तिरुपति बालाजी की कथा : Curse & boon stories in Hindi. indian mythology Hindi stories for Tirupati Balaji

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Tirupati Balaji Shrinivas Hindi stories. Curse & boon stories in Hindi. indian mythology Hindi stories for Tirupati Balaji : तिरुपति  बालाजी की कथा : 


श्री वेंकटेश्वर की लीलाएँ  ( Tirupati Balaji Shrinivas Hindi stories)

सर्वश्री सम्पन्न भारतदेश में नैमिश नामक अरण्य प्रान्त परम पवित्र माना जाता है। उस शान्त पवित्र स्थान में शौनक आदि महामुनिजन रहते थे और भगवद् भजन

मुनियों ने सूत महामुनी से श्री वेंकटेश्वर की महिमायँ सुनना

तथा तपस्या करते रहते थे। उन मुनियों ने उत्तम पौराणिक और कथावाचक श्री सू महामुनि के मुख से भगवान व्यासजी के रचे अट्ठारह पुराण और भागवत की अन कथाएँ सुन रखी थी। इसलिए एक दिन वो लोग अपने नित्यकर्मों से निवृत्त होब सूतमुनींद्र के पास गए और सविनय प्रार्थना की आज श्रीवेंकटेश्वर की अवतार

महिमा का वर्णन करें। उनकी प्रार्थना सूनकर सूतमुनि बड़े प्रसन्न हुए और बोले - है मुनियो। आज हमने जो प्रश्न किया है, वह बड़ा ही उत्तम है। मै अवश्य आपको वेंकटेश्वर की महिमाएँ सुनाऊँगा। संसार के सभी प्राणियों को मुक्ति देने के लिए श्री महाविष्णु ने श्रीवेंकट पर्वत पर अवतार धारण किया है। श्री वेंकटेश्वर कलियुग में प्रत्यक्ष भगवान हैं। कहा भी है "कलौ वेंकटनायकः" वह अपने भक्तों को सर्व के कष्टों से बचाता रहता है। वह भक्तों की विनति तुरन्त सुन लेता है। ऐसे वेंकटेश्वर की महिमा मैं आप लोगों को सुनाऊँगा। आप लोग सावधान होकर सुनिए। जो इन कथाओं को ध्यान से पढेंगे और सुनेंगे, उन्हें शारीरिक, लौकिक कष्ट नहीं सताएँगे और अन्त में मुक्ति भी सुलभसिद्ध होगी।" सूतमुनि की बातें सुनकर शौनकादि मुनि बडे प्रसन्न हुए। सूतमुनि अपने गुरु व्यासजी का नाम लेकर इस प्रकार कहने लगे।

 

नारद मुनि का ब्रह्माजी के पास जाना

 

"नारदजी ब्रह्मा के पुत्र हैं। वे महाभक्त हैं। हरि का नाम स्मरण करते हुए बरोक - टोक तीन लोकों में घूमते रहते हैं। भक्तों एवं पतिव्रता सतियों की रक्षा करने और दुष्ट राक्षसों के शिक्षण के लिए कुछ न कुछ उपाय रचकर, भगवान विष्णु के 'शिष्ट रक्षण एवं दुष्ट शिक्षण' के लिए मार्ग बनाते हैं। एक बार नारदजी अपने पिता के दर्शन करने के लिए सत्यलोक गये। उस समय ब्रह्माजी पद्मासन पर बैठे हुए, चारों मुखों से नारायण का स्मरण करते थे। ब्रह्माजी की पत्नी सरस्वतीजी वीण, बजाती हुई मृदुमधुर स्वर में सामवेद के गीत गा रही थी। उस सभा मे इन्द्र आदि दिक्पालक, सूर्य आदि नवग्रह, सप्तऋषि अपने अपने कामों पर, ब्रह्माजी के दर्शन करने के लिए आए हुए थे। ऐसे समय नारदजी ने सभा भवन में प्रवेश किया। माता पिता को नमस्कार किया। ब्रह्मा ने आशीर्वाद देकर बैठने की आज्ञा दी। त्रिलोकसंचारी नारदजी 'से तोनों लोकों की बातें सुनने की इच्छा से सभी प्रसन्न हुए।

 

नारद मुनि का ब्रह्माजी के दर्शन

 

पुत्र को देखते ही ब्रह्माजी को एक बात याद आई। उन्होनें नारदजी से कहाः हे पुत्र ! तुम भगवान के बडे भक्त हो। तुम्हे एक कार्य करके, लोक का कल्याण करना चाहिए। कलियुग में भगवान नारायण ने अवतार ग्रहण नहीं किया है। कलियुग में सभी मानव भक्ति - श्रद्धा विहीन होकर, मूर्खता के कारण, अनेक पाप करते हुए नरक लोक को प्राप्त हो रहे हैं। इसलिए तुम अपने कौशल से कोई ऐसा उपाय करो कि भगवान भूलोक में अवतार धारण करें। तब मानव भक्तियुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होंगे। लोक का कल्याण होगा। उस कार्य से तुम्हें भी कीर्ति मिलेगी।" ब्रह्माजी की बातें सुनकर,

दूसरे देवता लोग भी बड़े प्रसन्न हुए ओर नारदजी को वह कार्य करने की प्रोत्साहित किया।

 

मुनियों के यज्ञ को देखने के लिए नारदजी का आना

 

नारदजी को अपने पिता की बात बहुत अच्छी लगी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि लोक का कल्याण करें। पिताजी से आज्ञा लेकर, नारदजी हरि नामस्मरण करते हुए भूलोक में गंगा के किनारे पहुँचे। उस समय वहां कश्यप आदि महामुनि सब मिलकर, बड़ा यज्ञ कर रहे थे। नारदजी यज्ञ शाला में पहुँचे। तीनों लोकों में पवित्र स्थान गंगातीर पर, समस्त लोकों के कल्याण के लिए किए जाने वाले इस यज्ञ को देखकर, नारदजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। नारदजी को लगा कि उनकी इच्छा सफल हो जाएगी।

सभी मुनियों ने नारदजी का स्वागत किया, और समुचित रूपसे आदरसत्कार किया तब नारदजी ने मुनियों से इस प्रकार कहा।

 

"हे मुनि श्रेष्ठों! आप सब लोग महात्मा और महा भक्त हैं। आप में से एक एक व्यक्ति में तीनों लोकों की सृष्टि करने की सामर्थ्य है। आप लोगों द्वारा किए जाने वाले इस पावन यज्ञ को देख कर मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। किन्तु मेरे मन में एक सन्देह पैदा हो रहा हैं। वह यह कि आप यह यज्ञ किस भगवान के प्रति कर रहे हैं? त्रिमूर्तियों में से कौन इस यज्ञ का फल देगा? यज्ञ फल को देने वाले भगवान के बारे में, मै कई दिनों से सोचता रहा। लेकिन मेरी समझ झ में कुछ न आया । आप महानुभाव व मेरे इस सन्देह को दूर कर दें।"

 

नारदजी के इस प्रश्न को सुनकर मुनिजन पशौपेश में पड़ गए। त्रिमूर्तियों - ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर - में से वे किसी एक का नाम न ले सके। नारदजी के प्रश्न का जवाब न दे सके, वे लोग चुप हो रहे। तब नारदजी हँसते हुए बोले मित्रो? बिना उद्देश्य के किया जाने यह यज्ञ व्यर्थ ही है न । इसलिए सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न

 

नारद मुनि मुनियों के यज्ञ को देखना

 

कीजिए की त्रिमूर्तियों में से कौन सत्वगुण सम्पन्न है और कौन मोक्षरूपी फल का दाता है तभी आपका यह यज्ञ सफल होगा।" इस प्रकार मुनियों के मन में सन्देह बीज डालकर नारदजी ने मन में सोचा कि अब ये मुनिलोग त्रिमूर्तियों की परीक्षा लेगे। उस परीक्षा में ब्रह्मा और महेश्वर हार जाएँगे और श्रीमन्नारायण जीत जाएँगे। इस परीक्षा के कारण लक्ष्मीजी और नारायणजी में झगड़ा होगा और नारायण जी रूठकर वैकुण्ठ छोड़कर भूलोक में आ जाएँगे। इस प्रकार मेरी इच्छा पूरी होगी और सभी मानवों का भला होगा। फिर वे अपने रास्ते चले गए।

मुनिया मुनियों के मन मे सन्देह की आग सुलग उठी। कुछ मुनि ब्रह्माजी का कुछ मुद शिवजी का और कुछ विष्णुजी का पक्ष लेकर जगढने लगे। शैव मुनियों ने कहा कि शिवजी ही अधिक समर्थ हैं। वैष्णव स्वामियो ने बताया कि विष्णूजी ही सबसे समई है। कुछ मुनियों ने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी का समर्थन किया। इस प्रकार मुनिजन अपने- अपने इष्टदेव की स्तुति करते हुए, अन्य देवों की निन्दा करने लगे। कुछ लोगों झगडालू नारदजी को कोसा। सारा यज्ञकार्य तितर बितर हो गया। मन्त्रपाठ वाट विवाद में बदल गया। सभी लोग आपस में झगडने लगे। यह देख कुछ वृद्ध मुनिया

कहा। "मुनियों! आप ज्ञानी हैं, धर्म और अधर्म को जानने वाले हैं और भले - की पहचान रखने वाले हैं। आप लोगों का इस तरह आपस में लडना झगडना वाद विवाद करना शोभा नहीं देता। कोई सुनेंगे तो हँस उटेंगे। आप में से कुछ लोगों नारदजी को कोसा। वह अच्छा नही हैं। क्यों कि नारदजी ने जो समस्या उठाई, वा बहुत अच्छी है। भगवान के महत्व को जान लेना भक्तों का कर्तव्य है। सत्वगुः रजोगुण तमोगुण इन तीनों में से सत्वगुण प्रधानता ही भगवान का स्वरूप है। इसलि यह जान लेना समुचित ही है कि त्रिदेवों में कौन सत्वगुण प्रधान है। त्रिमूर्तियों की सामर्थ्य और महत्व की परीक्षा ले सकने वाले मुनि श्रेष्ठ को भेजकर, इस सन्देह का निवारण कर लेना ही चाहिए।"

 

इस बात से सभी मुनि सन्तुष्ट हुए। किन्तु त्रिमूर्तियों की परीक्षा लेना कोई आसन काम नहीं हैं। सभी सोचने लगे कि इस कार्य के लिए योग्य व्यक्ति कौन है? कुछ मुनियों ने कहाः - इस कार्य के लिए भृगुमहर्षि ही योग्य हैं। उन्होंने अपनी तपस्या से कई शक्तियों को संप्राप्त किया हैं। उन्हीं को परीक्षाधिकारी बनना अच्छा रहेगा।"

यज्ञफल की दाता के लिए मुनियों का आपस में झगड़ा

 

दूसरे लोगों ने इस बात का समर्थन किया। भृगुमहामुनि भी सभा के आदेश सिर आँख पर रख लिया। उन्हें मन में शंका हुई कि यह तो आग से खेलने के समान हैं। फिर भ वे चल पड़े।

 

भृगु मुनि या ब्रह्मलोक को जाना

 

ब्रह्माजी भरी सभा में सुवर्णासन पर विराजमान थे। उस सभा में एक महर्षि, देवर्षि राजर्षि ब्रह्मर्षि बैठे हुए थे। एक तरफ सुर, यक्ष, गन्धर्व किन्नर आदि दे महति के महानुभाव शोभायमान थे। ब्रह्माजी उन्हें वेदों के अर्थ समझा रहे थे। सभा लोग बडी प्रसन्नता में सुन में सुन रहे थे। उस समय भृगु मुनि ने सभा में प्रवेश किया। लोग बार सभा को देख लिया और ब्रह्माजी को नमस्कार किए बिना ही बड़े गर्व के जाकर एक ऊँचे आसन पर बैठ गए। भृगु मुनि के आगमन से सभासद प्रसन्न तो हुए लेकिन ब्रह्माजी के प्रति भृगु की लापरवाही उन्हें बुरी लगी। दे दबी आवाज में ब्रह्माजी के अपमान की ओर भृगु के गर्व की चर्चा करने लगे।

 

भृगु का यह व्यवहार ब्रह्माजी को भी अपमानजनक लगा। सभा- मर्यादाओ का अतिक्रमण कर, नमस्कार तक किए बिना बैठे हुए भृगु को देख उन्हें क्रोध आया। आँखें लाल हो गई। भौहों टेढी करके और कठोर स्वर में बोलेः - 'रे भृगु ! मेरे वश मे पैदा होकर, धर्मा। अधर्मा को जानते हुए बडी तपस्या करके महिमा को प्राप्त करने पा भी तुम सभा के गौरव को निभा न सके। नहीं जानता था कि तुम इतने मूर्ख हो। इतना गर्वा? इस सभा का अधिपति में और मुझे नमस्कार किए बिना ही, मेरी अनुमति लिए बिना ही आसन पर बैठ गये? अपनी तपस्या शक्ति पर इतना गर्व हो गया? तुम तपस्या में किससे बड़े हो? यहाँ अत्रि, गौतम, जमदग्नि एकसे बढकर एक महामुनी बैठे हुए है "इस प्रकार ब्राह्माजी ने भृगु को खूब फटकारा। भृगु मन ही मन मुस्कुरा पडे और सोचाः - इन ब्रह्माजी को कितना अहंकार है। मैं नमस्कार न करूं तो इनके बड़प्पन में कौन सी कमी आई है। शान्तजनों को दूसरों की निन्दास्तुतियों से क्या काम? आत्माभिमान से युक्त राजसगुण प्रधान व्यक्तियों को ही यह गर्व होता है। तब ब्रह्मा में सत्वगुण की अपेक्षा रजोगुण की प्रधानता है यह सोचकर और ब्रह्माजी की बातों का जवाब दिए बिना ही, भृगुजी वहाँ से निकल गए।

 

ब्रह्मलोक में भूगु मुनि

 

भृगु मुनि का कैलास पहुँचना ब्रह्माजी की बात तो खुल गई है। अत्र शिवजी की परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि कैलास पहुँचे । नंदीश्वर, भृगीश्वर, चंडीश्वर आदि प्रथम शिवनाम स्मरण में मन्त्र थे। कैलास पर्वत पर जहाँ सुनिए वहाँ पंचाक्षरीमंत्र जप और प्रणवनाद के सिवा और कुछ नहीं था। भृगुमहामुनि सीधे परमेश्वर के मन्दिर के पास गए। द्वारपालक से पूछाः "तुम्हारे- शिवजी क्या कर रहे हैं?" उन्होंने जवाब दियाः हे मुनि ! इस समय भगवान शंकर माता पार्वती के साथ एकान्त में हैं। अब आपको उनके दर्शन नहीं होगा। आम फिर किसी समय आइए।"

 

भृगु ने सोचा कि ठीक समय पर आया हूँ। शिवजी की परीक्षा लेने का यही ठीक है। ऐसा सोचकर द्वारपालकों के रोकने पर भी, बेखटके भृगु मुनि शिवजी एकान्त मन्दिर में पहुँचे। अन्य पुरुष को देखकर पार्वतीजी भगवान के पास से दूर हद

 

कैलास में भृगु मुनि एकान्त में बैठे हुए पति पत्नी के पास जाना अनुचित है, यह जानते हुए भी मन्दिर घुस आए मुनि को देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध हो आया। वैसे ही वे रुद्र थे। रौद्राकार मे आँखों से आग बरसाते हुए शिवजी यों बोले :-

 

"रे मूर्ख ! अवस्था मैं बैठे होकर भी असभ्य के समान व्यवहार किया पति - पत्नी के एकान्त मन्दिर मे परपुरुषों का आना कहाँ उचित हैं? भीतर आने की तुम्हें आज्ञा किसने दी? बिना आज्ञा के तुम भौतर आए ही कैसे? समझ रखा था कि तुम बडे बुद्धिमान हो, ब्रह्मवंश में पैदा हुए हो, महा तपस्वी हो किन्तु यह नहीं जानता था कि तुम इतने मूर्ख भी हो। तुम ने वेदों का अध्ययन किया है। धर्म - अधर्म को जानते हो पति - पत्नी को एकान्त स्थल में देखना कितना पाप हैं? यह सब जानते हुए भी तुम किस घमंड पर भीतर चले आए? यह कितनी जग हँसाई की बात है। अब तुम्हें शाप दे दूँ तो? छिः तुम जैसे महामूर्ख का मुख भी नहीं देखना चाहिए। चले जाओं यहाँ से।" इस प्रकार जोर से चिल्लाते हुए शिवजी न मुनि को फटकारा भृगुजी ने चूं तक नहीं की। चुपचाप सब कुछ सुनते रहे और अन्त में मुस्कुराते हुए चले गए।

 

"अहो! क्रोध के कारण महान् व्यक्ति भी विवेक ज्ञान की खो देता है। आदि देव शंकर को मुझ पर कितना क्रोध आया। महा विरागी बन श्मशानों में रहने वाले को भी इतना क्रोध हुआ। इसका कारण तामसी गुण ही। तामस गुण प्रधान होने से ही, सर्वज्ञ, होते हुए भी इस प्रकार क्रोध दिखाया। इनके बडप्पन की पोल खुल गई है। अब यहाँ रहना बेकार है। अब मै जाऊँगा वैकुंट।" ऐसा सोचकर भृगुजी वहाँ से वैकुंठ की ओर चल पडे।

 

भृगु मुनि का विष्णुजी की छाती पर लात मारना

 

श्री लक्ष्मीजी का निवासस्थान होने के कारण वैकुंठ नगरी शोभा सम्पन्न थी, सबी प्रकार के धन - वैभव से युक्त थी। ऐसे वैकुंठ नगरी में प्रवेश करके भृगु मुनि सीधे

 

विष्णुजी के मन्दिर में गए। उस अवसर पर श्रीहरि शेषशय्या पर लेटे आराम कर रहे थे। लक्ष्मीजी उनके पैर दाब रही थी। दूर से स्वामी को मन में नमस्कार कर, भृगुजी निर्भय हो भगवान के पास गए और छाती पर एक लात जमाई। लक्ष्मीजी चकित सी रह गई। लात खाकर भगवान कुद्ध नहीं हुए। शय्या से उठकर, भृगुजी के चरण पकडकर शान्त स्वर में बोले :-

 

विष्णुजी की छाती पर लात मारते हुए भृगु ?

 

"हे महामुनि ! आज मेरे लिए बडा सुदिन हैं। आप जैसे तपोधनियों के चरण के स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र बना है। आज मोक्ष लक्ष्मी धन्य बनी है मेरे शरीर से लगकर आपका पैर दुख रहा होगा। कृपया आपके चरणों की सेवा करने का अवसर दें।" ऐसा कह कर और उनके चरण की आँख को फोड़कर, वे बोले:-

 

"स्वामी! आप महानुभाव है आपके मन की बात को मैं समझ गया हूँ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हैं कि आपका काम सफल बन गया है।"

 

विष्णुजी के परम शान्त स्वभाव से भृगु मुनि बड़े प्रसन्न हुए और छाती पर लात मारकर जो पाप किया, उसके लिए पश्चात्ताप करते हुए बोलेः - "हे रामनाथ ! जगन्नाथ! सभी मुनियों ने मिलकर इस कार्य को मेरे सिर पर डाल दिया हैं। भगवान हो आप को लात मारकर, मैंने बड़ा पाप किया है। मुझ जैसा पापी और कौन होगा? यह पाप दूर होगा कैसे? मेरे इस दोष को क्षमा कर, मेरी रक्षा करो प्रभू?" इस प्रकार भृगु ने भगवान विष्णु से विनय की श्रीहरी मुस्कुराते हुए बोले- हे मुनि ! तुम दुखी मत बनो। में तुम्हारे मन की बात को जानता हूँ। तुम यह पाप करने के लिए नहीं आए हो तुम्हारे कारण हमारा महत्व जगत में विदित होगा। जाओ तुम्हारा भला होगा।" ऐसा कह, भृगु को सन्तुष्ट करके भेज दिया।

 

लक्ष्मीजी का रुठकर भूलोक में जाना

 

भृगुमुनि बडे आनन्द के साथ भूलोक में गए और सभी मुनियों को श्री महाविष्णु के महत्व को जता कर, सारा यज्ञ फल भगवान विष्णु को समर्पित कराया।

 

भृगुजी के कार्य से विष्णुजी के वक्षः स्थल में रहने वाली लक्ष्मीजी को क्रो आया। ऐसे पापकार्य को करने वाले को भी दंड नहीं दिया गया। इस पर वे और भ क्रुद्ध हो गई और भगवान से कहा- "हे प्रभू! उस भृगुमुनी का घमंड देखिए। चौद भुवनों के प्रभु हो आपकी छाती में लात मारने का साहस ? इन्द्र आदि समस्त देवता

 

से पूजित आप को लात मारेगा? घोर अपमान है। यही नहीं, आपका वक्षः स्थल मेरा निवास स्थान है न ! आपकी छाती पर लात मारने का मतलब मुझे लात मारना है। उस

 

विष्णुजी से लक्ष्मीजी का रुटना

 

दुष्ट का सर्वनाश कर दूंगी। हूँ उसका क्या दोष? ऐसे दुष्ट को आपने क्षमा ही नही किया, ऊपर से प्रशंसा भी की है। शायद आप को प्रसन्नता हो सकती है, लेकिन मेरा दिल तो जल रहा है।" लक्ष्मीजी ने अपना सारा क्रोध नारायण पर दिखाया।

महालक्ष्मी के क्रोध भरे वचनों को सुनकर नारायणजी मुस्कुराते हुए बोलेः- हे णप्रिये ! भक्त और भगवान के नाते कोन समझकर तुम इस तरह क्रुद्ध हो रही हो।

 

भक्तों के मन की बात को जानना कठिन है। भक्तों के मन को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता। भृगुजी महामुनि हैं। वे ब्रह्मज्ञानी हैं। परमभक्त हैं। मेरा भक्त होकर वे मेरा अपमान कर सकेंगे? नहीं कभी नहीं। वे किसी महान कार्य के लिए यहाँ आए थे। उन में गर्व का लेशमात्र भी नहीं है। हम अपने ही भक्तों को कैसे दंड दे सकते हैं? सन्तान के कार्य से मातापिता नाराज क्योंकरे होंगे? तुमको शान्त हो जाना चाहिए।"

 

कोल्हापुर में लक्ष्मीजी की तपस्या

 

किन्तु भगवान के ये वाक्य लक्ष्मी को अच्छे नहीं लगे। वह भृगु को क्षमा नही कर सकी। वह रोष के साथ बोली:- "प्रभू! भृगु का कार्य आपको अच्छा लगे

 

लगे। लेकिन मै तो क्षमा नहीं कर सकेंगी। अगर आप उसे दंड न देंगे तो मे अब क्षणभर भी बैकुंठ में नहीं रहूँगी। आज से आप का रास्ता अलग और मेरा रास्ता अलग है। मैं वैकुंठ छोड़कर भूलोक में चली जाऊँगी उस दुष्ट ने हम दोनों को अलग कर दिया है ब्राह्मण भूलोक में वेदोक्त कमों से हीन और दरिद्र बनकर विद्याओं को बेचते हुए- यापन करेंगे।" लक्ष्मीजी ने ब्राह्मणों को शाप दिया। भृगुमुनि के अपराध से समस्त ब्राह्मण जाति को शाप का फल भोगना पड़ा।

 

परपुरुष से अपमानित होकर जीवित रहने की अपेक्षा नाक बन्द कर के तपस्या कर लेना बहुत अच्छा है, यह सोचकर लक्ष्मीजी वैकुंठ छोड़कर, पति पर प्रेम और सूखों से आसक्ति तजकर भूलोक में आगई। भगवान विष्णु ने बहुत अनुनय किया। किन्तु लक्ष्मीजी नहीं मानी, नहीं मानी। भूलोक में आकर घोर अरण्यों को भयंकर पर्वतों को, गंभीर नदियों को पार किया। ग्राम और नगरों को पारकर अन्त में गोदावरी नदी के किनारे, कोल्हापुरम में एक पर्णशाला बनाकर लक्ष्मीजी तपस्या करने लग गई।

 

पत्नी वियोग में विष्णु का शेषाद्रि पहुँचना

 

महालक्ष्मी के चले जाने पर वैकुंठ की शोभा जाती रही। दरिद्रदेवता का खुलकर विहार होने लगा। पत्नी के वियोग से विष्णु जी का मन भी विकल हो गया। किसी विषय में मन नहीं लग रहा था। प्रत्येक वस्तु लक्ष्मीजी की याद दिला रही थी। विष्णुजी बड़े दुखी हुए। भक्तों की रक्षा की अपनी प्रतिज्ञा को भूल गए। एक दिन वैकुंठ छोड़कर, लक्ष्मीजी को ढूंढते हुए भूलोक पहुँचे। भूलोक में भी कहीं लक्ष्मीजी का पता न चला। है प्राणप्रिये ! तुम हो कहाँ? तुम्हारा पता बताएगा कौन? तुम्हारे बिछुड़ जाने से मेरा जीवन ही व्यर्थ हो गया। तुम्हारे बिना में कैसे जीवित रह सकूँगा। मिलकर रहने वाले म लोगों को उस मुनीश्वर ने अलग कर दिया है। हाय फिर से तुम को देख सकूगा या

नहीं?" इस प्रकार सोचते - विचारते हुए, धूप में तपते, वर्षा में भीगते, पर्वतों घाटियों, गुफाओं में ढूंढते - हुए विष्णुजी इधर उधर घूमने लगे। पशु पक्षियों में भी अपना दुखडा सुनाकर, प्रिय पत्नी के बारे में पूछने लगे। प्रियात्मा के विरह में उनका हृदय व्यथित होने लगा। बेचारे विष्णुजी का बड़ा बुरा हाल हुआ। लक्ष्मीजी का नाम लेते - लेते, लक्ष्मीजी को खोजते ढूंढते वे अन्त में शेषाद्रि के पास पहुँचे।


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