटपत्रशायी अपने आप में मग्न होकर पृथ्वी के पुनरुन्धान का याच में लीन थे। पृथ्वी की रक्षा के ध्यान में थे। इस सोच को मन में रखकर चे पाताल लोक में पृथ्वी का दृढते पहुंचे। उस संदर्भ में उन्होंने भयंकर श्वेत वराह का रूप धारण किया था। उस वगह रूप में भगवान ने हिरण्याक्ष से भयंकर चुद्ध किया। हिरण्याक्ष, उस समय नारकीय लोक के सम्राट थे। यही हिरण्याक्ष हिरण्यकशिप का भाई था। हिरण्याक्ष के पर्वताकार शरीर को श्वेतवराह अवतारी विष्णु ने अपने कठोर दष्ट्रों से (नुकीले और तेज दांतों से) चीर दिया। राक्षस के रक्त से रंजित होकर सात समुह लाल लाल हो गये। श्वेत वराह ने अपार जल राशि से पृथ्वी माता को अपने दान्तों पर सूर्गक्षत रखकर आदिशेप के फणों पर रख दिया। फिर खड़े रह गये। उस समय ऐसा लगा कि वहाँ जनलोक का एक महापर्वत खड़ा है। विष्णु भगवान के कार्य से संतुष्ट होकर ब्रह्म, देवता समूह और महपिं गण आडि ने वेद मंत्रों से श्वेत वराह अवतारी विष्णु भगवान का जय गान किया। मवने पृथ्वी को पुनव्यंांग्धन करने की बात उनके सामने रखी।

श्वेत वराह ने पृथ्वी की स्थापना की और सप्त सागरों की सीमा रेखाएँ बांधा। हनना ही नहीं पूर्वस्थित सप्तलोकों की भी प्रतिष्ठा की। तव जाकर विष्णु ने ब्रह्म को बुलाकर आज्ञा की कि वे पूर्ववत


तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर ( Tirupati Balaji Venkateshwar)

जगत की सृष्टि में लगे। तय से बहुत समय तक विष्णु भगवान ने पृथ्वी की रक्षा और जन रक्षा के लिए यही रहना चाहा। उसके लिए उन्होंने गरुड को वैकुण्ठ से क्रीडाचन को समस्त स्वागिक परिषद के साथ पृथ्वी पर लाने के लिए भी कहा। आज्ञा पाकर, गरुड वैकुण्ट पहुंचे। तब समस्त सुर समूह विष्वक्सन के नेतृत्व में पृथ्वी पर आया। विष्वक्सेन, वैकुण्ठ के रक्षक और विष्णु के सेनापति थे। इसी चीच बराह ने अपने वास के लिए उपयुक्त पवित्र क्षेत्र का भी चयन किया। यह क्षेत्र साट योजन (600 मील) पर्यन्त विस्तृत था। गोमती नदी के दक्षिण में पूर्व सागर की पश्चिम दिशा में तथा रुक्मा नदी की उत्तरी तट पर था। यह पुण्य पुरुषों के लिए उपयुक्त वास स्थल भी वन गया।

गरुड ने प्राकृतिक वैभव से, ऊँची ऊँची पर्वत शिखरों से शोभित क्रीडाचल को उस पवित्र क्षेत्र में बसाया। ये पर्वत शिखर सुवर्ण आभा से मण्डित और बहुमूल्य मर्माण माणिक्यों से युक्त थे। ऐसा लगता था मानो पंचोपनिषदों का उज्वल प्रकाश पुंज चमक रहा हो। उपनिपद देवता समुह उस क्षेत्र में वस गया। देवताओं के वास में पर्वत शिखरों की र्णिम कांति और प्रचल हुई। उसी प्रान्त ने नारायणगिरि नाम से अभिहित होकर प्रसिद्धि प्राप्त की। नागवणाद्रि चौड़ाई में तीन योजन (लीस मील) और लंबाई में तीस योजन (300 मील) है। आकृति में आदि शेप सम है। पर्वत हरि के शंख के आकार में ढला है। यह क्षेत्र सभी प्राणियों के आवास के लिए उपयुक्त तथा पवित्र क्षेत्र बनकर ही रहा। समस्त मानव कोटि के लिए अपने को समर्पित करने योग्य बन गया। स्वरूप में अनुपम हो सभी के लिए मुक्ति प्रदाता के रूप में विलसित हो गया। यह क्षेत्र आकस्मिक यात्रियों को भी मोक्ष प्रदान करना है।

श्वेत वराह ने नारावणादि को अपने द्वारा चर्यानत क्षेत्र में स्थापित करने का आदेश दिया। ऐसा करने के पश्चात् वहाँ पवित्र विमान में (मंदिर के गर्भ गृह में) वे स्वयं विराजमान हो गये। मंदिर का विमान अनेक कलशों से शोभित और वहुमूल्य मणि माणिक्यों से मण्डित हो दिव्य उज्जवल प्रकाश से विलसित है। अमूल्य मणियों से लसित महामणि मंटप का सीदर्च अवर्णनीय और अनुपम है। उससे सटकर मंदिर की पूर्वदिशा में पवित्र वन के वीच स्वामी पुष्करिणी है। इसकी दक्षिण दिशा में देवाधिदेव कमलाक्ष विष्णु भगवान शंख, चक्र और गदा से विर्लामत है। उनके वक्षःस्थल के दक्षिण पार्श्व में श्रीलक्ष्मी ने भी विलसित होकर दिव्य विमान को अपना वास बनाने का निर्णय लिया।

ब्रह्म, देवता समूह, मुनि गण, सप्त ऋषि और अन्य भक्तों ने तव श्रीश्वेत वराह ग्वामी से प्रार्थना की "हे भगवान! आपके भीकर दंष्ट्रों और वक्र विकराल भींहों से तथा उज्वल प्रखर अस्त्रों सम लटकती आपकी लटों से आपका स्वरूप अति भयंकर लग रहा है। देवताओं और भक्ता के संतोष के लिए आप सस्मित वदन हो विजिएगा। ऐसे रूप में आप इस पर्वत पर ही रहिएगा। आपने मानवों और पवित्रात्माओं के वास के लिए पृथ्वी माता की रक्षा की है। इर्यालए आप प्रशांत हो वहां हिए। मानवों

की रक्षा कीजिए। यहाँ से ही भक्तों की इच्छाओं की पूति कीजिए। कामित वर प्रदान कीजिए। ध्यान

तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर ( Tirupati Balaji)


योग और कर्म योग द्वारा आपको पाने में अशक्त जनों के लिए भक्ति ही एक मार्ग होता है न, प्रभू! उसी मार्ग पर चलकर वे सर्व सिद्धियाँ पा सकेंगे।"

सब की प्रार्थना सुनकर तुरन्त वराह स्वामी ने अपना विकराल रूप वर्जित किया। प्रशान्त रूप को स्वीकारा। उस स्थिति में वे चतुर्भुज और स्मित वदन से युक्त हुए। अनेक आभूषणों से लसित हुए। श्रीदेवी और भूदेवी संयुत हुए। तव उन्होंने विनम्न देवता समूह को संयोधित करके कहा- मैं इस बङ्कटाद्रि को वैकुण्ठ से अधिक चाहता हूँ। मेरा निर्णय है कि मैं यहाँ श्रीदेवी और भूदेवी सहित रहकर भक्तों की कामनाएँ पूरी करूं।" भगवान ने देवताओं को अपने अपने वास स्थानों पर लौट जाने का आदेश दिया। तुरत अन्तर्धान भी हो गये।

वैकुण्ठात् परमो होपा वेङ्कटाख्यो नगोत्तमः। अत्रैव निवसाम्ये श्री भूमि - सहितो ह्यहम् ।।

(श्लो - 12)

ददामि प्रार्थितान् अर्थान् मनुजेभ्यः सदा सुरान् ।।

(श्लो - 13)

(श्रीवाराह पुराण, भाग 1, अध्याय 35)

*
अध्याय 3

वेङ्कटाद्रि पर वराह भगवान का वास तथा तत्परिणामतः पर्वत का महत्त्व

जब से श्रीवराह स्वामी ने पृथ्वी की रक्षा की और गरुड ने वेङ्कटादि को वैकुण्ठ में नाकर प्रयु पर बसाया, तब से वे लक्ष्मी समेत इस पहाड पर अव्यक्त रूप में रहने लगे। इस पर्वत की चोटियाँ, जन धाराओं से युक्त होकर, तपस्यारत पुण्यात्मओं से विलसने लगी। ब्राह्मा ने स्वयं स्पष्ट रूप से उदघोषित किया कि स्वामी श्वेत वराह कल्प के अन्त तक यहाँ अधिर्वासित रहेंगे। हर कल्प में वे पृथ्वी की रक्षा कर, स्थापित और पुनःपुनः सृजित करते ही रहेंगे। ऋषि मुनियों द्वारा यह कल्प श्वेत बराह कल्प नाम से मान्यता पायेगा।

(हमारे संस्कार संकल्पों में भी श्वेत चगह कल्प का स्मरण किया जाता है। पहाड़ी श्रृंखलाओं में आवृत क्षेत्र ही श्रीश्वेत बराह क्षेत्र है।)

जय जय पाप, पवित्रता को नष्ट पहुंचाते हैं, जब जब धर्म को हानि पहुंचती है तथा अधर्म का विस्तार होता है, राक्षसों और दुष्टों का विकट रूप उभरता है. तब तब भगवान चराह नर डेव के रूप में अवतरित होते हैं। समय के अनुरूप रूप धारण कर पापों और पापियों का नाश करते है। मृधर्म की स्थापना के साथ साथ पवित्रता की भी सुरक्षा देते हैं। वेद विद्याओं को प्रोत्साहित करते हैं। अपने वास क्षेत्र से सभी प्राणियों के सामने प्रकटित होते हैं। श्रीलक्ष्मी, देवता समूह तथा अन्य सेवक वृन्द्र के माथ शेष शैल पर भ्रमण करते रहते हैं। वेङ्कटाद्रि पर अपना स्थिर वाम बनाते हैं। यह सब इर्मालए कि वे इस क्षेत्र को स्वर्ग से अधिक आनंद प्रदायक मानते हैं। उनका विश्वास है कि यह अन्यंत पवित्र क्षेत्र है। स्वर्ग, सूर्य लोक और अपने वैकुण्ठ में भी यह क्षेत्र उन्हें अत्यंत प्रिय है।

आस्थाय श्वेत पोत्रित्वं उञ्जहार धरां यदा। तदैवानाव्य वैकुण्ठाद अचलं गरुडेन वै। कल्पादावेव भगवान लीलारस महोदधिः ।।

(श्लोक 4)

(श्लोक 5)

विहरन रमया शार्थम् दरी निर्झर सानूषु। प्रकाशश्च प्रकाशश्च निष्टत एव सदा गिरी।। यावत् - कल्पं वसत्येव प्रोक्तां च परमेष्ठिना। कदाचित् पुण्य शैलेभ्यो दर्शनं वितरत यसौ ।। कल्पे कल्पे च धरणी उद्धरत एवं एव हि। श्वेत वाराह रूपेण धरणी चोधृता यतः।।

(श्लोक 6)

(श्लोक 7)

(श्लोक 8)

 तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर

श्वेत वाराह कल्पस्वाद आख्यया मुनयोः ययम्।।

(श्लोक १)

सर्वदा शेष शैलेन्द्रे विहरन रमया सह।

नित्यैर्मुक्तेश्च देवैश्च काम रूपैश्च संयुवैतः।।

(श्लोक 13)

तिष्ठत एवं सदा तस्मिन वेङ्कटाख्ये नगोत्तमे।

बैकुण्ठ स्वर्ग सूर्येभ्यः स्वगेहेभ्योऽविक अप्रियः।। (श्लोक (4)

अयं भगवतो हृद्यः पर्वतः पुण्य काननः ।।

(श्लोक 15, अध्याय 36)

(बाराह पुराण, भाग-१. अ. 4. श्लो 4-15)

यह पर्वत मूलतः ग्वर्ग के महाविष्णु की क्रीडादि है। इसे जब वराह स्वामी ने अपना वास क्षेत्र बनाया तो इसका वैभव और अधिक बढ़ा। इसकी शक्तियाँ अनगिनत और अनमोल हो गयी। इसीलिए यहाँ पर मानय शक्ति का भी फलीभूत होना अवश्य संभव हो जाता है। मत्रसिद्धि, ज्ञान सिद्धि और कर्म सिद्धि आदि की, बिना अवरोध के, प्राप्ति सहज और सरल है। यहाँ तक कि ग्वल्प आध्यात्मिक कार्यक्रम भी इस पर्वत पर संपन्न हो जाय तो इच्छित संकल्पों की सिद्धि में संपूर्ण महायक हो जाते हैं। समस्त पवित्र तीर्थ इस पर्वत पर विराजित है। विश्वास और भक्तिपूर्वक उपासना से भक्त की (साधक की) सारी आकांक्षाएँ सिद्ध होती हैं। ज्ञानार्थी ज्ञान सिद्ध हो जाता है। उसे विद्वत्ता समग्र रूप से संप्राप्न होती है। जो भक्न सूवर्ण आदि की प्राप्ति में संपन्न होना चाहता है, इसे अवश्य प्राप्त होता है। जो मत्यंतान की आकांक्षा से यहाँ पहुंचता है, उसे अवश्य संतान की प्राप्ति होती है। जो राज्याधिकार चाहता है उसे वह मिल ही जाता है। जो शारीरिक कमियों से निवृत्त हो सुखी रहना चाहता है. उसे स्वस्थता प्राप्त हो जाती है। स्वास्थ्य सिद्धि सरल हो जाती है। सभी भक्तों की इच्छाओं को पूरने का पवित्र क्षेत्र यही है। धन, धान्य, पशु संपत्ति आदि की इच्छाएँ भी पूर्ण होती है।

मंत्रसिद्धिस्तपस्सिद्धिर्यज्ञा सिद्धि स्तथैव हि।।

(श्लोक 15)

काम्यस्य कर्मणः सिद्धिर्वेवं अन्याश्च सिद्धयः।

भवन्त्यत्र नराणां च न हि विघ्नादिकं क्वचित् ।।

(श्लोक 16)

अल्पेन तपस्याभीष्टं सिध्यत यस्मिन गिरौ बरे।

सर्व तीर्थानि सततं पुण्यान

यत्रैव सन्ति हि।।

(श्लोक 17)

य एवं सेवते नित्यं श्रद्धा भक्ति समन्वितः ।

ज्ञानार्थि ज्ञानं आप्नोति द्रव्यार्थि कनकं बहु ।।

(श्लोक 18)

तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर

पुत्रार्थी पुत्रं आप्नोति नृपो राज्यं च विन्दति। व्यंगश्च सांग सद्रूपं प्रशून धान्यानि विन्दति ।।

(श्लोक 19)

यं यं कामयते मर्त्यः तं तं आप्नोति सर्वदा।।

(श्लोक 20)

(बगह पु. भाग-1. अ. 4. श्लो 15-20)

कनकाचल पर आठ प्रकार के खान हैं। वे केवल पवित्रात्माओं को ही दर्शन भाग्य प्रदान करते हैं। युग युगों से वही होता आ रहा है। यह श्रीनिवास गिरि है। भगवान श्रीनिवास का अधिवास पर्वत है। एक समय वह सुवर्ण पर्वत के रूप में दिखाई देता है तो एक समय ज्ञान के प्रकाश के रूप में। एक समय बज्ञ लहसुनियों का खान लगता है तो एक समय श्रीनिवास के दिव्य आवास के लिए अलंकृत दिव्य स्थली के रूप में। कभी पत्थरों का पहाड रूप में परिलक्षित होता है तो कभी दिव्य धाम बनकर। ये परिवर्तन समय के आवर्तन के साथ घटित होते रहते हैं।

परिणामतः कोई भी मनुष्य इसके महत्वपूर्ण रूप का न तो सही अनुमान लगा सकता है और न ही पवित्र प्रकृति के स्वरूप की कल्पना कर पाता है। वास्तव में यह वेङ्कटाद्रि प्राकृतिक तथा स्वर्णिम आभा से युक्त है। कलियुग में यह सामान्य पत्थरों का पर्वत ही लगता है।

अष्टानाम खनवः सन्ति लोहानां कनकाचले।

युग भेदेन दृश्यंते नराणां पुण्य कर्मणाम् ।।

श्रीनिवास गिरिश्चवं कदाचित कनकाचलः । कदाचित ज्ञानरूपोयं कदाचिद् रत्नरूपकः ।।

(श्लोक 30)

(श्लोक 34)

श्रीनिवास इवाभाति कदाचिद् भूषणोज्ज्वलः। काल भेदेन केपानचित प्राकृताचल रूपधृत।।

(श्लोक 35)

अप्राकृतस्स्वर्ण सानुर अपि श्री वेङ्कटाचलः। प्राकृताचलवद् भूमौ भविष्यति कलौ युगे ।।

(श्लोक 36)

(वाराह पु. भाग-1. अ 26, श्लो. 33)

संपूर्ण भक्ति में इस पर्वत पर चढनेवालों के परा में शक्ति बढ़ती है। पंगु गिरि लांघते हैं। अन्धों के नेत्र कमल सदृश हो निर्मल दृष्टि पाते हैं। मृक वाकक्ति पाकर ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ता है। वधिर को सब कुछ सुनाई देता है। निस्संतान स्त्री यत्र संतानयती वनती है। गर्गय धनी बनता है। यह

तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर

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गय भक्ति से ही संभव है जो विश्वास और समर्पण भाव से युक्त रहती है। ममुझत वरदान शक्नि में यह पर्वत विभासित है। इस सबसे यह स्पष्ट विदित है कि व्यक्ति संपूर्णतया और निश्चिततया वेड्टादि से शुद्ध प्रकृति पा सकेगा। स्वस्थ और स्वच्छ मन पायेग।

(श्लोक 31)

बेङ्कटाव्रौ परां भक्तिं वहंगच्छति चेदगिरम्। पंगुर्जघाल एव स्याद अचक्षुः पद्मलोचनः ।।

मूको बाचस्पति दूराश्रावी तु बधिरो भवेत। वंध्या तु बहु पुत्रा च निर्धन स्साधनो भवेत।।

(श्लोक 32)

एतत सर्व गिरी भक्ति मान्नेनैव भवेद ध्रुवम्। तत्त्वतो बेङ्कटाद्रेस्तु स्वरूपं वेत्तिकः पुमान।।

(श्लोक 33)

(वाराह पु. भाग-1, अ. 8. श्ली. 31-33)

*
अध्याय 4

विभिन्न युगों में क्रीडाद्रि के विभिन्न नाम

विभिन्न युगों और भिन्न भिन्न समया में अनेक कारणा में क्रोडादि विशिष्ट विशिष्ट अभिधाना से (नागो स) मुनियों द्वारा पुकारी गयी है। यथा कृतयुग में वृपमाचन अत्तायुग में अनताचा द्वापरयुग में शेपाचल और कलियुग में बहुटाचल (वाराह पु भागच अ4. श्लो 21-371। इनके अतिरिक्त निम्न उद्युत नाम भी अलित है-

चिंतामणि

* वांछित कामनाओं की पूर्ति करने के कारण

ज्ञानाद्रि

: ज्ञान प्राप्त कराने की शक्ति से मण्डित होने के कारण

तीर्थाद्रि

: अनेक पचिन्न तीयों से युक्त होने के कारण

पुष्कराद्रि

: लाल लाल सुदर कमला से विजित पुष्करिणयों से संयुत्त होने के कारण

वृषाद्रि या धर्माद्रि

अपनी उन्नति के लिए धर्म देवता के इन पंचिन्न श्रेणियों में तपस्यारत होने के कारण

इतना ही नहीं, कृत युग में वृप्रभासुर नामक राक्षम ने अनधिकार पुर्वक इस पवत को अपने अधीच में कर यहाँ के अऋषि मुनियों को पीडित किया था। लेकिन उसने तुंबर तीथ में पाँच हजार बपों के लिए कठोर तपस्या भी की। इस घोर तपस्या के समय वह हर दिन तुवुरु ताथ में पवित्र स्नान कर अपना सिर काटकर श्रीनर्गसंह स्वामी के झालग्राम को एक फूल के समान अर्पित किया करता था। सिर कटने के तुरन्त बाद उसके शरीर पर एक और नया सिर उग आता था। उसको तपस्या में प्रसन्न होकर भगवान नारायण प्रत्यक्ष हुए। इस राक्षस से कामना पूछा। राक्षस ने कोई वर नहीं माँगा। उसने नारायण के साथ केवल युद्ध करने की इच्छा प्रकट की। भक्त की इच्छा का तिरस्कार भगवान कसे कर सकते है? फलतः दोनों के बीच द्वड युद्ध चला। बहुत समय तक दोनों के बीच समरूप में युद्ध चला। अंततः नारायण को अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग करना पड़ा। वृपभासुर भी यही चाहता था। क्योंकि सुदर्शन चक्र से मरने वाले के लिए परमपद (स्वर्ग) प्राप्ति आवश्यंभावी है। परम गति सुनिश्चित हो जाने के पश्चात् असुर ने चाहा कि वह पहाड उसके नाम से पुकारा जाय। भगवान ने भव्यरूप में गक्षस की इच्छा स्वीकार की। उसे अपने बहुओं में लिया। तभी से इस पर्वत का नाम वृषभादि पड़ा। कृत युग में यह वृषभाचल नाम में व्यवहन रहा है।

 तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर ( Tirupati Balaji)

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(भविष्योनर पुराण, अध्याय-1, श्लो 40-68 इस गाया को जनक के पुरोहित भतानंद ने राजा जनक को सुनाया था।)

कनकाद्रि: इस पर्वत का आकार सुवर्ण कुंभ (कनक घटा) के रूप में होने के कारण, वह नाम पड़ा।

नारायणादि: नारायण नामक एक ब्राह्मण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या की थी। उसके नाम पर ही यह नारायणादि हुआ।

(भविष्य पुराण ने इस पर्वत को चार युगों में चार नामों में ख्यात बताया है वृद्यादि या वृषभात्रि, अंजनाचल, शेपाचल और बेङ्कटाचल। वाराह पुराण भाग 1 अ. 1. श्लो. 57-58 के अनुसार कृतयुग में यह अंजनाद्रि, त्रेतायुग में नारायणाडि, द्वापरयुग में सिंहादि तथा कलियुग में वेङ्कटाचल या बेडुटाडि नामों से प्रसिद्ध रहा है।)

वैकुण्टाद्रि : विष्णु भगवान के अधिवास घाम वैकुण्ठ में लाकर इस पर्वत को यहाँ प्रतिष्ठित करने के कारण यह वैकुण्ठादि नाम से प्रसिद्ध है।

सिंहाचल : नृसिंह का अवतार लेकर राक्षस हिरण्यकशिप के पुत्र प्रद्धाद की रक्षा हरि ने की है। इस

घटना का प्रान्त यही माना जाता है। इसीलिए यह सिंहाचल चन पड़ा।

अंजनाद्रि: वनचरों के राजा केसरी की पत्नी थी अंजनादेवी। संतान के लिए उन्होंने मतंग महर्षि से मागं की सलाह माँगी। महर्षि ने कहा कि पंपानदी (हंपी के पास) के किनारे नृसिंहाश्रम के पास से पचास बाजन की दूरी पर वेङ्कटाचल पर आकाश गंगा की झरी के पास जाकर बारह वर्ष की तपस्या करेंगी तो उनकी इच्छा पूरी होगी। वह स्थान नारायण गिरि के उत्तर में एक कोस की दूरी पर है। तपस्या के फलस्वरूप अंजनादेवी को एक पुत्र होगा। मतंग ऋषि की सलाह लेकर अंजनादेवी वेङ्कटादि पहुंची। यहाँ की ग्यामी पुष्करिणी में पवित्र स्नान किया। उसकी प्रर्दाक्षणाएं की। यहाँ के अश्वर्थ वृक्ष की भी प्रक्षिणा की। स्वामी पुष्करिणी तट पर विराजमान वराहस्वामी का दर्शन किया। फिर वे आकाशगंगा तीर्थ पहुंची। अपने पति केसरी और मुनियों के अशीर्वाद लेकर अपने बारह वर्ष की तपस्या आरंभ की। तपस्या के प्रथम वर्ष में अंजनादेवी ने केवल जल ग्रहण किया। वायुदेव ने प्रसन्न होकर इसके बाद हर दिन एक फल दिया। वारहवें वर्ष के अंत में वायुदेव ने उन्हें एक विशेष फल प्रदान किया। इससे वे गर्भवती हुई। उनको एक पुत्र हुआ। नाम रखा गया आंजनेय। आगे उन्हें हनु‌मान नाम मिला। इसी हनुमान ने देवताओं की सहायता की। अंततः वे गम से मिले और उनके अपर भक्त हो गये। अंजनादेवी के लिए योग्य पवित्र तपस्या स्थल बनने के कारण इस पर्वत को त्रेतायुग में अंजनाचल नाम मिला।


तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर ( Tirupati Balaji)

इस साम्रा का पूरा विवरण चौप्यार पुराण के अध्याय बाराह पुराण आग । अध्याय का संक्रत सात्र सिलता है।) माहै। के नाक 28-20 से अजनादेवी की तपस्या और हनुमान के जन्म

बराहाद्रि वराह इस क्षेत्र में स्थित रहन के कारण या दरार क्षेत्र है।

नीलगिरि : वानरा के प्रधान नील का वास स्थान होने के कारण यह नीलगिरि नाम से प्रसिद्ध है।

बेङ्कटावल या बेङ्कटाद्रि : अमृत अर्थ से युक्त धातु वे है और कट" मानो ऐश्वर्य से जुड़कर बहुट शब्द बना है। यह पर्वत संसार की विभूतियों और स्वर्ग प्राप्ति प्रदान करने की शक्ति से मण्डित हान के कारण बहुटाद्रि नाम से अभिहित है।

बेद्वारी अमृत बीजस्तु कटम ऐश्वर्य मुच्यते। अमृत ऐश्वर्य संघत्वाद बेङ्कटाद्रि रिति स्मृतः ।।

(वाराह पुराण, भाग 1 अ4.ना. 31)

वीर कट धातुओं के लिए एक और दूसरा अर्थ भी निष्पन्न किया गया है। वे का अयं सर्वप्राप और "ट" का अर्थ काटनेवाला या नाश करनेवाला। इस पर्वत ने श्रीकामाग्नि के साथव नामक एक ब्राह्मण के सभी पापों का नाश किया था। वह कलियुग में घटित घटना है। फलतः इस आंद्र को 'बेङ्कटाद्रि' नाम मिला। इस गाथा का विस्तारपूर्वक वर्णन ब्रह्माण्ड पुराण और भविष्योत्तर पुराण से मिलता है। ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि ऋषियों द्वारा यह नाम प्रचार में आया है। उन ऋषियों ने भूगु महर्षि के द्वारा यह पवित्र गाथा सुनी थी। वह वेङ्कटाचल माहात्यम् में भी र्णित है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार चतुरानन (ब्रह्म) से कलियुग में यह नाम प्रचार किया गया है।

अनेन पापजालं वै यस्माद् दग्वं द्विजन्मनः।।

(प्र. पु. अ. 6. श्ला 42)

बेङ्कटाचल इत्यस्य प्रसिद्धिर्भुवि वर्तताम्। सर्वा पापानि वें प्राहुः कटस् तद् दाह उच्यते ।। सर्वपाप दहो यस्माद वेङ्कटाचल इत्यभूत।। तदा नाम चकार आदेवेंङकटाचल इत्यपि। सर्व पापानि वें प्राहुः कटस् तद्दाह उच्यते ।। तस्माद बेङ्कट शैलो अयं लोके विख्यात कीर्तिमान।

(वही. श्लो. 43)

(बही. श्लो. 44)

(र्भाव. पुराण, अ. 1. চুলা 226)

(वही. अ. v. श्लो. 227)

 तिरुपति श्रीवेटुटेश्वर



श्रीनिवासगिरि : देवताओं के इस गिरि पर भगवान विष्णु ने दर्जन दिया था। विष्णु के कल प्वाल पर दक्षिण पाश्य में (दा ओर) बालक्ष्मी का वास है। इसीलिए भगवान विष्णु का सार्थक नाम वीनिवास है। उन्होंने इस गिरि को वास बनाया। इसीलिए इस गिरि का नाम श्रीनिवास गिरि पहा।

आनंदाद्रि : चीवकुष्ठ के निवासी देवता समूह का आनंद के साथ यहाँ रहना और अखण्ड जानंद

प्रदाता भगवान का वास क्षेत्र होना दोनों इस नाम के पीछे है। आनंदादि वास्तव में एवं भक्तों का

आनंद प्रदान करनेवाली अदि है।

श्रीशैल : आनंद और संपत्ति प्रदान करने की विलक्षण शक्ति में विलसित होने के कारण और श्रीलक्ष्मी देवी का यास स्थान होने के कारण यह भेल 'वीशैल कहलाता है।

शेपशैल, शेपाचल और शेषादि द्वापर युग में चायुदेव एक यार भगवान श्रीमद्भागवण के दर्शनार्थ तूफानी वेग से वैकुण्ठ पहुंचे। उस समय भगवान विष्णु श्रीदेवी के साथ बिलास मंदिर में थे। उस समय द्वार रक्षक आदिशेष थे। उन्होंने वायुदेव को रोका। इस पर वायुदेव कुद्ध हुए। दोनों के बीच कुछ समय तक द्वंद्व युद्ध चला। अंततः वे नारायण के पास पहुंचे। हर एक ने अपना दर्ष प्रदर्शित करते हुए कहा कि वही पराक्रमी है और श्रेष्ट है। उनके बडप्पन की परीक्षा के लिए भगवान ने आदिशेष में कहा कि "तुम अपने वल से आनंद पर्वन का कसकर पकड़े रहो।" यायुदेव में कहा "तुम इस पर्वत को मरु पर्वत की उत्तरी दिशा में उड़ाकर फेको।" परीक्षा का स्वरूप यही था कि वायूदेव आदिशेष के परिष्वंगन (घर से) पर्वत को हिलायेगा। वायुदेव और आदिशेप के बीच शक्ति प्रदर्शन की यह परीक्षा थी। भवकर होड चली। समस्त संसार हिले। शेष की विप ज्वालाओं और वायुदेव के प्रकपनों में गर्वत्र हलचल मच गर्दी। ब्रह्म, इंद्र और समस्त देवना समूह वहां पहुंचा। संग्राम को विराम देने की बात कही। प्रार्थना की। परन्तु न वायुदेव ने बात सुनी और न ही आदिशेप ने। तव ग्रहा ने आदिशेष में कहा "भगवान विष्णु आपकी असमान शक्ति को जानते है और हम सब भी। विश्व मंगल के लिए हे आदिशेय! आप कुछ ढीला कीजिए ताकि आप की कृपा से वायुदेव को विजय मिले। हमेशा विष्णु की सेवा में ग्न रहने के कारण आपने पूर्णता पायी है। इंप्यां आप के लिए शुभकर और श्रेयस्कर नहीं है।" इस पर आदिशेष ने अपने को थोडा ढीला किया। चायुदेव का प्रकोप बढ़ा। तेज तुफानी हवा चली। आनंद पचन कचल आर्थी क्रोश की दूरी पर जा गिग आर सुवर्णमुखी नदी की उत्तरी दिशा में स्थिर हो गया। आदिशेप अपने पर थोपी गयी पराजय से कुछ खिन्न अवश्य हुए। ब्रह्म तथा अन्य देवताओं ने उन्हें फिर समझाया "आप बेङ्कटाद्रि में समाहित रहेंगे आर भगवान विष्णु भी यहां रहेंगे। इसके बाद ब्रह्मादि देवता समूह वहां में अपने अपने लोकों की ओर चल दिया। तय आदिशेष विष्णु के सामने प्रणमित हुए। फिर व एक विशाल पर्वत बने। इसकी विति तास योजन पर्यन्त थी। आदिशेप का फण वेङ्कटाद्रि बना जहां पर

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इस तरह उस समय से पवित्रता वा महानता सित होकर वर्ग कारवा आऔर विटेश्वर भगवान के लिए पृथ्वी का वास क्षेत्र चना अनेक शुभ नक्षणा एवं गुणों में अभिमंण्डित ही यह क्षेत्र अनुपम शक्तियों से पूर्ण हुआ है। इंद्र और सहस्रफणी आदिशेस मिलकर भी इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन नहीं कर पायेंगे। चाहे सामान्य की चर्म चक्षुओं के लिए सामान्य पहाड या भले ही क्यान दिख, फिर भी मानवों की भक्ति यहाँ प्रफुलित होकर निर्मल बनेगी। निकीतीव्रता से मानव वांछित फल प्राप्त करेंगे। मंक्षेप में कही जाय ची बही होगा कि समस्त मानव कोटि को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि पहरी मिनगी।

तपस्या करने की शक्ति के अभाव से भी मानव बेङ्कटाद्रि से आलयन पायेगे और मुक्ति प्राप्त करता

(बराह ५ भाग-1, अ. 4, श्लो 35-37 तथा अ. 3. श्ला. 32-33)

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 तिरुपति श्रीवेङ्कटेश्वर

(तिरुपति बालाजी)

हिन्दी अनुवाद :

प्रो. यद्दनपूडि वेङ्कटरमण राव प्रो. गोपाल शर्मा

अंग्रेजी मूल

श्री साधु सुब्रह्मण्य शास्त्री



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