संत कबीर. कबीरदास. कबीरदास की जीवनी
Sant Kabir. Kabir das. Kabir das ki jivani. Biography of Kabir das in Hindi
संत कबीरदास
जन्म स्थान – लहरतारा
वाराणसी
वर्ष – 1398
मृत्य – 1518
संत कबीर, मध्यकालीन भारत के पहले ऐसे जनकवि, समाज सुधारक, विचारक और दार्शनिक माने जाते हैं जो कभी स्कूल तो नहीं गए मगर भारत का हिंदी साहित्य उनके बिना अधूरा सा लगता है.
मध्यकाल वो दौर था जिस दौर में कागज़ और कलम लोगों के हाथों में न के बराबर हुआ करती थी. फिर विकास हुआ उस शैली का जिसे छंद कहते हैं. इसी के द्वारा संत कबीर जी ने जीवन, आध्यात्म और ईश्वर से जुडी उन गहरी बातों को इस प्रकार गढ़ा जिन्हें बिना पढ़े-लिखे लोग भी सरलता से आत्मसात कर सकते थे.
इसका अच्छा फल यह प्राप्त हुआ कि बाद के कई बड़े संत-कवि उन्ही कबीर जी से प्रेरणा लेकर आगे का कार्य भी करते रहे. मेरे अनुसार जिन पुराने जिज्ञासुओं, विद्वानों और जानकारों ने कबीर जी के ऊपर चर्चा की होगी या उनके ऊपर लिखा होगा, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने उनके विचारों और व्यक्तित्व का कोई भी कोना बाकी छोड़ा होगा.
मगर आज की ज़्यादातर युवा पीढ़ी इतने महान और गुणवान पुरुष कबीर जी को केवल किताबों और किताबों से परीक्षा की उत्तर पुस्तिका तक ही सीमित किये हुए है जबकि देखा जाए तो वे एक ऐसे आविष्कारक हैं जिनका अविष्कार बिना कागज़ और कलम के ही जन-जन तक पहुंचा, इसलिए ऐसे विभूतियों के बारे में तो हमे उनके रोम -रोम तक जानना चाहिए.
कबीरदास का जन्म
संत कबीर जी के जन्म को लेकर अनेकों मत और विचार है. कोई लिखित और ठोस प्रमाण न होने के कारण विद्वानों की राय इसमें भिन्न - भिन्न है. इसलिए जनश्रुति के आधार पर कबीर का जन्म वर्ष 1398 के आस-पास माना गया है.
कुछ बताते हैं नीमा और नीरू नामक दो जुलाहे ( बुनकर ) को कबीर वाराणसी के लहरतारा नामक सरोवर के पास शिशु अवस्था में मिले थे. कुछ मानते हैं वो किसी ब्राह्मण औरत की कोख से जन्मे थे जिन्हें बाद में सरोवर किनारे छोड़ दिया गया.
नीरू और निम्मा ने उनका
पालन पोषण किया. मगर गरीबी के कारण वो कभी स्कूल नहीं जा पाए. इसी पर कबीर लिखते
हैं
जाति जुलाहा नाम कबिरा
बनि,बनि फिरो उदासी !!
मसि कागद छूओ नहीं,
कलम गही नहीं हाथ
इस बीच कबीर स्वामी रामानंद जी की संगती में आये और फिर जीवन से जुड़े आध्यात्म और आध्यात्म से जुड़े ईश्वर को समझना आरम्भ कर दिया. जब उनकी सोच बढ़ी तो उन्होंने पाया कि जीवन- आध्यात्म और ईश्वर इन सभी के बीच एक बड़ी सी दीवार है और वो दीवार थी- पाखंड और दिखावे की.
जिसके बाद वो कबीर से मुँहफट कबीर हो गए और फिर उसके बाद क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम ,क्या मुल्ला क्या पंडित उन्होंने उन सभी की खिंचाई शुरू कर दी जो स्वयं को धर्म के ठेकेदार मानते थे. कबीर को नहीं पढने वाले लोग भी उनके इस दोहे से अवश्य ही परिचित होंगे-
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई, ढाई आखर प्रेम का पढे+ सो पंडित होई.
कबीर अपनी वाणी के ज़रिये समाज में व्याप्त कुरुतिओं पर कुठाराघात करते गए. उन पाखंडियों को सीधी चुनौती दी जो लोगों को बरगलाते थे. क्या पंडित और क्या मुल्ले सभी उनके निशाने पर रहे जो खुद को भगवान का ठेकेदार मानते थे.
मगर उस वक़्त भी किसी ने उनका विरोध नहीं किया क्यूंकि उनकी वाणी में सच्चाई और दिव्यता थी. बाद में कबीर के कई लोग अनुयायी भी बने जिनमे हिन्दू भी थे और मुस्लिम भी.
एक लोई नामक युवती से उनका विवाह भी हुआ था जिनसे उनके दो बच्चे हुए कमाल और कमाली . कबीर के एक दोहे से उनके विवाह के बारे में पता चलता है –
बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल ,
हरि का नाम सुमिरन छोडि के भर ले आया माल!!
कबीर ने कभी किसी धर्म का विरोध नहीं किया. विरोध तो उनका किया जो खुद को धर्म का ठेकेदार मानते थे और लोगों को ईश्वर प्राप्ति के लिए गलत सीख देकर उन्हें भ्रमित करते थे.
कबीर के पास एक मात्र उनका हथियार वही था जिसके लोग प्रेमी होते चले गए. बाद में कबीर की कृतियों को संकलित करके एक ग्रन्थ का रूप दिया गया जिसे बीजक के नाम से जाना जाता है.
कबीर अपने उपदेश में बताते हैं कि वे किसी धर्म के विरोधी नहीं हैं. उनके अनुसार अल्लाह या ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं रहते. भगवान को पाने का मार्ग सरल और सत्य होना चाहिए न कि आडम्बर से पूर्ण.
माना जाता है कि प्राचीन भारत के लोग छंदों में सोचते थे जिसे लम्बे समय तक याद रखा जा सकता था. कबीर जी की जो लिखने की भाषा शैली थी वो कई भाषाओँ के मिश्रण से इसलिए थी ताकि लोग उसे आसानी से समझ सके.
कबीर की बोली और दोहों पर कई रिसर्च किये जा रहे हैं. उन्होंने कई अलग अलग भाषाओं के प्रयोग से जिन विख्यात दोहों का जन प्रसार किया उन्हें उस काल का एक ऐसा महानतम अविष्कार कहा जा सकता है जो आज भी लोकप्रिय है और आगे भी लोग प्रिय रहेगी.
कबीर ने सौ साल की एक लम्बी उम्र पायी थी जो हजारों साल तक अपने असर को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त है. माना जाता है कि उनके मरणोपरांत उनका पूरा शरीर फूलों में परिवर्तित गया था ताकि उनके हन्दू और मुस्लिम अनुनायी उन्हें जलाने या दफ़नाने का विरोध करके आपस में न लडे.
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