14 साल के बाबर ( Babur) का आरंभिक जीवन और युद्ध (Babur's initial life biography in hindi)

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14 साल के बाबर ( Babur) का आरंभिक जीवन और युद्ध   (Babur's initial life biography in hindi)


भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद था । उसका उपनाम बाबर था । उसका जन्म ६ मुहर्रम ८८ हि० ( १४ फरवरी, १४८३ ई०) को फरगना में हुआ था। हैदर मिर्ज़ा दोधलत के अनुसार उलुग़ मिर्ज़ा के एक दरबारी विद्वान मौलाना मुनीर मगिनानी ने बाबर की जन्मतिथि "शश मुहर्रम" शब्दों में निकाली । समकालीन ज्योतिषियों के मतानुसार बाबर के जन्म का दिन एवं वर्ष दोनों ही शुभ थे । वर्ष की संख्या में ८ का तीन बार आना और दिवस की संख्या में ६ का तीन बार आना एक अद्वितीय संतुलन है जो कि एक सुप्रसिद्ध जीवन का परिचायक है ।२ बाबर के पिता का नाम उमर शेख मिर्ज़ा था। वह हज़रत नासिरुद्दीन ख्वाजा नक्शबन्दी के वंशज ख्वाजा उबैदुल्लाह अहरार का परम भक्त था । उमर शेख मिर्जा के अनुरोध पर ही उक्त ख्वाजा ने नवजात शिशु का नामकरण किया। चूंकि १. तारीख-ए-रशीदी (अनु०) पृष्ठ १७३; फ़िरिश्ता ने लिखा है कि हिसामी कराकुली ने बाबर की जन्म तिथि इस पद में दी है :- "शश मुहर्रम ज़ाद आ शाहे मुकर्रम, तारीख-ए- मोलिश हम आमद शश मुहर्रम " - तारीख-ए-फिरिस्ता, (मू० ग्रन्थ), पृ० १९१; मुहम्मद अली गुनी ने हिसामी कराकुली का नाम मुहम्मद हुसैन कराकुली दिया है- 'ए हिस्ट्री आफ़ दि परशियन लंगुएज एण्ड लिटरेचर ऐट दि मुग़ल कोर्ट, बाबर टु अकबर' भाग १, पृ० १ ।

 २. अकबर नामा (मू०) भाग १, पृ० ८६; अकबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० २२४-२५ ।

 ३. तारीख-ए-रशीदी (अनु०), पृ० १७३; अकबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० २२५ ।


Babur's biography in hindi.

तुकों को पूरा नाम उच्चारण करने में असुविधा होती थी, इस कारण उन्होंने उसका सूक्ष्म नाम बाबर रख लिया. अतः इतिहास में वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाबर की धमनियों में मध्ययुग के दो सर्वश्रेष्ठ एवं सुविख्यात विजेताओं और साम्राज्य निर्माताओं का रक्त प्रवाहित था । चंगेज खान माता की ओर से वह का वंशज था' और पिता की ओर से तैमूर लंग


14 साल के बाबर ( Babur) का आरंभिक जीवन और युद्ध   (Babur's initial life in hindi)


बाबर की आत्मकथा में उसकी माँ के वंश का जो प्रक्षिप्त विवरण दिया गया है वह इस प्रकार से है : – यूनुस खान चंगेज़ खान के द्वितीय पुत्र का वंशज था । कुतलुग निगार खानुम बावर की माँ, यूनुस खान की दूसरी पुत्री थी। यूनुस खान पुत्र बाएस खान, पुत्र शेर अली उगलान, पुत्र मुहम्मद खान, पुत्र खिज्य वाजा खान, पुत्र तुग़लक तीमूर खान, पुत्र ईसन वुगा खान, पुत्र दावा खान, पुत्र वोरक खान, पुत्र ईसून तवा खान, पुत्र मौतू खान, पुत्र चग़ताई खान , पुत्र चंगेज़ खान - 


बाबर की वंशावली.

Babur ki vanshvali.


बाबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० १९; अकबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० २२४; प्रो० रशन के विलियम्स ने अरस्किन और पेवेट डी० कोटिले द्वारा किये गए 'बाबर नामा' के अनुवाद के आधार पर बाबर की माँ की वंशावली इस प्रकार से दी है- बाबर की माँ कुतलग़ निगार खानुम, पुत्नी यूनुस खान, पुत्र वाएस खान, पुत्र शेर अली खान, पुत्र मुहम्मद खाजा खान, पुत्र खिज्र ख्वाजा खान, पुत्र तुग़लक तीमूर - खान, पुत्र ईसन बुग़ा खान, पुत्र दावा चिचान, पुत्र वोरक खान (ग्यासुद्दीन), पुत्र सुंकार, पुत्र कामगार, पुत्र चगताई, पुत्र चंगेज खान - "ऐन इम्पायर बिलडर ऑफ़ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी", (दिल्ली), पृ० २२, इस प्रकार प्रो० रशन क विलियम्स ने जो वंशावली दी है वह बाबर नामा में दी गई प्रक्षिप्त वंशावली से भिन्न है । बाबर नामा की प्रक्षिप्त वंशावली में चग्रताई खान के पुत्र मौतखान और पौत्र का नाम ईसून तवा खान बताया गया है और वोरक खान को ईसून तवा खान का पुत्र बताया गया है। जब कि अरस्किन ने वोरक खान को संकर का पुत्र, कामगार का पौत्र और कामगार को चगताई खान का पुत्र बतलाया है।


" आश्चर्य नहीं कि उसको दोनों ही वंशों की उलझी हुई पारस्परिक विरोधी गुत्थियों का केवल सामना ही नहीं करना पड़ा वरन् उनका शिकार भी होना पड़ा। इससे पूर्व कि हम बाबर की प्रारम्भिक कठिनाइयों पर दृष्टि डालें, आवश्यक यह प्रतीत होता है कि उन गुत्थियों का स्पष्टीकरण कर दिया जाय जो कि मध्य एशिया की राजनीति में चंगेज़ खां और तैमूर के कार्य-कलापों के फलस्वरूप उत्पन्न हो गई थीं। इस संदर्भ में यह भी कह देना उचित होगा कि बाबर के जीवन पर इन दोनों महान् व्यक्तियों के आदर्श एवं उद्देश्यों का पूर्णरूपेण प्रभाव पड़ा। मध्य युगीन इतिहास में यह संधिकाल कहा जा सकता है । इस समय नई और पुरानी परम्पराएँ टकराई और एक नई व्यवस्था का जन्म हुआ । 


इसी सन्धि युग में ११५४ ई० में मंगोल जाति में एक प्रतिभाशाली, कर्मठ, साहसी, महत्वाकांक्षी व्यक्ति का जन्म हुआ जिसका नाम चंगेज़ खान था । उसमें वे सब गुण विद्यमान थे, जो मंगोलों की विभिन्न एवं बिखरी जातियों को एक सूत्र में बाँध सके तथा उनकी एकत्रित शक्ति के बलबूते पर एक विशाल साम्राज्य का निर्माण कर सके । अपने देश के चरागाहों से मंगोल योद्धाओं की टोलियाँ लेकर चंगेज़ खान ने निक टवर्ती प्रदेशों पर आक्रमण किया और धीरे-धीरे उसकी गगनचुम्बी पताकाएँ समस्त एशिया में लहराने लगीं । उसने पेकिंग पर विजय पाई और सम्पूर्ण उत्तरी चीन पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली । तत्पश्चात् उसकी मंगोल सेनाओं ने मावराउन्न हेर के तुर्कों पर आक्रमण किया, उसके पश्चात् वह खुरासान तथा ख्वारिज़म के सुप्रसिद्ध एवं समृद्धिशाली नगरों की ओर बढ़ीं। 


 पिता की ओर से बाबर की वंशावली इस प्रकार से है-


अमीर तैमूर - मिर्ज़ा मोरान शह - सुल्तान मुहम्मद मिर्ज़ा - सुल्तान अब सईद मिर्ज़ा - उमर शेख मिर्ज़ा-  इनके फिर  तीन पुत्र हुए.

 1.बाबर

 2.नासिर मिर्ज़ा

 3.जहाँगीर मिर्ज़ा

 

और फिर एक- एक  कर उन्होंने सबको लूटा और मिट्टी में मिला दिया। फिर यह लोग आंधी के समान कन्धार, गज़नी इत्यादि प्रदेशों को पददलित करते हुए सिंध नदी के तट तक पहुँच गए और यहाँ तक तुर्की प्रभाव एवं सत्ता को नष्ट-भ्रष्ट कर ढाला।


चंगेज़ खान एक महान विजेता ही नहीं वरन् एक विशाल साम्राज्य एवं शासन व्यवस्था का संस्थापक भी था और दूरदर्शी भी । वह जानता था कि संस्थापक की मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य अधिक समय तक नहीं ठहरते । वह यह भी जानता था कि जिन अमंगोल जातियों पर उसने तलवार के बल पर जो विजय प्राप्त की थी वह अस्थायी है; उसके आँख मूंदते ही वह समस्त पराजित जातियाँ पुनः अपनी खोई हुई शक्ति एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए उठ खड़ी होंगी। वास्तव में प्राचीन एवं मध्ययुग में विशाल साम्राज्य को एकता के सूत्र में बाँध कर रखना एक असम्भव कार्य वा। इस विषमता से बचने के चंगेज खान ने अपने जीवन काल में ही अपने साम्राज्य का विस्तार का विभाजन कर दिया. 


अपने ज्येष्ठ पुत्र जूजी  को को किपचाक के मैदान दे दिए. किन्तु जूजी  अपने पिता के जीवन काल में ही परलोक सिधार गया. जूजी की मृत्यु के पश्चात् उसका हिस्सा उसके पुत्र बातू (१२४३-१२५६) को प्रदान कर दिया गया। इसमें सर नदी के निचले प्रदेशों से लेकर कालासागर तथा कैस्पियन सागर के तट तक फैले हुए प्रदेश सम्मिलित थे । बातू ने अपनी विजयों द्वारा अपने वंश का गौरव बढ़ाया और साम्राज्य की सीमाएँ पूर्वी योरूप तक बढ़ा लीं। बातू की नवीं पीढ़ी में एक ऐसे व्यक्ति का जन्म हुआ जिसने न केवल अपने वंश का गौरव ही बढ़ाया वरन् एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना कर मध्य एशिया की राजनीति में उथल-पुथल भी मचा दी ।


इस व्यक्ति का नाम उज़बेग खान था । वह एक लोकप्रिय शासक था । व्यक्ति की प्रतिभा एवं गुणों की परख करना तथा ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्ति को सम्मानित करना वह जानता था। उसी की प्रेरणा के फलस्वरूप उसकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए जूजी की जाति के वे लोग, जिन्होंने इस्लाम धर्म ग्रहण किया और जो उसके समर्थक थे, उज़वेग जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे उज़बेग खान के जीवन काल में तत्कालीन राजनीति में भाग लेकर नाम कमा न सके। और न ही उजवेग खान की मृत्यु के पश्चात् तथा उसके उत्तराधिकारियों के समय ही उज़बेग सामूहिक शक्ति के रूप में हमारे सामने आते हैं । उज़बेग खान की मृत्यु के लगभग डेढ़ सौ वर्ष उपरान्त जब किपचाक के मैदानों की वे जातियों जो कि गोल्डन होर्डस् (Golden Hor des) के नाम से प्रसिद्ध थीं, चार भागों में तितर-बितर हो गई, और जब कि रूस में होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से मुस्लिम सत्ता खतरे में पड़ गई, उस समय इसी जाति के एक व्यक्ति, अबुलखर का भाग्योदय हुआ । 


अबुलखर ने उजवेगों की सहायता से दश्त किपचाक पर अपना स्वतंत्र प्रभाव स्थापित कर लिया। वह एक कुशल शासक था । उसके उजवेग अनुचरों ने उसकी तन-मन से सेवा की तथा उसे शक्ति प्रदान कर एक प्रतिभाशाली शासक बनाया । ईसाई जगत के उत्तर दिशा में जब मुस्लिम सत्ता के विरुद्ध तूफ़ान उठा तब, दश्त किपचाक से उसे भागना पड़ा। अबुल खैर ने अपने तम्बुओं और असभ्य कबीली जातियों को समेट कर पूर्वी चरागाहों में शरण ली। यहाँ उसकी ख्याति इतनी बढ़ी कि अबू सईद, मुहम्मद जुकी तथा हुसैन बैक़रा जैसे तैमूरी शासकों ने भी उससे सहायता मांगी ।


अबुल खैर ने कभी भी अपने जीवन काल में विशाल प्रदेशों को जीतने का स्वप्न नहीं देखा क्योंकि वह जानता था कि तत्कालीन परिस्थिति में मध्य एशिया में किसी प्रदेश पर विजय प्राप्त करना इतना आसान कार्य नहीं है । यही कारण है कि तैमूरी परिवार के वंशजों के आपसी संघर्ष एवं गृहयुद्ध में उनका पक्ष लेकर उन्हें सहायता पहुँचाने तक ही उसने अपना कार्य सीमित रखा। यह कहा जाता है कि जब भी कभी वह अपनी सेनाओं को ले कर अबू सईद या मिनुचेहेर मिर्जा या सुल्तान हुसेन की सहायता करने के लिए निकला, उसके उज़बेग सैनिक सदैव धन लेकर वापस घर लौटे । रेगिस्तान के किसी भी शासक को ४० वर्षों में इतनी ख्याति प्राप्त नहीं हुई जितनी कि अवुल खैर को । लेकिन तुर्कमानो की एक कहावत है कि 'एक ही फूँक से जिस प्रकार रेगिस्तान की बालू उड़ाई जा सकती है, उससे भी कहीं जल्दी एक मनुष्य का भाग्य उजाड़ा जा सकता है।' यह कहावत अबुल खैर के बारे में चरितार्थ होती है। अवुल खैर की बढ़ती हुई शक्ति एवं प्रभाव को देखकर कुछ लोग उससे जलने लगे । निकटवर्ती मैदानों में रहने वाले 'भुरी दाढ़ी' वाले लोग शत्रु हो गए। यही नहीं, उसके निकटतम सम्बन्धी, जिनमें कि बर्को सुलतान भी एक था, उसके विरुद्ध हो गया । 


लोगों ने मिल कर उसे शक्तिहीन कर दिया और एक युद्ध में उसे मार डाला। उसके परिवार के सदस्य तितर-बितर हो गये । उसके ११ पुत्रों में से शेख हैदर सुल्तान ही नाम मात्र को उसका उत्तराधिकारी बना। उसका प्रभाव- क्षेत्र बहुत ही सीमित था और कार्य क्षेत्र संकुचित । आम उज़बेगों की दृष्टि अबुल खेर के एक प्रतिभाशाली, साहसी एवं युवक पौन युवराज मुहम्मद शैवानी जो कि 'शाह-ए-वक्त' (भाग्यशाली) के नाम से प्रसिद्ध था, पर थी। अपनी युवावस्था में हो शैबानी ने अपने पराक्रम के अनेक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत कर दिए थे। आगे चलकर यही शेवानी वावर का समकालीन एवं कट्टर प्रतिद्वन्द्वी बना । इन पुत्र बाबर के दूसरे शत्रु उसके मामा थे, जो कि चंगेज़ खान के द्वितीय चग़ताई खान के वंशज थे। 


चग़ताई खान के विशाल राज्य के तीन असमान भाग थे (१) सरं दरिया एवं कश्गर के उस पार के बीहड़ चरागाह वाले प्रदेश (२) कश्गर और यारकन्द का मध्य प्रदेश (३) सर नदी के दक्षिण का प्रदेश जिसका विस्तार हिन्दुकुश तक था जो कि अत्यन्त समृद्धिशाली प्रदेश था । यहाँ अनेक हरे भरे खेत तथा गुन्जान नगर बसे हुए थे । यहाँ की आबादी भी स्थायी थी । चग़ताई खान मंगोलों का महान् खान था । उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका विशाल साम्राज्य तथा मंगोलों के महान् खान का पद दो भागों में विभाजित हो गया - ( १ ) साम्राज्य का एक भाग जिसमें कश्गर भी शामिल था मंगोलों के एक खान के हाथ में रहा (२) साम्राज्य का दूसरा भाग, ट्रान्स आक्सियाना, अन्य मंगोल खान के पास चला गया। साम्राज्य के प्रथम भाग में चग़ताई खान का उत्तराधिकारी ईसन बुगा खान हुआ । ईसन बुगा के पश्चात् तोलक तीमूर वहाँ का शासक हुआ। उसके ही राज्यकाल में मंगोलों की शाखा ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया। ईसन बुग़ा खान की मृत्यु के उपरान्त इस क्षेत्र में मंगोल सत्ता क्षीण होने लगी थी। इसके दो प्रमुख कारण थे, एक तो मंगोलों के पारिवारिक झगड़े और दूसरा तैमूर का बढ़ता हुआ 'वैभव । इस पर भी खान परम्परा मिट्टी में न मिली । १४२२ ई० में खान के उच्च पद के लिए दो दावेदार थे (१) ईसन वुगा द्वितीय और (२) यूनुस खान । ईसन बुग़ा ने अपने प्रतिद्वन्द्वी यूनुस खान को मार भगाया । यूनुस खान हार कर समरकन्द पहुँचा, जहाँ उसने पहले तीमूरी शासक उलुग बेग मिर्ज़ा की शरण ली; तत्पश्चात् वहां से भाग कर खुरासान के तीमारी शासक शाह रुख मिर्ज़ा के पास शरण ली। 



उलूग बेग मिर्ज़ा की मृत्यु के उपरान्त उसने समरकन्द राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों, ताशकन्द और सीरम पर आक्रमण किया। प्रारम्भ में तो उसे कोई विशेष सफलता न प्राप्त हुई किन्तु दुबारा जब उसने पुनः आक्रमण किया तो उसे शत्रु का कठोर विरोध सहना पड़ा । ईसन बुग़ा के समरकन्द पर द्वितीय आक्रमण से पूर्व अबू सईद मिर्जा ने अपने सभी प्रतिद्वन्द्वियों को जो कि समरकन्द के सिंहासन के दावेदार थे, परास्त कर लिया और उसने समरकन्द के सिंहासन को अधिकृत कर लिया। कालान्तर में जब ईसन बुग़ा ने सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण किया तो अबू सईद मिर्ज़ा ने आगे बढ़ कर उसका सामना किया और उसे युद्ध में परास्त किया । तत्प- श्चात् ईसन बुग़ा के स्थान पर उसने यूनुस रान को मंगोलों का महान खान बनाया । कृतज्ञता के भार को उतारने के उद्देश्य से तथा जो सहायता समरकन्द के शासक सुल्तान अबू सईद ने उसके प्रतिद्वन्द्वी के विरुद्ध की थी उसका मूल्य चुकाने के विचार से यूनुस खान ने अपनी तीन पुत्रियों का विवाह अबू सईद के तीन पुत्रों से कर दिया। इनमें से एक बाबर की माँ थी जिसका नाम कुतलग निगार खानुम था । यूनुस खान की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र महमूद खान मंगोल साम्राज्य के पूर्वी भाग का शासक बना और उसकी उपाधि ज्येष्ठ खान हुई। उसका छोटा भाई जो कि पश्चिमी भाग का शासक था कनिष्ठ खान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह दोनों बाबर के मामा थे ।


पिता की ओर से बाबर तैमूर के वंश की ६ठी पीढ़ी में था। अमीर तैमूर एशिया का द्वितीय महान् विजेता, साम्राज्य संस्थापक एवं प्रशासक था। उसने चंगेज़ ख़ान की साम्राज्यवादी भावनाओं को पुनः जाग्रत किया । यद्यपि चंगेज़ ख़ान का नाम भयावह आक्रमणों एवं विध्वंसात्मक कार्यवाहियों के साथ मुसलमान ज्योतिषी जोड़ने लगे थे, फिर भी उन रौदे हुए प्रदेशों में उसका नाम अब भी भारी भरकम समझा जाता था । वहाँ के शासक उस महान् मंगोल खान से अपने वंश की उत्पत्ति बताते हुए गौरव का अनुभव करते थे । किन्तु अमीर तैमूर ने ऐसा न किया । इसके कई कारण थे । महान् मंगोल ख़ान चंगेज़ खान और उसके काल में बहुत कम अन्तर था । कुछ भी हो, जहाँ तक तैमूर का प्रश्न है, वह तुकों की बरलास जाति में से एक था। तुर्कों की इस जाति के लोगों में एक विशेषता थी कि वे अपने आचार- विचार एवं व्यवहार में अन्य तुर्की जातियों से भिन्न थे और जिन लोगों के सम्पर्क में प्रायः आया करते थे वे उन्हीं की सभ्यता और संस्कृति में अपने को रंग लिया करते थे । 


प्रारम्भ में खलीफाओं ने उन्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त किया। तत्पश्चात् वे धीरे-धीरे ईरानी सभ्यता एवं संस्कृति के सम्पर्क में आए और उन्होंने उसके तत्व ग्रहण किए। आगे चलकर खलीफाओं ने उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त करना प्रारम्भ किया। शक्तिहीन खलीफाओं की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। हार कर खलीफाओं को उन्हें जबरदस्ती अपने-अपने प्रान्तों में स्वतंत्र रहने देना पड़ा ।


चंगेज़ खान के विप्लवकारी एवं सर्वनाशक युद्धों ने तुर्की की शक्ति एवं उके गौरव को मिट्टी में मिला दिया। किन्तु यह झंझावात जितनी शीघ्रता से आया था उतनी शीघ्रता से समाप्त हो गया। जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना उसने की थी वह पतनोन्मुख होने लगा; चगताई खान को विरासत ट्रान्स आक्सियाना जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, प्राप्त हुआ था । उनसी के शासन काल में तुकों ने यहाँ प्रवेश करना प्रारंभ कर दिया । आकार एवं वेष-भूषा में यह तुर्क जातियाँ मंगोल जाति के समान थीं, अतएव शीघ्र ही दोनों जातियां आपस में घुल-मिल गई । तुर्क आए थे तो सेवक के रूप में किन्तु शनैः-शनैः उनका प्रभाव इतना बढ़ गया कि चग़ताई मंगोलों को उनसे भिन्न समझना कठिन हो गया। 


तुर्कों ने कालान्तर में चग़ताई सुलतानों को कठपुतली की तरह नचाना प्रारम्भ कर दिया। मंगोलों की चग़ताई जाति तुकों के प्रभाव में इतनी अधिक आ गई कि समस्त ट्रान्स आविसयाना में तुर्की भाषा का प्रयोग होने लगा और तुर्की सभ्यता एवं संस्कृति फैलने लगी। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि चग़ताई मंगोल शासक अपनी मंगोल मातृभाषा को भी भूल गए और तुर्की बोलने लगे । तुर्की भाषा ही समाज एवं दरबार की भाषा बन गई। जब तक चग़ताई शासक शक्तिशाली रहे, तुकं उनकी तन मन से सेवा करते रहे और स्वामिभक्ति प्रदर्शित करते रहे । जैसे ही चग़ताई मंगोल शासकों की शक्ति क्षीण होने लगी तो इन्हीं तुर्कों ने धीरे-धीरे शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली और महत्त्वपूर्ण पद हड़प लिए। अन्य शब्दों में उन्होंने अपने स्वामी का स्थान ग्रहण कर लिया।


तुकों की बरलास शाखा के एक पराक्रमी व्यक्ति तैमूर ने ट्रान्स आक्सि- याना में अपनी धाक जमा दी और इसी प्रदेश में चंगेज़ खान की भांति राज- नीतिक उथल-पुथल मचा दी । उसका प्रारम्भिक जीवन एवं कृत्य साहसमयी गाथाओं से भरा हुआ था। बड़ी ही कुशलतापूर्वक वह ट्रान्स आक्सियाना के सिंहासन पर बैठा । उसने निकटवर्ती प्रदेशों पर आक्रमण किए, और उन्हें जीता और इस प्रकार चंगेज़ खान के वैभव एवं गौरव को इसी प्रदेश में पुनः प्रतिष्ठित कर दिया । थोड़े ही समय में उसने इतनी कीति प्राप्त कर ली कि उसका नाम चंगेज़ खान के नाम के साथ लिया जाने लगा । कुछ इतिहासकारों ने कल्पना एवं जनश्रुति के आधार पर दोनों विजेताओं को एक ही पितामह की सन्तान बतलाया है । 


कुछ भी हो, तैमूर ने अपने बाहुबल द्वारा एक विशाल साम्राज्य, टर्की से लेकर तुर्किस्तान तक बोलगा से लेकर भारतवर्ष की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं तक, जिसमें मध्य एशिया, कोचक, फ़ारस, अफगानिस्तान आदि अनेक देश शामिल थे, स्थापित किया । इस विशाल प्रदेश को तथा अनेक समृद्धिशाली राज्यों को उसने तथा उसके अश्वारोहियों ने निर्दयतापूर्वक रौंद डाला । उसकी विजयों का वृत्तान्त हृदय को दहला देने वाली कहानियों से भरा हुआ है । ये कहानियाँ न तो पढ़ने में और न ही सुनने में रुचिकर लगती हैं। तैमूर के जीवन चरित में एक ही ऐसी बात थी जिसे कि हम घोर अन्धकार में एक सुनहरी किरण कह सकते हैं कि साहित्य और कला से उसे प्रेम था। उसने अपने राज्य काल में पुरानी ईरानी सभ्यता एवं संस्कृति को प्रोत्साहन देकर पुनः जागृत कर प्रतिष्ठित कर दिया। उसने अनेक विदेशी साहित्यकारों, कलाकारों, दार्श- निकों को प्रश्रय दिया। यही नहीं, साहित्य में रुचि लेकर तथा उसका सृजन कर उसने सबके सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया। फलस्वरूप उसके उमराव, वजीर एवं उसके परिवार के सदस्यों ने भी कवियों, साहित्यकारों तथा कलाकारों को प्रश्रय देकर तथा कालेज, मस्जिद एवं अस्पताल स्थापित कर मध्य एशिया में एक नवीन सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न किया । बौद्धिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में मध्य एशिया में जो प्रगति इस काल में हुई उसका बहुत कुछ श्रेय तैमूर को है ।


अपने जीवनकाल में तैमूर ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की वह चंगेज़ खान के साम्राज्य से भी कम समय तक स्थायी रह सका । जवकि चंगेज़ खान के वंशजों ने अपने पिता एवं पितामह की कीति में चार चाँद लगाने में कोई कसर न उठा रखी, तैमूर की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तरा- धिकारी गृहयुद्ध में ही फंस कर रह गए। तैमूर की मृत्यु १७ फरवरी, १४०५ ई० को ७१ वर्ष की आयु में हुई। अभी उसका नश्वर शरीर दफ्र- नाया भी न गया था और शोक सम्बन्धी रस्में पूर्ण भी न हो पाई थी कि उसके उत्तराधिकारियों में सिहासन के लिए युद्ध छिड़ गया। शाह रुख मिर्ज़ा को छोड़कर जो कि इस समय खुरासान में था, तैमूर के अन्य सभी पुत्र उसके जीवन काल में ही स्वर्ग सिधार चुके थे। 


अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व उसने अपने पौत्र पीर मुहम्मद खाँ को, जो कि इस समय काबुल तथा भारतवर्ष के उत्तरी-पश्चिमी सीमावर्ती प्रदेशों का अधिकारी था तथा जिसके गुणों में तैमूर को अत्यधिक विश्वास था, अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । जिस समय तैमूर की मृत्यु हुई उस समय पीर में मुहम्मद काबुल सुरा एवं सुन्दरी में मस्त था । यदि इस समय वह विलासपूर्ण जीवन की निद्रा से जग कर अपनी सेनाओं के साथ समरकन्द की और कूच करता तो उसे सिंहासन को अधिकृत करने में तनिक भी कठिनाई न होती। उसकी विलम्बना के कारण कुछ समय के लिए समरकन्द जो तैमूर के विशाल साम्राज्य की राजधानी थी, राजनीतिक दांव-पेंच व राजनीतिक 'षड्यन्त्रकारियों का केन्द्र बन गया। 


अवसर का लाभ उठाते हुए मीरान शाह के पुत्र सुल्तान खलील मिर्ज़ा ने, जिसकी आयु इस समय केवल २१ वर्ष की होगी, ताशकन्द से समरकन्द की ओर कूच किया। समरकन्द पहुँचकर शाही कोश में संचित धन का प्रयोग करते हुए उसने अमीरों की स्वामिभक्ति मोल ले ली और उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। वे सभी अमीर जो पीर मुहम्मद को तैमूर का वास्तविक उत्तराधिकारी मान कर उसे सिहासन पर बिठाने का यत्न कर रहे थे उसके पक्ष में हो गए। इन्हीं अमीरों के सहयोग से वह समरकन्द के सिहासन पर बैठा। आवसस के उस पार तक फैले हुए प्रदेश पर खलील मिर्ज़ा ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर तैमूरी उमराव वर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं पर कुछ समय के लिए पानी फेर दिया किन्तु इस सफलता के उपरान्त भी वह तूफ़ान के सामने एक तिनके के समान सिद्ध हुआ। वह स्वप्नों में खोया रहता था। उसकी शिष्टता तथा कल्पनाओं ने उसे शासक न बनाकर कवि बना दिया ।


उसने अपने पितामह द्वारा की गई संचित पूंजी को उदारतापूर्वक लुटा दिया, वरिष्ठ नौकरों को पदच्युत कर दिया, और शीघ्र ही अपने को लोगों की दृष्टि में अप्रिय बना लिया । उसने शाद-मुल्क जो हाजी सैफुद्दीन की एक दासी थी, के साथ विवाह कर अमीरों को रुष्ट कर दिया। उसके प्रेम में वह इतना विह्वल हो गया कि उसे किसी बात की सुधि ही न रहीं । ऐसी स्थिति में चारों ओर असन्तोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था । इस बढ़ते हुए असन्तोष की झलक हमें अमीर खुदादाद तथा शेख नूरुद्दीन की विद्रोहात्मक कार्यवाहियों में मिलती है, जिन्होंने तुर्किस्तान के कुछ प्रान्तों तथा फ़रगना के एक भाग पर अपना अधिकार जमा दिया । लगभग इसी समय रेगिस्तान की स्वतंत्र जातियों ने भी विद्रोह कर अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 


ऐसे गम्भीर समय में भी सुल्तान ख़लील मिर्जा अपनी प्रेयसी शाद-मुल्क की प्रशंसा में कविताएँ लिखता रहा । दूसरी ओर पीर मुहम्मद ने भी समरकन्द के सिहासन को प्राप्त करने के लिए, अपनी सेनाओं के साथ आक्सस की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया । सुल्तान खलील मिर्ज़ा को जैसे ही इस आक्रमण की सूचना मिली, उसने एक सेना इस आक्रमण को विफल बनाने के लिए खाना की । किन्तु उस सेना ने उसका साथ न दिया। सुलतान खलील को हताश होकर अपने ही सैनिकों से युद्ध करना पड़ा । इस युद्ध वह सफल तो हुआ किन्तु इसी समय एक दूसरी समस्या ने उसे चिन्तित कर दिया । उसके भतीजे मिर्ज़ा सुलतान हुसैन ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और आक्सस के किनारे एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करने का प्रयास प्रारम्भ किया । 


सुलतान ख़लील उसके विरुद्ध बढ़ा । जिग़दालिक के मैदान में दोनों ही प्रतिद्वन्द्वियों में घमासान युद्ध हुआ । सुलतान खलील मिर्ज़ा विजयी अवश्य हुआ किन्तु अब तक गृहयुद्ध की ज्वाला चारों ओर बुरी तरह से भड़क चुकी थी । पीर मुहम्मद ने आक्सस को पार किया, किन्तु खलील ने उसे परास्त कर पीछे हटा दिया। उसने एक बार पुनः सिंहासन को हस्तगत करने की चेष्टा की किन्तु उसमें भी उसे सफलता न प्राप्त हुई । अब तक अत्यधिक मदिरापान तथा भोग करने के कारण उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी । उसके शरीर में जो कुछ भी रह गया था वह सब उसके वजीर ने १४०६ ई० में उसका वध करके समाप्त कर दिया । पीर मुहम्मद की मृत्यु से खलील मिर्जा को दक्षिण की ओर से होने वाले में


आक्रमणों से कुछ समय के लिए मुक्ति मिल गई। उत्तर में खुदादाद तथा नुरुद्दीन की विद्रोही कार्यवाहियों के कारण स्थिति लगभग ज्यों की त्यों बनी रही। धीरे-धीरे सभी अमीर विद्रोहियों के पक्ष में हो गए । सुलतान खलोल मिर्ज़ा को विद्रोही अमीरों ने बन्दी बना लिया और खुदादाद ने समर- कन्द का सिंहासन उसके हाथों से छीन लिया ।


खुदादाद भी समरकन्द में अधिक दिनों तक चैन से न बैठ सका। तैमूरी वंश का एक मात्र प्रतिनिधि शाह रुख मिर्ज़ा ट्रान्स आविसयाना में होने वाली राजनीतिक गतिविधियों तथा घटनाओं को देख कर चुप न बैठ सका । हिरात के शासक के रूप में शाह रुख मिर्ज़ा की ख्याति अब तक चारों ओर फैल चुकी थी। वह तैमूरी वंश का सबसे प्रसिद्ध, प्रतिभाशाली, सर्व- गुण सम्पन्न व्यक्ति था । उसने अपने वंश का नाम उज्ज्वल किया । अपने दरबार में उसने अनेक विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों, कवियों को प्रथय दिया तथा ईरानी सभ्यता और संस्कृति को प्रोत्साहित किया । ज्योतिष से उसे विशेष अनुराग था। अपने जीवन काल में उसने कई वेध शालाएँ स्थापित की। जब तक पीर मुहम्मद जीवित रहा या सुल्तान खलील की प्रभुसत्ता समरकन्द में बनी रही, शाह रुख मिर्जा ने आक्सस के उस पार के देशों की ओर कभी भी अपनी निगाह न डाली । 


खुरासान के ईरानी बाताबरण से वह प्रसन्न रहा। किन्तु अब जब कि ट्रान्स आविसयाना में होनेवाली घटनाएँ उसके वंश के अस्तित्व को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध होती हुई दिखाई देने लगीं, तो वह युद्ध से अपने को न रोक सका। अपने भतीजे सुल्तान खलील मिर्जा के भाग्य के सितारे को डूबता हुआ देख कर शाह रुख मिर्ज़ा उसके विरोधी शत्रु खुदादाद की खोज में चल पड़ा । खुदादाद उसके सामने आने का साहस न कर सका और समरकन्द छोड़ कर ताशकन्द की ओर भाग गया। खुदादाद ने ताशकन्द पहुँच कर मंगोल राज- कुमार मुहम्मद खान से सहायता मांगी किन्तु मुहम्मद खान ने शाह रुख मिर्जा से शत्रुता मोल लेना उचित न समझा। उसने अपने भाई शमा जहान को ख़ुदादाद को बन्दी बनाने के लिए भेजा। शीघ्र ही खुदादाद बन्दी बना लिया गया और मुहम्मद खान ने उसका सिर काट कर मंगोलों की मित्रता के उपहारस्वरूप शाह रुख के पास भिजवा दिया। इस महत्वपूर्ण घटना के उपरान्त ही शाह रुख मिर्जा के पास सुल्तान ख़लील मिर्ज़ा लाया गया ।


शाह रुख मिर्ज़ा ने उसका स्वागत किया और उसे ईराक का प्रान्तपति नियुक्त किया। ईराक की ओर प्रस्थान करते समय मार्ग में सुल्तान खलील की मृत्यु हो गई। अगले वर्ष शाह रुख मिर्ज़ा ने आवसस को पुनः पार कर ट्रान्स आसियाना के विद्रोहियों से निबटने का प्रयास किया । अमीर शेख नूर- दोन युद्ध में परास्त हुआ और वह ताशकन्द की ओर भाग गया। ट्रांस आक्सि- याना में होने वाले विद्रोहों का दमन करने के उपरान्त शाह रुख मिर्जा ने सीरिया व अरविस्तान को छोड़ कर अपने पिता के साम्राज्य पर अपना पूर्ण- रूप से प्रभुत्व स्थापित किया ।


१४०६ ई० से १४४८ ई० तक अपनी राजधानी हिरात से ही शाह रुख मिर्ज़ा अपने विशाल साम्राज्य पर शासन करता रहा। १४४५ ई० में शाह रुख मिर्ज़ा की मृत्यु हुई । मध्य एशिया के राजनीतिक क्षितिज पर जो शान्ति अभी तक बनी हुई थी वह उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गई। आकाश में पुनः बादल छा गए। गृहयुद्ध ने शाह रुख की प्रशासनिक व्यवस्था समाप्त कर तैमूरियों को शक्तिहीन कर दिया। शाह रुख की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र उलुग़ बेग मिर्ज़ा सिंहासन पर बैठने के हेतु खुरासान की ओर बढ़ा । अभी वह मार्ग ही में था कि उसे सूचना प्राप्त हुई कि उसके भतीजे अला-उत-दौलत और वेसनगार मिर्जा के पुत्र ने हिरात पर अपना अधिकार जमा कर उसके पुत्र अब्दुल लतीफ को बन्दी बना लिया है। 


हिरात पहुँचने पर उलुना वेग मिर्ज़ा ने उससे युद्ध करना उचित न समझा, क्योंकि उसके अपने पुत्र की जान अला-उत-दौलत के हाथों में थीं। उसने अला-उत-दौलत से एक समझौता किया जिसके अनुसार यह तय हुआ कि अला- उत-दौलत, अब्दुल लतीफ़ को रिहा कर देगा, और उसके आदमियों को छोड़ देगा तथा शाह रुख मिर्ज़ा की सम्पत्ति को वह वापस कर देगा। समझौते की पहली शर्त तो अला-उत-दौलत ने पूरी कर दी किन्तु दूसरी ओर तीसरी शर्तों को पूर्ण न किया । ऐसी परिस्थिति में उलुग़ बेग मिर्ज़ा के लिए युद्ध करना अनिवार्य हो गया । उसने अला-उत-दौलत को तुरनाब के युद्ध में परास्त किया, और उसे मशहद की ओर भगा दिया। तत्पश्चात् उलुग़ बेग मिर्जा हिरात का शासक बना। किन्तु उलुग़ वेग मिर्जा अधिक समय तक शासन न कर सका ।


तुरनाव के युद्ध में अब्दुल लतीफ़ के सतत् प्रयत्नों के कारण ही उलुग़ बेग मिर्ज़ा को अपने शत्रु अला-उत-दौलत के विरुद्ध सफलता प्राप्त हुई थी । किन्तु उलुड़ा वेग मिर्ज़ा ने अपने पुत्र अब्दुल लतीफ की प्रशंसा न कर अपने दूसरे पुत्र अब्दुल अजीज की प्रशंसा की, जिससे अब्दुल लतीफ़ कुछ गया। कुछ समय तक अब्दुल लतीफ शान्त रहा। आगे चल कर उसने बल्स का प्रान्त अपने पिता से ले लिया और वहाँ विद्रोह कर दिया। अपनी सेना के साथ उसने आक्सस को पार किया और युद्ध में अपने पिता को बुरी तरह परास्त कर उसे और अपने छोटे भाई अब्दुल अज़ीज को बन्दी बना लिया। कुछ समय उप- रान्त उसने अपने अब्बास नामक ईरानी गुलाम के हाथों अपने पिता उलग मिर्ज़ा का बध कराकर अपनी बर्बरता का परिचय दिया। इस प्रकार यद्यपि अब्दुल लतीफ़ अपने पिता के सिंहासन पर तो बैठ गया किन्तु शीघ्र ही उसे अपने पापों का मूल्य चुकाना पड़ा।


 बाबर उसी का तैमूर के दूसरे पुत्र का नाम मिर्जा मीरान शाह था । वंशज था। मौरान शाह के अधिकार में सीरिया, ईराक और अजर बँगजान के प्रदेश थे । वह विशेषकर तबरेज में ही रहा करता था, क्योंकि यहाँ की जलवायु उसके अनुकूल थी। दुर्भाग्यवश मीरान शाह तुर्कमानों के एक कबीले से लड़ता हुआ हत हो गया। उसकी मृत्यु के समय उसका ज्येष्ठ पुत सुल्तान मुहम्मदः समरकन्द ही में अपने चाचा शाह रुख मिर्ज़ा के पास था। शाह रुख मिर्ज़ा सुल्तान मुहम्मद से बहुत ही स्नेह करता था । शाह रुख मिर्ज़ा की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उलुड़ा बेग मिर्ज़ा का व्यवहार भी उसके प्रति ज्यों का त्यों बना रहा। जब सुल्तान मुहम्मद मृत्यु शय्या पर था और उलुग़ बेग मिर्ज़ा उसको देखने के लिए आया तो उसने अपने पुत अबू सईद का हाथ अपने चचेरे भाई के हाथों में रख कर उससे उसके पालन- पोषण की याचना की। जब तक उलुग बेग मिर्ज़ा जीवित रहा तब तक उसने अपने वचन को पूरी तरह से निबाहा । अबू सईद ने भी अपने चाचा उलुग़ वेग मिर्ज़ा की खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर चाचा ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।


 अबू सईद अपने श्वसुर और अपने साले अब्दुल लतीफ के पारस्परिक झगड़ों से दूर ही रहा। वह यह जानता था कि उलुग़ बेग मिर्ज़ा राजनीतिक झगड़ों में फँसा हुआ है तथा उसकी कीर्ति का सितारा अस्त हो रहा है। अतएव उसने अपने पालक एवं श्वसुर की कठिनाइयों से पूरा लाभ उठाया। उस युग में स्वामिभक्ति की परिभाषा ही कुछ और हुआ करती थी। सच तो यह है आजकल की भाँति राजनीति में उस समय भी स्वामिभक्ति नाम की कोई वस्तु न थी। अवसर पाते ही अबू सईद ने अपने श्वसुर की ओर से पीठ फेर ली और उसका वध हो जाने दिया। तत्पश्चात् उसने समरकन्द को अधिकृत करने के लिए दो बार प्रयास किया किन्तु वह असफल रहा। 


अन्तिम बार वह पकड़ लिया गया, किन्तु वह भाग कर बुखारा पहुँचा। इस घटना के कुछ ही समय उपरांत अब्दुल लतीफ़ का वध उलुग़ मिर्ज़ा के बाबर हुसैन नामक नौकर ने, जिसने कि अपने स्वामी के वध का बदला लेने का प्रण किया था, कर दिया। अब्दुल लतीफ़ के वध के उपरान्त शाह रुख मिर्ज़ा का पौत्र अब्दुलाह मिर्ज़ा, जिसने कि उलुग़ मिर्ज़ा की दूसरी पुत्री से विवाह किया था, समरकन्द के सिंहासन पर बैठा। अबू सईद ने भी सिंहासन के लिए दावा किया, किन्तु सफलता उसके हाथ न लगी । वह अन्त में उज़बेगों के सरदार अबुल खैर खाँ के पास गया । उज़बेग सैनिकों के साथ उसने अब्दुलाह मिर्ज़ा पर आक्रमण किया । एक ही युद्ध में अबू सईद ने उसकी जान ले ली और उसका मुकुट छीन लिया। इस प्रकार से अबू सईद समरकन्द के सिंहासन पर विराजमान हुआ और ट्रान्स अक्सियाना का शासक बना ।


 अबू सईद मिर्ज़ा बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था । अपने पूर्वजों की ही भांति वह यह कहा करता था कि संसार में दो विजेता एक साथ नहीं रह सकते हैं। उनकी योजनाओं की पूर्ति के लिए इसका दायरा बहुत ही छोटा है। विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए उसने उत्तरी फारस, अफगानिस्तान तथा मेकरान के विशाल प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया । अपने साम्राज्य का विस्तार करते समय उसे मंगोलों तथा उजवेगों से भी मुठभेड़ करनी पड़ी । उनके पारस्परिक मामलों में वह दिलचस्पी लेता रहा और उनको एक दूसरे के विरुद्ध उकसाता रहा। विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते रहने के कारण, यद्यपि कुछ समय तक तो उसका साम्राज्य सुरक्षित रहा, किन्तु आगे चल कर उसका विशाल साम्राज्य शक्तिहीन होने लगा । जब तक कि मंगोल और उज़बेग अपने व्यक्तिगत मामलों में उलझे रहे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष होता रहा तब तक अबू सईद का पलड़ा भारी रहा।


मंगोलों की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर अबू सईद ने उनके नेता सुल- तान बाएस से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा की । सुल्तान बाएस के अब अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया तो अस ने संरक्षण देने के बहाने उसे अपने पास बुला लिया। जैसे ही यूनुस  उसके पास पहुँचा, उसने तुरन्त उसे बन्दी बना लिया और उसके साथियों को मौत के घाट उतार कर उसे उसके पिता के पास भेज दिया । अबू सईद मृत्यु के इस व्यवहार से सुल्तान बस  और कुछ समय के लिए अबू सईद तथा मंगोलों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। सुल्तान बाएस की के उपरान्त पुनः अबू सईद और मंगों के सम्बन्ध जैसे के जैसे हो गए। मंगोलों के जेयष्ठ खान एवं नेता ईसन बुगा खान अबू सईद के बढ़ते हुए प्रभाव को न सहन कर सका । 


उसने ट्रान्स आक्सियाना पर आक्रमण कर पुरानी शत्रुता उभाड़ दी। उसने ताशकन्द को लूटा, तथा जंक्सारटज तक के विशाल प्रदेशों को भी रौंद डाला और इस विशाल प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया। मंगोल सरदार ईसन बुगा खान की इस आक्रमक कार्यवाही से अबू सईद भयभीत हुआ। उसने शीघ्र ही अपना रंग बदला और यूनुस बान का पक्ष लेना प्रारंभ किया। उसने यूनुस खान को अपने भाई ईसन युग का विरोध करने तथा मुगलिस्तान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का सुझाव दिया। यूनुस खां उसकी बातों में आ गया और उसने अपने भाई का विरोध करना प्रारम्भ किया । इस प्रकार अबू सईद को मंगोलों को आपस में लड़ाने तथा उनकी विस्तारवादी नीति को विफल बनाने का अवसर मिला। जब मंगोलों को वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो वे अपनी आपसी वैमनस्यता के लिए अबू सईद को ही दोषी ठहराने लगे और तमूरियों से घृणा करने लगे ।


 १४५८ ई० में ईसन बुग़ा खो की मृत्यु हुई। यूनुस खां मंगोलों का नेता बना । अबू सईद यूनुस खाँ की दुर्बलताओं से भलीभांति परिचित या । अतएव सर्वप्रथम उसने उसके आधिपत्य को मानने से इन्कार कर दिया । इससे पूर्व तैमूर व उसके वंशज ऊपरी तौर से चगताई खाँ के वंश की प्रभुता सदैव से मानते चले आ रहे ये । अबू सईद केवल इतने से ही सन्तुष्ट न हुआ। जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि उसने यूनुस खाँ, को इस बात पर भी विवश किया कि वह अपनी तीन पुत्रियों का विवाह उसके तीन पुत्रों के साथ कर दे यह दोनों ही बातें खों के लिए अपमानजनक थीं। वह तैमूरियों को कैसे श्रेष्ठ मान सकता यूनुस था? तंमूरियों की अपेक्षा मंगोल अब भी शक्तिशाली थे। उनके अधीन अब भी एक विशाल साम्राज्य था। यूनुस खां ने अबू सईद के नेतृत्व में तमूरियों की बढ़ती हुई शक्ति एवं बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं को देखा । वह मन-ही-मन कुढ़ता रहा । अबू सईद की महत्वाकांक्षाएँ उसको असह्य थी । अबू सईद के व्यवहार से वह रुष्ट हुआ और उसके विनष्ट होने की प्रतीक्षा करने लगा ।


 तंमूरी अबू सईद के मंगोलों से सम्बन्ध तो खराब थे ही, उज़बेगों से भी सम्बन्ध कालान्तर में खराब हो गए। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक विभिन्न उजवेग जातियां एकता के सूत्र में बंध चुकी थीं। अबुल खैर खाँ के नेतृत्व में एक उज़बेग संघ का निर्माण हुआ और धीरे-धीरे उज़- बेगों का प्रभाव बढ़ने लगा। शीघ्र ही वे तैमूरियों के सम्पर्क में आए। उलूग बेग मिर्जा की मृत्यु के बाद जब तैमूरी साम्राज्य पर काले बादल मॅड- राने लगे, चारों ओर विद्रोह की ज्वाला भड़कने लगी और जब सम्पूर्ण साम्राज्य गृह-युद्ध की लपटों में आ गया, तो उसे बचाने के लिए अबू सईद ने ही उज़बेगों की सहायता ली और उन्हीं की सहायता से वह समरकन्द के सिंहासन पर बैठा । 


उज़बेगों के ऋण को चुकाने के लिए उसने अपनी पुत्री का विवाह अबुल खैर खाँ से कर दिया। किन्तु अबुल खेर खाँ के नेतृत्व में उज़बेगों की बढ़ती हुई शक्ति को वह सहन न कर सका और उसके विरुद्ध हो गया । इससे पूर्व कि वह खुल कर उजबेगों के साथ संघर्ष करता, १४६९ ई० में ईराक़ की दयनीय घटना में उसका अन्त हो गया। दो तुर्कमान जातियों के पारस्परिक झगड़ों का निबटारा करने के हेतु उसने अजरवंजान पर आक्रमण कर दिया । अदंबिल के निकट एक सँकरी घाटी में तुर्कमानों ने उसे घेर लिया और उसे उसकी सेना सहित मौत के घाट उतार दिया । केवल कुछ ही सैनिक इस दयनीय घटना की सूचना देने के लिए हिरात पहुँच सके ।


 अबू सईद तथा अबुल खैर खां की मृत्यु के बाद उज़बेगों तथा तैमूरियों, दोनों ही की प्रतिष्ठा कुछ समय के लिए मध्य एशिया में समाप्त हो गई उज़बेग संघ, जिसका निर्माण अबूल खर खाँ ने किया था, उसका विघटन हो गया। यूनुस खान ने अबुल ख़ैर खां के उत्तराधिकारी बारूज सुलतान पर शीघ्र ही आक्रमण किया और उसे तथा उसके परिवार के लगभग सभी सदस्यों को समाप्त कर दिया। भाग्यवश उसके परिवार के दो सदस्य, जो कि उसके ही पुत्र थे, यूनुस खां से बच कर भाग निकले । 


शैबानी खाँ तथा उसका छोटा भाई मुहम्मद सुल्तान बहादुर भाग कर ट्रांस आक्सियाना पहुँचे जहाँ उन्होंने शरण ली। जिस प्रकार का व्यवहार अबू सईद मिर्ज़ा ने अबूल खैर ख़ान के साथ किया और उसके उत्तराधिकारियों ने बारूज सुलतान के साथ किया, उसे मुहम्मद शैबानी खाँ अपने जीवन में कदापि न भूल सका । आगे चलकर जब वह उजवेगों का सरदार बना तो उसने तंमूरियों तथा मंगोलों को शक्तिहीन बना देने तथा उनसे बदला लेने में कोई कसर न उठा रखी। मुहम्मद


 अबू सईद मिर्ज़ा की मृत्यु के पश्चात् उसका साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गया । कुछ भाग तो उसके पुत्रों के हाथ में रहे और कुछ परायों के हाथ में चले गए । सुल्तान अह्मद मिर्ज़ा तो समरकन्द और बुखारा का शासक हुआ, सुल्तान महमुद मिर्जा ने हिन्दूकुश और असफेरा के मध्य का प्रदेश अधिकृत कर लिया। उलुग़ बेग मिर्जा का काबुल व गजनी पर अधिकार रहा और उमर शेख मिर्ज़ा को फरगना मिला। खुरासान का उपजाऊ और समृद्धिशाली प्रदेश तैमूर के अन्य वंशज सुल्तान हुसैन बैक़रा के हाथ लगा तथा अबा वक्र दोघलत ने कशग़र पर अधिकार कर लिया ।


 संक्षेप में यह कहना यथेष्ठ होगा कि इस समय मध्य एशिया की राजनीतिक दशा विचित्र थी। तैमूर के बंशजों में न केवल एकता का अभाव था वरन् उनमें पारस्परिक द्वन्द्व और वैमनस्यता भी थी । एक दूसरे को फूटी आँख से भी न देख सकता था। तैमूरी शासक उज़बेगों, मंगोलों तथा ईरा नियों से घिरे हुए थे। इस पर भी वे निरन्तर आपस में लड़ते रहे । इन तंमूरी शासकों में से उमर शेख मिर्ज़ा तो महत्वाकांक्षी भी था और झगड़ालू भी । अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण उसकी अपने भाई अथवा समरकन्द के शासक सुल्तान अहमद मिर्जा से सदैव खटकती ही रहती थी । 


अन्य भाईयों से भी उसके सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण न थे । यूनुस खां का प्रभावशाली व्यक्तित्व ही उसके दामादों की पारस्परिक वैमनस्यता को रोके रखता था । अन्य शब्दों में एक ओर तो उमर शेख मिर्ज़ा और उसके भाई, दूसरी ओर मंगोल और बबुल खैर का वंशज शैबानी खाँ, सभी एक दूसरे के विरुद्ध घात लगाए हुए थे । ऐसी विषम परिस्थितियों में ही बाबर का बाल्यकाल बीता। उसके लिए भावी आपदाओं का आभाव न था ।


फरसाना का राज्य, जो कि बाबर को अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् विरासत में मिला, ५०,००० वर्ग मील तक फैला हुआ था । उसकी जल- वायु उत्तम थी, उपज अच्छी थी और जहाँ शिकार खेलने के लिए अनेक स्थान थे। प्रकृति ने फरग़ना को एक भौगोलिक इकाई बना दिया था । फरसाना के तीन ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे, जो कि पश्चिम दिशा को छोड़ कर सभी ओर से उसकी रक्षा करते थे। फरगना के पूर्व में कशगर, पश्चिम में समरकन्द, और दक्षिण में बदखशों के पहाड़ थे। इन पहाड़ों की घाटियों में से पश्चिम से पूर्व की ओर सर्र नदी बहा करती थी जो कि निचले मैदानों को दो भागों में पृथक कर देती थी। नदी के उत्तर में सात प्राशासनिक क्षेत्र और नदी के दक्षिण में पाँच प्रशासनिक क्षेत्र थे। नदी के दक्षिण में जो सात समृद्धिशाली प्राशासनिक क्षेत्र थे, और  फरलांग की दूरी पर मर्गीनान स्थित है, जो कि उस समय अंगूर व खूबानी के लिए प्रसिद्ध था। 


मगनान के दक्षिण-पश्चिम में लगभग ६५ मील की दूरी पर असफेरा है, जो कि एक पर्वतीय प्रदेश है, और जो चार भागों में विभाजित है असफेरा, वारूख, सुख, होशियार ।' अन्दीजान के पश्चिम में, १८७ मील और दो फरलांग पर तथा समरकन्द के पूर्व में २६ मील पर खोजन्द स्थित है। जहाँ तक कन्द-ए बादाम तथा हा दरवेश नामक शहरों का सम्बन्ध है, उनकी महत्ता उस समय, सैनिक एवं आर्थिक दृष्टि से बहुत कम थी । किन्तु फरगना की वास्तविक कुंजी थी अस्सी का सुप्रसिद्ध शहर, जिसके चारों ओर दीवारें थीं, और उन दीवारों के बीच, सुदृढ़ दुर्ग । अस्सी शहर सर्र नदी के उत्तर में स्थित था। यहाँ से शत्रु की फौजें बड़ी सरलता से फरगना में प्रवेश कर सकती थीं । एक बार इस शहर पर अधिकार करने के पश्चात् शत्रु उसे आधार बना कर, नदो को पार कर फरगना राज्य की दूसरी बचाव की सीमा को पार कर नदी के उत्तर में स्थित सभी प्रदेशों को अपने अधिकार में ले सकता था । सर्र नदी को पार करने के पश्चात् वह उन उप- जाऊ प्रदेशों को जो कि सर्र नदी के किनारे से पहाड़ियों तक फैले हुए थे रौंद सकता था तथा वहां के रहने वाले लोगों को अन्दीजान या मर्गी- नान में रहने के लिए अपनी इच्छानुसार बाध्य कर सकता था तथा उन्हें अपने अधिकार में ले सकता था। वास्तव में सर्र नदी के उत्तर में स्थित सभी शहरों के निवासियों की रक्षा का भार अस्सी पर था, और यही कारण है कि उमर शेख मिर्ज़ा ने इस शहर को अपनी राजधानी बनाया ।"


 फरगना का राज्य उपजाऊ प्रदेशों, फल, जलवायु, हरे-भरे चरागाहों, की दृष्टि से बहुत उत्तम ही क्यों न हो, किन्तु उसकी आय से उमर शेख मिर्ज़ा तनिक भी सन्तुष्ट न था । अपने भाग्य से वह बहुत असन्तुष्ट था । फरगना जैसे छोटे से राज्य में, कभी भी वह शान्तिपूर्वक न १. बाबर नामा (अनु०) १, पृष्ठ ७; रिज़वी, “मुगल कालीन भारत" (बाबर) पृष्ठ ४६७-६ । २. बाबर नामा (अनु०) १, पृष्ठ १०; रिज़वी, “मुगल कालीन भारत” (बाबर) पृष्ठ ४६९ ।


वह स्वयं महत्वाकांक्षी था । आन्तरिक समस्याओं एवं बाह्य आक्रमणों के भय के कारण उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उमराव वर्ग विभिन्न गुटों में विभाजित था । गुटों की संकीर्णता एवं उनकी पारस्परिक कलह, उसके लिए एक समस्या बन कर रह गई थी। दूसरी ओर, उसके अपने परिवार के सदस्य जो कि उससे शत्रुता रखते थे, उसे तनिक समय के लिए भी शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर नहीं देना चाहते थे। वे उसे उसके राज्य से वंचित करने की चेष्टा में लगे हुए थे। 


ऐसी स्थिति में अपने उमराव को सदैव व्यस्त रखने के लिए तथा आर्थिक समस्या को हल करने के लिए उमर शेख मिर्ज़ा के सामने एक ही मार्ग था कि वह अपने हितों की रक्षा के लिए, निकटवर्ती शासकों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहे तथा उनके राज्यों पर आक्रमण करता रहे। अपने राज्य की सीमाओं को प्रत्येक दिशा में बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम उसने अपने भाग्यशाली भाई सुल्तान पर आक्रमण किया । उसके राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों को हस्तगत करने के पश्चात् उसने समरकन्द व बुंखारा के उमराव के साथ मिलकर उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचना प्रारम्भ किया। उमर शेख मिर्जा की विस्तारवादी नीति ही ने सुल्तान अहमद मि को उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए उकसाया । 


सुल्तान अहमद मिर्ज़ा एक विशाल सेना लेकर फरगना की ओर बढ़ा। उसने फरगना के सीमान्त प्रदेशों पर आक्रमण किया तथा उन पर अपना अधिकार स्थापित करने की चेष्टा की । यही नहीं, इस आक्रमण के पश्चात् वह फरगना राज्य को अपने राज्य में मिला लेने की चेष्टा में लगा रहा । अहमद अन्त में, सुल्तान के इन आक्रमणों से तंग आकर और जब उसमें उसका सामना करने की क्षमता न रह गई तब उमर शेख मिर्जा ने अपने श्वसुर एवं मंगोलों के की महान् खान, यूनुस खाँ से उसके विरुद्ध सहायता माँगी । इस प्रकार मंगोलों सहायता 'से उसने सुल्तान अहमद के प्रत्येक आक्रमण का सामना किया और उसकी सेनाओं को आगे न बढ़ने दिया तथा उसे आगे चल कर बाध्य किया कि वह फरगना के राज्य को विजित करने की अपनी योजना समाप्त कर दे । किन्तु मंगोलों से यह सहायता प्राप्त करने के लिए उसे बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा । बाबर स्वयं इसकी चर्चा करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखता है, कि, “प्रत्येक बार जब मिर्जा, खान को अपनी सहायता के लिए रह सका । इसके कई कारण थे। वह स्वयं महत्वाकांक्षी था । 


आन्तरिक समस्याओं एवं बाह्य आक्रमणों के भय के कारण उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उमराव वर्ग विभिन्न गुटों में विभाजित था । गुटों की संकीर्णता एवं उनकी पारस्परिक कलह, उसके लिए एक समस्या बन कर रह गई थी। दूसरी ओर, उसके अपने परिवार के सदस्य जो कि उससे शत्रुता रखते थे, उसे तनिक समय के लिए भी शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर नहीं देना चाहते थे। वे उसे उसके राज्य से वंचित करने की चेष्टा में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में अपने उमराव को सदैव व्यस्त रखने के लिए तथा आर्थिक समस्या को हल करने के लिए उमर शेख मिर्ज़ा के सामने एक ही मार्ग था कि वह अपने हितों की रक्षा के लिए, निकटवर्ती शासकों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहे तथा उनके राज्यों पर आक्रमण करता रहे। 


अपने राज्य की सीमाओं को प्रत्येक दिशा में बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम उसने अपने भाग्यशाली भाई सुल्तान पर आक्रमण किया । उसके राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों को हस्तगत करने के पश्चात् उसने समरकन्द व बुंखारा के उमराव के साथ मिलकर उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचना प्रारम्भ किया। उमर शेख मिर्जा की विस्तारवादी नीति ही ने सुल्तान अहमद मि को उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए उकसाया । सुल्तान अहमद मिर्ज़ा एक विशाल सेना लेकर फरगना की ओर बढ़ा। उसने फरगना के सीमान्त प्रदेशों पर आक्रमण किया तथा उन पर अपना अधिकार स्थापित करने की चेष्टा की । यही नहीं, इस आक्रमण के पश्चात् वह फरगना राज्य को अपने राज्य में मिला लेने की चेष्टा में लगा रहा । 


अहमद अन्त में, सुल्तान के इन आक्रमणों से तंग आकर और जब उसमें उसका सामना करने की क्षमता न रह गई तब उमर शेख मिर्जा ने अपने श्वसुर एवं मंगोलों के की महान् खान, यूनुस खाँ से उसके विरुद्ध सहायता माँगी । इस प्रकार मंगोलों सहायता 'से उसने सुल्तान अहमद के प्रत्येक आक्रमण का सामना किया और उसकी सेनाओं को आगे न बढ़ने दिया तथा उसे आगे चल कर बाध्य किया कि वह फरगना के राज्य को विजित करने की अपनी योजना समाप्त कर दे । किन्तु मंगोलों से यह सहायता प्राप्त करने के लिए उसे बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा । बाबर स्वयं इसकी चर्चा करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखता है, कि, “प्रत्येक बार जब मिर्जा, खान को अपनी सहायता के लिए सन्तुलन उमर शेख मिर्जा के पक्ष में ही रहा। 


लेकिन यूनुस खां की मृत्यु (१४८६-८७ ई०) के पश्चात् ही, उसके भाग्य ने उसका साथ छोड़ दिया । वास्तव में यूनुस खाँ के गम्भीर व्यक्तित्व के कारण ही उमर शेख मिर्ज़ा व उसके भाई सुलतान अहमद मिर्जा, जिनको कि उसने अपनी पुत्रियाँ विवाह में दी थीं, के मध्य सन्तुलन बना रहा । उसको मृत्यु के बाद ही, राजनैतिक दृश्य बदल गया और उसके साथ ही साथ उमर शेख मिर्ज़ा की समस्याओं का रूप भी । यूनुस खाँ की मृत्यु के पश्चात् ही, सुल्तान अहमद मिर्जा, महमूद खान तथा उमर शेख मिर्ज़ा ने ताशकन्द व शाहरूख्यों का प्रश्न पुनः उठाया । सुल्तान अहमद तथा उमर शेख मिर्जा ने इस बात पर बल दिया कि ताशकन्द व शाहरूखिया के प्रान्त, यूनुस खां को इस समझौते पर दिए गए थे कि जब तक उन दो प्रान्तों पर उनके अधिकारों का निश्चय नहीं हो जाता तब तक वे उसके हाथों में रहेंगे। 


किन्तु यूनुस खाँ के ज्येष्ठ पुत्र सुल्तान महमूद खां जो कि निकटवर्ती प्रदेशों पर शासन कर रहा था, ने दोनों प्रान्तों को वापस देने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार अरूसी, ताशकन्द, शाह रूखिया के प्रान्तों, के लिए, फरग़ना के शासक उमर शेख मिर्जा, समरकन्द के शासक सुलतान अहमद मिर्ज़ा और मंगोल सुल्तान महमूद खान में झगड़ा प्रारम्भ हुआ । लगभग इसी समय कशग़र व खोतान के शासक, अबू बक्र दोघुलत ने फरग़ना राज्य की सीमाओं पर स्थित उकिन्त नामक स्थान पर एक दुर्गं बनाया और फरगना राज्य पर छापे मारना प्रारम्भ किया और उसे विजित करने की चेष्टा में वह लग गया ।


 इस प्रकार १४८६-८७ ई० के पश्चात् उमर शेख मिर्ज़ा, जिसे कि डाक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी ने 'तरंग काक' कह कर पुकारा है, को अपने राज्य की रक्षा करते समय अनेक बाह्य आक्रमणकारियों एवं शत्रुओं का सामना करना पड़ा। मंगोल शासक सुलतान महमूद खान, अबू बक्र दोघुलत, सुल्तान अहमद मिर्जा सभी की आँखें फरगना के राज्य पर लगी हुई थीं, और उन्हीं की महत्त्वा कांक्षाओं ने उसे विचलित कर रखा था। यूनुस खां से वर्षों तक मित्रता बनाए रखने के कारण उसे कोई विशेष लाभ न हुआ । यही कारण था कि वह अब मंगोलों से घृणा करने लगा था। अपने वाह्य शत्रुओं को ठिकाने लगाने के लिए उसने अपना सब कुछ, बिना कुछ सोच विचार किए हुए, एक बारगी दांव पर लगा दिया। वह अपने सैनिकों के साथ उश्तुर की ओर बड़ा। 


उश्तुर के दुर्ग को विजित कर वह अपनी राजधानी अरूसी को वापस लौट गया। कुछ समय पश्चात् जब मंगोल सुल्तान महमूद खान को यह ज्ञात हुआ कि उमर शेख उश्तुर में नहीं है, और न ही उसके पास उश्तुर की रक्षा करने के लिए उपयुक्त साधन ही हैं तो उसने अपने छोटे भाई अहमद, जो कि इस समय उत्तरी मंगोलिस्तान पर शासन कर रहा था, को सहायता के लिए बिना बुलाये ही, उश्तुर पर आक्रमण किया, उसे अधिकृत कर लिया तथा दुर्ग के अन्दर की जनता को मौत के घाट उतार दिया। उश्तुर की रक्षा करते समय उमर शेख ने अपने कुछ बहुत ही अच्छे सैनिकों को खो दिया। यही नहीं, उक्त घटना के पश्चात् उसमें बढ़ कर आक्रमण करने की शक्ति भी न रही। कुछ वर्षों तक वह शान्त रहा । इस अवधि में सम्भवतः वह अपने किये पर पश्चात्ताप करता रहा कि व्यर्थ में उसने अपने साले सुल्तान महमूद खाँ पर आक्रमण किया, उश्तुर विजित किया और उससे शत्रुता मोल ली । कुछ भी हो, यह सभी बातें केवल उसकी अदूरदर्शिता के कारण हुई। दिन-प्रतिदिन उसकी शक्ति क्षीण होने लगी और प्रतिष्ठा मिट्टी में मिलने लगी ।


उमर शेख मिर्ज़ा की पराजय से उसका भाई सुल्तान अहमद मिर्जा प्रसन्न हुआ और उससे सन्तुष्ट भी हुआ, किन्तु साथ ही मंगोल सुल्तान महमूद खान द्वारा उश्तुर अधिकृत करने पर वह कुछ चिन्तित भी हुआ । उसे ऐसा आभास हुआ कि उमर शेख मिर्ज़ा को शक्तिहीन करने के पश्चात् मंगोल सुल्तान उसके विरुद्ध अवश्य बढ़ेगा और न केवल उसे भी शक्तिहीन करने का, बरन् उसके राज्य को हस्तगत करने का प्रयास करेगा । इससे पूर्व कि वह इस दिशा में पग उठाए, सुलतान अहमद मिर्जा स्वयं १,५०,००० सैनिकों के साथ ताशकन्द की ओर बढ़ा। तारीख-ए-रशीदी के रचयिता के अनुसार ख्वाजा उबैदुल्लाह अहरार ने सुलतान अहमद मिर्जा के पास यह कहलवाया भी कि वह उससे व्यर्थ झगड़ा मोल न लेकर सन्धि कर ले, परन्तु सुलतान अहमद मिर्जा ने उसके सुझाव की ओर तनिक भी ध्यान न दिया । न इस आक्रमण की सूचना मिलते ही मंगोल सुलतान महमूद खान उसका सामना करने के लिए आगे बढ़ा ।


उसने ताशकन्द और सर्र नदी के मध्य पड़ाव डाला और सुलतान अहमद मिर्जा को सर नदी पार कर लेने दी । उसके आगे बढ़ते ही, मंगोल सुलतान महमूद खान पर उसने सामने से आक्रमण कर दिया । अभी दोनों दलों में युद्ध चल ही रहा था कि शैबानी खाँ ने जो कि सुलतान अहमद की सेना में था, अपने सेनानायक के साथ विश्वासघात करते हुए उसका साथ छोड़ दिया, और पार्श्व से सुलतान महमूद खान की ओर से लड़ना प्रारम्भ किया । शैवानी खां ने तैमूरी सेना पर इस प्रकार आक्रमण किया कि सुलतान मिर्जा की सेना में आतंक छा गया और उसके सैनिक भयभीत होकर उसी नदी की ओर भागने लगे जिसे वे पार करके आए थे । इस पर मंगोलों ने उनका पीछा किया। सुलतान अहमद मिर्ज़ा के अनेक सैनिक युद्ध में मारे गये और जो नदी की ओर अपनी आत्मरक्षा हेतु भागे, वे नदी को पार न कर सके, और उसी में डूब गए। अनेक कठिनाइयों के पश्चात् सुलतान अहमद मिर्ज़ा अपनी राजधानी समरकन्द पहुँच सका । मंगोल सुलतान महमूद खान द्वारा पराजित होने पर दोनों तैमूरी शासकों, सुलतान अहमद मिर्जा और उमर शेख मिर्ज़ा को यह चाहिए था


 २. शैबानी खान (शाही बेग खान) शाह बुदाग़ओग़लान (शाह बुदाग़ सुल्तान) का पुत्र तथा अबुल खेर खान का पौत्र था। शाह बुदाग़ सुल्तान की मृत्यु के पश्चात् शाही बेग खान को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । भाग कर वह मवार नहर आया, और सुलतान अहमद मिर्ज़ा के उमराव की सेना में भर्ती हो गया । जिस समय यह युद्ध सुल्तान अहमद मिर्ज़ा तथा सुलतान महमूद खान में हुआ उस समय शाही बेग खान के अन्तर्गत ३,००० सैनिक थे। तारीख-ए-रशीदी (अनु०) पृ० ११६ । ३. तारीख-ए-रशीदी (अनु०) पृ० ११५; रशन के विलियम्स, 'ऐन इम्पायर बिल्डर ऑफ़ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी, पृ० २८  कि वे अपनी आपसी वैमनस्यता का परित्याग कर अन्य तमूरी शासकों के साथ मिलकर, मंगोलों के विरुद्ध एक तंम्ररी संघ का निर्माण करते और मंगोलों पर आक्रमण कर उन्हें शक्तिहीन कर तंमुरी वंश की प्रतिष्ठा को बनाए रखते । 


काशः वे ऐसा कर सकते। दुर्भाग्यवश उन्होंने ऐसा न किया। उनमें से किसी ने अन्य तैमूरी शासकों से सहयोग की न प्रार्थना की और न ही अपने शत्रुओं की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने की उन्होंने कोई चेष्टा की । फलस्वरूप मंगोल दिन प्रतिदिन सुलतान महमूद खान के नेतृत्व में शक्तिशाली होते गए । समर- कन्द पहुँच कर सुलतान अहमद ने मंगोल सुल्तान, महमूद खान के साथ सन्धि- बार्ता प्रारम्भ की' और उमर शेख मिर्जा के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने की योजना बनाई । दोनों शासकों में यह निश्चय हुआ कि वे मिलकर फरगना पर आक्रमण करेंगे और उसे विजित करने की चेष्टा करेंगे । इस समझौते को कार्यान्वित करने हेतु सुलतान अहमद मिर्जा ने अपनी एक पुत्री का विवाह मंगोल सुलतान महमूद खान से किया । 


जैसे ही इस सन्धि की सूचना उमर शेख मिर्ज़ा को मिली, उसने तुरन्त ही अपने सैनिकों को एकत्र किया और उन्हें लड़ाई के मैदान में उतारा। उसने निकटवर्ती शासकों, सुल्तान अहमद मिर्जा तथा उसके मित्र सुलतान महमूद के राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण किया । इस प्रकार उसने स्वयं पुनः दोनों शासकों को विवश किया कि वे उसके विरुद्ध सैनिक कार्य- वाहिया करें । वास्तव में वह ऐसी परिस्थिति में फँसा हुआ था कि शान्ति- पूर्वक बैठना या आक्रमण करना, दोनों ही उसके राज्य के हितों के लिए


 मिर्जा हैदर दोघुलत के अनुसार सुलतान अहमद मिर्ज़ा ने महान् सन्त ख्वाज़ा उबैदुल्लाह अहरारी से क्षमा याचना कर अपने किए पर पश्चाताप् प्रकट किया और उनके माध्यम से सुलतान महमूद खान से सन्धि की । इसी समय क़राग़ज़ बेगम के सम्बन्ध में भी वाद-विवाद हुआ और अन्त में सुलतान अहमद मिर्जा को क़राग़ज़ बेगम, जो कि सम्भवतः वैमनस्यता का एक कारण रही होगी, का विवाह सुल्तान महमूद खान से करना पड़ा ।


तारीख-ए-रशीदी (अनु०) पृ० ११६, ११८ । २. बाबरनामा (अनु० भाग १, पृ० १३; प्रो० रशब्र के विलियम्स, 'ऐन इम्पायर बिल्डर आफ दि सिक्सटीन्थ सेन्चुरी, पृ० २८ ।


प्रो० रशब्र ुक विलियम्स का यह कथन कि अपने पूर्व अनुभव से उसने सीखने की चेष्टा न की, न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता' और न ही डा० रामप्रसाद त्रिपाठी का यह कथन कि "समुचित शासनिक, आर्थिक, एवं नैतिक साधनों के अभाव में भी उसे फ़िरदौसी के शाहनामे में दर्ज वीरों की बराबरी करने की धुन थी," न्याय संगत प्रतीत होता है। मदिरा और माजूम के नशे में उसकी कल्पना उसे भयानक सीमा तक ले जाती थीं यह कथन भी उसकी परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उचित प्रतीत नहीं होता है । वास्तव में सुलतान अहमद मिर्जा एवं मंगोल सुलतान महमूद खान की सैनिक कार्यवाहियों ने तथा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने, उमर शेख को विवश कर दिया था कि अपनी सुरक्षा के लिए वह कुछ न कुछ सैनिक कार्यवाही करता रहे। 


अतः केवल उसी को दोषी ठहराना उचित नहीं प्रतीत होता । जब मंगोल सुलतान महमूद खान तथा सुलतान अहमद उसके आक्रमणों और उसकी चालों से तंग आ गए, तो उन्होंने उसे बिल्कुल ही शक्तिहीन कर देने का दृढ़ संकल्प किया । १४९४ ई० में पूर्व- योजनानुसार उन्होंने फरगना पर आक्रमण किया। सुलतान अहमद मिर्जा समर- कन्द की ओर बढ़ा। सरं नदी के दक्षिण से फरगना को जाने वाले मार्ग पर वह चला और उसने फ़रग़ना की राजधानी, अन्दी जान पर आक्रमण किया । दूसरी ओर से सुलतान महमूद खान, एक विशाल सेना लेकर, सर्र नदी के निकट की पहाड़ियों के दर्रे को पार करता हुआ, अख्सी के दुर्ग की ओर बढ़ा। इस प्रकार एक ही समय में फरगना पर दो ओर से आक्रमण किए गए। इस अभियान का पहला चरण सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ और ऐसा प्रतीत होने लगा कि फरसाना शत्रुओं के हाथों में शीघ्र ही आ जायेगा। 


लेकिन ऐसा न हुआ। उमर शेख मिर्जा ने आत्र- मणकारियोंकी चुनौती स्वीकार कर ली और अपनी कमर में दो तलवार बांधकर आयु वह उनका सामना करने के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी राजधानी अन्दी- जान की सुरक्षा का प्रबन्ध किया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र बाबर को, जिसकी इस समय केवल ग्यारह वर्ष की थी, वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया। खुदाए विरदी तथा अन्य विश्वस्त सरदारों को उसे परामर्श देने व उसकी सहायता के लिए वहाँ छोड़ कर, वह स्वयं अपने राज्य के पूर्वी प्रदेशों की सुरक्षा करने के लिए चल पड़ा । अस्सी पहुँच कर उसने शत्रु का मुकाबिला करने का दृढ़ संकल्प किया । इससे पूर्व कि दोनों दलों में घमासान युद्ध होता, एक ऐसी आकस्मिक घटना घटी जिसने युद्ध की दिशा ही बदल दी और फरगना का राज्य शत्रु के हाथों में आने से बच गया । उमर शेख मिर्ज़ा जिसे कबूतर पालने का बहुत ही शौक था, एक दिन कबूतरों के उस मंझे पर, जिसे कि उसने पास की एक पहाड़ी पर बनवाया था और जिसके नीचे नदी बहती थी, चढ़ा, यकायक उसकी नींव हिली, और मंझा उस पर आ गिरा और उसी समय उसकी मृत्यु हो गई।" यह घटना ४ रमजान ८९९ हि० ८ जून, १४९४ ई० को घटित हुई । २ उमर शेख मिर्जा की आयु उस समय ३९ वर्ष की थी। 


 १. बाबरनामा, (अनु०) भाग १, पृ० १३; तारीख-ए-रशीदी (अनु० ) पृ० ११९; रिजवी, 'मुग़ल कालीन भारत' (बाबर) भाग १, पृ० ६०८ अकबरनामा (अनु०) भाग १ पृ० २२० फिरिश्ता, 'तारीख-ए- फिरिश्ता", (मू० ग्रन्थ) पृ० १९१ ।


 २. बाबर ने अपने 'आत्म चरित्र' में लिखा है कि "उमर शेख मिर्ज़ा करारे के ऊपर से कबूतर उड़ा रहे थे कि वे कबूतर एवं ढावली सहित गिर कर मृत्यु को प्राप्त हो गए ।" बाबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० १३; रिजवी, 'मुग़ल कालीन भारत', (बावर) पृ० ४७१, फिरिश्ता, तारीख-ए-फिरिश्ता' पृ० १९१ ।


 ३. उनका जन्म समरकन्द में ८६० हि० (१४५६ ई० में हुआ था— बाबर- • नामा (अनु०) भाग १, पृ० १३; रिजवी, 'मुगलकालीन भारत', (बाबर) पृ० ४७१; अकबरनामा (अनु०) भाग १ पृ० २२० ।

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बाबर आत्मकथा में अपने पिता के बारे में क्या लिखता है.?


अपने आत्म-चरित में बाबर ने अनेक व्यक्तियों के बारे में संक्षिप्त विवरण दिये हैं। इन चरित्र-चित्रों से उसकी "आत्मकथा", बहुत ही रोचक बन गयी है। अपने पिता उमर शेख मिर्जा के संबंध में यह लिखता है कि, "उनका डील-डोस ठिगना, शरीर गठा हुआ, दाढ़ी गोल तथा चेहरा भरा हुआ था । वे बड़े तंग वस्त्र धारण करते थे। कबा का बन्द बांधते समय अपने पेट को भीतर करके पिचका लेते थे। और बाँधते समय जब वे एसा न कर पाते थे तो अधिकांश अवसरों पर ऐसा होता था कि बंद टूट जाते थे । खाने और पहनने में थे कोई आडम्बर पसन्द नहीं करते थे। वे पगड़ी को दस्तारपंच प्रथानुसार बांधते थे । उस समय पगड़ियों को चार पेंच प्रथानुसार बांधा जाता था। लोग उस समय बिना मरोड़े पगड़ी बाँधते थे और पीछे थोड़ा सा टुकड़ा लटका रहने देते थे । ग्रीष्म ऋतु, दरबार के अतिरिक्त, में वे अधिकांशतः मुग़ल टोपी पहनते थे। वे अपने आचार-विचार में हनफी धर्म का पालन करते थे । वे पांचों समय नमाज पढ़ना कभी न भूलते थे। साथ ही वे ख्वाजा उबैदुल्लासह अहरारी के शिष्य थे और कुरान पढ़ने में काफी समय लगाते थे। कभी-कभी ख्वाजा की गोष्ठी में भी वे उपस्थित रहा करते । ख्वाजा उनका इतना अधिक सम्मान करते थे कि वे उन्हें अपना पुत्र कह कर बुलाते थे । वे खमेरू व मसनवी का अध्ययन किया करते थे । कविता करने में उन्हें रुचि न थी । हाँ "शाहनामा" के अध्ययन में उन्हें बहुत रुचि थी । वे बड़े दानी थे और उदारता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे बड़े ही सुशील, शिष्टाचारी वाक्पटु मीठी वाणी बोलने वाले वीर एवं पराक्रमी व्यक्ति थे । वाण चलाने में यद्यपि वे साधारण व्यक्तियों की तरह थे, किन्तु उनके घूसे की चोट बड़ी जोर की होती थी । अन्य राज्यों पर अधिकार जमाने की महत्वा- कांक्षा के कारण वे बहुत-सी संधियों को युद्ध में, तथा मित्रता को शत्रुता में परिवर्तित कर देते थे । वे अपने प्रारंभिक जीवन में अत्यधिक मदिरापान करते थे । बाद में वे सप्ताह में एक बार अथवा दो बार मदिरापान की गोष्ठी आयो- जित करने लगे । गोष्ठियों में वे बड़े ही उत्तम ढंग से व्यवहार करते थे। ऐसे अवसरों पर वे बड़े उत्तम शेर पढ़ा करते थे । जीवन के अन्तिम काल में वे माजूम का अत्यधिक सेवन करने लगे थे। नशे की तरंग में वे बहक जाया करते थे । वे बड़े रसिक व्यक्ति थे और प्रेमियों के अनेक गुण उसमें पाए जाते थे । वे शतरंज बहुत खेलते थे और कभी- कभी पासे का खेल भी खेलते थे ।" १


ग्यारह वर्ष चार महीने के बाबर ने पिता की गद्दी संभाली थी

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि कराना का शासक उमर शेख मिर्ज़ा जो कि स्वयं एक शिक्षित एवं सौम्य व्यक्ति था, ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, बाबर के लिए प्रारंभिक शिक्षा का प्रबंध न किया हो । यद्यपि इस बालक के बाल्यकाल एवं उसकी प्रारंभिक शिक्षा के बारे में हमें कुछ भी मालूम नहीं है, किन्तु फिर भी, उस बालक को जिसके कमजोर कन्धों पर करग़ना राज्य के प्रशासन का भार पड़ा देखते हुए हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि अब तक उसके ऊपर ख्वाजा उबैदुल्लाह अहरार, उमर शेख तथा कुतलुन निगार के व्यक्तित्व की पूरी छाप पड़ चुकी थी। वह उन्हीं की तरह धार्मिक, सरल, महत्वाकांक्षी, विद्वान, साहसी, निडर एवं उदार था। उसमें वे सभी गुण विद्यमान थे जिन पर तमूरियों को घमण्ड था। जिस समय बाबर सिहासन पर बैठा उस समय उसकी आयु ग्यारह वर्ष चार महीने और आठ दिनों की थी। अपने पिता की मृत्यु के समय वह अंदीजान में चार बाग़ में था। यहीं उसे यह दुखद सामाचार ५ रमजान ८९९ हि०, मंगलवार ९ जून, १४९४ को प्राप्त हुआ । अन्दीजान के दुर्ग की रक्षा करने के लिए वह


शेख मिर्ज़ा का सूक्ष्म एवं संक्षिप्त विवरण दिया है- अकबरनामा (अनु०) भाग १, पृ० २१९; रिजवी, 'मुगल कालीन भारत', (बाबर) पृ० ४७२-७३ ।


 मुहम्मद अब्दुल ग़नी का यह कहना है कि बाल्यकाल में बाबर के चरित्र को बनाने एवं उसमें साहित्यिक रुचि पैदा करने का श्रेय, शेख मज़ीद, खुदाए विरदी, बाबा कुली और मौलाना अब्दुल्लाह, उपनाम ख्वाजा मौलाना काज़ी को था। बाबर ने इन विद्वानों के नाम अपनी आत्मकथा में दिए है। देखिए – 'ए हिस्ट्री आफ दी परशियन लेन्गुएज एण्ड लिटरेचर ऐट दि मुगल कोर्ट', भाग १, पृ० ४८ ।


 किन्तु बाबर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि वह १२ वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठा। बाबर नामा (अनु०) भाग १, पृ० १; तारीख-ए- रशीदी के रचयिता के अनुसार बाबर की उम्र इस समय १२ वर्ष की थी। रिजवी, 'मुगल कालीन भारत' (अनु०) भाग १, पृ० २२५ । (बाबर) पृ० ६०८; अकबर नामा. बाबर नामा, (अनु०) भाग १, पृ० १३; नफायसुल माआसीर, रिजवी, 'मुगलकालीन भारत', (बाबर) पृ० ३४३; तारीख-ए-रशीदी (अनु० ) पृ० ११९ । )


वह तुरन्त वापस लौट पड़ा। जैसे ही वह मिद्वार पर पहुँचा, शीरीं तगाई नामक अमीर ने उसके घोड़े की रक़ाब पकड़ ली और उसे नमाज़गाह की ओर यह बतलाने के लिए ले गया कि फरगना पर दो ओर से आक्रमण होने के कारण परिस्थिति गम्भीर हो गई है, चारों ओर अनिश्चय का वातावरण है और ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि अन्दीजान के कुछ उमराव, उसको व उसके पिता के राज्य को सुलतान अहमद मिर्जा के हाथों में समर्पित कर दें। शीरीं तग़ाई ने बाबर को राय दी कि वह उजकिन्त की ओर भाग जाय और वहाँ की निकट- वर्ती पहाड़ियों में जाकर शरण ले ले । उसने बाबर से यह भी कहा कि समय मिलने पर वह अपने मामाओं के पास जाकर रह सकता है। जब अन्दीजान के दुर्ग में नियुक्त उमराव को, जिनमें से ख्वाजा मौलाना-ए-काज़ी भी था, बाबर के अन्दीजान छोड़ने की बात मालूम हुई, तो उन्होंने शीघ्र ही उमर शेख मिर्ज़ा के वृद्ध दर्जी एवं सेवक, ख्वाजा मुहम्मद को उसके पास उसका भय दूर करने के लिए तथा उसे चार बाग से वापस लाने के लिए भेजा । 


ख्वाजा मुहम्मद अपने कार्य में सफल हुआ। बाबर ने अन्दीजान के दुर्ग में प्रवेश किया, जहाँ ख्वाजा- मौलाना-ए-काज़ी तथा राज्य के अन्य उमराव ने उसके सम्मुख सिर झुकाया । यहाँ सम्पूर्ण परिस्थिति पर विचार-विमर्श हुआ। यह निश्चय किया गया कि आक्रमणकारियों ने तलवार फेंक कर जो चुनौती दी है उसे स्वीकार कर लिया जाय तथा डट कर उनका मुक़ाबला किया जाय । उमर शेख मिर्ज़ा के अन्य उमराव, याकूब तथा क़ासिम कुचीन भी इसी समय मर्गिनान से आ पहुँचे । उन्होंने बाबर का साथ दिया। इस प्रकार सभी वेगों की सहायता से बाबर दुर्ग की रक्षा की तैयारी में लग गया ।


इसी बीच सुलतान अहमद मिर्ज़ा ने औरतिपा, खोजन्द तथा मगिनान को अधिकृत कर लिया और अपनी सेनाओं के साथ कावा तक, जो कि फ़रगना की राजधानी, अन्दीजान, से बहुत दूर न था, आगे बढ़ आया और वहीं पड़ाव डाल दिया । राजधानी के निकट शत्रु के आ पहुँचने के कारण दुर्ग के अन्दर के लोग कुछ भयभीत हुए। घबराहट की अवस्था में, बाबर के बेग, तरह-तरह के प्रस्ताव उसके समक्ष रखने लगे। यदि बाबर उनमें से किसी प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता तो उसे अवश्य ही फरग़ना के राज्य से हाथ धोना पड़ता । अन्दीजान के एक उमराव, दरवेश गाऊ ने यह सुझाव दिया कि बाबर को सुलतान अहमद मिर्ज़ा के हाथों में सौंप दिया जाय, ताकि वह समरकन्द वापस लोट जाय और  अन्दोजान से हटा ले। उसके इस सुझाव पर बिना सोचे हुए ही बाबर के कुछ समर्थकों ने उसे मौत के घाट उतार दिया । जस हा उस विश्वासघाती का सिर उसके शरीर से पृथक किया गया वैसे ही दुर्ग के अन्दर सभी उमराव एक मत के हो गए तथा शत्रु की ओर से वे सतर्क भी हो गए।


कोरक्षा व युद्ध करने से पूर्व, बाबर के कुछ उमराव ने केवल समय पाने की इच्छा से, सुलतान अहमद मिज़ से बातचीत प्रारम्भ की। यह कहना कठिन है कि क्या वास्तव में सुलतान अहमद के साथ वे किसी प्रकार का समझौता करना चाहते थे अथवा सुलतान अहमद भी किसी समझौते के लिए उत्सुक था । उनकी बातचीत से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही एक दूसरे को कूटनीतिक दाँव-पेंचों में उलझा रखना चाहते थे और अवसर पाते ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते थे । कुछ भी हो, बाबर के अमीरों ने स्वाजा-ए- काजी तमा ख्वाजा हुसैन के भाई औजून हसन को सुलतान अहमद मिर्ज़ा के पास भेज कर बाबर की ओर से यह कहलवाया कि फरगना को विजित करने के पदचात् "वह वहाँ अपना एक सेवक अवश्य ही नियुक्त करेगा । 


बाबर भी उसके सेवक एवं पुत्र की भाँति है, और यदि वह उसे सेवा करने का अवसर प्रदान करता है तो उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति आसानी से तथा शीघ्रतापूर्वक प्राप्त हो जायेगी ।” लेकिन, सुलतान अहमद मिर्ज़ा, जिसे बाबर एक 'सौम्य, कमजोर, कम बात करने वाला' व्यक्ति कहता है, को अन्दीजान के उमराव के हृदय की बात समझने में देर न लगी । अतः बिना अपने अमीरों से परामर्श लिए हुए या उनकी बातों पर विचार किए हुए, वह शीघ्र ही अपनी सेनाओं के साथ कावा से अन्दोजान के दुर्ग का घेरा डालने के लिए चल पड़ा ।'


 सुलतान अहमद के इस प्रकार कूच करने से बाबर व उसके अमीरों को कुछ आश्चर्य हुआ । अभी तक घेराबन्दी को रोकने के लिए की गई तैयारियाँ पूर्ण न हो पाई थीं। दुर्ग के अन्दर के लोग बहुत हतोत्साहित थे । उन्हें न तो अपने भविष्य का ही ज्ञान था और न ही वे यही समझ सके थे कि बाबर के प्रति कितने उमराव बफादार हैं। लगभग इसी समय आक्रमणकारियों ने अन्दीजान की दीवारों के नीचे अपने पड़ाव डाल दिये। कुछ समय पश्चात् उन्होंने जब दुर्ग के अन्दर के लोगों के साथ सन्धि-वार्ता की तो सभी को आश्चर्य हुआ । भाग्य ने बाबर व उसके समर्थकों का साथ दिया। कारण यह कि शत्र की सेनाओं को अचानक अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ गया। कावा से अन्दीजान की ओर बढ़ते समय सुलतान अहमद की सेना के घोड़ों में बीमारी फैल गई जिसके कारण हजारों की संख्या में घोड़े मरने लगे। 


यही नहीं, मार्ग में उन्हें किसानों व सैनिकों, दोनों के हो विरोध का सामना करना पड़ा। बाबर अपनी आत्मकथा में ठीक ही लिखता है कि, "उन्होंने हमारी प्रजा तथा सेना को इस प्रकार संगठित एवं दृढ़ पाया कि वे जब तक उनके शरीर में प्राण रहते तब तक वीरतापूर्वक प्राणों की बलि देने में संकोच न करते "" '। इसके अतिरिक्त, एक कारण और था जिसने उन्हें मौत के मुंह में डाल दिया । क़ावा से अन्दीजान की ओर बढ़ते समय, सुलतान अहमद मिर्ज़ा व उसकी सेना को कावा की दलदली नदी को पार करना पड़ा। उसे पुल के बिना किसी अन्य स्थान से पार नहीं किया जा सकता था । जब उसकी विशाल सेना ने पुल पार करना प्रारंभ किया तो पुल के संकीर्ण होने के कारण बहुत-से घोड़े एवं ऊँट धक्के लगने से नदी में गिर कर समाप्त हो गए। इससे पूर्व, तीन-चार वर्ष पहले, यही सेना चोर घाट पर बुरी तरह पराजित हुई थी। 


इस समय सुलतान अहमद मिर्जा को उसी घटना की याद आ गई। बहुत ही दयनीय स्थिति में अन्दीजान के निकट पहुँच कर उसने दरवेश मुहम्मद तरखान द्वारा बाबर के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा । दुर्ग के अन्दर सैनिकों की दशा भी सन्तोष - जनक न थी, अतः बाबर के सहयोगियों ने याकूब के पुत्र हसन को बात करने के लिए भेजा । नमाज़गाह के समीप हसन की भेंट दरवेश मुहम्मद तरखा न से हुई और वे सन्धि करके वापस लौट गए। सन्धि की क्या शर्तें थीं, इस सम्बन्ध में हमें कुछ भी मालूम नहीं । बाबर तथा अन्य सभी इतिहासकार इस पर मौन हैं । सन्धि के पश्चात् सुलतान अहमद मिर्ज़ा अपनी सेनाओं के साथ शीघ्रतापूर्वक अपने देश समरकन्द को लौट गया। इस प्रकार वह तूफान जो कि बाबर व उसके राज्य को हिलाए दे रहा था शान्तिपूर्वक निकल गया। किन्तु दूसरी ओर से एक नया खतरा पैदा हुआ। 


सुलतान अहमद के साथ किए गए समझौते के अनुसार मंगोलों का नेता, महान् सुलतान महमूद खान, इसी बीच, खोजन्द नदी के उत्तर से होता हुआ आगे बढ़ा और उसने अस्सी के दर्ग पर घेरा डाल दिया। इस आक्रमण की सूचना पाकर वापस लघारी और मीर ग्यास लगाई, कसान के दुर्ग से भाग खड़े हुए तथा आगे चल कर वे सुलतान महमूद खान से अस्सी के दुर्गा के निकट आकर मिल गए। उनके इस व्यवहार के बावजूद, जहांगीर मिर्जा, अली दरवेश वेग, मिर्ज़ा कुली कोकुलदाश, मुहम्मद बाक़िर बेग तथा शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में सभी उमराव अस्सी के दुर्ग की रक्षा और आक्रमणकारियों को डट कर मुकाबला करते रहे । सुलतान महमूद खान ने अनेक बार दुर्ग पर आक्रमण किए, शत्रु से लड़ाइयाँ लड़ीं, किन्तु दुर्ग को विजय करने में उसे तनिक भी सफलता नहीं प्राप्त हुई। जब उसे अपने मित्र, सुलतान अहमद मिर्ज़ा की वापसी की सूचना मिली, तो वह कुछ भयभीत हुआ । घबराहट के कारण वह बीमार पड़ गया । निरन्तर युद्ध करते रहने से वह थक तो गया हो था, अतः अधिक समय तक अस्सी में उसने ठहरना उचित न समझा और ताकद वापस लौट गया ।


 इससे पूर्व कि बाबर व उसके उमराव फरगना राज्य के प्रशासन की कुछ व्यवस्था कर सकते और चैन से बैठ सकते, कश्गर के शासक अब वक्र दोघमत ने फ़रग़ना राज्य की कमज़ोरियों से लाभ उठाने का विचार किया। उसने फ़रग़ना पर आक्रमण कर दिया। कुछ वर्षों पूर्व अबू बक्र दोधलत ने अपनी सत्ता करग़र तथा खोतान में स्थापित कर ली थी। अब केवल अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने के विचार से उसने निकटवर्ती राज्यों की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया । फरगना की आन्तरिक दशा से वह भलीभांति परिचित था। अतः अपनी विस्तारवादी नीति को उचित रूप से कार्यान्वित करने की अभिलाषा में उसने उज़किन्त के निकट एक दुर्ग का निर्माण करवाया और फ़रग़ना राज्य के सीमान्त प्रदेशों पर छापे मारना प्रारंभ किया। 


उमर शेख मिर्ज़ा की मृत्यु, उसके अल्पवयस्क पुत्र बाबर का फरगना के सिंहासन पर बैठना तथा सुलतान अहमद मिर्ज़ा और सुलतान महमूद खान की फरग़ना राज्य को आपस में विभाजित करने में असफलता, तथा फ़रग़ना के उमराव की वैमन- स्वता ने ही अबू वक्र दोधुलत को अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाने के लिए प्रेरणा दी। सुलतान अहमद मिर्ज़ा व सुलतान महमूद खान से अवकाश पाने के बाद, बाबर के अमीरों ने अबू वक्र दोधलत की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं को रोकने की योजना बनाई। उन्होंने ख्वाजा- ए- काजी को अन्य उमराव के साथ उसे पीछे हटाने के लिए भेजा। फरगना के सैनिकों के आगे बढ़ते ही वह घबरा गया । उसे अपने पर इतना भी विश्वास न रह गया कि वह फर- गना के सैनिकों का सामना कर सकता । अतः उसने ख्वाजा के साथ सन्धि- वार्ता प्रारम्भ की। ख्वाजा को उसने मध्यस्थ बनाते हुए बावर से याचना की कि वह उसे किसी प्रकार करगर वापस लौट जाने दे। बाबर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसे कश्ग़र जाने दिया । 


विपत्ति के इस काल में, उमर शेख मिर्ज़ा के वृद्ध एवं युवक उमराव ने डटकर स्थिति का सामना किया। किन्तु विपदा के बादल हटते ही यह उमराव, उमर शेख मिर्ज़ा के तीन पुत्र, — बाबर, जहाँगीर और नासिर मिर्ज़ा में बँट गए। पहले तो इन अमीरों ने इन युवराजों के पैतृक राज्य की रक्षा करने की हर प्रकार से चेष्टा की और फिर फरगना की राजनीति में सक्रिय भाग लेना प्रारम्भ किया। अन्दीजान के तीन वरिष्ठ उमराव, ख्वाजा मौलाना, काज़ी हसन और कासिम कुचीन ने बाबर के हितों को सुरक्षित रखने में कोई कसर न उठा रखी। दूसरी ओर, अली दरवेश वेग, मिर्ज़ा जहाँगीर मिर्ज़ा के सफ- कुली कोकुलदाश, मुहम्मद बाहिर बेग, और शेख अब्दुल्लाह, जहागीर मिर्ज़ा हेतु अख्सी के दुर्ग की सुरक्षा करते रहे। इसी प्रकार वाएस लघारी, मि ग्यास तग़ाई और अन्य उमराब, यह सोचकर कि बाबर व समर्थकों को सम्भवतः बाह्य आक्रमणकारियों के आक्रमणों को रोकने में लता न प्राप्त हो, नसीर मिर्ज़ा को अपने साथ कसान ले गए। 


कुछ समय पश्चात् वे सुलतान महमूद खान से जाकर मिल गए और उसी के असी के दुर्ग को विजित करने चल पड़े । किन्तु जब सुलतान महमूद खान को इस अभियान में सफलता न प्राप्त हुई तो मीर ग्यास उसी के पास रुक गया, और उसकी सेना में भर्ती हो गया और बाएस लघारी, नासिर मिर्ज़ा के साथ सुलतान अहमद मिर्ज़ा की सेवा में चला गया। मीर ग्यास और बाएस लघारी के साथ छोड़ देने और नसीर मिर्जा को सुलतान अहमद मिर्ज़ा को सौंप देने के पश्चात् भी उमर शेख मिर्ज़ा के दो अन्य पुत्रों की स्थिति में तनिक भी अन्तर न पड़ा। बाबर के लिए यह अच्छी बात हुई कि विश्वास- घाती अपने असली रूप में सामने आये और उसे छोड़ कर चले गए । साथ इस प्रकार बाबर व उसके समर्थकों की कठिनाइयाँ कुछ कम हुई। बावर के उमराव को कुछ समय मिला कि वे फरगना के राज्य की सुरक्षा के लिए कुछ प्रशासनिक कार्य करें और कुछ आवश्यक मामलों पर ध्यान दें। 


इसी बीच बाबर के पिता उमर शेख का परिवार अस्सी से अन्दीजान आ गया था । अतः यह आवश्यक समझा गया कि शोक सम्बन्धी रस्में पूरी कर ली जावें । इस अवसर पर अपने पिता की पुण्य स्मृति में, बावर ने सभी गरीबों और अनाथ व्यक्तियों को भोजन और उपहार प्रदान किये। तत्पश्चात् बाबर की दादी, एहसान दौलत बेगम, ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली, और फ़रग़ना राज्य का प्रशासन उसने स्वयं देखना प्रारंभ किया। उसके महत्त्वपूर्ण सुझावों के ही कारण शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना हो सकी। उसने अपना ध्यान प्रशासन एवं सेना दोनों ही की ओर दिया। सम्भवतः उसी के सुझाव पर, याकूब के पुत्र हसन को अन्दीजान का गवर्नर नियुक्त किया गया और उसे दुर्ग के मुख्य द्वार की रक्षा का भार सौंपा गया। कासिम बुचीन को उश के प्रशासन हेतु नियुक्त किया गया; औजून हसन को असी के दुर्ग की रक्षा का कार्य-भार सौंपा गया और अली दोस्त तगाई को मगिनान की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया । 


राज्य के पदों को इस प्रकार वितरित करते समय अन्य उमराव के हितों का भी ध्यान रखा गया । बाबर ने इसकी चर्चा करते हुए स्वयं लिखा है कि विपत्ति के इस काल में, जिन उमराव ने मेरी सेवा करते समय स्वामिभक्ति दिखाई, उन्हें मैंने जागीरें (विलायत) व जमीन (ईर) या पद (मौज़ा) या सरदारी (जीगा) या वृत्ति ( वज़ह ) प्रदान की ।" प्रत्येक व्यक्ति को, उसके ओहदे और समाज में उसके स्थान के हिसाब से, विलायत, भूमि, पद व सरदारी, तथा वज़ह प्रदान की गई। इस प्रकार समस्त प्रशासन को व्यवस्थित करने की चेष्टा की गई, और यह प्रयास किया गया कि राज्य में शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित हो । साथ ही उमराव वर्ग को उसकी नई जिम्मेवारियों के प्रति अवगत कराया गया।


नई समस्याओं का सामना करने के हेतु अभी प्रशासनिक व्यवस्था पूर्ण भी न हुई थी कि यकायक बाबर को सुलतान अहमद मिर्ज़ा की मृत्यु की सूचना प्राप्त हुई। सुलतान अहमद मिर्ज़ा जिस समय अन्दीजान से लोटा उस समय वह बहुत दुर्बल हो गया था । बीमारी की अवस्था ही में उसने यात्रा की । फलस्वरूप मार्ग में उसकी दशा और भी चिन्ताजनक हो गई और औरतिपा के निकट अक़सू नामक स्थान पर उसकी मृत्यु, ४० वर्ष की आयु में शब्बाल माह के मध्य में, हि० ८९९ जुलाई १४९४ ६० को हो गई। उसके कोई पुत्र न था जो कि उसके विशाल राज्य, जो समरकन्द बुखारा, ताशकन्द, सैराम, खोजन्द व औरतिपा तक फैला हुआ था, का उत्तराधिकारी वन सकता। उसकी मृत्यु के कारण, मध्य एशियाई राज्य में शक्ति का सन्तुलन बिगड़ गया। स्थिति पर नियन्त्रण रखने के लिए उसके उमराव ने एक मत होकर एक दूत को, उसके छोटे भाई सुलतान महमूद मिर्ज़ा, जो कि इस समय बदखर्शा से लेकर अफसेरा व हिन्दुकुश की पहाड़ियों तक फैले हुए विशाल क्षेत्र पर शासन कर रहा था, के पास भेजा।


उन्होंने उसे समरकन्द के सिंहासन पर बैठाने के लिए लिए आमंत्रित किया। समरकन्द के उमराव के इस निमंत्रण को सुलतान महमूद मिर्ज़ा ने स्वीकार कर लिया। उसने अपने पुत्रों के हाथों में हिसार व बुखारा का शासन सोंपा और स्वयं समरकन्द की और कूच किया। बिना किसी रुकावट के वह समरकन्द के सिहासन पर बैठ गया । इस प्रकार हिन्दुकुश की पहाड़ियों से लेकर समरकन्द तक फैले हुए विशाल प्रदेश उसके हाथों में आ गए। थोड़े ही समय में समुचित साधनों का प्रयोग कर, उसने नए प्रांतों में शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित की। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि वह एक शक्तिशाली शासक था । प्रशासक के सभी गुण उसमें विद्यमान थे । किन्तु अपने व्यवहार तथा अपनी ही त्रुटियों के कारण वह वदनाम गया। 


समरकन्द के उमराव ने कुछ और ही सोचकर उसे बुलवाया था किन्तु अब अपनी अपेक्षा उन्होंने उसे कहीं अधिक शक्तिशाली एवं निर्भीक पाया। जब उन्होंने यह अच्छी तरह समझ लिया कि वह उन्हें सिर ऊपर न उठाने देगा तो राज्य के विभिन्न भागों में उन्होंने गड़बड़ियाँ प्रारम्भ कीं । उनके नेता मलिक मुहम्मद मिर्ज़ा, जो कि मिनुचिहर मिर्ज़ा का पुत्र था तथा सुलतान अबू सईद मिर्ज़ा का भतीजा था, ने अन्य मिर्ज़ाओं के साथ मिलकर राज्य की बागडोर अपने हाथों में लेने की असफल चेष्टा की । उन सभी व्यक्तियों को पकड़ लिया गया और कुक-सराय में भेज दिया गया । यद्यपि मलिक मुहम्मद मिर्ज़ा सुलतान महमूद मिर्ज़ा के पिता के भाई का पुत्र तथा उसका ही दामाद था, फिर भी उसने उसे न छोड़ा, और अन्य मिर्ज़ाओं के साथ मौत के घाट उतरवा दिया। इस षड्यन्त्र का दमन करने के पश्चात् सुलतान महमुद मिर्ज़ा ने अपना ध्यान शासन को सुधारने की ओर दिया। उसने लगान की दर बढ़ा दो और पाई-पाई वसूल करने पर ज़ोर दिया। उसके लगान सम्बन्धी एवं कर सम्बन्धी कानून सभी लोगों के लिए थे। यहां उसने वर्षों से चली आई हुई उस परम्परा का परित्याग कर दिया, जिसके अनुसार ख्वाजा उबैदुल्लाह के सभी अनुयायी करों से मुक्त थे। 


उनसे भी उसने बड़ी क्रूरतापूर्वक कर व लगान वसूस करना प्रारम्भ किया तथा ख्वाजा के बच्चों के साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया । फलस्वरूप समरकन्द के धार्मिक लोगों तथा ख्वाजा के अनुयायियों ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई और उन सभी कानूनों को रद्द करने की मांग की। इसका उस पर तनिक भी प्रभाव न पड़ा। इसके अतिरिक्त दिन-प्रतिदिन वह विलास- प्रिय होता गया । उसकी भाँति उसके उमराव भी मदिरा के नशे में घृणित कार्य करने लगे तथा जनता को सताने लगे। हिसार में खुसरो शाह व उसके साथी भी नशे में चूर तथा दुराचार में लिप्त रहने लगे । एक बार उसका एक सेवक किसी व्यक्ति की पत्नी को भगा कर ले गया । उस स्त्री के पति ने खुसरो शाह से न्याय की मांग की तो उसने उत्तर दिया, "वह बहुत समय तक तेरे पास रही अब कुछ समय तक उसके पास रहने दे । १ चारों ओर इतना व्यभिचार फैल चुका था कि शहरी दुकानदारों व तुर्की सैनिकों के जवान पुत्रों को भी घर से निकलते डर लगता था कि कहीं उन्हें लौंडेबाज न पकड़ लें। 


लोग उसके आतंकपूर्ण व्यवहार से तंग आ चुके थे। किन्तु सुलतान महमूद मिर्ज़ा ने न तो खुसरो शाह की ओर ध्यान दिया और न अपने ही आचरण को सँभालने की चेष्टा की । वह पुराने ढर्रे पर चलता रहा । कुछ समय पश्चात् उसने अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने का निश्चय किया। इसलिए उसने निकटवर्ती राज्यों पर दृष्टि डाली । करगना की आन्तरिक दशा को मालूम करने में उसे देर न लगी । उसने उसे विजित करने और अपनी भूख मिटाने का दृढ़ संकल्प किया। फ़रग़ना की आन्तरिक दशा इस समय अच्छी न थी । फ़रग़ना का राज्य बाबर जैसे शिशु के हाथों में था, जिसे प्रशासन के बारे में तनिक भी अनुभव न था । उसके दो और छोटे भाई थे, जिनका भी उतना ही अपने पिता के राज्य पर अधिकार था। तैमूरी परम्परा के अनुसार उमर शेख का राज्य उनमें बराबर-बराबर विभाजित होना चाहिए था। परन्तु बाबर ने ऐसा न किया जिसके फलस्वरूप, उमराव वर्ग कई गुटों में विभाजित हो गया । 


उमर शेख मिर्ज़ा कालीन उमराव ने तो यह सोचा था कि जैसा उचित समझेंगे, वे अपने शासक को मोड़ लेंगे। परन्तु बाबर के उच्च विचारों एवं दृढ़ता के कारण ऐसा करने में वे असफल रहे। न ही वे उसके भाइयों को ही उसके विरुद्ध भड़काने में सफल हो सके। कुछ भी हो, अपने जीवन में वे असन्तुष्ट थे और उनमें से कुछ ऐसे थे जिन्हें बाबर व उसके भाइयों से कोई भी दिलचस्पी न थी। वे केवल अपने ही हितों की रक्षा करना चाहते थे। संक्षेप में फ़रगना राज्य में राजनीतिक अशान्ति थी। उमराव वर्ग में एकता का अभाव था। ऐसी परिस्थिति में, मुलतान महमूद मिर्ज़ा को पूर्ण विश्वास हो गया कि फरगना पर वह सफलतापूर्वक विजय प्राप्त कर सकता है। उसने बाबर के पास अपना राजदूत, अब्दुल कुछ स बैग को भेजा । अब्दुल कुद्द स बहुमूल्य उपहार, जिसमें सोने-चांदी के पिस्ते भी थे, लेकर बाबर की सेवा में उपस्थित हुआ। वह उपहार सुलतान महमूद मिर्ज़ा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र मसूद मिर्ज़ा के विवाह के उपलक्ष्य में भेजे थे । 


\मसूद मिजा का विवाह स्वर्गीय सुलतान अहमद मिर्ज़ा की द्वितीय पुत्री सालिहा सुलतान से कुछ दिनों पूर्व ही हुआ था । बाबर के पास राजदूत भेजने का एक कारण और था । अब्दुल कुद्द स बेग, याकूब के पुत्र हसन, जो कि अन्दीजान के दुर्ग का मालिक था, का सम्बन्धी था, और उसी के द्वारा वह हसन को अपनी ओर मिलाना चाहता था कि जब वह अन्दीजान पहुँचे तो दुर्ग के द्वार उसके लिए खोल दिए जायँ । अब्दुल कुछ स को अपने कार्य में कोई भी कठिनाई न हुई । उसने हसन के साथ तरह-तरह के वायदे किए और उसके व्यवहार से सन्तुष्ट होकर वह समरकन्द वापस लौट गया । १


इस प्रकार १४९४ ई० के अन्त में हसन ने बाबर को गद्दी से उता- रने और उसके छोटे भाई जहाँगीर मिर्जा को उस पर बैठाने का निश्चय किया । जहाँगीर मिर्ज़ा को वह अपने हाथ की कठपुतली बना कर फरखाना पर शासन करना चाहता था । उसे अपनी इस योजना में उन असन्तुष्ट बेगों जिनमें से मुहम्मद बाक़िर बेग, सुलतान महमूद दुलदाई और उसका पिता भी था, का पूरा-पूरा समर्थन प्राप्त हुआ। किन्तु इससे पूर्व कि वह अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करता, बाबर के कुछ खास बेगों को, उससे बात करते समय, उसकी योजनाओं का आभास मिल गया। जो कुछ उसके मन में था, उन्होंने पता लगा लिया। बिना समय नष्ट किए, उनमें से कुछ बेगों ने, जिन में से ख्वाजा काज़ी, क़ासिम कुचीन, और जली दोस्त तग़ाई थे, शीघ्र ही बाबर की दादी एहसान दौलत बेगम के पास जाकर उसे षड्यन्त्र की सूचना दी। 


एहसान दौलत ने षड्यंत्र समाप्त करने व षड्यन्त्रकारियों को दण्ड देने का भार अपने कन्धों पर लिया। उसने बाबर को कुछ विश्वासपात्र वेगों के साथ दुर्ग के बाहरी द्वार से, दुर्ग में से हसन और उसके सहयोगियों को पक- ड़ने के लिए भेजा। हसन वहां न था। वह शिकार खेलने गया था। बाबर ने उसके सहयोगियों पर आकस्मिक आक्रमण किया और उन्हें बन्दी बना लिया । जब हसन को इसकी सूचना मिली तो वह समरकन्द की ओर सुल- तान महमूद मिर्जा से सहायता लेने के लिए भागा । लेकिन कन्द-ए-बादाम पहुँच कर उसने अपना इरादा बदल दिया, और अस्सी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसने यह सोचा कि यदि वह अस्सी के दुर्ग को विजित कर लेता है तो वहाँ से वह अन्दीजान पर आक्रमण कर उसे जीत सकता है तथा वहीं ठहर कर अपने मित्र सुलतान महमूद मिर्ज़ा के आने की प्रतीक्षा भी कर सकता है । 


एहसान दौलत बेगम व बावर को जब अस्सी के दुर्ग पर आक्रमण करने की उसकी योजना के बारे में पता चला तो उन्होंने उसके आक्रमण को रोकने के लिए शीघ्र ही कार्यवाही की । उन्होंने अनेक बेगों व उमराव को उसके विरुद्ध रवाना किया। इन बेगों व सैनिकों ने छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियों को आगे भेजा। हसन उनका सामना करने के लिए आगे बढ़ा। उसने इन दलों को उस स्थान पर जहाँ कि उन्होंने राति में पड़ाव डाला था, चारों ओर से घेर लिया और उन पर बाणों की वर्षा की। किन्तु रात्रि के अन्धकार में उसी के एक सेवक के कमान से एक तीर एकाएक छूटा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई । इस प्रकार हसन की योजना मिट्टी में मिल गई । वास्तव में उसने एहसान दौलत बेगम के प्रशासनिक गुणों को आँकने में त्रुटि की । वह सदैव उसे शक्तिहीन समझता रहा और यही सोचता रहा कि एक स्त्री व बालक उसका सामना कैसे कर सकेंगे । उसे यह बात कदापि मालूम न थी कि एहसान दौलत व बाबर, दोनों को ही इस समय वरिष्ठ उमराव जैसे ख्वाजा-ए-काजी, कासिम कुचान, तथा अली दोस्त तचाई का सहयोग प्राप्त है। सुलतान महमूद मिर्ज़ा, जो कि अपने ही राज्य में बहुत बदनाम हो गया था, के लिए अपनी ही योजना को कार्यान्वित करना घातक सिद्ध हुआ और उसने स्वयं ही अपने लिए कब्र खोद ली। दूसरे, हसन ने ऐसे समय बाबर के विरुद्ध पग उठाया, जिस समय उसके मित्र सुलतान महमूद मिर्ज़ा के लिए बहुत ही कठिन था कि वह समरकन्द छोड़ कर उसकी सहायता के लिए प्रस्थान कर सकता ।


 याकूब के पुत्र, हसन का मृत्यु के साथ ही वह खतरा भी टल गया, जिससे बाबर की प्रतिष्ठा को बभी भी हानि पहुँचने की सम्भावना है। सकती थी। हसन अन्दीजान का बहुत ही शक्तिशाली एवं प्रभावशाली उमराव था। हसन की मृत्यु के पश्चात् बाबर के भाग्य ने करवट ली । भाग्य ने उसका साथ देना प्रारम्भ किया। जनवरी, १४९५ ई० को उसके एक अन्य प्रतिद्वन्द्वी एवं विरोधी की मृत्यु हो गई । वह था समरकन्द का शासक सुलतान महमूद मिर्ज़ा ।' उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण बाबर को कुछ शान्ति अवश्य मिली, किन्तु उसके राज्य के आन्तरिक मामले उसके मस्तिष्क पर बोझ बने रहे । यद्यपि कुछ समय के लिए वह दक्षिण व उत्तर की ओर से आक्रमण करने वाले समरकन्द के शासक के हाथों से बचा रहा, फिर भी अब तक वह समय न आया था जबकि वह निकटवर्ती राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ करता और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाता ।


सुलतान महमूद मिर्ज़ा की मृत्यु के पश्चात् समरकन्द के राज्य की दशा बहुत ही खराब हो गई। चारों ओर आतंक छा गया । अमीरों के मध्य शक्ति तथा राज्य के विभाजन के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। स्वर्गीय सुलतान महमूद मिर्ज़ा के पाँच पुत्र और ग्यारह पुत्रियाँ थीं । दरवार में उसकी मृत्यु के समय उसके दो बड़े लड़के सुलतान मसूद मिर्ज़ा और सुलतान वैसन्गर मिर्ज़ा, हिंसार व बुखारा में थे। कुछ समय तक सुलतान महमूद मिर्ज़ा के वज़ीर खुसरो शाह ने अपने स्वामी की मृत्यु की खबर छिपा कर रखी। समरकन्द के राज्य को उसने हड़पने की चेष्टा की तथा शाही राजकोष पर अपना अधिकार जमा दिया। किन्तु वह अपना प्रभुत्व बहुत दिनों तक न बनाए रख सका । ओर फैल गई । अन्त में सुलतान महमूद मिर्जा की मृत्यु की खबर चारों समरकन्द की जनता, जो खुसरो शाह से घृणा करती थी, ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया। अहमद हाजी बेग और तरखानों ने इस विद्रोह को दबा दिया। उन्होंने खुसरो शाह को राजधानी से निकाल दिया और उसे कुछ संरक्षकों के साथ हिसार भेज दिया । 


इसके पश्चात् तरखानों ने उत्तरा- धिकार का प्रश्न वसन्गर मिर्ज़ा के पक्ष में तय किया और उसे बुखारा से आने के लिए निमंत्रित किया। वैसनगर के आने के पश्चात् उसे समरकन्द के सिहासन पर बैठाया गया । जैसे ही वह सिंहासन पर बैठा, समरकन्द में गड़बड़ियाँ पुनः प्रारम्भ हो गईं। सुलतान महमूद मिर्ज़ा के ज्येष्ठ पुत्र, सुलतान मसूद के राज्याधिकार को ठुकराने के कारण उमराव का एक और गुट बन गया । जुनैद बारलास के नेतृत्व में इन्हीं अमीरों ने चगुताइयों के महान् ख़ान सुलतान महमूद खान को, समरकन्द के आन्तरिक मामलों को सुलझाने व सुलतान मसूद के हितों की सुरक्षा करवाने के लिए आमंत्रित किया । सुलतान महमूद खान ने उनका निमन्त्रण स्वीकार किया और विशाल सेना लेकर समरकन्द पर आक्रमण कर दिया। कान बाई का दुर्ग विजित करने के लिए वह आगे बढ़ा । किन्तु वसन्गर मिर्ज़ा भी उसी समय उसको रोकने के लिए चल पड़ा । कान-वाई के निकट दोनों में घोर युद्ध हुआ । सुलतान महमूद ख़ान के सेनापति हैदर कोकुलदाश, जो कि रण-विद्या में बहुत कुशल था, ने अग्रिम दल का नेतृत्व किया। अभी युद्ध हो ही रहा था कि वैसन्गर की सहायता के लिए हिसार और समरकन्द से विशाल सेनाएँ आ पहुँचीं और उसने हैदर कोकुलदाश को बुरी तरह परास्त किया, उसे बन्दी बना लिया और मंगोल सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। जो लोग बन्दी बनाए गए उन्हें वैसन्गर मिर्ज़ा की उपस्थिति में क़त्ल कर दिया गया। क़त्ल किए हुए सैनिकों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि वैसनगर को तीन बार अपना शिविर एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाना पड़ा । 


कानबाई के युद्ध के उपरान्त, सन्गर, मिर्ज़ा ने निकटवर्ती राज्यों के सीमावर्ती प्रदेशों को जीत कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना प्रारम्भ किया। फिर भी उसकी आंख समरकन्द में होने क्योंकि वैसनगर की उसकी विशाल विजय सम्बन्धी योजनाओं के सामने बाबर को अपना कार्य- क्षेत्र सीमित ही रखना पड़ा। वाली दिन-प्रतिदिन की घटनाओं की ओर लगी रहीं। विस्तारवादी नीति उसके लिए घातक सिद्ध हो रही थी। उसके राज्य के छोटे- 1 छोटे टुकड़े धीरे-धीरे, उसके नए प्रतिद्वन्द्वी के हाथों में जाने लगे ।


कुछ ही महीनों के अन्दर बावर के एक मंगोल सरदार, इब्राहीम ने असफेरा के दुर्ग को विजित कर लिया और वहाँ सुलतान वसन्गर मिर्ज़ा के नाम का ख़तवा पढ़ा ।" इब्राहीम सुरु की बढ़ती हुई शक्ति से बाबर । चन्तित हुआ। असफेरा के दुर्ग को वापस लेने के लिए वह उस ओर बढ़ा। असफोरा पहुंच कर उसने दुर्ग पर घरा डाला और दीवारों को खोदना प्रारम्भ किया । इब्राहीम सुरु जब अकेला इस आक्रमण का सामना न कर सका तो उसने सन्गर को अपनी सहायता के लिए बुलाया। चूंकि सन्गर इस समय सुलतान महमूद खान के विरुद्ध व्यस्त था, अतः वह सहायक सेना असफेरा भेजने में असमर्थ रहा। कुछ समय तक इब्राहीम सुरु बाबर का सामना करता रहा । यद्यपि इस संघर्ष में बाबर को ख़ुदाए-विर्दी जैसे अफसरों से हाथ धोना पड़ा, किन्तु फिर भी वह अपने निश्चय पर अटल रहा। अन्त में विवश हो इब्राहीम सुरु को जून, १४९५ ई० में असफेरा का दुर्गं बाबर को समर्पित करना पड़ा। वह स्वयं अपने गले में तलवार लटका कर बाबर के सामने उपस्थित हुआ । बाबर ने उसे क्षमा कर दिया और अपनी सेवा में ले लिया । 


 शगावल ने वैसनगर मिर्ज़ा के हाथों में खोजन्द का दुर्गं समर्पित कर दिया। इससे कुछ दिनों पूर्व औरतिपा, जो कि उमर शेख मिर्ज़ा के हाथों में था, बाबर के हाथों से निकल कर सुलतान अली मिर्जा के अधिकार में आ गया। सुलतान अली अपने भाई बंसनगर मिर्ज़ा की ओर से वहाँ शासन करता रहा। इन प्रदेशों को खोने के साथ-साथ बाबर को अन्य समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। एक ओर तो वसन्गर मिर्ज़ा परछाई की तरह उसका पीछा कर रहा था, दूसरे इन प्रदेशों के हाथ से निकल जाने के कारण उसे आर्थिक हानि हुई, तीसरे जीगरक जैसी असभ्य जातियों में उत्पन्न जागरूकता के कारण उस पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। इन कठि नाइयों का सामना करते हुए भी, बाबर एक विशाल सेना लेकर खोजन्द को वापस लेने के लिए चल पड़ा। 


जैसे ही खोजन्द के दुर्ग के निकट वह पहुँचा, अब्दुल बहाव शगावल, दुर्ग की कुंजियाँ लेकर बाहर निकला और उन्हें बाबर के हाथों में सौंप दी। इससे पूर्व कि वह खोजन्द से उन जातियों को दबाने तथा उन्हें पूर्ण रूप से अपने अधीन करने का प्रयास करता, उसे ज्ञात हुआ कि सुलतान महमूद खान शाहरुखिया में पड़ाव डाले हुए पड़ा हुआ है । क्योंकि वह एक निकटवर्ती प्रान्त में उपस्थित था, बाबर ने उससे मिलने का विचार किया। अपने वास्तविक उद्देश्य पर तनिक भी प्रकाश न डालते हुए वह अपनी आत्म-कथा में केवल इतना ही लिखता है कि "वह मेरे पिता व बड़े भाई के समान हैं अतः मैं उसकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँ और पिछली घट- नाओं के कारण यदि उसके मन में मेरे प्रति कोई शंका हो तो उसे दूर कर दूं । वहाँ पहुँच कर मैं उसकी बातें निकट से सुन सकूंगा और उसके दरबार के बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकूंगा ।" उसकी इन बातों से यह पता चलता है कि अपने को कठिनाइयों से घिरा पाकर उसने सुलतान महमूद खान से मिल- कर उससे सहायता प्राप्त करनी चाही। उसके मामा और चाचा, सभी उसके शत्रु सिद्ध हो चुके थे । फिर भी सुलतान महमूद खान जो कि उसका मामा था, उससे उसे यह आशा थी कि वह मुसीबत की इन घड़ियाँ में उसकी सहायता अवश्य करेगा। दूसरे उसके लिए यह सुअवसर था कि वह अस्सी जाकर वहाँ की भौगोलिक दशा और आंतरिक मामलों की जानकारी प्राप्त कर से तथा खान को यह आश्वासन भी दिला दें कि उसके मन में किसी प्रकार को उसके विरुद्ध विचार नहीं है। 


कुछ भी हो, बिना किसी अन्य विचार के स्वच्छन्द मन से, बाबर अपने मामा सुलतान महमूद खान से, जो कि इस समय खिया के बाहर हैदरे कोकुलदास द्वारा लगाए हुए उद्यान में ठहरा हुआ था. भेंट करने गया। वह एक चार गुम्बद वाले शामियाने में, जो कि उद्यान के मध्य में लगाया गया था. बैठा हुआ था। बाबर इस भेंट के बारे में लिखता है कि मैंने उसके सामने तीन बार शुक कर उसका अभि- वादन किया. उसने खड़े होकर मेरा स्वागत किया। आंखों ही आंखों में हम एक दूसरे को देखते रहे, उत्पात वह अपनी जगह जाकर बैठ गया। मेरे अभिवादन करने के पश्चात् उसने मुझे अपने पास बुलाया और उसने मेरे प्रति सहयता एवं पूर्व व्यवहार किया।


मामा की यह मेटे विकुत ही साधारण थी। उन्होंने किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया और न ही बचाव या आक्रमण के सम्बन्ध मैं कोई सन्धि उन्होंने की। न ही उन्होंने भविष्य के लिए कोई भी योजना बनाई और न ही उन्होंने यह तय किया कि अपनी शक्ति को बढ़ाने व उसे सुदृढ करने के लिए एक दूसरे की क्या महायता कर सकते हैं। न ही इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने-अपने विचार हो प्रकट किए। इसके कई कारण थे। तंम्ररी शासन न तो मंगोली को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते देना चाहते थे और न ही उनसे व्यवहार को वे पसन्द करते थे । इस समय जबकि उसका स्वयंभव हो अंधकार में था. महान् खान के साथ संधि करने से उसे तनिक भी लाभ न होता। इसके विपरीत मंगोल के साथ सन्धि करना उन्हें अत्यधिक शक्ति बना देना सिद्ध होता। मंगोल के शक्तिशाली हो जाने से मध्य एशियाई राजनीति का सन्तुलन अवश्य बिगड़ जाता। तत्कालीन परिस्थिति में मूरी शासकों की शक्ति बनाए रखने के लिए यह ही उचित था कि महान् खान सुलतान महमूद खान को किसी प्रकार का अवसर न दिया जाय कि वह अपने प्रभुत्व को बढ़ा सके। अतः बिना संधि किए हुए, वह खान के पास से किन्दिरलिक दरों को पार करता हुआ अस्सी व अन्दीजान की ओर चल पड़ा। "


अख्सी पहुँच कर उसने अपने पिता के मज़ार के सामने सिर झुकाया और उसके चक्कर लगाए और फिर वह अन्दीजान की ओर बढ़ा। अन्दीजान की ओर बढ़ते समय उसने यह सोचा कि क्यों न वह एक विशाल सेना संयद कासिम बेग के नेतृत्व में, कश्ग़र व फ़रग़ना के मध्य रहने वाली जिगरक जाति से कर वसूल करने के लिए भेज दे। उसने ऐसा ही किया । जिगरक जाति बहुत ही धनी थी। उसके पास घोड़े, भेड़ें और याक अधिक से अधिक संख्या में थे परन्तु फिर भी वे सरलता से कर कभी न देते थे। दूसरे, कर वसूल कर के वह अपने सैनिकों के वेतन का भुगतान भी करना चाहता था । सैय्यद क़ासिम बेग़ ने वहाँ पहुँच कर २०,००० भेड़ें और १,५०० घोड़े कर के रूप में जिगरक जाति से वसूल किए और वे सब बाबर ने अपने सैनिकों को सन्तुष्ट करने के लिए उनमें बाँट दिए ।


 जिगरक जाति पर सफलता प्राप्त करने से बाबर के सैनिकों का हौसला बढ़ गया । उसने अपनी एक फ़ौज औरतिपा के दुर्ग को वापस अपने हाथों में लेने के लिए भेजा । बाबर की फ़ौज के आने की सूचना पाते ही, सुलतान अली मिर्ज़ा ने अपने संरक्षक शेख जुनून अरग़न को दुर्ग की रक्षा करने का भार सौंपा और स्वयं माहा के पहाड़ी प्रदेशों की ओर भाग खड़ा हुआ। अभी बाबर खोजन्द व औरतिपा के बीच में ही था कि उसने ख़लीफ़ा को शेख जुनून अर ग़न के पास भेजकर यह कहलवाया कि वह दुर्ग उसके सैनिकों को सौंप दें। किन्तु शेख ने ख़लीफ़ा को बन्दी बना लिया और आदेश दिया कि उसे मार 'डाला जाय । ख़लीफ़ा वहाँ से भाग खड़ा हुआ और अनेक मुसीबतों के पश्चात् वह बाबर के पास पहुँचा । शेख जुनून अरग़न को बहुत ही शक्तिशाली पाकर बाबर अन्दीजान वापस लौट गया। जैसे ही वह पीछे हटा, उसका मामा सुलतान महमूद खान, ज्येष्ठ खान एक विशाल सेना लेकर औरतिपा की ओर अग्रसर हुआ और उसने दुर्ग पर घेरा डाल दिया । दुर्ग की रक्षा अधिक समय तक न कर सकने पर शेख जुनून अरगून ने दुर्ग को ख़ान के हाथों में सौंप दिया । खान ने दुर्ग की रक्षा का भार मुहम्मद हुसैन गुरखान दोघुलत पर डाल दिया । इस प्रकार ९०८ हि० । १५०३ ई० तक मुहम्मद हुसैन के हाथों में औरतिपा का दुर्गं रहा । "


 यद्यपि इस अवसर पर बाबर को औरतिपा की विजय करने में कोई सफ- लता प्राप्त न हुई किन्तु फिर भी वह अपने भाग्य से सन्तुष्ट था । उसे यह सन्तोष था कि उसने अब तक इब्राहीम सुरु के विद्रोह का दमन कर लिया है, असफेरा और खोजन्द के दुर्गों को पुनः वापस ले लिया है, जिगरिक जाति से कर वसूल कर लिया है और अपने राज्य की सीमाओ को भलीभांति सुरक्षित कर लिया है। सैनिक दृष्टि से इन अभियानों में उसको सफलता उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण थी। इन अभियानों में सफलता मिलने के कारण उसमें आत्मविश्वास बढ़ा । वह अपने कार्य के प्रति जागरूक हुआ, और उसे अपनी नई समस्याओं व उत्तरदायित्व का आभास हुआ । अन्दीजान पहुँचने के उपरांत उसने युद्ध के लिए सामग्री एकत्रित एवं सैनिक संगठन करना प्रारम्भ किया । इसके पूर्व कि वह अपने किसी निकटवर्ती राज्य के शासक के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करे, उसके लिए ऐसा करना बहुत ही आवश्यक था ।


 एक ओर तो उसके हाथ अपनी तलवार की धार तेज करने में लगे रहे दूसरी ओर उसकी आंखें समरक़न्द को विजय करने के लिए लालायित रहीं । बचपन से ही समरक़न्द उसके मन में बस गया था । मध्यकाल में समर- क़न्द का राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व था। समरक़न्द का नाम अमीर तैमूर के बंभव एवं उसकी महानता से संलग्न था । समरखन्द एक व्यापारिक केन्द्र था तथा एक ऐसा शहर जहाँ कि विभिन्न जाति, धर्म एवं वर्ग के लोग आया जाया करते थे। यही नहीं उसका नाम उच्चकोटि के सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में लिया जाता था । मध्य एशियाई राजनीति का केन्द्र भी उसे माना जाता था। इस ऐतिहासिक शहर का स्वामी हो, मध्य एशियाई राजनीति में सक्रिय भाग लेने की आशा रख सकता था । यहाँ से किसी दिशा में वह अपनी तलवार को घुमा सकता था, किसी प्रदेश को विजित कर सकता था तथा एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न भी देख सकता था। यही कारण है कि समरकन्द सदैव बाबर के स्वप्नों में रहा। जीवन के प्रथम चरण में ऐसा कोई भी क्षण न था, जब कि समरक़न्द की ओर से इसका ध्यान हट गया हो या उसने समरकन्द की राजनीति में दिलचस्पी लेना बन्द कर दिया हो या वहाँ शासन करने वाले व्यक्तियों के बारे में उसने सोचना समाप्त कर दिया हो ।


महानु खान सुलतान महमूद खान की मंगोल सेनाओं को कान बाई के युद्ध में बुरी तरह परास्त करने के पश्चात् समरकन्द के शासक वंसनगर मिर्ज़ा को खुरासान के शक्तिशाली शासक सुलतान हुसैन मिर्ज़ा वैकुरा जो कि अमीर तैमूर के ज्येष्ठ पुत्र का वंशज था, का सामना करना पड़ा। इस समय वह अपने परिवार के सभी राजकुमारों से शक्तिशाली था। वह एक विद्वान् और सभ्य व्यक्ति था, जिसने अपने दरबार में अनेक साहित्यकारों, कलाकारों को आश्रय दे रखा था उसका दरवार बहुत ही शानदार और भव्य था । वह स्वयं महत्वाकांक्षी, साहसी और वीर था और सदैव अपने राज्य की सीमाओ का विस्तार करने का तथा अपने पड़ोसियों की कमजोरियों का लाभ उठाने का अवसर ढूंढ़ा करता था। 


अपनी राजधानी हिरात से वह अपने विशाल साम्राज्य पर शासन किया करता तथा साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों पर भी नियन्त्रण रखता था। यह देखकर कि वैसन्गर मिर्ज़ा गृह-युद्ध में फँसा हुआ है, सुलतान हुसैन मिर्ज़ा बैकरा एक विशाल सेना को लेकर हिसार की ओर बढ़ा। शीत- ऋतु के प्रारम्भ हो जाने पर उसने तिरमिज़ में पड़ाव डाल दिया । नदी के उस पार से सुलतान बेसनगर मिर्ज़ा के बड़े भाई सुलतान मसूद मिर्ज़ा ने उसे देख लिया, और वह एक विशाल सेना लेकर उस पर दृष्टि रखने के लिए आगे बढ़ा । तिरमिज़ के निकट उसने भी अपना पड़ाव डाल दिया । शीतकाल में दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की सेनाएँ एक दूसरे की गतिविधियों पर कड़ी निगाह डाले पड़ी रहीं। इसी बीच, खुसरो शाह ने अपनी स्थिति कुन्दुज में सुदृढ़ कर ली और अपने भाई वली को सुलतात मसूद मिर्ज़ा की सहायता के लिए रवाना किया । शीत ऋतु के समाप्त होते ही सुलतान हुसैन बैकरा, जो कि बहुत ही अनु- भवी सेनानायक था, नदी के किनारे तक आगे बढ़ गया, और कुछ दूर तक फासला तय करने के पश्चात् पुनः लौट पड़ा। 


तत्पश्चात् उसने धोसे से शीघ्र ही नदी को पार किया और सुलतान मनूद मिर्ज़ा की फौजों पर वह टूट पड़ा। सुलतान मसूद पर आकस्मिक आक्रमण न कर उसने अब्दुल को ५००-६०० सवारों के साथ उसी नदी के किलिफ नामक घाट की ओर रवाना किया। फिर दोनो सेनाओं ने नदी को पार किया और सुलतान मसूद मिर्ज़ा के सामने आकर डट गई। इस प्रकार सुलतान मसूद मिर्ज़ा ने अपने को दोनों ओर से घिरा पाया। बाक़ी भगनानी व उसके भाई ने उसे यह परामर्श भी दिया कि वह शीघ्र से शीघ्र आक्रमणकारियों पर आक्रमण कर दें किन्तु उसने उनकी बात न मानी । उसने अपने शिविर को उठा लिया और दुर्ग में शरण ले ली। सुलतान हुसैन मिर्जा बैंकरा हिसार के दुर्ग की और बढ़ा और उसने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। 


लगभग इसी समय उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र बदी उज़-ज़मान मिर्ज़ा के नेतृत्व में इब्राहीम हसन मिर्ज़ा और मुहम्मद बली बेग, जुनून अरगून के साथ दो सैनिक दल कुन्दुज की ओर भेजे, जहाँ खुसरो शाह डट कर बैठा हुआ था। उसने एक अन्य सैनिक दल, अपने दूसरे पुत्र मुजफ्फर हुसैन मिर्जा के नेतृत्व में मुहम्मद वरन्दुक बारलास के साथ, बुतलान पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सुलतान हसन बँकरा की इन सैनिक कार्यवाहियों की सूचना जैसे ही सुलतान मसूद मिर्ज़ा को प्राप्त हुई उसने तुरन्त हिसार का दुगं छोड़ दिया और समरकुन्द की ओर भाग खड़ा हुआ। वह काम-रुद की घाटी को पार कर, सरा तक के दरें से होकर समरक़न्द जाने के लिए चल पड़ा। अनेक कठिनाइयों के पश्चात् वह समरक़न्द पहुँचा जहाँ कि उसने अपने भाई बेसन्गर को सुलतान हुसैन मिर्ज़ा के आक्रमण की सूचना दे दी ओर उसे यह बताया कि शत्रु पर में घुस आया है। 


उसके हिसार छोड़ने के कारण चारों ओर आतंक छा गया। फिर भी बंसन्गर ने तनिक भी हिम्मत न हारी। बली तलान के दुर्ग की रक्षा करने के लिए मौट गया। इसी प्रकार बाकी बगनानी, महमूद बारलास और कुचबेग का पिता सुलतान अहमद यह सब व्यक्ति हिसार के दुर्ग में ही डटे रहे और उसकी रक्षा करने की चेष्टा में लगे रहे। अपने राज्य की सुरक्षा करने के हेतु इन सब कदमों के उठाने के पदचात् भी उज़बेग सैनिक यही सोचते रहे कि थोड़े ही समय में शत्रु को समरकन्द के राज्य को विजित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त हो जावेगी और उनके लिए यहाँ ठहरना निरर्थक है । अतः उनमें से अनेक उज़बेग सैनिक समरक़न्द को छोड़ कर चले गए। हमज़ा सुलतान और महदी सुलतान अपने उज़बेग सैनिकों के साथ करत- गीन चले गए। 


कुछ समय पश्चात् मुहम्मद दोघुलत और सुलतान हुसैन दोलत भी अपने मुगल सैनिकों के साथ उससे जाकर मिल गए। यह सोचकर कि कहीं यह लोग उसके राज्य में घुस कर गड़बड़ियाँ न पैदा करें या उसका ही पासा न पलट दें, सुलतान हुसैन मिर्ज़ा बैकरा ने इब्राहीम तरखान और याकूब-ए-अय्यूब को एक सेना के साथ उनका पीछा करने और उन्हें खदेड़ देने के लिए भेजा ।" सुलतान हुसैन मिर्ज़ा बैकरा के सैनिकों द्वारा करकतग़ीन से भगाए जाने पर, हमज़ा सुलतान, और उसका पुत्र भामक सुलतान, महदी सुलतान, मुहम्मद दोघुलत, उसका भाई सुलतान हुसैन दोघुलत, अन्य उज़बेगों व मुगलों के साथ अन्दीजान पहुँचे, जहाँ उन्होंने बाबर की शरण ली और वे उसकी सेवा में भर्ती हो गए (मई-जून १४९५ ई०) । 


यद्यपि इस समय बैसन्गर मिर्ज़ा का साथ अनेक उज़बेग व मुग़ल सैनिकों ने छोड़ दिया, फिर भी उसकी स्थिति में तनिक भी अन्तर न आया। हिसार के दुर्ग रक्षक उसकी रक्षा करते रहे । सुलतान हुसैन बैकरा दुर्ग के और निकट आ गया और उसने दुर्ग को विजित करने की हर तरह से चेष्टा की । यद्यपि हिसार के दुर्ग का घेरा बाबर ने स्वयं अपनी आंखों से न देखा था, फिर भी उसने इस घेरे का वर्णन बहुत ही उत्तम ढंग से किया है । वह लिखता है कि, “रात और दिन, किसी समय भी किसी को भी विश्राम करने का समय न था, प्रत्येक व्यक्ति दुर्ग की दीवारों की नींव को खोदने, उसको तोड़ने, और हथगोलों और चखियों से दुर्ग के अन्दर के लोगों को हताहत करने में व्यस्त था । दुर्ग की दीवारों में तीन या चार स्थानों पर दीवारें भेदी गई और उनमें बारूद भरा गया। जब एक दीवार में आगे द्वार तक बारूद बिछा दी गई तब दुर्ग के अन्दर के लोगों ने बारूद को हटा दिया और उसमें आग लगा दो जिससे कि मिर्ज़ा के लोगों को बहुत ही परेशानी हुई, उन्होंने उस स्थान को जहाँ से धुंआ आ रहा था वह छेद बन्द कर दिया जिससे धुंआ वापस लौट गया और उस धुएँ ने लोगों को मौत के मुंह से भगा दिया। 


अन्त में शहर के लोगों ने घेरा डालने वाला पर डोलों से पानी डाल कर उन्हें भगा दिया। दूसरे दिन शहर के लोगों का एक दल बाहर निकला और उसने मिर्ज़ा के आदमियों को जो दीवारों में बारूद भर रहे थे उन्हें वहाँ से भगा दिया। किन्तु एक बार मिर्ज़ा के शिविरों से हथगोलों व चखियों के निरन्तर आक्रमण के कारण, दुर्ग के उत्तरी ओर के बुर्ज में दरार पड़ गई और रात्रि में सोते समय की नमाज़ के समय वह बुर्ज गिर गया। उसी समय मिर्ज़ा के कुछ वीर सैनिकों ने उससे आक्रमण करने की अनुमति मांगी, किन्तु उसने यह कहकर कि "इस समय रात्रि है", उन्हें अनुमति देने से इनकार कर दिया । दूसरे दिन प्रातः होने से पूर्व दुर्ग के अंदर के लोगों ने बुर्ज को पुनः ज्यों का त्यो बना लिया। उस दिन भी दुर्ग पर कोई भी हमला न हुआ, वास्तव में दो या ढाई महीने की घेराबन्दी के इस दौरान में सिवाय दीवारों में छेद कर बारूद भरने, पत्थरों को फेंकने और दीवार को तोड़ने के, एक बार भी दुर्ग पर आक्रमण न किया गया। "" 


इस प्रकार जिस समय कि सुलतान हुसैन मिर्ज़ा बैकुरा हिसार के दुर्ग को लोहे जैसी दीवारों को तोड़ने में व्यस्त था, लगभग उसी समय, बदी- उज़-ज़मान मिर्ज़ा ने भी कुन्दुज के दुर्ग पर दो बार आक्रमण कर दुर्ग को विजित करने की चेष्टा की परन्तु बुसरो शाह ने दोनों ही बार उसके आक्रमणों को बेकार कर दिया। अन्त में बंदी उज़ ज़मान मिर्ज़ा को पीछे हटना पड़ा। वहाँ से चलकर तलीकान की अलघू पहाड़ियों में उसने पड़ाव डाला । खुसरो शाह ने अपने भाई बली को अन्य लोगों के साथ इस्कमिश तल तथा उसके निकट की पहाड़ियों में उसे घरने के लिए भेजा। इसी समय मुहिब अली भी आ पहुँचा। सुलतान नदी के तट पर उसने बदी उज् जमान मिर्ज़ा के कुछ आदमियों पर आक्रमण किया और उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । उसका अनुसरण करते हुए सईदीन अली व उसके छोटे भाई फ़ली बेग और बहुतोल-ए-उम्यूब तथा अन्य लोगों ने ख्वाजा चगिल के निकट अम्बर- कोह के किनारे खुरासानियों पर आक्रमण किया किन्तु वे सभी लोग भगा दिए गए ।


इस प्रकार कई मोर्चों पर समरकन्दियों व खुरासानियों में युद्ध होते रहे। इन युद्धों में समरकन्दियों को निरन्तर सफलता मिलती रही। हिसार में शिशिर ऋतु में होने वाली वर्षा के कारण आक्रमणकारियों को अनेक कष्ट उठाने पड़े। वैसनगर को अपनी अधीनता स्वीकार न कर दे सकने पर तथा दुर्ग विजित करने में जब सुलतान हुसैन बैकरा को कोई सफलता न प्राप्त हुई तो उसने सन्धि-वार्ता प्रारम्भ की। दुर्गवासियों की ओर से महमूद बारलास और शत्रु की ओर से भोजन चखने वाला, हाजी पीर के मध्य बात- चीत प्रारम्भ हुई। सुलतान हुसैन बैकरा ने सुलतान महमूद मिर्ज़ा की ज्येष्ठ कन्या बेगा बेगम, जो कि खान जादा बेगम से उत्पन्न हुई थी, से अपने पुत्र हैदर मिर्ज़ा जो कि पियान्दा बेगम से उत्पन्न हुआ था, का विवाह करना तय ठहराया। विवाहोत्सव होने के पश्चात् उसने घेरा उठा लिया और कुन्दुज की ओर रवाना हो गया । "


 कुन्दुज़ पहुँचकर हुसैन बैकरा ने दुर्ग के चारों ओर कुछ खाइयाँ खोदीं और दुर्ग पर घेरा डालने का प्रबन्ध किया। दो बार उसने खुसरो शाह पर आक्रमण किया, पर उसे कोई भी सफलता न प्राप्त हुई। कुछ समय उपरान्त बदी उज़-ज़मान के मध्यस्थ करने पर ही युद्ध में बनाए हुए बन्दियों का आदान-प्रदान हुआ और संधि हुई। इस प्रकार खुरासान के शासक सुलतान हुसैन बैकरा को, जिसने कि अपने राज्य की सीमाओ के विस्तार का स्वप्न देखा था, समरकन्द राज्य की एक इंच भूमि को बिना विजय किए हुए तथा बेसनगर के आत्मसम्मान को बिना ठेस पहुँचाए ही, बल्ख वापस लौटना पड़ा ।


 सुलतान हुसैन बैकरा की इस असफलता से तथा उसके अपने देश लौट जाने से बाबर को कुछ शान्ति मिली होगी । शक्ति के लिए किए गए .. इस सघर्ष में यदि वैसनगर की हार होती या सुलतान हुसैन बैकुरा युद्ध में परास्त हो जाता तो उसका प्रभाव बाबर के भाग्य पर अवश्य पड़ता । यदि कहीं सुनवान हुसैन बँकुरा समरकन्द के सिहासन पर बैठ जाता तो बाबर के स्वप्न अधूरे रह जाते । यदि, बाबर समरकन्द को विजय करने का प्रयास भो करता तो उसे इस समय सुलतान हसन बँकरा व वसन्गर मिर्ज़ा जैसे प्रतिद्वन्द्रियों के विरुद्ध सफलता भी न प्राप्त होती और एक पराजय से उसके राजनैतिक जीवन का अन्त हो जाता। यह अच्छा ही हुआ कि जीवन की इस विषम घड़ियों से, जबकि उसकी स्थिति करवाना ही में डाँवाडोल थी, बाबर बेसनगर व सुलतान हुसैन मिलों के संघर्ष को दूर से देखता रहा । तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों को देख कर उसे आभास हुआ कि एक न एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में उसे सफलता अवश्य प्राप्त होगी ।


 इसी वर्ष रमजान के महीने में (मई-जून १४९६ ई०) में तरखानियों ने समरकन्द में विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के कई कारण थे। कुछ दिनों से बेसनगर मिज हिसार से आने वाले लोगों, जिनमें से कुछ उसके बचपन के साथी थे, उनके प्रति अधिक सहानुभूति प्रदर्शित करने लगा था। उसके उमराव में सबसे प्रिय शेख अब्दुल्लाह वारलास था। अब्दुल्लाह बारलास के पुत्रों के साथ बंसनार के घनिष्ठ सम्बन्ध थे। यह बात न तो तर खान और न समरक़न्दी उमराव सहन कर सके। उन्होंने उसे गद्दी पर से हटाने व उसके छोटे भाई सुलतान अली को सिहासन पर बैठाने के लिए षड्- यन्त्र रचा। बुख़ारा से दरवेश मुहम्मद करशी गया और वहाँ से सुलतान अली मिर्ज़ा को समरक़न्द ले आया और उसे सुलतान घोषित कर दिया। 


इसके पश्चात् षड्यन्त्रकारी नव-उद्यान में चले गए। उन्होंने वसन्गर को बन्दी बना लिया । उसके साथ बन्दो की तरह व्यवहार किया और फिर उसे दुर्ग में ले गए, जहाँ कि दोनों मिर्जाओं को उन्होंने एक स्थान पर बैठा दिया । षड्यन्त्रकारियों ने उसके पश्चात् वसन्गर को गुसराय भेजने का विचार किया, जहाँ कि तैमूर के वंशज या तो जब किसी को सिहासन पर बैठाना होता था अथवा मौत के घाट उतारना होता था या उन्हें अन्धा करना होता था ले जाते थे। बेसनगर बहाना बनाकर चुस्तान सराय के पूर्व स्थित एक शाही महल में चला गया। तरखान महल के द्वार पर खड़ के खड़े हो रह गए. बेसनगर वहां से मुहम्मद कुली कुचीन और हसन के साथ भाग निकला । जब तरक्षानियों को इस बात की सूचना मिली तो यह पता लगा कर कि यह कहाँ छुपा हुआ है उस ओर चल पड़े। 


उन्होंने ख्वाजा की स्वाजा, जिसने कि बैन्सगर को शरण में रखा था, से अनुरोध किया कि वह उसे सौंप दें। किन्तु ख्वाजा ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया और वे भी उसे बाध्य न कर सके, क्योंकि उनकी दृष्टि में ख्वाजा का बहुत ही मान था। कुछ दिनों पाश्चात् ख्वाजा अल्दुल मकरम अहमद हाजी वेग और कुछ अन्य उमराव सैनिक और शहर के निवासियों ने तरखानों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वे वसन्गर को ख्वाजा के भवन से ले गए और सुलतान अली मिर्ज़ा वरखानों को उन्होंने दुर्गं में घेर लिया और दुर्ग की घेराबन्दी प्रारम्भ कर दी । तरखान उनके सामने न ठहर सके । अतः वे दुर्ग से निकल कर इधर-उधर भाग गए। मुहम्मद मजीद तरखान बुख़ारा चला गया। सुलतान अली मिर्ज़ा और दरवेश मुहम्मद तरखान बन्दी बना लिए गए। दरवेश मुहम्मद को मार डालने के लिए आदेश दिया गया ।" सुलतान अली को अन्धा बनाने के लिए उसे गुक सराय ले जाया गया जहाँ उसकी आँखों में गर्म सलाई फेरी गई । किन्तु सलाई फेरने वाले की चतुरता से उसकी आँखें बच गई, और दुर्ग से भाग कर वह ख्वाजा यहिया के पास चला गया, जहाँ से वह चल कर तरखानों के पास बुख़ारा पहुँचा । सुलतान अली के बुखारा भाग जाने के कारण समरक़न्द में पुनः राजनैतिक उथल-पुथल प्रारम्भ हुई । 


जैसे ही बंसन्गर मिर्ज़ा को यह मालूम हुआ कि उसका अनुज सुलतान अली मिर्ज़ा बुखारा पहुँच गया है। और तरखानों से जाकर मिल गया है, वैसे ही एक सेना के साथ उसने उस ओर कूच किया। उसके आगे बढ़ते ही, सुलतान अली मिर्ज़ा शहर के बाहर निकल आया । उसने अपनी सेनाओं को रणभूमि में उतारा और युद्ध में बैसन्गर को बुरी तरह परास्त किया । परा- जित होकर वैसन्गर सीधे अपने राजधानी समरकन्द की ओर भागा।


 जब बाबर को बेसनगर की पराजय की सूचना प्राप्त हुई उस समय समरक़न्द गृह-युद्ध में फँसा हुआ था । उसकी इस पराजय से प्रोत्साहित होकर बाबर ने समरकन्द पर आक्रमण करने, उसे विजित करने और अपने पूर्वज अमीर तैमूर के सिंहासन पर बैठने का निश्चय किया। यद्यपि उसकी आयु इस समय केवल चौदह वर्ष की ही थी और किसी भी भांति बसनार व सुलतान अली से वह शक्तिशाली न था, और न उसके पास असीमित साधन ही थे, किन्तु फिर भी वह उसने टक्कर लेने के लिए इच्छुक था। ऐसा प्रतीत होता है कि समरकुन्द की आन्तरिक दशा ने ही उसे एवं उसके चचेरे भाइयों, सुलतान अली मिर्ज़ा तथा सुलतान मसूद मिर्ज़ा की उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया। 


सुलतान अली मिर्जा और सुलतान मसूद मिर्ज़ा, जो कि स्वयं तैमूर के वंशज थे, समरकन्द के सिहासन का उत्तराधि- कारी बाबर को अवश्य मानते थे, और यह भी समझते थे कि संमूर के सिहासन पर जितना उनका अधिकार है, उतना ही उसका, और वे यह भी चाहते थे कि यदि उसका अधिकार समरकन्द पर हो जावे तो न केवल बंसनगर से बदला लेने ही में सफल होंगे बल्कि तैमूरी राज्यों में सन्तुलन भी स्थापित हो जायेगा। दूसरे, इसी समय पश्चिम की ओर से उजवेगों की बढ़ती हुई शक्ति उन सभी तैमुरी शासकों के लिए भयानक सिद्ध हो रही थी। तीनो मिलकर उज़बेगों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का विचार भी रखते थे । तीसरे, तीनों शासकों को बैरान्गर के विरुद्ध कुछ-न-कुछ शिकायत थी, जिसके फलस्वरूप, तीनों ने मिलकर समरक़न्द पर आक्रमण करने की योजना बनाई और समरक़न्द पर आक्रमण किया। 


सुलतान अली मिर्ज़ा ने समरकन्द के दुर्ग को विजित करने का दृढ़ संकल्प किया और उसने दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया। अभी दुर्ग का घेरा चल ही रहा था कि सुलतान मसूद, जिसकी इन्द्रियों वश में न थीं, को समरकुन्द की एक स्त्री से प्रेम हो गया, जिसके फलस्वरूप इस अभियान में अन्य दो साथियों को वह पूरा-पूरा सहयोग न दे सका। बाबर को युद्ध सम्बन्धी ज्ञान भी न था, जो कि सुलतान अली की पूर्णरूप से सहायता करता। कुछ भी हो तीनों व्यक्ति तीन अथवा चार महीनों तक समरकन्द के दुर्ग का घेरा डाले पड़े रहे। दुर्ग की दीवारों में छेद करके वारूद भर सकने में सफलता न पाकर तीनों ने आपस में स्थिति पर विचार-विमर्श किया। शीत ऋतु के प्रारम्भ होने के कारण, उन्होंने यह तय किया कि वे अपनी-अपनी राजधानियों को वापस लौट जाएँगे । सुलतान अली और बाबर ने आपस ही में समझौता किया कि वे अगले वर्ष पुनः समरकन्द को विजय करने की चेष्टा करेंगे।' इस प्रकार पहाड़ियों  को पार कर, बाबर करताना वापस लौट गया। 


फरगना पहुँचकर उसने अपना ध्यान सेना के संगठन की ओर दिया। सुलतान मसूद मिर्ज़ा, जो कि शेख अब्दुल्लाह बारास की पुत्री के प्रेम में बुरी तरह फँसा हुआ था, ने उससे विवाह कर लिया और हिसार वापस लौट गया। उसने वैसन्गर को पराजित करने व समरकन्द को विजित करने की महत्वाकांक्षा को तिलांजलि दे दी । सुलतान मसूद के इस व्यवहार से बाबर के हृदय को ठेस अवश्य पहुँचती होगी, क्योंकि वह समरकन्द इसी उद्देश्य से गया था कि उन दो भाइयों की सहायता से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। परन्तु सुलतान मसूद के कारण वह ऐसा न कर सका। हाँ, समरवन्द को देखने का उसे अवसर अवश्य मिल गया।"


समरकन्द के इस असफल अभियान के साथ, बाबर के जीवन का प्रथम चरण समाप्त होता है । फरसाना के सिहासन पर बैठने के पश्चात् वह राज- नैतिक गतिविधियों को समझने में लगा रहा। उसने अपने को महत्वाकांक्षी और वरिष्ठ उमराव वर्ग द्वारा घिरा हुआ पाया। उसने देखा कि उमर शेख मिर्ज़ा के उमराव विभिन्न गुटों में विभाजित हो गए हैं, और प्रत्येक गुट अपने ही हाथों में राजनैतिक शक्ति लेना चाहता है। मंगोल व उज़बेग सैनिकों व उमराव के आचरण, उनके व्यवहार तथा अपने चाचाओ व मामाओं, चचेरे भाइयों के आपसी सम्बन्ध, उनके व्यवहार तथा उसके प्रति उनके विचारों को उसने समझने की चेष्टा की । उसे यह समझने में देर न लगी कि फरगना का राज्य आंतरिक एवं बाह्य शत्रुओं से घिरा हुआ है। शासक, उमराव, सैनिक सभी, राजतीतिक दाँव-पेंच में फंसे हुए हैं। यद्यपि वह केवल एक बालक ही था, जिसने अभी केवल चौदह शरद् ऋतुएँ और चौदह ग्रीष्म- ऋतुएँ ही देखी थीं किन्तु ऐसी कोई भी बात न थी जिसे वह समझ न सका। कोई भी चिन्ता, कोई भी कठिनाई, उसे अपनी प्रतिभा को विकसित करने और अपने निश्चय पर डटे रहने से न रोक सकी। 


अपनी दादी एवं राज्य के वरिष्ठ उमराव जो कि उसके पक्ष में थे, उनके सहयोग से वह शासन के विभिन्न अंगों को समझने व संभालने का प्रयास करता रहा। सुलतान हुसैन बँकुरा द्वारा हिसार का घेरा, अपने चचेरे भाइयों द्वारा समरकन्द के दुर्ग का घेरा और अनेक युद्ध अभियान जिसमें कि उसके परिवार के सदस्यों ने भाग लिया तथा जिनकी चर्चा वह अपनी आत्मकथा में करता है, उससे उसने कुछ सीखा और कुछ ज्ञान प्राप्त किया। अब तक स्वयं वह कुछ गिने-चुने अभियानों में हो भाग ले चुका था, किन्तु अन्य अभि- मानों एवं युद्धों के विषय में जानकारी उसे प्राप्त हुई, उसके आधार पर उसे अवश्य ज्ञात हो गया कि अभियान कैसे ले जाए जाते हैं, युद्ध-योजना कैसे बनाई जाती है, दुर्ग पर किस प्रकार घेरा डाला जाता है तथा युद्ध किस प्रकार लड़े जाते हैं। 


बाबर की दादी एहसान दौलत बेगम ने उसको बाल्यावस्था में अमीर तंमूर व चंगेज खां के पराक्रम की जो कथाएँ सुनाई, उसका भी प्रभाव उसके मस्तिष्क पर पड़ा। इसी प्रकार, ख्वाजा अब्दुल्लाह अहरारी जैसे महान् सन्त के शिष्यों, एहसान दौलत बेगम जैसी वीरांगना और ख्वाजा मुहम्मद काज़ी जैसे कुशल प्रशासक तथा समकालीन राजनैतिक वातावरण ने ही उसके विचारों एवं मस्तिष्क को एक स्वस्थ रूपरेखा प्रदान की और उसे निर्भीक एवं साहसी बनाया।


बाबर का समरकंद विजय अभियान पढ़ें: - 

 

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