भक्त प्रहलाद के साथ आगे क्या हुआ ? Bhakt Prahlad ka kya hua

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 भक्त प्रहलाद जब असुरों का शासन चला नहीं पाए तो फिर आगे उनका क्या हुआ ?

वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन भगवान नृसिंह के रूप में प्रकट हुए थे जिन्होंने हिरण्यकशिपू का वध कर अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी। इसलिए यह तिथि एक पर्व के रूप में मनायी जाती है..हम होली का पर्व क्यूँ मानते हैं इसके पीछे एक पौराणिक कथा है...

भक्त प्रहलाद के साथ आगे क्या हुआ ? Bhakt Prahlad ka kya hua?

कथाः ऋषि कश्यप के हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नामक दो पुत्र थे जिनकी माता का नाम दिति था..हिरण्याक्ष बड़ा था इसलिए उसे असुरों का राजा बनाया गया...परन्तु हिरण्याक्ष बड़ा ही क्रूर राजा था जो भगवान नारायण के भक्तों को प्रताड़ित किया करता था..जब उसकी अति बढती गयी तो वो धरती को समुद्र के रसातल में ले गया..लेकिन फिर भगवान नारायण के वराह अवतार ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया..भाई के वध से हिरण्यकशिपु और अधिक उत्तेजित और उग्र हो उठा. चूंकि भगवान नारायण ने वराह रूप में हिरण्यकशिपु के भाई का वध किया था इसलिए हिरण्यकशिपु ने नारायण भक्तों को प्रताड़ित करना शुरू किया और भगवान नारायण को ये चुनौती दी कि वो बहुत ही जल्द पूरे संसार से उसके सभी भक्तों को समाप्त कर देगा...हिरण्यकशिपु के इसी घमंड और अहेंकार को चूर करने के लिए भगवान् लीलाधर ने एक लीला रची...जब हिरण्यकशिपु वरदान पाने के लिए तप करने गया तो भगवान विष्णु का एक नन्हा सा भक्त हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू के गर्भ में आ गया जो प्रहलाद के रूप में जन्म लेने वाला था....


कयाधू के गर्भ में पल रहे एक असुर के बच्चे को भक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए भगवान् नारायण ने देवर्षि नारद को भेजा..देवर्षि नारद ने रोज़ गर्भवती कयाधू को भगवान नारायण की लीलाओं की कथा सुनानी आरभ कर दी जिन्हें माँ के गर्भ में पल रहा बच्चा प्रहलाद भी सुनता रहा जिससे उसमे हरि भक्ति के गुण आते गए...इधर हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मदेव की घोर साधना की और उनसे एक ऐसा विचित्र वरदान माँगा जिस वरदान के कारण हिरण्यकशिपु को ना तो दिन में मारा जा सकता था ना रात में..ना घर के भीतर ना बाहर..ना किसी पशु के द्वारा ना मानव के द्वारा. एक तरह से उसने स्वयं को हर प्रकार से अवध्य कर लिया था..वरदान पाकर हिरण्यकशिपु ने स्वयं को तीनो लोकों का भगवान घोषित कर लिया और सभी को उसे भगवान मानकर पूजा करवाने के लिए बाध्य करना शुरू कर दिया....लेकिन अपनी शक्ति के मद के चूर हिरण्यकशिपु को ये नहीं पता था कि लीलाधर विष्णु उन्ही के घर में उसके सबसे बड़े शत्रु के भक्त को भेजने वाले थे. एक निश्चित समय के बाद महान असुर वंश में प्रहलाद का जन्म हुआ. प्रहलाद जिसका मतलब ही था जो मन को आह्लादित अर्थात आनंद से भर दे...प्रहलाद के लिए विद्या अध्यन की जिम्मेदारी असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने उनके दो पुत्रों शंड और अमर्क को दी.. लेकिन जब प्रहलाद गुरुकुल गया तो उसने वहां विष्णु की भक्ति आरम्भ कर दी..


राजा का पुत्र होने के कारण पहले तो शुक्राचार्य के दोनों पुत्र प्रहलाद को समझाकर इस बात को टालते रहे रहे लेकिन प्रह्लाद की हरि भक्ति कम नहीं हुई. जब प्रहलाद गुरुकुल से राज महल लौटा तो पिता हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद के ज्ञान को परखने के लिए उससे कई सवाल जवाब किये लेकिन प्रहलाद ने हर बार श्री हरि विष्णु का नाम लेकर उसके प्रति अगाध प्रेम और भक्ति दिखाई..अपने पुत्र के इस ज्ञान से अचंभित हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को बहुत समझाया कि उसके पिता ही इस संसार के भगवान है. लेकिन जब प्रहलाद ने बार बार नारायण को ही सर्वे सर्वा माना तो फिर हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को दंड देना आरभ कर दिया. पहले पहल तो प्रहलाद को छोड़े-छोटे दंड दिए गए ताकि वो मान जाए लेकिन जब प्रहलाद ने नारायण भक्ति नहीं छोड़ी तो उसे कभी पहाड़ से फिकवाया गया तो कभी हाथी से कुचलवाने की कोशिश की गयी. इसी क्रम में कभी उसे गरम तेल के कडाहे में डाला गया तो कभी कुछ और कोशिश किये गए. जब हिरण्यकशिपु प्रहलाद को मार नहीं पाया तो प्रहलाद को मारने की जिम्मेदारी हिरण्यकशिपु की बहन होलिका ने ली. होलिका के पास एक वरदानी कम्बल थी जो अग्नि से रक्षित थी..


प्रहलाद को अग्नी में भष्म करने के लिए होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर बैठ गयी...लेकिन ईश्वर की लीला से वायुदेव ने चमत्कार दिखाया जिसके परिणाम स्वरुप कम्बल भक्त प्रहलाद की देह से लिपट गयी और होलिका अग्नि में जलकर भष्म हो गयी... होलिका के अग्नी में भष्म होने के कारण ही बाद में इसी पौराणिक घटना ने होली पर्व का रूप लिया.... हिरण्यकशिपु की जब अति बढती गयी तो फिर अंतत: भगवन नारायण के नृसिंह अवतार ने हिरण्यकशिपु का भी अंत कर दिया और प्रहलाद को असुरों का राजा बनाया गया. लेकिन प्रहलाद राजा बनने के लिए नहीं बल्कि एक सच्चा भक्त बनने के लिए जन्मा था. हालांकि उसने अपने तरीके से असुर कुल के शासन को चलाने की बहुत कोशिश की मगर असुरों के गुरु शुक्राचार्य जिन्हें विष्णु से अपार घृणा थी उन्हें असुरों की उन्नति के लिए वो मार्ग नहीं चाहिए था जिस पर प्रहलाद चल रहे थे.. बाद में इसी कारण प्रहलाद ने सिंघासन छोड़ दिया और मंदराचल पर्वत पर तप करने चले गए. प्रहलाद के बाद विरोचन राजा बना उसके बाद राजा बलि असुरों के राजा बने.

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