भगवान् श्रीगणेशके प्रमुख 12 नामों का अर्थ और महत्व क्या है जानिये क्या है.
Ganesh ji ke 12 namon ka matlab kya hai. Ganesh 12 names meaning kya hai in Hindi. Ganesh naam ka meaning in Hindi kya hota hai? meaning of Ganesg names in Hindi?
भारतीय आर्य हिन्दू परम्परामें पंचदेव और उनमें भी भगवान्
श्रीगणेशका जो अप्रतिम महत्त्व है, वह किसीसे छिपा नहीं है। हिन्दू समाज, विशेषतः सनातन- धर्मानुयायी समाजका कोई भी कार्य भगवान् श्रीगणेशके अग्रपूजनके
बिना न आरम्भ होता है और न इसके बिना उसकी सफलताकी पूर्णताकी आशा ही की जाती है।
प्रत्येक कृत्यको मंगलमय एवं परिपूर्ण बनानेके उद्देश्यसे आरम्भमें ही श्रीगणेशके
द्वादश (12 names ) नामोंका संकीर्तन इस रूपमें किया जाता है-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो
विघ्ननाशो विनायकः ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । द्वादशैतानि
नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥ विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न
जायते ॥
इन श्लोकोंका भाव यह है कि जो व्यक्ति विद्यारम्भके अवसरपर, विवाहके समय, नगरमें अथवा नवनिर्मित भवन (गृहादि) में प्रवेश करते समय, यात्रादिमें कहीं बाहर जाते समय, संग्रामके अवसरपर अथवा किसी भी प्रकारकी विपत्तिके समय यदि श्रीगणेशके बारह
नामोंका स्मरण करता है तो उसके उद्देश्य अथवा मार्गमें किसी प्रकारका विघ्न नहीं आता।
गणेश के बारह नाम निम्नलिखित हैं- १-सुमुख २-एकदन्त, ३-कपिल, ४-गजकर्ण, ५-लम्बोद ६-विकट, ७-विघ्ननाशन, ८-विनायक, ९ -धूम्रकेत १०-गणाध्यक्ष, ११-भालचन्द्र और १२-गजानन।
सामान्य दृष्टिसे इन नामोंके अर्थ हैं-सुन मुखवाले, एक दाँतवाले, कपिलवर्णके, हाथीके-में कानवाले, लंबे पेटवाले, भयंकर, विघ्ननाशन, विशिष्ए नायकोचित-गुणसम्पन्न, धूम्रकेतु (धुएँके रंगों
पताकावाले), गणोंके अध्यक्ष, मस्तकमें चन्द्रको धारण करनेवाले और हाथीके समान मुखवाले। परंतु संस्कृत-
साहित्यानुरागीजन इस तथ्यसे सुपरिचित हैं कि संस्कृत- शब्दनिर्माता कथमपि
अर्थगाम्भीर्यविरहित नहीं रहे हैं। उन्होंने अपूर्व सूझ-बूझका परिचय देते हुए
गागरमें सागरकी भाँति एक-एक शब्दके पीछे एक-एक इतिहासको इस कुशलताके साथ अन्तर्हित
किया है कि जब व्यक्ति एकाग्रभावसे इनका अनुसंधान करता है, तब गह्वरस्थ रत्नोंकी भाँति भावरत्न सामने आ-आकर उसे विगलितवेद्यान्तरकी
अनिर्वचनीय भाव-भूमिमें : पहुँचाकर इस प्रकार विभोर कर देते हैं कि वह व्यति फिर
उसी स्थितिकी ही सतत कामना करने लगता है।
· भगवान् श्रीगणेशके प्रमुख
श्रीगणेशके द्वादश
नामोंमें प्रथम नाम है-'सुमुख'। युत्पत्तिको दृष्टिसे इसका अर्थ है-सुन्दर मुखवाला अथवा
अच्छा या शोभन है मुख जिसका। अब इस नामकी सार्थकता जाननेसे पूर्व हमें यह जान लेना
चाहिये कि 'सुन्दर किसे कहते किसे हैं?' आजकलकी परिभाषाके अनुसार गोरी चमड़ीवालेको 'सुन्दर' कहते हैं। भगवान् शिवके लिये, जो श्रीगणेशके जनक हैं, 'कर्पूरगौरम्' विशेषण मिलता है और माता पार्वतीका भी एक नाम 'गौरी' है और ये दोनों ही गौरवर्णके थे। यह इसलिये भी सुनिश्चित है
कि जहाँ पार्वती नगाधिराजतनया होनेके कारण इस सहज विशेषतासे युक्त हैं, वहीं भगवान् शिव भी कैलासवासी होनेके कारण गौरवर्णके ही हैं। यह विशेषता सभी
पर्वतीय क्षेत्रवासियोंको स्वाभाविक है और आज भी प्रायः यथापूर्व अक्षुण्ण है।
परंतु श्रीगणेशका वर्ग 'कपिल' कहा गया है। अतः
स्वाभाविकरूपमें यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि जब वस्तुस्थिति लोकमान्यताके
अनुरूप नहीं है, तब 'सुमुख' जैसा विशेषण श्रीगणेशको
क्यों दिया गया?' इसके उत्तरमें हम महाकवि माघका यह कथन प्रस्तुत कर सकते हैं-
'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ।' (शिशुपालवध ४। १७) इसके अतिरिक्त- 'भिन्नरुचिर्हि लोकः' (रघुवंश ६।३०) के अनुसार भी मनुष्य अपने भावनानुसार अपने पूज्यको 'सुन्दर' कह सकता है। परंतु श्रीगणेशके 'सुमुख' विशेषण या नामकी विशेषता शास्त्रीय दृष्टिसे इस प्रकार प्रतिपादित की गयी है- ' भगवान् शिवके शस्त्रप्रहारसे श्रीगणेशकी देहका तेज सूर्यके खण्डके समान बनकर निकला और गोल होकर मेंढकके समान उछलकर चन्द्रमण्डलमें जा मिला'- तद्देहस्थमहो दिनेशशकलाकारं वृत्तीभूय गर्त शशाङ्कबलये भवन्निर्ययौ प्रोत्प्लुत्य मण्डूकवत् ॥ (गणपतिसम्भव ४।८४) शास्त्रोंमें अभिरुचि रखनेवाले विद्वान् इस तथ्यसे सुपरिचित ही हैं कि चन्द्रको सौन्दर्यका आगार माना गया है और इसी कथनकी पुष्टिके लिये वेदोंने 'चन्द्रमा मनसो जातः' (यजुर्वेद ३१।१२) आदि वाक्य कहकर द्वादश नाम और उनका रहस्य १७३ विश्वात्माकी शुचिता, मनोहारिताका अन्तर्भाव उसमें दिखाया है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रमण्डलमें विलीन उनका तेज जब उन्हें पुनर्जीवित करनेके अवसरपर लौटा, तब वह अपने साथ चन्द्रकी सम्पूर्ण विशेषताएँ भी लेता आया और श्रीगणेशको 'सुमुख' नाम दिलानेमें सफल रहा। इसके साथ ही, क्योंकि श्रीगणेशका पूजन सर्वप्रथम किया जाता है, अतः कदापि कथमपि कुरूपका परिगणक नामोच्चारण उचित नहीं हो सकता। अतः उनके मुखकी सम्पूर्ण शोभाका एकत्र आकलन कर, उन्हें मूर्तिमान् मंगलके प्रतीक रूपमें स्वीकार कर 'सुमुख' नामसे सम्बोधित किया गया है। यहाँ कोई प्रश्न पूछ सकता है कि "हाथीकी सूँड़, छोटी-छोटी आँखें, लंबे-लंबे सूप-जैसे कान आदिसे युक्त मुखको क्या 'सुमुख' कहा जा सकता है?" उत्तरमें निवेदन है कि जिनकी दृष्टिमें चर्मके रंग-रूपका ही सर्वोपरि महत्त्व है, उनकी दृष्टिमें तो सत्य ही ऐसी रूप-रेखावाला कुरूप ही कहलायेगा; परंतु जो चर्मसे गुणोंको अधिक महत्त्व देते हैं, वे उसे सुरूप ही नहीं, श्रेष्ठ भी कहेंगे।
छोटी आँखें गम्भीरताकी एवं दीर्घ नासिका
बुद्धिमत्ताकी सूचक होती हैं और दीर्घकर्ण बहुज्ञताको प्रकट करनेवाले होते हैं।
आधुनिक आकृति-ज्ञानके विद्वान् (Profile Readers) भी इस कथनको सर्वांशमें
तथ्यपूर्ण स्वीकार करते हैं; अतः सत्य ही श्रीगणेशका 'सुमुख' नाम अन्वर्थक है; विशेषतः इसलिये कि वे अपनी सूँड़द्वारा ब्रह्मा-विष्णु-महेशके समन्वित-रूप अ, उ, म् अर्थात् ॐ को बना-बनाकर अपने माता-पिताका मनोरंजन किया
करते थे और जो भी अंक-विशेष भगवान्के श्रवण-स्मरण आदि परिचर्यालीन हो, वह 'सु' उपसर्गका उचित अधिकारी है ही; अतः श्रीगणेशका सुमुख नाम अन्वर्थक है- योऽलेखीदिव शुण्डकुण्डलविधेरोमक्षरं त्र्यक्षरं व्याकृत्या गुणवृद्धिसंज्ञकतया
विख्यातवर्णावलीम्। नाधारो न च लेखनी न च मसी व्योम्न्येव शुण्डभ्रमो नत्यौन्नत्यसुशिल्पकल्पनपरस्तातस्य मातुः पुरः ॥ री (गणपतिसं० ५।५३) इसके अतिरिक्त 'गण' शासनोत्कर्ष नामक नवें सर्गमें श्रीगणेशकी छोटी आँखोंकी
प्रशंसा करते हुए कहा गया है-
सर्वत्रैव सरोजपत्रनयना नेत्रप्रशंसां गताः श्रीविष्णुश्च
सरस्वती च कमला ब्रह्मा शिवो वा शिवा। देवोऽयं लघुचक्षुषोरपि धरः स्वे शासने
निह्नतो नाक्ष्णोरस्ति महत्त्वमक्षिमहसां यादृङ् महत्त्वं मतम् ॥
सूक्ष्मैरक्षिभिरेव वीक्षणचणो राजा प्रशस्यो मतो मन्ये तेन सदैव सूक्ष्मनयने एष
द्विपास्योऽधरत् । लक्ष्यं भेत्तुमिमे जगन्मृगयवोऽक्ष्णां कोणमामील्य यत्
सिध्यन्तीति गणेशसूक्ष्मनयने शिष्टो निजं शासनम् ।।
'अर्थात् - सर्वत्र कमलके समान नयनोंकी प्रशंसा होती है, जैसे-विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, शिव एवं गौरी आदि; किंतु यह गणेश छोटी-छोटी आँख धारण करता हुआ भी अपने गणशासनमें छिपा हुआ है।
जितना महत्त्व आँखोंके प्रकाशका होता है उतना आँखोंका नहीं। सूक्ष्म दृष्टिसे
देखनेवाला ही राजा प्रशंसनीय होता है। अतएव उसी विशेषताको धारण करनेके लिये गणेशने
छोटी आँखें स्वीकार की हैं; क्योंकि विश्वके सभी शिकारी निशानेके समय आँखोंके कोणोंको
सिकोड़कर ही सफल होते हैं, अतः गणेश अपने सूक्ष्म नयनोंसे यही सिखाते हैं।' नेत्रोंके साथ-साथ लंबे कानोंके सम्बन्धमें यह उल्लेख मिलता है- संशृण्वीत समं परं न विदधीतोच्चैर्विवेकं विने- त्येतच्छिक्षणवाञ्छयेव गणपः
कर्णी विशालावधात् । धर्तुं शक्नुत एव यौ बहुविधालङ्कारलोहाङ्कुशौ तौ
दुर्वर्णकलोकवर्णनिचयं किं नो धरेतां चिरम् ॥ (गणपतिसं० ९ । २९) अर्थात् - 'मनुष्यको चाहिये कि वह सुन तो ले सब कुछ, परंतु कोई भी कार्य ऊँचे लोगोंके साथ बिना विचार किये करे नहीं, यह सिखानेकी इच्छासे ही गणपतिने बड़े-बड़े कान धारण किये हैं।
जो (गणेशके कान) अनेक प्रकारके अलंकार एवं लोहेके अंकुश अपनेमें लटका सकते हैं, क्या वे चुगलखोरोंके कुछ अक्षरोंको चिरकालतक नहीं लटका सकते।' इस प्रकार सूक्ष्मनेत्र, दीर्घकर्ण होते हुए भी तद्गत विशेषताओंको परिलक्षित कर श्रीगणेशको 'सुमुख' नाम दिया गया है। श्रीगणेशका दूसरा नाम है-'एकदन्त'। इसके पीछे परशुराम के संघर्षकी घटना है। भगवती एक बार जब स्नान कर रही थीं और गणेश रहकर किसीको भी भीतर जानेसे रोक रहे थे सहसा परशुराम वहाँ आये और भीतर जानेके लि करने लगे। बात बढ़ चली और दोनोंमें ठन गई यद्यपि गणेशकी छोटी अवस्थाके कारण परशुराम प प्रहार करना नहीं चाहते थे; परंत गणेशके तीव्र वाइ प्रहारोंसे चिढ़कर उन्हें प्रथम प्रहार करना पड़ा उसके फलस्वरूप गणेशका एक दाँत टूट गया। प्रसंगका वर्णन इस रूपमें प्राप्त होता है- तीक्ष्णाग्रं वृषसूर्यरश्मिसदृशं बाहौ च पर्श रहे तद्भष्टः स पपात दन्तमुसले विद्युत्प्रचण्डस्वर पेतुः सूक्ष्मतमाः स्फुलिङ्गततयस्तीर्णा उदीणांस्तत क्रोधे लक्ष्यसमीक्षणेन नयने तिष्ठासतो दाांत। दन्तान्तोऽपि कृतान्तवत् प्रचलितस्तान्ती चिकीर्ष दिष्ट्या कीकसखण्डमण्डनकरोऽधावद् गणः शाम्भवः। योऽन्यास्थीनि चिनोति गृद्धवदहो कापालमालाकार सोऽयं किं निजनाथपुत्ररदनं यान्तं सहेत क्वचित्। हा! हा! हेति जगाद देवनिबहो यो व्योमगोऽभूद हेरम्बस्य हतो रदोऽपि समदैस्तैः संस्तुतः स्पर्धया। भूमिः कम्पनमापिता भयमिता दक्षुर्दरं कन्दा श्विङ्घारं व्यदधुर्गजाः शिखिगणा गावो महिष्यो हयः। (गणपतिसं० ६।५८-६०) अर्थात् परशुरामने तीव्रधारवाले अपने कुठाएं उनकी भुजापर प्रहार किया; किंतु वह फिसलकर गणेशके दाँतपर जा गिरा और उससे प्रचण्ड गर निकला। वह टूटा हुआ दाँत भी यमराजके समान परशुरामको नष्ट करनेके लिये चला; परंतु उसे सौभाग्यसे अस्थियोंसे अपना श्रृंगार करनेके लिये कपालकी माला बनानेवाले शिवके गणोंने उसे रोक लिया; क्योंकि वे अपने स्वामीके पुत्रके दाँतको अगा जाते हुए कैसे देख सकते थे। श्रीगणेशके दन्तपाठनके देखकर देवगण हाहाकार करने लगे और फिर गणेश प्रसन्नताके लिये उस भग्नदन्तकी भी उन्होंने हो लगाकर स्तुति की। उस समय उस दन्तकी वक्रगी देखकर पृथ्वी डरकर काँप उठी, विभिन्न पशु चिगाड़न लगे और सर्वत्र भय व्याप्त हो गया। जबतक गणेशके मुखमें दो दाँत थे, वे अद्वैत- विधायक न थे।
अतः जब और जैसे ही गणपतिका एक दाँत टूटा, वे अद्वैतके प्रतीक बन गये। इस कधनका समर्थन इस रूपमें प्राप्त होता है- प्राग् द्वैतभ्रम एव भाति नितरामद्वैतमेवान्ततः । एतद् बोधयते रदो गणपतेरेकत्वमेवाश्रयन् ।। (गणपतिसं० ९।५३) अर्थात् पहले निरन्तर द्वैत-भ्रम ही भासित होता रहता है, फिर अन्तमें 'अद्वैत' हो जाता है। गणेशका दाँत भी एक होकर यही ज्ञान कराता है। इसके साथ ही एकदन्त इस बातका भी द्योतक है कि जीवनमें सफल वही होता है, जिसका लक्ष्य एक हो। श्रीगणेश अपने एकदन्तरूपी लक्ष्यके कारण ही जीवनमें न केवल सफल रहे, अपितु अग्रपूजाके अधिकारी भी बने, अतः उस एकदन्तको कल्पवृक्षकी समता देते हुए कहा गया है- संयोज्येव सकेतकं परिहसन् दन्तान्तरं दर्शयं- श्चक्रे कृत्रिमदन्तधारणविधेरुद्घाटनाख्योत्सवम् । मन्ये सान्त्वयतेऽदतः स्म जरतो वालांश्च वा नीरदा नेकेनैव रदेन सर्ववरदः पायाद् गणेशः श्रियम् ॥ (गणपतिसं० ६।८५) अर्थात् जो केवड़ेके फूलको हँसते हुए मुखमें जोड़कर दूसरा दाँत-सा दिखाते हुए कृत्रिम दन्तधारणका उद्घाटन-सा करता हो, या मानो वृद्ध एवं बालकोंको सान्त्वना-सी देता हो, वही गणेशका एकदन्त अपने भक्तोंकी श्री-सम्पत्तिकी रक्षा करता रहे। मौद्गलके अनुसार 'एक' शब्द 'माया'का बोधक है और 'दन्त' शब्द 'मायिक' का। श्रीगणेशमें माया और मायिकका योग होनेसे वे 'एकदन्त' कहलाते हैं- एकशब्दात्मिका माया तस्याः सर्वसमुद्भवम्। उच्यते ॥ दन्तः सत्ताधरस्तत्र मायाचालक इस प्रकार श्रीगणेशका अद्वैत-विधायक द्वितीय नाम 'एकदन्त' भी सार्थक और एकलक्ष्यार्थप्रेरक है। श्रीगणेशका तृतीय नाम है-'कपिल'। यह विशेषण- शब्द है, जिसका हिंदीमें अर्थ है- भूरा, तामड़ा, मटमैला। अंग्रेजीमें इसे 'ब्राउन Brown' कहते हैं। यदि इस शब्दको आकारान्त बना दिया जाय तो इसका रूप बनेगा- 'कपिला', अर्थ होगा-गौ। अतः भाव स्पष्ट हो जाता है.
द्वादश नाम और उनका रहस्य है कि जैसे गौ धूसरवर्णकी होती हुई भी दूध, घी, दही आदि पोषक पदार्थ एवं गोमय-गोमूत्र आदि रोगनिवारक पदार्थ प्रदानकर मानवका हित साधन करती है, उसी प्रकार कपिलवर्णके श्रीगणेश भी बुद्धिरूपी दधि, ज्ञानरूपी घृत, समुज्ज्वल भावरूपी दुग्धद्वारा मानवको पुष्ट बनाते हैं, अथवा उसके बौद्धिक पक्षको पुष्ट बनानेवाले पदार्थ प्रदान करते हैं तथा अमंगलनाश, विघ्नहरण आदि दिव्य पदार्थ प्रदानकर उसके त्रिविध तापोंका शमन करते हैं। अतः यह तृतीय नाम भी सार्थक है। श्रीगणेशका चतुर्थ नाम है- 'गजकर्ण', अर्थात् हाथीके समान कानवाला। विज्ञ पाठक जानते हैं कि श्रीगणेशको भारतीय आर्यपरम्परानुयायी बुद्धिका अधिष्ठातृ- देवता मानते हैं और इसीलिये अपने आराध्यको उन्होंने लंबे कानोंवाला प्रतिपादित किया है कि जिससे उनका बहुश्रुतत्व अथवा उनकी एतद्विषयक अभिरुचिका यथावत् परिज्ञान करा सकें। इससे पूर्व भी हम अन्यत्र इसी लेखमें लिख आये हैं कि 'मनुष्यको चाहिये कि सुन तो ले सब कुछ, परंतु कोई भी कार्य ऊँचे लोगोंके साथ बिना विचार किये करे नहीं', यह सिखानेकी इच्छासे ही गणपतिने हाथीके समान लंबे कान धारण किये हैं। इसके अतिरिक्त एक यह भी रहस्य श्रीगणेशके लंबे कानोंमें छिपा है कि क्षुद्र कानोंवाला व्यक्ति सदैव व्यर्थकी बातोंको सुनकर अपना ही अहित करने लगता है। अतः हाथी जैसे लंबे कानोंद्वारा श्रीगणेश हमें यह शिक्षा देते हैं कि व्यक्तिको अपने कान ओछे न रखकर इतने विस्तृत बना लेने चाहिये कि उनमें सहस्रों निन्दकोंकी सभी भली-बुरी बातें इस प्रकार समा जायँ कि वे फिर कभी जिह्वाग्रपर आनेका प्रयासतक न कर सकें। पुराणोंमें श्रीगणेशके गजकर्णत्व अथवा शूर्पकर्णत्वका कारण बताते हुए कहा है- 'श्रीगणेश योगीन्द्र-मुखसे वर्ण्यमान तथा श्रेष्ठ जिज्ञासुओंसे श्रूयमाण विषयको हृद्गतकर सूर्यके समान पाप- पुण्यरूप रजको दूर करके ब्रह्मप्राप्ति सम्पादित कर देते हैं, अतः उन्हें इसी नामसे व्यवहृत किया जाता है। रजोयुक्तं यथा धान्यं रजोहीनं करोति च। शूर्प सर्वनराणां वै योग्यं भोजनकाम्यया ।।
तथा मायाविकारेण युतं ब्रह्म न लभ्यते। त्यक्तोपासनकं तस्य शूर्पकर्णस्य सुन्दरिशूर्पकर्ण समाश्रित्य त्यवत्वा मलविकारकम् । ब्रहौव नरजातिस्थो भवेत् तेन यथा स्मृतः ॥ इस दृष्टिसे श्रीगणेशका यह चतुर्थ नाम भी सार्थक सिद्ध हो जाता है। श्रीगणेशका पाँचवाँ नाम है 'लम्बोदर'। इसका अर्थ है-लंबे अर्थात् विशाल पेटवाला। गणेश-गायत्रीमें श्रीगणेशका स्मरण इस प्रकार किया गया है- ' लम्बोदराय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो प्रचोदयात् ॥' दन्ती इस नामका उद्देश्य सांसारिक जनोंकी शिक्षा देना एवं उन्हें निर्विघ्न जीवन-यापनमें सक्षम बनाना है। इस संसारमें द्विविध पुरुष पाये जाते हैं-एक वे, जो प्रत्येक प्रकारकी भली-बुरी बात सुनकर उसे उदरस्थ कर लेते हैं तथा दूसरे वे, जो किसी भी बातको पचा नहीं पाते, उगल देते हैं और अपनी इस क्रिया अथवा चेष्टाद्वारा सम्पूर्ण वातावरणको विषाक्त बना देते हैं। अतः उक्त नाम तादृश शिक्षाविधायक होनेके कारण न केवल अन्वर्थक, अपितु अनुकरणीय भी है। 'गणपतिसम्भव' के अनुसार 'भगवान् शंकरद्वारा गम्भीरतापूर्वक बजाये हुए डमरूकी ध्वनिसे श्रीगणेशने सम्पूर्ण वेदोंको ग्रहण किया, माता पार्वतीके चरणद्वयमें झंकृत होनेवाले नूपुरोंसे संगीत सीखा, प्रतिदिन ताण्डव नृत्य देखने और उसके अभ्यासके बलसे नृत्य सीखा और इस प्रकार विभिन्न ज्ञानोंको आत्मसात् (उदरस्थ) करनेके कारण उनका उदर लम्बायमान हो विविध विद्याओंके कोषरूपमें परिणत हुआ'- आम्नायं डमरुध्वनेर्भगवता दन्थ्वन्यमानाद्धनं संगीतं जननीपदाम्बुजरणत्कारेरतान्नूपुरात् । नृत्यं ताण्डवदर्शनात् प्रतिदिनं स्वाभ्यासबुद्धेर्बलात् सर्वज्ञाननिधानमेवमभवन् मन्ये ततस्तुन्दिलः ॥ (५/५५) इसके अनन्तर श्रीगणेशका छठा नाम सामने आता है। और वह है- 'विकट'। 'विकट' का अर्थ होता है- भयंकर। श्रीगणेशका धड़ (कण्ठसे पैरतकका भाग) है-नरका और ऊर्ध्वाग अर्थात् मुख है- हाथीका। अतः ऐसा विकट प्राणी विकट होगा ही- यह निर्विवाद है। श्रीगणेशके नामके रूपमें इसका भाव यह है कि श्रीगणेश अपने नामको सार्थक बनाते हुए सभी प्रकारके विघ्नोंकी निवृत्तिके लिये विघ्नोंके मा 'विकट' बनकर उपस्थित रहते हैं: क्योंकि वे जाते हैं-
'शठे शाठ्यं समाचरेत्' अर्थात् बरे और दूर व्यक्तियोंको सौम्यतासे नहीं, अपितु तद्वत् बनकर दबाया जा सकता है। अतः यह नाम भी सार्थक है। स्वयं श्रीगणेश हमारे कथनके प्रतिपादनमें भगदत परशुरामसे युद्धके अवसरपर कहते हैं- द्रक्ष्यत्यद्य भवद्गुरुर्मम पिता साम्बो निजैरम्बई पुत्रस्यापि नवं महश्चिरतनं शैष्यं च तेजश्चयम्। आसं चापि यदा नरो न रणतो भीतोऽभवं किं पुर धृत्वा द्वयाकृतिमद्य संगरमयं यायां त्वदेकाकृतेः। (गणपतिसं० ६।५०) अर्थात् आज तुम्हारे गुरु और मेरे जनक मं माताके साथ अपनी आँखोंके सामने पुत्रके नये से और शिष्यके पुराने तेजःपुंजको देखेंगे। जब मैं के नर था, तब भी कभी युद्धसे नहीं डरा, तब भला, अस दो प्रकारकी आकृति धारण करके एक आकारवानेते तुमसे कैसे डरूँगा ? इस स्थितिमें यह स्पष्ट हो जाता है कि गणेशका 'विकट' नाम सांसारिक जनोंके लिये इस दृष्टिले प्रेरणा-स्रोत है कि वे भी यथावसर रूप धारणका अभीष्ट सिद्ध करें। श्रीगणेशका सप्तम नाम है- विघ्ननाश। भगवान श्रीगणेश सम्पूर्ण विघ्नोंके विनाशक हैं। 'गणपत्यथर्वश के नवम मन्त्रमें श्रीगणेशके लिये लिखा है- 'विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः।' इसका भाव है-'हर विघ्नोंको नष्ट करनेवाले, शिवके पुत्र, वरप्रदा मूर्तिरूपमें प्रकटित श्रीगणेशको नमस्कार करते हैं। सुप्रसिद्ध भाष्यकार श्रीसायणाचार्यने 'विघ्ननाशिने' भाष्य इस प्रकार प्रस्तुत किया है- 'विघ्ननाशिने कालात्मकभयहारिणे, अमृतात्मकपदप्रदत्वात्' अपर श्रीगणेश कालात्मक भयको हरण करनेवाले हैं; क्यॉरि वे अमृतात्मक पदके प्रदाता हैं। 'स्कन्दपुराण है अनुसार इन्द्रने निज-भागशून्य यज्ञके विध्वंसके लिये जब कालका आह्वान किया, तब वह विघ्नासुरके सार प्रकटित हो, अभिनन्दन राजाको मार सत्कमौका तो करने लगा। तब महर्षियोंने ब्रह्माजीकी प्रेरणासे श्रीगणेश स्तुति कर उनके द्वारा विघ्नासुरका उपद्रव दूर करवाया. उसी समयसे गणेश-पूजन-स्मरणादिविरहित कार्यमें। विघ्नका प्रादुर्भाव अवश्य होता है- यह मान्यता स्वीकार कर कार्यारम्भमें श्रीगणेश-पूजन अनिवार्य प्रतिपादित किया गया है। विघ्न भी सामान्य नहीं है। यह कालस्वरूप होनेसे भगवत्-स्वरूप, अतएव अतीव महिमान्वित है। इसके स्वरूपका निदर्शन इस प्रकार प्राप्त होता है-'विशेषेण जगत्सामर्थ्यं हन्तीति विघ्नः - ब्रह्मादिककी भी जगत्सर्जनादि सामर्थ्यका हरण करनेवाले तत्त्व, किंवा सत्त्वको 'विघ्न' कहते हैं।' इसपर यदि किसीका शासन चलता है तो श्रीगणेशका ही; अतः गणेशका 'विघ्नेश' नाम न केवल सार्थक, अपितु उनकी लोकोत्तर महिमाका भी ख्यापक है।
गणेशकी इस नामावलीका अष्टम नाम है- 'विनायक'। इसका अर्थ है- विशिष्ट नायक या विशिष्ट स्वामी। कतिपय विद्वानोंने 'वि' उपसर्गको विघ्नका लघुस्वरूप स्वीकारकर 'विनायक' का अर्थ विघ्नोंका नायक भी स्वीकार किया है। यह अर्थ पूर्णतः श्रीगणेशपर चरितार्थ होता है; क्योंकि ब्रह्मादि देवता अपने-अपने कार्यमें विघ्न-पराभूत होनेके कारण स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते, परंतु गणेशके अनुग्रहसे ही विघ्नरहित होकर कार्य-सम्पादनमें समर्थ होते हैं और यही कारण है कि पुण्याहवाचनके अवसरपर 'भगवन्तौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम्' कहकर विघ्न और उसके पराभवकर्ता श्रीगणेश दोनोंका स्मरण किया जाता है। इससे वि-विघ्न, नायक- स्वामी-विनायक शब्दकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार यदि इस शब्द (विनायक) का अर्थ 'विशिष्ट नायक' लिया जाय तो भी वह अन्वर्थक ही सिद्ध होता है; क्योंकि श्रुतिमें श्रीगणेशको 'ज्येष्ठराज' शब्दद्वारा सम्बोधित कर उनके महत्त्वका प्रतिपादन किया गया है। 'गणेशतापिनी' में पूर्ण ब्रह्म परमात्माको ही निर्गुण एवं विघ्नविनाशकत्वादि-गुणगण-विशिष्ट गजवदनादि- अवयवधर गणेशरूपमें प्रतिपादित किया गया है- 'ॐ' गणेशो वै ब्रह्म तद्विद्यात्, यदिदं किं च, सर्वं भूतं भव्यं सर्वमित्याचक्षते ।' इसके अतिरिक्त गणेशकी एक अन्य विशेषता भी उन्हें विशिष्ट नायकत्व ही नहीं, श्रीमन्नारायणकी समानता प्रदान कर इस विशेषण या नामको अन्वर्धक बनाती है। वह विशेषता है- मुक्तिप्रदायिनी क्षमता। सभी विद्वान् जानते हैं कि मोक्षप्रदानका एकमात्र द्वादश नाम और उनका रहस्य १७७ अधिकार सत्त्वमूर्ति भगवान् नारायणने अपने अधीन रखा है। श्रीमद्भागवत (५। ६ । १८) में उनके इस वैशिष्ट्यका निदर्शन इस प्रकार हुआ है- 'मुक्तिं ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्' अर्थात् भगवान् नारायण मुक्ति तो कदाचित् दे भी देते हैं, परंतु भक्तियोग सहज ही किसीको नहीं देते। इसके विपरीत 'गणेश-गीता' श्रीगणेशको भी मोक्षप्रद प्रतिपादित करते हुए कहती है- स यः स्मृत्वा त्यजति प्राणमन्ते मां श्रद्धयान्वितः । यात्यपुनरावृत्तिं प्रसादान्मम भूभुज ॥ शिवपुराण, ज्ञानसंहिताके अनुसार श्रीगणेशके विनायक नामकरणका कारण भगवान् शंकरने इस प्रकार बताया है-"हे पार्वती ! यह कुमार मुझ नायकके बिना ही उत्पन्न होकर पुत्र बना है, अतः इसका अन्वर्थक नाम 'वि- नायक' (नायकविरहित) ही संसारमें विख्यात होगा"- नायकेन विना देवि मया भूयोऽपि पुत्रकः । यस्माज्ञ्जतस्ततो नाम्ना भविष्यति विनायकः ॥ (शिवपु० ३३। ७२-७३) इस प्रकार सभी दृष्टियोंसे गणेशका 'विनायक' नाम भी उनकी विशेषताओंका परिचायक एवं अन्वर्थक है। अब लीजिये नवम नामको वह है- 'धूम्रकेतु'। धूम्रकेतुका सामान्य अर्थ है- अग्नि और शब्दार्थ है- धूएँके ध्वजवाला। श्रीगणेशके संदर्भमें- इसके दो भाव प्रकट होते हैं-१-संकल्प-विकल्पात्मक धूम-धूसर अस्पष्ट कल्पनाओंको साकार बनानेवाले तथा उन्हें मूर्तरूप दे ध्वजवत् नभोमण्डलमें फहरानेवाले होनेके कारण गणेशका 'धूम्रकेतु' नाम अन्वर्थक है। २-इसी प्रकार अग्निके समान मानवकी आध्यात्मिक अथवा आधिभौतिक प्रगतिके मार्गमें आनेवाले विघ्नोंको भस्मसात् कर मानवको चरमोत्कर्षकी दिशामें उन्मुख बनानेकी क्षमतासे परिपूर्ण होनेके कारण भी गणेशका 'धूम्रकेतु' नाम सार्थक ही प्रतीत होता है। 'गणाध्यक्ष' श्रीगणेशका दशम नाम है। इसके दो अर्थ हैं-१. संख्यामें परिगणित हो सकनेयोग्य सभी पदार्थोंके स्वामी तथा २. प्रमथादि गणोंके स्वामी। विचार करनेपर उक्त दोनों ही नाम अन्वर्थक जान पड़ते हैं। विश्वके परिगणनीय जितने भी पदार्थ हैं- श्रीगणेश उन सबके स्वामी हैं। जैसा कि निम्न श्लोकसे स्पष्ट है कि 'श्रीगणेश देवता, नर, असुर और नाग-इन चारोंके संस्थापक एवं चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) तथा चतुर्वेदादिके भी स्थापक हैं'- स्वर्गेषु देवताश्चायं पृथ्थ्यां नरांस्तथाऽतले। आसुरान्नागमुख्यांश्च स्थापयिष्यति बालकः ॥ तत्त्वानि चालयन् विप्रास्तस्मान्नाम्ना चतुर्भुजः । चतुर्णां विविधानां च स्थापकोऽयं प्रकीर्तितः ॥ गणोंके स्वामी तो श्रीगणेश हैं ही। इस पदपर वे स्वयं भगवान् शंकरद्वारा प्रतिष्ठित किये गये या गणोंद्वारा, इस सम्बन्धमें दोनों ही प्रकारके विवरण प्राप्त होते हैं। 'गणपति सम्भव' के अनुसार जब भगवान् शंकरने गजका मस्तक जोड़कर श्रीगणेशको पुनर्जीवित कर दिया, तब सभी शिवगण समवेत होकर नाचते हुए अपने ऊपर उनको वरीयता देने लगे तथा 'गणपति' कहकर सम्बोधन करते हुए उनका जय-जयकार मनाने लगे- नृत्यन्तश्च गणाः समेत्य सकलाः स्वेष्वाधिपत्यं ददुः स्पर्श स्पर्शमहो सुशुण्डमिति ते स्वात्मानमामोदयन्। वनैः स्वैः सरलैस्तयोर्ध्वनयनैर्वक्त्रैर्हसन्तो मुहुः प्रोचुः श्रीगणराजदिव्यविजयं दीर्घः स्वरैर्वाप्लुतैः ॥ (गणपतिसं० ५ । ६१) भारतके मूर्धन्य सनातनधर्मी विद्वानोंने सर्वजगन्नियन्ता पूर्ण परमतत्त्वको ही 'गणपति-तत्त्व' के रूपमें स्वीकार और प्रतिपादित किया है। उनका यह दृष्टिकोण पूर्णतः शास्त्रसम्मत है। संस्कृतमें 'गण' शब्द समूहका वाचक माना गया है- 'गणशब्दः समूहस्य वाचकः परिकीर्तितः ।' अतः गणपतिका अर्थ है- 'समूहोंको पालन करनेवाला परमात्मा।' 'गणानां पतिः गणपतिः। देवादिकोंके पतिको भी 'गणपति' कहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी कई रूपोंमें गणपतिका निर्वचन प्राप्त होता है। यथा- 'महत्तत्त्वादितत्त्वगणानां पतिः गणपतिः', 'निर्गुण- सगुणब्रह्मगणानां पतिः गणपतिः' एवं सर्वविध गणोंको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला परमात्मा ही 'गणपति' है। अभिप्राय यह है कि 'आकाशस्तल्लिङ्गात्' (ब्रह्मसूत्र १।१। २२)- इस न्यायसे जिसमें ब्रह्मतत्त्वके जगदुत्पत्ति- स्थिति-लय-लीलत्व, जगन्नियन्तृत्व, सर्वपालकत्वादि गुण पाये जायँ वही 'ब्रह्म' होता है जैसे आकाशका जगदुत्पत्ति-स्थिति-कारणत्व - 'सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्ते।' (छान्दोग्य उप० १।
इस श्रुतिसे जाना जाता है एवं इसी के आधारपा वह भी
आकाशपदवाच्य परमात्मा माना जाता है। इस दृष्टिसे निष्कर्षरूपमें कहा जा सकता है-
क्योंकि गणपति-तत्वकी अवगतिमें शास्त्र ही प्रमाण है, अतः उनके अनुसार तथा 'गण' शब्दकी व्युत्पत्ति- 'गण्यने बुध्यन्ते ते गणाः' के अनुसार 'गणपति' शब्दका अर्थ यही लेना चाहिये। गण-शब्दसे व्यवहत
सर्वदृश्यमात्रका अधिष्ठान ही 'गणपति' है; क्योंकि शास्त्र श्रीगणेशको पूर्ण ब्रह्म प्रतिपादित करते ही हैं, अतः गणोंक अधिपति तथा गण-शब्दसे व्यवहत सर्वदृश्यमात्रचे अधिष्ठानभूत होनेके
कारण श्रीगणेशका यह नाम क्षे अन्वर्थक ही है। श्रीगणेशका ग्यारहवाँ नाम है-' भालचन्द्र'। इसका भाव है- जिसके मस्तक (भाल) पर चन्द्र हो। भगवान्
शंकरके मस्तकमें विराजमान चन्द्रमाका ही यह संक्षिप्त संस्करण है। चन्द्रकी
उत्पत्ति विराट्के मनसे मानी जाती है और उस चन्द्र-तत्त्वसे सब प्राणियोंके मन
अनुप्राणित माने जाते हैं। अतः श्रीगणेशके संदर्भमें इसका भाव यही है कि 'वे भालपर चन्द्रको धारणकर उसकी शीतल- निर्मल कान्तिसे विश्वके सभी प्राणियोंको
आप्यायित किया करते हैं।' इसके साथ ही 'भालचन्द्र' से यह भी विदित होता है कि 'व्यक्तिका मस्तक जितना शान्त होगा' उतनी ही कुशलताके साथ वह अपना दायित्व निभा सकेगा। श्रीगणेश गणपति अर्थात्
प्रत्येक गणनीय वस्तुके पति हैं, अतः अपने भालपर सुधाकर
अथवा हिमांशुको धारणकर उन्होंने अपने मस्तिष्कको सुशान्त बनाये रखनेके प्रयासमें
सफलता पाकर, तत्परक नाम धारण कर सफलताकामियोंके लिये एक समुञ्चत मार्ग
प्रशस्त किया है और बताया है कि यदि वे अपने मस्तकमें चन्द्रकी-सी शीतलता लेकर
कार्यरत होंगे तो सफलता निश्चय ही उनके पग चूमेगी।' कुछ विद्वानोंने यह भी उत्प्रेक्षा की है कि भगवान शंकरने भी अपने मस्तकपर
चन्द्रको धारण किया है और गणेशने भी; इसी कारण वे 'शशिशेखर' कहलाते हैं और ये
भालचन्द्र। इस चन्द्रधारणका उद्देश्य जहाँ शिवके पक्षमें इतना ही है कि उनके
ललाटकी ऊष्मा, जो त्रिलोकीको भस्मसात् करनेमें सक्षम है, उन्हें पीड़ित न करे, इसी हेतुसे भगवान् शिवने अपने सिरपर गंगा
और चन्द्र दोनोंको धारण कर रखा है; वहीं गणेशके। पक्षमें इसका भाव है कि शिवपरिवारके वाहनोंके सहक वैरके सम्भावित परिणामको दृष्टिगत रख गणेशने अपने मस्तकमें चन्द्रको धारण किया है। किं वा स्वयंको चन्द्र-जैसे भालसे मण्डित कर तद्गत विशेषताओंसे अपने परिवारको विद्वेषकी ज्वालाओंसे बचानेमें सफलता प्राप्त की है। देवमोदकोपहार-प्रसंगमें भालचन्द्रको लेकर कविने अच्छा मनोरंजन किया है। जब गणेश और कार्तिकेय परस्पर मोदकोंसे प्रहार कर रहे थे, तब इधर गणेश और उधर शिवके गलेके सर्प फूत्कार करने लगे, जिससे उनके शरीरपर रमायी हुई भस्म उड़ने लगी और देखते-ही-देखते अन्धकारपूर्ण रात्रिका साम्राज्य चतुर्दिग्में व्याप्त हो गया। इन दोनोंके फूत्कारोंसे भालस्थ अग्नि होलीकी आग-सी प्रदीप्त हो उठी। उसकी ऊष्मासे चन्द्र पिघलकर ऊपरसे अमृत टपकाने लगा, जिससे शिवके आसनपर बिछा हुआ शेरका चर्म जीवित हो दहाड़ने लगा और यह सुनते ही नन्दीश्वर डरकर भाग खड़े हुए, जिससे पार्वतीको अनायास हँसी आ गयी- फूत्कारानकरोदयं शिवगलस्थोऽहिर्द्वयोः फूत्कृतै- र्भस्मोद्धूलनतो बभूव तमसो विस्तारिणी यामिनी। किं चाग्निः शिवभालजोऽपि पवनाभ्यामुद्दिदीपे ह्यसौ रात्रावग्निरतिप्रकाशततिदो होलीहविर्भुग् यथा ॥ तस्यौष्ण्येन च चन्द्रमा द्रवमितोऽमुञ्चत् सुधामूर्ध्वतः पञ्चास्यस्य शुभासने सृतिमधात् पञ्चास्यचर्मापि तत् । प्राणन्नेकपदे जगर्ज वृषभो भीतस्ततः प्राद्रवद् विन्नीडापि जहास चापि गिरिजा दृष्ट्वाभिनीतिं नवाम् ॥ (गणपतिसं० ८।५५। ५६) इसके साथ ही भालचन्द्रसे यह भी प्रतीत होता है कि चन्द्रमा है ब्राह्मणोंका राजा- 'सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा'। और ब्राह्मण कहते हैं ब्रह्मको जाननेवालेको- 'ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः' और ब्रह्मवेत्ता सर्वोत्कृष्ट पदका अधिकारी होता ही है। अतः ब्राह्मणोंके राजाको अपने भालमें स्थापित कर भगवान् गणेशने सम्पूर्ण ब्रह्मज्ञानको अपने मस्तकमें संचित-संस्थापित किया है और उसीके कारण वे अग्रपूजाके अधिकारी बने हैं; अतः यह नाम भी अन्वर्थक है, इसमें संदेह नहीं। इस द्वादश नामावलीका अन्तिम नाम है- 'गजानन' अर्थात् हाथीके मुखवाला। गणेशके कण्ठसे ऊपरका भाग हाथीका है, इस तथ्यसे सभी सुपरिचित हैं। नराकृति द्वादश नाम और उनका रहस्य १७९ अर्धांगके साथ हाथीके मस्तकका मेल एक जीवित आश्चर्य ही कहा जा सकता है; परंतु जब गजाननके सभी अवयवोंपर दृष्टिपात कर हम एक निष्कर्षपर पहुँचते हैं, तब आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। मुखभागमें निम्न अवयव विशेषतः परिगणित होते हैं- जिह्वा, दन्त, नासिका, कान और आँख। जिह्वा सब विघ्नोंकी जड़ है। यह बहिर्मुखी होनेके कारण परदोषगणनमें विशेष रुचि लेती है; परंतु यदि मन जिह्वाके नुकीले भागको दूसरोंकी ओरसे हटाकर अपनी ओर कर ले, अर्थात् अपने दोषोंका परिगणन करने लगे तो अनेकानेक झंझटोंसे मुक्त हो जाय। प्रकृतिने अन्य सभी प्राणियोंके विपरीत हाथीकी जिह्वाको दन्तमूलकी ओरसे कण्ठकी ओर लपलपाती हुई लगाया है; अतः यह निर्विघ्नता विधायक विशेषता गणेशमें विद्यमान रहकर उन्हें विघ्न- विनाशकका अन्वर्थक आश्रय बनाती है। दन्तके सम्बन्धमें यह कहावत प्रसिद्ध ही है कि 'हाथीके दाँत खानेके और तथा दिखानेके और होते हैं'।
गणेशके दाँत भी इस बातके परिचायक हैं कि बुद्धिमान् व्यक्तिको ऊपरी दिखावा
आन्तरिक भावोंसे सर्वथा भिन्न रखना चाहिये; विशेषतः उस स्थितिमें, जब कि उसका सामना किसी सबलसे हो। परंतु यह नीति केवल
महाभारतके शब्दोंमें 'मायाचारो मायया बाधितव्यः' के अनुसार एक सीमातक ही आचरणीय है, सर्वथा एवं सर्वदा अनुकरणीय नहीं। इसीलिये हाथीका मुख होते हुए भी दिखावेका
दाँत केवल एक ही गणेशके साथ सम्पृक्त कर उन्हें 'एकदन्त' पदसे व्यवहृत किया जाता है। 'नाक' प्रतिष्ठाकी द्योतक है। लंबी नाक, नाक कट जाना, नाक बचाना आदि वाक्य
प्रतिष्ठाके रक्षणादिसे ही सम्बद्ध हैं। इसी नाककी प्रतिष्ठाके लिये ही व्यक्ति
अनेकानेक उपाय करता है और उन कार्योंसे बचता है, जिससे उसकी नाक कट जाय। इस प्रकार गणेशकी दीर्घ नासिका मानवको नाककी सुदीर्घ
प्रतिष्ठाकी रक्षाका संदेश देकर उसे प्रतिष्ठित कार्यव्यापारकी ओर अग्रसर बनाती
हुई स्वयं अपनी महत्ताका स्थापन कर देती है। लंबे-चौड़े कान सार-सँभार-ग्रहणक्षमता एवं निन्दा- पाचनकी क्षमताके परिचायक
हैं। हाथीके नेत्र प्रकृतिने कुछ इस प्रकार बनाये हैं कि उसे
छोटी वस्तु भी बड़ी दिखायी देती है। श्रीगणेशकी
Hi ! you are most welcome for any coment