मुग़ल सम्राट बाबर ( Babur) का लिखा वसीयतनामा संदेहास्पद कैसे रहा ? ( Doubtful will of Babur in hindi )

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 बाबर का वसीयतनामा

Babur ka vasiyatnama.


ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर बादशाह बहादुर गाजी सं० ९३३ हिजरी । यह गोपनीय आदेश पत्र ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बादशाद ग़ाजी ने राजकुमार नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ (ईश्वर उसको चिरायु करे) को राजकाज को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से लिखा था ।


 हे ! पुत्र ! इस भारत देश में विभिन्न सम्प्रदाय विद्यमान हैं। ईश्वर को धन्यवाद कि दैवी कृपा से वह तुमको प्रदान हुआ है। तुमको चाहिये कि अपने हृदय को साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित करके प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुकूल न्याय करो विशेषकर गो-बध से परहेज़ करो क्योंकि इससे हिन्दुस्तान की जनता के हृदय जीत सकोगे और प्रजा तथा जनता शाही शुभ व्यवहारों द्वारा राज्य से बँध जायेगी तथा प्रत्येक सम्प्रदाय के जो कि शासन के आधीन हैं मन्दिरों एवं पूजा - गृहों को ध्वस्त न करना। 


ऐसा न्याय करना कि प्रजा राजा से और राजा प्रजा से सन्तुष्ट हो । इस्लाम की प्रगति अत्याचार की तलवार की अपेक्षा अनुग्रह की तलवार द्वारा कहीं हितकर है तथा सुन्नी और शिया के पारस्परिक झगड़ों की ओर ध्यान न देना क्योंकि यह प्रचलित इस्लाम की शाखाएँ हैं । विभिन्न सम्प्रदायों की मानने वाली प्रजा का चार तत्वों के अनुसार संगठन करना ताकि साम्राज्य का शरीर व्याधियों से सुरक्षित रहे । आदरणीय अमीर तैमूर साहब किरानी का शासन विधान अपनी दृष्टि के सामने रखना ताकि शासन कार्य सुदृढ़ हो जाए ।


मुग़ल सम्राट बाबर ( Babur) का लिखा वसीयतनामा संदेहास्पद कैसे रहा ? ( Doubtful will of Babur in hindi )

 प्रथम जमादी -उल-अव्वल सं० ९३५ हिजरी ।

 में १९२३ ई० में श्रीमती ए० एस० व ब्रिज ने बाबर के वसीयतनामा के सम्बन्ध कुछ विद्वानों द्वारा की गई छानबीन के आधार पर एक नोट तैयार किया ।


यह नोट जरनल आफ एशियाटिक सोसायटी आफ ब्रिटेन एण्ड आयरष्ट (१९२३, पृ० ८०) में "फरदर नोट्स आन बाबुरियाना नामक शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ । श्रीमती वैव्रिज ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने स्वयं इस वसीयतनामा की मूल प्रति नहीं देखी और इस प्रकार वे इस वसीयतनामा के काग़ज कि वह कितना पुराना है तथा वसीयतनामा की लेखन- शैली में जो दोष रह गए हैं उनके सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट न कर सकी । अपने नोट में उन्होंने निम्नलिखित बातों पर ज़ोर दिया है।


(१) पाण्डुलिपि (Manuscript) पर जो लेखन-शैली है, वह १६वी शताब्दी की न होकर १८वीं शातब्दी की है ।

 (२) यह बहुत ही घटिया किस्म की नस्तालिक में उस व्यक्ति के द्वारा लिखा गया, जो कि नस्ख लिखने में अभ्यस्त होगा ।

यह वसीयतनामा दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में परामर्श, मुहर, शीर्षक का विवरण तथा अन्तिम शब्द दिया हुआ है और दूसरे भाग में केवल वसीयतनामा-ए-मखफी हैं ।

 (३) इस वसीयतनामा पर जो मुहर है, उसमें तथा बाबर की मुहर में अन्तर है । वह बड़ी है। मुहर की लिखावट नस्ख में है । हिजरी शब्द बहुत संक्षिप्त में लिखा गया है और उसमें फालतू पदवियाँ अंकित हैं तथा बाबर के पूर्वजों का नाम नहीं है ।

(४) मुहर पर शीर्षक (Legend ) इस प्रकार से है, जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर बादशाह बहादुर गाज़ी (हि० ९३३) । यह मुहर बाबर की उस सुविख्यात मुहर से भिन्न है जिस पर शीर्षक इस प्रकार खुदा हुआ है, जहोरुद्दीन मुहम्मद बाबर इब्न सुल्तान उमर शेख कुरकान (हि० ९००) । श्रीमती बंब्रिज का यह कहना है कि 'वसीयतनामा' की मुहर पर 'बहादुर' शब्द का प्रयोग ९१३ हि० : १५०६ ई० में ग्रहण की गई हुई, 'पादशाह' की महान् पदवी के बाद पुरानी लगती हैं ।

(५) मुहर की नस्ख लिखावट वसीयतनामा के विषय की नस्तालिक में लिखावट से मिलती-जुलती है। मुहर तथा शीर्षक दोनों में ही 'गाजी' शब्द बर्तनी में त्रुटि हैं, ज़ शब्द के प्रयोग के स्थान पर जाल का प्रयोग किया गया है। की (६) मुहर तथा वसीयतनामा के अन्त में हिज्री शब्द का संक्षिप्त रूप से हि० लिखकर प्रयोग किया गया है। ऐसा केवल बाद की अरबी की पाण्डुलिपिया  में ही मिलता है, जहाँ कि हिज्री शब्द का प्रयोग हि० लिखकर ही आमतौर वर किया गया है।


 (७) यह शीर्षक की "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर बादशाह गाजी का गुप्त परामर्श शाहज़ादा नुरुद्दीन हुमायूँ (ईश्वर उसे दीर्घायु प्रदान करे) को दिया गया ताकि सल्तनत का सुदृढीकरण किया जा सके," श्रीमती वेव्रिज के अनु- सार यहाँ दो बात बाबर की रचनाओं से भिन्न है :- (१) पदवियों का प्रयोग बाबर अपने लिए तथा अपने पुत्रों के लिए कहीं भी पदवियों का प्रयोग नहीं करता है । (२) यदि कहीं भी वह पदवियों का प्रयोग करता है तो तम्ररी ढंग से मिर्ज़ा शब्द का प्रयोग पदवी के लिए करता है ।


 (८) वसीयतनामा के अन्त में यह लिखा है कि इस परामर्श को घोषित करना हमारा कर्त्तव्य है, जमादी -उल-अव्वल हि० ९३५ : ११ जनवरी, १५२९ । श्रीमती बेब्रिज का विचार है कि "बाबरनामा से यह ठीक तरह से ज्ञात नहीं होता कि क्यों और किस समय हुमायूँ को यह परामर्श दिए जाने का विचार किया गया। यह भी ज्ञात नहीं होता कि यह परामर्श किसको और किसके द्वारा दिये जाने थे, चूंकि जमादी -उल-अव्वल हि० ९३५ में हुमायूँ समरकन्द अभियान पर था और बाबर धौलपुर के उद्यान में भवनों के निर्माण के लिए स्थान निर्धारित कर रहा था। इसके अतिरिक्त वसीयतनामा एक अन्तिम इच्छा के रूप में था तो उसकी तिथि बाबर की मृत्यु से बहुत पूर्व की है, चूंकि बाबर की मृत्यु २६ दिसम्बर, १५२९ से पूर्व नहीं हुई।" गुप्त परामर्श के सम्बन्ध में श्रीमती बेब्रिज ने निम्नलिखित त्रुटियाँ इंगित की हैं :-


वसीयतनामा जो कि बाबर ने फारसी में लिखा उसे हम तुर्की से किया गया अनुवाद नहीं मान सकते चूँकि वह बाबर की लेखन शैली से भिन्न है ।


 (१) बाबर की मृत्यु से पूर्व हुमायूँ को किसी प्रकार की सर्वसत्ता (Sove- reignty) नहीं प्रदान की गयी ।

 (२) अकबर के राज्यकाल की धर्मान्धता, बाबर के काल में मुसलमानों की स्वामिभक्ति थी ।

 (३) यह प्रतिबन्ध उस समय के लिए उचित प्रतीत होते हैं जबकि बादशाह बौर राजा के बीच यह तय हुआ कि राजपूत राज्य में गो-बध नहीं होगा 

 (४) ९२३ हि० में ही अयोध्या में एक पुरातन पवित्र हिन्दू मन्दिर के स्थान पर मावर की मस्जिद का निर्माण कार्य समाप्त हुआ।

 (५) आठवें परामर्श में दो बातें ऐसी हैं जो कि सन्देह उत्पन्न करती है-

 १ संमूर की पदवी, साहिब हिरान सामी का प्रयोग। बाबरनामा में बाबर ने सदैव संगूर को संगूर बेग ही लिया। उसके मरणोपरांत प्रयोग किये गए किसी पदवी का प्रयोग बाबर ने नहीं किया।

 २-सीयतनामा में कारनामा नामक पुस्तक का जो उल्लेख है वह भी सही नहीं है।

 (६) श्रीमती बेब्रिज ने वसीयतनामा की भाषा में भी त्रुटियाँ इंगित की हैं।

 (७) अन्त में श्रीमती बेव्रिज यह प्रश्न करती हैं कि "९९६ हि० : १५८७ ई० में जब अबुल फजल के अभिलेखाकार के लिए ऐतिहासिक सामग्री की सोज की गई तो यह प्रपत्र कहाँ तथा क्यों इतने समय तक छिपा रहा ?'

सम्पूर्ण वादविवाद से निष्कर्ष पर पहुँचकर श्रीमती बेब्रिज का यह विचार है कि बाबर ने फारसी में जो दक्षता प्राप्त कर ली थी वह बात "वसीयतनामा- ए-मखफी", जैसे त्रुटिपूर्ण प्रपत्र को असली मानने के विपक्ष में ठहरती है। "

 इस वसीयतनामा की यथार्थता के सम्बन्ध में श्रीमती बेब्रिज के सन्देह के कारण जो भी हों, इस बात को हम किसी प्रकार से अस्वीकार नहीं कर सकते कि यह प्रपत्र बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । हमारे मस्तिष्क में पहला जो प्रश्न उठता है वह यह है कि यह वसीयतनामा स्वयं बाबर ने नहीं लिखा या तैयार करवाया, तो क्यों तथा किस विचार या उद्देश्य से किसी अन्य व्यक्ति ने यह वसीयतनामा लिखा? यह भी निश्चित है कि वसीयतनामा में दिए गए परामर्श से हुमायूँ के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को लाभ भी नहीं पहुँच सकता था । वास्तव में यह वसीयतनामा एक उत्तराधिकार सम्बन्धी प्रपत्र ( Succession Deed) न होकर एक ऐसा प्रपत्र था जिसमें की हुमायूँ को महत्वपूर्ण हिदायतें दी गई थीं।

 निःसन्देह इस वसीयतनामा की भाषा में त्रुटियाँ हैं और कुछ दोष हैं तथा इसे बाबर ने स्वयं नहीं लिखा। इसके अतिरिक्त यह भी बता देना आवश्यक है कि मुहर में दी गई तिथि तथा प्रपत्र के अन्त में दी गई तिथि में अन्तर है।


१. श्रीमती बेव्रिज, शोध निबन्ध, "फरवर नोट्स आन बाबुरियाना" जरनल आफ रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ब्रिटेन एण्ड आयरलैंड, १९२३, पृ० ८० ।


 किन्तु साथ ही साथ कुछ अन्य बातें भी विचार करने के योग्य है, उदाहरणार्थ (१) ९३३ हि० में बाबर का अस्वस्थ रहना । (२) माहम के आगरा आने से पूर्व तथा उसके पश्चात् दरवारी गुटबन्दियों की प्रकृति (३) हिंदुस्तान के बारे में बाबर को अत्यधिक अनुभव प्राप्त हो चुका था अतएव उसने हुमायूँ को जो कि राजनीतिक मामलों से बिल्कुल ही अनभिज्ञ था को कुछ परामर्श देना नितांत आवश्यक समझा ।


खनवा के 'युद्ध के उपरान्त बाबर निरन्तर बीमार रहने लगा उसका बलिष्ठ शरीर दिन प्रतिदिन क्षीण होने लगा। बाबरनामा में यदा कदा उसने अपनी बीमारी का उल्लेख किया है। अगस्त ३, १५२७ को वह बीमार पड़ा और सतह दिनों तक बीमार रहा । २ ज़िल हिज्जा, ९३४ हि० को वह पुनः बीमार पड़ा और नौ दिनों तक बीमार रहा । २ १७ अक्तूबर, १५२७ को मले- रिया ज्वर उसे आया और अगले पचीस या छब्बीस दिनों तक वह ज्वर से पीड़ित रहा । इसके उपरांत १३ अप्रैल से १८ सितम्बर तक उसकी आत्म- कथा में विवरण का क्रम टूट गया। विवरण के क्रम टूटने का एक कारण उसका रुग्ण रहना भी हो सकता है । २६ सितम्बर, १५२८ ई० को उसके कान में बहुत जोरों से पीड़ा हुई ।४ १३ अक्टूबर को पुनः उसके कानों में दर्द हुआ ६ नवम्बर, १५२८ ई० को वह बुरी तरह से रोग ग्रस्त हुआ और २८ नवम्बर तक बीमार रहा । निरन्तर बीमार रहने के कारण उसका शरीर दुर्बल हो गया और अपने जीवन से निराश हो गया ।


 १२ दिसम्बर १५२८ ई० को अपने पुत्रों में मिर्ज़ा अस्करी, जो कि इस समय उसके पास था, को एक जड़ाऊ खंजर, पेटी, शाही लिबास, पताका, तुड़ा, नक्कारा, ६ से लेकर ८ तिपुचक घोड़े, १० हाथी, ऊँट तथा खच्चर की एक -एक कितार तथा शाही असबाब एवं शस्त्र आदि देकर सम्मानित किया। उसे आदेश दिया गया कि वह दीवान का पद ग्रहण करे।  इसी प्रकार उसके मुख्ला तथा दो जत्काओं को बटनदार जैकेट तथा उसके सेवकों को ९ जामो (कोट) के तीन जोड़े प्रदान किए गए। बाबरनामा का यह टीप बहुत महत्वपूर्ण है तथा अर्थहीन नहीं है । इस तिथि से पूर्व बाबर ने अपने किसी पुत्र को कभी इतने अत्युत्तम ढंग से सम्मानित नहीं किया था। जो सम्मानसूचक वस्तुएँ मिर्ज़ा अस्करी को इस अवसर पर प्रदान की गई वे बाबर की मानसिक दशा की ओर इशारा करती हैं तथा इस बात को इंगित करती हैं कि इस समय उसका झुकाव अपने तीसरे पुत्र की ओर था।


हुमायूँ से न वह प्रसन्न था और न ही उसका प्रधान मंत्री मीर खलीफा। जिस प्रकार मिर्ज़ा अस्करी का सम्मान किया गया उससे दरबार में तहलका मच गया होगा और सभी उमराव ने यह अनुमान लगाया होगा कि बाबर के मरणोपरांत अस्करी ही सिंहासन पर बैठेगा। किन्तु शीघ्र ही बाबर को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने उत्तराधिकार का प्रदन तय कर ११ जनवरी, १५२९ ई० को धौलपुर में अपने किसी अनुचर से कहकर वसीयत- नामा तैयार करवाया । उसने सोचा होगा कि यदि उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई तो यह वसीयतनामा उसके ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ के हितों की रक्षा करने में सहायक होगा । तत्पश्चात् १५ जनवरी, १५२९ को वह अफगानों से निबटने के लिए पूर्वी क्षेत्रों की ओर बढ़ा और जून १५२९ ई० तक इस अभियान में व्यस्त रहा। इस प्रकार इस मध्य उसे इतना समय भी न मिल सका कि वह उस दस्तावेज को देखकर उसकी त्रुटियों एवं दोषों को दूर कर सकता ।


इसी मध्य अस्करी को सम्मानित किए जाने की खबर शीघ्रातिशीघ्र काबुल पहुँची । इस खबर से माहम चितित हुई होगी। अतएव अपने पुत्र के हितों की रक्षा करने के लिए वह काबुल से चलकर आगरा २३ जून, १५२९ को पहुंची। ऐसा प्रतीत होता है कि उसके आने पर बाबर ने उस वसीयतनामा का जो कि हुमायूँ के पक्ष में उसने तैयार करवाया था, उससे कोई भी जिक्र नहीं किया। वसीयत- नामा को गुप्त रखना भी आवश्यक था, कारण यह कि उसके विषय में मालूम होते ही (१) उमराव वर्ग की स्वामिभक्ति विभाजित हो गई होती, (२) शाही राजकुमारों में आपस में मनमुटाव तथा संघर्ष प्रारम्भ हो गया होता, (३) यदि वसीयतनामा में शाही राजकुमार को दिए गए गुप्त परामर्श की घोषणा कर दी गई होती तो उल्मा वर्ग अवश्य ही बाबर के राज्य को गैर इस्लामी घोषित कर अपना सहयोग देने से इन्कार कर देता, जिसके फलस्वरूप भारत में नव-स्थापित मुगल साम्राज्य को एक बड़ा धक्का पहुँचता और उसको सुरक्षित रखना बाबर के लिए कठिन हो जाता ।


माहम के आने के उपरान्त हुमायूँ आया और जिससे बाबर की मानसिक चिन्ता दूर हुई। उनके आने से मीर खलीफा की आशाओं पर पानी फिर गया। मीर खलीफा माहम के प्रभाव से भलीभांति परिचित था। वह जानता था कि उत्तराधिकार का प्रश्न हुमायूँ के पक्ष में ही तय होगा। बाबर के निकट रहते हुए भी उसे वसीयतनामा जैसे गुप्त दस्तावेज की जानकारी न थी । यदि उसे वसीयतनामा के बारे में मालूम होता तो वह षड्यन्त्र रचकर अपनी मूर्खता का परिचय न देता । सम्भवतः वह निरन्तर इस भुलावे में रहा कि बाबर अस्करी के पक्ष में है । वह बादशाह की वास्तविक इच्छा का अनुमान न लगा सका कारण यह कि वह उत्तराधिकार के प्रश्न पर निरन्तर मौन रहा और उसने कुछ समय तक किसी पक्ष में कोई घोषणा न की। 


कुछ भी हो, मीर खलीफा हुमायूँ के सिहासन पर बैठने के पक्ष में न था, चूंकि उसके सम्बन्ध उससे खराब थे। वह अस्करी के पक्ष में भी नहीं था, चूंकि वह अभी एक बालक था और बाबर के चार पुत्रों में से तीसरा। यही कारण है कि शाही परिवार के एक अन्य सदस्य का पक्ष उसने लिया। उसकी योजना विफल सिद्ध हुई और मुग़ल साम्राज्य एक दुर्घटना से बच गया ।


अपनी मृत्यु से पूर्व बाबर ने अपने अमीरों को सम्बोधित करते हुए कहा कि वे हुमायूँ को अपना बादशाह स्वीकार कर लें। उन्होंने उसकी बात का समर्थन कर, हुमायूँ को गद्दी पर बिठाया। यह ठीक तौर पर ज्ञात नहीं है कि हुमायूँ को सिंहासनारोहण से पहले या बाद में कभी यह वसीयतनामा दिखाया गया या नहीं ? किन्तु उसके जीवन चरित को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उसने वसीयतनामा में दिए गए परामर्श का अक्षरशः पालन किया ।


इस बात को ध्यान में रखकर कि बाबरनामा में अनेक रिक्त स्थान हैं, वसीयनामा की यथार्थता के सम्बन्ध में जो प्रश्न श्रीमती बेब्रिज ने उठाये हैं, उन प्रश्नों एवं समस्याओं पर विचारकर उनका खण्डन किया जा सकता है-

(अ) बाबर धौलपुर की सैर करने के लिए गया था। उसके मन में हुमायूँ को कुछ परामर्श देने की बात यकायक उठी और उसने वसीयतनामा को तैयार करवाने का निश्चय किया । तुरन्त शाही मुहर का तैयार करवाया जाना क्या सम्भव नहीं ? जल्दी में शाही मुहर तैयार की गई जिसके कारण उसमें दोष रह गए। बाबर के बहुत ही कम प्रपत्र (documents) प्राप्त हैं। इस प्रकार एक दूसरी मुहर के बनाए जाने तथा उसके प्रयोग की सम्भावना को हम असम्भव नहीं मान सकते। जहाँ तक 'बहादुर' नामक पदवी के प्रयोग का प्रश्न है. श्रीमती बेब्रिज के विचार निर्णायक नहीं है। पन्द्रह सौ छब्बीस के पश्चात् बाबर ने दो निर्णायक युद्ध जीते और दोनों ही में उसने अद्वितीय एवं अदम्य साहस का परिचय दिया और इस प्रकार इस नई पदवी का प्रयोग करने का वह पूर्णरूप से अधिकारी था, जैसा कि उसने खनया के युद्ध पश्चात् किया।


(ब) श्रीमती बेब्रिज का यह कहना कि वसीयतनामा को प्रारम्भिक पंक्ति में नासिरुद्दीन हुमायूँ के लिए 'शाहजादा' शब्द का प्रयोग, अनूठा है और बाबर की लेखन शैली से भिन्न है। इस सम्बन्ध में यह पहले ही कहा जा चुका है कि वसीयतनामा बाबर द्वारा नहीं लिखा गया। यह वसीयतनामा एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया, जो कि न केवल बाबर की भाषा-शैली एवं लेखन-पद्धति वरन् फारसी भाषा में बहुत अधिक दक्ष नहीं था। यह व्यक्ति बाबर का कोई निजी सेवक हो सकता है। यही कारण है कि उसमें भाषा सम्बन्धी तथा अन्य वुटियां रह गई । (ग) इन शब्दों ने, कि इनकी घोषणा करना हमारे ऊपर है, जमाद उल-अव्वल, हि० ९३५ : ११ जनवरी, १५२९ व्यर्थ ही श्रीमती बेब्रिज में मन में भ्रान्ति उत्पन्न कर दी । वसीयतनामा कभी भी किसी भी समय तैयार करवाया जा सकता है और यह वसीयतनामा वसीयतकर्ता की मृत्यु तक गुप्त रखा जाता है। 


वसीयतकर्ता को जीवनकाल में इसकी घोषणा करना आवश्यक नहीं। (घ) वसीयनामा की यथार्थता के सम्बन्ध में श्रीमती बेब्रिज की यह आलोचना कि यह यथार्थ इसलिए नहीं है कि उसमें बाबर के विचारों के विपरीत बातें दी गई हैं, समर्थनीय नहीं हैं। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि बाबर अपने सिद्धान्तों में कभी अटल नहीं रहा । समय की आवश्यकता ही उसका मार्ग- प्रदर्शन करती थीं और समय को देखते हुए वह अपनी योजनाओं में भी परिवर्तन किया करता था। वह अपने पूर्वज अमीर तैमूर का प्रशंसक अवश्य था किन्तु उसके संकीर्ण विचारों से बंधा हुआ कदापि न था। वसीयतनामा में जो आठ परामर्श या हिदायतें हैं वे सब उसके अनुभव की उपज है। बाबर ने अपने पुत्र तया उत्तराधिकारी को उन गड्ढों में गिरने से बचने के लिए चेतावनी दी और उसे परामर्श दिया कि वह न्यायप्रिय एवं उदार बने तथा अपने जीवन में अमीर तैमूर का अनुकरण करे । वसीयतनामा में 'कारनामा' शब्द के प्रयोग का तात्पर्य किसी पुस्तक नहीं वरन् अमीर तमूर के महान कार्यों से है ।


 श्रीमती वैव्रिज के इस प्रश्न का उत्तर कि यह दस्तावेज या प्रपत्र (document) इतने दिनों तक कहाँ तथा क्यों किया रहा इस प्रकार में दिया जा सकता है । हुमायूँ के सिहासनारोहण से लेकर १४८० ई० तक का काल मुग़लों के लिए बहुत ही संघर्षमय था । इसी काल में यह वसीयत- नामा संभवतः अन्य राजकीय काग़जों, प्रपत्रों तथा किताबों में मिल गया होगा। हुमायूँ के पलायन के समय यह वसीयतनामा कुछ अन्य काग़जों के साथ किसी व्यक्ति या अफगानों के हाथ में पड़ गया जिन्होंने उसके बारे में बताने की न तो आवश्यकता समझी और न ही उसकी महत्ता पर ही ध्यान दिया। यह प्रपत्र इस प्रकार अन्धकार ही में पड़ा रहा। आज भी ऐसे अनेक परिवार हिन्दुस्तान के विभिन्न भागों में हैं जिनके पास पुराने दस्ता- बेज, प्रपत्र आदि मौजूद हैं और वे उन्हें अपनी व्यक्तिगत धरोहर समझ कर रखे हुए हैं और किसी भी मूल्य पर उन्हें देने को तत्पर नहीं है। 


न ही वे लोगों को यह दस्तावेज़ या प्रपत्र दिखाने को तैयार होते हैं। इसी प्रकार वसीयतनामा-ए-मरुफी भी मुग़ल साम्राज्य के समाप्त होने के दो सौ वर्षों से अधिक बाद तक किसी परिवार के पास पड़ा रहा और लोगों को इसकी जानकारी बहुत बाद में हुई । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बाबर का वसीयतनामा-ए-मखफी, एक मूल प्रपत्र न होकर उसकी प्रतिलिपि है, जिसका विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है तथा जिसकी ऐतिहासिकता एवं यथार्थता पर किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।

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