सच्ची गाँव की कहानी अपनों की बात चैप्टर - 1 sacchi gaon ki story apno ki baat

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कहानी अपनों की बात


चैप्टर :- एक

स्थान:-  झारखण्ड

वर्तमान पता :  गुप्त कुमार मुंबई से -

sacchi gaon ki story apno ki baat hindi mein


सच्ची गाँव की कहानी अपनों की बात चैप्टर - 1   sacchi gaon ki story



मैं(लेखक गुप्त कुमार एक काल्पनिक नाम)सालों से मुंबई में रहता आ रहा हूँ..मेरे मुंबई में आकर बसने की कहानी बहुत ही विचित्र और अनोखी है जिसे मैं फिर कभी फुर्सत से आपको सुनाऊंगा. लेकिन इतना अवश्य है कि मुंबई में आने से पहले मेरे घर में फांके की नौबत थी.कभी–कभी तो दो दिनों तक चुल्हा भी नहीं जलता था..लेकिन माँ मेरे लिए कुछ न कुछ खाने की व्यवस्था इधर उधर से मांगकर ज़रूर कर देती (आज माँ नहीं है इसीलिए तो माँ- माँ होती है..लेकिन माँ और पिताजी दोनों भूखे रह जाते. भैया- भाबी अलग रहते थे लिहाज़ा वो हमारे घर में बहुत कम ही झांकते थे..मैं कई बार तो पिताजी की जेब जान बूझकर टटोलता ये सोचकर की पिताजी ज़रूर ही झूठ बोल रहे होंगे. 


पिताजी की माँ से ज़रूर कुछ बहस हुई होगी. वरना भला ऐसा कैसे हो सकता है कि घर में दो तीन तीनो तक खाना ना बने..लेकिन जब मुझे उनकी जेब में सिर्फ एक आध रुपये ही पड़े मिलते तो मैं समझ जाता कि पिताजी झूठ नहीं सच बोल रहे हैं..उनके पास घर चलाने के लिए पैसे नहीं हैं. पिताजी लुहारी का काम करते थे. घर में एक छोटी सी भट्टी थी जहाँ कोई ना कोई ग्राहक कुछ लोहे का काम करवाने आ जाता. मगर कभी –कभी तो लगातार कोई ग्राहक नहीं आता.जिस दिन कोई आता उसी दिन घर में खाना पकता वरना नहीं. 


घर हमारा मिट्टी का उबड़ खाबड़ था जो पीछे की बाड़ी में स्थित था मगर ऊपर की ओर चाचा चची सीमेंट वाले अच्छे घर में रहते थे. मगर उन्होंने भी कभी नहीं झाँका कि मेरा छोटा भाई क्या खाता कमाता है जबकि चाचा के पास सरकारी नौकरी थी और चाचा का बेटा भी सरकारी जॉब में था. अब मैं वापस अपनी बात पर आता हूँ..क्यूंकि इस वक़्त तक लेखक अपने परिवार के साथ गरीबी के थपेड़े खा रहा है..समय गुजर रहा था.. जब कुछ खाने को ही नहीं था तो अच्छा पहनना ओढना तो दूर की बात थी..मेरे बहुत सारे सपने नींद में ही दफ़न हो गए थे सिवाय एक के कि मैं लेखक बनूँगा.


मुझे पढने- लिखने का इतना अद्भूत शौक था..लेकिन स्कूल कॉलेज की किताबें नहीं नहीं बल्कि कहानियाँ और कोमिक्स की किताबें..पिताजी जो मुझे स्कूल जाने के लिए जेब खर्च देते थे उस पैसे का मैं मिट्टी तेल खरीदकर जमा करता था ताकि डिबिया बनाकर उसे जलाऊं और फिर उसी रौशनी में कहानी और कोमिक्स पढ़ सकूं..हमारे घर रौशनी के दो ही साधन थे – एक घर की टूटी फूटी से लालटेन और दूसरी मेरी हाथ से बनाई हुई शीशी की डिबिया...लालटेन को रात को कम कर दिया जाता था ताकि तेल की खपत ना हो..


मैं जहाँ सोता था वहां एक लोहे की ग्रिल गेट थी. वो हिस्सा चाचा के घर का था..खाली पड़ा था इसलिए सो जाता तो वो कुछ बोलते नहीं..ग्रिल से बाहर की दुनियाँ साफ़ दिखाई पड़ती थी. लिहाज़ा मैं जब भी रात को डिबिया जलाकर देर रात तक पढता, लोगों को यही लगता मैं स्कूल की किताबें पढ़ रहा हूँ..कई कई बार तो रात को पिशाब करने गाँव के बुजुर्ग भी उठ जाते और मुझे देख लेते...फिर सुबह उठकर वो लोगों से मेरी तारीफ करते...


लेकिन मेरे माता -पिता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता..क्यूंकि दोनों कभी स्कूल नहीं गए थे. बस मै स्कूल में इसलिए था क्यूंकि लोग क्या कहेंगे बच्चा को पढाता भी नहीं? माँ ने ना तो मुझे कभी स्कूल जाने के लिए कहाँ और ना ही पिताजी ने कभी ये पुछा का आज स्कूल क्यूँ नहीं गए? मैं पूरी तरह से स्वतंत्र था. लेकिन स्कूल जाने के मामले में बड़ा ईमानदार था. एक दिन भी नागा किये बिना मैं रोज़ स्कूल जाता. इसके पीछे भी एक बड़ा कारण ये था कि मुझे घर में अच्छा नहीं लगता...स्कूल जाने पर कुछ नया देखने को मिलता था..इसलिए स्कूल जाया करता और पढ़ भी लिया करता.



सब कुछ चलता रहा...इस बीच मेरे भीतर कब एक लेखक का जन्म हुआ मुझे भी पता नहीं चला. बस मुझे इतना याद है कि जब मेरे दोस्त मुझे खेलने का निमंत्रण देते तो मैं उनके साथ जाता अवश्य किन्तु साथ में एक पेन और कागज़ ले जाता और फिर खेल से मना करते हुए कहानियाँ लिखने लगता...लेकिन उस समय उन कहानियों को कोई दुसरा ना तो पढ़ सकता था और ना ही समझ सकता था..उन्हें तो बस अतीत का ये लेखक ही समझ पाता जो आज आपको अपनी वो कहानी सुना रहा जो शुरू हुई थी बचपन में किन्तु इसका असर आज भी है..


मैं पुन:क्षमा चाहते हुए वहीँ आना चाहता हूँ जहाँ मैंने आपको छोड़ा था. घर में ग़रीबी देख -देखकर तंग आ चुका था..दसवी के बाद मैंने सारी पढ़ाई अपने पैसे से की थी. कभी टूशन पढ़ाकर तो कभी मजदूरी करके..लेकिन इतना था कि मैं कुछ पढ़ लिख गया था और मेरे भीतर लेखक वाला मानव जाग  चुका था.. मैं अकसर अपने दोस्तों से अलग रहता था. और इस अलग रहने के कारण ही कुछ ना कुछ काम भी अलग ही कर लेता था - जैसे कभी किसी कहानी की बुक का पता देखकर उसे चिट्ठी लिख देना और अपनी बात बताना...या किसी कोमिक्स के क्यूज म भाग लेना..स्कूल से आते वक़्त हर रोज़ मेरी जेब में डाक घर वाले पोस्ट कार्ड ज़रूर रहे थे. 


एक तरह से ये मेरे चलते हुए मित्र थे जो मेरी बात को उस दूसरी दुनियाँ में पहुंचा देते जहाँ कि बातें और कल्पना मुझे अच्छी लगती थी..वक़्त निकलता जा रहा था. इसी बीच अचानक मुझे एक कहानी की किताब पर मुंबई का पता मिला और वहां फ़ौरन अपना पोस्टकार्ड मित्र को भेज दिया...


मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मुंबई के एक टीवी प्रोडूसर को मेरी कहानी पसंद आ जायेगी और वो मुझे उत्तर में अपना ख़त भेजेगा. मुझे वो दिन याद है मैं बारहवी कक्षा में था. पोस्टमैन ने जैसे ही उस दिन मुझे मुंबई के एक टी.वी कंपनी वाले निर्माता का ख़त दिया पूरे गाँव में हल्ला हो गया..उस ख़त में मुझे बुलाया गया था. लेकिन वो टिकट तभी भेजने वाले थे जब मेरा उनको उत्तर जाता. हफ़्तों तक मैं उस लेटर को सुबह शाम देखता हुआ खुश रहा फिर अचानक ये टेंशन गयी कि जिसने कभी पड़ोस की गलियों को भी ठीक से नहीं देखा वो भला मुंबई कैसे जाएगा...?? किसी तरह व्यवथा होने लगी..मैं और कहानियाँ लिखने लगा..


इसी बीच एक भीषण अप्रिय घटना घटी. मेरी मंझली भाभी ने घर में अग्निदाह करके अपने प्राण दे दिए क्यूंकि मेरा मंझला भाई शराब बहुत पीता था.उसने पढ़ाई नहीं की थी..एक तो वो अनपढ़ था दूसरा शराबी..जब भाभी ने देखा कि अब हमारा देवर भी हमे छोड़कर मुंबई जा रहा तो हमारा यहाँ कौन सहारा होगा? क्यूंकि मंझला भाई जीवन में अब कुछ करता इसकी गारंटी नहीं थी. सो परिवार वालों ने सोचा अब मैं ही कुछ करूँगा. लेकिन भाभी ने ये नहीं सोचा था कि मैं शहर छोड़कर जाऊँगा.. वो भैया से बहुत परेशान थे. उन्हें रोज़ मनाते, रोज़ समझाते कि आप शराब छोड़ दो मगर मेरे अनपढ़ शराबी भैया कहाँ सुनने वाले थे. ऊपर से उनकी दो बेटी भी हो चुकी थी. 


भाभी ने देख था अब जीवन अन्धकारमय है क्यूंकि उनके पास दो- दो समस्या थी. एक गरीबी और दूसरी शराबी..उन्होंने सोच लिया थाअब कुछ नहीं हो सकता..और फिर जब मेरे मुंबई जाने के दिन निकट आ गए तो फिर भाभी ने चुपचाप घर का दरवाजा बंद कर अपना अंतिम निर्णय लेकर शनिवार के दिन स्वयं को अग्नि से जला लिया...


ये एक बहुत बड़ी घटना थी..क्यूंकि इस घटना के बाद मैं और मेरा परिवार अब बुरी तरह से फ़सने वाले थे क्यूंकि भाभी की माँ किसी भी सूरत में हमे छोड़ने वाली नहीं थी. पुलिस आई और केस दर्ज हो गया. मेरा मुंबई जाना क्या जेल जाने की नौबत आ गयी..आगे की कहानी आपको दुसरे अध्याय में ज़रूर बताऊंगा..


धन्यवाद.

आपका लेखक. गुप्त कुमार

  

    

  

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