मुग़ल सम्राट बाबर का समरकंद विजयी अभियान (Babur's samarkand victory)

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बाबर की आयु अभी केवल चौदह वर्ष की ही थी कि उसके हृदय में अपने विचारों को साकार बनाने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई। अब वह अपने को एक बालक न समझकर 'एक वयस्क एवं योद्धा समझने लगा था, जो कि ख्याति एवं महानता ! पाने के लिए उत्सुक था; जो कि बन्धन से मुक्त होना चाहता था, और अपने को अपने प्रतिद्वद्वियों के विरुद्ध राजनीति के अद्भुत खेल में सामने लाना चाहता था । यह एक ऐसा खेल था जिसमें एक साम्राज्य दाँव पर था और विभिन्न राज्य गोट की भाँति थे । १ १४९६ ई० और १४९७ ई० की शीत ऋतुएँ अन्दीजान में व्यतीत करने के पश्चात् तथा सैनिक तैयारियां पूर्ण कर शिशिर ऋतु में बाबर ने समरक़न्द पर पुनः आक्रमण करने का विचार करते हुए अपना साहसी जीवन प्रारंभ किया । पिछले कई महीनों में उसने अपनी योजनाएँ गुप्त रखीं, और अपनी दृष्टि को सदैव समरक़न्द की ओर लगाए रखा। अन्त में अवसर आने पर जब उसे ज्ञात हुआ कि उसके मित्र, सुलतान अली मिर्जा के घुड़सवारों ने रकाब अपने हाथों में ले ली है और वे समरक़न्द की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, तो वह भी मई, १४९७ ई० में अन्दीजान से उस ओर रवाना हुआ । इस अभियान पर अग्रसर होने से पूर्व राजधानी के प्रशासन-कार्य उसने अली दोस्त तग़ाई व औज़न हसन को सौंप दिया । समरक़न्द की ओर बढ़ते समय हजारों स्वप्न उसकी आंखों के सामने से आये और गए • कि सफलता मिलने पर उसे कैसा अनुभव होगा । उसे सफलता की पूरी आशा थी । हम पहले ही बता चुके हैं कि समरक़न्द के शासक वैसन्गर मिर्ज़ा व उसके भाइयों के आपसी सम्बन्ध अच्छे न थे । तलवारें म्यान से एक बार बाहर निकल चुकी थीं और अब उनके लिए वापस म्यान में जाना कठिन था ।


मुग़ल सम्राट बाबर का समरकंद विजयी अभियान 

 ( Babur's  Samarkand  victory) 



 १. प्रो० रशक विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी", पृ० ४१ ।


समरकन्द उमराव की सहायता से वसन्गर मिर्जा ने महदा सुलतान के अधीन एक विशाल सेना सुलतान अली ने मिर्जा को आगे बढ़ कर रोकने के लिए भेजी। सुलतान अली ने अब्दुल करीम उशरित को उसके आक्रमण को रोकने के लिए भेजा। कुफीन के निकट दोनों सेनानायकों में घमासान युद हुआ, जिसमें महदी सुलतान ने अब्दुल करीम उशरित को बुरी तरह परास्त किया। अब्दुल करीम की हार के पश्चात उज़बेग सैनिक टुकड़ियाँ भाग खड़ी हुई और उन्होंने शेवानी खान की शरण ली। इस घटना के पश्चात ही समरकुन्दी सैनिकों की एक सेना, बंसनगर मिर्जा के नेतृत्व में आगे बड़ी और उसने सर-ए-पुल नामक स्थान पर पड़ाव डाला। दूसरी ओर से सुलतान अली मिर्जा ख्वाजा करजून की ओर बड़ा । जैसे ही उसके आगे बढ़ने को सूचना प्राप्त हुई, वैसे ही ख्वाजा अब्दुल मकारन ने ओश के स्वाजा मुनीर के • कहने पर बाएस लघारी, मुहम्मद बाक़िर, कासिम दुलदाई तथा अन्य व्यक्तियों के साथ बुख़ारा की ओर बढ़ कर उनको रोकने के लिए प्रस्थान किया। जब वे बुखारा पहुंचे तो उन्होंने शहर व दुगं की रक्षा करने वालों को अधिक संख्या में और शक्तिशाली पाया। शहर में न घुस सकने पर वे वसन्गर मिर्जा से मिलने के लिए वहां से चल पड़े । अब दोनों ही भाई प्रतिद्वद्वियों के रूप में आमने सामने थे । १


जब बाबर यार इलाक पहुँचा तो उसे ज्ञात हुआ कि दोनों मिर्ज़ा एक दूसरे के सामने पड़ाव डाले पड़े हुए हैं। अतः उसने तुलून ख्वाजा मुग़ल को २००० या ३००० सैनिकों के साथ सुलतान अली का साथ देने के लिए आगे रवाना किया। बाबर के इस सैनिक दल को देख कर वैसन्गर चिन्तित हुवा। उसने यह कभी नहीं सोचा था कि बाबर भी अपनी सेना के साथ दूसरी ओर से अग्रसर होकर सुलतान अली को सहायता पहुँचाने आ जाएगा। उसने तुरन्त ही शिविर उठा लिया और भाग खड़ा हुआ। वह ठीक समय पर वहाँ से भाग गया, क्योंकि उसी रात्रि बाबर की सेना के एक दल ने उसके पाश्वं भाग पर आक्रमण कर दिया, उसे अधिक क्षति पहुँचाई और अनेक सैनिकों को मार कर बहुत अधिक सम्पत्ति छीन ली। इसमें सफलता पाने के कारण बाबर का उत्साह और भी बढ़ गया। दो दिन पश्चात् बाबर अपने


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ६५ ।

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 मित्र सुलतान अली के साथ किए गए वायदे के अनुसार शिराज़, जो कि कास्मि बेग दुल्दाई के अधीन था, पहुँचा। शिराज़ का दरोग़ा आक्रमणकारियों के आक्रमण को अधिक दिनों तक न रोक सका और उसने दुर्गं समर्पित कर दिया। शिराज का दुर्ग इब्राहीम सारु को सौंप दिया गया। शिराज के प्रशासन का प्रबन्ध कर, दूसरे दिन ईदुल-फितर का व्रत समाप्त कर, बाबर समरकन्द की ओर बढ़ा और उसने आब-ए-यार नदी के दूसरे किनारे पर पड़ाव डाला । आक्रमणकारी की निरन्तर सफलताओं, शिराज़ की रक्षा न कर सकने तथा वैसनगर की बुज़दिली के कारण समरकन्द की जनता और भी भयभीत हुई। यह देखकर कि आक्रमणकारी के विरुद्ध किसी प्रकार की सफलता उन्हें नहीं प्राप्त हो सकती है, कासिम बेग दुल्दाई, वएस लधारी, मुहम्मद शिगाल का पौत्र हसन और मुहम्मद वएस लगभग २०० से ३०० व्यक्तियों के साथ वैसन्गर का साथ छोड़ कर बाबर से जाकर मिल गए। प्रारम्भ में बाबर उन्हें अपनी सेवा में लेने के लिए हिचकिचाया, चूंकि उसे न तो उन पर विश्वास था और न ही वह उनके चाल चलन से सन्तुष्ट था । 


वे सब लालची तथा अवसरवादी थे। लेकिन फिर भी शत्रु पर सफलता पाने के लिए, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि उन्हें वह अपनी सेवा में ले ले और उनकी सेवाओं का उपयोग करे। कुछ भी हो उसका यह अनुमान कि एक न एक दिन वे उसको हानि पहुँचाने का प्रयास अवश्य करेंगे, सत्य सिद्ध हुआ। जब वह कुरा बुलाक़ में ठहरा हुआ था, अनेक लोगों ने आकर उससे उनकी शिकायत की कि वे कुछ गाँवों के मुखियों के साथ जो कि उसको सहायता देने के लिए आ रहे थे, क्रूरतापूर्वक व्यवहार कर रहे हैं । बाबर यह सहन न कर सका । वह उन्हें बताना चाहता था कि वह उनका स्वामी है और वह अनुशासन के पक्ष में हैं। अतः अनुशासन भंग करने के आरोप में, उसने क़ासिम बेग़ कुचीन को आदेश दिया कि उनमें से दो व्यक्तियों के वह टुकड़े-टुकड़े कर दे । इस प्रकार के दण्ड देने से अन्य लोगों को भी यह मालूम हो गया कि बाबर किस धातु का बना हुआ है और वे सतर्क हो गए । यद्यपि कुछ समय तक मंगोल शान्त रहे किन्तु जब भी उन्हें अवसर मिलता वे न तो विद्रोह करने से और न उसका सर्वनाश करने की योजना बनाने से चूकते। संक्षेप में मंगोलों के कारण बाबर को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। '


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ६८ ।


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 क़ुरा बुलाक़ से कूच करते हुए, ज़र-अफशां नदी को पार कर आक्रमणकारी सेना ने याम में पड़ाव डाला। उसी दिन बाबर के कुछ सैनिकों की मुठभेड़, बंसनगर मिर्ज़ा के अग्रिम दल से हुई। इस मुठभेड़ में सुलतान अहमद तम्बल घायल हुआ तथा ख्वाङ्गाको मुल्ला-ए-सद्र हताहत हुआ और शेष व्यक्ति पड़ाव पर लौट आए। अभी वह याम ही में पड़ाव डाले हुए पड़ा हुआ था कि एक दिन मुसलमान व्यापारियों को उसके सैनिकों ने लूट लिया। इस कारण चारों ओर शोरगुल मचा। बाबर ने शीघ्र ही आदेश दिया कि बिना किसी विलम्ब के, जो वस्तुएँ सैनिकों ने छीन ली हैं वे सब व्यापारियों को वापस कर दी जायें। इस घटना के सम्बन्ध में वह बड़े गौरव के साथ लिखता है कि, "हमारी सेना में इतना अधिक अनुशासन था कि जब यह आदेश दिया गया कि प्रत्येक वस्तु लौटा दी जाय तो दूसरे दिन प्रथम पहर के पूर्व कोई ऐसी वस्तु न थी जो उनके स्वामियों को न लौटा दी गई हो, यहाँ तक कि धागे का एक टुकड़ा तथा टूटी हुई सुई तक हमारे आदमियों के पास न रही।"" फिर भी यह विश्वास करना बहुत ही कठिन प्रतीत होता है कि उसके सैनिकों में इतना अनुशासन था। बाबर के उपरोक्त कथन में सत्यता कम दिखाई देती है। किन्तु इन शब्दों से हमें उसकी न्यायप्रियता का कुछ आभास अवश्य मिल जाता है।


 याम से प्रस्थान करके उसकी सेनाएँ खान युर्ती में, जो कि समरकन्द से लगभग ३ करोह पर है, ठहरीं। यहां से बाबर ने अग्रिम दल की कड टुक- ड़ियों को समरकन्द शहर पर घेरा डालने के लिए रवाना किया। शेष लोग पीछे हो रहे । आक्रमणकारियों तथा समरकन्दियों में कई बार झड़पें हुई, किन्तु आक्रमणकारियों को तनिक भी सफलता प्राप्त न हुई। आगे चलकर दुर्ग-रक्षकों ने आक्रमणकारियों पर कठोर प्रहार कर उन्हें युद्ध में परास्त करने के लिए एक चाल चली। उन्होंने बाबर के पास शीघ्रतापूर्वक यह समाचार भेजा कि, "यदि तुम लोग रात्रि में गारे-आशिका की ओर आ जाओ तो हम लोग किला समर्पित कर देंगे । २ शत्रु की इस चाल को


१. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ६७; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत", (बाबर), पृ० ५०७ । २. बाबरनामा (अनु० ) भाग १, पृ० ६७, रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५०८ ।



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समझकर, बाबर अपने सबसे अच्छे अश्वारोहियों को लेकर उसी राति हाक के पुल के निकट पहुँचा और वहां से उसने कुछ उत्तम अश्वारोहियों एवं पैदल सिपाहियों के दल को निश्चित स्थान पर भेजा। यह लोग शत्रु के जाल में फँस गए। उन अच्छे सैनिकों में से हाजी, जो बाबर के बचपन का साथी या तथा मुहम्मद कन्दूर संगाक और ३० अन्य सैनिक मारे गए। इस क्षति के बावजूद बाबर अपने निश्चय पर अटल रहा। गर्मी भर बाबर की मैनिक कार्यवाहियां चलती रहीं। खान युर्ती से उसके सैनिक बढ़ते रहे ता ऊँचे-नीचे प्रदेशों में स्थित दुर्गों पर विजय प्राप्त करते रहे। औरगुत मैं उसके सैनिकों को डटकर मुकाबला करना पड़ा। उनको सहायता प्रदान करने के लिए वह आगे बढ़ा। वहाँ पहुँच कर उसने दुर्ग को जीता, परन्तु खाजा-ए-काजी के अनुरोध पर दुर्गवासियों को छोड़ दिया। इसके बाद वह समर- कुन्द पुनः वापस लौट आया और उसने अवरोध प्रारम्भ किया। 


खान युर्ती से बकर वह बाग़-ए-मैदान के पीछे कलवा के चरागाह में जाकर ठहरा। अधिक से अधिक संख्या में समरकन्दी उसे आगे बढ़ने से रोकने के लिए आये और मुहम्मद चप के पुल के निकट वे ठहर गए। अभी बाबर के सैनिक अच्छी तरह पड़ाव में रुक भी न पाए थे कि एकाएक कुछ समरकन्दी वहां आए और बाबा कुली को बन्दी बना कर वे दुर्ग में ले गए। कुछ दिनों पश्चात् बाबर ने कुलवा चरागाह के ऊपरी भाग पर, जो कि कोहिक पहाड़ी के पीछे था, बचाव की दृष्टि में वहाँ पड़ाव डाला। पड़ाव को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदलने के कारण, शत्रु ने सोचा कि आक्रमणकारी अपने बचाव की तैयारी कर रहा है। अतः समरकन्दी बाहर निकल आए और मिर्ज़ा के पुल व श जादा-द्वार को पार करते हुए मुहम्मद चप के पुल तक आगे बढ़ आए। उनके आगे बढ़ने पर बाबर ने उन्हें रोकने व उनके आक्रमण को विफल बनाने का आदेश दिया । घमासान युद्ध के पश्चात् समरकन्दी पीछे हट गए। इस युद्ध में बाबर के अनेक सैनिक हताहत हुए। इस अवसर पर यद्यपि हाफिज़ दुल्दाई का पुत्र मुहम्मद मिस्कीन तथा मुहम्मद कासिम नबीरा बन्दी बना लिए गए, किंतु मुहम्मद क़ासिम नवीरा को उसका छोटा भाई हसन नवीरा छुड़ा लाया । समरकन्दियों पर यह सफलता कुछ अर्थों में पूर्ण सिद्ध हुई । समरकन्दियों को पीछे हटा कर दुर्ग में जाने के लिए विवश कर देने पर, बाबर को इतना समय मिल गया कि यह सरलतापूर्वक शीत-पड़ाव में, जहाँ कि वह कुछ दिनों पूर्व ही जाकर ठहर

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 गया था, भलीभांति जम कर बैठ जाय। दूसरे, उसे अवसर मिल गया कि वह उन लोगों से, जिन्होंने उसके सैनिकों को ग़ौर आशिका के निकट मार डाला था बदला ले ले ।"


 शीत ऋतु प्रारम्भ होने तक बाबर को अपने अभियान में कोई विशेष सफलता प्राप्त न हुई, सिवा इसके कि वह दुर्ग पर निरंतर आश्रमण करता रहा। और उसने दुर्ग के अन्दर के लोगों को बुरी तरह परेशान कर दिया। शीत ऋतु प्रारम्भ होते ही उनके सामने नई-नई समस्याएँ और नए-नए प्रश्न आए । क्या उसे अपने देश को वापस लौट जाना चाहिए या अगले वर्ष पुनः दुर्ग को विजित करने का प्रयास करना चाहिए या उसे कुलाबा में ही रुक कर शीत ऋतु व्यतीत करनी चाहिए और शत्रु पर दृष्टि रखनी चाहिए अथवा उसे समरकन्द विजय करने व वहाँ के भव्य सिहासन पर बैठने के स्वप्न का परित्याग कर देना चाहिए ? या उसे अगले किसी अच्छे मौसम तक अपनी योजनाओं को स्थगित कर देना चाहिए ? ये सभी प्रश्न उसके सामने आए। उनका हल निकालने के लिए उसने अपने अमीरों को बुलाया । उसने उससे परामर्श लिया। अन्त में यह तय किया गया कि किसी उपयुक्त दुर्ग में शरण लेकर उन्हें शीत ऋतु बितानी चाहिए और शीत ऋतु समाप्त होने पर पुनः सैनिक कार्यवाही प्रारम्भ कर देनी चाहिए। अतएव, बाबर ने ख्वाजा-ए-दीदार की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँच कर उसने पड़ाव डालने के लिए अपने लोगों को नियुक्त किया । जब ये पड़ाव तैयार हो गये तो उसकी सेना कुलबा से यहाँ आई और इन पड़ावों में रहने लगी ।३


 इसी बीच जब कि बाबर अपने सैनिकों को कुलवा से शीत-पड़ावों में लाने में व्यस्त था, बंसनगर मिर्ज़ा ने बार-बार शवानी खां से अनुरोध किया कि वह उसे सैनिक सहायता प्रदान करे। 3 जिस दिन बाबर अपनी सम्पूर्ण सेना को


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ७३; रशन के विलियम्स, "ऐन इम्पायर


 बिल्डर आफ दि सिक्सटीन्य सेंचुरी, " पृ० ४४ । २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ७३ तारीख-ए-फिरिस्ता, (मू० ग्रन्थ),


 पृ० १९३ । ३. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ७३; फिरिश्ता, “तारिख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९२; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ बी राईज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ०७ ।

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 ख्वाजा-ए-दीदार में रखने में सफल हुआ उसी दिन उसे यह सूचना मिली कि शैबानी खाँ ने तुर्किस्तान से चलकर उसके पड़ाव के दूसरी ओर पड़ाव डाल दिया है और बहु वहां से वसन्गर मिर्ज़ा की उसके विरुद्ध हर प्रकार से सहायता करेगा ।


 शबानी खां जो कि शाही बेग के नाम से भी प्रसिद्ध है, बुदाक़ सुल्तान का पुत्र तथा उज़बेगों के सरदार अबुल खेर का पौत्र था । " उसकी शैशवा- वस्था में ही, उसका पिता बुदाक़ खान व माता कुज़ी बेगम परलोक सिधार चुके थे। अबुल र के स्वामिभक्त सेवक करादजा बेग ने ही उसका पालन-पोषण किया। शेख हैदर सुलतान के परिवार से अबुल खौर के परिवार के अन्य सदस्यों में आपसी वैमनस्य के कारण करादज़ा वेग ने शैबानी खां को जेक्सारटेज के निचले भागों में रहने के लिए भेज दिया। यहाँ रह कर शैबानी खां ने “बिखरी हुई चींटियों" अथवा अपने पितामह के परिवारों को एकत किया और धीरे-धीरे अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के प्रयास प्रारम्भ किये । उसका प्रमुख लक्ष्य वर्धी सुल्तान, जिसने कि उसके पितामह के परिवार को नष्ट कर दिया था, से प्रतिशोध लेना था। इस समय वह नदी के दूसरी ओर पड़ाव डाले हुए पड़ा था। 



जब तक शैवानी अपने को शक्तिहीन समझता रहा तब तक उसने उसके प्रति मैत्रीपूर्ण भाव प्रदर्शित किया । किंतु आगे चलकर जब अवसर आया तो उसने उस पर आक्रमण किया और उसे युद्ध में मार डाला। इस प्रकार वर्धी पर सफलता प्राप्त कर उसने उज़बेगों की एक विशाल सेना एकत्र की और सैनिक जीवन प्रारम्भ किया । अपने सैनिकों को लेकर सर्वप्रथम उसने समरकन्द के उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तो के गवर्नर मज़िद तरखान की सेवा की। किंतु शीघ्र ही मज़िद तरखान को यह पता चल गया कि उज़बेग उसके ऊपर हावी हो रहे हैं, अतएव उसने उनसे पीछा छुड़ाने की चेष्टा की । उसने उन्हें बुखारा के एक सरदार अब्दुल अली तरखान के पास भेज दिया । अब्दुल अली तरखान ने इन उजवेग सैनिकों का स्वागत किया और उत्तरी-पश्चिमी भागों में होने वाले मंगोल आक्रमणों को रोकने में तथा उत्तरी तुकिस्तान में होने वाले विद्रोहों का दमन करने में भी उसने इन


 १. तारीख-ए-रशीदी (अनु०), पृ० ११६-१६६; "हबीब उस सियर", भाग ३, खण्ड ३, पृ० २९९ ।

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उजवेगों की सहायता ली। कुछ दिनों पश्चात् उत्तरी तुकिस्तान में रह कर के अपने घर जैसे वातावरण का अनुभव करने लगे और यह समझने लगे कि अन्य स्थानों को अपेक्षा यहाँ वे अधिक सुरक्षित है। उन्हें अपनी बढ़ती हुई शक्ति का आभास भी हुआ, चूंकि वे यह कहने लगे कि जो भी कुछ उन्हें दिया जा रहा है वे उससे सन्तुष्ट नहीं है। उनकी सेवाओं को देखते हुए जो कुछ भी उन्हें दिया गया वह बहुत ही कम था। उनको सन्तुष्ट करने के लिए उन्हें आंतरार, सवरम और सिगानक के शहर भी प्रदान किए गए। इस विशाल प्रदेश के प्राप्त होते ही शवानी के नेतृत्व में उड़वेगों ने एक विमान साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। सेवानी को अन्य तंम्ररी प्रतिद्वन्द्रियों से भी सहयोग प्राप्त हुआ, जिसके कारण इसके ठीक विपरीत उड़वेगों की शक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। गंवानी यह जानता था कि तंमूरी राज्यों को नष्ट करने में ही उसका हित है । अतएव वह उनके आपसी झगड़ों में दिवस्पी लेने लगा। अपनी बढ़ती हुई शक्ति एवं स्थाति पर भरोसा करते हुए उसने स्वतत मार्ग अपनाया। सर के में उसने अपने स्वामी सुलतान अहमद मित्रों को धोखा दिया और इस विश्वास- बात पर ज्येष्ठान सुलतान महमूद ने उससे प्रसन्न होकर उसे तुकिस्तान का प्रान्तपति बनाया। सुलतान अहमद की मुख्यु से पूर्व उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित की, और मजिद तरखान को विवश किया कि वह उसके साथ सन्धि कर से।" इस समय से उसने ख्याति प्राप्त करना प्रारम्भ किया। मंगोलों और उज़बेगों की सहायता से न केवल उसने अपने कार्य क्षेत्र को बढ़ावा वरन नए प्रदेशों को विजित कर अपने प्रभु की सीमाओं को बढ़ाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ की। थोड़े ही समय में वह शक्तिशाली बन बैठा। शक्ति के चरमोत्कर्ष के समय उसने किसी विधान, सामाजिक नियम, परम्परा एवं नैतिकता की कभी भी परवाह नहीं की । उसकी निजी इच्छा हो उसे निरन्तर प्रेरणा प्रदान करती रही और तैमूरी राज्यों को समाप्त करने तथा मध्य एशिया के मानचित्र से उनको मिटा देने के लिए प्रोत्साहन देती रही। प्रो० रशय के विलियम्स के शब्दों में, "साधारणतः तमूरियों के शत्रु (किन्तु मुख्यतः बाबर के शत्रु) के रूप में उसने ख्याति प्राप्त की"।" इससे बाबर की उस भावना पर प्रकाश पड़ता है जो उसके हृदय में १. बंम्बरी, "हिस्ट्री आफ बुखारा, भाग १, पु० २५० । २. प्रो० रश के विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ दि सिक्सटीन्थ


सेन्चुरी", पृ० ४४ ।

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 पवित हो रही थी। कुछ भी हो प्रारम्भ से ही बाबर की दृष्टि में बाजी खान एक ऐसा दानव था जो कि प्रत्येक तैमुरी राज्य पर दावा करते हुए उसे जाना जाता था।


 ऐसे ही व्यक्ति का सामना बाबर को करना पड़ा। यद्यपि उसकी सेनाएँ बिखरी हुई थी फिर भी बाबर ने बुद्धि से कार्य किया। उसने अपने सैनिकों की युद्ध के लिए सुसज्जित किया और फिर सेना को लेकर शत्रु का सामना करने के लिए वह चल पड़ा। बानी खान ने उस पर आकस्मिक आक्रमण करने का विचार किया था, किन्तु जब उसने उसे कहीं अधिक शक्तिशाली देखा तो उसने उस पर आक्रमण करना स्थगित कर दिया। इससे वैसनगर मित्र असंतुष्ट हुआ। उसे यह आशा थी कि वानी खान आते ही बाबर पर आक्रमण कर उसे भगा देगा। परन्तु जब उसने उसे ऐसा करते न देखा तो उसे निराशा हुई, और उसके आने पर उसने उसका उचित ढंग से स्वागत भी न किया । बड़ी आशाएं लेकर शंबानी खान उसकी सहायतार्थ आया था। उसके अशिष्ट व्यवहार एवं अपने अपमान को चुप-चाप वह सहन करता रहा। समरकन्द में ठहर कर शैबानी व उसके साथियों ने वैसनगर के सैनिक साधनों, राज्य की आय तथा उसकी दशा आदि की जानकारी प्राप्त कर ली। उन्हें कठिनाई में देखकर और समरकन्द की आर्थिक समृद्धि के विषय में सुनकर उज़बेगों व उनके सरदार शैबानी खान के हृदय में समरकन्द के राज्य को तैमूरी शासक के हाथों से छीन लेने की बात आई । किन्तु इस अवसर को उपयुक्त न समझकर शैबानी खान ने यही उचित समझा कि वह अपने देश वापस लोट जाय और दूसरी बार अधिक से अधिक सेना लाकर समरकन्द को विजित कर ले | अतः वह वापस चला गया। '


 शवानी खान के तुर्किस्तान वापस लौटते ही बाबर का मार्ग प्रशस्त हो गया। अब वह किसी भी समय समरकन्द पर आक्रमण कर सकता था । किन्तु शैबानी खान के आगे बढ़ने व पीछे हटने तथा मुवारुन्नहर में प्रवेश करने से


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ७३-७४; फिरिश्ता, “तारीख-ए-प्रि. रिश्ता" (मूल ग्रंथ), पृ० १९३; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ़ दि राइज़ आफ़ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" (भाग २), पृ० ७; प्रो० रशनक विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ़ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी", पृ० ४४- ४५ ।

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 यह अवश्य पता चल गया कि अपने पितामह अबुल सर की भांति वह भी महत्वाकांक्षी है तथा किसी भी नए कार्य में, जिससे उसके प्रमुख की सीमाओं के विकसित होने की सम्भावना प्रतीत होती हो, हाथ लगा सकता है। बाबर यह कैसे भूल सकता था कि तैमूरी शासकों के आपसी झगड़ों में मध्यस्थता करने एवं भाग लेने से उसे लाभ पहुँच सकता है। कुछ भी हो वानी के लौटने के पश्चात बाबर ने हर प्रकार से समरकन्द के दुर्ग को जीतने की चेष्टा की। सात महीनों तक वह दुर्ग की दीवारों के नीचे पड़ाव डाले पड़ा रहा। अनेक बार उसने दीवार को भेदने की चेष्टा की, किन्तु उसे इस कार्य में सफलता न प्राप्त हुई। फिर भी बहुतनिक हताश न हुआ। इसके विपरीत उससे उसके संकल्प को शक्ति मिली और उसने संकल्प किया कि वह तब तक वापस न लौटेगा जब तक कि दुर्ग उसके हाथ में नहीं आ जाता । दूध संकल्प से शत्रु उसके इस के पैर उखड़ने लगे। ससार मिट्टी को कहीं से सहायता नही प्राप्त हो रही थी। अधिक समय तक बाबर का सामना न कर सकने के कारण एक रात्रि लगभग दो-तीन सौ व्यक्तियों के साथ वह समरकन्द को छोड़ कर कुन्दुज की ओर भाग खड़ा हुआ, जहाँ पहुँच कर उसने अपने वज़ीर खुसरो शाह की शरण ली।"


 आलू के उस पार व बदल के मध्य में कुन्दुज का प्रान्त इस समय खुसरो शाह के हाथ में था। वैसे तो वह सुलतान मसूद मिर्ज़ा के अधीन था, किन्तु जिस समय सुलतान मसूद मिर्जा हिसार से पीछे हट रहा था, उस समय खुसरो शाह ने विद्रोह किया और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी । उस समय से लेकर खुसरो शाह और सुलतान मसूद के सम्बन्ध दिन प्रतिदिन बिगड़ने लगे । वे एक दूसरे के विनाश के लिए उद्यत हो गये। जैसे ही सुलतान मसूद को यह ज्ञात हुआ कि उसका भाई सगर उसके प्रतिद्वन्द्वी खुसरो शाह की शरण लेने के लिए जा रहा है, उसने तुरन्त ही तिरमित्र के प्रान्तपति सैय्यद हुसैन अकबर को उसे रोकने के लिए भेजा। यदि वैसम्गर मिर्झा व खुसरो एक- दूसरे से मिल जाते, तो यह गठबन्धन सुलतान मसूद मिर्ज़ा के लिए अवश्य घातक सिद्ध होता। इससे पूर्व कि ऐसा कोई समझोता दोनों में हो सके संय्यद हसन


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, ०७४ प्रो० रश ब. क इम्पायर बिल्डर ऑफ़ दि सिक्सटीन्य सेन्चुरी, पृ० ४४ ॥ विलियम्स, "ऐन

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 ने बड़ी सक्रियता से आसू नदी के किनारे, वैसतार पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया। उसने उसका निजी सामान छीन लिया तथा उसे नदी को पार करने पर विवश किया। इसके पूर्व कि वह उसे पकड़ कर बन्दी बनाता, बेसनगर भाग कर कुन्दुज पहुँचा, जहाँ कि खुसरो शाह ने उसका स्वागत किया । खुसरो शाह को अब एक ऐसा व्यक्ति मिल गया जिसकी सहायता से वह नए प्रदेशों को विजित कर सकता था तथा अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को साकार कर सकता था।"


 बायर को जैसे ही वैसन्गर मिर्ज़ा के भागने की सूचना मिली वैसे ही उसकी सेना ख्वाजा-ए-दीदार से समरकन्द की ओर बढ़ी। उसका स्वागत करने के लिए उमराव व सैनिक दोनों ही मार्ग में उससे मिले। वी-उल-अव्वल १०३ हि० के अन्तिम दस दिनों में से किसी एक दिन, सम्भवतः नवम्बर १४९७ ई० के अन्त में उसने समरकन्द में प्रवेश किया। वह स्वयं लिखता है कि इस प्रकार ईश्वर की कृपा से समरकन्द के शहर व देश पर मैंने अधिकार जमा लिया । २ अनेक कठिनाइयों तथा सात महीनों के अवरोध के पश्चात् पन्द्रह वर्ष की आयु में बाबर को समरकन्द का शासक बनने में सफलता प्राप्त हुई। इस सफलता पर वह बहुत प्रसन्न हुआ । वर्षो पश्चात् जब फतेहपुर सीकरी के उद्यान में बीते हुए दिनों की घटनाओं को सँजोने के लिए बैठा, तो उसे उस अवसर की याद आई कि किस प्रकार वह इस शहर पर अपना अधिकार स्थापित करने का स्वप्न देखा करता था। बड़े ही गौरव के साथ वह इस शहर के इतिहास और उसकी महत्ता पर प्रकाश डालता है । 3


 १. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ०७४ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ७४; फिरिश्ता, "तारीख-ए फ़िरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९३; ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राईज़ आफ दी मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० ७; रिज़वी, “मुगलकालीन भारत," (बावर) पृ० ५१०; अरस्किन, "हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर- हुमायूं,” लन्दन, १८५४, भाग १, पृ० १०५; रशब्र के विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी, " पृ० ४५; हबीब उस सियर, भाग ३, खण्ड ३, पृ० २९८ । द. बाबरनामा (अनु०), भाग १, पृ०७४-८६ रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत,”


 (बाबर), पृ० ५१०-१३ ।

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 यद्यपि वह अन्दीज्ञान व सर से लेकर आमू तक का शासक हो गया, जिसमें कि समरकन्द, बुखारा, केश व करशी के प्रदेश सम्मिलित थे, किन्तु समरकन्द का सिंहासन उसके लिए फूलों की शान बन सका। उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ एवं समस्याएँ थी। सात महीने तक दुर्ग का अवरोध होने के कारण दुर्ग के अन्दर के लोग और घेराबन्दी करने वाले, दोनों ही बुरी तरह पस्तु हो चुके थे। जो लोग बाबर के साथ थे वे इस बात की आशा करते थे कि समरकन्द को विजित करने के पश्चात् बाबर उन्हें उपहारों से लाद देगा, समर कन्द की जनता को लूटने को पूरी-पूरी छूट दे देगा और उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति कर देगा । किन्तु समरकन्द में प्रवेश करने के उपरान्त बाबर ने समरकन्द की जनता के हितों को ध्यान में रखकर एवं उसकी रक्षा करने के हेतु अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे किसी भी प्रकार से न उन्हें सताएंगे और न उनको लूटेंगे। उसके इस अध्यादेश से मंगोल अप्रसन्न हुए और उन्होंने इस आदेश की आलोचना की। किन्तु बाबर ने उसकी तनिक भी चिन्ता न की । उसने भरसक मंगोल सैनिको को सन्तुष्ट करने की चेष्टा की किन्तु वे किसी भी प्रकार से सन्तुष्ट न हुए। स्वयं बाबर के पास इतना धन न था कि वह उनके मुंह मोतियों से भर देता और ऐसी स्थिति में जब कि जनता के पास न खाने को या और न पहनने को, बाबर कैसे उन पर करो का बोझ डालता। यह देख कर कि बाबर के पास उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए किसी भी प्रकार से साधन नहीं हैं, उन्होंने उसका साथ छोड़ना प्रारम्भ किया और वे स्वदेश वापस लौटने लगे। मंगोल सैनिकों की देखादेखी, मंगोल सरदारों ने भी ऐसा ही किया। सबसे पहले बयान कुली के पुत्र खान कुली ने उसके पश्चात् इब्राहीम बेगचिक तथा सुलतान अहमद तम्बल जिसका मुगल उमराव वर्ग में सबसे उच्च स्थान था ने बाबर का साथ छोड़ा और वे अपने घरों की ओर चल पड़े।" यदि बात यहाँ तक रहती तो भो उनी मत थी। लोगों को साथ छोड़ने से रोकने के लिए बाबर ने ऊजून हसन के पास ख्वाजा काजी को भेजा, ताकि वे दोनों मिल कर भागने वालों को रोके और उन्हें दण्ड देकर पुनः समरकन्द वापस भेज दें, किन्तु खाजा काज़ी के कहने के बावजूद ऊजून हसन भागने वालों से मिल गया और उसने बाबर


 १. बाबरनामा (अनु० ) भाग १, पृ० ८६ रिज़वी, मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१४ ।

मुगल सम्राट बाबर


 के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न करना प्रारम्भ किया। सुल्तान अहमद सम्बल के साथ मिल कर ऊजून हसन ने बाबर के विरोधियों की अन्दीजान में एकत्र किया और हाँगीर मिर्जा का पक्ष लिया तथा उसके लिए अस्सी व अन्दीजान की मांग की। उनकी इस मांग के पीछे उनके अपने स्वार्थ निहित थे। अब तक वे बाबर के कठोर अनुशासन से भलीभांति परिचित हो गए थे और वे यह भी समझने ये थे कि उसके सामने उनकी दाल नहीं गल सकती। अतएव जहाँगीर मि के नाम पर वे अपने हितों की सुरक्षा में लग गए।


 इस समय कजून हसन तथा मुल्तान अहमद सम्बल की मांग को स्वीकार करना बाबर के लिए बहुत ही कठिन बात थी। लगभग इसी समय तक का शासक सुलतान महमूद खां, जो कि उसका मामा था, ने भी व अन्दीजान की मांग की। बाबर स्वयं ऐसी स्थिति में न था कि वह कुछ कर सकता । किन्तु यह माँगें ऐसी थी जिसको ठुकराना भी सरल न था । तंमूरी परम्परा के अनुसार उमर शेख मिर्ज़ा की मृत्यु के उपरान्त उसका राज्य उसके पुत्रों में विभाजित हो जाना चाहिए था। बाबर व जहाँगीर मिर्जा दोनों की हो माताएँ मुग़ल थी किन्तु इन दो महिलाओं का सम्बन्ध दो भिन्न-भिन्न कबीलों से था। बाबर की मां से सम्बन्धित मंगोल कबीले बाबर के पक्ष में थे और जहाँगीर मित्रों की माँ से सम्बन्धित मुग़ल कबीले जहाँगीर को स्वतंत्र शासक के रूप में देवता चाहते थे। कुछ समय तक बाबर ने उनकी किसी बात का उत्तर न दिया जिस पर कजून हसन व सुल्तान हुसैन तम्बल ने अन्य लोगों के साथ खुल्लम- खुल्ला विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। अपनी सेनाओं के साथ वे अस्सी से अन्दीमान की ओर चल पड़े।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ८७; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९३; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दी राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया", भाग १२, पृ० ८ अरस्किन, हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर- हुमायूँ" भाग १ , पृ० १०८ रशन के विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ सिक्सटीथ सेन्चुरी", पृ० ४६ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ८८ रिज़वी, "मुगलकालीन भारत" (बावर), पृ० ५१५; हबीब-उस- सियर, भाग ३, खष्ट ३, पृ० २९१ ।

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 रमजान ९०२ हि० । मई, १४९७ ई० में समरकन्द की ओर प्रस्थान करने से पूर्व बाबर अन्दीजान की रक्षा के हेतु अली दोस्त तसाई को नियुक्त कर गया था। कजून हसन तथा सुल्तान अहमद तम्बन के अन्दीजान पहुंचने से पूर्व जा-ए-काजी अपने साथियों को लेकर अन्दीजान के दुर्ग में प्रवेश कर चुका था। उसने मंगोल सैनिकों के हृदय जीतने की हर प्रकार से चेष्टा की तथा अती दोस्त तगाई को दुर्ग की रक्षा करने में भी सहायता पहुंचाई। इसके बावजूद जब ऊजून हसन और सुल्तान अहमद तम्बल ने अन्दीजान पहुँच कर दुर्ग पर घेरा डाला तब उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। दुर्ग के अन्दर के लोग हताश होने लगे और शत्रु की शक्ति को देखकर साहस छोड़ बैठे। स्वाज़ा-ए-काजी ने उनकी दशा देखकर बाबर को सहायता भेजने के सम्बन्ध में पत्र लिखे। बाबर की दादी व मां ने भी, जो कि इस समय अन्दीजान में हो मौजूद थीं, बाबर को इस आशय के पत्र भेजे कि, 'हम लोग इस प्रकार घिरे हैं, यदि आप आकर हमारी सहायता न करेंगे तो सब का कार्य दिगड़ जावेगा। समरकन्द को अन्दीजान की शक्ति से लिया गया था। यदि अन्दाजान अधिकार में रहेगा तो ईश्वर की कृपा से समरकन्द पुनः मिल जावेगा । २ बाबर के पास यह पत्र जिस समय पहुंचे उस समय बाबर बीमार पड़ा हुआ था। यह समझ कर कि अब वह अधिक दिनों तक जीवित न रहेगा, उनके साथियों ने एक-एक कर उसका साथ छोड़ दिया। ऐसे गम्भीर समय में भूल से


 १. बाबरनामा (अनु० ) भाग १ पृ० ८८ रिज़वी, "मुगलकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१५।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ८८ रिज़वी, "मुगलकालीन भारत"


 (बाबर) पृ० ५१५ । ३. बाबर स्वयं लिखता है, “कि उन दिनों एक बार ण होकर में स्वस्थ हुआ था। अपनी राणावस्था में में अपनी भलीभांति देखभाल न कर सका। चिन्ता एवं परेशानी के कारण में इतनी बुरी तरह बीमार हो गया कि चार दिन तक मेरी जिह्वा बन्द रही। मेरे मुंह में रुई से पानी टपकाया जाता या छोटे-बड़े वेग तथा जवान मेरे जीवन से निराश होकर अपने विषय में चिन्ता करने लगे ।" बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ८९: रिज़वी, 'मुगलकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१५ -१६ ।

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 उसके बेगों ने ऊजून हसन के सेवक को, जो कि उसका दूत बन कर आया था तथा अपने साथ उसकी बड़ी कठोर ते लाया था, उसे दिखना दिया । बाबर की दशा को देखकर ऊजून हसन का वह सेवक तुरन्त अन्दीजान वापस लौट गया । अन्दीजान पहुँच कर उसने बाबर की बीमारी के बारे में ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल को सब बातें बताई, बाबर की बीमारी की खबर चारों ओर फैली और अन्दीजान के लोगों ने दुर्ग विद्रोहियों के हाथों में सौंप दिया। "


 सात दिनों बाद जब बाबर समरकन्द से रवाना होकर अन्दीजान की ओर बढ़ ही रहा था कि खोजन्द में उसे इस बात की सूचना प्राप्त हुई कि अली दोस्त तग़ाई ने अन्दीजान के दुर्ग को विद्रोहियों के हाथों में समर्पित कर दिया है । उसी समय बाबर को यह भी ज्ञात हुआ कि ख्वाज़ा-ए-काजी को विद्रोहियों ने अपमानित कर किले के द्वार पर फांसी दे दी। दोनों ही खबरों को सुनकर बाबर दुखित हुआ। किन्तु उसकी विपदाओं का अन्त इन दो घट- नाओं से नहीं हुआ वरन् विपदाएँ यहीं से प्रारम्भ हुई हैं ।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ८९ । २. बाबर ने लिखा है कि ख्वाज़ा-ए-काज़ी, "ख्वाज़ा मौलाना काफ़ी के नाम से प्रसिद्ध था किन्तु उसका नाम अब्दुल्लाह था। उसका वंश पिता की ओर से शेख बुरहानुद्दीन अली कोलीच तक और माता की ओर से सुल्तानुल ईलीक मिर्ज़ा तक पहुँचता था। फरग़ना की विलायत में इस वंश के लोग पीर, शेखुल इस्लाम तथा काज़ी होते आए हैं। वह हजरत उम्रदुल्लाह अह- रारी का मुरीद था और उसने उनसे शिक्षा-दीक्षा गई थी। इस बात में मुझे कोई सन्देह नहीं है कि ख्वाज़ा मौलाना काज़ी वली थे. ...ख्वाज़ा मौलाना काज़ी बड़े विचित्र व्यक्ति थे और किसी बात से भय न करते थे । मैंने उनके समान कोई व्यक्ति पराक्रमी न देखा । यह भी वली होने का प्रमाण है । अन्य वीरों में थोड़ी बहुत चिन्ता व भय अवश्य होता है किन्तु ख्वाज़ा मौलाना काज़ी में किसी प्रकार की कोई चिता न थी ।" - देखिए - बाबर - नामा, (अनु०) भाग १, पृ० ९०; नफायसुल मासीर, रिज़वी, "मुग़ल- : कालीन भारत" (बाबर), पृ० ३४४; बाबरनामा, रिज़वी, "मुगलकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१६; फिरिश्ता, “तारीखे-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९३; हबीब उस सियर; भाग ३ खण्ड ३, पृ० २९१-२ ।

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 अनुपस्थिति बाबर ने अपने को कठिनाइयों में घिरा हुआ पाया । अन्दीजान के दुर्ग की रक्षा करने के लिए वह समरकन्द से चला परन्तु समरकन्द में उसकी में उसके विरोधियों ने बुखारा से उसके चचेरे भाई अली मिर्ज़ा को बुला लिया और उसे समरकन्द सौंप दिया। इस प्रकार दोनों ही देश उसके हाथों से निकल गए। अब उसी के राज्य पर सुल्तान अहमद तम्बल व ऊजून हसन, उसके छोटे भाई जहांगीर मिर्ज़ा के नाम पर शासन करने लगे। यह देख कर कि अब उसके हाथों में कुछ भी नहीं शेष रहा, उसके साथियों ने बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़ना प्रारम्भ कर दिया। लगभग ७०० या ४०० व्यक्ति उससे पृथक हो गए। जब उसके पास केवल २०० और ३०० के बीच, अच्छे व बुरे साथी रह गए। भाग्य की इस विडम्बना पर वह पश्चात्ताप करते हुए लिखता है कि, "यह समय मेरे लिए बहुत ही दुखदायी एवं कष्टमय था, क्योंकि जब से मैंने राज्य करना प्रारम्भ किया तब से मेरे सहायक एवं सेवक मुझसे कभी भी इस तरह पृथक न हुए और न ही मेरा देश मुझसे छूटा । इससे पूर्व मैंने अपने आपको कभी भी न कुछ समझा और न अपने जीवन पर मुझे खीझ आई या इस प्रकार के कष्ट ही देखने पड़े ।”3 “मैं बड़ी कठिनाई में था तथा बिना रोये अपने को रोक भी न सकता था ।”४ अपने ही देश में वह निर्वासित हो गया था। उसे चारों ओर


 १. इस सन्दर्भ में बाबर ने स्वयं लिखा है कि, “अन्दीजान की चिन्ता में हमने अपने हाथों से समरकन्द खो दिया और अब मुझे मालूम हुआ कि बिना एक की रक्षा किए हुए मैने दूसरे को खो दिया” – बाबरनामा (अनु० ) भाग १, पृ० ९० ; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९३, ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राईज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ०९ ।


 २. बाबरनामा (अनु०), भाग १, पृ० ९०, रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत " (बाबर), पृ० ५१७ ।


 ३. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९० ।


 ४. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९०; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९३; रिज़वी “मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१७; ब्रिग्स "दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया' भाग २, पु०९ ।

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 अन्धकार दिखाई देने लगा और कुछ समय तक वह सोचने में असमर्थ रहा कि. उसे क्या करना चाहिए तथा सहायता के लिए किसके सामने हाथ फैलाना चाहिए ।


 खोजन्द ही में बाबर कुछ समय तक ठहरा रहा। यहां से उसने कासिम बेड़ा कुचीन को अपने मामा सुल्तान महमूद खान के पास सहायता मांगने के प्रयोजन से ताशकन्द भेजा । कासिम बेग़ कुचीन को अपने कार्य में सफलता प्राप्त हुई। उसके अनुरोध पर सुल्तान महमूद खान ने सेना एकत्र की और आहनगरान की घाटी को पार करता हुआ वह किन्दिरलीक के दरें में पहुँचा । खोजन्द से चलकर बाबर उसके पास यहाँ आया और उसने अपने मामा से भेंट की। तदुपरांत अपने मामा के साथ उसने दर्रे को पार किया और अलसी में पड़ाव डाला। लगभग इस समय जब ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल को इस आक्रमण की सूचना प्राप्त हुई तो वे भी विशाल सेना लेकर अस्सी के दुर्ग की रक्षा करने के लिए अन्दीजान से चल पड़े। दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने कुछ समय तक पड़ी रहीं । युद्ध के लिए अपनी तैयारियां पूर्ण करने के लिए ऊजून हसन व तम्बल ने ख्वाजा अब्दुल मकाराम बेग़ तिल्बा को सुल्तान महमूद खान के पास भेजकर सन्धि की वार्ता प्रारम्भ की। इन लोगों ने खान को घूस देकर और उससे चिकनी चुपड़ी बातें करके अपनी ओर मिला लिया । इस प्रकार सुलतान महमूद खान बिना बाबर की सहायता किए हुए लौट गया । " निराश होकर बाबर भी खोजन्द वापस आ गया, जहाँ उसकी भेंट अपनी माँ व दादी से हुई। अब अपने भाग्य को कोसने के सिवाय बाबर के सामने कुछ और न था ।


 रमज़ान (अप्रैल-मई) का महीना उसने खोजन्द में ही व्यतीत किया । तदु- परान्त बाबर ने एक आदमी सुल्तान महमूद के पास इस आशय से भेजा कि वह उससे समरकन्द पर आक्रमण हेतु सहायता देने का अनुग्रह करे । कुछ समय


 १. बाबरनामा, (अनु० ) भाग १, पृ० ९०-९१; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत", (बाबर), पृ० ५१७; फिरिश्ता, "तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पु० १९३ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९१; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत”, (बाबर), पृ० ५१७ ।

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 किन्तु तक सुल्तान महमूद खान ने कोई भी उत्तर न दिया क्योंकि वह जहांगीर मिर्ज़ा से कर चुका था कि वह बाबर की कभी भी सहायता न करेगा । बाबर के बार-बार अनुरोध करने पर उसने अपने पुत्र सुल्तान मुहम्मद एवं उनके संरक्षक अहमद बेग को ४०००-५००० व्यक्तियों के साथ उसकी सहायता के लिए भेजा। सुलतान महमूद खान स्वयं औरतिमा तक आया, जहाँ उसने बाबर से भेंट की और उसके पश्चात् ताकद वापस लौट गया। और दिपा व यार ईलाक होते हुए बाबर बुरका नाक के दुर्ग के निकट पहुंचा और वहाँ उसने पड़ाव डाला। दूसरी और से सुलतान मुहम्मद व अहमद बंग ४००० से ५००० सैनिकों के साथ यार ईसाक पहुंचे। इससे पूर्व कि बाबर उनसे जाकर मिलता, सुलतान मुहम्मद व उसके सरक्षक को शैबानी खां के आक्रमण तथा शीराज़ व उसके आस-पास के प्रदेशों को विध्वंस करने के समाचार मिले जिससे वे हतोत्साहित होकर ताशकन्द बापस लौट गए। बाबर को भी विवश होकर खोजून्द वापस लौटना पड़ा।' इस अवसर पर भी सुलतान मुहम्मद व अहमद बेग की निष्क्रियता के कारण बावर न तो समरकन्द हो विजित कर सका और न अन्दीजान पर ही आक्रमण कर सका । खनिका


 समरकन्द को विजित करने की अभिलाषा उसके मन में सदैव बनी रही। उसने स्वयं लिखा है "क्योंकि मुझे राज्य पर अधिकार करने तथा बादशाह बनने की आकांक्षा थी, अतः मैं एक या दो बार की असफलता से निराश होकर न बैठ सकता था। उसकी इस अभिलाषा ने उसे पुनः इस बात पर विवश किया कि वह सुलतान महमूद खान के पास ताशकन्द जाए और पुनः सहायता देने का उससे अनुरोध करे । बाबर इस प्रकार ताशकन्द पहुँचा। कुछ दिनों उपरांत, सुलतान महमूद खान ने संय्यद मुहम्मद हुसैन दोघलत तथा अय्यूब चिक आदि सरदारों को ७००० या ८००० सैनिकों के साथ उसकी सहायतार्थ नियुक्त किया। इस सेना को साथ लेकर बाबर शीघ्रतिशीघ्र बढ़ता हुआ नसूब पहुँचा और वहाँ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किन्तु उस दुर्ग की रक्षा न कर सकने पर बाबर अपने साथियों के साथ पुनः खोजन्द वापस लौट आया । १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९२; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत'


 (बाबर), पृ० ५१७६। २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९२; रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत (बाबर), पृ० ५१८ ।

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खोजन्द पहुँच कर बाबर को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा । खोजन्द एक छोटा-सा स्थान था । बहुत ही कठिनाई से वहाँ केवल २०० या ३०० व्यक्तियों का जीवन निर्वाह हो सकता था। अतएव उसने उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने का विचार किया। किन्तु यह कार्य भी इतना सरल न था क्योंकि इस समय खुसरो शाह एवं शैवानी खां की महत्वाकांक्षाएँ तैमूरी राजकुमारों को शक्तिहीन बना रही थी और इन दोनों महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के सामने बाबर के लिए सिर उठाना कठिन था। फिर भी उसने मुहम्मद हुसैन गुरखान दोघुलत के पास अपने आदमी औरतिपा भेजे कि वे उससे आग्रह करें कि शीत ऋतु व्यतीत करने के लिए उन्हें वह पशागर नामक स्थान प्रदान कर दे। जैसे ही मुहम्मद हुसैन गुरखान दोघलत की अनुमति बाबर को मिली, वैसे ही बावर खोजन्द से पशाग़र की ओर चल पड़ा। मार्ग में उसने खाते-ए-ख्वाजा नामक स्थान को जीतने का असफल प्रयास किया। किसी प्रकार पशाग़र पहुँचा। वहाँ से उसने इब्राहीम सारू, बएस लघारी, शेरीम तग़ाई को कुछ घरेलू सैनिकों के साथ समरकन्द के अधीनस्थ कुछ शहरों पर आक्रमण करने के लिए भेजा । इब्राहीम सारू, वएस लघारी तथा शेरीम लगाई ने यार ईलाक के दुर्ग पर आक्रमण किया । किन्तु इस आक्रमण की सूचना मिलते ही समरकन्द के शासक सुल्तान अली मिर्ज़ा ने संय्यद यूसुफ वेग के छोटे भाई के पुत्र अहमद यूसुफ को दुर्ग की रक्षा करने के लिए भेजा । किन्तु बाबर के सैनिकों ने संय्यद यूसुफ बेग के साथ सन्धि करके तथा युक्ति द्वारा किसी प्रकार यार ईलाक के दुर्ग पर अधिकार जमा लिया। जब सुल्तान अली मिर्ज़ा को अहमद यूसुफ तथा संय्यद यूसुफ की असफलता की सूचना मिली तो उनसे रुष्ट होकर उसने उन्हें खुरासान की ओर भेज दिया। इसके पश्चात् वह स्वयं एक विशाल सेना को लेकर बाबर के विरुद्ध बढ़ा । ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में सुल्तान अली मिर्जा ने ख्वाज़ा यहिया को आगे एक सैनिक टुकड़ी के साथ भेजा, जिससे कि वह बाबर से सन्धि की वार्ता प्रारंभ कर दे अथवा उसकी कार्यवाहियों को रोक दे । सुल्तान अली मिर्ज़ा ने स्वयं शिराज व कबुद के मध्य पड़ाव डाला । बाबर की सेना में इस समय २०० या ३०० से अधिक सैनिक न थे । अतएव सुल्तान अली मिर्जा से युद्ध करना उचित न समझ कर उसने सन्धि कर ली और पशाग़र लौट गया। संधि की शर्तों के अनुसार उसे यार


१. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९९; रिजवी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५१९-२०


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 ईलाक के दुर्ग को वापस करना पड़ा । इस प्रकार इस अवसर पर भी उसे समरकन्द को विजित करने में सफलता न मिली । भाग्य ने उसका साथ न दिया। खोजन्द के लोगों को वह अपना मुंह दिखाने योग्य भी न रहा । अतः व्यय एवं चिन्तित होकर कुछ समय तक वह इधर-उधर भटकता रहा ।


 एकाएक एक दिन ओरतिपा की घाटी में उसकी भेंट युलचिक नामक व्यक्ति से हुई, जो कि अली दोस्त तग़ाई का सेवक था । युलचिक, अली दोस्त लगाई का एक सन्देश लेकर बाबर के पास आया था, "यद्यपि इससे पूर्व मैने बड़े-बड़े अपराध किये हैं, किन्तु यदि कृपापूर्वक आप मेरे पास आ जायेंगे तो मैं आपको मगिनान देकर एवं आपकी निष्ठापूर्वक सेवा करके अपने पापों का प्रायश्चित कर सकूंगा।”२ अली दोस्त तग़ाई का यह प्रस्ताव बाबर के सन्मुख था । उसी के ऊपर यह बात निर्भर करती थी कि उसके इस प्रस्ताव को स्वीकृत करें या न करे । उस पर विश्वास करे या अविश्वास । अन्त में बाबर ने मगिनान की ओर चलने का निश्चय किया। शीघ्रातिशीघ्र बाबर ने मगिनान के मार्ग को तय कर लिया और जब वह मगिनान के निकट पहुँचा तो उसके साथियों ने उसे सुझाव दिया कि वह अली दोस्त तग़ाई पर तनिक भी विश्वास न करें। बाबर ने उनके सुझाव पर विचार किया, किन्तु यह सोचते हुए कि वापस लौटना भी इतना सरल नहीं है उसने सब कुछ ईश्वर की अनुकम्पा पर छोड़ दिया।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९९; रिजवी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२० :


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ९९; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत " (बाबर), पृ० ५२०; फिरिश्ता, 'तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९३-४; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज़ आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया", भाग २, पृ० १० ।


 ३. बाबर लिखता है कि यहाँ वंस बेग तथा कुछ अन्य लोगों ने चिन्ता प्रकट करते हुए निवेदन किया कि "अली दोस्त बड़ा दुष्ट है । हमारे व उसके एक दूसरे के पास आ गए हैं और हमने एक दूसरे से कोई शर्त नहीं की है। दूत तो ऐसी अवस्था में हम किस भरोसे उसके पास जा रहे हैं ?" वास्तव में उनकी चिन्ता ठीक ही थी किन्तु इस बात को पहले कहना चाहिए था। इस समय हम वहाँ तीन रात और दो दिन की यात्रा के उपरांत बिना कहीं ठहरे अथवा

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 गिनान के द्वार पर अनी दोस्त तग़ाई से शत तय हुई और बाबर ने दुर्ग में प्रवेश किया ।"


 मगिनान के दुर्ग में पहुँच कर बाबर ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास किया। उसने अपने सैनिकों को चारों ओर भेज कर रसद लाने का आदेश दिया। थोड़े ही समय में युद्ध का सामान व रसद दोनों ही उसके पास पहुँचने लगे। उसके नम्र स्वभाव की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। इसके विपरीत कजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल जो कि जहाँगीर मिर्ज़ा के नाम पर फरसाना में शासन कर रहे थे, अपने कठोर व्यवहार के कारण बदनाम हो रहे थे। लोग उनसे तंग आ चुके थे और यही चाहने लगे थे कि किसी न किसी प्रकार बाबर को बुला कर सत्ता लेने में उसकी सहायता करें। बाबर को जब ऊजून हसन व सुलतान अहमद तम्बल के विषय में पता चला तो उसने कासिम वेग के साथ अनेक व्यक्तियों को अन्दीजान की ओर भेजा कि वह आस-पास के व्यक्तियों को अपने पक्ष में कर ले। इसी प्रकार उसने वएस लधारी, इब्राहीम साह तथा सैय्यदी कुरा को भी इसी कार्य के लिए उस ओर भेजा। इस प्रकार बाबर ने अपने शत्रुओं पर दो ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई । किन्तु इससे पूर्व कि वह अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर सकता, ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल दोनों को उसके मगिनाम पहुँचने की सूचना मिल गई और यह भी पता चल गया कि उसने अपने अमीरों को उनके विरुद्ध भेजा है। सुलतान अहमद तम्बल तथा ऊजून हसन ने शीघ्र ही अपने मंगोल सैनिको के साथ मर्गिनान की ओर कूच किया। मर्गिनान से दो मील पर स्थित सपन नामक गाँव में वे ठहरे और उन्होंने अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए सुसज्जित


 विश्राम किए हुए पहुँचे हैं। किसी मनुष्य अथवा घोड़ों में अब कोई दम नहीं रह गया है। अब जिस स्थान पर हम पहुँच चुके हैं, तो फिर आगे प्रस्थान करना ही चाहिए । ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता ।"- बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृष्ठ १००; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२१ ।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १००, फिरिश्ता' 'तारीख-ए-फिरिश्ता (मू० ग्रन्थ) पृ० १९३; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज ऑफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १० ।

मुग़ल सम्राट बाबर


 किया । यद्यपि बाबर के पास कुछ ही सैनिक रह गए थे, फिर भी उसने तनिक भी धैर्य न खोया । अपने सैनिकों को लेकर वह मर्गिनान से निकल पड़ा और उसने शत्रु पर धावा बोल दिया। दो दिनों के युद्ध ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल को मर्गिनान के दुर्गं सफलता न मिल सकी। ' के पश्चात् भी तक पहुँचने में


 इसी बीच बाबर ने जिन व्यक्तियों को अन्दीजान के निकटवर्ती प्रदेशों पर छापा मारने के लिए भेजा था, उन्हें अपने अभियानों में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। क़ासिम वेग अन्दीजान की दक्षिण पहाड़ियों में पहुंचा और उसने आशपरी, तुर्कशार तथा चीकरक को जीत लिया तथा पर्वतों एवं मैदानों में रहने वाले कबीलों को अपने पक्ष में कर लिया। इसी प्रकार इब्राहीम साह तथा वएस लघारी ने भी इसी समय सर नदी को पार किया और अस्सी के निकट आ पहुंचे। इस समस्त प्रदेश की जनता ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल से पहले ही तंग थी, अतएव बाबर के अमीरों के आगे बढ़ने पर अस्सी शहर के लोगों ने हसनदिवचा के नेतृत्व में अस्सी के दुर्ग में रहने वालों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही हसन ने ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल के साथियों को दुर्ग में शरण लेने पर विवश कर दिया तथा इब्राहीम सारू और उसके साथियों को शहर में घुसा लिया। कुछ समय उपरान्त हैदर २ कोकुलदाश का पुत्र बन्दा अली, हाजी गाजी मन्जीत तथा मिरीम आदि जिन्हें कि सुलतान महमूद खान ने बाबर की सहायता करने के लिए भेजा था, वहाँ आ गए, जिससे कि बाबर की स्थिति और भी अधिक सुदृढ़ हो गई । बाबर की शक्ति अब तक इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वह अब निश्चित होकर अपने शत्रु पर आक्रमण कर सकता था।


 इसके पूर्व कि बाबर उन पर आक्रमण करता, ऊजून हसन व सुल्तान अहमद तम्बल ने कुछ आदमियों को नदी पार करने तथा अरूसी के दुर्ग- रक्षकों की सहायता करने के लिए भेजा। जब सैनिक टुकड़ी नदी पार


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०१; रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२१-२२ ।


 11 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ०, १००; रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत (बाबर), पृ० ५२२ ।

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 कर ही रही थी, उसी समय बाबर के आदमियों ने उनका सामना किया और उन्हें परास्त कर तितर-बितर कर दिया। बड़ी कठिनाइयों के पश्चात् कार लूगाच बख्शी, खलील दीवान, काजी गुलाम, सैय्यद अली, हैदर कुली आदि जान बचा कर भाग निकले और ऊजून हसन के पास पहुँच कर उन्होंने इस दुर्घटना की खबर दी। अपने सैनिकों की असफलता का समाचार सुनकर ऊजून हसन व सुलतान अहमद तम्बल ने मर्गिनान के निकट ठहरना उचित न समझा । अतएव उन्होंने शिविर उखाड़ दिए और अन्दीजान की ओर वापस लौटना प्रारम्भ किया । अन्दीजान तक पहुँचते-पहुँचते दोनों ही नेताओ में मतभेद हो गया । दोनों ही एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे । जब वे अन्दोजान पहुँचे, तब उन्होंने दुर्ग के द्वार बन्द पाए। उनके अन्दी जान पहुँचने के पूर्व ही, ऊजून हसन के बहनोई नासिर बेग ने, जो कि दुर्ग का रक्षक था, बाबर के पक्ष में घोषणा कर दी थी। निराश होकर कजून हसन अपने परिवार को बचाने के लिए अस्सी की ओर चल पड़ा और सुल्तान अहमद तम्बल अपनी जागीर उश की ओर चला गया। इस प्रकार बाबर को अपने विरोधिओं के विरुद्ध सफलता पाने की आशा हो गई। वह तुरन्त अन्दीज़ान की ओर रवाना हुआ । अन्दीज़ान पहुँचने पर उसका स्वागत नासिर बेग तथा उसके दो पुत्रों, दोस्त वेग और मिरिम बेग ने किया। यद्यपि बाबर ने अन्दीजान व मगिनान पर अपना आधिपत्य पुनः स्थापित कर लिया, किन्तु फरगना के अन्य प्रदेश अब भी उसके हाथों के बाहर थे ।


 १. अन्दीज़ान में प्रवेश करने के पश्चात् बाबर को जो प्रसन्नता हुई उसकी अभिव्यक्ति वह इन शब्दों में करता है- "मैंने नासिर बेग तथा उसके दो पुत्रों दोस्त बेग एवं मिरिम बेग से भेंट की और उनके विषय में पूछताछ करके उन्हें कृपा एवं आश्रय का आश्वासन दिलाया। इस प्रकार ईश्वर की कृपा से मेरे पिता का राज्य जो दो वर्ष हुए, मेरे हाथ से निकल गया था जीक़ाद ९०४ हि० (जून १४९८ ई०) में मेरे अधिकार में आ गया" - बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०१; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२३; फिरिश्ता तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९३-९४; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १०-११।

मुग़ल सम्राट बाबर


 अन्दीजान को अधिकृत करने के पश्चात् बाबर ने इस राज्य के अन्य भागों को भी विजित करने की चेष्टा की । ऊजून हसन की शक्ति का दमन करने के लिए वह अख्सी की ओर बढ़ा। उसने अस्सी के दुर्ग पर घेरा डालकर कजून हसन को दुर्ग छोड़ने के लिए बाध्य किया तथा कासिम-ए-अजव को उमराव बनाकर उसके हाथों में दुर्ग सौंप दिया। सम्भवतः इसी समय जद सुल्तान अहमद तम्बल उश पहुँचा तो वहाँ की जनता ने इटों व पत्थरों से उसका स्वागत किया और उसे वहाँ से भगा दिया। इस प्रकार जहाँगीर मिर्ज़ा के साथ सुल्तान अहमद तम्बल उश से भाग कर युकन्द की ओर गया और फिर उसने उजकिन्त में शरण ली। अपने इन दो विरोधियों से जब बावर को अवकाश मिला तो उसने अपना ध्यान प्रशासन की ओर दिया। उसने अख्सी व कसान के प्रांतों का शासन-प्रबन्ध किया । साथ ही साथ मंगोल सँनिकों को जिन्हें कि उसके मामा सुलतान महमूद खान ने उसकी सेवा के लिए भेजा था, उनकी आवश्यकता न समझते हुए, उसने उन्हें ताशकन्द वापस जाने की अनुमति दे दी । 3 अभी बावर चैन से बैठ भी न पाया था कि उसे पुनः एक नवीन समस्या का सामना करना पड़ा।


 जिस समस्या का बावर को इस समय सामना करना पड़ा वह एक ऐसी समस्या थी जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी था तथा जिसने उसकी सफलताओं पर एकाएक पानी फेर दिया। ऊजून हसन तो किरातिग़ीन के मार्ग से हिसार की ओर चला गया किन्तु अस्सी में अब भी अनेक मंगोल उपस्थित थे । ऊजून हसन के जाने के पश्चात् भी मध्य एशिया के विभिन्न ।


 १. इससे पूर्व कासिम-ए-अजब, घरेलू सैनिकों का अफ़सर था— बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०२; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९४; ब्रिग्स “दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इंडिया " भाग २, पृ० ११।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०३; रिज़वी “मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२३ ।


 ३.. बाबरनामा (अनु०), भाग १, पृ० १०३; रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत (बाबर), पृ० ५२३ ।

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 भागों से मंगोल बाबर की सेवा में आते रहे। उसकी मां की सेवा में १००० से ले कर २००० मंगोल पहले से ही थे । कालान्तर में जब हमजा सुलतान, महदी सुनसान व मुहम्मद दोषलत हिसारी, अन्दीजान आए तो उनके साथ भी अनेक मंगोल आए। इस प्रकार मंगोलों की संख्या बाबर के शिविर में बढ़ती चली गई। उसे पहले ही इन मंगोलों से घृणा थी और वह उनके अशिष्ट व्यवहार से खिन्न रहता था । किन्तु वह बिना उनके रह भी नहीं सकता था क्योंकि उनमें से अधिकतर उसकी मां के परिवार से सम्बन्धित थे। इन्हीं मंगोलों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए बाबर ने आदेश दिया कि वे भविष्य में लूट- मार न करेंगे और जो वस्तुएँ उन्होंने अब तक लूट में प्राप्त की हैं उन्हें वें, जिनका वह माल हो. उन्हें वापस कर दें । मंगोल सरदारों को यह आदेश अच्छा न लगा । अतएव इस आदेश का विरोध करने के लिए लगभग ३००० से ४००० मंगोलों ने उसका साथ छोड़ दिया और विद्रोह की पताका फहराते हुए वे सब उजकिन्त की ओर चल दिए। उन्होंने तम्बल व जहांगीर मिर्ज़ा के पास एक आदमी को भेज कर यह कहलवाया कि वे सब उन्हीं का साथ देंगे। सुलतान कुली चुनक से बाबर को जब इस विद्रोह के विषय में ज्ञात हुआ तो उसने कासिम बेग को एक सेना के साथ उनके विद्रोह को दबाने


 १. मंगोल सैनिकों के सम्बन्ध में बाबर लिखता है कि, "यह वही लोग थे जिन्होंने पिछली परेशानियों में मेरे मुसलमान सहायकों तथा ख्वाजा काज़ी के आदमियों को लूटा मारा था। बहुत-से बेगों के परामर्श से यह निश्चय हुआ कि इन्हीं लोगों ने हमारे हितैषी मुसलमान सहायकों को लूटा-मारा है । उन्होंने अपने मुग़ल बेगों के प्रति कौन-सी निष्ठा प्रदर्शित की है जो वे हमारे हितेषी रहेंगे ? यदि वे बन्दी बना लिए जायें तथा लूट लिए जायें तो कौन-सा अपराध होगा, और विशेष रूप से ऐसी दशा में जब कि वे हमारी आँखों के सामने हमारे ही वस्त्र धारण किए और हमारे ही घोड़ों पर सवार टहला करेंगे तथा हमारी ही भेड़ों का मांस खाया करेंगे ? इसे कौन कह सकता है ?" बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०५; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२४ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०५; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत", (बाबर), पृ० ५२४ ।

मुग़ल सम्राट बाबर


 के लिए भेजा। किन्तु काशिम वेग उनका सामना न कर सका और पराजित 'होकर इब्राहिम साह, बस बधारी तथा संध्या के साथ वह जान बचाकर अन्दीजान वापस लौट आया। उसका पीछा करता हुआ गुल्तान अहमद तम्बल अन्दी जान तक आ पहुंचा। अन्दीजान पहुंचकर सुनतान अहम्मद सम्म ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। जब वह अन्दीशान के दुर्ग को विजित करने में इब्राहीम सा के सैनिक उसका मुकाबला सफल न हुआ तो वह उस की ओर बढ़ा। उश पहुँच कर सुल्तान अहमद सम्बल ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। कर ही रहे थे, कि १८ मुहर्रम ९०५ हि० । २५ अगस्त १४९९ ई० को बाबर अपनी सेनाओं के साथ उनकी सहायता के लिए पहुंच गया। बावर को आते देखर सुल्तान अहमद तम्बल ने घेरा उठा लिया और वह आ से पीछे हट गया। बाबर की आंख बचाकर दूसरे मार्ग से यह अन्दाजान की ओर चल पड़ा। अन्दी जान पहुंच कर उसने दुर्ग पर परा डाल दिया। अभी वह घेरा डाले हुए पड़ा ही हुआ था कि इसी बीच बाबर ने तभ्बल के भाई खलील के हाथों से माड का दुर्ग छीन लिया और उसके पश्चात् वह अन्दीजान की रक्षा के लिए चल पड़ा। कई दिनों तक बाबर व सुलतान अहमद तम्बल की सेनाओं में गुद्ध होता रहा। अन्त में बाबर ने उन्हें परास्त कर अन्दीजान से भगा दिया। सुलतान अहमद तम्बल और जहांगीर मिश्र उज़किन्त की ओर तुरन्त चले गए। शीत ऋतु के प्रारम्भ होते हो बाबर ने उनका पीछा करना उचित न समझा और खुबान से वह अन्दीजान वापस आ गया।


 इस युद्ध के उपरांत भी सुल्तान अहमद तम्बल की शक्ति ज्यों की त्यों बनी रही । वह निरन्तर अन्दीजान के अधीनस्थ प्रदेशों पर छापा मारता रहा


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०६ रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत " (बाबर), पृ० ५२५ ।


 २. बाबरनामा (अनु० ) भाग १, पृ० १०७-८ रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२६ ।


 (बाबर), पृ० ५२६ ।


 (बाबर), पृ० ५२७-८ ।


 ३. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १०८; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" ४. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ११३; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 और बाबर को परेशान करता रहा। सुल्तान अहमद तम्बल के आक्रमणों को रोकने के लिए बाबर उजकिन्त की ओर बढ़ा भी किन्तु कम्बर अली के कारण उसे इस कार्य में सफलता न प्राप्त हुई और अन्दीज्ञान लौटना पड़ा । यह देखकर कि बाबर निश्चिन्त होकर शीतकाल अन्दीज्ञान में रह कर व्यतीत कर रहा है, तुलतान अहमद तम्बल ने एक व्यक्ति को सुलतान महमूद खान के पास ताशकन्द सहायता मांगने के लिए भेजा। साथ ही साथ उसने अपने चाचा अहमद बेग, जो कि इस समय सुलतान महमूद खान के पुत्र सुलतान मुहम्मद खान का संरक्षक भी था, तथा अपने बड़े भाई बेग तिब्बा, जो कि इस समय ताशकन्द के द्वार का मालिक था, के पास भी सन्देश भेजे कि मिल कर सुलतान महमूद खान से उसकी ओर से सहायता देने का अनुरोध करें। सुलतान महमूद खान पर जब दबाव पड़ा तो उसने सुलतान अहमद तम्बल की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वेग तिब्बा के नेतृत्व में एक सेना उज़ किन्त की ओर भेज दी । अब क्या था । सुल्तान अहमद तम्बल ने अन्दी- जान पर आक्रमण करने के लिए कमर कस ली । वह अपनी सेना के साथ चल पड़ा। दूसरी ओर से अहमद बेग व सुलतान मुहम्मद खान के साथ ५००० से ६००० सैनिक कसान की ओर बढ़े और उन्होने दुर्ग पर घेरा डाल दिया । २


 बाबर को जैसे ही इस आक्रमण की सूचना मिली, वैसे ही कुछ सैनिकों के साथ वह शत्रु का सामना करने के लिए अन्दीजान से निकल पड़ा। अस्सी की ओर बढ़कर उसने दुर्ग की रक्षा के लिए प्रबन्ध किए और उसके पश्चात् वह कसान की ओर बढ़ा । बाबर के आगे बढ़ने की सूचना पाकर सुल्तान


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ११४; अरस्किन, "हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर एण्ड हुमायू” भाग १, पृ० १२४-५, फिरिश्ता, तारीख-ए- फिरिश्ता" (मूल ग्रन्थ), पृ० १९४; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया," भाग २, पृ० ११-१३।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ०, ११६; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९४, "ब्रिग्स, दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया", भाग २, पृ० १३ ।

मुहम्मद खान तथा अहमद बेग दोनों ने कसान के दुग पर से घेरा उठा लिया और स्वदेश लौट गए।


 इसी बीच सुलतान अहमद तम्बल को जब यह सूचना मिली कि बाबर अन्दीज़ान से कसान की ओर बढ़ रहा है, तो वह भी अपनी सेनाओं के साथ सुलतान मुहम्मद खान व अहमद बंग की सहायता के लिए चल पड़ा। किंतु जब वह नदी को पार कर चुका तो उसे यह सूचना प्राप्त हुई कि बिना उसकी प्रतीक्षा किए हुए सुल्तान मुहम्मद अपनी सेनाओं के भाग खड़ा हुआ । सुल्तान अहमद अब परेशानी मील साथ पड़ गया। कसान से दो • उसने पड़ाव डाला और वहीं रुक गया। बाबर ने उचित अवसर दूर देख कर उस पर आक्रमण करने का विचार किया, किन्तु वएस लधारी के सुझाव के कारण वह दूसरे दिन उस पर आक्रमण न कर सका। अवसर पाकर उसी रात्रि सुल्तान अहमद तम्बल ने वहाँ से भाग कर अरचियान के दुर्ग में शरण ली। दूसरे दिन बाबर ने जब शत्रु को मैदान में न पाया तो उसे बड़ी निराशा हुई । वह उसका पीछा करते हुए अरचियान पहुँचा। बाबर ने अरचियान के दुर्ग पर घेरा डाला और सुलतान अहमद तम्बल को शक्तिहीन करना प्रारम्भ किया ।


 अभी घेराबन्दी चल रही थी कि अन्दीज़ान के निकट के दो गांवों मचान व अवीगुर के मुखिया संयद् यूसुफ ने अनेक मुग़ल परिवारों के साथ • विद्रोह कर दिया और वे सब तम्बल को सहायता देने के लिए चल पड़े। उन्होंने तम्बल को यह कहला भेजा कि वह दुर्ग से निकल आवे और उनसे आकर मिल जाए । तम्बल ने ऐसा ही किया और वेशखरान के दुर्ग में जाकर शरण ली। बाबर व सुल्तान अहमद तम्बल की सेनाओं में संघर्ष चल ही रहा था कि अली दोस्त तग़ाई और कम्बर अली, जो कि इस संघर्ष से तंग आ चुके थे, ने बिना बाबर से परामर्श लिए हुए, शत्रु से सन्धि की बात प्रारम्भ कर दी । बाबर उनके प्रभाव से परिचित था । अतः वह चुप रहा। अन्त में संधि की शर्तों के अनुसार यह तय हुआ कि सर्र नदी के उस पार के प्रदेश अल्सी व कसान आदि जहाँगीर मिर्ज़ा के हाथों में रहेंगे, अन्दीज़ान की ओर के प्रदेश बाबर के हाथों में रहेंगे, सर्र नदी ही दोनों। के राज्यों के बीच की सीमा होगी, तथा जब बाबर समरकन्द को पुनः वापस

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 ले लेगा तो उसका कोई भी अधिकार अस्सी व अन्दीजान पर न रहेगा।" सन्धि की शर्तों बाबर को यद्यपि तनिक भी पसन्द न थीं, चूंकि वह पैतृक- साम्राज्य के विभाजन के पक्ष में न था, फिर भी उसे अली दोस्त तग़ाई व कम्बर अती की बात माननी पड़ी। वह उनकी इच्छा के विरुद्ध जा भी नहीं सकता था, क्योंकि उनकी सहायता की उसे इस समय बड़ी आवश्यकता थी । यह सन्धि फरवरी १५०० ई० में हुई। सुल्तान अहमद तम्बल और जहाँगीर मिर्ज़ा बाबर से मिलने के लिए आए। उनके पश्चात् जहांगीर मिर्ज़ा अस्सी की ओर और बाबर अन्दीज्ञान की ओर चला गया ।


 इस प्रकार बाबर के उमराव वर्ग के दो गुटों में संघर्ष का प्रथम चरण समाप्त हुआ । इस अवधि में मंगोल व समरकन्दी उमराव में बढ़ते हुए विरोध की झलक हमें मिलती है। दोनों ही गुटों ने बाबर और जहाँगीर मिर्ज़ा का प्रयोग पांसे के रूप में किया। इस आन्तरिक वैमनस्य के कारण तैमूरी राजकुमारों की शक्ति दिन प्रति दिन क्षीण होती गई और ईरानियों व उज़बेगों की शक्ति बढ़ती गई और वे फरसाना राज्य की कमजोरियों का लाभ उठाने लगे ।


 अभी दोनों गुटों के दांव-पेंच से उसे तनिक भी अवकाश न मिला था कि उसे पुनः अपने ही शिविर में एक शत्रु का सामना करना पड़ा। दोनों भाइयों में सन्धि स्थापित कराने के कारण अली दोस्त तगाई अपने को बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगा था । अन्दीजान के गवर्नर के रूप में भी उसने अपने को बहुत ही शक्तिशाली बना लिया था तथा लोगों से बुरी तरह व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया था। अब सुल्तान अहमद तम्बल' की सहायता के बल पर उसने बाबर के परिवार पर अपना नियन्त्रण स्थापित


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पु०, ११८ - १९; फिरिश्ता, “तारीख-ए- फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९४; ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ़ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया," भाग २, पृ० १३ ।


 २. सन्धि हो जाने के पश्चात् बाबर ने खलील को छोड़ दिया। इसी प्रकार सुलतान अहमद तम्बल ने शीरीन तग़ाई, मुहम्मद दोस्त, मीर शाह कुचीन, सैय्यद क़रा बेग, जिन्हें कि उसने बन्दी बना लिया था मुक्त कर दिया- बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ११९ ।

मुग़ल सम्राट बाबर


 करने की चेष्टा की। उसने बिना किसी कारण निजामुद्दीन को नौकरी से निकाल दिया, इब्राहीम सारु व वैस लघारी को पकड़ कर उनकी सम्पत्ति और उनकी जागीरें छीन ली तथा उन्हें भी नोकरी से निकाल दिया । क़ासिम वेग के प्रति भी उसने इसी प्रकार का व्यवहार किया। यह देखकर बाबर को दुःख हुआ क्योंकि उपरोक्त सभी अधिकारियों ने बुरे समय में उसकी सहायता की थी। ये सभी व्यक्ति उसके विश्वास पान थे। दिनों पश्चात अली दोस्त तग़ाई के पुत्र मुहम्मद दोस्त ने अपने पिता का अनु करण करते हुए अपने को शाह मानना प्रारम्भ किया, लोगों को खुलनाम वह दरबार में बुलाने लगा तथा सुल्तानों की भाँति उसने कारखाने भी रखने प्रारम्भ कर दिए। इस प्रकार पिता और पुत्र दोनों ने, जो कि मुगल थे और जो कि उसकी दादी से सम्बन्धित थे, शासन करने लगे। यह सव देख कर भी बाबर कुछ न कर सका और न ही उनके विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही ही कर सका । कारण यह कि उसके पास न इतने साधन थे और न इतने सैनिक ही कि उनकी सहायता से वह इन मुग़लों को ठिकाने लगा दे । न ही उसकी दादी उसकी इन कार्यवाहियों को पसन्द करती । संग्रह वर्ष की आयु में इस प्रकार अपने आत्म-सम्मान पर चोटें लगते देख कर भी वह शान्त रहा और ऐसे अवसर की खोज में रहा जिससे कि शीघ्र से शीघ्र अली दोस्त तग़ाई व मुहम्मद तग़ाई से बदला लेकर उन्हें ठिकाने लगा सके।


 मुग़लों के इस व्यवहार ने उसे निराश कर दिया। अपनी निराशाओं को दूर करने के लिए तथा दुःख को भूल जाने के विचार से मार्च, १५०० ई० में उसने सुल्तान अहमद मिर्ज़ा की पुत्री आयशा सुल्तान बेगम से विवाह किया । किन्तु इससे भी उसे सुख न मिला। उसकी मानसिक चिन्ताएँ उसे निरन्तर सताती रहीं।र लगभग इसी समय उसे बाबुरी नामक एक तरुण से


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० ११९-२०; फिरिश्ता, "तारीख-ए- फिरिश्ता” (मू० ग्रन्थ) पृ० १९५; ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १३ ।


 १२. बाबर ने लिखा है कि, "यह मेरे वैवाहिक जीवन का प्रथम अवसर था। यद्यपि मुझे उसके प्रति (आयेशा सुल्तान बेगम कम स्नेह न था किन्तु लज्जा व सुशीलता के कारण मैं उसके पास १०, १५ अथवा २० दिन में एक बार जाता

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 प्रेम हो गया और इस प्रेम के उन्माद में वह एक दीवाने की तरह कविताएँ लिखने लगा ।" इस सन्दर्भ में बाबर ने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है कि, "इश्क एवं मुहब्बत के उत्साह एवं जवानी की मस्ती में नंगे सिर तथा नंगे पाँव, गलियों , छोटे-छोटे बड़े-बड़े बाग़ों में मारा मारा फिरा करता था। न मैं मित्र की चिन्ता करता था और न शत्रु की, न अपने की और न पराये की । २


 था। बाद में जब मेरा उसके प्रति स्नेह समाप्त गया तो मेरी लज्जा भी बढ़ गई, यहाँ तक कि मेरी माता खानम मुझे जबरदस्ती डांट-फटकार कर महीने अथवा ४० दिन में एक बार अपराधी के समान उसके पास भेजती थी।" बाबरनामा (अनु०) भाग १ , पृ० १२०; रिज़वी, “मुग़ल- "कालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२८ ।


 १. इस सम्बन्ध में बाबर ने लिखा है कि, "इन दिनों शिविर के बाज़ार में बाबुरी नाम का एक तरुण रहता था। उसके और मेरे नाम में एक विचित्र अनुरूपता थी। इससे पूर्व मेरी तबियत किसी पर न आई थी और न किसी से प्र ेम तथा इश्क की बातें सुनता था और न कहता था। इस अवसर पर मैने फारसी के कुछ शेरों की रचना की ।" बाबरनामा, (अनु० ) भाग १, पृ० ५२९ ।


 “यदि कभी संयोग से बाबुरी मेरे सामने आ जाता तो मैं लज्जा एवं मर्यादा के कारण बाबुरी की ओर सीधी दृष्टि भी न डाल सकता था । उससे मेल-जोल तथा वातचीत तो बड़े दूर की बात रही । मैं उन्माद एवं झेंप में उसके आने पर उसे धन्यवाद भी न दे पाता था, तो उसके चले जाने की शिकायत ही किस प्रकार कर सकता ? मुझमें इतनी शक्ति भी तो न थी कि उसका उचित रूप से स्वागत ही कर लेता। एक दिन प्रम के उन्माद में मैं मित्रों के साथ गली में जा रहा था । अचानक मेरा उसका सामना हो गया । शॅप एवं घबराहट में मेरी यह दशा हो गई कि मैं उससे आँख भी न मिला सका और न एक शब्द कह सका ।" बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० २०; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर) पृ० १२०-२१; रिज़वी , "मुग़ल कालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२९ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२१; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५२९ ।

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 इन्हीं क्षणों में बाबर को पुनः राजनीति ने अपनी ओर घसीट लिया । तमूरी राज्यों में राजनीति पिछले कुछ वर्षों से निरन्तर करवट बदल रही थीं और ऐसी स्थिति में किसी भी महत्वाकांक्षी, साहसी व्यक्ति, चाहे वह एक राजकुमार हो या उमराव शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करना कठिन था। बुखारा में जहां इस समय सुल्तान अली मिर्ज़ा का शासन था, उथल-पुथल मची हुई थी। वहां तरखानियों ने, जो कि सुल्तान से सम्बन्धित थे, न केवल राज्य की आय पर अपना अधिकार जमा लिया था, वरन् राज्य को भी अपने पुत्रों एवं सम्बन्धियों में बांट दिया था। इस प्रकार सुल्तान अली मिर्ज़ा को उन्होंने दूध की मक्खी की तरह निकाल कर शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अपने कुछ घरेलू अमीरों की सहायता से सुल्तान अली मिर्जा ने पड्यन्त्र रचकर अपनी खोई हुई शक्ति को वापस लेने का विचार भी किया । किन्तु षड्यन्त्र की वू तरखानियों के नेता, मुहम्मद मजीद तरखान, को लग गई ।' तुरन्त ही उसने ख्वाजा हुसैन, क़रा बारलस तथा सालेह मुहम्मद आदि को अपने साथ लिया और बुखारा से समरकन्द की ओर कूच किया। मुहम्मद मज़ीद तरखान के चले जाने से सुल्तान अली मिर्ज़ा की परेशानी कुछ कम हुई । परन्तु थोड़े ही दिनों पश्चात् उसे दूसरी परेशानी का सामना करना पड़ा । लगभग इसी समय उत्तर की ओर से उसके छोटे भाई वएस मिर्ज़ा ने मुग़लों की एक सेना के साथ, जिसमें कि मुहम्मद हुसैन दोघुलत तथा अहमद बेग आदि व्यक्ति थे, समरकन्द में प्रवेश किया । सुलतान अली मिर्ज़ा के अधिकारियों, हसन व हिन्दू बेग ने इस अवसर पर उसका साथ न दिया और शत्रु से जाकर वे मिल गए। इस प्रकार समरकन्द में वएस मिर्ज़ा की स्थिति सुदृढ़ हो गई । मुहम्मद मजीद तरखान ने वएस मिर्ज़ा को अपने पास बुलाया और उससे मिल कर सुल्तान अली पर आक्रमण करने की योजना पर विचार-विमर्श किया। किन्तु इस बातचीत से कोई भी लाभ न हुआ। मुगलों ने मुहम्मद मजीद तरखान पर अकस्मात आक्रमण कर उसे बन्दी बनाने की चेष्टा की पर वह भाग निकला। सुल्तान अली मिर्ज़ा


 १. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १२१; फिरिश्ता ने तरखानों के नेता का नाम मुहम्मद मुराद तरखान दिया है, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९५ ।

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 को जैसे ही उसके भागने की सूचना मिली, उसने तुरन्त समरकन्द की ओर कूच किया और यार इलाका के निकट वेएस मिर्ज़ा को परास्त कर उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया। इसके पश्चात् वह समरकन्द वापस लौट गया । १


 यह देखकर कि मुग़लों के खान सुल्तान महमूद खान से सुल्तान अली के विरुद्ध कोई भी सहायता उसे नहीं मिल सकती है और न सुल्तान अली मिर्ज़ा से ही उसका कोई समझौता हो सकता है, मुहम्मद मजीद तरखान ने अन्त में बाबर के पास मीर मुग़ल को भेजा और उसके द्वारा यह कहलवाया कि समरकन्द को विजय करने में वह उसकी पूरी-पूरी सहायता करेगा । बाबर तो ऐसे अवसर की ताक में था ही । उसने तुरन्त अपने भाई जहाँगीर मिर्ज़ा से सन्धि की और इस बात पर तनिक भी ध्यान न देते हुए कि तम्बल के भाई खलील ने उस के दुर्ग को अपने हाथों में ले लिया है बाबर समरकन्द की ओर चल पड़ा। मार्ग में मर्गिनान में उसे कुचबेग व उसके भाई मिले और उन्हें साथ ले कर वह अफसेरा की ओर बढ़ा। मार्ग में कासिम बेग व उसके साथी आकर उससे मिल गए । लगभग इसी समय बाबर को सूचना मिली कि सुल्तान अहमद तम्बल ने उसके पैत्रिक राज्य पर आक्रमण कर अन्दीज़ान व उसके आसपास के प्रदेशों में स्थित सभी दुर्गों व सूबों को जीत लिया है। इस सूचना ने उसे तनिक भी विचलित न होने दिया । समरकन्द की अपेक्षा उसकी दृष्टि में अन्दीजान के छोटे से राज्य का कोई महत्व न था । अतएव वह आगे बढ़ता ही गया । जब वह खान युर्ती पहुँचा तो उसकी भेंट वहाँ मुहम्मद मजीद तरखान व समरकन्दी के अमीरों से हुई। उन्होंने उसे बताया कि समरकन्द में यदि उसे ख्वाजा यहिया की सहायता मिल जाती है तो समरकन्द विजय करने का कार्य बहुत ही सरल हो जायेगा ।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२१-२२ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२२; फिरिश्ता 'तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९५ ।


 ३. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १०५; फिरिश्ता, "तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९५; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज़ आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १४।

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 भेजा अतएव इस आशय से बाबर ने ख्वाजा यहिया के पास एक दू ख्वाजा की ओर से उसे कोई आश्वासन न मिला। इस पर बाबर खानी से बढ़ कर दर-ए-गाऊ आया जहाँ से उसने पुनः ख्वाजा के पास एक व्यक्ति भेजा। इस बार ख्वाजा ने उसकी सहायता करने का आश्वासन दिया। बाबर का हौसला बढ़ गया और वह तुरन्त आगे बढ़ा । किन्तु जब कि वह दर-ए- गाऊ नहर के पास पड़ाव डाले हुए पड़ा था, तभी उसका एक उमराव सुल्तान महमूद दुल्दी, उसके शिविर से भाग कर सुल्तान अली मिर्ज़ा की सेवा में जा पहुंचा और उसने उसे बाबर व ख्वाजा यहिया की सांठ-गांठ के बारे में बता दिया। सुल्तान अली मिर्ज़ा ने तुरन्त दुर्ग की रक्षा का प्रबन्ध किया। वह सावधान हो कर शत्रु की प्रतीक्षा करने लगा । बाबर की आशाओं पर पानी फिर गया और वह तुरन्त पीछे हट कर दर-ए-गाऊ में ठहर गया । । किन्तु


 अभी वह दर-ए-गाऊ में ठहरा ही हुआ था कि यहाँ उसके कुछ पुराने उमराव उससे आकर मिल गए । इन व्यक्तियों में से थे, इब्राहीम सारु और मुहम्मद यूसुफ तथा अन्य व्यक्ति जिन्हें कि आपसी वैमनस्यता के कारण अली दोस्त तग़ाई ने अन्दीजान से भगा दिया था। कुछ ही दिनों पश्चात् अली दोस्त तग़ाई व उसका पुत्र भी अन्दीज़ान से भाग कर यहाँ आ पहुँचे । अपने शत्रुओं को बाबर के शिविर में देखकर उन्हें विस्मय हुआ और उन्होंने तुरन्त बाबर से अन्यत्र जाने की आज्ञा माँगी। यह सोच कर कि कहीं फिर अली दोस्त तग़ाई उसके शिविर में कोई समस्या न उत्पन्न कर दे, बाबर ने उसे अनुमति दे दी । इस प्रकार पिता व पुत्र दोनों ही अन्दीज़ान वापस लौट गए और तम्बल से मिल गए ।'


 लगभग इसी समय बाबर ने ग़ौरी बारलस को बुखारा भेजा । वह यह जानना चाहता था कि वहाँ की राजनीतिक दशा कैसी है। ग़ौरी बारलस से ही उसे मालूम हुआ कि समरकन्द को विजित करने के लिए उसके मार्ग में एक और प्रतिद्वन्द्वी है । उसका नया प्रतिद्वन्द्वी था, उजवेगों का नेता शंबानी


 १. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १२५ ।


 २. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १२५; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९५; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज़ आफ मुहम्मडन पावर इन इण्डिया” (भाग २), पृ० १४ । दि

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 खान जो कि समरकन्द पर आक्रमण करने की योजना बना ही रहा था और तैमूरी वंश के सभी शासकों को मिट्टी में मिला देना चाहता था। इसके पूर्व कि बाबर समरकन्द पर आक्रमण कर सकता, शैवानी खान अपनी सेना को लेकर उस ओर बढ़ा और उसने समरकन्द पर आक्रमण कर दिया। बहुत संघर्ष के पश्चात् उसने समरकन्द को अन्त में जीत ही लिया ।" हुआ यह कि सुल्तान अली मिर्ज़ा को अधिक समय तक बाह्य आक्रमणकारियों का तथा तर- खान अमीरों का सामना करना पड़ा । उसकी शक्ति क्षीण हो गई । शवानी ख़ान के विरुद्ध सफलता की आशा न कर सकने पर उसकी माँ जुहुरी बेगी आगा ने शैबानी खान के पास यह प्रस्ताव भेजा कि वह समरकन्द का दुर्ग इस शर्त पर समर्पित करने के लिए तैयार है कि वह उससे शादी कर लेगा तथा उसके पुत्र सुल्तान अली मिर्ज़ा को पैतृक साम्राज्य का कोई भाग शासन करने के लिए देगा। शवानी खान ने ये शर्तें स्वीकार कर लीं और दुर्ग को अपने हाथों में लेने के लिए वह बुखारा से रवाना हुआ ।


 इसी बीच ख्वाजा यहिया ने बाबर को शीघ्रातिशीघ्र समरकन्द आने के लिए लिखा पर बाबर ने आने में देरी की। बाबर को ख्वाजा यहिया पर विश्वास


 १. अहसान-उत-तवारीख (अनु०), पृ० २०; " हबीब-उस- सियर", भाग ३, खण्ड ३, पृ० २९९-३००, अरस्किन, "हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर एण्ड हुमायूं," भाग १, पृ० १४० फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९५; ब्रिग्स "दि हिस्ट्री आफ दी राइज आफ दी मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" (भाग २), पृ० १५ ।


 २. बाबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० १२७; किन्तु हसन-ए-रुमलू ने अपनी पुस्तक अहसान-उत- तवारीख में लिखा है कि जिस समय शंबानी खान समर- कन्द के दुर्ग पर घेरा डाले हुए पड़ा था, उसे मालूम हुआ कि स्वाजा यहिया, जिसके हाथ में शहर हैं, अपने स्वामी सुल्तान अली मिर्ज़ा को बुरी तरह सता रहा है। अतएव उसने एक पत्र सुल्तान अली मिर्ज़ा के पास भेजा और उससे कहा कि वह उसका साथ दे। इसी प्रकार उसने उसकी माँ के पास भी पत्र भेजा और उससे कहा कि वह उससे विवाह करने के लिए तैयार है। माँ और बेटे उसकी बात में आ गए और इस प्रकार सुल्तान अली खान की मृत्यु हो गई । “अहसान-उत- तवारीख" (अनु०), पृ० २१ । ७

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 न था और वह यह चाहता था कि पहले वह उसके पक्ष में घोषणा कर दे तब वह आगे बढ़े। बाबर और समरकन्द के दुर्ग के अन्दर के लोगों के बीच पहुँच कर शैबानी यह वार्ता चल ही रही थी कि बाबर को शंबानी खान के बढ़ने की सूचना मिली। वह तुरन्त उश की ओर चला गया। समरकन्द ज्ञान एक उद्यान में ठहरा। बिना अपने मंत्रियों तथा अधिकारियों को बताए हुए, सुल्तान अली मिर्जा शवानी खान से मिलने आया। शेवानी खान ने स्वाजा यहिया शैबानी खान उसका स्वागत किया ।' ज्यों ही सुल्तान अली मिर्जा व शैबानी खान की भेंट की खबर फैली, चारों ओर सनसनी फैल गई । से मिलने के लिए गया । शैबानी ने उसका भी स्वागत किया, परन्तु उसके व्यवहार से असन्तुष्ट होकर उसने उससे खुरासान जाने के लिए कहा । ख्वाजा यहिया इस प्रकार खुरासान की ओर चल पड़ा । किन्तु मार्ग में कुछ उज़बेगों ने उसे तथा उसके दो पुत्रों, ख्वाजा मुहम्मद जकरिया तथा ख्वाजा बेगी को मार डाला। २ सुल्तान अली मिर्ज़ा को भी अपने किए पर पश्चात्ताप हुआ । उसे गद्दी पर से उतार दिया गया और उज़बेगों ने उसे मार डाला। इसी प्रकार जुहर बेगी आग़ा को भी वह सम्मान न मिल सका, जिसकी वह आशा कर रही थी । ४


 ॐ समरकन्द में जो कुछ उज़बेगों ने किया उसकी सूचना बाबर को केश


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२७; " हबीब उस सियर" रिजवी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० १३०; अहसान-उत- तारीख तथा अन्य समकालीन ग्रन्थ इस घटना पर अधिक प्रकाश नहीं डालते हैं ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२८; " हबीब उस सियर" भाग ३, खण्ड ३, पृ० ३०२-३ अरस्किन, 'हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर एण्ड हुमायूँ" भाग १, पृ० १४१ ।


 ३. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १२८; " हबीब-उस- सियर" भाग ३, खण्ड ३, पृ० ३०३ ।


 ४. बाबर ने लिखा है शैबानी खान ने उसकी तनिक भी चिन्ता न की, अपितु, उसे कनीज़ तथा रखेल स्त्री की भी श्रेणी में न रखा" (अनु०) भाग १, पृ० १२८; रिजवी, “मुग़लकालीन भारत” (बाबर), पृ० ५३० ॥ - बाबर नामा

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 में मिली। शैबानी खान की सफलता से भयभीत होकर बाबर केश से हिसार की ओर रवाना हुआ। मार्ग में मुहम्मद मजीद तरखान, समरकन्दी उमराव तथा उनके परिवार उससे आकर मिल गए। जब बावर चरानियान पहुँचा तो मुहम्मद मजीद तरखान ने उसका साथ छोड़ दिया और वह कुन्दुज व हिसार के शासक खुसरो शाह की सेवा में चला गया। बाबर के पास अब केवल दो या तीन सौ सैनिक रह गए थे। किसी कार्य में भी सफलता पाने की अब उसे आशा न रही। उसने अपने को समस्याओं और कठिनाइयों से घिरा हुआ पाया । न उसके पास राज्य था, न अपना देश और न साथी । उसे यह भी नहीं ज्ञात था कि उसे कहां ठहरना है अथवा कहाँ जाना है । उसके समक्ष केवल खुसरो शाह के राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में भटकने के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष न था । इन्हीं दिनों उसने अन्दीजान जाकर अपने भाग्य को आजमाने का विचार किया, अपने मामा सुल्तान अहमद के पास जाने की बात भी सोची और यह भी सोचा कि क्यों न अपने खोये हुए पैतृक राज्य को उसकी सहायता से पुनः प्राप्त करने की चेष्टा की जाय । किन्तु सारे विचार व्यर्थ के थे । अन्दीजान में जहाँगीर मिर्जा तथा सुल्तान तम्बल अब भी शक्तिशाली थे, अतएव उन्हें युद्ध में परास्त करना कोई सरल कार्य नहीं था और न ही उसके लिए सुल्तान अहमद खान के पास तक पहुँचना आसान था । कुछ भी हो अन्त में उसने अपने साधनों का प्रयोग कर खोए हुए राज्य को पुनः विजित करने का संकल्प किया। हिसार के उत्तर- पश्चिम में उसने पहाड़ियों को पार किया तथा अनेक कठिनाइयों को झेलता हुआ वह किसी तरह अपने शत्रुओं से बचता हुआ काम नामक स्थान पर पहुँचा । यहाँ रुक कर उसने उज़वेगों तथा समरकन्द की आन्तरिक दशा के सम्बन्ध में तरह-तरह की जानकारी प्राप्त की ।


 १. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १२८; 'फिरिश्ता' के अनुसार वह केश से कोहज़र की ओर रवाना हुआ— 'तारीख-ए-फिरिश्ता', (मू० ग्रन्थ) पृ० १९५; ब्रिग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहमडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १५,


 २. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १२८-९; फिरिश्ता, "तारीख-ए- फिरिश्ता " ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९५ ।

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 उसे बताया गया कि समरकन्द की विजय के पश्चात् शेवानी खान के अधिकारी शहर छोड़कर अन्य स्थानों को चले गए हैं, इब्राहिम तरखान, शीराज के दुर्ग में जमकर बैठा हुआ है, ख्वाजा-ए-दीदार में कम्बर अली तथा अब्दुर कासिम कोहर उज़बेगों के साथ न रह सके अतएव वे यार- ईलाक की ओर चले गए हैं, जहाँ कि उन्होंने दुर्ग अपने हाथों में ले लिए हैं। ऐसी स्थिति में बाबर ने समरकन्द पर आकस्मिक आक्रमण करने का निश्चय किया। वह शीघ्रातिशीघ्र उस ओर बढ़ा।" बाबर को यह आशा थी कि काम के इलाके के स्वामी उसके साथ उसी प्रकार की उदारता दिखाएगा जिस प्रकार उसने सुलतान मसऊद मिर्ज़ा, सुलतान हुसैन मिर्जा तथा वैसन्गर मिर्ज़ा के प्रति दिलाई थी । किन्तु उसने ऐसा न कर बाबर के पास केवल घटिया श्रेणी के घोड़े भेजे। इसी प्रकार खुसरो शाह ने भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार किया ।र अपमान को सहन करता हुआ, कठिनाइयों का सामना करता हुआ, और यह देखते हुए कि उसके साथी धीरे-धीरे उसका हाथ छोड़ रहे हैं, बाबर समरकन्द की ओर बढ़ता ही गया । यह सोचकर कि केशतूद में उज़बेग जम हुए हैं, उसने उसी ओर बढ़ना उचित समझा। केशतूद, जो कि समरकन्द के निकट है, को विजय कर वह उसका सैनिक चौकी के रूप में प्रयोग करना चाहता था । किन्तु जब वह केशतूद पहुँचा तो यह देखकर वह विस्मित हुआ कि वहाँ उज़बेग नहीं हैं और वह स्थान उजाड़ पड़ा हुआ है। केशतूद को पार करते हुए वह आगे बढ़ा और उसने कोहिक नदी पार की। तदुपरान्त उसने क़ासिम कुचीन को रबाते ए-ख्वाजा पर आक्रमण करने के लिए भेजा और स्वयं यह यार - ईलाक की ओर रवाना हुआ । बाबर ने अपने अग्रिम


 १. बाबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० १२९; हसन-ए-समुलू के अनुसार ख्वाजा अब्दुल मकारम, जो कि अबुल जलील मुग़लानी के परिवार का एक सदस्य था, ने बाबर के पास एक दूत भेजा और उसके द्वारा यह कहलवाया कि वह शीघ्रातिशीघ्र समरकन्द आ जाए और उसके पहुँचने पर उसे दुर्ग में प्रवेश करवा लेगा इसीलिए बाबर अपने २४० साथियों के साथ उस ओर चल पड़ा – अहसान-उत-तवारीख (अनु०), पृ० २१ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३०; रिज़वी, “मुग़ल कालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३४ ।

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 दल को यार ईलाक के दुर्ग को विजित करने के लिए भेजा, किन्तु उसके सैनिक को दुर्ग लेने में सफलता न प्राप्त हुई और वे यार- ईलाक के निकट पुनः बाबर से आकर मिले। बाबर के पास इस समय केवल २४० से अधिक व्यक्ति न थे।"


 इससे पूर्व कि हम बाबर व शैबानी खान के बीच होने वाले युद्ध का वृतान्त यहां दें, हमें दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की स्थिति के विषय में भी जानकारी कर लेनी चाहिए । सुल्तान अहमद तम्बल, कजून हसन तथा अली दोस्त तगाई के विद्रोह पैतृक साम्राज्य के विभाजन तथा वहाँ से निकाल दिए जाने के कारण बाबर शक्तिहीन हो गया था। अब तक वह अपने राज्य को पुनः प्राप्त न कर सका था। इसके अतिरिक्त उसके मामा व चाचाओं ने भी उसे अधिक से अधिक कष्ट पहुँचाए। उसका राज्य इस समय शत्रुओं के हाथ में था, उसका कोई भी मित्र न था और न उसके पास कोई ऐसा स्थान था, जहाँ वह सिर छिपा सकता। न ही उसके पास सैनिक थे और न ही विश्वसनीय उमराव, जिनकी सहायता से वह स्वप्नों को साकार कर सकता । उसके २४० साथियों में किसी में न उत्साह था और न उनमें इतनी शक्ति ही थी कि अन्त तक वे उसका साथ दे सकते। यदि ऐसी परिस्थिति में अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह भाग्य का पासा फेंक कर अपने जीवन के साथ जुआ कदापि न खेलता । किन्तु बाबर को अपने ऊपर विश्वास था। ईश्वर पर भरोसा रखकर वह निरन्तर समरकन्द की ओर बढ़ता गया। बिना एक बार युद्ध में हारे हुए वह दूसरा युद्ध कैसे जीत सकता था, यही सोचकर उसने आगे बढ़ना प्रारम्भ किया था। उसकी अपेक्षा उसका प्रतिद्वन्द्वी शैबानी खान मध्य एशिया का खूँखार व्यक्ति था । उसके पास ७००० से ८००० तक सैनिक थे । समर- कन्द में उसके ५००-६०० सैनिक थे। प्रत्येक दृष्टि से बाबर से वह कहीं अधिक शक्तिशाली था । किन्तु जिस प्रकार उसने ख्वाजा यहिया, सुलतान अली मिर्ज़ा, जुहरी बेगी के साथ व्यवहार किया, उससे समरकन्द की जनता क्रुद्ध हो गई । समरकन्दियों में उसके विरुद्ध प्रतिशोध की भावना प्रज्वलित हुई ।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३०, रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३४; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मृ० ग्रन्थ) पृ० १९३; विंग्स, "दि हिस्ट्री आफ दि राईज़ आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" (भाग २), पृ० १५० ।

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 शवानी खान के लिए यह कठिन हो गया कि किस प्रकार वह समरकन्दियों को अपने पक्ष में करे और उनकी सहायता से बाबर का सामना करे ।


 अन्य शब्दों में बाबर के पक्ष में केवल एक ही बात थी। समरकन्द के निवासी उसे हर प्रकार की सहायता देने को तत्पर थे। जब उसे समरकन्दियों की उजवेगों के प्रति घृणा के बारे में ज्ञात हुआ तो उसका साहस और भी बढ़ गया। उसने अपने उमराव से विचार-विमर्श किया। तदुपरान्त यार ईलाक से खान-ए-युर्ती की और वह बढ़ा किन्तु दुर्ग के अन्दर के लोगों को चौकन्ना देखकर वह पुनः यार- ईलाक वापस लौट आया। यार ईलाक से वह अस्फीदिक पहुँचा। एक दिन अस्फीदिक के दुर्ग में जब वह दोस्त-ए-नासिर, न्यून को कुल- दाश, ज्ञान कुली करीम दाद, शेख दरवेश, मीरीम-ए-नासिर के साथ बैठा हुआ था और सभी प्रकार की बातें हो रही थी, उसने कहा " बताओ ईश्वर की कृपा से हम समरकन्द पर अधिकार जमा सकेंगे ? किसी ने कहा, हम गर्मियों में उस पर अधिकार कर लेंगे – इस समय शरद् ऋतु का अन्त था।" कुछ लोगों ने कहा, "एक मास में", "४० दिन में" कुछ ने कहा, "२० दिन में" न्यून काकूलदाश ने कहा, "हम १४ दिनों में अधिकार जमा लगे ।" ईश्वर ने उसकी बात सच कर दी । हमने समरकन्द पर ठीक १४ दिन में अधिकार जमा लिया । इसी प्रकार बाबर लिखता है कि, “उन्हीं दिनों में मैंने एक


 १. हमने अपने समस्त बेगों और अन्य अधिकारियों से विचार-विनिमय के उपरान्त यह निश्चय किया कि क्योंकि शैबानी खां ने समरकन्द पर हाल में अधिकार जमाया है, अतः समरकन्द के निवासयों का न तो उसके प्रति कोई स्नेह होगा और न उसका स्नेह वहाँ के निवासियों के प्रति हुआ होगा । यदि कुछ किया जा सकता है तो वह इसी समय । यदि समरकन्द के निवासी हमें कोई सहायता न भी देंगे तो वे उजबेगों की ओर से हमसे युद्ध भी न करेंगे । यदि एक बार समरकन्द हमारे हाथ में आ जाय, तो फिर जो होना है वह होगा ।" देखिए, बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३१; रिज़बो: "मुग़ल कालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३४-५; अरस्किन - " हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर एण्ड हुमायूं, भाग १, पृ० १४५ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३२; " हबीब उस सियर", भाग ३ खण्ड ३, पृ० ३०२; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३५;

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 आश्चर्यजनक स्वपन देखा । मैंने देखा कि मानों हज़रत स्वाजा उबैदुल्लाह एहार आ रहे हैं। मैं उनके स्वागतार्थं आगे बढ़ा । ख्वाजा मेरे पास आकर बैठ गए। लोगों ने उनके सामने दस्तरख्वान बिछाया। संभवतः सफाई की ओर उचित ध्यान न दिया गया था, इससे हज़रत ख्वाजा कुछ खिन्न दृष्टिगत हुए। मुल्ला बाबा ने यह देखकर मेरी ओर संकेत किया। मैंने भी सकेत में उत्तर दिया कि दस्तरख्वान बिछाने वाले की भूल है। स्वाजा समझ गए और उन्होंने मेरी बात मान ली। जब वे उठ कर खड़े हुए तो मैं उन्हें पहुंचाने गया । उस घर के बड़े कमरे में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्होंने मेरा दाय • अथवा बार्या बाजू पकड़ कर उठाया, यहाँ तक कि मेरा एक पांव धरती से उठ गया उन्होंने मुझ से तुर्की में कहा, "शेख मसलहत ने मुझे समरकन्द प्रदान कर दिया है। इस स्वप्न को पुण्य शकुन समझकर दो-तीन दिन उपरान्त बाबर अस्फीदिक से वशमन्द के दुर्ग पर पहुंचा । उसी दिन आधी रात को वशमंद में चलकर वह ख्यावात के मज़ाक नामक पुल पर अपने सैनिको के साथ पहुँचा । मग़ाक नामक पुल पर बाबर ने ७०-८० सैनिको के एक दल को गोरे आशिका के सामने किले की दीवार पर सीढ़ियाँ लगाकर किले के अन्दर प्रवेश कर द्वार पर अधिकार करने तथा उसके पास एक व्यक्ति द्वारा इस कार्य में सफलता पाने की सूचना देने के लिए भेजा। ये सैनिक सीढ़ियां लगा कर बिना किसी आपत्ति के दुर्ग में घुस गए और दुर्ग में प्रवेश करते ही उन्होंने दुर्ग रक्षक फाजिल तरख़ान पर आक्रमण कर उसे मार डाला और दुर्ग के द्वार खोल दिए। जैसे ही बाबर को अपने सैनिको की इस सफलता की सूचना प्राप्त हुई वह अहमद क़ासिम तथा अबुल क़ासिम कोहबर के ३०-४० पारजनो को लेकर दुर्ग की ओर बढ़ा। समरकन्द के निवासी अब भी सो रहे थे । कुछ


 अरस्किन, "हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर-एण्ड हुमायूँ” भाग १, पृ० १४६; रशन के विलियम्स, "ऐन इम्पायर बिल्डर आफ दि सिक्स- टीन्थ, सेन्चुरी", पृ० ५५-५६ ।


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३२; रिज़वी, मुग़लकालीन भारत " (बाबर), पृ० ५३५; फिरिश्ता, “तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९४-५; " हबीब उस सियर", भाग ३ खण्ड ३, पृ० ३०४-५ ।

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 दुकानदारों ने अपनी दूकानों से बाबर व उसके साथियों को देखा और वे बहुत ही प्रसन्न हुए। कुछ ही समय में बाबर के आने की खबर चारों ओर फैल गई और नगर निवासियों ने उसके पक्ष में घोषणा कर उज़बेगों पर वार करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने ४००-५०० उजवेग मौत के घाट उतार दिए। जान वफा जो समरकन्द का हाकिम था अपनी जान बचाकर भाग उठा और शवानी खान के पास पहुंचा। बाबर के सैनिकों व समस्कन्द के निवासियों की मुठभेड़ दूसरे दिन प्रातः काल तक होती रही। इसी बीच जान वफा शैबानी खान के पास स्वाजा दीदार के दुर्ग में पहुँचा, जहाँ कि शैबानी खां ७००० सैनिकों के साथ पड़ाव डाले पड़ा हुआ था । उसने बाबर के समरकन्द पर आक्रमण करने की सूचना शवानी खान को दी। घुस- पैठियों से निबटने के लिए शैबानी खान अपने १५० चुने हुए सैनिकों को लेकर समरकन्द के दुर्ग के लौह द्वार तक बढ़ा । किन्तु जब उसे यह ज्ञात हुआ कि समरकन्द की जनता ही बावर के पक्ष में है और उज़बेगों को उसके विरुद्ध सफलता नहीं मिलेगी, तो दूसरे द्वार को पार करते हुए उसने बुखारा के लिए प्रस्थान किया। १


 यद्यपि बाबर की आयु इस समय केवल १८ वर्ष की थी, किन्तु अपनी इस महान् एवं अद्वितीय सफलता को देखते हुए उसे बहुत ही प्रसन्नता हुई । समरकन्द को उसने एक युक्ति द्वारा विजित किया। उसे शैबानी खां से संघर्ष भी न करना पड़ा और उसका लक्ष्य भी पूर्ण हो गया । वह लिखता है कि “समरकन्द १४० वर्ष से हमारे वंश की राजधानी रह चुका था । उजवेग सरीखे शत्रु ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया था और वह हाथ से निकल गया था । यद्यपि वह लुट चुका था किन्तु ईश्वर की कृपा से


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३२-३; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३५-६; फिरिश्ता, "तारीख-ए-फिरिश्ता", (मू० ग्रन्थ), पृ० १९५-६; ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहमडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १६-१७; "हसन-ए-हमुलू, अहसान-उत- तवारीख” (अनु०), पृ० २१; अरस्किन, "हिस्ट्री आफ इण्डिया अण्डर बाबर एण्ड हुमायूँ" भाग १, पृ० १४६ ।

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 मुग़ल सम्राट बाबर


 हमारा राज्य हमें वापस मिल गया ।29 वह अपनी इस महान् सामरिक सफलता की तुलना हिरात के शासक सुल्तान हसन मिर्ज़ा बैकरा से करता


 १. बाबर अपनी इस विजय की तुलना सुलतान हुसैन मिर्ज़ा जिसने कि हिरात विजय किया, से करता है। वह लिखता है कि मेरी विजय तथा उसको विजय में बड़ा अन्तर है। सुलतान हुसैन मिर्ज़ा के सम्बन्ध में वह लिखता है कि (१) वह कई वर्ष से राज्य कर रहा था और बड़ा अनुभवी था (२) उसका विरोधी यादगार मुहम्मद नासिर मिर्ज़ा था, जो १७-१८ वर्ष की आयु का अनुभव- हीन बालक था ( ३) यादगार मिर्ज़ा के एक विश्वास-पात्र मीर अली ने एक व्यक्ति को, जो पूर्ण स्थिति से परिचित था, सुलतान हुसैन मिर्ज़ा के पास आकस्मिक आक्रमण करने के लिए निमंत्रित करने को भेजा था (४) उसके शत्रु उस समय जिस समय आक्रमण किया गया , दुर्ग में थे। वे बाग़ राग़ान में थे । जिस समय आक्रमण हुआ उस समय यादगार मुहम्मद नासिर मिर्ज़ा तथा उसके सहायक नशे में डूबे थे और जो व्यक्ति दुर्ग के द्वार पर तैनात थे। वे भी नशे में बदमस्त थे (५) उसने एक बार ही में लोगों को असावधान पाकर हिरात के दुर्ग पर अधिकार जमा लिया। इसके विपरीत बाबर ने लिखा है कि जब मैंने समरकन्द पर अधिकार जमाया तो, (१) मेरी अवस्था १९ वर्ष की थी (२) मेरा शत्रु शैवाक खां बड़ा ही अनुभवी तथा कार्यकुशल और अधिक आयु का था जिसने कि स्वयं अनेक घटनाओं को देख रखा था (३) मेरे पास समरकन्द से कोई भी मुझे निमंत्रित करने के लिए नहीं आया, यद्यपि वहाँ के लोग मुझे इच्छा से चाहते थे । कोई भी शैबाक खान के भय से मेरे पास आने का स्वप्न भी न देख सकता था (४) मेरे शत्रु दुर्ग में थे । मैंने न केवल दुर्ग पर ही अधिकार जमाया वरन् उन्हें भगा भी दिया (५) इससे पूर्व एक बार और मैं दुर्ग में प्रवेश कर चुका था अतः मेरे शत्रु मेरे विषय में चौकन्न हो गए थे। जब दूसरी बार हम वहाँ पहुँचे तो ईश्वर ने सब कुछ ठीक कर दिया। समरकन्द विजय हो गया- बाबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० १३४-५ रिज़वी, “मुगलकालीन भारत" (बाबर), पृ० ५३७; बाबर की आत्मकथा में से ये पंक्तियाँ उद्धृत कर उनका अनुवाद कर, फिरिश्ता ने भी यही बातें अपने ग्रन्थ में ज्यों की त्यों लिखी हैं। इसके उपरान्त उसने यह भी लिखा है कि पाठकों से यह बात भी कदापि छिपी न रहे कि

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 है और लिखता है कि मेरी विजय तथा उसकी विजय में बड़ा अन्तर है ।" कुछ भी हो बाबर को कम से कम इतना सन्तोष तो हुआ कि वह समरकन्द का शासक पुनः हो गया है ।


 समरकन्द के दुर्ग को तो बाबर ने किसी न किसी प्रकार विजित कर लिया, किन्तु राज्य के अन्य भागों को अधिकृत करने का काय इतना सरल न था। समरकन्द का सिहासन कभी भी किसी शासक के लिए फूलों की सेज न रहा । समरकन्द के राज्य की रक्षा के लिए सक ऐसे व्यक्ति की सिंहासन पर आवश्यकता थी जिसमें कि साहुस हो, कार्य करने की क्षमता हो तथा उत्साह हो, साथ ही ऐसे गुण हों जो लोगों को सेवा करने पर विवश कर दें। इनमें से बाबर के पास केवल कुछ हा गुण थे । कठिनाइयाँ उसकी ओर उन्मुख थीं किन्तु बाबर ने तनिक भी धैर्य न खोया। धीरे-धीरे भाग्य ने उसका साथ देना प्रारम्भ किया। उजवेगों के


 बाबर की इस अभियान में सफलता अमीर तैमूर गुरग़ान के उस अभियान से मिलती-जुलती है जिसमें कि उसने २४३ व्यक्तियों को साथ लेकर कश के दुर्ग पर अक्रमण किया था । किन्तु सम्भवतः यह सोचकर कि कहीं लोग उसके कार्यों की तुलना उस महान् सेनापति से न करने लगें, बाबर ने उसका उल्लेख नहीं किया जिस समय कर्शी पर अमीर तैमूर गुरगान ने आक्रमण किया उस समय वहाँ कोई प्रान्तपति या हाकिम न था । दुर्ग में मीर मूसा का पुत्र मुहम्मद बेग, जो कि अभी एक बालक ही था, के अतिरिक्त और कोई न था। मीर हुसैन और मीर मूसा दोनों ही दुर्ग के बाहर पड़ाव डाले हुए पड़ े थे। इसके विपरीत समरकन्द एक बादशाह की राजधानी थी, एक विशाल शहर था जो चारों ओर से सुरक्षित था, जिसके विषय में किसी को यह आशा न थी कि उस पर आक्रमण करके ही उसे अधिकृत किया जायेगा। यही कारण है कि सभी ऐतिहासिक ग्रन्थों में समरकन्द को "सुरक्षित स्थान" कहा गया है। इसके विपरीत कर्शी एक छोटा शहर था, जहाँ का प्रशासन एक दारोगा के हाथों में था। इस प्रकार दोनों विजेताओं की सफलता में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। - " तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९६ । १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३४; रिज़वी, "मुग़लकालीन भारत", (बाबर) पृ० ५३६-७ ।

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 आतंक से तंग आकर आसपास के लोगों ने और कृषकों ने उसके पक्ष में घोषणा की। कुछ ही समय में शिवदार व सुगद तथा आस-पास के तुमान एवं किले उसके हाथ में आ गए। " बाबर के सैनिकों ने उज़बेगों को भगाना प्रारम्भ कर दिया। इसी समय बाबर ने दुर्गों की सुरक्षा का प्रबंध किया । समरकन्द से लेकर बुखारा तक के प्रदेश बाबर के हाथों में आ गए । समरकन्द के दक्षिण में आमू के निकट कोहज़र व करशी के प्रान्तों को बाकी तरखान ने छीन लिया और इसी प्रकार कोराकुल के प्रान्तों को भी अबुल मुशीन मिर्जा ने भुरा तथा केश से आगे बढ़ कर अपने अधिकार में ले लिया। इस प्रकार उज़बेगों को समरकन्द से निकाल दिया गया और उन्हें बुखारा में शरण लेने के लिए बाध्य किया गया । २ शबानी खान अपने सैनिकों की असफलता को देखता रहा । लगभग इसी समय उसके तथा उसके अमीरों के परिवार तुर्किस्तान से समरकन्द में रहने के लिए आए, किन्तु यह देखकर कि समरकन्द पर बाबर ने अधिकार जमा लिया है, उसे बड़ी परेशानी हुई। कुछ समय तक वह समरकन्द की सीमाओं पर मंडराता रहा और अन्त में यह देख कर कि समय उसके अनुकूल नहीं है वह भी बुखारा वापस लौट गया । बुखारा पहुँच कर उसकी आँखें निरन्तर बाबर पर लगी रहीं और वह उस अवसर की प्रतीक्षा में लगा रहा कि कब उस पर आक्रमण कर समरकन्द को वापस ले ले ।


 शैबानी खान के बुख़ारा वापस जाने के पश्चात् बाबर ने अपनी स्थिति को दृढ़ करने की हर प्रकार से चेष्टा की । शैबानी खान को समाप्त करने के लिए उसने साधन भी जुटाए। उसने औरतिपा से अपने परिवार के सदस्यों को समरकन्द बुलाया। यही नहीं, उसने अन्य तैमूरी राजकुमारों एवं शासकों से अनुरोध किया कि वे शैबानी खान के विरुद्ध उसकी सहायता करें, ताकि सदैव के लिए उसे समाप्त कर दिया जाय। किन्तु जितनी सहायता


 १. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३५ ।


 २. बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३५; फिरिश्ता, "तारीख-ए-फिरिश्ता" (मू० ग्रन्थ), पृ० १९६; ब्रिग्स, “दि हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १९ ।


 ३. बाबरनामा (अनु०), भाग १, पृ० १३८; रिज़वी, “मुग़लकालीन भारत",

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 की वह आशा करता था, उतनी सहायता उसे प्राप्त न हो सकी । जहागीर मिर्ज़ा ने केवल कुछ सौ सैनिक ही उसकी सेवा में भेजे। सुल्तान महमूद खान ने भी ४०० से ५०० तक सैनिक भेजे । किन्तु हिरात के शासक सुल्तान हुसेन मिर्ज़ा बैकरा, उसका पुत्र बदी उज़ ज़मान मिर्जा जो कि इस समय बल्ख में था तथा कुन्दुज़ के शासक खुसरोशाह ने उसकी किसी प्रकार से भी सहायता न की । ऐसी स्थिति में उसे अपने ही सीमित साधनों पर निर्भर रहना पड़ा और शैबानी खान से आगे चलकर युद्ध करना पड़ा ।


 इस प्रकार १५०० ई० में बाबर के जीवन का प्रथम पर्व समाप्त होता साहस है । इस काल में उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसे अनेक यातनाएँ सहन करनी पड़ीं। बदलती हुई परिस्थितियों में कभी उसके भाग्य ने साथ दिया और कभी नहीं । मुसीबतों से घिरे रहने पर भी उसने न खोया और सदैव धैर्य से काम लिया। उसने इस बात की भी चिन्ता की कि उसके साथी उसको छोड़कर शत्रु से मिल रहे हैं या उसे आगे बढ़ना पड़ रहा है या पीछे हटना पड़ रहा है या उसे विजय प्राप्त हुई है या पराजय का मुँह देखना पड़ा है। विजय व पराजय, दुख व सुख, अपमान व सम्मान दोनों ही उसमें अदम्य साहस, शौर्यं भरते रहे और उसका मार्ग प्रशस्त करते रहे ताकि वह निरन्तर अपने स्वप्नों को साकार करता रहे और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ले। अब तक उसके उमराव को भी यह विश्वास हो गया था कि बाबर धातु का बना हुआ है । किन्तु हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि बाबर का ज्ञान अब तक परिपक्व हो गया था अथवा उसे युद्ध का पर्याप्त अनुभव प्राप्त हो गया था या वह इस समय ऐसी स्थिति में हो गया था कि शैबानी खान को हरा सकता या उसके पास इतने साधन ही हो गए थे कि भविष्य में सफलता की बहु निरन्तर आशा कर सकता। जिस शत्रु से निबटने के लिए उसने सैनिक तैयारियाँ प्रारम्भ की उसने एक ही बार में उसे चित कर दिया और शैवानी खान के सम्मुख उसे सिर झुकाना पड़ा । वास्तव में शक्ति को आँकने का समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा था और यह कहना उपयुक्त होगा कि शैबानी खाँ के सामने बाबर एक तिनके के समान था ।


 (बाबर), पृ० ५४०, फिरिश्ता, "तारीख-ए-फिरिश्ता" ( मू० ग्रन्थ), पृ० १९६; ब्रिग्स "दि मिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मुहम्मडन पावर इन इण्डिया" भाग २, पृ० १९, ।

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