मिर्ज़ा ग़ालिब के उर्दू ग़ज़ल का हिन्दू अनुवाद सीखें :- Mirza ghalib shayari & hindi meaning

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मिर्ज़ा ग़ालिब के उर्दू ग़ज़ल का हिन्दू अनुवाद सीखें :- Mirza ghalib shayari & hindi meaning



"ग़ज़ल से उर्दू सीखें और उर्दू से ग़ज़ल" ये करामत तो मिर्ज़ा ग़ालिब ही कर सकते हैं जो उस चीज़ में रस पैदा कर दे जिसमे रस ना हो.


मिर्ज़ा ग़ालिब के उर्दू ग़ज़ल का हिन्दू अनुवाद सीखें :- Mirza ghalib urdu shayari hindi mein.

Mirza Ghalib's Shayari & meaning in hindi.


ग़ज़ल पहली :-  


1. नक्श  फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का 

 कागजी है पैरहन हर पैकर- ए तस्वीर का


नोट - नक्श के आधे न में नुक्ता, शोखि के ख में नुक्ता

अर्थ :- 

नक्श-चित्र, चिन्ह, तहरीर लिखावट, पैकर= आकृती, चेहरा


पहला अर्थ -  मैंने यह जो कागज पर अशआर लिखे हैं, वह एक चंचल नक्श की तरह हैं। इनमें तब तक कोई ताकत यानी मतलब नहीं उतर सकता जब तक मेरे इन लफ्ज़ों में ऐ ख़ुदा तू अपनी रोशनी से असर पैदा नहीं करता है। यह मेरे लिखे हुए शब्द तुझसे दुआ मांगते हैं कि हम में असर पैदा कर.


दुसरा अर्थ -  दुनिया बनाने वाले ने यह जो सजीव जीव पैदा किए हैं, वो कागज पर उतरी हुई तस्वीर की भाँती हैं। और यह कागज पर उतारे है इसलिए वो कागजी लिबास पहने हैं ऐसी कल्पना की गई है। और यह सजीव अर्थात् इंसान ख़ुदा से फरियाद करते हैं। क्यों कि हर इन्सान अपने में या अपने आस-पास कुछ और होने की उम्मीद रखता हैं। जो कुछ ख़ुदा ने उसे दिया है, उससे वह खुश नहीं हैं, इसलिए वह फरियाद करता नजर आ रहा है। 


२. कावे-कावे सख. तजानीहा-ए-तन्हाई न पूछ 

सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का


सख्तजा- निर्दय कठोर। जू=नदी, कावे- कावे= सख़्त मुश्किल काम . शीर=दूध 


विरह की रात बिताना उतना ही कठिन है जितना शीरी-फरहाद की कहानी में पहाड़ को काटकर दूध की नहर निकालना फरहाद के लिए मुश्किल हुआ था। यह एक असंभव कार्य था। 


(३) जज्बः - ए- बेइख्तियार -ए शौक देखा चाहिए

सीनः -ए- शमशीर से बाहर है दम शमशीर का


जज्वः = भावना शमशीर तलवार।


गालिब यह फर्मा रहे हैं, जब तक तलवार म्यान के अंदर होती है, उसकी ताकत असर नहीं दिखा पाती। जब वो बाहर निकलती है तो उस वक्त ही उसका जोहर खुलता है। उसी तरहा इंसान के जजबात उसके काबू में हो, तो असर पैदा नही करते। जब वो बेकाबू हो जाते हैं किसी न किसी सूरत में अपना असर, अपनी ताकत जरूर दिखाते हैं।


.आगही दाम-ए-शनीदन जिस कदर चाहे बिछाए 

 मुद्दआ अन्का है, अपने आलम -ए -तकरीर का


आग ही=समझ बुझ, दाम-ए-शनीदन= श्रवण जाल, अन्का= एक काल्पनिक पक्षी जो बहुत उंचाई पर उड़ता है। 


गालिब कह रहे है कि मेरी शायरी को समझने के लिए कोई कितना भी प्रयास करें, अपनी चेतना का, समझ बुझ का जाल जिस कदर फैलाए पर यह मतलब का अन्का (परिंदा) उनके हाथ नहीं आनेवाला तात्पर्य मेरी शायरी समझना बहुत मुश्किल है।


५. बस कि हूँ, 'गालिब' असीरी में भी आतश ज़ेर-ए-पा 

    मू- ए- आतश - दीद: है हल्कः मिरी ज़ंजीर का


 असीर=कैद,


मू-ए-आतश-आग पर धरा बाल . हल्कः = जंजीर की कडी


में कैद में हूँ और मेरे पाँव तले जो आग है, उससे मेरे पैरों के बाल झुलसकर गोल हो गये हैं और वो एक जंजीर की कड़ी की तरहा दिखाई दे रहे हैं मैं दुखों की गर्मी से तप रहा हूँ। यहाँ में कैदी की तरहा अकेला हूँ। मुझे देखने वाला मेरे सिवाय कोई नही हैं।


ग़ज़ल दूसरी.


जराहत तोहफा, अल्मास अर्मुंगा, दाग -ए- जिगर हदिय:

 मुबारकबाद 'असद', गुमख्वार-ए-जान-ए-दर्दमन्द आया.


जराहत-जयम, अल्मास हिरा, हृदय नजराना, अर्मुर्गा तोहफा


मेरा गमख्वार पानी मेरे दर्द में शरिक होने वाला मेरा यार कैसे कैसे नज़राने लेकर आया है। दो मेरे लिए दिल के जयम, दिल को काटने के लिए हिरा और जिगर के द्वारा लेकर आया। देखिए तो हमे क्या खूब तोहफे मिले हैं। जिया अन्दाज में बयान किया गया है।


जुज कैस और कोई न आया ब-रु-ए-कार 

सहरा, मगर, बतंगि - ए-चश्म-ए- हुसूद था.


हुसूद-ईर्ष्या


ब-स-ए-कार-काम में लाना जुजु सिवाय सहरा- रेगस्तान 


मजनू के सिवा कोई भी इस तरहा सहरा में नहीं आया, पर सहरा उस से ईष्या कर रहा है। और एक ईर्ष्यालू की आँखों की भाँती तंग हो गया है। सहरा को अपनी गर्मी पर गुरूर है। अपने खौफनाक होने पर गुरूर है कि मेरी गर्मी कोई बरदाशत नहीं कर सकता। ल…


उयूब अयुव (दोष) का बहूवचन बरहनी नग्नता मेरे कफन से ही मेरी सारी बुराईयों के चिन्ह के गये। वर्ना जब तक में जीवीत था मेरी सारी बुराईया सामने आती रही। मैं अपने अस्तित्व पर एक कलंक ही था। (गीत के बाद आदमी की बुराईयों को सामने नहीं लाया जाता)


तिशे बिगैर मर न सका कोहकन 'असद' 

सरगश्त:- ए- खुमार-ए-ससूम-ओ-कुयूद था.


सरगरत उन्दिग्न, तिशे-कुदाली


फरहाद ने जब पहाड़ काट दिया तो उसे बताया गया कि शीरी मर गई है। इस बात पर उसने कुदाली से माथा फोड़कर अपनी जान दे दी। ग़ालिब यह सोचते है, इतनी गमगीन बात सुनकर उसे तो तिथे बगैर मरना चाहिए था। पर वो रस्मो-रिवाजों का बंधा हुआ था, उसे तिशे से ही मरना पड़ा।


कहते हो, “न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया 

दिल कहाँ कि गुम कीजे? हमने मुद्दआ पाया


तुम कहते हो कि अगर तुम्हे हमारा दिल कही पड़ा हुआ मिले, तो तुम उसे हमें दोगे नहीं। पर क्या दिल कहीं गिरने वाली चीज़ है । लेकिन इस बहाने हमें यह बात समझ में आ गई कि आप हमारे दिल को अपने पास रखना चाहती है। हमारे पास खोने के लिए दिल नहीं है, वो पहले से ही दे चुके है।


इश्क से तबीअत ने, जीस्त का मजा पाया 

दर्द की दवा पाई, दर्द-ए- बेदवा पाया


इश्क से ही इस दुनिया की रंगत बढ़ गई है। सारे जहाँ के गोशे गोशे में हर एक शे में इश्क का रंग छलक रहा है। यहाँ मुराद सारी दुनिया को बांध लेने वाला प्यार है। यह इश्क सारी दुखों की दवा हैं। और वो एक ऐसा दर्द पैदा करता है जिसकी कोई दवा नहीं। (फिर भी इस एक लफ्ज़ ने सारी दुनिया को हसीन बनाया है।


दोस्तदार-ए-दुश्मन है, ऐतिमाद-ए-दिल मालूम 

आह बेअसर देखी, नालः नारसा पाया.


दोस्तदार-ए-दुश्मन = शत्रु का मित्र नारसान पहुँचने वाला


ऐ मेरे दोस्तो पर भरोसा करनेवाले दिल, तू समझ ले कि ये दोस्त दुश्मन की तरहा है। तेरी आहों का उन पर कुछ असर नही होने वाला। तेरी आर्त पुकार (नालः) उन तक नहीं पहुँचने वाला, यानी वो नहीं सुनने वाले।


सादगी-ओ-पुरकारी, बेखुदी -ओ-हुशियारी 

हुस्न को तग़ाफ़ुल में, जुरअत-आज़मा पाया


सादगी-ओ-पुरकारी सरलता और चालाकी तग़ाफुल-उपेक्षा, उदासीनता


उनमे सादगी है, चालाकी भी है। अपने आपको भुल जाने वाले बेखुद भी है। हुशयार भी है। पर जब वो तग़ाफ़ुल पर यानी कि हमारी उपेक्षा करने पर उतर आते हैं, तो हमारी सारी हिम्मत दाँव पर लग जाती है। हमारी हिम्मत की वो कसौटी ही लेते हैं।


गुंचः फिर लगा खिलने, आज हमने अपना दिल 

खूं किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया.


कली जिस कदर खिलती है, उसी तरह हमारी महबूबा जवान हो रही है। वह हमारे दिल को तड़पा रही है। हम अपने दिल को कहीं खो चुके थे, इस बात की हमें वह याद दिला रहीं हैं।


हाल-ए-दिल नहीं मालूम, लेकिन इस कदर यानी 

हमने बारहा दूँडा, तुमने बारहा पाया.


इस दिल का क्या हाल है, क्या बताऊँ? हम बार बार इसे ढूंढते ही रह गये। आपके दिल में क्या है, इस बात का अन्दाज़ हम नहीं लगा पाते और बार-बार ढूंडते ही रहते है। हमारे दिल में क्या है यह तो आप समझ गये थे। शोर-ए-पन्द-ए-नासेह ने जख्म पर नमक छिड़का (6)


आप से कोई पूछे, तुमने क्या मज़ा पाया

पन्द- हितोपदेश, नासेह-उपदेशक


नासेह जोर शोर से हमें नसीहत दे रहा है वो हमें यह समझाना चाहता है कि दिल लगाना अच्छी बात नहीं, पर उसकी इन बातो से हम और भी ज्यादा तड़पते है। उसकी बाते हमारा दिल नहीं मानता। पर हमारे दिल की बैचेनी देखकर आपको तो मज़ा आता होगा।


दिल मेरा सोज़ -ए- निहां से, बेमहाबा जल गया

आतश -ए ख़ामोश की मानिन्द गोया जल गया


सोज-ए-निहां अन्दर की आग बेमहाबा बिल्कुल। आतश-ए-ख़ामोश बिना धुवाँ और ली की आगा अंदरूनी आग से (माशूक के गम से) मेरा दिल पूरी तरह जल चुका है। यह आग किसी पर जाहिर नहीं हुई। उसने खामोशि से अपना काम कर दिखाया और मेरे दिल को जला कर खाक कर डाला।


दिल में जौक-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाकी नहीं

आग इस घर में लगी ऐसी, कि जो था जल गया.


जौक-ए-वस्ल - मिलन की चाह ।


अब हमारे दिल में मेहबूब से मुलाकात की न तो उम्मीद है और न ही उसकी याद बाकी रह गई है क्यूँ कि इस घर को (जिस दिल में माशूक रहा करता था) ऐसी आग लगी कि सब कुछ जलकर रह गया।


मैं अदम से भी परे हूँ, वर्नः गाफिल, बारहा

मेरी आह-ए-आतशी से, बाल-ए-अन्का जल गया


अदम= यमलोक। गाफिल-असावधान। आह-ए-आतशी आग से भरी हुई आह। बाल-ए-अन्का-अन्का नाम के काल्पनिक परिन्दे का पर


अब मै अदम से भी (मरने के बाद जहाँ सहे पहुँचती है) आगे निकल चुका हूँ। वरना गाफिल (माशुक) तू देखता कि मेरी आह-ए-आतशी (इश्क की आहों की जलन से) से अन्का के पर भी जल जाते । यानी मेरी आहे इतनी दूर पहुँचने वाली थी। तो क्या तुझ तक नहीं पहुँच पाती ? लेकिन अब क्या कीजिए कि मैं अदम से परे जा चुका हूँ।


अर्ज कीजे, जौहर-ए-अन्देशः की गरमी कहाँ

कुछ ख़याल आया था वहशत का, कि सहरा जल गया


जौहर-ए-अन्देशः = कल्पना का जौहर । वहशत= घबराहट, पागलपन दीवानगी। 


इस शेर में ग़ालिब अपनी तारीफ करते हुए कहते है कि, गालिब साहब आप हमे जरा ये तो बताईए कि आपके खयालात, तसव्वुरात की गर्मी आपने कहाँ से पाई ? जिसका यह हाल है कि तुम वहशत का तसब्बुर करते हो तो सहरा जल उठता है। दूसरे मानी में तुम्हारी वहशत का तसव्वुर (कल्पना) इतना पुर असर है के उसके सामने असल सहरा की असर अंदाजी मांद (फिकी) पड़ जाती है इसलिए वो सहरा आप के जौहर ए फिक्र के सहरा से जलन मेहसूस करता है।



दिल नहीं, तुझको दिखाता वर्नः, दागों की बहार 

इस  चरागाँ  का करूँ क्या, कारफरमा जल गया


चरागों दीपोत्सव, चरागदान,

कारफरमा- प्रबन्धक, बत्ती


ऐ मेरे माशूक । अब मेरे पास दिल ही नहीं वर्नः मैं तुझको बताता कि इस पर कितने दागों की बहार थी। जिस कदर चमन में बहार आती है उसी तरह मेरा दिल इन दागों से भर गया था। लेकिन अब मैं क्यों करूँ, कि इस दिल के बगैर मैं उस चरतर के मानिंद हूँ जिसका कारफर्मा (बत्ती) जल गया है। मुराद जिस तरहा कारफरमा के बगैर चराग जल नहीं सकता उसी तरह अब दिल के बगैर मुझ में उम्मीद और उमंगो की रोशनी नहीं रही।


मैं हूँ और अप्सुर्दगी की आरजू 'गालिब' कि दिल 

देखकर तर्ज-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया


अफ्सुर्दगी=मायूसी,


तर्ज़-ए-तपाक- आवभगत करने का ढंग,


अब मै इस कदर मायूस हो चुका हूँ कि मेरा दिल देखकर यानी मुझे हँसते देखकर जो लोग मेरा इस्तकबाल करते थे (मेरी आव भगत करते थे) यो मेरी हालत पर गम जदा हो रहे है। जल रहे है। या दुनिया वालों के आवभगत के ढंग देखकर मेरा दिल जल गया।


शौक, हर रंग रकीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला

कैस तस्वीर के पर्दे भी उरियाँ निकला 


सर- ओ सामाँ सुख के सामान । उरियाँ निर्वसन

रकीब= दुश्मन। शीक= आसाक्ती, उन्माद। 


जब इन्सान किसी उन्माद में पागल हो जाता है तो दुनिया के तमाम साजो सामान को वह छोड़ देता है। उनसे वह दूर भागता है। ग़ालिब बता रहे है कि यही वजह है कि मजनूं को भी किसी तस्वीर में उतारा गया तो वो फटे कपड़ो में, वीरान जंगलो में भटकता हुआ नजर आता है। इस तरह इन्सान का शौक दुनिया के ऐषो आराम का दुश्मन साबित होता है।


ज़ख्म ने दाद न दी तंग-ए-दिल की यारब ! 

तीर भी सीनः -ए -बिस्मिल से पुरअफशाँ निकला


बिस्मिल=जख्मी। पुरअफश= रोशन | तंग= संकुचित


मेरा दिल तंग नहीं है। मेरा दिल बहुत विशाल है। वो बड़े-बड़े जख्मो को अपने अंदर समाए हुए है। मेरे जख्मो ने मेरे दिल की दाद दी है। इसलिए जब मेरे दिल से चुभा हुआ, तीर बाहर निकाला गया तो वो भी जगमगा रहा था। क्या यह मेरे दिल की, मेरे जख्मो ने दी हुई दाद नहीं हैं ?


बु-ए-गुल, नाल:-ए-दिल, दुद-ए-चराग-ए-महफिल 

जो तेरी बज़्म से निकला, सो परेशाँ निकला


बु-ए-गुल-फुल की खुशबू। दूद=चुँआ। नालः दर्द भरी पुकार 


फूलों की खुशबू हो, दिल से निकली हुई आह हो या चिरागो से निकला हुआ धुँआ, जो भी तेरी मेहफिल से निकला परेशा होकर निकला। तुझसे दूर होना उनके लिए परेशानी साबीत हुआ। या एक यह भी मतलब हो सकता है कि तुम्हारे सितम से वह परेशान होकर बाहर निकले हैं।


दिल-ए-हसरतजदा था माइदः - ए - लज़्ज़त-ए-दर्द

काम यारों का बकद्र-ए-लब-ओ-ददाँ निकला 


दिल-ए-हसरतजदा निराशा ग्रस्त दिल। दंद=दतिः माइदः = दस्तरखान, वह वस्त्र जिसपर खाना सजाते हैं।


मैने अपने इस दर्दमंद दिल का दस्तरखान बिछा रखा हैं। मेरी जिंदगी के अलग-अलग किस्म के दर्द मैने उस पर सजा रखे हैं। और जब मेरे यारो की नजर उसपर पड़ी है तो वो इतने खुशी से आगे बढ़े और मेरे दुख दर्द का उन्होने इस कदर लुत्फ उठाया जैसे मैं कोई चाँव से खाने की चीज हूँ। और उन्होने जितना भी मजा उठाया, फिर भी मेरे पास इतना दर्द था कि वो उस दर्द के मुकाबले में कम ही निकला।


है नौ आमोज़-ए-फना, हिम्मत-ए-दुश्वार पसन्द

सख़्त मुश्किल है कि यह काम भी आसाँ निकला 


नौ आमोज-ए-फना मृत्य से नया नया परिचित होने वाला कम उम्र ही में मरने वाला। कठनाईयों से झुंजने का साहस रखने वाला। हिम्मत-ए-दुश्वार- पसन्द=


ऐ कम उम्र में मरने वाले, यानी नौजवान, यह तेरी हिम्मत, यह कठिनाईयों से झुंझने का साहास इस की मैं दाद देता हूँ। वास्तव में ये काम बहुत कठीन है पर तुमने तो इस मुश्किल को भी आसान कर दिखाया हैं। में तो इतनी परेशानियाँ उठाकर, इतने दुखो को झेल कर जी रहा हूँ। पर तुमने वह हिम्मत दिखाई जो मुझसे न हो सकी ।


दिल में फिर गिरियः ने इक शोर उठाया 'गालिब' 

आह जो कतरः ना निकला था, सो तूफाँ निकला


गिरिया = रोना मेरे दिल में एक शोर मचा हुआ हैं। मेरा दिल रो रहा है। पहले कभी आखों से एक बुदं तक नहीं आती थी पर अब यहाँ आसुओं का तूफान उमड़ पड़ा हैं।


धमकी में मर गया, जो न बाब-ए-नवर्द था

 इश्क ए नबर्दपेश, तलबगार-ए-मर्द था


बाब-लायक। नबर्द= लड़ाई। तलबगार चाहने वाला, खोजने वाला।

जो लड़ाई के लायक नहीं था, जिसमे लड़ाई की हिम्मत नहीं थी, वह तो धमकी ही से मर गया। इश्क की लड़ाई करना


यह तो हिम्मतवाला काम था। इश्क की लड़ाई ऐसे काबिल मर्द की तलाश करती थी। अर्थात में वो हिम्मत वाला मर्द हूँ। 


था जिन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेशतर भी मिरा रंग ज़र्द था


पेशतर = पहले। (जर्द = पिला । खटका-डरा


जब तक मैं जिन्दा था हर वक्त मेरा दिल मौत के खौफ से डरता था। इसलिए जब मेरी मौत आई तो डर के मारे चेहरा पिला पड़ गया था। (मौत से डरना इसलिए बता रहे है के वह जिन्दगी से बेहद प्यार करते थे। उम्र भर दुखो का सामना करने के बावजूद भी वह जिंदगी से बेहद प्यार करते थे।)


तालीफ-ए-नुस्खः हा-ए-वफा कर रहा था मैं 

मजमू अ:-ए-ख़याल अभी फर्द फर्द था


तालीफ-किताब लिखना, संपादन। फर्द-बिखरा हुआ, अलग-अलग


मैं प्यार के बारे में किताब लिखने बैठा। विचारों को अब बांधने की कोशिश कर हरा था। अभी तक मेरे खयाल बिखरे हुए, अलग-अलग से थे। जब लिखने लगा तो वह सामने आ गये।।



दिल ता जिगर कि साहिल-ए-दरिया-ए-खूं है 

अब इस रहगुज़र में जल्वः-ए-गुल आगे गर्द था


दिल से लेकर जिगर तक इन दोनो साहिल तट के बीच खून की नदी बह रही है। याने मेरा दिल जो नर्म व नाजुक है.


वह और हिम्मत रखने वाला, मजबूत जिगर दोनो भी जख्मी हैं। इस प्यार ने दोनो की वैसी ही एक हालत बना दी हैं। इस राह में हम समझते थे कि फूलों की बहार है लेकिन आगे बढ़कर देखेने से पता चला कि आगे सिर्फ गर्द (मिट्टी) यानी खाक हैं। खाक छानना ही हैं।


जाती है कोई कशमकश अन्दोह-ए-इश्क की ? 

दिल भी अगर गया, तो वही दिल का दर्द था.


अन्दोह=दुःख . कशमकश खिंचातानी। 


इस इश्क में जो दिल पर गुजरती है वो खिंचा-तानी, वो दुःख दर्द भी भला कहीं जाते है ? वो तो आखिर तक दिल से चिपके रहते हैं। 'गालिब' तो फमति है कि मेरा दिल भी जल कर खाक हुआ फिर भी इश्क के दुःख वही के वही रह गये।


अहबाब चारासाज़-ए-वहशत न कर सके

 जिन्दों में भी ख़याल, बयाबाँ नवर्द था


अहबाब=दोस्त। चारासाजि=इलाज। वहशत पागलपन, डर। नवर्द= राह चलने वाला, घुमता हुआ। बयाबा=जंगल। 


मेरी इस इश्क की बिमारी का इलाज दोस्तों से न हो सका। मेरा पागलपन देखकर उन्होने मुझे कैद याने एक जगह बंद कर रखा। पर मेरे खयालों को तो वो कैद नहीं कर सकते थे। मेरे खयाल तो वीरानो में भटकते ही रहें।


यह लाश-ए-बेकफन 'असद' -ए-खस्तः जौं की है 

हक मगफिरत करे, अजब आज़ाद मर्द था.


हक= खुदा। मगफिरत=मोक्ष . खस्तः जो दुर्बल, थका-हारा 


यह जो कफन के बगैर लाश आप देख रहे हैं, वह थके-हारे 'असद' की हैं। ख़ुदा इसे मोक्ष दें। वो जिन्दगी भर सारे बॅन जानो से आजाद रहा इसलिए मरने के बाद भी कफ़न का बंधन भी गवारा न हुआ। ख़ुदा उसे मुक्ति दे ताकि वह वसे ही आज़ाद रहें।



शुमार-ए-सुब्हः मरगूब-ए-बुत-ए-मुश्किलपसन्द आया

तमाशा-ए-बयक कफ बुर्दन-ए-सददिल पसन्द आया 


शुमार-ए-सुबह: = माला जपना, यहाँ मेहबूबा के नाम की माला जपना मरगूब पसंद करना। कफ बुर्दन=नंगे पाव चलना.


मेरा उसकी नाम की माला जपना मेरी मेहबूबा को जो मुश्किल पसंद है बहुत अच्छा लगा। में उसके प्यार में पागल होकर उसके पिछे नंगे पाँव चल रहा हूँ। यह तमाशा सौ लोग बड़े प्यार से देख रहे हैं। पर में इस बात पर खुश हूँ कि मेरे इस पागलपन से 'वह' खुश हैं। दूसरा मतलब होता है के उसकी एक मुट्टी में सौ दिलों को बंद करने का तमाशा सबको पसंद आया।


ब फैज़-ए-बेदिली, नौमीदि-ए-जावेद आसाँ है 

कशाइश को हमारा उक्दः - ए - मुश्किल पसंद आया


ब फैज़-ए-बेदिली=बेदिली की कृपा से। नौमीदि=ना उम्मीदी। जावेद हमेशा की कशाइश बड़े दिलवाला। 


उनके मुसलसल अत्याचार से आखिर हम बे दिल हो गये। मगर यह बेदिली हमारे लिए बड़ी काम की साबित क्योकि इस बेदिली की वजह से हम हमेशा की ना उम्मीदी को सह सकें। और इस तरह हमने अपनी मुश्किल को सुलझाया। हमारी यह मुश्किल सुलझाना उन्हे बहुत पसंद आया, क्योंकि वो तो हमे सदा ना उम्मीद ही रखना चाहते हैं। इस तरह हमारी बेदिली ने ना उम्मीदी आसान कर दी। हमारे बड़े दिल वाले माशूक को ये पसंद आया। यहाँ तंज़ से 'बड़े दिल वाला' कहा हैं।


हवा-ए-सैर-ए-गुल,आईना-ए-बेमे हरि-ए-कातिल 

कि अन्दाज़-ए-बयूँ गलतीदन-ए-बिस्मिल पसंद आया


बेमेहरि=निर्दयता। गलतीदन=गलती से। बिस्मिल ज़ख्मी। हवा ए सैर ए गुल=यहाँ गुल यानी माशूक जो गैर के साथ मेल जोल बढ़ा रहा हैं।


वो हवा की सैर कर रहा है यह उसकी बेमेहरि को साफ दिखा रहा है। उसकी निर्दयता साफ दिखाई दे रही हैं। और उस तरहा वह अपने पहले से घायल आशिक को खून में डुबो रहा है। अपने पर इल्ज़ाम आए बगैर आशिक को कत्ल करने का यह अन्दाज़ पसंद आया।


दहर में नक्श-ए-वफा, वजह-ए-तसल्ली न हुआ

है यह वो लफ्ज, कि शर्मिन्दः-ए-मानी न हुआ


दहर= दुनिया, नक्श-ए-वफा- वफा की तस्वीर। शर्मिन्दा:-ए-मानी-सार्थक


हरचंद कि दुनिया में वफा व मेहरो मुहब्बत के अल्फाज राईज थे (चलन में थे मगर उनसे हमें तसल्ली नहीं हुई क्योंकि यह अलफाज़ अपने मानी लिए हुए नहीं थे। इन लफ्ज़ो के मानी असल में किसी ने भी मेहसूस नही किए। 'ग़ालिब' यह बताना चाहते है कि दहर में हर कोई समझता है कि मेरे साथ दूसरो ने वफा नहीं निभाई। इसलिए यह वह लफ्ज़ है जिसके मानी का सार्थक नही हुआ। इस लफ्ज़ ने किसी को भी तसल्ली नहीं दी हैं।


सब्ज़ :- ए- खत से तिरा काकुल-ए-सरकश न दबा . यह जमरूद भी हरीफ-ए-दम-ए-अफई न हुआ . सब्ज:-ए-खत-जवानी में गालों पर निकलने वाली दाढ़ी। काकुल-ए-सरकश=चंचल अलके जुल्फों . जमरूद = हरे रंग का किमती पत्थर अफई-नाग। हरीफ - दुश्मन। 


हम समझते थे हमारी जवानी, हमारा बाकपन तेरे सरकश (दूसरे की बात न मानने वाले) गेसुओ पर यानी तुझ जैसे सरकश माशूक पर काबीज आ जाएगें। लेकिन वह हो न सका। हम समझते थे कि हमारी जवानी उस कीमती पत्थर की तरह होगी जिसे एक नाग अपने पास दिलो जान से रखना चाहता है और इसलिए की वह कीमती होता है उसे पाने के लिए लोग उस नाग को खत्म करके उसे हासिल करना चाहते हैं। अर्थात वह जमरूद उस नाग के जीवन का प्रतिद्वंदी यानी दुश्मन हो जाता हैं। लेकिन यहाँ उस मेहबूबा ने उस नाग ने इस कीमती पत्थर को छोड़ दिया, उसे चाहा ही नहीं इसलिए वह उसके जान का दुश्मन न हो सका।


मैंने चाहा था कि आन्दोह-ए-वफा से छूटूं

वो सिमतगर मेरे मरने पे भी राजी न हुआ


सितमगर=सितम करने वाला, माशूक . अन्दोह-ए-वफा=प्रेम निर्वाह का दुःख, वफा की मुसीबत। 


मैं यह समझा था कि मर कर ही इस मुहब्बत के मुश्किल दर्द से छूटकारा पाऊँगा। लेकिन इस बात पर भी वह राजी नहीं हुआ मेरे मरने के बाद भी मेरे दुख-दर्द मेरे साथ ही रहें हमारी दास्ताने अन्दोह-ए-वफा से आज भी भरी हुई हैं


दिल गुजरगाह-ए-ख़याल-ए-मै-ओ-सागर ही सही

गर नफस जादः-ए-सर मंज़िल-ए-तकवी न हुआ 


गुजरगाह = राह | मै-ओ- सागर मदिरा और चषका नफस साँस । जादः रास्ता। सर-ए-मंजिल मंजिल की तरफ . तकवी = खुदा का खौफ।


हमारे दिल की राह से मै व सागर के खयाल ही गुजरे अगरचे हम साँस के रास्ते से खुदा के खौफ की मंजिल को पाना चाहते थे, वह पा नहीं सकें। यहाँ मै व सागर से मुराद ख़ुदा को पाने का नशा भी है। जिसमे इन्सान अपने आपको भुल जाता है। यानी हम ख़ुदा को पा न सके लेकिन उसे पाने के खयाल में हमने सारी उम्र गुजार दी। खुदा को पाने के नशे में जीते रहे।


हूँ तिरे वादः न करने में भी राज़ी, कि कभी 

गोश मिन्नतकश-ए-गुलबॉग-ए-तसल्ली न हुआ


गोश- कान। मित्रतकश= उपकार लेना। गुलयोग परिंदे की सुरीली अवाज तुमने हमसे कुछ वादा नहीं किया यह एक तरफ से अच्छा ही हुआ। तुम अगर बादा करती तो हमारे कानों पर यह खुश

खबरी सुनने के उपकार हो जाते। पर अब वो भी नहीं हुआ। हमने किसी भी तरह का एहसान नहीं उठाया।


किससे महरूमि-ए-किस्मत की शिकायत कीजे 

हमने चाहा था कि मर जाएँ, सो वो भी न हुआ


महरूम-ए- किस्मत भाग्य से वंचित किस्मत ने हमारा किसी बात में साथ नहीं दिया। यहाँ तक कि आखिर हमने मरने की चाह की पर हमारी बदनसीबी ने हमारी यह ख्वाहिश पूरी नहीं की और हमे जीना ही पड़ा। यह तो महरूम -ए-किस्मत की हद हो चुकी ।।


मर गया सद्मः-ए-यक जुंबिश-ए-लब से 'गालिब' 

नातवानी से हरीफ-ए-दम-ए-ईसा न हुआ.


जुबिश-ए-लब=होंटो की हलचल। सदमः धाव नातवानी=दुर्बलता। हरीफ-ए-दम-ए-ईसाईसा की फुंक का शत्रु हम मेहबूबा के सितम व नफरत से इस तरह कमजोर हुए थे कि जब उसने (मसिहाने) हमारी जान वापस लाने के लिए


हम पर दम-ए-ईसा पढ़ना शुरू किया तो उसके लंबो की एक फूँक से ही हम मर गये। वो तो अच्छा ही हुआ की हम कमजोर थे। वरना इस दमे ईसा से हमें दुश्मनी हो जाती के इसके पढ़ने पर भी हम अच्छे क्यों नहीं हुए ? ( कयामत के दिन ईसा की फेंक से मुर्दे जी उठते है।)


सिताइशगर है जाहिद इस कदर जिस बाग़-ए-रिज्वा का

वो इक गुलदस्त: है हम बेखुदों के ताक ए निसियाँ का


सिताइशगर=प्रशंसका रिज्वजन्नत की बाग का रक्षका ताक- महराब, कोनाडा। निसियाँ विस्मृती ऐ जाहिद ! तू जन्नत की इतनी तारीफ कर रहा है तो जरा सुन ! वो हम शरबियों की ताक में रखें हुए गुलदस्ते के मानींद है। हमारी भूली बिसरी यादे इस कदर खूबसूरत है कि उसके सामने यह तेरा बाग-ए-रिज्वाँ एक गुलदस्ते से ज्यादा एहमियत नही रखता। हमारे ख्यालात इस जन्नत की बाग से भी बढ़ीयां खूबसूरत हैं।


वयों क्या कीजिए बेदाद-ए-कविशहा-ए-मिशन का

कि हर इक कृतरः-ए-खूं दाना है तस्बीह-ए-मरजों का बेदाद जिसकी दाद न मिले, निरर्थका काविश= कोशिश मिश= पलकें । तस्बीह जाप करना, मनी सरकाना।

मरजाँ=छोटे छोटे मोती।

अपनी पलको के उन खूबसूरत इशारों को मैं क्या बयान करू जीन को उनकी कोशिश की दाद नहीं मिल सकी। यानी तू उसे नहीं समझ सका। वो कोशिश बेकार गई। फिर यह हुवा कि वहीं खूबसूरत इशारे करने वाली पलके खून के आँसू बहाने लगी जैसे वो तस्बी हैं। मरजाँ याने छोटे खूबसूरत दानो वाली तस्बीह पढ़ रही हो।


न आई सतवत-ए-कातिल भी मानेअ, मेरे नालों को लिया दाँतों से जो तिनका हुआ रेशा नयस्ताँ का


सतवत=दबदबा। मानेअ=सकावट पैदा करने वाला नियस्तॉ मर चुकना, खत्म हो चुका। नालः = रोना। ग़ालिब कह रहे कि हम मौत के दरवाजे पर इस तरह खड़े थे जैसे कोई तिनका किसी के दाँतों में दबा हुआ हो इसलिए हम कातिल के दब-दबे उसके रोब से जरा भी नहीं हिचकिचाए और मुसलसल रोते रहे। लगातार रोते रहे।


४) दिखाऊँगा तमाशा, दी अगर फुर्सत जमाने ने मिरा हर दाग़-ए-दिल, इक तुख्म है सर्व-ए-चरागों का


तुष्म= पौधा। सर्व सुरू का पौधा जो उँचा होता है।


गालिथ यहाँ अपनी मेहबूबा से मुखातिब होकर केह रहे है कि अगर जमाने वालों से मुझे फुर्सत मिली (जो मुझे हर पल सता रहे हैं और उनके सितम से मुझे जराभी छुटकारा नहीं मिल रहा) या तू जमाने में इस कदर खोई हुई है कि तुझे मेरी तरफ ध्यान देने को वक्त ही नहीं है। अगर तुझे कभी फुर्सत मिली तो मै अपने दिल के पौधे का (दिल बहुत नाजुक होता है इसलिए उसे पौधा कहा है) हर दाग दिखाऊँगा जिस का हर दाग ऐसे जल रहा है जैसे सुरू के दरख्त पर किसी ने बहुत सारे चिराग जला दिए हो। यानी हर दाग से बहुत बड़े-बड़े शोले निकल रहे हो।

 (५) किया आईनः खाने का वो नक्शा, तेरे जल्वे ने करे, जो परतव-ए-खुरशीद आलम शबनमिस्ताँ का


आईनःखाना=वो घर जिसमें दिवारों पर आईने जड़े हो। परतव अक्स, सूरज कि किरने। शबनमिस्ताँ यो बाग जहाँ ओस की बुँद (शबनम मौजूद हो। इसलिए सुबह के वक्त बाग को शबनमिस्ताँ कहाँ जाता है। मेरे दिल के आईना खाने में ऐ मेहबूब तेरा ही जल्वा नुमाया है। हर तरफ तेरा ही अक्स नज़र आता है। जिस तरह

शबनमिस्तों में हर तरफ खुर्शीद (सूरज) का अक्स नजर आता है, उसी तरह तू हमारे दिल में जल्वा नुमा है।


६) मिरी तामीर में मुज्मर है इक सूरत ख़राबी की हयूला बर्क-ए-ख्रिरमन का है, ख़ून-ए-गर्म देहकाँ का


तामीर=रचना, निर्माण। मुज्मर = छिपी हुई खराबी विनाश हयूला-तत्व, ढाँचा बर्क बिजली । खिरमन खलिहान हर निर्माण के (तामीर के पीछे छुपी हुई एक विनाश की सूरत होती है। जिस तरहा किसान खूब मेहनत करके अनाज पैदा करके अपना खलिहान भरता हैं। और उसी खलिहान पर बिजली गिरके उसे तबाह करती है। गालिब कहते है यह बिजली मानो उसके खून की गर्मी ही है जो इस खिरमन (खलिहान) को खाक कर देती है। खून की गर्मी और बिजली की गर्मी दोनो का मूल तत्व एक हैं।


७) उगा है घर में हर सू सब्ज़, वीरानी तमाशा कर

मदार, अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का

हर सू चारों ओर सब्ज घास।

मदार-काम काज


इस शेर में ग़ालिब अपने घर की वीरानी का बयान करते है। जैसे जमीन की रखवाली, देखभाल न की जाय तो उस पर घास-फुस उग जाती हैं। इसी तरह मेरे घर में सब्जा उग आया हैं। और मेरे दरबान (घर का रखवाला) का काम सिर्फ यही रह गया है कि वह इस घास-फुस को खोदता रहें। गोया मेरे घर को आबाद करने वाला ( मेहबूब) मुझे न मिल सका और मेरी जिंदगी एक वीरानी का तमाशा बन कर रह गई।


ख़मोशी में निहाँ, खूँगश्तः लाखों आरजूएँ है चराग-ए-मुर्दा हूँ मैं बेजुबों गोर-ए-गरीबों का


निहाँ छुपी हुई । खूँगश्त - जिनका खून हो चुका है। गोर= कबर। गरीबा=जो अपने वतन से दूर हो। मेरी खमोशी लाखों खून की हुई आरजूओं की दास्तान लिए हुए है। जिस तरह कोई वतन से दूर इंतकाल कर जाए तो उसकी क्रब पर कोई चिराग नहीं जलाता। उसी तरहा में बेजुबान चराग-ए-मुर्दा की सूरत लाखों आरजूए लेकर खामोश पड़ा हूँ। €) हनोंज़ इक परतव-ए-नक्श-ए-ख़याल-ए-यार बाकी है


दिल-ए-अप्सुर्दः गोया, हुजर: है यूसुफ के जिन्दों का


हनोज अभी तक। परवत = किरन । अफ्सुर्दः=गमगीन। यूसुफ = एक पैगंबर हुजरः=छोटा सा घर

हज़रत यूसुफ को बेगुनाह मिस्र के बादशहा ने कैद कर दिया था। इस कैदखाने में वो अपने वालिद (पिता) की याद के सहारे जी रहे थे। उसी तरहा मेरा हुजरः एक कैदखाने की तरहा है। जिसमें में मायूसी के दिन गुजार रहा हूँ। इस कैद में सिर्फ खयाल-ए-यार के जरीए जी रहा हूँ। मेरी इस कैद में मेरे यार की याद की एक ही किरन दिखाई दे रही है।


बग़ल में गैर की, आप आज सोते हैं कहीं वर्नः सबब क्या, ख्वाब में आकर तबस्सुमहा-ए-पिन्हों का

पिन्हाँ=छुपी हुई। आप जो मेरे ख्वाब में मुस्कुरा रही है, यकीनन आप किसी गैर के हो चुके हो और हमे जलाने के इरादे से ख्वाब में आकर इस कदर दबी हंसी मुस्कुरा रही हो।


99) नहीं मालूम, किस किसका लहू पानी हुआ होगा

कयामत है सरिश्क-आलूदा होना तेरी मिशगों का


सरिश्क=आँसु। आलुदा लिपटा हुआ। मिशगों पलके


इस शेर में मेहबूबा से मुखातिब हो कर कहते हैं, आज तेरी आँखे आसुओं से भीगी हुई है। यह वाकयाँ कयामत का दर्जा रखता है। क्योंकि तेरी भीगी पलके देखकर तेरे चाहने वाले बहुत ज्यादा दुःखी हो रहे हैं। यहाँ वो दिल नवाजी के जजबात बयान कर रहे हैं।


१२) नज़र में है हमारी जादः -ए-राह-ए-फना 'गालिब' कि यह शीराज़ है आलम के अज्जा-ए-परीशाँ का


शीराजः निजाम, संघटना अज्जा टुकड़े, हिस्से। परीशाँ-बिखरे हुए। जाद: रास्ता, फना नाश अब हमारे नजर में राहे फना का एक ही रास्ता रह गया है। यह वो रास्ता है जो जिंदगी के निजाम को बिखेर के रख देता है। इन्सानी जिस्म मिट्टी होकर बिखर जाता है, उसी तरह बहुत से अज्जा, हिस्से जैसे उसकी उम्मीदें, आरजूएँ हसरते, ख्वाब उसके मक्कासिद सब बिखर के रह जाते हैं।


(१) न होगा यक बयाबा माँदगी से जौक कम मेरा हबाब-ए-मौजः-ए-रफ़्तार है नक्श-ए-कदम मेरा


माँदगी = थकान | हबाब= बुलबुला बयाबा=जंगल। मौज-ए-रफ्तार लहर की रफ्तार (तेज चलना) मेरे शीक, मेरी आवरगी के आगे, एक बयाबा (जंगल) की थकान कुछ भी नहीं हैं। क्यों के मेरा नक्श-ए-कदम तेज रफ्तार है। जैसे किसी तेज बहने वाले धारे में बुलबुले तेजी से उठती रहते हैं। यहाँ वह अपनी दिवानगी की कैफीयत बयान कर रहे हैं। मैं एक बयाबा से थकने वाला नहीं हूँ। अगर हमारा मेहबूब हम पर सिमत ढाँता है, तो हम भी पीछे हटने वाले नहीं हैं।


२) मुहब्बत थी चमन से, लेकिन अब यह बेदिमाग़ी है कि मौज-ए-बू-ए-गुल से, नाक में आता है दम मेरा


बेदिमागी= ऊब जाना, दिवानगी।


कभी हमें फूलों वाले चमन से मुहब्बत थी मगर अब यह आलम है कि फूल की खूशबु से नाक में दम आता है। कभी हम इश्क व मुहब्बत में गिरफ्तार थे। मगर अब मुहब्बत के ऐसे तजुरबात हुए है कि वफा के नाम से चिढ़ सी मेहसूस होती है।


ग़ज़ल १२


१) सरापा रेहन-ए-इश्क-ओ-नागुज़ीर-ए-उल्फत-ए-हस्ती इबादत बर्फ की करता हूँ और अफसोस हासिल का


रेहन=पालना। नागुजीर=जरूरी। उल्फत-ए-हस्ती मुहब्बत की जिंदगी।' बर्क- बिजली हम सर से पाँव तक इश्क की परवरीश करने वाले है। उसके नाज उठाने वाले हैं। इस लिए कि मुहब्बत की जिंदगी के लिए यह जरूरी है के इश्क को पाला जाय। इस इश्क में मुब्तिला होकर में ऐसे माशूक की इबाद करता हूँ जो इक बर्फ की तरह है। जिस तरहा बिजली इक झलक दिखा कर छुप जाती है। इसी तरहा हमारा माशूक एक चमक दिखाकर हमे तड़पाता है। बेचैन कर देता है। उसी तरहा हमारा मेहबूब अपनी एक झलक से दिल में हजारों ख्वाहिशे पैदा कर देता है। मगर उस के बाद मायूसी के अंधेरे और अफसोस के सिवाय हमारे हाथ कुछ नहीं आता। यहाँ वर्क की सारी खूबियाँ वह अपने मेहबूब में तसव्वुर करते है। कभी बिजली उस पर गीर के तबाह भी कर देती है। मैं उस तबाही लाने वाली बिजली की इबादत भी करता हूँ और उससे हासिल होने वाली बात पर दुख भी करता हूँ।


बकद्र-ए-जर्फ है, साकी । खुमार-ए-तश्नः कामी भी

जो तू दरिया-ए-मे है, तो मैं खमियाजः हूँ साहिल का


बकूद-ए-जर्फ पात्रता के अनुसार, ताकत के मुताबिक जर्फ सोच समझ तश्नः कामी प्यास खमियाजः बदला, अंगडाई। गालिब कहते है कि जिसमे जितनी ताकत है, बरदाश्त करने का माद्यः (ताकत) है उसको उतनी प्यास मिलती है। यानी उस पर उतनी ही मुसीबतें आती हैं। इसलिए ऐ माशूक तू अगर शराब का दारिया है तो हम साहिल की प्यास है तुझ से हमारा वास्ता युगो युगो का है।


गज़ल १३


9) महरम नहीं है तू ही नवाहा-ए-राज का याँ बर्नः जो हिजाब है, पर्द: है साज़ का


महरम=बहुत करीब से जानने वाला, मर्मज्ञ नवा आवाज़ साज़ बाजा, बनाने वाला। 'गालिब' अपने आपको मुखातिब होकर कहते है कि मियाँ एक तुम ही हो जो उसके महरम नही हो। यानी वह तुमसे पर्दा करती है। और वो भी ऐसा के ना सिर्फ जमाल का बल्कि राजदाना गुफतगु का भी, वह अपनी आवाज को भी दर पर्दा रखना चाहती है। यही वजह है कि वह जो साज के जरिए गा रही है। ताकि उसकी खालिस (प्युअर) आवाज भी तुम तक न पहुँचे। दूसरे मायने में तुम ही उस खुदा के राज़ को पहचान नही पा रहे। वह पर्दे के पीछे छिपा हुआ है और वह पर्दा माया का या इस दुनिया की चहल-पहल का पर्दा हैं।


रंग-ए-शिकस्त, सुबह-ए-बहार-ए-नज़ारा है। यह वक्त है शिगुफ्तान-ए-गुलहा-ए-नाज का


रंग-ए-शिकस्तः- बेरौनक रंग, उड़ा हुआ रंग सुन्ह-ए-बहार-ए-नजारा=वो फूल जिसके नाज उठाए जाए 'ग़ालिब' कहते है कि मूझ पर जो जवानी आई है तो मैं समझता था कि यह जवानी गोया इक बहार है जिसमें इक फूल की मानिंद, जैसे एक फूल की ख्वाहिश होती है कि कोई उसे देखें, उसके नाज व नखरे उठाए, यानी उसकी तारीफ करे, उससे मोहब्बत करें। उसी तरह मेरी भी ख्वाहिश थी। मगर मुझे जल्द ही यह एहसास हो गया के यह बहार मेरे लिए बे रोनक साबित हुई है। जिसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं है। मुझे चाहने वाला मेरी जिंदगी को रंगिन बनाने वाला मेहबूब न मिल सका। दूसरे मानी में वो कहते हैं. कि मेरा मेहबूब जो एक खिलते हुए फूल की तरहा है, उसके नाज नखरे उठाने में मैं ना काम हूँ क्योंकि में इक ऐसी बहार हूँ जिसमें कोई रंग नहीं है। मैं मेहबूब के नाज उठाने में यानी दुनियाँई तौर पर (मुराद उसे दौलत व ऐष वो आरम देने में) नाकाम रहा हूँ। रंग ए शिकस्तः बहार से मुराद वह अपनी गरीबी से भी लेते हैं।


तू और सु-ए-गैर नज़रहा-ए-तेज़ तेज़ मैं और दुख तिरी मिशाहा -ए-दराज का

मिशाला-ए-दराज लंबी पलके

ग़ालिब कहते है, ऐ मेहबूब तू जो गैर की जानिब तेज नजरो से देख रही है, याने बहुत ध्यान से देख रही है, तो तेरे इस

देखने से यहाँ मेरी यह कैफियत है कि मैं दर्द की तरहा फैल रहा हूँ। या मेरा दर्द तेरी पलको की मानिंद लंबा हो रहा है। तुम्हें गैर की तरफ देखते हुए देख मैं बहुत दुखी हो रहा हूँ।

सर्फ: है ज़ब्त-ए-आह में मेरा, वगर्न: मैं तोमा हूँ, एक ही नफस-ए-जोगुंदाज़ का

सर्फ-=खर्च। तोमा=ग्रास, निवाला। जब्त-ए-आह आह को लब में न लाना। जाँगुदाज जान को धीरे धीरे खत्म करनेवाला 'ग़ालिब' कहते है कि मेरा खर्चा आह को जब्त करना है। यानी आह की परवरीश करना है। इक यही फिक मुझे जिंदा रखे हैं, कि मेरे बाद जब्त-ए-आह कौन करेगा ? वरना ऐ मेहबूब में इस कदर नातवा हो गया हूँ कि जान को बुलाने वाला तेरा


जुल्म मुझे एक ही निवाले में खत्म कर सकता है।


५) हैं बिसकि जोश-ए-बादः से शीशे उछल रहे

हर गोश:-ए-बिसात, है सर शीशः बाज़ का


जोश-उफान बाद: शराब। बिसात शतरंज की पट्टी शीशे बाज- शीशा बनाने वाला यहाँ गालिब तसब्बुर करते हैं कि नाजुक काच का शीशा याने माशूक और उसके अंदर जवानी की शराब जोश से उछल रही है। तात्पर्य माशूक अपनी जवानी के नशे में मस्त है और जो भी उन्हे अपना बनाना चाहता है, उन्हें अपने साचे में ढालना चाहता है ( उन पर काबू पाना चाहता है) वह इन हुस्नवालों के हाथो कत्ल हो जाता है। इसलिए हर गोश-ए-बिसात यानी हर वो जगह जहाँ कारोबार-ए-इश्क जारी है, वहाँ मेहबूब के सर सजे हुए नजर आते हैं। यानी मेहबूब कत्ल हुए दिखाई देते हैं।


६) काविश का दिल करे है तकाजा कि, है इनोज नाखून प' कर्ज, इस गिरह-ए-नीम बाज़ का गिरह-ए-नीम बाज आधी गाँठ खोलने वाला काविश= कोशिश


वह जो आधी गिरह खोलता है (मुराद मेहबूबा से है, जो अपनी हर बात को आधी राज रखता है। और इसी राजदारी से हमारा दिल जख्मी होता रहता है। क्योंकि अपने हमेशा खुलकर मिलते है, अपने दिल की बात पूरी तरह बताते हैं और गैर पूरी तरह नही खुलते है।) इसलिए हमारा राज जानने की कोशिश करने वाला दिल तकाजा कर रहा है कि हमारी मेहबूबा अपने नाखून को जहमत दे की वो पूरी तरह गिरह खोले (पूरी तरह गिरह खोलना नाखून पर इक तरह का कर्ज हैं ) इस पूरे 'शेर' में वह अपने मेहबूब से एक तकाजा करते है कि वह अपने दिल के पूरे राज उनके सामने जाहिर करें।


७) ताराज-ए-काविश-ए-ग़म-ए-हिजरा हुआ 'असद' सीनः कि, था दफीनः गुहरहा-ए-राज का


ताराज लूटा हुवा, बरबाद। गमे हिजरौँ=जुदाई का गम। दफीन: खजाना। 

हमारी जुदाई का गम तबाह व बरबाद हो गया क्यों कि वह सीनः जिसमे राजे इश्क के गोहर (मोती) दफन थे वह जाहीर हो गया और उसके जाहीर होते ही लुटने वालो ने उसे तबाह, बरबाद कर दिया ।


ग़ज़ल १४


9) बज़्म-ए-शाहनशाह में अशआर का दफ्तर खुला


अशआर = अनेक शेर। रखियो यारब । यह दर-ए-गंजीन:-ए-गौहर, खुला दर-ए-गंजीन: खजाने का दरवाजा


ग़ालिब बादशाह-ए-वक्त की शान से कहते है कि आपके दरबार में मेरे अशआर का दफ्तर खुला रहा है। फिर वो दुवाईयों


अलफाज़ में कहते है कि पारथ खजिने का दरवाजा मुझ पर खुल रखा। यानी खजाने से मुराद बादशाह सलामत की मेहरबानियाँ, इनामय इकराम का दरवाजा हमेशा मुझ पर खुला रहें। दूसरे मायने में गालिब अपने आप को सुखन (काव्य) के बादशाह कहकर इस तरह दरवाजा तू मुझ पर खुला रखा मुखातिब होते है, कि मैं शेर ओ शायरी का वो शहनशाह हूँ जिस के आगे अशआर का दफतर खुलता है। यारब इस खजाने का अंजुम=सितारा। रशिन्दाः चमकने वाली चीज। बुतकदा=सनम कदा, मूर्ति गृह


२) शब हुई, फिर अंजुम-ए-रहिशान्दाः का मंजर खुला इस तकल्लुफ से, कि गोया बुतकदे का दर खुला

हमारी तमाम रात सितारों से सजी नहीं रहती। सितारों मरा मंजर भी हमारे सामने इस तकल्लुफ से खुलता है कि जिस

तरह बुतकदे का दर हो ( मेहबूब का घर ) जो कुछ देर के लिए खुलता है। और फिर बंद हो जाता है। उसी तरहा सितारों भरा मंजर

भी कुछ देर ही रहता है और फिर अंधेरी रात छा जाती है।

मुराद कुछ देर के लिए मुझमें आरजूए जन्म लेती है, और फिर मायूसियाँ उन पर गालिब जा जाती है। यानी फिर मायुसियों काबू कर लेती है उनपर भारी पड़ जाती है। यहाँ रात होते ही आसमान के मंदीर का दरवाजा खुलना और जगमगाते दीप नजर आना भी खयाल किया जा सकता है।

३) गरचे हूँ दीवानः, पर क्यूँ दोस्त का खाऊँ फरेब आस्ती में दशनः पिन्हों, हाथ में नश्तर बुला दश्नः पिन्हाँ कटार छिपी है। नश्तर = चाकु घुरी

ग़ालिब कह रहे है कि हालाफे में दिवाना हूँ, होशो हवास खो बैठा हूँ। लेकिन फिर भी मैं अपने दोस्त का फरेब नहीं खा सकता क्यों कि मेरा दोस्त ना सिर्फ आस्तिन में खंजर छुपाए है बल्कि वो हाथ में एक खजर खुला रखता है। यानी वह हमको ताने भी देता है और खुले वार भी करता है।


४) गो न समझें उसकी बाते, गो न पाऊँ उसका भेद पर यह क्या काम है, कि मुझसे वो परी-पैकर खुला

परी- पैकरपरी जैसी आकृति वाला ( मासूक) गो कि हम अपने मेहबूब की बाते नही समझ रहे है, ना ही उसका भेद सुझाई देता है, लेकिन हमारे लिए यही क्या कम

बात है कि यह परी पैकर (परी जैसे खूबसूरत जिस्म वाला) हमसे अपने दिल की बात कह रहा है। है ख़याल-ए-हुस्न में, हुस्न-ए-अमल सा ख़याल


खुल्द का इक दर है, मेरी गोर के अंदर, खुला

खयाल-ए-हुस्न- हसीन खयाल, गोर कब्र हुस्न-ए-अमल अच्छा बर्ताव हम अपने मेहबूब के खयालो में गुम है। हमारा मेहबूब वह है जिसने हमें सुख नही पहुँचाया। हमारे साथ जालिमाना अमल जारी रखा लेकिन वो जालिम मेहबूब हमारे खयालो में हमसे हुस्ने अमल (मुहब्बत का बरताव अपनाईयत का बतीव) कर रहा है। उसका यह अमल हमारी मायूस जिंदगी में उम्मीदे रोशन कर रहा है। जैसे अंधेरी कब के अंदर किसी ने जन्नत का दरवाजा खोल) दिया हो।


(६)

न खुलने पर है वो आलम, कि देखा ही नहीं

जुल्फ से बढ़कर, निकाब उस शोख के मुँह पर खुला जब हमारा मेहबूब चिलमन लिए होता है, चिलमन के नकाब में होता है तो वह इतना हसीन दिखता है कि क्या अर्ज करू? ऐसा मंजर तो कभी देखा ही नहीं। वैसे तो चेहरे पर बिखरी हुई जुल्फों के साये में भी वह हसीन दिखता है पर उससे ज्यादा हसीन वह इस नकाब में दिखाई देता है। यहाँ माशूक के रूख पर बिल्कुल महीन पतले कपड़े का नकाब है।


७) दर प' रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

दर पर रहने= मुराद इंतजार करने से है। क्यों के इंतजार दर पर खड़े रहकर ही किया जाता है। यहाँ 'गालिब' बड़े खूबसूरत अलफाज़ में अपनी बात से मुकर जाना बयान कर रहे हैं। वो कहते है, मेरे मेहबूब ने मुझसे कहा कि उसका इंतजार करूँ। मैं बड़ी खुशियों से उसका इंतजार कर रहा था। उसे बिठाने के लिए बैठक सजा रहा था लेकिन हाए रे किस्मत | वह अपने वादे से मुकर गया। वह भी इतनी जल्दी के जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला। यहाँ गालिब ने लिपटे हुए बिस्तर का 'खुल जाना' बहुत लज्जतदार अंदाज में इस्तेमाल किया है।


८) क्यूँ अंधेरी है शब-ए-गम हैं बलाओं का नुजूल आज उधर ही को रहेगा दीद:- ए- अख़्तर खुला

नजूल उतरना । दीद: आँख ।

अख्तर=तारा। यह रात इतनी अंधेरी क्यों है ? उस लिए कि मुझ पर सारी मुसीबते, बलाएं उतर रही हैं। इस मुसीबत के माहौल में एक तारा भी नहीं जो इस अंधेरी रात का थोड़ा सा अंधेरा दूर कर सकें। आज तो तमाम तारे उस मेहबूब के लिए चमक रहे है जिस


की वजह से यहाँ मुसीबते आ रही है।

क्या रहूँ गुरबत में खुश, जब हो हवादिस का यह हाल नामः लाता है वतन से नामः बर अक्सर खुला


नामा खुला लाना=जबानी संदेस देना। हवादिस= हादसा का अनेक वचन, दुर्घटनाएं मैं अपने वतन से दूर हूँ। इस गुरबत में मै बहुत गमगीन हूँ। इस लिए कि वतन में बहुत दिल दुखाने वाले वाकयात हो


रहे हैं। जिनका जिक्र इस कदर आम है कि उनके लिए कोई किसी को खत नहीं लिखता ना जरूरत मेहसूस करता है। क्योंकि यह जिक लोगो की जुबान पर आम है। इसलिए जब नामः बर हमारे सामने आता है तो इन सारी बातो का इन हादसों का जिक्र हमारे सामने अक्सर करता रहता है।


१०) उसकी उम्मत में हूँ मैं, मेरे रहें क्यूँ काम बन्द वास्ते जिस शै के, 'गालिब' गुंबद -ए-बेदर खुला

गुंबद-ए-बेदर= खुला आसमान। उम्मत किसी पैगंबर को मानने वाली पूरी कौम यह ‘शेर' हुजूर (हजरत मोहम्मद सलल्लम) की शान में कहा गया है। मैं उस आलीशान पैगंबर का उम्मती (मानने वाला) हूँ, जिस को अल्लहा ने खुद दावत दे कर बुलाया था। लिहाजा इतने बड़े पैगंबर का मानने वाला होने के कारण उसके काम दुनियाँ में कहाँ रूक सकते है ? खुद अल्लाह उसकी हर काम में मदद करता है।


ग़ज़ल १५


1) सब कि बर्फ-ए-सोन-ए-दिल से नहर-ए-बाबा शोलः- ए- जव्वाला हर इक हल्क:-ए- गिरदाब था


जहरः-ए-अब्राब=बादल का पित्ता। सोज-ए-दिल जलने वाला दिल, गमगीन दिल। शोलः- ए- जव्वाल - ज्वालामुखी का ज्वाला, शोला। हल्का दायरा गिरदाब पानी में बनने वाला भंवर का चक्रा


रात में मेहबूब के गम से हमारा दिल बिजली जैसी आग में जल रहा था। यह वो शिद्दत थी जिससे पानी वाले बादल का पित्ता भी पिघलने लगा (‘पानी वाले बादल का पित्ता' से मुराद ऐसे बादल से है जो बरसता नहीं) उस अब्रे आब से यानी पानी के बादल से आग की बारिश हुई और इस बारिश से जो जलथल हुआ उसके गिरदाब (भंवर) से ज्वाला मुखी फुटने लगे।


२) वो करम को उज्ज-ए-बारिश था, इनाँगीर-ए-मिराम


गिरियः से याँ, पंचः-ए-बालिश कफ-ए-सैलाब चा

चाँ खुला हुआ, वहाँ उज्र बहाना इनाँ लगाम। इनॉगीर= लगाम लगाने वाला खिराम मस्त फर्क - सर गिरिया = रोना कफ-ए-सैलाब सैलाब का झाग पुंबः कपास बालिश एक हथेली का नाप चाल


वहाँ मेरी मेहबूबा बारिश की वजह से एक मस्ताना चाल चल रही थी। गोया बारिश ने उस पर एक किस्म की लगाम लगा दी थी और करम भी किया था जिसकी वजह से वह बडी मस्ताना चाल चल रही थी और इधर हम अपने गुम से इस कदर रो रहे थे जैसे अश्कों से सैलाब आ रहा हो। इस सैलाब से ऐसे झाग पैदा हो रहा था जैसे बालिश भर के कई के गाले (कपास) वह रही हो।


३) वॉ, खुदआराई को, था मोती पिरोने का खयाल यॉ, हूजूम-ए-अश्क में तार-ए-निगह नायाब था

खुदआराई खुद को सजाना।

तार-ए-निगाह आँसूओं की लड़ी। नायाब=दुर्लभ।

वहाँ हमारी मेहबूबा खुद को बनाने सर्वोरने में खोई हुई है और मोतीयों के हार पहन रही है। और इस तरफ हम इस कदर रो रहे है कि आँसुओं की लडी नज़र नही आती यानी आँसू घारे की शक्ल में लहर बनकर बढ़ रहे है

४) जल्वः-ए-गुल ने किया था, वॉ चराग़ों आब-ए-जू


यॉ, रवॉ मिशगान -ए-चश्म-ए-तर से ख़ून-ए-नाब था जल्द-ए-गुल- फुलों की बहार आब-ए-जू पानी की नेहर खून-ए-नाब खालीश खून ( प्युअर खून) मिशगान पलके


चश्म-ए-तर भीगी आँखें। उस तरफ उन की महफिल में इस कदर रौनक थी कि लगता था जैसे दरियों में किसी ने बहुत सारे दिये जला दिए हो। उनकी बज़्म में हर तरफ फूल खिले हुए थे और इस तरफ हमारी आँखों से उन की जुदाई में खून के आँसू बह रहे थे।


५) याँ सर - ए- पुरशोर बेख़्वाबी से था दीवार जू


वॉ, वो फर्क-ए-नाज़ महूद-ए-बालिश-ए-कमख्वाब था


पुरशोर=उन्माद से भरा दीवार - जू= दीवार की तलाश में फर्क=सर कमख्वाब= रेशमी कपड़ा


इधर हमारे सर में एक शोर बरपा था। इस गम से पागल हो कर सर फोडने के लिए दीवार तलाश कर रहे थे और उधर मेहबूबा मखमल के बिस्तर पर चैन से सो रही थी। मुराद वह हमारे गुम से बेनियाज़ है।


६) याँ, नफस करता था रौशन शम्अ-ए-बज़्म-ए-बेखुदी


जल्द:-ए-गुल, वाँ, बिसात-ए-सोहबत-ए-असबाब था


नफस=साँस, मुराद खुद की हस्ती। बिसात बिछाई हुई चीज। यहाँ हम तनहाई में बेखुदी की शम्आ जलाए हुए बैठे थे। हमारी बज़्म में सिर्फ तनहाई थी और उपर जल्वः-ए-गुल, मुराद मेहबूब अपने दोस्तों की मेहफिल सजाए हुए था।


७) फर्श से ता अर्श, वाँ, तूफाँ था मौज-ए-रंग का याँ जमीं से आसमों तक सोख्तन का बाब था


अर्श आसमान। फर्श जमीन। मौज-ए-रंग-खुशी के रंगो की लहर । बाब= मामला। सोख्तन =जला हुआ उस तरफ जमी से आसमां तक मौज-ए-रंग यानी खुशीयों की महफिल थी ( वहाँ मसर्रत की महफिल आराई थी) और इस तरफ जमी से आसमाँ तक सिर्फ राख का ढ़ेर ही था यानी हम अपनी उम्मीदों, ख्वाहिशों और हसरतों की राख के ढ़ेर के साथ तनहा मौजूद थे।


नागहाँ, इस रंग से ख़ूनाबा टपकाने लगा, दिल कि जौक़-ए-काविश-ए-नाखून से लज़्ज़तयाब था

खुनाबा= खून के आँसू ।


नागहाँ हादसा।


नागही (हादसा) उस चीज़ का नाम है जो लोगों को खून से रंग देता है, जला के रख देता है। गोया नागहाँ संग दिल होता है। मगर हमारी हालत देख कर वो संग दिल भी खून के आंसू रो रहा है। हमारा दिल जिस पर मेहबूब ने बेशुमार जख्म लगाए है, अब वह जख्मों का आदि हो गया, उसे जख्म पाने मे लज्जत मेहसूस होती है। लिहाज: हम अपने नाखुन से अपने दिल के पुराने जखम कुरेदकर जख्मी करते रहते हैं ताकि उसे इतमीनान मयस्सर हो।


ग़ज़ल १६


9) नाल-ए-दिल में शब, अन्दाज-ए-असर नायाब था था सिपन्द-ए-बज़्म-ए-वस्ल-ए-गैर, गो बेताब था


सिपन्द=काले रंग का दाना, यहाँ मुराद मेहबूब नायाव न मिलने वाला।


हम रात भर रोते रहे, मुराद रो-रोकर दुआएं मांगते रहे कि हमारे नाले का कुछ तो असर हो। मगर पता चला कि उसका कुछ भी असर नहीं हुआ। वहाँ मेहबूब गैर से मुलाकात की बज्म सजाएं हुए था। मगर फिर भी वह बेताब था। तो क्या यह अपने नालों का असर तो नहीं ?


२)

मकदम-ए-सैलाब से, दिल क्या नशात आहंग है खानः-ए-आशिक, मगर, साज़-ए-सदा-ए-आब था साज-ए-सदा-ए-आब-ऐसा साज या बाजा जिसको सुनकर आँखों से पानी निकल आए।


मकदम=आना। नशात-खुशी नशात आहंग खुशी से मिला हुआ। साज-काम बनाने वाला।


हम दर्द ओ गम के आदी हो चुके है। इनके बैगर हमारी जिंदगी का तसव्वुर नहीं किया जा सकता लिहाजा मकदम-ए-सैलाब से (आँसूओं से) दिल एक खुशी मेहसूस कर रहा है या यूँ कहिए कि आँसूओं से दिल का बोझ हलका हो रहा है और दिल का यह आलम है कि उससे ऐसी दर्द भरी सदाए निकल रही है जिससे फिर अश्क रवाँ हो रहे है गोया हमारे गुम का कोई इलाज नहीं है। ३) नाज़िश - ए - ऐयाम-ए-ख़ाकिस्तर नशीनी, क्या कहूँ


पहलु-ए-आन्देशः, वक्फ-ए-विस्तर-ए-संजाब था


नाज़िश = गुरूरा| ऐयाम = दिनों खाकिस्तर=जला हुआ, राख। नशीनी रहने वाला। आन्देशा फिक, खोफ, खयाल । संजाब= खरगोश जैसा एक छोटा जानवर जिसकी खाल बहुत मुलायम हाती है। उसे सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अब तो हम राख के ढेर पर रह रहे हैं। तो मेरी जिंदगी के गुजरे हुऐ दिनो, जिन पर में नाज़ करता हूँ, तुम से अब में क्या बयान करूँ ? अब मेरे पास कालिब ए ज़िक्र कुछ बचा ही नही है और वहाँ वो मेरी कल्पना में हर वक्त बसा हुआ मेरा माशूक संजाब की कोमल सेज पर समर्पित है। यानी वो ऐश-ओ-आराम से सो रहा है।


कुछ न की, अपने जुनून-ए-नारसा ने, वर्नः याँ ज़र: जरः, रुकश-ए-खुरशीद-ए-आलमताब था


रू= चेहरा। कश खीचने वाला, कशीश करने वाला। खुरशीद= सूरज | देने वाला। नारसा=न पहुँचने वाला। आलमताब पूरी दुनिया को रोशनी


हमें अपने जुनूँ पर (दिवानगी पर) बडा नाज था। कि एक न एक दिन यह जुनूँ रंग लाकर रहेंगा। मुराद हम मेहबूब को हासिल करके रहेगें। मगर अंजाम-ए-कार अपनी दीवानगी से कुछ हासिल न हो सका, जब कि यहाँ जरः जर्रः ताकत रखता था कि सूरज को भी अपनी तरफ कशिश कर ले, जो तमाम आलम को रोशनी देता है। मुराद ऐसे लोग भी इश्क में कामयाब नजर आतें थे जिन में जुनून नाम को भी नहीं था।


० ५) आज क्यूँ परवा नहीं, अपने असीरों की तुझे ? कल तलक, तेरा भी दिल, मेहर-ओ-वफा का बाब या


असीर-कैदी।


मेहर-ओ-वफा प्यार मुहब्बत।


बाब- हिस्सा


'गालिब' कहते है कि ऐ मेरे मेहबूब ! आज तुझे अपने असीरों की मुराद अपनी मुहब्बत में गिरफ्तार आशिक की जरा भी परवा नहीं है, जब कि कल तक तेरा भी दिल प्यार व मुहब्बत का एक सबक था। तू प्यार मुहब्बत का एक हिस्सा था। इस शेर में एक तरफ तो मेहबूब मुखातिब है और दूसरी तरफ यह शेर अपने हकीकी मालिक यानी खुद को भी खिताब करके कहा गया है, कि ऐ ख़ुदा !, आज जो तेरे चाहने वाले है वो जमाने की हर तकलीफ उठा रहे हैं और तू उनकी जानिब से बेपरवाह है। जब कि कल तलक तू अपने नेक बंदी पर मेहरबानी किया करता था। यह शेर ख़ुदा से मुखातिल होने का इशारा इस तरह देता है कि इस में लफज 'असीर' के बजाय 'असीरों' कहकर नेक बंदो की तरफ इशार है।


६) याद कर वो दिन कि, हर इक हल्कः तेरे दाम का


इन्तिजार-ए-सैद में, इक दीद:-ए-बेख्वाब चा


दाम=जाल ।


दीद:- आँखा


'सैदशिकारा हल्का कड़ी। यहाँ वो मेहबूब से मुखातिब होकर कहते है, ऐ मेहबूब तू अपने वो गुजरे दिनों को याद कर जब कि तू जाल बिछाएं जागता रहता था कि कोई शिकार हो जाए, मुराद एक जमाने में बड़ा बन सवरकर अपने हुस्न के जाल से अपने आशिक को गिरफ्तार करने के लिए इंतजार किया करता था। अब वो दिन कहा गए? अब न वो तेरा हल्का-ए-दाम है यानी अब तुझे न बनने सवरने की आदत है और ना ही अपने आशिक का इंतजार है। इस बेनियाज़ी की वजह क्या है ?


(७) मैंने रोका रात 'गालिब' को, वगर्नः देखते उसके सैल-ए-गिरिया में, गर्दू कफ-ए-सैलाब था


सैल सैलाब। गिरिया = रोना। गर्दू-आसमान। कफ-झाग।


'गालिब' अपने आपको इस तरह मुखातिब होकर कह रहे है जैसे कोई दूसरी शख्सियत हो। वो कहते है रात को मैंने ग़ालिब को रोने से रोका। अब यहाँ एक सवाल यह उठता है कि ग़ालिब रात को क्यों रोना चाहते हैं ? उसके पर्दे में एक मुकम्मिल दास्तान-ए-इश्क है, जिसमें मेहबूबा की वही रिवायती बे मुरव्वती है जिससे उनका दिल इस कदर रोने पर आमादा है, कि अगर वो अपने आपको रोने से नहीं रोकते तो ऐन मुमकिन था कि उनके आसूओं का सैलाब पूरी दूनियाँ को ना सिर्फ डुबो देगा बल्कि यो इतना उंचा हो जाएगा कि आसमान उसका झाग बन जाता। यहाँ उन्होने अपने दर्द की बड़ी जबरदस्त कैफियत बयान की है।


ग़ज़ल १७


एक एक कतरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ख़ून-ए-जिगर, वदीअत-ए-मिशगान-ए-यार था


मिशगान=पलके ।


वदी अतधरोहर ।


हम मेहबूब के हाथो कत्ल हुए। हमारा जिगर खून से लतपथ हो गया और जिस हतियार से यह कत्ल हुआ वो हमारे मेहबूब की पलके थी। जो नुकिले खंजर की तरह हमारे जिगर को चीर गई। यह जो खून बह रहा है वो मानो उसकी देन थी (गोया उसने जिगर का खून करके वह खून एक अमानत की तौर पर हमें दिया था इसलिए हमें उसके एक-एक कतरे का हिसाब देना


पड़ा। हम मर कर भी सुकून ना पा सकें।


२)


अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरजू


तोड़ा जो तूने आईनाः तिमसालदार था


तिमसालदार = चित्रमय अब मेरा दिल एक शहर-ए-आरजू का मातमकदा बना हुआ है। मेरी तमाम आरजूऐं दम तोड

चुकी है। और अब उसका मातम मनाया जा रहा है। लेकिन किसी वक्त यह एक ऐसा आईना हुआ करता था जिसमे कई सूरते


नज़र आती थी। मुराद मेरे दिल में कई तमन्नाएँ थी। 3) गलियों मेरी नाश को खेचे फिरो कि मैं


जदाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था


नाश लाश।


जाँदाद - खीचने वाला, मोहित


मेरी लाश को ऐ लोगो गलियों में खिंचते फिरो क्यों कि मैं आवारगी में हवा से भी दो कदम आगे था। हवा भी मुझसे पीछे हुआ करती थी। लिहाजा मेरे इंतकाल के बाद भी मेरी वह आवारगी कायम रहे। इसलिए मेरी लाश को गलियों में खीचते फिरो


४)


मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफा का न पूछ डाल हर जर, मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग, आबदार था


मौज-


ज-ए-सराब-रेगिस्तान में हवा की वो गर्म लहर जो नेहर की तरह नजर आती है। (धोका)


दश्त-जगल।


जीहर-ए-तेगु-तलवार की खुबी । आबदार चमकदार, तेज धार वाला। वफा के शहर में धोका ही धोका है। यह धोका प्यासों को बहुत तड़पाता है और इस सहरा के हर जर्रे का यह हाल हैं। जैसे वह कोई तेजधार तलवार हो। जिससे हम हर कदम पर जख्मी हो रहे है।


o ५) कम जानते थे हम भी गुम-ए-इश्क को पर अब देखा, तो कम हुए, प' गुम-ए-रोजगार था


गम-ए-रोज़गार दुनियाँ की चिन्ता । हमें गुमान होने लगा था कि गमे रोजगार (दुनिया के गम, दुनिया की उलझने और दुनिया की भाग दौड़) गर्ने इश्क से


ज्यादः है क्योंकि यह तनहा गम है और गमें रोजगार तो काई चीजो का गम है। मगर जब तजुरबा किया तो यह पाया कि गर्ने रोजगार


से भी कई ज्यादा गम इश्क में है।


गजल १८


१) बस कि दुश्वार है, हर काम का आसों होना आदमी को भी मयस्सर नहीं, इन्साँ होना


मयस्सर उपलब्ध।


जिस तरह दुनियाँ में हर काम का आसान होना दुश्वार (मुश्किल) है ( हर काम आसान हो यह जरूरी नहीं) उसी तरह हर आदमी में इंसानियत हो यह भी जरूरी नहीं है (कुछ आदमी ही इन्सानियत के दर्जे तक पहुँच पाते है) एक अच्छा इंसान बनना


बहुत मुश्किल बात है।


२)


गिरियः चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की


दर-ओ-दीवार से टपके है या होना काशाने छोटा मकान। गिरियः रोना। खराबी बरबादी बयाबाँ-जंगल।


इस ‘शेर' में ‘ग़ालिब' अपने छोटे से टूटे फूटे मकान के बारे में कहते है कि मेरा रोना मेरे मकान को बरबाद कर देगा। क्योंकि मेरे रोने से मेरे मकान में एक बियावन (विरान जंगल) का अक्स नजर आता है। जिस तरहा मकान में हर आदमी के साथ उसका कोई न कोई अजीज (रिश्तेदार) रहता है जो रोते वक्त उसकी धाडस बांधता है मगर बियाबान में अगर कोई रो रहा हो तो वहाँ कोई उसे दिलासा देने वाला नहीं होता, उसी तरह मेरी तन्हाई ने मेरे मकान को बयावा बना दिया है।


३)


बाए दीवानगी-ए-शौक, कि हरदम मुझको आप जाना उधर, और आप ही हैरा होना


32

मेरी दीवानगी-ए-शौक़ ने मुझे खुद अपने आपसे इस कदर बेखबर कर दिया है कि मैं किस तरफ चला जाता हूँ मुझे होश ही नहीं रहता। मैं हैरान हो जाता हूँ के इस तरफ कैसे आ गया ? मैं बार-बार अपने आपको खोजने की कोशिश करा रहा हूँ।


जल्वः अजु बसकि तकाज़ा-ए-निगह करता है


जौहर-ए-आईनः भी, चाहे है मिशन होना


अजबस-गुरण, बहुत ज्यादा।


जत्य: मेहबूब का चेहरा


तकाजा-ए-निगह देखने का तकाजा ।।


जीहर-ए-आईना आईने की चमक-दमक । मेहबूब का हुस्न इतना पुरकशिश है कि वह अपनी जानीव देखने का तकाजा करता है। उसके हुस्न से आईने की भी यह


कैफियत हो रही है कि वो मिशगों होना चाहता है यानी नज़र बनकर मेहबूब के हुस्न को देखना चाहता है यहाँ लफ्ज़ 'आईना' खास तौर पर इसलिए बरता गया है कि हम जब आईने में अपनी सूरत देखते है तो इसमे हमारी ही गरज होती है आईने की मर्जी का या पसंद का कोई दखल नहीं होता, मगर यह हुस्न ऐसा है कि उसको देखना आईने की खुदगरज़ बन गई है। आईना उसे तकता रहता है।


इत्रत-ए-कत्लगह-ए-अहल-ए-तमन्त्रा, मत पूछ


ईद -ए- नज़्ज़ारः, है शमशीर का उरियाँ होना


इश्रुत आनंद अहल-ए-तमन्त्रा-तमन्त्रा करने वाले, मुहब्बत करने वाले। उरियाँ मियान से बाहर आना।। हम अहल-ए-तमन्त्रा (मुहब्बत करने वाले) मेहबूब के जुल्म सितम से नहीं डरते। दूसरे मानी में इश्क के दरमियान दुनिया


जो हाईल (रूकावट) होती है और तरह तरहा की तकलीफे पहुँचाती है। ऐसे मौके पर वह कहते है कि कल्ल होना हमारे लिए खुशी की बात है। कातिल की तलवार जब मियान से बहार आती है तो हम को ऐसी खुशी होती है जैसे ईद का चाँद नजर आया। मेहबूब के हाथो अगर मौत भी आए तो हमें वह अजीज है।


4) ले गए ख़ाक में हम, दाग-ए-तमन्ना-ए-नशात


तू हो, और आप बसद रंग गुलिस्ताँ होना नशात= खुशी सद= सी। द=अच्छा। रंग गुलिस्ताँ = गुलिस्ता की बहार


हम अपने साथ खुशी की तमन्त्रा के दाग (वो आरजूएं जो पूरी ना हो सकी) ले गये। अब तुझे ऐ मेहबूब, ये गुलिस्तों के सी रंग मुबारक हो। यह तेरी जिंदगी की बहार सदा तेरे साथ रहें। ७)


इश्रत-ए-पारः-ए-दिल, जड़म-ए- तमन्ना खाना लज्जत-ए-रेष-ए-जिगर, गर्क-ए-नमकदाँ होना


इश्रुत खुशी इश्रत-ए-पारः-दो खुशी जो बरबादी में तबदिल हो चुकी हो। रेष=जख्म । हमारी बरबाद खुशी की वजह से अब हमारा यह हाल है कि हमें जख्म खाने की तमन्ना सी रहती है। हमारे जिंगर के जख्म यह चाहते हैं कि वो नमक दों में डूब जाए। मुराद इश्क में मेहबूब के जुल्मों सितम हम पर टूटते रहें। यही अब हमारी दिल की तमन्त्रा बन गई हैं।


=) कि मेरे कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा हाय उस जुद-पशेमों का पशेमा होना


पशेमा= शर्मिन्दगी।


जुद= जल्दी। हमारे मेहबूब ने हम पर इतने जुल्म-ओ-सितम ढ़ाँए कि हम उनको बरदास्त न कर सकें। हम गोया मर गये। मानो उसने हमें कत्ल कर दिया और हमारे कत्ल के बाद वह अब अपनी जफाओं से तौबा कर रहा है। गालिब कहते हैं कि अफसोस है उस जल्द शरमिंदाः होने वाले मेहबूब पर कि अब उसकी शर्मिन्दगी हमारे किसी काम की नहीं। यहाँ लफ्ज 'जुद' तंज के अंदाज में कहा गया है


हैफ उस चार गिरहा कपड़े की किस्मत 'गालिब' जिस की किस्मत में हो आशिक का गरेबाँ होना चार गिरता चार गोठवाला


है अफसोस का लफ्ज 'गालिब' उस चार गिरताः (गांठ) वाले पैहरन पर अफसोस कर रहे हैं जिसकी किस्मत में आशिक का गिरेबान होना लिखा है। क्योंकि गिरेबान में चार गांठ इसलिए लगाए जाते हैं कि वो जिस्म को ढोका रखे लेकिन आशिक अपने पागलपन में गिरेबान का चाक करता है। लिहाजा वो गिरहें किसी काम की नहीं होती और ना ही वो कपड़ा किसी काम का रहता है।


ग़ज़ल १६


शब, झुमार-ए-शौक़-ए-साकी, सस्तब्रेज अन्दाज़ था ता मुहीत ए- बादः सूरतखानः ए खमियाजः था

१)

सस्तखेज=कयामतः मुहीत समंदर। ता-तका खमियाज - बदला, भुगतान, अंगडाई। ऐ साकी | रात में नशे का शौक (तश्नगी) इस कयामत का था कि उसके लिए मुझे समंदर भर के शराब की जरूरत थी। यही मेरी तश्नगी का खमयाजः था जो हो न सका।


२) यक कदम-वहशत से, दर्स-ए-दफ्तर- ए - इम्काँ खुला जादः, अज्जा-ए-दो आलम दश्त का शीराज़ था


दर्स सबका दफ्तर खुलना= कोई चीज पूरी तरहा से जाहीर होना। इम्काँ वो चीज जो मुमकिन हो। जादः = मार्ग। अन्जा = हिस्से शीराजः बिखरी हुई चीजों का संकलन।


यो जो चीज़े हमें गैर मुमकिन नज़र आती थी, जब हम ने वहशत (शीक, पागलपन) का एक ही कदम आगे बढ़ाया तो हम पर यह बात वाजे हुई कि अब सारी चीज़े मुमकिनान (जिन्हे पाना मुमकिन हो) में है। हमारे एक ही कदम से दोनो अज्जा का शीराजः (तमाम दुनिया भर के मरहले (मसअले) मंजिले हमारी राह बन गए।) यानी अब कोई काम हमारे लिए दुश्वार नहीं रहा, इस जुनूँ की वजह से हर काम आसान हो गया।


३) माने-ए-वहशत विरामीहा-ए-लैला, कौन है ख़ान:-ए-मजनून-ए-सरहागर्द, बेदरवाज़ः था


माने रूकावट। खिराम=चाल।


मजनू के रूके हुए कदम को देखकर 'गालिब' कह रहे है कि तेरी वहशत की चाल में यह रूकावट लैला की तरह कौन सी चीज बनी है ? क्यों कि तू तो लैला के बगैर रूकने वाला नहीं था। तेरा घर भी सहरा का मैदान था जिसमें कोई दरवाजा नहीं था। जहाँ जाकर तू रुकता। जब तेरा कोई दरवाजा नहीं है और लैला भी तुझे नही मिली तो फिर यह तेरी ख़रामीहा-ए-वहशत की कावट क्या चीज है। तू किस वजह से रूक गया ?


४) पूछ मत स्वाइ-ए-अन्दाज़-ए-इस्तग्ना-ए-हुस्न


दस्त मरहून-ए-हिना, रूख़्सार रेहन-ए-ग़ाज़ था इस्तग्ना=बेपवाई। रूस्वाई= बदनामी। मरहून आभारी, किसी पे मुनस्सीर होना। रेहन गिरवी रखना। गाजः = फेस पावडर


रूखसार=गाल।


हमने सुना था की हुस्न बहुत बेनियाज होता है। किसी की परवाह नहीं करता मगर हमने यह पाया कि यह अपनी बेनियाजी में रूस्वाई उठा रहा है (यानी वह हर चीज़ से बेनियाज़ नहीं है जैसे कि उसकी शान बताई जाती है) क्योंकि उसके हाथ हिना के मोहताज है और उसके रूख़्सार गाजे के, इसलिए हम उसे इस्तग्ना-ए-हुस्न नहीं कहेंगे। मुराद अब तो वो हमारी नज़रों में रूसवा हो चुका हैं।


५) नालः-ए-दिल ने दिये औराक-ए-लख़्त-ए-दिल बबाद यादगार-ए-नाल, इक दीवान ए- बेशीराजः था


औराक = पत्रे । लख्त- टुकड़ा। ब=अच्छा। बाद हवा। दीवान बडी किताब बेशीराजः बिखरा हुआ। हवा देना= उकसाना। हमारे रोने में दिल के टुकड़ो के पन्नों ने खुब हवा दी। यानी हमारे रोने को बढ़ाते रहे और यह जिंदगी भर का रोना हमारी अहम यादगार थी जिसे हम छोड़े जा रहे थे लेकिन यह यादगार भी ऐसे दीवान की तरह रही जिसके पत्रे बिखर गए थे। यानी हम कोई यादगार भी ना छोड़ सकें।


गज़ल २०


१) दोस्त, गुमख्वारी में मेरी, सई फरमायेंगे क्या ? जख्म के भरने तलक, नाखुन न बढ़ जायेंगे क्या ?


सई प्रयत्न, सहाय्य


गमख्वारी सहानुभूति। इस शेर में अपने दोस्तो से शिकायत करते हुए कहा गया है कि हमारे दोस्त हमारे ग़म में ज़रा भी साथ नहीं निभायेंगे। यहाँ तक कि हमारे जख्म भर जाएंगे और तब तक हमारे नाखुन भी बढ़ जाएंगे और फिर हम अपने आपको जख्मी कर लेंगे। लेकिन हमारा कोई दोस्त हमारी मदद नहीं कर सकेगा। हम तो अपने आप को जख्मी करने के आदी हो चुके हैं।


२) बेनियाज़ी हद से गुज़री, बन्दः परवर | कब तलक ? हम कहेंगे हाल-ए-दिल, और आप फरमायेंगे 'क्या' ?


बेनियाजी निस्पृहता, किसी भी बात का कुछ असर ना होना। अपने मेहबूब से कहा जा रहा है, कि यह तो आपकी बेनियाजी की हद हो गई। आप तो इस हद से भी गुजर गए है। यहाँ हम अपना हाल-ए-दिल बयान कर रहे है और तआज्जुब से आप पूछ रहे हैं कि यह कैसे हो गया ? यानी आप हमारे बारे में सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने हुए है। या हम जो भी बता रहे है उसे आप अनसुनी कर रहे हैं और पूछ रहे 'क्या'? हज़रत-ए-नासेह गर आवें, दीदः-ओ-दिल फर्श-ए-राह


कोई मुझको यह तो समझा दो, कि समझायेंगे क्या ? दीद: आँखें, नजर। हजरत-ए-नासेह-उपदेशक महोदय ।


सुना है, हजरत-ए-नासेह हम को समझाने आने वाले है। हम अपनी आँखें व दिल उनकी राह पर बिछाए हुए है। यानी हम उनका इस्तकबाल (आदर, सन्मान) करते है। मगर कोई मुझको यह तो समझाओं कि वो हमे क्या समझाएंगे ? यानी उनके समझाने


से हम पर कोई असर होने वाला नहीं हैं।


४)

आज वाँ तेग़-ओ-कफन बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज्र मेरे कत्ल करने में वो अब लावेंगे क्या ?


तेग-ओ-कफन तलवार और कफन । उज्ज= बहाना।


मेहबूब की ज्यादती और जुल्म-ओ-सितम इस कदर बढ़ गये है कि अब वह हमें कत्ल करने पर आमदः हो गया है। पर कुछ न कुछ बहाना बनाकर बात टाल रहा है। अब हम भी उसके हाथो मरने शौक से तैयार है। इसलिए आज हम अपने साथ तलवार और कफन बांधे हुए जा रहे है। अब देखते है वो हमारे कत्ल करने में क्या बहाना लाते हैं?


गर किया नासेह ने हमको कैद, अच्छा यूँ सही ये जुनून-ए-इश्क के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या ?


नासेह-उपदेशक


हमारे जुनून के सबब नासेह ने हम को कैद कर लिया है। चलो अच्छा हुआ, मगर यह बताईए कि ये इश्क की दीवानगी


२.

के अन्दाज कैद करने से कहा छुट सकते हैं? इस दिवानगी को कोई कैद नहीं कर सकता, मेरे मान तो फिर भी आबाद रहे


५) खान: जाब-ए-जुल्फ हैं जंजीर से भागेगे क्यूँ ? खान: जाद-ए-जुल्फ अलकपाश के बंदी


है गिरफ्तार-ए-वफा, जिन्दों से घबरायेंगे क्या ?


हम तो जुल्फ के असीर है लिहाजा जंजीर से हम क्यूँ भागे ? वफा के गिरफ्तार हुए लोग कही कैदखाने से पथरा


हैं? हमें तो यह जजीर और कैद अजीज है।


७) है अब इस मामूरे में कहत-ए-ग़म-ए-उल्फत 'असद' हमने यह माना कि दिल्ली में रहे, खायेंगे क्या ?


मामूरा=आबादी, शहर


इस जाबादी में (दिल्ली में) मोहब्बत के गम का अकाल (कहत) है। लिहाजा यहाँ हमारा गुजारा मुमकिन नहीं हैं। क्योंकि हम अगर दिल्ली में रहेंगे तो गर्ने उलफत के सिवा तो हम जिन्दा नहीं रह सकते। फिर हमारा गुजारा कैसे होगा? दूसरे मानी यह कि यहाँ हमारी शायरी समझने वाला कोई नहीं है। हमारी शायरी में जो गम है, उस गम-ए-उलफत को समझने वाला कोई नहीं है। हमारी शायरी यहाँ चलनेवाली नहीं। इसलिए हम अगर यहां एक गए तो भुखे मर जाएंगे (नाकारी का शिकार हो जाएंगे) लिहा हमें ऐसी जगहा चले जाना चाहिए जहाँ हमारी कदर हो। जहाँ हमारे कदरदान हो।


ग़ज़ल २१


यह न थी हमारी किस्मत, कि विसाल-ए-यार होता


अगर और जीते रहते, यही इन्तिजार होता


१)

विसाल = संयोग, मिलना।


हमारी किस्मत में मेहबूब का मिलना लिखा ही नहीं था और ना ही इसकी कोई आस बाकी थी। अगर यही आस रहती तो शायद हम इंतजार में कुछ और दिन जी लेते पर फिर भी हमें तो इंतजार ही करना था।


२) तिरे वादे प, जिए हम, तो यह जान, छूट जाना कि खुशी से मर न जाते, अगर एतिबार होता


अगर तुम सोचती हो कि हम तुम्हारे वादे ये जी रहे है तो यह तुम्हारा सोचना गलत है। क्योंकि अगर हमें तुम्हारे वादे


पर इतना एतिबार होता तो खुशी के मारे हमारा दम निकल जाता।


३) तिरी नाजुकी से जाना कि बंधा था पहूद बोदा कभी तू ना तोड़ सकता, अगर उस्तवार होता


उस्तवार मजबूत। मेहबूब की नाजुकी से ही पता चलता है कि उसका जो वादा था वह भी बहुत नरम व नाजूक था इसलिए उसने वह आसानी से तोड़ दिया। अगर यह वादा या बंधन मजबूत होता तो हमारा नाजुक मेहबूब उसे कभी ना तोड़ सकता।


एहदवचन। बोदा कच्चा, कमजोर।


४) कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीर-ए- नीमकरा को यह खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता


तीर-ए- नीमका खींचा हुआ ती शिक्ती, जलना


कोई हमसे पूछे कि तुम्हरे तीर-ए-नीम से यानी तुम्हारे तंज भरे जुम्ली से हमारे दिल पर क्या गुजरती है। ये तीर किस कदर दिल में गढ़ जाते है। अगर तीर पूरी तरह खींचा होता तो वह जिगर के पार हो जाता और हम कत्ल हो जाते और ये जो दर्द मेहसूस कर रहे है उससे हमें छुटकारा मिल जाता


५) यह कहाँ की दोस्ती है कि, बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई गुमगुसार होता


धारसाजा- इलाज करने वाला। गमगुसार सहानुभूति रखने वाला। नासेह-उपदेश करने वाला।


अपने दोस्तों पर तंज करते हुए वो कहते है कि यह कहाँ की दोस्ती है? कि हमारे दोस्त नासेह की तरह हमें सिर्फ नसीहत दिए जा रहे है। जब कि उन्हें हमारा गम बांटने वाला होना चाहिए था। हमारे गम का इलाज करने वाला बनना चाहिए था।


६) रंग-ए-संग से टपकता, वो लहू कि फिर न चमता


जिसे गुम समझ रहे हो, यह अगर शरार होता


पत्थर की लकिर शरार=चिनगारी


रंग-ए-संग मैं मेहबूब के सितम से पत्थर बन गया हूँ। और वह सितम भी उसका ऐसा हतियार है जिसका न कोई जनम दिखाई देता है, नाही उसमे खून निकलाता है। यह अगर (गम) चिनगारी ही होता जो मुझे जखमी करता तो तुम देखते कि मेरे जिस्म से वो लहू निकलता कि रूकने का नाम ही नहीं लेता।


गुम अगर्चे जोगुसिल है, प' कहाँ बचें कि दिल है


गुम-ए-इश्क गर न होता, गुम-ए-रोजगार होता जोसिलों को घुलाने वाला, धीरे-धीरे खत्म करने वाला। में रोजगार दुनिया की फिका गुम अगर चे कि जान को धीरे-धीरे तबाह करने वाली चीज है, लेकिन हम इससे कैसे बच सकते थे ? कि हमारे पास तो दिल था और दिल तो गम के रहने की जगहा है। अगर इश्क का गम नहीं होता तो इसमें जमाने का गम जरूर होता।।


<) कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है


मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता शब-ए-गम की मुसीबते मैं किससे बयान करू ? यह गम तो मौत के बराबर है, मगर यह मीत वो मौत है जो बार-बार आती है। इससे तो मुझे मरना ही गवारा था। अगर मौत एक बार ही आती तो उसमे क्या बुरा था? शब-ए-गम की तकलीफों से मुझे आसानी से छुटकारा मिल जाता।


हुए मरके हम जो रूखा, हुए क्यूँ न ग-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता


हम मर कर भी रुस्वाई से बच न सके। इससे बेहतर था कि हम कही दरिया में डुब जाते ना हमारा जनाजा उठताना कही हमारा मजार होता और ना ही कोई हमारे मजार को देखकर बार-बार हमारी सस्थाईकरता। १०)


उसे कौन देख सकता कि, यगान है वो यक्ता जो दुई की भी होती तो कहीं दुधार होता


यगानः एक, बेमिसाल।


दुई गैरीयत, अजनबीयत। दोचार होना=आमने सामने आना।


हमारा मेहबूब अपने आप में ऐसा बेमिसाल और खोया हुआ है के उससे मुलाकात ना मुमकिन है। वह अगर हमारा मेहबूब न होता और उससे हमारा ताआलुक दुई ( अजनबी) का सा होता तो यह कहीं न कहीं हमसे दोचारा जरूर होता यानी हमारे सामने जरूर आता। दूसरे मायने में ख़ुदा अपने आप में ऐसा यक्ता है के हम उसे देख ही नहीं सकते। वह हमारा है पर हमसे दूर है। उसमे अजनबीयत की जरा सी बू (बास) होती या वह दुश्मन भी होता तो हमारे सामने जरूर आता लेकिन वह हमारा होकर भी हमारी नज़रो से दूर है।


ये मसाइल-ए-मसव्वुफ, यह तिरा बयान 'ग़ालिब'


तुझे हम वली समझते, जो न बादः ख्वार होता मसाइल समस्याएं। तसव्वुफ- सूफी मत की वो शायरी जिसमे खुदा से इश्क बयान है।


'गालिब' अपने आपकी तारीफ कर रहे है कि मेरे पास तसव्वुफ के (वो शायरी जिसमे खुदा से इश्क बयान है) ऐसे ऐसे मसाईल है, किया है कि मैं शराबी न होता तो लोग मुझे सूफी और वली समझते।


ग़ज़ल 


9) हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या ? न हो मरना तो जीने का मजा क्या ?


हवस-लालसा नशात-ए-कार-खुशी के काम, काम करने की उमंग। ख्वाहिशों को न जाने कितने बड़े-बड़े काम करने की उम्मीद है। इनमें से कुछ तो इन्सान कर जाता है और कुछ करने में नाकाम हो जाता है। लेकिन नाकामी से मायूस नहीं होना चाहिए। जिस तरह मौत के बगैर जीने का मजा नहीं उसी तरह नाकामीयो के बगैर कामयाबी का भी मजा नहीं मिलता।


२) राजाहुल पेशगी से मुद्दआ क्या ? कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ | क्या क्या ?


तजाहुल= टालना । तजाहुल पेशगी जान बुझकर अनजान बनना, बात टालना।


यह शेर मेहबुब से मुताल्लीक है। ग़ालिब कहते है, वह जो हमेशा हर बात को टालता रहता है, इस हालत में हम उसे अपना क्या मकसद बयान करें। जो सर से पाँव तक नाज नखरे वाला हो यह हमारी बात कहाँ सुन सकता है। हमारी बात अनसुनी


करके क्या-क्या ही करते रहता है।


३) नवाजिशहा-ए-बेजा देखता हूँ शिकायतहा-ए-रंगी का गिला क्या ?


नवाजिश=दया, कृपा। बेजा=अनुचिता शिकायतहा-ए-रंगी रंगीन शिकायत (मेहबूब की शिकायत) आज मैं उनकी बेजा नवाजिश देखकर हैरान हूँ। आज क्या है जो वो इस तरहा हम पर मेरबानी नवाजिश फर्मा रहे हैं ? लिहाजा मैं उनकी रंगीन शिकायतो का क्या गिला करू ?


४) निगाह ए- बेमहाबा चाहता हूँ


वग्राफुलहा-ए-तमकी आज़मा क्या ?


बे महाबा=चे खौफ। तगाफुल= उपेक्षा। तमकी आज़मा ताकत आज़माने वाली।


मैं उनसे बेखौफ निगाहों का तलबगार हूँ। और वो है कि कभी अनजान बन रहे है, तो कभी हम पर जुल्म-ओ-सितम और जोर आजमा रहे हैं। वो तो हमारी उपेक्षा सहन करने की ताकत को आज़मा रहे हैं। लिहाजा हमें यह नहीं बल्कि निगाह-ए-बेमहाबा


चाहिए। हमसे खुलकर बात करेन वाला मेहबूब हम चाहते है।


फरोग-ए-शोल:-ए-ख़स यक नफस है ? हवस को पास - ए- नामूस-ए-वफा क्या ?


फरोग तेज,चमक। खस=घास-फूस यक नफस कुछ ही देर के लिए, पलभर के लिए नामूस इज्जत, आबरू।


पास-लिहाजा


दिल की ख्वाहिश, जो गुन्हा की तरफ ले जाए वह ऐसे शोले की तरह है जो सूखी घास को एक लम्हे में जला के खाक कर देता है। इसलिए ऐसी ख्वाहिश रखने वालों को वफा की आब्रु का कहा पास हो सकता है ? यहाँ ग़ालिब सिर्फ हवस को यानी शारीरिक सुख को एक घास-फूस के तीनके जैसा तुच्छ, हकीर बता रहे है।


६)

नफस मौज-ए-मुहीत-ए-बेखुदी है तगाफुलहा-ए-साकी का गिला क्या ?


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नफस=अस्तित्व, शखसियत (साकी) मुहीत=समंदर साकी तो बेखुदी के समंदर की एक ऐसी मौज है जिसकी एक सिम्त (दिशा) मुकर्र नहीं है वह कभी इधर जाती है कभी


उपर इसलिए हम उसकी तगापुल का (गफलत बरतने का) गिला नहीं कर सकते। ७)


दिमाग़ ए इस पैराहन नहीं है गुम-ए-आवारगीहा-ए-सबा क्या ?


पैरहन लिवास।


सबा सुबह की हवा


हमारा दिमाग जिस इत्र से भरा हुआ है, वह थे पैरहन है यानी खुली हुई इत्र की बोतल से जिस तरह खुशबूएं बाहर आती है और हवा में घुल मिल जाती है, उसी तरह हमारे दिमाग से इत्र की खुशबू गये आवरगी की शक्ल में बाहर आ रही है, तो कभी सबा (सुबह की ठंडी वहा) की शक्ल में।


दिल-ए-हरकतर: है साज़-ए-अनलबहर हम उसके है हमारा पूछना क्या ?


अनलबहार- 'मैं' सागर हूँ। यह एक अरबी का कलमा है, जो ख़ुदा ने अपने लिए कहा है। हमारे दिल के हर कतरे से अनल बहर की आवाजे आ रही है। लिहाजा जब कतरे का यह हाल है तो हमारे दिल की गहराई का क्या हाल होगा ! और फिर हम जिसके है (खुदा) उसकी बढ़ाई के बारे में क्या कहना? दूसरे मायने में हमारे दिल का हर कतरः यानी खून साजे अनलबहर की अवाज दे रहा है। यानी हमें मेहबूब से ऐसे जख्म मिले है कि उन जखमों से खून के कतरे नहीं बल्कि खून के समंदर बह रहे हैं, और हमारी मुसीबत यह है कि हम इस आलम में भी उसी को याद कर रहे है। लिहाजा हमारा हाल क्या पूछते हो ?


महाबा क्या है, मैं जामीन, इपर देख


शहीदान-ए-निगह का यूँ बड़ा क्या ?


महाबाडर, संकोचा


जामीन जमानत देने वाला।। शहीदान-ए-निगह-जो नजर से कत्ल कर दिया गया हो।


खूबहा खून का बदला देना।


इस 'शेर' में अपने मेहबूब से मुखातिब होकर वो कहते है कि "तूझे किस चीज़ का डर है ?" जब कि मैं जमानत दे रहा हूँ। तू मेरी जानीब देख और निगाह से हमें शहीद कर दें। क्यूंकि निगाह से कत्ल करने पर खूबठा नहीं देना पड़ता है।


(१०)

सुन-ऐ- गारतगर-ए-जिन्स-ए-वफा ! सुन


शिकस्त-ए-कीमत-ए-दिल की सदा क्या ?


गारतगर-लुटने वाला। जिन्स = चीज।


ऐ मेहबूब ! वफा की जिन्स (चीज) को लुटने वाले तू जरा इस शिकस्त-ए-दिल की यानी टूटे हुए दिल की सदा सुन इस की आह और फरियाद तो जरा सुन ।


११) किया किसने जिगरदारी का दावा ?


शिकेब-ए-खातिर-ए-आशिक भला क्या ?


जिगरदारी = जिगर रखने वाला। शिकेब= सम्रा खातिर = पास, लिहाज


वो अपनी मेहबूबा से कहते है, कि ज़रा यह तो बताईए यहाँ जिगरदारी का दावा किसने किया है ? वो हम ही है जो इश्क के खातिर सब करते है। जुल्मो सितम बरदाश्त करते है। लिहाजा हमारे सिवा कौन यह दावा कर सकता है ?


१२)


यह कातिल वादः-ए-सब आजमां क्यूं ?


फिल:-झगड़ा।


यह काफिर फिलः-ए-ताकृतरूबा क्या ?


ताकतरूबा= ताकत छिनना।

यह ऐसा कातिल है जो हमारे सब को आजमाना चाहता है। जब कि वह फिल्मा बरपा करने वाला है, यानी हमसे बात-बात


१३) बला-ए-जाँ है 'गालिब' उसकी हर बात इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या ?


पर झगड़ने वाला है (हम पर जुल्म करने वाला है) तो फिर वह अपनी ताकत क्यूँ छुपा रहा है ? बला-ए-जाँ जान पर आने वाली मुसीबत। इबारत लिखी हुई बात। 'गालिब' कहते है उसकी हर बात हमारी जान के लिए मुसीबत है। वो चाहे उसकी लिखी हुई बात हो, कोई इशारे हो


या उसकी अदाएं हो।


ग़ज़ल २३


9) दरखुर-ए- कहर-ओ-गजब, जब कोई हमसा न हुआ


फिर गलत क्या है कि, हम सा कोई पैदा न हुआ


दरखुर लायक।


कहर-ओ-गजब = कोष, जुल्म


इस ज़माने में इक हम ही है जिसको उसने (मेहबूब ने जुल्म-ओ-सितम ढाने के लायक समझा है। हमारी जुल्म-ओ-सितम सहने की ताब देखकर वो जुल्म और क्रोच हम पर ही करता रहा। इस लिए हम अगर यह दावा करें कि हम सा कोई पैदा नही हुआ है तो इसमे क्या गलत है ?



२)


बन्दगी मे भी, वो आजादः-ओ-खुदबी है कि, हम उल्टे फिर आए, दर-ए-काबः अगर वा ना हुआ


खुदबी=मगरूर, घमंडी।


बंदगी खुदा की खिदमत |


ग़ालिब कहते है हमारी तबीयत में उस कदर आज़ादी और गुरूर भरे हुए है कि ये बंदगी में भी हमारा साथ नही छोड़ते, इस लिए हम काबे से फिर आए क्यों कि वहां हमने दरवाज़ा खुला हुआ नहीं पाया।


३) सबको मकबूल है, दावा तेरी यक्ताई का


सीमा=माथा, चेहरा।


रूबरू कोई बुत-ए-आईनः सीमा न हुआ


बुत मूर्ति, मेहबूबा यक्ताई- अदितीयता


ऐ ख़ुदा ! तेरी यक्ताई सब को कबूल है तेरी यक्ताई का दावा सब मानते है क्यों के किसी बुत में इतनी ताकत नहीं के वो आईनः बनकर तेरे मुकाबिल खड़ा हो सकें। दूसरे मायने में मेहबूब से मुखातिब होकर वो कहते है कि तुम्हे अपने हुस्न पर लासानी (अव्दितीय) होने का जो दावा है वो सभी कबूल करते है क्योंकि किसी और बुत में (हुस्न वाले में इतनी ताकत नही कि वो तुम्हारे रू-ब-रू अपना चेहरा ला सकें।


कम नहीं, नाज़िश-ए-हमनामि-ए-चश्म-ए-ख़ूबाँ तेरा बीमार, बुरा क्या है, गर अच्छा न हुआ


नाजिश = गर्व, गुरूरा| हमनाम=एक ही नाम के, यहाँ एक जैसे खुबी वाले। तुम्हारी आँखे गुरूर और घमंड की हम नाम है यानी तुम्हारी आँखों से गुरूर और घमंड टपकता है। और हम इन आँखों की ताब नहीं ला सकते। उनका मुकाबला नहीं कर सकते और हम जख्मी (मजरूह) हो जाते है। इसलिए तुम्हारे बीमार की बीमारी ही अच्छी है।


(५)


सीने का दाग है, वो नालः कि लब तक न गया ख़ाक का रिज़्क है, वो कतरः कि दरिया न हुआ


रिज़्क=खाना, अन्न।


नालः = रोना।


दर्द से रोना तो आता है, लेकिन हम इस रोने को दिल का दाग (मेहबूब का तोहफा ) समझकर दिल से लगाए रहते है। इसलिए हमारा नालः लब तक नहीं आता। हमारे अश्क आँखों में ही किसी गहरे दरिया की तरह थम जाते हैं। लिहाजा हम अपने अश्कों को बहुत संभालकर रखते है। यानी तुम्हारे गम को दिल ही में रखते हैं, जाहिर नहीं होने देते


६) नाम का मेरे, है वो दुख कि किसी को न मिला काम में मेरे है वो फिलः कि, बरपा न हुआ


फिल झगड़ा। मुझे वो दुख मिला है जो जमाने में किसी और के हिस्से में नहीं आया। मेरा ही दिल था जो उसे सहने की ताकत रखता था। लेकिन इतना दुख सह कर भी हमे बदनाम किया जा रहा है। हमारे नाम से झगड़ा मनसुब किया गया जब कि ऐसा कोई फिल्मः हमसे बरपाही नहीं हुआ। हमने कोई ऐसा झगड़ा नहीं किया।


७) हर बुन-ए-मू से, दम-ए-जिक, न टपके ख़ूनाब हग्जः का किस्सः हुआ, इश्क का चर्चा न हुआ


बुन-ए-मू बाल कि जड़ (जिस्म का रोम-रोम ) । दम-ए-जिक-जिक के वक्ता खूनाब खून की धारा हम्ज़ मुहम्मद सल्लम पैगंबर के चाचा जिन को शहिद करके जालिमो ने उनका दिल निकाल कर चबाया था। आपका (मेहबूब का) जब भी जिक्र होता है तो हमारे रोम रोम से खून टपकने लगता है। हम सरापा खून के आँसू बन जाते है, लेकिन हैरत है कि हम्जः रजी अल्लाह का किस्सा तो जमाने में मशहूर हो गया लेकिन हम भी कुछ कम जुल्म के शिकार नहीं हुए फिर भी हमारा चर्चा तक नहीं हुआ।


=) कतरे में दजलः दिखाई न दे, और जुज्द में कुल खेल लडकों का हुआ, दीदः -ए- बीना न हुआ


दजलः = इरान की मशहूर नदी। जुज्व- किसी चीज का हिस्सा। कुल पूरी चीज दीद:- ए- बीना-देखने


(समझदार की निगाह ) ।


वाली आँख


वो शक्स जिसे कतरे में दजलः दिखाई न दे यानी जो इशारे में पूरी बात ना समझ सकें, उसका देखना कोई मायने नहीं रखता। उसकी बीनाई (नज़र) लडकों का खेल है, यानी मामूली है। यहाँ दूसरे मायने में 'गालिब' ने ग़ज़ल गोई के फन के तआलुक से बात की है, और बताया है कि ग़ज़ल का हर 'शेर' अपने अंदर जहाँ ने मानी (जमाने भर के मायनी) रखने वाला होता है। वह इशारों इशारों में बहुत बड़ी बात कह जाता है। अगर कोई शायर ग़ज़ल में इस तरह की बातें नहीं करता, तो वह बच्चों का खेल, खेल रहा है।


थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्जे देखने हम भी गए थे, प' तमाशा न हुआ


हमारे हासिदों ने (हमसें जलने वालो ने यह खबर उड़ा दी थी कि ग़ालिब जो के गिरफ्तारे-ए-इश्क है, इसलिए अब उनके पुर्जे उड़ जाएंगे, वो कही के नहीं रहेंगें। लेकिन मालूम हुआ के हम इश्क में साबित (मजबूत कदम रहे। लिहाजा हमारा कोई तमाशा नहीं हो सका।


ग़ज़ल २४


१) 'असद' ! हम वो जुनूं जौला, गदा-ए-बेसर-ओ-पा हैं कि है सर पंज:-ए-मिशगान-ए-आहू, पुश्त ख़ार अपना


जीलॉ=फिरना,भटकना। गदा=फकिर बेसर-ओ-पा- बेसहारा, बरबाद। आहू हिरन मिशगान पलके । पुश्त = पीठ खार= काटे। पुश्तवार = पीठ में चुमें कांटे। पुश्तख़ार पीठ खुजाने की लकड़ी जो हाथ के शक्ल में होती है। हम वो आज़ाद फकिर है कि भटकना और चलते रहना ही हमारी आदत है। और इसमें हम इस तरह तेज है कि हिरन


की पलकें हमारी पीठ को लग रही है। वो अपनी पलकों से हमारी पीठ जा रही है। तेज सफर में उसको मात दे रहे हैं। दूसरे मानी में हम वो लुटे हुए दीवाने है जीन के पैरो में दीवानगी की जंजीर बंधी है जिस तरह हिरन की पेट में रम जाए तो उसकी पलके, उसकी आँखे किसी को मदद के लिए दूसरे उपर तकती है। उसी तरह हमारी दीवानगी भी अपने इलाज के लिए तरसती रहती है।


ग़ज़ल २५


2) पै-ए-नज-ए-करम तोहफा, है शर्म-ए-नारसाई का बबू का के लिए


गुलतीद:-ए-सदरंग दावा पारसाई शर्म- इतः गततीयः लतपथ पारसा पवित्रा


तुम्हारे करम का (मेहबूब का तोहफा हम तक नहीं पहुँच सका वह नारसा पानी ना पहुंचने वाला ही रहा। धर्म-ए-नारसाई (इज के डर से ना पहुंचना आपको अपनी इजत इस तरह प्यारी थी कि आपने हमें बनी की नजर से देखा ही नहीं, लेकिन आपके इस रख्यये से हम सौ बार कल्ल हुए और आप सौ बार खून से आलूद (स) हुए इतने पर भी आपकी परसाई का दावा है।


२)

न हो हुस्न-ए-तमाशा दोस्त, रूस्था बेवफाई का


ब मुहर-ए-सद नज़र साबित है दावा पारसाई का


बहर-ए-सद नजर=सी लोगो ने इस बात पर मोहर लगाई है।


ऐ दोस्त हमने तुझे बेवफाई की सवाई से और उसके तमाशे से इसलिए बचा लिया कि


सौ लोगों ने बहुतों ने) तेरी पारसाई के दावे पर अपनी मोहर लगा दी है। सब लोगो ने तुझे पारसा (पवित्र) ठहराया है।


३) जकात-ए-हुस्न दे, ऐ जत्व:- बीनिश कि मेहरआसा चराग-ए- खान-ए-दरवेश हो, कासः गदाई का


जकात खैरात, दान। बोनिश देखने वाला जासा की तरहा। बीनिश दिखाने वाला। मेहर- सूरज गदाई फकिर


कास- भिक्षापात्र


ऐ सूरज की तरह जल्दा दिखाने वाले मेहबूब हमें तेरे हुस्न की थोड़ी सी खैरात दे दे ताकि उससे मेरा कासा इतना भर जाए की उसकी रोशनी से इस दरदेश का घर रोशन हो जाए। तुम्हारी हुस्न की रोशनी से हमारी दुनिया को जगमागा दो हमारे


दिल में उजाला कर दो।


४) न मारा, जानकर बेजुर्म ग्राफिल तेरी गर्दन पर रहा मानिन्द-ए-ख़ून-ए-बेगुनह, तक आश्नाई का


हक आनाई सब जानने वाला।


मानिन्द=की तरह।


तुमने हमें कल्ल कर दिया मगर इस कल का इल्ज़ाम हमने तुम पर इसलिए नहीं घरा कि हम जानते थे कि तुम बेगुनाहो, ये जुर्म हो और अपनी इस बेमुरव्वती की अदा से तुम गाफिल भी हो। लेकिन आप यह सच की, हक की बात ज़रूर समझ लीजिए कि आपने एक बेगुना का कत्ल किया है। यानी उसके अरमानो का कल किया है। इसलिए हमारा खून तुम्हारी गर्दन पर है।


५) तमन्ना -ए- जुबाँ महव -ए- बेज़बानी है मिटा जिससे तकाजा शिक्व:-ए-बेदस्त-ओ-पाई का


महव डूबी हुई। सिपास तारिफ करना, प्रशंसा।


बेदस्त-ओ-पाई मजबूरी। हमारी जुबान को बड़ी तमन्ना थी कि वह तुम्हारी तारीफ करे, मुराद तुमसे इजहार-ए-मुहब्बत करें मगर तुमने हमें मौका ही नहीं दिया। तुम हमसे अजनबी की तरह खीचे खीचे रहें। इसलिए हमने वो बात जुबान-ए-खामोश से अदा की यानी हम दिल

ही दिल में तुमसे मुद्दआ करते रहे। (मुद्दआ - कोई चीज मांगने के लिए बात करना) इसलिए हमें यह शिकवा भी नहीं रहा कि हम मजबूर है। अगर हमसे कुछ मांगते तो शिकले कि जरूरत पड़ती।


६) वही इक बात है, जो यो नफस, व नकहत-ए-गुल है चमन का जल्द: बाइस है मेरी रंगी-नवाई का


नफस सॉस, यजूदा कह खुशबू रंगी-नवाई स्वर


मेरी जिंदगी का मकसद यशी एक बात है कि मैं फूलों में खुशबू देखना चाहता हूँ, क्योंकि चमन के हसीन नजारे देखकर मैं इस तरह की रंगीन बाते करता हूँ। यहाँ वो अपनी शायरी का असल ममबा (उगम) बयान करते हैं, और कहते है कि मेरी आपको जो रंगीन बचानी नजर आती है, दर असल उसकी वजहा चमन का जलवा है। यानी शहरे निगारा (मेहबूब का शहर) और मेरी जिंदगी कत-ए-गुल से है। नकडत-ए-गुल से मुराद मेहबूब की इज्जत से है। ग़ालिब कह रहे है, मेरी साँस यानी मेरा वजूद मेहबूब की इज्जत से हैं।


(७) दहान-ए-हर बुत-ए-पैगारा जू जंजीर-ए-रुस्वाई


अदम तक बेवफा, चर्चा है तेरी बेवफाई का दहान मुँहा पैगारा निर्भर्त्सना, गाली देना, तंजा अदम यमलोका जू नदी


हर माशुक का मुंह तंज की एक नदी बहाता है, और यह रुस्वाई की एक जंजीर है। इसलिए हर माशूक की बेवफाई का चर्चा अदम तक पहुँच गया है। यानी अब भी इश्क का चर्चा होगा उसमें माशुक बेवफा बन कर ही सामने आएगा।


८) न दे नामे को इतना तूल, 'गालिब' मुख्तसर लिख दे कि हसरतसंग हूँ, अर्ज-ए-सितमहा-ए-जुदाई का


कूल संचा हसरतसंग इच्छुका


(संज-उठाना, इम्तेहान लेना।


'गालिब' आपनी माशूक को खत लिखते वक्त खुद अपने आप से मुखातिब हो कर कहते है कि तुम इतना तवील खत न लिखते हुए मुख्तसर (छोटा सा इतना ही लिख दो कि तुम्हारी जुदाई में हम हसरतों का बोझ उठा रहे है। और में यह जुदाई का गम तुम्हे बताना चाहता हूँ। दूसरे मानी में गालिब कह रहे है कि आप मोहब्बत की सदाद के बारे में तवील न लिखते हुए मुख्तसर यही लिख दो कि जुदाई में सितम सहने और हसरतो का बार उठाने के सिवा और कुछ भी नहीं है।


ग़ज़ल २६


9)


गर न अन्दोह-ए-शब-ए-फुर्कत बयाँ हो जाएगा बेतकल्लुफ दाग़-ए-मह, मुहर-ए-यहाँ हो जाएगा


अन्दोह= व्यथा। मह= चाँद। फुर्कत=जुदाई। दहाँ = मुँहा रात में जुदाई के गम से हमारी वो कैफियत थी कि हम बयान नहीं कर सकते। हमने तो दर्द की कैफियत को अपने मुँह पर नहीं आने दिया और मुँह पर खामोशी की मोहर लागा दी यही वजह है कि हमारी दर्द की शिद्दत से चाँद पर दाग आ गया क्यूंकि वो शब-ए-फुर्कत में हमारी हालत देख रहा था।


जहरः गर ऐसा ही, शाम-ए-हिज्र में होता है आब परवत-ए-महताब, सैल-ए-खानमाँ हो जाएगा


पित्ता पानी होना-उमंग खो देना। जहर पित्ता, हौसला परतव= किरन आब पानी


हिज्र की शाम में अगर हमारा पित्ता इसी तरह पानी-पानी होता रहा, यानी हमारी हिम्मत, हौसला उमंग हमारे दिल से जाती रही तो परतव-ए-महताब मुराद हौसले की उम्मीद की एक किरन भी सैलाब बनकर हमारे घर को बहा ले जाएगी। हम उस उम्मीद कि किरन ( माशुक को पाने की उम्मीद) के सहारे जी रहे है, वह जीने की उम्मीद भी खत्म हो जाएगी।


३ .ले तो लूँ, सोते में उसके पाँव का बोसा, मगर ऐसी बातों से, वो काफिर बदगुम हो जाएगा


हम माशूक को इस कदर चाहते हैं कि हम खयाली में उसके पाँव का बोसा (चुमना) भी ले सकते है। मगर हमें डर है


कि कहीं वो बदगुम ना हो जाए। (बुरे खयालों में खो ना जाए) और अपने आप को ख़ुदा ना तसब्बुर करे।


सर्फ-खर्च, मददगार।


४) दिल को हम सर्फ-ए-वफा समझे थे, क्या मालूम था यानी, यह पहले ही नज-ए-इम्तिहाँ हो जाएगा


नज-ए-इम्तिहाँ परीक्षा की भेंदा


हम समझते थे कि कारोबार-ए-इश्क में हमारा दिल हमारा मददगार बनेगा, लेकिन हमें क्या मालूम था कि वह पहले ही इम्तहान में (इश्क के पहले ही मरहले) में उनकी नज हो जाएगा।


५) सबके दिल में है जगह तेरी, जो तू राजी हुआ


मुझ पर गोया, इक जमाना मेहरबाँ हो जाएगा


इश्क-ए-हकीकी (खुदा से मेहब्बत) में डुब कर 'गालिब' कहते है कि ऐ ख़ुदा । तू सभी के दिल में रहता है। तू अगर मुझ पे राजी हुआ तो यह सारा जमाना मुझ पर मेहरबान हो जाएगा। मेरे सारे काम बन जाएंगे। दूसरे तरफ वो इश्क-ए-मजाजी (खुदा के अलावः दुनिया में किसी और चीज से मुहब्बत) में कहते है, कि ऐ महबूब, तुझ पर तो सभी दिलो-ओ-जान से फिदा है तू अगर मुझ पे राजी हो जाएगा तो यह सारा जमाना मुझ पर मेहरबा हो जाएगा। क्यूँ कि मुझे सिर्फ तुझ से लगाव है और तू मेरी कुल कायनात है।


६) गर निगाह-ए-गर्म फरमाती रही, तालीम-ए-ज़ब्त


शोलः ख़स में, जैसे ख़ू रग में, निहाँ हो जाएगा


तालीम-ए-जब्त अपने जज्बात को काबू में रखने की शिक्षा । आपकी गर्म निगाह मुराद कहर (गुस्से) भरी निगाह हमें जब्त की तालीम देती है और इसी जब्त के सहारे हम अपने जज्बात, आपके जुल्म-ओ-सितम दबाए रखते हैं। उसी तरह जैसे खून रंगों में छिपा है वैसे ही शोले को खस (सुखी घास) छुपा कर रखती हैं। हालांकि शोला खस में छुपाया नहीं जा सकता। यह अलामते (निशानियों) इसलिए लाई गई है कि वो अपनी दिली कैफियत का भरपुर इज़हार कर सकें। मायनी ये हुए कि हम तुम्हारे जुल्म-ओ-सितम को बरदास्त करने के काबिल नहीं है, फिर भी बरदास्त किए जा रहे है।


(७) बाग में मुझको न लेजा, वर्नः मेरे हाल पर हर गुल-ए-तर एक चश्म-ए-खुफिश हो जाएगा


गुल-ए-तर ताजा फूला अपने दोस्त से मुखातिब होकर वो कहते है कि, ऐ मेरे दोस्त ! मुझे बाग में मत ले जा क्यूंकि मेरा हाल देखकर वहाँ हर फूल खून के आँसू बहाने लगेगा। मुराद मुझे रंगीन मेहफिल में मत ले जा। मैं इतना गमदाजः हूँ की मेरी हालत पर मेहफिल के लोगों को भी आँसू आ जाएंगे। उनकी खुशियाँ मीट जाएंगी।


वाए, गर मेरा तिरा इन्साफ़ महशर में न हो अब तलक तो यह तवक्को है, कि वाँ हो जाएगा


वाए=अफसोस का लफ्ज़। ‘'गालिब' कह रहे है कि तुमने मुझ पर जो जुल्म ढाये है उसके तअल्लुक से हमें यकीन है कि मशहर में हमें इन्साफ मिलेगा ! लेकिन हाय! अगर वहाँ भी इन्साफ ना मिल सका तो ?


फायदा क्या ? सोच, आख़िर तू भी दाना है 'असद' दोस्ती नादों की है, जी का ज़ियों हो जाएगा

शियाँ हानि दाना अकलमंदा


'गालिब' अपने आप से कहते है, कि तुम यह सोचो कि इस से क्या हासिल है ? अगर तुम नादी से दोस्ती करोगे तो उसमे तुम्हारी जान का नुकसान होगा। लिहाजा कोई अकलमंद शख्स नादन से दोस्ती ना करें। किसी ना समझ से दोस्ती ना करें।


गज़ल २७


१)


दर्द मित्रतकश ए दवा न हुआ


मैं अच्छा हुआ, बुरा न हुआ


मित्र आभार लेने वाला, एहसान उठाने वाला हमारा दर्द किसी दया से कम नहीं हो सकता था। लिहाजा हमने इस की दवा नहीं की, इसलिए यह अच्छा ही हुआ की मैंने किसी दवा का एहसान नहीं उठाया। इशारों में वो माशुक से मुखातिब है और कहते है कि हमारे दर्द-ए-मुहब्बत की दवा आप जैसे जफाश के बस की बात नहीं थी इसलिए हमने आपकी मित्रत समाजत नहीं की। इसलिए यह कोई बुरा नहीं हुआ कि मैं अच्छा ना हो सका।


जा करते हो क्यूँ रकीबो को ?


इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ रीय प्रतिद्वन्दी । यहाँ वो माशूक से मुखातिब होकर कहते है कि हमारी मुहब्बत का गिला करने के लिए, हमारी शिकायते करने के लिए आप दुश्मनों को जमा कर रहे हो यह तो कोई गिला न हुआ बल्कि एक तमाश हुआ। आपने तो हमारी मुहब्बत को एक तमाशा बना दिया।


हम कहाँ किस्मत आज़माने जाएँ ? तू ही जब खंजर-आज़मा न हुआ


ऐ माशुक ! हम अपनी किस्मत अपना दुख दर्द किसके सामने पेश करे ? जब तू ही खंजर आज़माना नहीं चाहता। (तंज से वो ये कह रहे हैं कि जब तू ने ही हमें कल्ल नहीं किया तो हम कहाँ जाए ?) हम जब अपनी बुरी किस्मत का हाल किसी के सामने पेश करते है तो यह उम्मीद रखते है कि वो हमारे दुख दर्द पर अफसोस जाहिर करें। उस पर मरहम लगाए। पर यहाँ वो कहते है हमें अपने जख्मों का इलाज किससे मिले ? हमारे लिए कौन मरहम बन सकता है ? जब तू ही उस पर मरहम नहीं रख 'पाया। 'गालिब' यहाँ 'मरहम' का जिक्र ना करते हुए 'खंजर' का लफ्ज़ इस्तेमाल करते है और यहा 'खंजर' का लफ्ज़ इस बात का इशारा देता है कि उनके माशूक ने जख्म देना ही सिखा है।


दूसरे मानी में वो यहा केहना चाहते है कि हमारी किस्मत में जख्म ही खाना लिखा है। अगर वो जख्म लागाने से, खंजर आजमाने से पीछे हट जाएंगे तो और कौन यह काम कर सकता है ? और किससे हम यह उम्मीद पूरी कर सकते है ?


४)


कितने शीरी है तेरे लब कि रकीब गालियाँ खाके बेमजा न हुआ


शीरी=मीठे। रकीब= दुश्मन, यहाँ माशूक से मुरादा ऐ माशुक ! तेरे होट इनते मीठे है यानी वो इस कदर खूबसूरत है कि जब ये हमें गालियाँ भी देते है, तो उन गालियो


में मीठास सी भर जाती है, जिसे सुनकर हम नाराज नही होते। हम तो बस होटों की हरकतों की मीठास में खो जाते हैं।


५) है ख़बर गर्म उनके आने की आज ही, घर में बोरिया न हुआ


बोरिया = चटाई। उनके आने की ख़बर हम तक पहुँची है। लेकिन हम इतने बदकिस्मत है, इतने खस्ता हाल है कि हमारे घर में बोरिया


भी नहीं है। जिसपर उन्हें बैठाया जाए। हम अपने मेहबूब का अच्छी तरहा इस्कबाल (स्वागत) भी नहीं कर सकते।


६) क्या वो नमरूद की खुदाई थी ? बन्दगी में मेरा भला न हुआ


नमरूद = एक प्रचीन बादशहा जो ख़ुदा होने का दावा करता था।


यहाँ वो ख़ुदा से शिकायत करते हुए कहते है कि, ऐ ख़ुदा । तू तो हर चीज़ पर कुदरत रखता है (हर चीज पर तेरा इख्तयार है) मैंने तेरी बंदगी की है।मेरी उम्मीद पूरी होनी चाहिए थी। यह तो यूँ हो गया जैसे मैंने तेरी नहीं नमरूद की इबादत की हो। नमरूद तो हर चीज पर कुदरत नहीं रख सकता था, मगर तू तो हमारे सारे काम बना सकता था। फिर ऐसा क्यों हुआ ?


(७) जान दी, दी हुई उसी की थी


हक तो यह है, कि हक अदा न हुआ


हक सच्चाई।

अगर हमने ख़ुदा की राह पर जान भी गवाँ दी तो यह जान हमें ख़ुदा की ही दी हुई थी। सच तो यह है कि हम अपनी जान की कुर्बानी देकर भी ख़ुदा का हक अदा नहीं कर सकें। ख़ुदा की दी हुई जान के जरीये हम ने जो मजे सुख-चैन यहाँ पाए


है उनका हक तो हम अदा न कर सकें।


जख्म गर दब गया, लहू न थमा


काम गर रूक गया, रवा न हुआ


आपने हमें जख्मी इसलिए किया था कि हम अपने मिशन से मरकज से, दीवानगी से हट जाए, लेकिन हमारा लहू गर्म


ही रहा यानी हम अपने मकसद के लिए काम करते ही रहे, यहाँ तक कि आपका दिया हुआ जख्म भी भर गया। असल कामगारी तो उस वक्त मुमकिन थीं जब में जुनून की राह से रूक जाता। आपका काम तो एक गया, जारी ना रह सका।


रहजनी है, कि दिलसितानी है। ले के दिल दिलसिताँ रवाना हुआ


रहजनी=लूटमार। दिलसितानी माशूकी। दिलसिता दिल चुराने वाला। (माशुक)


अपने माशुक से शिकायत के अंदाज़ में वो कहते है कि यह तुम्हारा दिल चुराना है या लुटना है ? क्यूँ कि तुम तो हमारा दिल ले के रवाना हो गये। दिल चुराने वाले इस तरह नहीं करते। वो अपने दिलबर से अपने तअलुकात बनाए रखते है।


कुछ तो पढ़िए, कि लोग कहते हैं आज 'गालिब' ग़ज़लसरा न हुआ


ग़जलसरा=गजल सुनाने वाला यहाँ अपनी तारीफ में वो कह रहे है कि मेरे बगैर मेहफिले सुनी रहती हैं। में खामीश होता हूँ तो लोग कहते है आप पढ़िए, हम आप ही को सुनना चाहते है।


ग़ज़ल २८


१) गिला है शौक को दिल में भी तगि-ए-जा का गुहर में महव हुआ, इज्तिराब दरिया का


तंगि-ए-जा जगह की कमी।


गुहर= मोती।


इज्तिराब-बेचैनी।


हमें अपनी दिल की तंगी का गिला है। इसलिए कि मेरे दिल में पूरे जहाँ का दर्द समाया हुआ है जिस तरह गौहर में दरिया की बेचैनी समा जाती है। ज्यूँ कि दरिया का मकसद प्यासों की प्यास बुझाना और सुखी ज़मीन को सैराब करना है और इस फिक मैं वो बेचैन इधर से उधर फिरती रहती हैं। यह बेचैनी ही उसका जौहर है जो सिमटकर मोती में आ गया है। इसीलिए गुहर चमकदार और कीमती होता है।


महव= गुम, लीना

यह जानता हूँ कि तू और पासुख-ए-मक्तूब ! मगर सितमज़द हूँ, जौक-ए-ग्रामः फर्सी का


पासुख-जवाब भक्तूय-पत्र। खामः फस-कमल चलाना। जीक-शौका मैं जानता हूँ कि तू मेरे खत का लिहाज़ नहीं रख सकता यानी खत का जवाब नहीं लिख सकता मगर में हूँ कि अपने


खत लिखने के शौक में तुझे खत लिखते जा रहा है। ३) हिना-ए-पा-ए-ज़िों है, बहार अगर है यही


दवाम कुल्फत-ए-स्प्रातिर है, ऐश दुनिया का


विजी पतझड़ दवाम- हमेशा कुलरुत-क्लेश खातिर मन हृदया जिस तरहा खिजाने पांव में मेहंदी लागा दी है और यह मेहंदी बहार है। खिजा अपने पांव बड़े एहतियात से संभल-संभल के रखती है। गोया हमेशा दुनिया में खिजा की हुक्मरानी रहती है। बहार तो कभी-कभी अपना जलवा दिखा कर कहीं खो जाती है। यही हाल दुनिया के ऐशो आराम का है। इसीलिए मन के क्लेश, दुख-दर्द तो हमेशा इन्सान के साथ चलते रहते हैं। और दुनिया की खुशियों कभी कभार उसे मय्यसर होती है।


४) ग़म-ए-फिरक में तकलीफ-ए-सैर-ए-बाग न दो मुझे दिमाग नहीं खन्दःहा ए- बेजा का


फिराक विरह। खन्दाहा-ए-बेजा बेतुकी हंसी।


माशूक की जुदाई के गम में मुझे बाग की सैर को न ले जाओ बेतूकी हँसी हँसने को मेरा जी नहीं चाहता मुराद मैं किसी मेहफिल में जा कर किसी का भी खन्दः दिल्ली से (हसते हुए) इस्तकबाल (स्वागत) नहीं कर सकता। इसलिए की मैं यह चीज़ भुगत चुका हूँ कि किसी का खन्दादिली से इस्तकबाल करने पर क्या हा होता है।


(५) हनोज़ महरमि-ए-हुस्न को तरसता हूँ


महरमि= परिचय, संबंधी। करे है हर बुन-ए-मू काम चश्म-ए-बीना का बुन-ए-मू बालो की जड़े। चश्म-ए-बीना देखने वाली आँख


मैं अभी तक हुस्न की करीबी हासिल करने को तरसता हूँ। मैं दिलो जान से उसका दीदार करना चाहता हूँ। यहाँ तक कि मेरे बदन की बालों की जड़े यानी मेरा रोम-रोम उसके दीदार के लिए आंख बन जाता है।

६)

दिल उसको पहले ही नाज़-ओ-अदा से दे बैठे हमे दिमाग़ कहाँ हुस्न के तकाजा का


हम अपने माशूक को दिल देकर यह समझ बैठे थे कि हम ने इश्क में बड़ा काम कर दिखाया है। लेकिन बाद मे पता चला कि हुस्न के वो तकाज़े होते है जिन पर खरा उतरना हमारे बस की बात नहीं है।


७) न कह कि, गिरियाः बमिक्दार-ए-हसरत-ए-दिल है मिरी निगाह में है जम्अ-ओ-खर्च दरिया का


गिरिया = रोना।


बमिक्दार= परिमाण, मापना।


तुम मेरे रोने को यह समझ बैठे हो कि मेरे दिल की हसरत पूरी नहीं हुई इसलिए ये अश्क बहते हो लेकिन अस्ल बात यह है कि मेरे दिल में पूरी दुनिया का दर्द-ओ-गम समाए हुए है। इसलिए यह रोना हमारी हसरतों के तबाह होने का सबब नहीं है।


८) फलक को देखके, करता हूँ उसको याद 'असद' जफ़ा में उसकी, है अन्दाज़ कारफरमा का


फुलक= आसमान। कारफरमा हूक्मत करने वाला।


हमारा माशूक हमसे हाकिम (हक्मरों) की तरह बात करता है। उसकी गुफ्तगू में ख़ुदा की तरह हुक्म देने का सा अंदाज


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छलकता है लिहाजा हम जब उसको याद करते है तो फलक की सिम्त हमारी निगाह उठ जाती है। यहाँ हुस्न के किस कदर मगरूर होने का जिक्र मिलता है।


ग़ज़ल २६


कतरः-ए-मै, बसकि हैरत से नफस परवर हुआ


यत्त-ए-जाम-ए-मै सरासर, रिश्तः-ए-गौहर हुआ नफ़स परवर प्यारिशों को पालने वाला, मुराद अभ्याशाहों का गुलाम खत्त-लकिरा के प्याले की रेखा सरासर यहाँ से यहाँ तक रिश्ता -ए-गीहर-मोती से रिश्तः, मोती की लड़ी। खन-ए-जाम-ए-मै-शराब


शराब का एक कतर अपने आप को हैरत से देखकर इतराने लगा कि मैं आम कतरों की तरह नहीं हूँ, मुझ में नशा है, मैं आम फतरों से बड़ा हूँ इस तरह उसकी नफस उस पर हावी हो गयी। उसमें गुरूर आ गया जब कि मैं से भरा हुआ प्याला खामोश रहा क्यों के उसका तअल्लुक, उसका रिश्तः यहाँ से वहाँ तक खत्त की (लफीर) की शक्ल मे गौहर से मिलता है। जिस तरह गौहर सदफ में अपने आपको छुपाके रखता है, अपनी खुबीयाँ जाहिर नहीं करता है उसी तरहा जाम में शराब धमी हुई रहती है। इस पूरे वाकिए से यह मायनी निकलते है कि दुनिया में जो कमज़फ होते है वो जरासी तरकी पर, जरा से इल्म पर और थोड़ी सी दौलत पर इतराने लगते है, वो नफस परवर हो जाते है और जिनमें जर्फ होता है वो गौहर की तरह अपने आप को कभी जाहिर नहीं करते।


3) एतिबार-ए-इश्क की खाना ख़राबी देखना गैर ने की आह, लेकिन वो खफा मुझ पर हुआ


खाना खराची बरबादी एतिबार-ए-इश्क- प्रेम का विश्वास । हमारे इश्क का एतिबार हमारे माशूक को न हो सका। इस इश्क में हम खाना खराब (बरबाद हो गये। हमारी बरबादी का नजारा इतना दर्दनाक था जिसे देख कर गैरो ने भी आहें भर दी मगर हम जिन्हें अपना समझते थे, जिनकी खातिर हम बरबाद हुए थे वो इतने दर्दनाक मंजर से भी हमसे खफा रहे। उन्हें हमारे हाल पर जरा भी रहम नहीं आया।


ग़ज़ल ३०


१)

जब बतक़रीब-ए-सफर यार ने महमिल बाँधा तपिश-ए-शौक़ ने हर जुरे प' इक दिल बांधा


तकरीब= कोई जालसा, महफिल। महमिल= ऊँट पर बैठने का कठेरा।


इश्क में हम माशूक की बे मुरब्वती से पागल हो गये थे। हमारे पागलपन और हमारे दुख दर्द को मिटाने का एक ही रास्ता था कि हम किसी इससे भी बढ़कर दुख-दर्द में मुब्तिला हो जाए ताकि इश्क के इस दर्द को भूल जाए। इसलिए हमने सहरा को राह ली ताकी उसके तपते हुए जरें हमें बहुत तकलीफ पहुँचा सके और हम यार का गम भूल जाए। यह इस शेर को समझने का बैंक ग्राउंड हुवा। किसी तकरीब (प्रोग्राम) के सिलसिले में हम यार से मिलने निकले, वहाँ जाने की खुशी में जब हमने उंट पर महमिल बाधा तो हमारे शौक की गर्मी (वस्त की खुशी) का यह हाल था कि रेगिस्तान के वो जरें, जो हमें तक्लीफें पहुँचाते रहे उन जरो पर अपना दिल बांधा यानी उनको भी हम खुशी से देखने लगे। हर जरे में हमें उम्मीद नजर आने लगी।


२) अहल-ए-बीनश ने बहैरतकदः -ए-शौखि-ए-नाज़ जौहर-ए-आइनः को तूति - ए - बिस्मिल बाँधा


अहल-ए-बीनश=आत्मज्ञानी, बहुत अकलमंद लोग। हैरतकदः = हैरत का घर (कोई शख्स जिस चीज पर बहुत हैरत करें तो वो इक किस्म का हैरत का घर बन जाता है।) शोखि-ए-नाज़ माशूक की चंचल आदाएं। जौहर-ए-आइनः आईने की खुबी,

आईने की चमक दमका तूति एक छोटा सा परिंदा बिस्मील जख्मी योधा लिखनाः माशुक की शोखी-ए-नाजो अदा देखकर जो अकमंद थे वो हैरत जदर हो गये। इतने हरज कि वो एक हैरत का पर


बन गए। इसलिए आईने में देखने वाले माशूक को उन्होने जहर-ए-आइन की बयाज तृति-ए-बिसमिल लिख दिया। ऐसा उन्होने इसलिए लिखा कि वो माशुक के नाज़ व नखरे के बाद पेश आने वाला वारिअ देख रहे थे। उनको साफ नजर आ रहा था कि माशुक की ये अदाए किसी मेहबूब के दिल को चुरा लेगी और यह उसका दीवाना होकर पूरी दुनिया से अतल्लुक तोड़कर बस उसी के इश्क में गिरफ्तार हो जाएगा और माशुक की बेमुव्वती का शिकार होके ऐसा जख्मी परिंदा हो जाएगा कि न यह अच्छा हो सकेगा और न ही उसे मौत आएगी। माशूक भी आईने में अपने हुस्न को देखकर खुद हुस्न का शिकार हो जाएगा


यास ओ उम्मीद ने यक अर्थदः मैदा माँगा


इज्ज़-ए-हिम्मत ने, तिलिस्म-ए-दिल-ए-साइल बाँधा पास-निराशा । अर्थव लहाई के लिए बड़ा मैदान इज्ज-कभी साइल मांगने वाला, हाथ फैलाने वाला।


तिलिस्म-ए-दिल-ए-साइल- जादू की उम्मीद रखने वाला दिला.


इश्क में हम इस कदर मायूस हो चुके हैं कि यह हमारी मायूसी अब हमारी उम्मीद से जंग लड़ रही है और इस जंग के लिए हमारा दिल नाकाफी है इसलिए ये दोनो एक मैदान-ए-जंग चाहते है। हम यूँ कि इज्ज-ए-हिम्मत है (कम हिम्मत) है इसलिए हमारा दिल किसी तिलिस्म (जादू) को मांग रहा है। उसको सवाल (अर्ज-बिनती) कर रहा है कि किसी जादू के सहारे दिल को मैदान-ए-जंग बनाये, उसको बहुत फैला दे ताकि उम्मीद और नाउम्मीद की जंग में सह सकूँ ।


(४) न बँधे तश्नगि-ए-जौक के मज़मूँ 'गालिब' गर्चे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा


तश्नगि-ए-जीक्= अभिलाषा की प्यास मजमूँ लेख संग्रह।


हमारे बारे में किसी ने कुछ नहीं लिखा कि हमारी उम्मीदे क्या थी, आरजूएं क्या थी, हम किस कदर तश्न-लब चे (माशूक की मोहब्बत के प्यासे थे) जब के लिखने वालो ने उस माशूक को जो कि दरिया था (हमारी प्यास बुझा सकता था लेकिन उसने साहिल बन कर हमारी प्यास बुझाई नहीं, सिर्फ दरिया की तरहा हमें दूर से अपनी ओर खिचता रहा) उसको बड़ी खुशी से उसकी तारीफ करते हुए साहिल लिख दिया। यानी जालिम को रहमदिल लिख दिया।


ग़ज़ल ३१

9)


मैं और बज़्म-ए-मैं से यूँ तश्नः काम आऊँ ! गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था ?


मैं कभी मैकदे से ना काम नहीं लौटता लेकिन अब की मरतबा में च्यूँ कि शराब से तौबा करके मैकदे में गया था तो साकी को तो उसका फर्ज निभाना चाहिए था। दूसरे मायनी में, हम दयार-ए-यार में (माशूक के शहर में) ये सोच कर गये थे कि सब कुछ देखेंगे मगर एक यार के दीदार ही नहीं करेंगे। अगरचे के यह हमारा फैसला था मगर माशूक को तो हमारे आने के भरम को कायम रख के हमें अपना दीदार कराना चाहिए था। उसको किस चीज ने मजबुर कर रखा था ? हमनें इतिकाम के तौर पर यह ठान रखा था के उसके शहर में जाएंगे और जिस तरह वह हमसे बेगानगी का बर्ताव करता है हम उसके साथ वैसा ही बर्ताव करेंगे। उसकी तरफ नज़र तक नहीं उठाएंगे मगर वह माशूक इस कदर जालिम निकला कि उसने हमें इतिकाम भी नहीं लेने दिया।


२) है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े है


वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था


आज हम पर यह वक्त आ पड़ा है कि अब ना तो दिल में कोई उम्मीद बाकी है नाही जिगर में कोई हौसला। पहले पहल हम यह सोचते थे कि दिल छलनी हुआ तो क्या ? जिगर तो सलामत है ? (हौसला तो बाकी है) मगर अब दिल भी छलनी है और

३)

जिगर भी घायल यानी हौसला भी टूट चुका है।


० ३)

दरमान्दगी में 'ग़ालिब', कुछ बन पड़े तो जानूँ जब रिश्तः बेगिरह था, नाखून गिरहकुशा था


दरमांदगी=मजबूरी। बेगिरह जो बंधा हुआ ना हो। • गिरहकुशा बंधन खोलने वाला इश्क में मुसलसल नाकामी से हम पर मजबूरी का कुछ ऐसा गलबा है कि हम इंतकामन ये सोच रहे है कि, तर्क-ए-तआलुक कर ले। हमारा यह सोचना भी बड़ा अजीब है, क्यूंकि हम उस बंधन को तोड़ना चाहते है जो कभी बंधा ही नहीं था।


ग़ज़ल ३२


9)

घर हमारा, जो ना रोते भी, तो वीरों होता


बहूर, गर बहूर न होता, तो बयाब होता


बहूर= समंदर बयाबी- जंगल। शम हिज के गम में बहुत रोये। इतना रोये कि हमारे आसूओं से समंदर जारी हो गया और वह हमारा सब कुछ बहा ले गया और हमारे घर को बयाबाँ (जंगल, उजड़ी जगहा) बना दिया। अगर ना भी रोते तो हमारा घर वीरों होता जो बयावों की तरहा खाली रहता हैं।


२) तॉंग-ए-दिल का गिला क्या, यह वो काफिर दिल है कि अगर तंग न होता, तो परीशों होता


तंग-संकुचित


हमारा दिल तंग है मुराद सीने में धीरा हुआ है। हम इसका क्या गिला करें ? अगर यह तंग ना होता तो तुकड़े -तुकड़े होकर बिखर जाता क्यूँ कि इस पर बहुत सारे सितम टूटे है।


३) बाद-ए-यक उम्र-ए-वरअ बार तो देता, बारे काश ! रिज़वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता


वरअ=निस्पृहता और संयम बार फल। रिजब स्वर्ग के द्वारपाल का नाम। बारे आखिरकार


हमारी उमरभर की परहेजगारी (संयम) का आखिरकार कुछ तो फल मिलना चाहिए था। अगर हमारी माशूक का दरबों रिजवाँ होता तो हमारी परहेजगारी देखकर हमें दर-ए-यार में दाखिल होने की इज़ाज़त जरूर दे देता। लेकिन अफसोस। ऐसा ना हो सका और हमारी उम्रभर की कुर्बानीयाँ रायगा गई, बेकार गई।


ग़ज़ल ३३

१)

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता


दुनिया में में नहीं भी होता तो खुदा का यह करखाना यूँ ही जारी रहता । क्यूँ कि ऐसा कुछ नहीं हुआ कि मेरे होने से इसमें कुछ खास बात हो गई हो, क्यों कि मेरी जिंदगी तो तबाही का दूसरा नाम है। क्या ही अच्छा होता कि मैं इस दुनिया में ना ही होता। दूसरे मायने में, कभी कभी इन्सान अपने ताकत के बल बुते पर या किसी सलाहियत की वजह से यह सोचने लगता है कि मेरे होने से दुनिया को बहुत से फायदे हो रहे है। अगर मैं ना होता तो यह दुनिया अधुरी रह जाती और यही गुरूर उसको डुबो देता है क्यूँ कि किसी के होने न होने से ख़ुदा के इस जहाँ में कोई फर्क नहीं पड़ता।


हुआ जब गम से यूँ बेहिस, तो गुम क्या सर के कटने का न होता गर जुदा तन से, तो जानूँ पर धरा होता

 

                                 Ek Apsara ki jadui saree ki kahani 

                                                           




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