प्रसिद्द नैतिक शिक्षा की हिंदी कहानियाँ : Famous moral stories in Hindi

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प्रसिद्द नैतिक कहानियाँ : Famous moral stories in Hindi

एक कंजूस व्यापारी था। उसका शम्भु नामक एक नौकर था, जो बड़ी उदार प्रकृति का था। शम्भु अपने वेतन का काफी हिस्सा गरीबों और जरूरतमन्दों में बाँट देता था। कंजूस व्यापारी उससे हमेशा कहता-'अरे मूर्ख ! कुछ जोड़कर भी रख।' लेकिन शम्भु टाल जाता। एक बार खीझकर व्यापारी ने एक डण्डा शम्भु को दिया और कहा-'जब कोई तुझे अपनेसे भी बड़ा मूर्ख मिले, तो ये डण्डा उसे दे देना।' उसके बाद वह व्यापारी अक्सर शम्भुसे पूछता - 'क्या कोई अपनेसे बड़ा मूर्ख तुझे मिला ?' शम्भु विनम्रतासे इनकार कर देता। कुछ समय बाद व्यापारी सख्त बीमार पड़ा और उसका अन्तिम समय निकट आ गया। 

वह शम्भुसे बोला- 'अब मैं बच्चूँगा नहीं। कुछ ही दिनोंमें महायात्रापर  'चल पहुँगा।' भोला शम्भु बोला- 'मालिक ! मुझे साथ ले चलिये।' मालिकने प्यारसे झिड़का-'अरे मूर्ख ! वहाँ कोई साथ नहीं जाता।' इसपर शम्भुने कहा-'अच्छा, किसीको मत ले जाइये, लेकिन अपनी सुख-सुविधाके लिये रुपये-पैसे, घोड़ा-गाड़ी आदि तो लेते जाइये।' इसपर व्यापारी खीझकर बोला-'अरे महामूर्ख ! वहाँ तो एक सूई भी नहीं ले जा सकते, एकदम खाली हाथ जाना पड़ता है।' अब शम्भु बोला- 'मालिक ! तब तो यह डण्डा आप ही रखिये। भला, आपसे बड़ा मूर्ख कौन होगा, जिसने सारी जिन्दगी कमानेमें ही लगा दी ! न दान किया न पुण्य। जब कुछ साथ जायगा ही नहीं, तो जोड़- जोड़कर रखनेसे क्या फायदा?'



गरुड़ और शेषनाग की कथा : 


प्रसिद्द नैतिक कहानियाँ : Famous moral stories in Hindi


पुराणोंकी एक प्रतीक कथा बड़े मार्मिक ढंग से घमण्ड और गरिमाके भेदको समझाती है। गरुड़ और शेषनाग इतने बलशाली माने जाते हैं कि बड़े-से- बड़ा बोझ उठा सकें। गरुड़की एक बार इस बातका घमण्ड हो गया; क्योंकि वे अपने साथी एक पक्षीके बुरी तरह घायल हो जानेपर इन्द्रके नन्दनबनसे उस विशाल पर्वतकी उठाकर ले गये थे, जिसपर अमोघ प्रभाव करनेवाली जड़ी-बूटियाँ थीं। पक्षीके स्वस्थ हो जानेपर वे उसे लौटाने गये तो इन्द्रसे मुलाकात ही गयी। बातों-ही-बातोंमें वे इन्द्रके सामने अपने शौर्यकी डींग हाँकने लगे। 'मैं दक्ष-पुत्री विनता और महर्षि कश्यपका पुत्र हूँ। अनेक राक्षसोंका संहारक हूँ। श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान, रोचनमुख, प्रस्तुत और कालकाक्ष-जैसे राक्षसोंका वध कर चुका हूँ। स्वर्य विष्णुको धारण करता हूँ।' ये सब डींगें हाँककर जब वे वैकुण्ठ लौटे तो विष्णु सामने ही मिल गये। 

उन्हें मालूम हो गया था कि गरुड़ने इन्द्रलोकमें क्या कहा है। उन्होंने इसका इलाज करनेकी सोची। ज्यों ही गरुड़ उनके पास पहुँचे, उन्होंने यह कहते हुए अपना बायाँ हाथ उनके ऊपर रख दिया कि आज हाथ दर्द कर रहा है। हाथ रखते ही गरुड़को लगा कि जाने कितने पर्वतों और भूमण्डलोंका भार उनपर आ पड़ा। कमर टूटने लगी। चीख निकलते-निकलते बची। पूछने लगे 'आज आपके हाथको क्या हो गया है प्रभो!' विष्णुने कहा-'हाथको तो कुछ नहीं हुआ गरुड़ ! तुम्हारी बुद्धिको घमण्डका घुन अवश्य लग गया है, जिससे डींगें हाँकने लगे हो। तुम तो जानते ही हो, जब मैं तुमपर सवारी करता हूँ, अपना भार स्वयं सम्भाले रखता हूँ। जिस पर्वतको तुमने उठाया था, उसका भार मैंने हर लिया था; क्योंकि उस समय तुम परोपकारके उद्देश्यसे पर्वत ले जा रहे थे। अब सफलताके घमण्डके भारी बोझके कारण पहले ही तुम बोझिल हो रहे हो, और किसीका बोझ क्या उठाओगे ?' गरुड़ पानी-पानी हो गये। इतनी बेबाक शैलीमें विष्णुजीने पहले कभी उनसे बात नहीं की थी। वे समझ गये कि सफलताकी सारी गरिमा सफलताके घमण्डसे समाप्त हो जाती है। 


[ म०म० देवर्षि श्रीकलानाथजी शास्त्री ]

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