वर्ष 1567 में अकबर (Akbar) ने कैसे किया चित्तोड़ किले पर कब्ज़ा ?
अकबर (Akbar) और महाराणा प्रताप ( Maharana Prataap ) के बीच कैसे हुआ हल्दी घाटी का युद्ध?
मेवाड़ और चित्तोड़ का सम्पूर्ण इतिहास क्या है? जानिये
जोहार क्या है ? राजपूत स्त्रियों ने क्यूँ किया जोहार?
अकबर की साम्राज्यवादी निति
मोहम्मद जलालउद्दीन अकबर की उम्र उस वक़्त मात्र 13 साल थी जव वर्ष 1556 में पानीपत का दूसरा युद्ध हुआ और उसमे मुगलों की जीत हुई. उसके बाद नौजवान अकबर ने अपनी तलवार और मुग़ल फ़ौज के जोर पर खुद के साम्राज्य को बढ़ाना शुरू कर दिया.
उसके बाद देखते ही देखते अकबर ने 1562 में मालवा , 1572 में गुजरात और 1574 में बंगाल को अपने अधीन कर लिया. अकबर जब बादशाह था तो उसके साम्रज्य की सीमा पंजाब से बंगाल और कश्मीर से विन्ध्यास तक फ़ैल चुकी थी.
अकबर के साथ जो संधि कर लेते उसे अकबर अपना मित्र बना लेता अन्यथा उससे युद्ध जीत कर उसे अपने अधीन कर लेता . कुछ राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी मगर मेवाड़ के राजा उदय सिंह मुगलों के साथ संधि करने से सख्त खिलाफ थे.
उदय सिंह उन्ही राणा सांगा के पुत्र थे जिन्होंने बाबर को कड़ी चुनौती दी थी. अकबर के लिए मेवाड़ को जितना इसलिए ज़रूरी था क्यूंकि अकबर के व्यपार का मार्ग दक्षिण से होकर गुजरता था. चित्तोड़ मेवाड़ की राजधानी थी. वर्ष 1767 में राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह चित्तोड़ के महाराज थे.
अकबर का चित्तोड़ किले पर आक्रमण
जल्द ही अकबर ने फैसला लिया और फिर उसने चित्तोड़ के कीले के सामने ही अपना शाही खेमा लगा दिया. उस समय जयमल चित्तोड़ के सेना कमांडर थे. चित्तोड़ कीले को भेदकर महल में घुसना भी मुगलों के लिए इतना आसन नहीं था. माना जाता है कि चित्तोड़ का किला तीनो तरफ से पहाड़ियों से घिरा था जो लगभग 5 किलोमीटर लम्बा और 2 किलोमीटर जितना चौड़ा था.
महल के भीतर प्रवेश करने के लिये दुश्मन को 7 पड़ाव करने पड़ते जो नामुमकिन थे फिर भी राज परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए तत्काल राजपूत परिषद् में विचार विमर्श के बाद राजा उदय सिंह और उनके परिवार को महल से दूर पहाड़ियों में भिजवा दिया गया.
अकबर ने चित्तोड़ किले के तीनो ओर तोप लगाकर उसकी घेराबंदी कर दी और फिर महीनों तक किले की ओर गोला बारूद फेंकते रहे. मगर तोपों में अधिक मारक क्षमता न होने के कारण मुगलों के तोप और गोले बर्बाद जाने लगे . लेकिन फिर इसके बाद अकबर ने युद्ध की निति बदली और फ़ौरन किले के द्वार तक पहुँचने के लिए सबात बनवाने का काम शुरू करवा दिया.
सबात एक तरह के सुरंग या रास्ता को कहा जाता है जिसके ज़रिये दुश्मन महल के कीले द्वार तक पहुचते थे. मुगलों ने लगभग इतना बड़ा सबात खुदवाया था जिसके भीतर से लगभग 8-10 घुड़सवार एक साथ आगे बढ़ सकते थे. यह सबात लगभग 15 फूट गहरी और 10 फूट चौड़ी बनवाई गयी . उसके बाद मुगलों ने करीब 4-5 तन बारूद बिछाकर कीले के द्वार को उड़ा दिया.
राजपूत स्त्रियों का जोहार
मगर उसमे अकबर के ही कुछ ख़ास सिपाही मारे गए . लेकिन इसके बाद जब अकबर की गोली के शिकार से जयमल की मृत्यु हो गयी तो 300 राजपूत स्त्रियों ने अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए आग में कूदकर खुद को खत्म कर लिया. उनकी इसी बलिदान को इतिहास में जोहार कहा जाता है. मुगलों के भीतर घुसते ही फिर राजपूतो ने भी युद्ध के लिए कमर कस लिया और उस दिन एक भयंकर कत्लेआम हुआ.
अकबर ने महल के भीतर और बाहर करीब 30,000 ( तीस हज़ार) लोगों का क़त्ल करवाया. कुछ इतिहासकार इसे अकबर के ऊपर एक कलंक की तरह मानते हैं जिसने इतने लोगों को मरवाया. इस कत्लेआम के बाद अकबर तीन दिनों तक अपने तीन सौ सैनकों क साथ चित्तोड़ किले में सुख भोगा और फिर आगरा लौटते वक़्त अपनी जीत का फतहनाम ज़ारी करवाया जो इस प्रकार था-
फतहनामा -ए- चित्तोड़
( हम अपना कीमती वक़्त अपनी सुहलियत के मुताबिक जंग जिहाद में गुजारते हैं. शैतान काफिरों के खिलाफ टोली बनाकर हमला हुआ. उस जगह कब्ज़ा हुआ जहाँ किला खुलता है . अपनी खून की प्यासी तलवार एक के बाद क़त्ल करते गए और क़त्ल हुआ लोगों का अम्बार हो गया. बाकी बचे हुए लोगों का पीछा हुआ जैसे वो डरे हुए गधे हों, शेर से भागते हुए )
अकबर का चित्तोड़ के बाद मेवाड़ पर नज़र
अकबर ने चित्तोड़ पर कब्ज़ा कर लिया मगर मेवाड़ पर अभी भी राजा उदय सिंह का राज था. उदय सिंह के बाद जब महाराणा प्रताप मेवाड़ के राजा बने तो इस बार अकबर ने उनसे पहले मित्रता का हाथ बढाया जिसे राणा ने ठुकरा दिया. इसके बाद युद्ध की परिस्थिति बन गयी और दोनों सेनाये हल्दी घाटी में युद्ध के लिए आमने सामने आ गयी.
उस वक़्त मुगलों की ओर से मान सिंह सेना का नेतृत्व कर रहे थे जिनके पास 5000 कुशवाहा राजपूत , 5000 मुग़ल फ़ौज और 100 हाथी थे . वहीँ दूसरी ओर महाराणा प्रताप के पास 3000 राजपूत सैनिक , 500 अफगानी सैनिक और 1000 भील थे.
इस भयंकर युद्ध में जब राणा घयल हुए तो उनके ख़ास कमांडर मान सिंह झाला ने फ़ौरन राणा से उनका क्षत्र लेकर पहन लिया और राणा को उनका घोडा चेतक युद्ध से दूर ले गया. इसके बाद राणा ने युद्ध निति में बदलाव करते हुए पूरे 20 वर्षों तक मुगलों से लोहा लिया और उनके कई ठिकानों और छावनियों को नुकसान पहुँचाया. मगर वे न तो कभी मुगलों के हाथ लगे न उनकी अधीनता स्वीकार की.
निष्कर्ष:-
स्वाधीनता और पराधीनता दो ऐसी चीज़ है जो व्यक्ति का मूल्य और उसका महत्व बताती है. अगर आप कोई राजा होकर किसी के पराधीन हैं तो आपका मूल्य एक दास की तरह होगा .वहीँ दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति किसी का दास नहीं बनना चाहता है तो वो एक राजा की तरह है.
राणा प्रताप उन्ही स्वाधीन व्यक्तियों में एक थे जो संघर्ष के दिनों तक भी एक राजा रहे और अपनी मृत्यु शैय्या पर भी एक राजा की तरह ही लेटे. राणा प्रताप चाहते तो अन्य राजाओं की तरह अकबर की अधीनता स्वीकार कर आराम से रह सकते थे मगर उन्होंने स्वाधीनता चुनी, यह जानते हुए कि इसमें अपार संघर्ष है. ऐसे व्यक्ति विरले ही पैदा होते हैं जो सिर्फ अपनी माटी के लिए जीते और मरते हैं . महाराणा प्रताप उन्हीं में से एक थे .ऐसे महान व्यक्ति को हमारा नमन है .
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