जानिये समुद्र मंथन (Sea Churning) से निकली अमूल्य निधियों की interesting कहानी.
नारायण को लेना पड़ा कुर्म (कछुवे) का अवतार
उस समय असुरों के राजा बलि थे . असुर इस कार्य
के लिए मान तो गए लेकिन फिर समस्या आई कि विशाल समुद्र को कैसे मथा जाएगा? जिसके
पश्चात् नारायण ने पुन: मार्ग सुझाया और मंद्राचल को मथनी एवं नागराज वासुकी को
रस्सी बनाकर समुद्र मंथन आरम्भ कर दिया गया. किन्तु एक बार फिर से विकट समस्या
सामने खड़ी थी . समस्या यह थी कि मंदराचल पर्वत समुद्र के नीचे धसता ही जा रहा था. जिसके
पश्चात नारायण स्वयं कुर्म अवतार लिए यानि कि कछुवे का रूप और फिर मंदराचल के नीचे
जाकर उसका आधार बन गए और फिर एक बार पुन: समुद्र मंथन आरम्भ हुआ.
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से सबसे पहले कालकूट हलाहल विष निकला जो पूरी सृष्टी पर छाने लगा. सृष्टी को इस विष के संकट से बचाने के लिए महादेव ने उस विष को धारण किया जिस कारण उनकी ग्रीवा का रंग नीला है और महादेव का एक दूसरा नाम नीलकंठ भी है .हलाहल विष के बाद समुद्र मंथन से तेरह और अमूल्य निधियां प्राप्त हुई जिनके नाम हैं – कामधेनु गाय. इस गाय को ऋषियों के सुपूर्त कर दिया गया. यह कामधेनु गाय, परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि के पास थी .
मगर राजा कार्तिवीर्य सहस्त्रबाहू अर्जुन ने ऋषि और उनकी पत्नी की ह्त्या करके उस गौ को प्राप्त कर लिया जिससे क्रोधित होकर परशुराम ने कार्तिविर्य अर्जुन का वध कर दिया और क्षत्रियों का समूल धरती से नाश कर देने की प्रतिज्ञा ले ली. समुद्र मंथन से जो दूसरी चीज़ प्राप्त हुई वो था चंद्रमा. उस समय सृष्टी में केवल सूर्यदेव थे. चन्द्र के आने से सभी को रात्री सुख का भी आनंद मिलने लगा . चन्द्र शिव के माथे पर जाकर सुशोभित हो गए .
उसके बाद बाहर आया ऐरावत .ऐरावत देवताओं के राजा इंद्र को दिया गया जो कि सात सूडो वाला एक सफ़ेद रंग का हाथी था . उसके बाद बाहर आया उच्चेश्र्वा घोडा. इस घोड़े को असुरों के सुपूर्त किया गया .काले रंग का यह घोडा अति मायावी था. कोस्तुभमणि को नारायण को सौपा गया. अप्सरा के बाहर आने पर वह स्वर्गलोक की शान बनी .पांच्यजन्य शंख, इसे भी नारायण ने धारण किया. वारुणी को असुरों को सौप दिया गया क्यूंकि यह एक नशीला द्रव्य था .कल्पवृक्ष, जो सभी की मनोकामना की पूर्ति कर सकने में सक्षम था, उसे स्वर्गलोक में रोपित किया गया. देवी लक्ष्मी के बाहर आने पर वह नारायण की पत्नी बनी .
और फिर अंत में बाहर आया अमृत कलश, जिसे
पीने के बाद देवता और असुर सदा के लिए अमर
बन जाते . देवता और असुर उसे ही पाने की होड़ में लग जाते हैं . इस बीच राहू चालाकी से अमृत कलश को हथिया लेता
है. नारायण जानते थे यदि अमृत असुर पी
लेते तो वे सृष्टी के लिए संकट बन जाते. इसी कारण नारायण ने मोहिनी का रूप धारण कर
राहू को सम्मोहित कर लिया और अपने सुदर्शन चक्र से राहू का शीश उसके धड से अलग कर
दिया. राहू का दूसरा भाग केतु बन गया . इसके बाद असुरों और देवताओं के बीच हमेशा
बैर बनी रही और असुर आज भी अमृत हथियाने की जुगत में लगे रहते हैं. किन्तु लीलाधर
नारायण असुरों की हर चाल को विफल कर देते हैं .
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