शोले – एक कविता
रामगढ़ की धरती सूनी थी, वीरों की दरकार थी,
गब्बर जैसे दानव से, अब जनता लाचार थी।
ठान लिया था ठाकुर ने, अब न्याय दिखाना है,
दो जांबाज़ों को बुला, गब्बर को पिटवाना है।
जय था शांत, वीरू रंगीला, दोनों थे झगड़ालू,
लेकिन दिल के साफ थे, सच्चे थे, निराले थे चालू।
बसंती थी बेलगाम सी, सपनों की रानी,
वीरू का दिल चुरा बैठी, बन गई उसकी दीवानी।
राधा की आँखें कुछ कहती थीं, खामोशी में भी दर्द था,
ठाकुर के ग़म की स्याही में, उसका जीवन भी सर्द था।
गब्बर सिंह का आतंक था, जंगल में राज चलता,
"कितने आदमी थे?" पूछकर, वो मौत का फरमान पलता।
धीरे-धीरे वीर लड़े, गाँव में उम्मीद जगी,
पर गब्बर ने चाल चली, फिर से हारी बाज़ी जगी।
जय ने दी कुर्बानी, वीरू ने लिया बदला,
गब्बर की तलवार टूटी, अन्याय का सिर धड़ से बदला।
ठाकुर ने भी हाथों से, लातों में जज़्बात जगा,
जिस न्याय को खो दिया था, उसका फिर से साथ मिला।
शोले की ये गाथा है, दोस्ती और बलिदान की,
गाँव, प्यार और वीरता की, हर एक हिंदुस्तान की।
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