भीम पुत्र घटोत्कच का विवाह किसके साथ हुआ था? भीम पुत्र का नाम बर्बरीक कैसे पड़ा ? > Story of Ghatotkach & Barbarik

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60 करोड़  राक्षसो का स्वामी घतोत्काच्च का विवाह मूरा की पुत्री कामकंटका से कैसे हुआ था?


भीम पुत्र घटोत्कच का विवाह किसके साथ हुआ था? भीम पुत्र का नाम बर्बरीक कैसे पड़ा ?  > Story of Ghatotkach & Barbarik

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महाभारत काल की बात है, पाण्डवोंने राजा द्रुपदकी पुत्री द्रौपदीको पाकर धृतराष्ट्रकी आज्ञासे इन्द्रप्रस्थ नामक नगर बसाया। वे वहाँ भगवान् वासुदेवसे सुरक्षित होकर रहते थे। एक समय पाण्डव अपनी राजसभामें बैठकर नाना प्रकारकी बातें कर रहे थे, इतनेहीमें भीमका पुत्र घटोत्कच वहाँ आया। उसे आया देख पाँचों भाई पाण्डव तथा परम पराक्रमी श्रीकृष्ण सहसा सिंहासनसे उठे और बड़ी प्रसन्नताके साथ सबने घटोत्कचको हृदयसे लगाया। भीमनन्दन घटोत्कचने भी अत्यन्त विनीतभावसे उन सबको प्रणाम किया। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने उसे अपनी गोदमें बिठाकर आशीर्वाद दिया और स्नेहपूर्वक उसका मस्तक सूंघते हुए सभामें इस प्रकार पूछा- 'बेटा! कहाँसे आते हो ? इतने दिनोंतक कहाँ विचरते रहे? हिडिम्बाकुमार ! तुम देवता, ब्राह्मण, गौ तथा साधु-महात्माओंका कोई अपराध तो नहीं करते हो ? भगवान् श्रीकृष्णमें और हमलोगोंमें तुम्हारा प्रेम तो है न? तुम्हारा अत्यन्त प्रिय करनेवाली तुम्हारी माता हिडिम्बा तो खूब प्रसन्न है न?' धर्मराजके इस प्रकार पूछनेपर हिडिम्बाकुमारने कहा- महाराज ! मेरे मामाके मारे जानेपर मैं उसीके राज्यसिंहासनपर बिठाया गया हूँ और दुष्टोंका दमन करता हुआ सर्वत्र विचरता हूँ। मेरी माता हिडिम्बा देवी भी कुशलसे हैं, वे इस समय दिव्य तपस्यामें लगी हुई हैं। उन्होंने मुझे आज्ञा दी है- 'बेटा ! तुम सदा अपने पिता पाण्डवोंमें भक्ति रखनेवाले बनो।' माताकी यह बात सुनकर  


मैं भक्तियुक्त चित्तसे आपको प्रणाम करनेके लिये ही मेरुगिरिके शिखरसे यहाँ आया हूँ। मेरी इच्छा है कि आपलोग मुझे किसी महान् कार्यमें नियुक्त करें। क्योंकि यही इस जीवनका महान् फल है कि पुत्र सदा अपने पितृवर्गकी आज्ञाका पालन करे। इससे वह पुण्यलोक पर विजय पाता है और इस संसारमें भी यशस्वी होता है। घटोत्कचके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिर उससे इस प्रकार बोले-'बेटा ! तुम्हीं हमारे भक्त और सहायक हो। हिडिम्बाकुमार ! निश्चय ही जैसी माता होती है, वैसा ही उसका पुत्र भी होता है। तुम्हारी माता हमलोगोंके प्रति अविचल भक्ति रखनेवाली है, तुम भी ऐसे ही हो। अहो! मेरी प्यारी पतोहू हिडिम्बादेवी बड़ा कठिन कार्य कर रही है, जो कि अपने प्यारे पतिकी सेवाका सुख छोड़कर तपस्यामें ही संलग्न है। इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर धर्मराजने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा- पुण्डरीकाक्ष ! आप तो जानते ही हैं कि घटोत्कचका जन्म भीमसेनसे हुआ है। यह उत्पन्न होते ही तरुण हो गया था। श्रीकृष्ण ! मैं चाहता हूँ, मेरे इस पुत्रको योग्य पत्नी प्राप्त हो, आप सर्वज्ञ हैं, बताइये, इसके योग्य पत्नी कौन हो सकती है? धर्मराजके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने क्षणभर ध्यान करके उनसे कहा- 'राजन् ! मैं बतलाता हूँ, घटोत्कचके योग्य एक बड़ी सुन्दरी स्त्री है, जो इस समय प्राग्ज्योतिषपुरमें निवास करती है। अद्भुत पराक्रम करनेवाला जो मुर नामक दैत्य था, उसीकी वह पुत्री है। मुर दैत्य बड़ा भयंकर था और पाशमय: दुर्गमें रहता था। वह मेरे हाथसे मारा गया। उसके मारे जानेपर उसकी पुत्री कामकटंकटा मुझसे युद्ध करनेके लिये आयी। वह अत्यन्त पराक्रमी  होनेके कारण बड़ी भयानक जान पड़ती थी। तब खड्ग और खेटक धारण करनेवाली उस दैत्य- कन्याके साथ महासमरमें मैंने भी युद्ध आरम्भकिया। मेरे शाङ्ग नामक धनुषसे बड़े-बड़े छूटने लगे, परंतु मुरकी पुत्रीने भी उनस बाणोंको खड्गसे ही काट डाला। तब मैंने उसका वध करनेके लिये अपना सुदर्शन चक्र उठाया। यह देख कामाख्या देवी मेरे आगे आकर खडी हो गयी और इस प्रकार बोली- 'पुरुषोत्तम। आपको इसका वध नहीं करना चाहिये। मैंने स्वयं इसको खद्दङ्ग और खेटक प्रदान किये हैं, जो अजेय है। कामाख्या देवीकी यह बात सुनकर मैं कहा-शुभे! में ही इस युद्धसे निवृत्त होता है तुम इस कन्याको मना करो।


तब कामाख्या देवीने उसे हृदयसे लगाकर कहा- 'भद्रे। तुम युद्धये लौट चलो। ये माधव श्रीकृष्ण युद्धमेंदुर्जय हैं। कोई किसी प्रकार भी संग्राममें इन्हें मार नहीं सकता। संसारमें ऐसा कोई वीर न तो हुआ है, न है और न होगा ही, जो इन्हें युद्धमें जीत सके। औरोंकी तो बात ही क्या है, साक्षात् भगवान शंकर भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते। बेटी! ये तुम्हारे भावी श्वशुर हैं; अतः तुम इन्हें प्रणाम करके युद्धसे हट जाओ। यही तुम्हारे लिये उचित होगा। तुम इनके भाई भीमसेनकी पुत्रवधू होओगी। इसलिये अपने श्वशुरके समान पूजनीय जनार्दनका तुम आदर करो। अब पिताके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। इन श्रीकृष्णके हाथसे जो तुम्हारे पिताकी मृत्यु हुई है, वह सर्वथा स्पृहणीय है; क्योंकि इनके हाथसे मरनेपर अब तुम्हारे पिता सब पातकोंसे मुक्त होकर विष्णुधाममें चले गये।' कामाख्याके ऐसा कहनेपर कामकटंकटाने क्रोध त्याग दिया और विनीत अंगोंसे मुझे प्रणाम किया। तब मैंने उसे आशीर्वाद देकर कहा- 'बेटी ! तुम भगदत्तसे सम्मानित होकर इसी नगरमें निवास करो। यहाँ रहती हुई ही तुम वीर हिडिम्बाकुमारको पतिरूपमें प्राप्त करोगी।' इस प्रकार आश्वासन देकर मैंने कामाख्या देवी तथा मौर्वी (मुरपुत्री) को विदा किया। फिर वहाँ से द्वारका होता हुआ मैं यहाँ आकर आपसे मिला हूँ। अतः यह मुरदैत्यकी सुन्दरी कन्या ही घटोत्कचके लिये योग्य स्त्री है। मैं श्वशुर हूँ , इसलिये मेरे द्वारा उसके रूपका वर्णन करना उचित न होगा। साधु पुरुषके लिये यह कदापि उचित नहीं है कि वह स्त्रियोंके रूप-सौन्दर्यका वर्णन करें। एक बात और सुन लीजिये। उसने प्रतिज्ञा कर रखी है कि जो मुझे किसी प्रश्नपर निरुत्तर करके जीत ले तथा जो मेरे समान ही बलवान् हो, वहीं मेरा पति होगा। उसकी यह प्रतिज्ञा सुनकर बहुत-से दैत्य तथा राक्षस उसे जीतनेके लिये गये किंतु मौर्वीने उन सबको परास्त करके मार डाला। यदि महापराक्रमी घटोत्कच ऐसी मौर्वीको जीतनेका उत्साह रखता हो तो वह अवश्य ही इसकी पत्नी होगी।' युधिष्ठिर बोले- प्रभो ! उसके सब गुणोंसे क्या लाभ है, जब उसमें यह एक ही महान् अवगुण भरा हुआ है। उस दूधको लेकर क्या किया जायगा जिसमें विष मिला दिया गया हो। अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारे भीमसेनकुमारको केवल साहसके भरोसे कैसे इस संकटमें डाल दें? यह बेचारा तो शुद्ध वाक्य भी बोलना नहीं जानता। जनार्दन ! देश- देशमें और भी तो बहुत-सी स्त्रियाँ हैं, उन्हींमेंसे किसी उत्तम स्त्रीको बतलाइये। 


भीमसेन बोले- भगवान् श्रीकृष्णने जो बात कही है, वह अनेक प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाली, सत्य और उत्तम है। मेरा विश्वास है, घटोत्कच शीघ्र ही मौर्वीको प्राप्त करेगा। अर्जुन बोले-कामाख्या देवीने मौर्वीसे कहा है, 'भद्रे ! भीमसेनका पुत्र तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा।' इस कारण मेरी राय यही है कि घटोत्कच शीघ्र वहाँ जाय। श्रीभगवान् बोले- अर्जुन ! मुझको तुम्हारी और भीमकी बात पसंद है। हिडिम्बाकुमार ! बोलो तुम्हारी क्या राय है?घटोत्कचने कहा- पूजनीय पुरुषकि आगे आने गुणका वर्णन करना उचित नहीं है। पूर्वका किरणें और उत्तम गुण व्यवहारमें आकर ही प्रकाशित होते हैं। मैं सर्वथा ऐसी चेष्टा करूँगा जिससे मेरे निर्मल पिता पाण्डव मुझ पुत्रके कारण सत्पुरुषोंकी सभामें लज्जित न हों। यों कहकर महाबाह घटोत्कचने उन सबको प्रणाम किया। फिर पितरोंसे विजयका आशीर्वाद पाकर उत्साहसम्पन्न हो वहाँसे जानेका विचार किया। उस समय भगवान् जनार्दनने उसकी प्रशंशा करके कहा- 'बेटा! कथा कहते समय विजयको प्राप्ति करानेवाले मुझ श्रीकृष्णका स्मरण अवश्य कर लेना, जिससे मैं तुम्हारी दुर्भेद्य बुद्धिको अविलम्ब बढ़ा दूँगा।' ऐसा कहकर श्रीकृष्णने उसे हृदयसे लगाया और आशीर्वाद देकर विदा किया। तदनन्तर हिडिम्बाकुमार महापराक्रमी घटोत्कच सूर्याक्ष, बालाख्य और महोदर- इन तीन सेवकोंकि साथ आकाशमार्गसे चला और दिन बीतते-बीतते प्राग्ज्योतिषपुरमें जा पहुँचा। 


वहाँ जानेपर घटोत्कचने प्राग्ज्योतिषपुरसे बाहर एक सोनेका सुन्दर भवन देखा, जो एक विशाल वाटिकामें शोभा पा रहा था। उसकी ऊँचाई एक हजार मंजिलकी थी। मेरुपर्वतके शिखरकी भाँति सुशोभित होनेवाले उस भवनके पास पहुँचकर घटोत्कचने देखा - दरवाजेपर एक सखी खड़ी है। उसका नाम 'कर्णप्रावरणा' था। वीर हिडिम्बाकुमारने सरस भाषामें उससे पूछा- 'कल्याणी! मुरकी पुत्री कहाँ हैं? मैं दूर देशसे आया हुआ उनकी कामना करनेवाला अतिथि हूँ और उन्हें देखना चाहता हूँ।' भीमसेनकुमार की यह बात सुनकर वह निशाचरी लड़खड़ाती हुई दौड़ी और महलकी छतपर बैठी हुई मौर्वीके पास जाकर इस प्रकार बोली- 'देवि! कोई सुन्दर तरुण कामका अतिथि होकर तुम्हारे द्वारपर खड़ा है। उसके समान सुन्दरकान्तिवाला पुरुष कोई त्रिलोकीमें भी नहीं होगा। अतः अब उसके लिये क्या कर्तव्य है. यह आज्ञा दीजिये।' कामकटंकटा बोली-अरी। उन्हें शीघ्र ले आ, क्यों विलम्ब करती है? कदाचित् दैवकी सहायतासे उन्होंके द्वारा मेरी प्रतिज्ञाकी पूर्ति हो जाय।

 मौर्वीके ऐसा कहनेपर दासीने घटोत्कचके पाप्त जाकर कहा-कामी पुरुष ! उस मृत्युरूपा नारीके समीप शीघ्र जाओ। उसके ऐसा कहनेपर हँसते हुए घटोत्कचने वहींपर अपना धनुष छोड़कर घरके भीतर प्रवेश किया और विद्युत्की भाँति प्रकाशित होनेवाली उस दैत्य-कन्याको देखकर इस प्रकार सोचा- 'अहो ! मेरे पितृस्वरूप श्रीकृष्णने मेरे लिये योग्य स्त्रीको ही बतलाया है।' इस प्रकार विचार करते हुए उसने मौर्वीसे कहा- 'ओ वज्रके समान कठोर हृदयवाली निष्ठुर नारी ! मैं अतिथि होकर तुम्हारे घर आया हूँ। अतः सत्पुरुषोंके लिये जो उचित स्वागत-सत्कार है, वह अपने हार्दिक भावके अनुसार करो।' हिडिम्बाकुमारका यह वचन सुनकर कामकटंकटा उसके रूपसे विस्मित हो अपनी निन्दा करके इस प्रकार बोली- 'भद्रपुरुष ! तुम व्यर्थ ही यहाँ चले आये। जीते-जी पुनः सुखपूर्वक लौट जाओ, अथवा यदि मुझे चाहते हो तो शीघ्र कोई कथा कहो। कथा कहकर यदि मुझे सन्देहमें डाल दोगे तो मैं तुम्हारे वशमें हो जाऊँगी। उसके बाद मेरे द्वारा तुम्हारी सेवा होगी।' उसके ऐसा कहनेपर घटोत्कचने यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनकी कथा है, उन भगवान श्रीकृष्णका स्मरण करके कथा प्रारम्भ की। 'मान लो किसी पत्नीके गर्भसे कोई बालक उत्पन्न हुआ जो युवा होनेपर बड़ा अजितेन्द्रिय निकला उस युवकके एक पुत्री हुई तथा उसकी पत्नी मर गयी। तब पिताने ही उस नन्ही-सी पुत्रीकी रक्ष एवं पालन-पोषण किया। वह कन्या जब जवानकुमारिकाखण्ड हुई और उसके सब अंग विकसित हो गये, तब उसके पिताका मन उसके प्रति कामलोलुप हो उता। तदनन्तर उस पापीने अपनी ही पुत्रीसे कहा- 'प्रिये। तुम मेरे पड़ोसीकी लड़की हो। मैंने तुम्हें अपनी पत्नी बनानेके लिये यहाँ लाकर दीर्घकालतक पालन-पोषण किया है। अतः अब मेरा वह अभीष्ट कार्य सिद्ध करो।' उसके ऐसा कहनेपर उस लड़कीने ऐसा ही माना। उसने इसे पतिरूपमें स्वीकार किया और इसने उसे पत्नी रूपमें। तत्पश्चात् उस कामी गदहेसे एक कन्या उत्पन्न हुई। अब बताओ, यह कन्या उसकी क्या लगेगी- पुत्री अथवा दौहित्री?' यदि तुममें शक्ति है, तो मेरे इस प्रश्नका शीघ्र उत्तर दो।' यह प्रश्न सुनकर मौर्वीने अपने हृदयमें अनेक प्रकारसे विचार किया, किंतु किसी प्रकार उसे इस प्रश्नका निर्णय नहीं सूझता था। तब उस प्रश्नसे परास्त होकर मौर्वीने अपनी शक्तिका उपयोग किया। वह ज्यों ही झूलेसे सहसा उठकर हाथमें तलवार लेना चाहती थी त्यों ही घटोत्कचने बड़े वेगसे पहुँचकर बायें हाथसे उसके केश पकड़ लिये और धरतीपर गिरा दिया। फिर उसके गलेपर बायाँ पैर रखकर दाहिने हाथमें कतरनी ले, उसकी नाक काट लेनेका विचार किया। मौर्वीने बहुत हाथ-पैर मारे, किंतु अन्तमें शिथिल होकर उसने मन्द स्वरमें कहा- 'नाथ ! मैं तुम्हारे प्रश्नसे और शक्ति तथा बलसे परास्त हो गयी हूँ। तुम्हें नमस्कार है। अब मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हारी दासी हूँ। जो आज्ञा दो वही करूँगी।' घटोत्कचने कहा-यदि ऐसी बात है तो लो, मैंने तुम्हें छोड़ दिया। घटोत्कचके यों कहकर छोड़ देनेपर कामकर्टकटाने पुनः उसे प्रणाम किया और कहा- 'महाबाहो ! मैं जानती हूँ, तुम बड़े वीर हो। त्रिलोकीमें कहीं भी तुम्हारे पराक्रमकी तुलना नहीं है। तुम इस पृथ्वीपर साठ करोड़ राक्षसोंके स्वामी हो ये बातें मुझे कामाख्या देवीने बतलायी थीं, वे सब आज याद आ रही हैं। मैंने अपने सेवकों तथा इस शरीरके साथ यह सारा घर तुम्हारे चरणोंमें समर्पित कर दिया। 


भीम पुत्र घटोत्कच का विवाह किसके साथ हुआ था? भीम पुत्र का नाम बर्बरीक कैसे पड़ा ?  > Story of Ghatotkach & Barbarik

प्राणनाथ ! आज्ञा दो, मैं तुम्हारे किस आदेशका पालन करूँ?' घटोत्कचने कहा- मौर्वी ! जिसके पिता और भाई-बन्धु मौजूद हैं, उसका विवाह छिपकर हो, यह किसी प्रकार उचित नहीं है। इसलिये अब तुम शीघ्र मुझे इन्द्रप्रस्थ ले चलो। यही हमारे कुलकी परिपाटी है। इन्द्रप्रस्थमें गुरुजनोंकी आज्ञा लेकर मैं तुमसे विवाह करूँगा। तदनन्तर मौर्वी अनेक प्रकारकी सामग्री साथ ले घटोत्कचको अपनी पीठपर बैठाकर इन्द्रप्रस्थमें आयी। भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डवोंने घटोत्कचका अभिनन्दन किया, उसके बाद शुभलग्नमें भीमकुमारने मौर्वीका पाणिग्रहण किया। कुन्ती और द्रौपदी दोनों ही वधूको देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। विवाह- सम्बन्ध हो जानेपर राजा युधिष्ठिरने घटोत्कच का  आदर-सत्कार करके उसे पत्नीसहित अपने राज्यको जानेका आदेश दिया। महाराजकी आज्ञा शिरोधार्य करके हिडिम्बाकुमार अपनी राजधानी हिडम्ब-वनको चला गया। वहाँ उसने मौर्वीके साथ बहुत दिनोंतक क्रीड़ा की। तदनन्तर समयानुसार उसके गर्भसे एक महातेजस्वी एवं बालसूर्यके समान कान्तिमान् बालक उत्पन्न हुआ, जो जन्म लेते ही युवावस्थाको प्राप्त हो गया। उसने माता-पितासे कहा-'मैं आप दोनोंको प्रणाम करता हूँ, बालकके आदिगुरु माता-पिता ही हैं। अतः आप दोनोंके दिये हुए नामको मैं ग्रहण करना चाहता हूँ।' तब घटोत्कचने अपने पुत्रको छातीसे लगाकर कहा- 'बेटा ! तुम्हारे केश बर्बराकार (घुँघराले) हैं, इसलिये तुम्हारा नाम 'बर्बरीक' होगा।

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