रामायण - रावण कुम्भकर्ण संवाद ( Ramayana - Ravana Kumbhkarna Dialogues )

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रामायण - रावण कुम्भकरण संवाद  ( Ramayana - Ravana Kumbhkarna Dialogues )


रामायण - रावण कुम्भकरण संवाद  ( Ramayana - Ravana Kumbhkarna Dialogues )


कुम्भकरण — समय से पहले हमें जगाने का साहस तुमने कैसे किया?
लंकाधिपति रावण कुशल से तो हैं, 
जी। छोटे राजा महाराज  रावन सकुशल अपने महल में विराजमान हैं; तो फिर क्या है? लंका पर तो कोई विपत्ति नहीं आई?
 सेनापति विरूपाक्ष— जी, अभी तक तो लंका पूरी तरह सुरक्षित है; परंतु अब उसकी सुरक्षा संकट में है। चारों ओर से सुग्रीव की वानर सेना ने घेर लिया है।
कुम्भकर्ण — वानर सेना ने घेर लिया है! परंतु वानर-राज वाली के साथ तो हमारी संधि थी।
सेनापति विरूपाक्ष — वाली मारा जा चुका है; उसका छोटा भाई सुग्रीव वानर देश से सिंहासन चढ़ा है और अयोध्या के वनवासी राजा राम की सहायता के लिए उसने अपनी सेना सहित लंका पर चढ़ाई कर दी है। वानरों ने लंका की राजधानी को घेर रखा है।
कुम्भकर्ण — परंतु क्यों? अयोध्या के राम को लंका से क्या चाहिए? अपनी पत्नी?
 सेनापति विरूपाक्ष— अपनी पत्नी, अर्थात् लंकेश्वर — उनकी पत्नी सीता को हर लाए हैं।
कुम्भकर्ण — सीता को हर लाए! साक्षात् जगदंबा को हर लाए! ऐसी दुर्बुद्धि उनके मन में कैसे उत्पन्न हुई? किसी ने उन्हें समझाया नहीं?
सेनापति विरूपाक्ष — जी, आपके छोटे भाई विभीषण ने भरे दरबार में उन्हें यह बात समझाने का साहस किया था; तो महाराज रावण ने उन्हें लात मारकर राज्य से निकाल दिया।
कुम्भकर्ण — क्या शत्रु बहुत शक्तिशाली है? 

सेनापति विरूपाक्ष- आज रणभूमि में राम ने न केवल लंकेश्वर का उपहास किया बल्कि उनका घोर अपमान भी किया है; निश्चय करके उन्हें यह कहकर छोड़ दिया कि “जाओ, अभी थक गए होंगे; मैं थके हुए निहत शत्रु पर वार नहीं करता।”  महाराज, रावण अपने भवन में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।


रावण  — कुंभकरण जाग उठा?
गुप्तचर  — जी हां, महाराज। श्रीमान कुंभकरण नगर से होते हुए आपके दर्शन के लिए पधारे हैं। श्रीमान कुंभकरण को देखकर नगर में उत्साह की लहर फैल गई है; अब तो चारों ओर उत्साह ही उत्साह दिखाई देगा। हम विलास-भवन की छत पर जाते हैं; वहाँ रावण कुंभकरण से मिलेंगे।

कुंभकरण — महाराज। मुझे जो विरूपाक्ष ने सुनाया है, क्या वह सत्य है कि इस समय वानर सेना ने लंका के गिर्द घेरा डाल दिया है और लंका पर संकट के बादल छाए हुए हैं?
लंकाधिपति रावण — हाँ, इस समय लंका संकट में आ गई है; इसीलिए तुम्हें असमय में ही जगाया गया है, क्योंकि हम सबकी आशा अब केवल तुम पर ही केंद्रित है। शत्रु ने अल्प समय में ही हमारे प्रमुख-प्रमुख योद्धाओं को मार डाला है। 

जब तक समुद्र पार के दूसरे स्थानों से और राक्षस-योद्धा सहायता के लिए नहीं आ जाते, तब तक इस बची खुची सेना से लंका की सुरक्षा करना बहुत कठिन दिखाई देता है। कोश भी खाली होने वाला है; इसलिए भी तुम्हारा रणभूमि में जाना आवश्यक हो गया है।

कुंभकरण — इंद्रजित से कुछ नहीं हुआ? जब हम स्वयं राम से टक्कर नहीं ले सके तो इंद्रजित उसका सामना कैसे कर सकता था? इसलिए अभी तक हमने उसे युद्ध में नहीं भेजा है।

लंकाधिपति रावण — आप स्वयं क्या रणभूमि में गए थे?
कुंभकरण — हाँ, जब प्रहस्त और मकर भी मारे गए तब हमने सोच लिया कि शत्रु ऐसे युद्धों से वश में आने वाला नहीं है; युद्ध लंबा होता जाएगा और लंका निवासियों का मनोबल दिन प्रतिदिन मंद होता जाएगा; इसलिए हमने निश्चय कर लिया कि हम स्वयं जाकर एक ही बार में शत्रु का समूल नाश कर दें।
 
परंतु शत्रु उतना निर्बल नहीं निकला जितना हमने समझा था; उसने हमारे समस्त अस्त्रों को काटकर हमें निहत्था कर दिया, और सबसे बड़ी चोट तो उसने तब पहुंचाई जब उसने उस अवस्था में हमारी रक्षा न करके हमें अपमानित करके वापस भेज दिया। आज सारा संसार हम पर हंसता होगा; यहाँ तक कि सीता भी हमारा उपहास करेगी। अब हम किस गौरव के अहंकार को लेकर उसके सामने जाएंगे? कुंभकरण, मेरे भाई, इसलिए भी तुम्हारा युद्ध-भूमि में जाकर उन वानर और मानवों का भक्षण करना आवश्यक हो गया है। आज राक्षस जाति की लाज हमारे हाथ में है; तुम्हें रावण के अपमान का बदला लेना है — राम से तीनों लोकों का विजेता रावण, जिसके आगे शस्त्रहीन, श्रीहीन और मानहीन होकर रह गया — उस पर भी आपने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वास्तव में श्रीराम कौन है?

रावण - शत्रु को “श्री” लगाकर संबोधित मत करो, 

महाराज, आंखें बंद कर लेने से सूर्य का प्रकाश लोप नहीं हो जाता। जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, वही श्रीमान नारायण हैं; उन्हें श्रीराम ही कहना पड़ेगा। भैया, शायद आप यह भूल गए हैं — कई पीढियाँ पहले इवाक वंश के एक राजा ने आपको श्राप दिया था कि जब स्वयं श्रीमान नारायण हमारे कुल में अवतार लेंगे तब उसी रूप में आपका विनाश करेंगे। वह बात भी भूल गए जो नारद ने मुझे बताई थी कि विष्णु ने राक्षसों का नाश करने के लिए अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लिया है। भैया, ब्रह्मा की बात भी भूल गए; फिर भी आपने महारानी सीता का हरण कर लाया, जो स्वयं लक्ष्मी का अवतार है। 

रावण :- हमें अपनी बहन के अपमान का बदला लेना था; हमारे भाई के वध का प्रतिशोध क्या हमारा कर्तव्य नहीं था? था तो? उस कार्य को वीरों की भांति करते — चोरों की भांति एक स्त्री का हरण करके क्या आपका मस्तक गौरव से ऊँचा हो गया है? सूर्पनखा — मेरी भी तो बहन थी; आज मुझे जिस प्रकार उठाया है, उस दिन यह हीन कार्य करने से पहले मुझे जगाते तो मैं आपको बताता कि प्रतिशोध कैसे लिया जाता है। 

राजा के लिए उचित ही नहीं—यह आवश्यक भी है कि वह हर महत्वपूर्ण कार्य अपने परम-विद्वान और सच्चे हितैषी श्रीमंत्रियों के परामर्श से ही करे। राजा को चापलूस और ऐसे स्वार्थी मंत्रियों की बातों में नहीं फँसना चाहिए जो अपना निजी हित और अर्थ-स्वार्थ के लिए राजा के साथ अपने देश को भी शत्रु के हाथों बेच दें। ऐसे ही मंत्रियों के लिए शास्त्र कहता है कि विनाश यान्तो भरतार सहिता… (हा शत्रु भर बुद विपरीता कृत्या कार्यं ही मंत्रणा तान भरता मित्र संका शन अमित्र मंत्र निर्णय वरे जानिया सचिवा उपसता) — कुंभकरण, यह समय शास्त्र सुनाने का नहीं है; हर बात अपने-अपने समय पर ठीक लगती है। यही तो मैं कहना चाहता हूँ, भैया, कि आपने उचित समय पर उचित बात नहीं की। नीति कहती है कि पुरुष को धर्म, अर्थ और काम का सेवन उचित समय पर ही करना चाहिए; जैसे प्रातःकाल धर्म, मध्याह्नकाल अर्थ-सेवन और रात्रि में काम-सेवन का विधान है। इन तीनों में धर्म श्रेष्ठ है; अतः जहाँ अर्थ और काम का सेवन धर्म-विरुद्ध हो, वहाँ उन दोनों की उपेक्षा करके धर्म के अनुसार ही चलना चाहिए। सीता का हरण करते समय आपने धर्म और अधर्म की बात नहीं सोची; मंदोदरी-भाभी और विभीषण की नीति और धर्म-युक्त बात नहीं सुनी; केवल अपनी कामवासना की पूर्ति का बहाना ढूँढा है — आपने इसी का यह फल देखा जो आज सारे लंका वासी भोग रहे हैं।

रावण — एक गुरु या आचार्य की भाँति हमें उपदेश सुनाना है, तो जाओ जाकर फिर से सो जाओ; हमें तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। यह समय है संकट का; इस समय तुम्हारा क्या कर्तव्य है वही बात करो। मान लिया हमने भ्रम से नारायण को नहीं पहचाना; मान लिया अपने चित्त के मोह में एक स्त्री का हरण कर लिया; मान लिया अपने गौरव और अहंकार में हमने किसी का परामर्श नहीं सुना — इन सब बातों की चर्चा करने से इतिहास पीछे नहीं मुड़ जाएगा; बीत गया, बुद्धिमान उसका शोक नहीं करते; भविष्य की चिंता कर्मयोगी नहीं करता। इस समय, इस क्षण क्या करना है — उसका ही निश्चय आवश्यक हो जाता है। निश्चय कर लो कि तुम्हारा अपनी जाति के प्रति, अपने भाई के प्रति कुछ कर्तव्य है या नहीं? तुम हमें शास्त्र सुना रहे थे — अरे, शास्त्र में तो यह भी लिखा है: यदि भाई ने कोई पाप भी किया हो व अपराधी भी संकट में, जो उसका साथ दे वही भाई कहलाने योग्य होता। अपराधी को तो शिक्षा सभी दे सकते हैं; परंतु भाई वही है जो संकट में साथ खड़ा रहे, सहायता करे, शिक्षा न दे। सायो विपथन पते सबु… (अपते सहाया कल्प)। सोच लो — रावण के कारण ही सही परंतु रावण के साथ राक्षस-जाति का विनाश हो जाए; यह तुम्हें स्वीकार है या नहीं?
कुंभकरण — तर्क का समय नहीं है। यदि मन में कोई संशय है, यदि कर्तव्य का पथ साफ दिखाई नहीं देता, तो युद्ध में जाने से कोई लाभ नहीं। जाओ जाकर सो जाओ; रावण को अपनी आन निभाना और शान के साथ जीना और मरना दोनों आते हैं। जाओ।

कुंभकरण — भैया, आपने मुझे ठीक प्रकार से समझा नहीं। मैंने जो कहा वह एक सच्चा हितैषी होने के नाते कहा; वह मेरा अधिकार भी था और कर्तव्य भी। इस समय मुझे क्या करना है उसके बारे में न मेरे मन में कोई शंका है, न मेरे पथ पर कोई अंधकार। मैं तो छोटा भाई हूँ और छोटे भाई का एक ही धर्म है — जब तक वह जीवित है और स्वस्थ है, तब तक बड़े भाई को कोई भी कष्ट नहीं होना चाहिए। यदि बड़े भाई को चिंता रहे या वह संकट में आ जाए तो छोटे भाई पर धिक्कार है। छोटा भाई मित्र भी है और सेवक भी। कुंभकरण — हमें तुम पर गर्व है; तुम राक्षस जाति की नाक हो। भैया, अब आप युद्ध की चिंता भूल जाइए; मैं आपको वचन देता हूँ कि आज सूर्यास्त होने से पहले उन वनवासी राजकुमारों के मस्तक लंका की गलियों-कच्चों में से लाकर पैरों से कूच करवा दूँगा, ताकि जिनके प्यारे संबंधी इस युद्ध में मारे गए हैं, वे भी आकर उसे एक-एक ठोकर मार सकें। यदि मैं जीवित रहा तो आज रात को लंका में विजय का उत्सव होगा। परंतु — परंतु क्या? परंतु भैया की बात सच निकली और वह सचमुच भगवान है, तो भी मैं पीठ नहीं दिखाऊँगा; अपने भाई की आन के लिए रणभूमि में लड़ता हुआ मर जाऊँगा — यह मेरा वचन है।
लंकाधिपति रावण — मृत्यु की बात ही मन में क्यों लाते हो, कुंभकरण? तुम अवश्य विजयी होगे। हम सेना-नायक को आदेश देते हैं कि तुम्हारे साथ जाने के लिए चतुर्गणि सेना तैयार की जाए।
कुंभकरण — नहीं, भैया, मुझे सेना की कोई आवश्यकता नहीं; रणभूमि में मैं अकेला ही जाऊँगा। मेरे हाथ में केवल शिव का त्रिशूल होगा; उनकी आधी सेना तो मेरे पाँव के नीचे कुचल जाएगी। भैया, मुझे आज्ञा दीजिए और आशीर्वाद दीजिए कि मेरे कारण आपका गौरव और बढ़े।
लंकाधिपति रावण — भैया, एक प्रार्थना करूँ? कहो।
कुंभकरण — यदि रणभूमि में मारा गया तो समझ लेना — फिर उन्हें कोई नहीं जीत सकता; तब श्रीराम को भगवान मानकर उनकी शरण में चले जाइएगा, जिससे हमारा कुल समूल नष्ट होने से बच जाए और आपका राज अकांत हो जाए। प्राणी जब अपने कुटुम्बीय जनों के साथ बैठकर ऐश्वर्य भोगता है तभी वह प्रसन्न और संतुष्ट होता है; यदि तुम जैसे भाई न रहे तो तीनों लोकों का साम्राज्य रावण के लिए किस काम का? भाई-भाइयों के बेटे अपने बेटे मरवा कर कैसे ऐश्वर्य भोग सकेंगे?
लंकाधिपति रावण — जाओ, मृत्यु की बात मत करो; युद्ध की बात करो; युद्ध में विजय की बात करो। (संगीत) जाओ, भैया। मुझे आशीर्वाद दीजिए।

कुम्भकर्ण चला जाता है.

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