5th सितंबर शिक्षक दिवस :राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जीवन परिचय, शिक्षा और सामाजिक कार्य

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गणतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन्  ( Sarvapalli Dr. Radha krishnan) अंतर्राष्ट्रीय ख्याति- प्राप्त दार्शनिक एवं राजनेता ही नहीं, अपितु महान् शिक्षाशास्त्री भी रहे हैं। अपनी विशिष्ट बहुमुखी प्रतिभा, अध्ययवसायशील प्रवृत्ति एवं प्रभावकारी अद्भुत व्यक्तित्व के कारण शिक्षा के क्षेत्र में भी आपने उतना ही विवेकपूर्ण योगदान किया है, जितना भारतीय दर्शन की धारा को विश्व में प्लावित करने अथवा जगत की अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान में।


5th सितंबर शिक्षक दिवस :राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जीवन परिचय, शिक्षा और सामजिक कार्य

5th September Teacher's Day special (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan biography and education in hindi )  


जीवन-परिचय :


उनका जन्म 5 सितंबर, सन् 1888 ई० को मद्रास में हुआ। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की और बहीं के प्रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए । इसके बाद वे मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शन के प्राध्यापक रहे। ऑक्सफोर्ड के मैंचेस्टर कॉलेज में वे तुलनात्मक धर्म के प्राध्यापक रहे। सन् 1929-30 ई० में उन्होंने हिबर्ट में भाषण दिए। सन् 1939 ई० से 1948 ई० तक वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। वे ऑक्सफोर्ड में पूर्वीय धर्मों और नीतिशास्त्र के स्पाल्डिंग प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन् 1921 ई० से 1931 ई० तक ये कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे। सन् 1931 ई० से सन् 1939 ई० तक ये बौद्धिक सहयोग पर अंतर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य रहे। सन् 1946, 1947, 1948, 1949 और 1950 ई० में ये संयुक्त राष्ट्र संघ की यूनेस्को समिति में भारतीय भी प्रतिनिधि मंडल के नेता रहे। सन् 1947 ई० में ये इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था के सभापति चुने गए। सन् 1948 ई० में वे इसकी प्रबंध समिति के प्रधान रहे। सन् 1948 ई० में ही ये भारत सरकार के विश्वविद्यालय आयोग के प्रधान रहे। सन् 1949 से 1952 ई० तक ये सोवियत रूस में भारत के राजदूत रहे। सन् 1953 में ये दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर थे। सन् 1952 ई० में ये अंतर्राष्ट्रीय पी० ई० एन० (PEN) के उपप्रधान और भारत में इस संस्था के प्रधान रहे । 


सन् 1957 ई० में ये फिर से उपराष्ट्रपति चुने गए। इन्होंने 1956 ई० में जून और जुलाई मास में बेल्जियम, पोलैंड, यूगोस्लोवाकिया, सोवियत संघ, हगरी और बल्गारिया इत्यादि यूरोपीय देशों और पूर्वीय एवं मध्य अफ्रीका के देशों की यात्रा की। जून 18, 1956 ई० को इन्हें मास्को विश्वविद्यालय का सम्मानित प्रोफेसर पद दिया गया । सितम्बर, अक्टूबर, 1956 ई० में इन्होंने सिंगापुर, इंडोनेशिया, जापान और चीन की मैत्री यात्रा की। सन् 1952 ई० में ही ये भारतीय गणतंत्र के उपराष्ट्रपति चुने गए। सितम्बर, 1957 ई० में ये तीन सप्ताह के लिए इंडोचीन, चीन, मंगोलिया और हांगकांग के दौरे पर गए। जुलाई, 1959 ई० में उन्होंने होनोलुलू में पूर्व और पश्चिम के दार्शनिकों के सम्मेलन में भाग लिया तथा अमरीका की यात्रा की। इसी समय उन्होंने जर्मनी में पी० ई० एन० (PEN) कांग्रेस के विचार-विमर्श में भाग लिया। जनवरी-फरवरी, 1960 ई० में उन्होंने इंगलैंड और स्कैंडीनेविया की मैत्रीपूर्ण यात्रा की। नवम्बर 1960 ई० में ये पेरिस के यूनेस्को सम्मेलन में सम्मिलित हुए। जून-जुलाई, 1960 ई० में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की रुग्णावस्था के कारण इन्होंने देश के राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया। इसके बाद अगस्त-सितम्बर, 1961 ई० में भी इन्होंने इस पद पर कार्य किया। सन् 1962 से 1967 तक ये भारत के राष्ट्रपति रहे। 11 जुलाई, 1962 ई० में ये ब्रिटिश एकेडेमी के सम्मानित फेलो चुने गए। देश-विदेश में इनको अनेक डिग्रियों और उपाधियों से विभूषित किया गया। भारतीय विश्वविद्यालयों से इन्हें एम० ए०, डॉ० लिट्० की उपाधियाँ दी गईं। इसके अतिरिक्त इन्होंने पाश्चात्य विश्वविद्यालयों से एफ० आर० एस० एल०, एल० एल० डी, डी० सी० एल०, एफ० बी० ए० आदि डिग्रियाँ प्राप्त कीं। सन् 1931 ई० में अंग्रेज सरकार ने इन्हें 'नाईट' की उपाधि दी थी। सन् 1954 ई० में भारत सरकार ने इन्हें 'भारतरत्न' की उपाधि से विभूषित किया ।


डॉ० राधाकृष्णन् ने आधुनिक काल में दर्शन के क्षेत्र में सबसे बड़ा कार्य भारतीय दर्शन को उसका उचित सम्मानित स्थान दिलाने का प्रयास किया। उन्होंने पाश्चात्य आलोचकों द्वारा भारतीय दर्शन पर लगाए गए आक्षेपों का सफल और तर्कपूर्ण प्रत्युत्तर दिया। उन्होंने देश-विदेश के विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन और संस्कृति का ज्ञान फैलाया। वे भारत के उन बहुत ही थोड़े से समकालीन दार्शनिकों में से हैं, जिनको केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी एक मौलिक दार्शनिक के रूप में मान्यता प्राप्त है। उन्होंने भारतीय दर्शन और धर्म के विभिन्न पहलुओं पर महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे। इन ग्रंथों से जहाँ उनके भारतीय का ज्ञान स्पष्ट होता है. वहाँ स्थान-स्थान पर पूर्व और पश्चिम के दर्श तुलनात्मक विवरण के द्वारा यह दिखलाने का प्रयास भी दृष्टिगोचर होता है कि मानव प्राणियों ने सभी देशों, कालों में दार्शनिक समस्याओं पर लगभग एक प्रकार से विचार किया है।


5th September Teacher's Day special (Dr.Sarvapalli Radhakrishnan biography and education in hindi)  


डॉ० राधाकृष्णन् के ग्रंथों में संसार की विभिन्न संस्कृतियों, साहित्यों की सभ्यताओं के विभिन्न पहलुओं का इतना अधिक ज्ञान बिखरा मिलता है कि पटक उनके ज्ञान के व्यापक क्षेत्र पर आश्चर्यचकित रह जाते हैं।


शिक्षा-दर्शन


डॉ० राधाकृष्णन् के जीवन पर स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर तथा महात्मा गांधी का गहरा असर पड़ा है। फलस्वरूप उनके शिक्षा-दर्शन में भी इन महापुरुषों की विचारधाराओं की झलक मिलती है। उनके शिक्षा-दर्शन में भारतीय संस्कृति के प्रति उदार भाव, धार्मिक, नैतिक एवं लोककल्याण विचारों का सामंजस्य तथा विश्वबंधुत्व की भावना है। हिन्दू धर्म एवं उसकी उदारवादी मान्यताओं के प्रति उनका स्नेह अविभाज्य एवं अकाट्य है।


समाज और मानवता के श्रेष्ठ गुण


डॉ० राधाकृष्णन् समाज को एक ऐसे श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित रूप में विकसित देखना चाहते हैं, जिसके उच्च आदर्श मानवता के श्रेष्ठ गुणों से आबद्ध हों, जिस उच्च समाज के व्यक्ति वर्ग, वर्ण आदि को संकीर्णता में ही अपने अमूल्य समय और अनमोल जीवन का नाश नहीं करते हों। अपनी पुस्तक 'सर्च फॉर टूथ' के पृष्ठ 33 पर इस भावना को उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है।


वे मानव मात्र को ईश्वर का प्रतिरूप मानते हैं। उनके मतानुसार, संसार के सभी नर-नारी परमात्मा के ही अंशस्वरूप हैं। आज जो हमें यह अंतर दिखायी देता है, वह मानव-कृत ही है। भागवत में भी कहा गया है- "अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मा अवस्थितः ।" ईश्वर प्राणिमात्र में उसकी आत्मा के रूप में अवस्थित है, वर्तमान 'है। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्यों में इस महान् महिमापूर्ण भावना को प्रादुर्भाव किया जा सकता है। शिक्षा मानव-विचारों की जननी है। जैसी हमारी शिक्षा होगी, तदनुकूल हमारे विचार भी बनेंगे ।


शिक्षा और वसुधैव कुटुम्बकम्


महात्मा गांधी के समान ही डॉ० राधाकृष्णन् लोकराज्य निर्माणहेतु कर्तव्य एवं नागरिकता की भावना से ओतप्रोत कुशल जीवनयापन करने को क्षमतासंपन्न, चरित्रवान, शिष्ट और स्वावलंबी नागरिक तैयार करना चाहते हैं, जिनमें आदर्श जीवनयापन करने की शक्ति हो तथा जो मानवता के विकास हेतु अपनी अमूल्य निधि भी त्यागने को तैयार रहते हों। डॉ० राधाकृष्णन् 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। उनका विचार है कि संसार के सभी व्यक्ति एक ही परिवार के सदस्य हैं। अतः, स्वार्थपरता की भावना त्याग कर सभी को सबके हित- चिंतन की जरूरत है। सभी को सबकी सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता को सम्मान की दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। वे शिक्षा के माध्यम से विश्वबंधुत्व की भावना को बलवती बनाने पर अत्यधिक बल देते हैं। उनका विचार है कि आज का मानव अत्यधिक भौतिकवादी हो गया है। स्वार्थपरता की भावना ने उसके हृदय और मस्तिष्क को आच्छन्न कर दिया है। आवश्यकता है कि उनमें उदात्त विचारों का प्रादुर्भाव हो और वह जनकल्याण एवं मानव-हितार्थ सोचने-विचारने की शक्ति उत्पन्न करे। एकमात्र शिक्षा के आधार पर ही इस उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है। शिक्षा की रूपरेखा इस प्रकार प्रस्तुत हो, जिससे मानव अपनी भौतिकवादी प्रवृत्ति से दूर हटकर आध्यात्मिक मनोवृत्ति की ओर अग्रसर हो तथा मानव मात्र को अपना हितैषी और बंधु समझे। शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम तथा वहाँ की शिक्षा प्रणाली इस लक्ष्य की पूर्ति करेगी।


शिक्षा : नैतिकता के विकास के लिए


डॉ० राधाकृष्णन् नैतिकता को मनुष्य के सामाजिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार मानते हैं। नैतिकता कुछ सद्गुणों का समन्वय मात्र नहीं हुआ करती, बल्कि चरित्र के अंतर्गत यह एक ऐसा संगठन है कि सभी मिलकर एक इकाई का रूप धारण करते हैं। नैतिकता एक बड़ा व्यापक गुण है तथा इसका प्रभाव मनुष्य के समस्त कार्यकलापों पर अत्यंत ही सूक्ष्म और विलक्षण होता है। इससे व्यक्ति का समस्त व्यक्तित्व आंदोलित हुआ करता है। अतः हमारे सामाजिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए नैतिकता के संगठन और संवर्द्धन की शिक्षा होनी चाहिए।


शिक्षा : आध्यात्मिकता के विकास के लिए डॉ० राधाकृष्णन् वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हैं। वे हैं कि शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाना अथवा पुस्ताकीव प्राप्तकर लेना ही नहीं होता, अपितु शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य मस्तिष्कक आंतरिक शक्तियों को विकसित, प्रशिक्षित एवं अनुशासित करने के साथ-साथ बालकों को स्वतंत्रता प्रदान कर रूढ़िवादिता के अंत तथा प्रकृति से निकट साहना प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करना होता है। परंतु, ऐसा नहीं होकर आजको शिक्षा अमानवीय और कृत्रिम हो गई है। वास्तविक अर्थ में शिक्षा अपने लक्ष्य की पूर्ति करने में असफल है; क्योंकि शताब्दियों से इसकी रूपरेखा विकृत हो रही है। इसका लक्ष्य और उद्देश्य ही दूसरा है। यह मानव को उसके वास्तविक गुण एवं उच्च मर्यादा से परिचित नहीं करा पाती; क्योंकि इसका ढाँचा ही शिक्षा के वास्तविक स्वरूप से सर्वथा भिन्न है। आज की शिक्षा में मनुष्य के आध्यात्मिक विकास की अवहेलना की जाती है। डॉ० राधाकृष्णन् का विचार है कि हमा समाज का नवनिर्माण अध्यात्मवाद द्वारा ही संभव है, परंतु इसके ठीक उल्टा हमारे यहाँ भौतिकवाद को प्रश्रय मिलता है। इस संसार के प्राणिमात्र का नियंत्रणकर्ता भी कोई अदृश्य महान्तम अलौकिक शक्ति है, मनुष्य ऐसा नहीं सोचता । भौतिकवादी लिप्सा तथा सामाजिक तृष्णा ने उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को सर्वथा कुठित कर डाला है। फलस्वरूप मनुष्यों में अपने भाई-बंधुओं के प्रति हित की भावना को इच्छा समाज-कल्याण और देश-कल्याण अथवा अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का स्वतः अभाव हो जाता है। अतः, शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति के लिए "हमे अपनी शिक्षण संस्थाओं में आध्यात्मिक शिक्षा के प्रचलन की आवश्यकता है।" जिन लोगों में त्यागशीलता, निःस्वार्थ सेवा-भावना तथा परमात्मा में आस्था है. उन्हें समाज को प्रगतिपथ पर अग्रसारित करने के निमित्त शिक्षा के इस उद्देश्य की पूर्ति में संलग्नशील होने की आवश्यकता है।

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शिक्षा में जनतांत्रिक पद्धति


विद्यार्थियों के बहुमुखी एवं वैयक्तिक विकास के लिए डॉ० राधाकृष्णन् शिक्षा में जनतंत्रात्मक पद्धति के प्रयोग को मान्यता देते हैं। जनतंत्र मानव-जीवन का प्राण है, उसके सर्वांगीण सफल विकास के हेतु जनतंत्र ही महति शक्ति है. प्रमुख साधन है। इसके आधार को अपनाकर तथा विभिन्न आदशों को स्वीकार कर ही हमलोग मानवता के उन समस्त गुणों से साक्षात्कार कर सकते हैं, जिसमें


अनजीवन का कल्याण तो निहित है ही, विश्वशांति की प्रमुख समस्या का समाध इन भी अत्रिहित हैं। अतः, बालकों के वैयक्तिक एवं बहुमुखी विकास के लिए सहानुभूति, उत्तरदायित्वपूर्ण सरल जीवन एवं कर्त्तव्यपरायणता आदि चारित्रिक गुण के विकास के लिए आवश्यक है कि शिक्षण संस्थाओं का संगठन जनतंत्र की आधारशिला पर अवस्थित हो।


सरल जीवन और उच्च विचार


डॉ० राधाकृष्णन् 'सरल जीवन और उच्च विचार'के आदर्श को मान्यता देते हैं। भारत की प्राचीन परंपरा भी 'सरल जीवन और उच्च विचार' की श्रेष्ठ भावना को ही प्रश्रय प्रदान करती है। डॉ० राधाकृष्णन् के विचारानुसार, हमलोगों का जीवन आज विशेष कृत्रिम और भौतिकवादी है। सरलता और सादगी का जीवन, प्रकृति से निकट साहचर्य का जीवन हमें पसंद नहीं आता, परंतु मानव का कल्याण इस भावना को दूर करने में ही है। समस्त मानवों का खयाल करते हुए उन्हें सबके साथ समानता के सिद्धांत को अपनाना होगा। भारतीय अध्यात्मवाद भी इसी को शिक्षा देता है। उसे अपनी अवांछनीय, अप्राकृतिक, असामाजिक इच्छाओं और तृष्णाओं को दवाकर, उनका दमनकर सरलता की ओर उन्मुख होना पड़ेगा।

5thSeptember Teacher's day special (Dr. Sarvapalli Radhakrishnan biography and education)  

सच्ची शिक्षा योजना के आधार पर ही इस लक्ष्य की पूर्ति होगी। प्राचीन भारत के गुरुकुल इसी उद्देश्य को प्रतिपादित और उपस्थापित करते थे। अतः, वहाँ का समस्त जीवन और कार्यकलाप इस प्रकार निर्मित था कि युवा ब्रह्मचारी अपनी शिक्षा-दीक्षा की समाप्ति के पश्चात् गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर इस उच्च मर्यादा का सर्वदा-सर्वथा पालन करते रहें। आज भी स्वामी श्रद्धानंदजी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने किशोर तथा युवा विद्यार्थियों का मस्तिष्क और हृदय, सरल और उच्च विचार से अभिभूत हो, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही क्रमशः अपने कांगड़ी गुरुकुल हरिद्वार तथा विश्वभारती, शांति निकेतन के समस्त जीवन का गठन तद्नुकूल रूप में ही किया है। अतः, आवश्यक है कि गणतंत्र भारत की समस्त शिक्षण- संस्थाओं में 'सरल जीवन और उच्च विचार' की पवित्र, ओजस्विनी तथा जनहितकारी धारा प्रवाहित हो ।

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धार्मिक शिक्षा द्वारा पाशविक प्रवृत्तियों का परिशोधन


धार्मिक शिक्षा के संबंध में डॉ० राधाकृष्णन् के विचार बड़े उदात्त एवं स्पष्ट हैं। वे शिक्षण-संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में हैं। धार्मिक शिक्षा के आधार पर मनुष्य को भौतिक तथा पाशविक प्रवृत्तियाँ परिशोधित सकेंगी और वह मानवता के उच्च आदशों से अपना हार्दिक संबंध स्थापितक सकेगा-ऐसा उनका विचार है। धर्म कोई मत-मतांतर नहीं, अपितु 'सत्य की शोध' में एक तीव्र आलोक है। धार्मिक शिक्षा अपने वास्तविक स्वरूप में सर्वश्रेष्ठ है तथा विश्व-शांति की जननी है। स्वामी विवेकानंद ने भी धर्म को शिक्षा का मेरूदंड बतलाया है। डॉ० राधाकृष्णन् के विचारानुसार शिक्षा और धर्म का संबंध उसी प्रकार है, जिस प्रकार शरीर और आत्मा का । यदि धर्म को शिक्षा से अलग कर दें, तो हमारी आध्यात्मिक मृत्यु हो जाएगी। मानव जीवन का बहुत बड़ा लसद है-हृदय की पवित्रता, चित्त की शांति और वह तो हमें धर्म द्वारा ही प्राप्त होगी।


वस्तुतः धर्म का आशय सामान्य रूप से समझे जानेवाले धर्म के संकुचित अर्थ से सर्वथा भिन्न है। अंग्रेजी के 'रेलिजन' शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'रेलिगर' से हुई है, जिसका अर्थ होता है बाँधना अर्थात् धर्म मनुष्य और ईश्वा के बीच सूत्रीकरण का माध्यम है। वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा बतायी गई है-"यतोभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।" अर्थात् जिससे इस लोक में पूर्ण अभ्युदय और परलोक में कल्याण मिले, वही धर्म है। भगवान् व्यास ने से श्लोकों में बड़े अच्छे ढंग से धर्म की व्याख्या की है। वे कहते हैं-


"प्रभवार्थाय भूतानां धर्म-प्रवचनं कृतम् । यःस्यात्प्रभव-संयुक्तः स धर्म इति में मतः ॥

अहिंसार्थाय भूतानां धर्म प्रवचनं कृतम् । यः स्यादहिंसया युक्तः स धर्म इति निश्चय ॥"

अर्थात्, प्राणियों के कल्याण के लिए ही धर्म का बखान किया गया है। जिस कर्म से प्राणियों का कल्याण होता हो, उसी को 'धर्म' कहते हैं। अहिंसा के लिए धर्म का बखान हुआ है। जिन कार्यों से हिंसा नहीं होती हो, दूसरों को मानसिक या शारीरिक कष्ट नहीं होता हो, वही धर्म है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- "परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नही अधमाई ।।"


ऐसे सभी काम धर्म कहलाते हैं जिनसे दूसरों को सुख मिलता हो, शांति मिलती हो, लोककल्याण होता हो, किसी को किसी प्रकार का कष्ट या मानसिक क्लेश नहीं पहुँचता हो।

कुछ संकीर्ण विचार रखनेवाले पुरुष धर्म का तात्पर्य एक विशेष विश्वास के लिए श्रद्धा मानते हैं। उनका धर्म पुस्तकों में अधिक सीमित रहता है, जीवन में कम। ऐसे व्यक्ति को मान और मनुष्य में अंतर दृष्टिगत होता है। धर्म के नाम पर बड़े-बड़े युद्ध हुए हैं। इतिहासप्रसिद्ध यूरोप का 'क्रूसेड वार' सर्वविदित है। विवेकानंद ने लिखा है- "हम शास्त्रों द्वारा धार्मिक नहीं बन सकते, भले ही हम संसार की समस्त पुस्तकों को पढ़ डालें, तब भी संभव है, हम ईश्वर और धर्म का एक अक्षर भी नहीं समझें। भले ही हम जीवनपर्यन्त तर्क और विचार करते रहें, परंतु स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना सत्य के कण मात्र को भी नहीं समझ सकते। मंदिर तथा गिरजाघर, पुस्तकें तथा विधियाँ धर्म के केवल प्रारंभिक अभ्यास कराने की सामग्रियाँ, हैं-उनसे आध्यात्मिक क्षेत्र का जिज्ञासु अगली सीढ़ियों पर पैर रखने के लिए बल प्राप्त करता है। सिद्धांतों, मतवादों अथवा बौद्धिक विवादों में धर्म नहीं रखा है। हम आत्मा हैं, यह जानकर तद्रूप बन जाना ही धर्म है, अपरोक्षानुभूति ही धर्म है।"


शिक्षा का अर्थ है-मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास करने की शक्ति । सच्चे अर्थ में मनुष्य वही है जिसका बौद्धिक, आत्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, चारित्रिक एवं शारीरिक आदि सभी प्रकार का विकास हुआ हो, एक पक्षीय नहीं। महान् दार्शनिक प्लेटो के मत में "शिक्षा द्वारा हमें शरीर और आत्मा की पूर्णता के लिए सब कुछ प्राप्त हो सकेगा अगर हममें उसे ग्रहण करने की क्षमता हो ।" प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कॉमेनियस का विचार है- "शिक्षा संपूर्ण मानव का विकास है।" इन विचारों से संसार के सभी शिक्षाशास्त्री सहमत हैं। महात्मा गांधी ने अपनी शिक्षा प्रणाली के लक्ष्य की चर्चा करते हुए स्पष्ट शब्दों में इसके शारीरिक, आध्यात्मिक और मानसिक गुणों को उपस्थित किया।


इस प्रकार द्रष्टव्य है कि हमारी शिक्षा उस समय तक अधूरी है, जब तक उसके द्वारा हमारी आध्यात्मिक, चारित्रिक और नैतिक उन्नति नहीं होती। अतः, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम अपने विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन विषयों का समावेश करें, जिससे इसकी क्षमता हमें प्राप्त हो। स्पष्टतः तब हमारा ध्यान 'धार्मिक शिक्षा' की ओर जाता है; क्योंकि चरित्र निर्माण में धार्मिक आर नैतिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण भाग होता है। आजकल शिक्षा का जो रूप है, उसमें मनुष्य की मानसिक शक्तियों का ही विकास होता है-आत्मिक उन्नति नहीं होती। यह हमारी भौतिक पिपासा को शांत करती है, सर्वांगीण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। इसका संबंध भौतिकवादी दुनिया से अधिक है, मन के अंत-प्रदेश


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कुछ संकीर्ण विचार रखनेवाले पुरुष धर्म का तात्पर्य एक विशेष विश्वास के लिए श्रद्धा मानते हैं। उनका धर्म पुस्तकों में अधिक सीमित रहता है, जीवन के कम। ऐसे व्यक्ति को मान और मनुष्य में अंतर दृष्टिगत होता है। धर्म के नाम पर बड़े-बड़े युद्ध हुए हैं। इतिहासप्रसिद्ध यूरोप का 'क्रूसेड वार' सर्वविदित है। विवेकानंद ने लिखा है-"हम शास्त्रों द्वारा धार्मिक नहीं बन सकते, भले ही हम संसार की समस्त पुस्तकों को पढ़ डालें, तब भी संभव है, हम ईश्वर और धर्म का एक अक्षर भी नहीं समझें। भले ही हम जीवनपर्यन्त तर्क और विचार करते रहें, परंतु स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना सत्य के कण मात्र को भी नहीं समझ सकते । मंदिर तथा गिरजाघर, पुस्तकें तथा विधियाँ धर्म के केवल प्रारंभिक अभ्यास कराने की सामग्रियाँ, हैं-उनसे आध्यात्मिक क्षेत्र का जिज्ञासु अगली सीढ़ियों पर पैर रखने के लिए बल प्राप्त करता है। सिद्धांतों, मतवादों अथवा बौद्धिक विवादों में धर्म नहीं रखा है। हम आत्मा हैं, यह जानकर तद्रूप बन जाना ही धर्म है, अपरोक्षानुभूति ही धर्म है।"


शिक्षा का अर्थ है-मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास करने की शक्ति । सच्चे अर्थ में मनुष्य वही है जिसका बौद्धिक, आत्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, चारित्रिक एवं शारीरिक आदि सभी प्रकार का विकास हुआ हो, एक पक्षीय नहीं। महान् दार्शनिक प्लेटो के मत में "शिक्षा द्वारा हमें शरीर और आत्मा की पूर्णता के लिए सब कुछ प्राप्त हो सकेगा-अगर हममें उसे ग्रहण करने की क्षमता हो।" प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कॉमेनियस का विचार है- "शिक्षा संपूर्ण मानव का विकास है।" इन विचारों से संसार के सभी शिक्षाशास्त्री सहमत हैं। महात्मा गांधी ने अपनी शिक्षा प्रणाली के लक्ष्य की चर्चा करते हुए स्पष्ट शब्दों में इसके शारीरिक, आध्यात्मिक और मानसिक गुणों को उपस्थित किया।


इस प्रकार द्रष्टव्य है कि हमारी शिक्षा उस समय तक अधूरी है, जब तक उसके द्वारा हमारी आध्यात्मिक, चारित्रिक और नैतिक उन्नति नहीं होती । अतः, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम अपने विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन विषयों का समावेश करें, जिससे इसकी क्षमता हमें प्राप्त हो। स्पष्टतः तब हमारा ध्यान 'धार्मिक शिक्षा' की ओर जाता है; क्योंकि चरित्र निर्माण में धार्मिक आर नैतिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण भाग होता है। आजकल शिक्षा का जो रूप है, उसमें मनुष्य की मानसिक शक्तियों का ही विकास होता है-आत्मिक उन्नति नहीं होती। यह हमारी भौतिक पिपासा को शांत करती है, सर्वांगीण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। इसका संबंध भौतिकवादी दुनिया से अधिक है, मन के अंत-प्रदेश


विजय पाने के लिए सही एक शक्ति है।


चीनी प्रवृतियों को उन्होंने क्रमश चीची प्रवृति भी है, जिसे भी लिए, प्राचीन भारतीय लोगों ने यह निर्धारित किया कि मनुष्य को सिद्ध करने चाहिए-अर्थ, धर्म, काम और निभिग सभी विधाएँ, चार भागों में चोटी गई थी जिन्हें भार कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं पर्मशास्त्र को प्रमुख स्थान प्राप्त था और व्यवस्थित होगी थी।


ऋषियों के आश्रमों तथा गुरुकुलों में प्रत्येक बालकको शारीरिक, व्यावसायिक और व्यावहारिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। पाठ्यक्रम के अनुसार विभिन्न कार्यक्रम निर्धारित थे। धार्मिक और তিন कुछ तो पुस्तकों और उपदेशों के आधार पर तथा कुछ आश्रम में स्नेह और सहयोग के वातावरण से दी जाती थी, जिससे छात्र यह जान ग्रहण कर थे कि स्वयं असुविधा और कष्ट झेलकर भी दूसरों को सुख पहुँचाना चाहि सहनशीलता का व्यवहार करना चाहिए।


अंग्रेजी राज्यकाल में धार्मिक शिक्षा को भारतीय शिक्षा पनि स्थान रह मिला। विदेशी शासक होने के कारण पारस्परिक विद्वेष की नीति के निर इन लोगों ने धार्मिक तटस्थता की नीति का अनुसरण किया। सन् 1854 संदेशपत्र ने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के प्रश्न पर जो आदेश दिए, उनसे सी शिक्षाशास्त्री परिचित होंगे, जिनके अनुसार सरकारी स्कूलों में तो धार्मिक शिक्षा की अनुमति नहीं मिली, परंतु धर्म-प्रचारकों के विद्यालयों में अप्रत्यक्ष रूप से छूट अवश्य दे दी गई। फिर भी भारतीयों की ओर से धार्मिक शिक्षा के प आंदोलन होते रहे। धार्मिक तथा सामाजिक नवजागरण के फलस्वरूप भार कई धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाएँ, जैसे ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज आदि क्रियाशील बनी रहीं। ये संस्थाएँ इस बात के लिए प्रयत्नशील थीं कि उन्हें अपने धार्मिक विचारों के शिक्षा की छूट मिले। परंतु, इन यत्नों के बावजूद सन् 1882 १० के भारतीय शिक्षा-प्रयोग की भी नीति धार्मिक शिक्षा के संबंध में पूर्ववत् बनी रही। लॉर्ड कर्जन के समय में भी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा देने के संबंध में विचार हुआ, पर उसने भी यही आदेश दिया कि नैतिक और धार्मिक शिक्षा विषय के रूप में स्कूलों में नहीं दी जा सकती तथा सार्वजनिक स्कूल सर्वथा असांप्रदायिक रहेंगे। हाँ, इतनी छूट अवश्य मिली कि धार्मिक बातों की जानकारी तथा नैतिक आदतों का निर्माण स्कूल के संघटन, उसके जीवन तथा कार्यों से हो। शिक्षण-संस्थाओं के सुयोग्य शिक्षक, स्कूल-अनुशासन और छात्रों के चरित्र को समुन्नत करनेवाली जीवनियों से संबद्ध पाठ्य-पुस्तकें, अध्यापकों तथा छात्रों का साहचर्य आदि उपकरणों से छात्रों का नैतिक और धार्मिक उत्थान अनायास ही व्यावहारिक रूप में होगा । इसके बाद भी भारतीय सदा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। सैंडलर समीक्षक मंडल ने मार्च, सन् 1919 ई० में भारत की माध्यमिक तथा उच्चतर शिक्षा पर अपनी समीक्षा पेश करते हुए धार्मिक और नैतिक शिक्षा के संबंध में निम्नलिखित शब्दों में सिफारिश की- "विद्यालयों में ऐसे आध्यात्मिक जीवन का अभाव है, जो बालकों की अंतःप्रकृति को स्पर्श कर सके। ऐसे सहयोग भावना का अभाव है, जो छात्रों की स्नेहपूर्ण सत्यनिष्ठा को प्रभावित कर सके तथा ऐसी नैतिक और बौद्धिक शिक्षा का अभाव है, जिससे वे अपने भावों को प्रज्ज्वलित कर सकें।" स्पष्ट है कि मंडल ने धार्मिक और नैतिक शिक्षा के महत्त्व को किस गहराई के साथ अनुभव किया था। परंतु, अंग्रेजी शासनकाल में धार्मिक शिक्षा के प्रचार के लिए कोई विशेष प्रबंध नहीं हो सका। सार्जेंट योजना ने जिसका उल्लेख 'अत्यंत महत्त्वपूर्ण योजना' के नाम से किया जाता है, 19 जनवरी, 1944 ई० को मंतव्य प्रकाशित करते हुए धार्मिक शिक्षा को ऐच्छिक करार दिया।

5thSeptember Teacher's day special (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan biography and education aur jivan parichay in hindi )  


विश्वविद्यालय शिक्षा-अयोग


स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत ने डॉ० राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति सन् 1947 ई० में की। शिक्षा के संबंध में आयोग ने कहा "शिक्षा केवल मस्तिष्क का प्रशिक्षण नहीं, अपितु आत्मा का प्रशिक्षण भी है। इसका उद्देश्य ज्ञान तथा विवेक दोनों प्रदान करना है। अतः, हम दोनों की व्यवस्था करें।" बालकों और युवा पुरुषों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आयोग ने धार्मिक शिक्षा को आवश्यक माना। एक आदर्श तथा सफल जीवन व्यतीत करने के लिए हमें केवल बौद्धिक जागरूकता की ही आवश्यकता


नहीं, बल्कि इसकी भी अपेक्षा है कि हम संवेगात्मक पक्ष में शांत रहना सीख क्योंकि इसके अभाव में हम उन संघर्षों को सहन नहीं कर सकते, जिनका सामना हवं जीवन में आवश्यक रूप से करना पड़ता है। विद्यार्थियों के संवेगात्मक तथा नैतिक विकास को संयोग पर नहीं छोड़ देना होगा। धार्मिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति के प्रसंग में आयोग ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19,21,28 को उद्धृत किया, जिन्ह अनुसार सरकारी शिक्षा-संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती थी। धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के कारण संविधान को यह व्यवस्था स्वाभाविक है, किन्तु आयोग के विनाहर में संविधान की धार्मिक मान्यताएँ, धार्मिक शिक्षा का निषेधक नहीं है। "धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धार्मिक निरक्षरता नहीं, इसका अर्थ धार्मिक आध्यात्मिकता है, न कि संकीर्ण धार्मिकता"-ऐसा विचार हमें कमीशन के पृष्ठ 300 पर मिलता है। (To be secular is not to be religiously illiterate. It is to be deeply spiritual and not narrowly religious.) इन बातों की पृष्ठभूमि में आयोग ने धार्मिक शिक्षा के संबंध में निम्नलिखित सिफारिशें पेश कीं-


(1) सभी शिक्षा-संस्थाओं के दैनिक कार्य कुछ मिनटों के लिए मौन आंतरिक चिंतन के साथ शुरू हों। महात्मा गांधी ने भी इस विचार की पुष्टि करते हुए लिखा था- "जब तुम्हारा हृदय टूट जाए तो प्रार्थना ही ऐसी चीज है, जो तुम्हें ढाढ़स दे सकती है। मैं अपने जीवन में कभी निराश नहीं हुआ हूँ और न मैंने कभी हिम्मत ही हारी है। प्रार्थना से मुझे जितना बल मिला है, उतना किसी कार्य से नहीं।"


(2) डिग्री कक्षा के प्रथम वर्ष में संसार के महान् धार्मिक नेताओं, जैसे- भगवान बुद्ध, कनफ्यूसियस, जरथूष्ट्र, सुकरात, ईसा, पैगंबर मुहम्मद, गुरुनानक और महात्मा गांधी आदि लोगों की जीवनियाँ पढ़ायी जाएँ ।


(3) दूसरे वर्ष में संसार के धर्मग्रंथों से सर्वोपयुक्त सामग्रियाँ चुनकर पढ़ायी जाएँ।


(4) तीसरे वर्ष में धर्म के दर्शन की प्रमुख समस्याओं पर विचार किया जाए। सेकेंडरी एडुकेशन कमीशन रिपोर्ट (सन् 1952 ई०) ने भी धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा को विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण बतलाया है। वस्तुतः शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति तब तक नहीं होती, जब तक इसके द्वारा छात्रों के मन में नैतिक सिद्धांत पूर्णतः प्रतिष्ठित नहीं किए जाते । मानव-जीवन में धर्म की गहरी आवश्यकता पर दृष्टिपात करते हुए यह जरूरी है कि इसका संबंध शिक्षा और शिक्षण संस्थाओं से स्थापित किया जाए।

5thSeptember Teacher's day special (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan biography and education aur jivan parichay in hindi )  


निःसंदेह धर्मनिरपेक्ष देश में किसी व्यक्ति या समाज की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंबाना हमारा उद्देश्य नहीं, चल्कि अपने उच्चादशों से युक्त रहते हुए ही यह कार्य होता चाहिए। किसी धार्मिक क्रिया या अनुष्ठान के संबंध में किसी पर हमें दबाव नहीं देना है, न यह हमारा धर्म ही है। किन्तु, व्यापक नैतिक और आध्यात्मिक महता प्राप्त करने के लिए हमें सीमा तक धार्मिक ग्रंथों और आचार-व्यवहारों का आश्रय लेना ही होगा। यदि विद्यार्थी समाज को शिक्षा देते समय सत्य, ईमानदारी, पवित्रता आदि गुणों का ज्ञान विना धार्मिक पुस्तकों अथवा धार्मिक क्रियाओं (इसमें विभिन्नः पाठ्यक्रमेतर विषय सम्मिलित होंगे) के दिया गया, तो ये भाव छात्रों के लिए अस्पष्ट रहेंगे। सत्य भाषण, जीवन में आदर्श पालन, धर्म की मर्यादा, सच्चरित्रता, आज्ञापालन, त्याग और प्रेम आदि की शिक्षा देते समय सत्य, ईमानदारी और पवित्रता आशागलन, त्याग और प्रेम आदि की शिक्षा देते समय सत्य, ईमानदारी और पवित्रता आदि गुणों का ज्ञान विना धार्मिक पुस्तकों अथवा धार्मिक क्रियाओं (इसमें विभिन्न पाठ्यक्रमेतर विषय सम्मिलित होंगे) के दिया गया, तो ये भाव छात्रों के लिए अस्पष्ट रहेंगे। सत्य भाषण, जीवन में आदर्श पालन, धर्म की मर्यादा, चरित्र, आज्ञापालन, त्याग, प्रेम आदि की शिक्षा देते समय हम मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र, अखंड ब्रह्मचारी इंद्रियजित महावीर श्री हनुमान, गीता का ज्ञान देनेवाले श्रीकृष्ण, मृत्यु पर अधिकार प्राप्त करनेवाले भीष्म आदि की जीवनियों का उदाहरण उपस्थित करेंगे। इसमें हमारे संकीर्ण धार्मिक मतभेदों का अंत होगा तथा हमलोग धर्म की वास्तविक मर्यादा ग्रहण कर सकेंगे। वस्तुतः सभी धर्मों में विश्वास के आधार और धार्मिक कार्यकलाप में ही देखा जाता है। यद्यपि सभी के आधारभूत सिद्धांत और अंतर्निहित शक्तियाँ समान ही होती हैं, परंतु वसुधैव कुटुम्बम् की भावना को जाग्रत कर मनुष्य मात्र को एक-दूसरे से आवद्ध करने का यह प्रथम सूत्र, अंतर्राष्ट्रीयता का प्रथम सोपान, विश्वशांति का यह मंगलमय प्रथम मंत्र हमें शिक्षा द्वारा ही प्राप्त होगा।


क्रेडिट : लेखक 
डॉक्टर  वैधनाथ प्रसाद वर्मा

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