सुभाष चन्द्र बोस जब अंग्रेजों को चकमा देकर पहुंचे ज़र्मनी

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23 जनवरी 2022 सुभाष चन्द्र बोस (Subhas Chandra Bose) की125वी जयंती,जानिये कैसे सुभाष चन्द्र बोस अंग्रेजों को चकमा देकर ज़र्मनी ( Germany) पहुंचे थे? 


भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार 23 जनवरी 2022 को सुभास चन्द्र बोस की 125वीं जयंती के उपलक्ष पर उनकी प्रतिमा को दिल्ली के इण्डिया गेट पर स्थापित किये जाने की घोषणा कर दी है.


सुभाष बोस की प्रतिमा बनने से पहले उनके होलो ग्राम स्टेचू को वहां लगाया जायेगा. इंडिया गेट में उन सभी वीर- जवानों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम अंकित हैं जिन्होंने भारत की आज़ादी में अपना सर्वस्व न्योछावर किया है.


सुभाष चन्द्र बोस भी उन्ही में से एक थे. मगर कुछ अलग और सबसे ख़ास भी. ख़ास इसलिए क्यूंकि आज़ाद हिन्द फ़ौज के महानायक सुभाष चन्द्र बोस की भारत की आज़ादी को लेकर परिकल्पना ही बहुत अलग थी.

  

उन दिनों सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी के विचार भले ही मेल नहीं खाते थे. फिर भी गाँधी जी ने सुभाष चन्द्र बोस के लिए कथा था – "सुभाष चन्द्र बोस, देश भक्तों के भी भक्त हैं." एक बार नियोर्क टाइम्स ने भी उनके लिए लिखा था-  "सुभाष चन्द्र बोस भारत के जोर्ज वाशिंग्टन है."  


यहाँ तक कि एक एक सूत्र के अनुसार दादा भाई नौरोजी की पुत्री ने भी कहा था "अगर सुभाष चन्द्र बोस भारतीय सेना के प्रमुख के तौर पर भारत में प्रवेश करते तो पूरा देश उनके पीछे खड़ा होता और उन्हें नेहरु से भी ज्यादा लोकप्रियता हासिल होती."

 

जिस समय 1940 में हिटलर के सैनिक लन्दन पर बम गिरा रहे थे उस समय अंग्रेजों ने सुभाष चन्द्र बोस को एक राजद्रोह के अपराध में कलकत्ता के प्रसिडेंसी जेल में बंद कर रखा था. 


मगर जब सुभाष ने वहां भूख हड़ताल कर दी तो गवर्नर जॉन हर्बट ने यह सोचा, कहीं सुभाष की मौत की जिम्मेदारी उन पर न आ जाए इसलिए उन्होंने सुभाष को उनके घर भिजवा दिया मगर उन्हें पूरी तरह से नजरबंद कर दिए जाने का इन्तेजाम भी किया. 


लेकिन इसके बावजूद भी सुभाष अंग्रेजों को चकमा देकर निकल गए.आइये जानते हैं कैसे ?

 


सुभाष चन्द्र बोस ने ऐसे दिया अंग्रेजों को चकमा.
    

सुभाष चन्द्र बोस ने जब देखा लिए कि उन्हें अंग्रेजों ने नज़र बंद कर दिया है तो उन्होंने अपने 20 वर्षीय भतीजे सिसिर बोस से मदद ली. सुभास ने भतीजे सिसिर को कुछ मुस्लिम कपडे, और वेश बदलने का सामना खरीदकर लाने के लिय कहा. 


जिसके बाद सिसिर बोस (सुभास के भतीजे) कलकत्ता बाज़ार से कुछ ढीली सलवारें,फैजी टोपी,सूटकेश,टॉयलेट के सामान खरीद लाये. और फिर सुभाष ने अपना हुलिया बदला और एक मुस्लिम करेक्ट जियाउद्दीन खान बनकर एक वंडर जर्मन कार में बैठकर अपने भतीजे के साथ रातो-रात कलकत्ता से निकल गए.



अगले दिन वे धनबाद पहुंचे और फिर रात होने के बाद सुभाष अपने भतीजे सिसिर बोस के साथ झारखण्ड के गोमो स्टेशन में आ गए जहाँ उन्होंने भतीजे को लौटा दिया और खुद ट्रेन पकड़कर पहले दिल्ली और फिर दिल्ली से पेशावर पहुँच गए.



पेशावर में सुभाष को उनका साथी अकबर शाह मिला जो उन्हें होटल ताज ले गए. वहां कुछ समय रुकने के बाद उन्होंने जियाउद्दीन का वेश छोड़, एक गूंगे बहरे पठान का वेश धारण कर लिया और फारवर्ड ब्लाक के दो साथियों, मोहम्मद शाह और भगतराम के साथ अड्डाशरीफ के लिए निकल पड़े. 


अड्डाशरीफ के लिए कहानी यह बुनी गयी थी कि भगतराम, जिन्होंने अपना नाम बदल लिया था वो इन गूंगे बहरे पठान भाई (सुभाष चन्द्र बोस) को दुआ दिलवाने के लिए ले जा रहे ताकी वो ठीक हो जाए.



26जनवरी 1941 को जियाउद्दीन ( सुभास) और भगतराम (रहमत खान) कार से रवाना हुए और फिर कुछ ही देर में ब्रिटिश सीमा से दूर निकल गए. उसके बाद उन्होंने पैदल रास्ता पकड़ा और कबायली पहाड़ों और इलाकों से होते हुए वे अफगानिस्तान के एक गाँव में पहुँच गए. 



जिसके बाद वे काबुल दाखिल हुए और फिर वहां इटली के एक दूतावास से संपर्क कर ट्रेन से मास्को पहुँच गए. फिर मास्कों में उन्होंने जर्मन दूतावास के ज़रिये वे जर्मनी पहुँच गए.



उधर कलकत्ता में सुभाष के भतीजे सिसिर ने कुछ दिनों तक ऐसा माहौल बनाये रखा जैसे उनके चाचा घर पर ही हों. अंग्रेजों को उस वक़्त शक भी नहीं हुआ. मगर फिर जल्द ही पूरी दुनियां को पता चल गया की सुभाष चन्द्र बोस गायब हैं. इस खबर से अँगरेज़ बहुत लज्जित हुए थे.



आज़ाद हिन्द फ़ौज कैसे बनी?


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