महात्मा मोसेस (Saint Moses story & Biography in hindi)
यहूदी जनजाति के प्राण महात्मा मोसेस महात्मा बुद्ध, महर्षि स्वामी दयानंद और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समान महान् थे। अपनी मौलिक चिंतन-धारा एवं गहन विचारशील प्रवृत्तियों के आधार पर यहूदी जाति के सरंक्षण एवं उद्धार के लिए उन्होंने वही कार्य किया, जो हिन्दू जाति और उसकी संस्कृति के संरक्षण एवं उद्धार के लिए महात्मा बुद्ध, महर्षि स्वामी दयानंद और स्वामी रामतीर्थ ने किया। मोसेस ने यहूदियों के लिए सामाजिक जीवन की रचना की। उन्होंने उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक कानून बनाए। वे कानून सर्वथा बोधगम्य एवं पठनीय हैं। मोसेस वस्तुतः यहूदी समाज के वैधानिक व्यवस्थापक थे। उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षा संबंधी नियम भी बहुत उपयोगी और समयानुकूल थे। उनके शैक्षणिक विचार आज भी महत्त्वपूर्ण हैं.
यहूदी बाइबिल के द्वितीय भाग नूतन सुसमाचार या न्यू टेन्टामेंट (New Testament) में महात्मा मोसेस की कथा आती है। महात्मा मोसेस हजरत मूसा के सुप्रसिद्ध नाम से हमलोगों के समाज में प्रसिद्ध हैं ।1600 ई० पूर्व के उत्तरार्द्ध में मिस्र में क्रांति हुई। इस क्रांति में सम्राट् फराओ सत्तारूढ़ होने में पुनः समर्थ हो गया। सम्राट् फराओ ने गद्दी पर बैठते ही यहूदियों पर अत्याचार प्रारंभ कर दिया। मिस्र के सभी यहूदी गुलाम घोषित कर दिए गए तथा उन पर विभिन्न प्रकार की सख्तियाँ बरती जाने लगीं। यहूदियों पर कड़ा पहरा रहता था, उन्हें मिस्र से बाहर जाने की भी अनुमति नहीं थी।
इस अत्याचार का रूप कितना विकराल था, वह सम्राट् फराओ की इस आज्ञा से सहज अनुमान किया जा सकता है, जब उसने कहा था कि "प्रत्येक यहूदी स्त्री के गर्भ से यदि लड़की उत्पन्न हो तो छोड़ दी जाए, परंतु लड़का उत्पन्न हो, तो कत्ल कर दिया जाए।" मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड इन यहूदी गुलामों के कठिन परिश्रम द्वारा ही बनवाए गए हैं T मूल मिस्रवासियों द्वारा यहूदियों पर इस अत्याचार का प्रमुख कारण था कि मिस्र में प्रायः पाँच शताब्दी तक रहने के बावजूद हिक्कास (Hykaos)
जाति द्वारा मिस्र पर जब बाहरी आक्रमण हुआ, तो यहूदी जाति ने मिस्रवासियों के विरुद्ध हिक्कास जाति का पक्ष लिया था। विजयी हिक्कास जाति द्वारा जब यहूदियों को विशेष सुविधा मिलने लगी, परंतु शीघ्र समय-चक्र परिवर्तित हुआ और फराओ गद्दी पर आसीन हुआ। इसी समय Moses का जन्म हुआ। मोसेस की माता ने तीन महीने तक तो इन्हें छिपाए रखा, अंत में उनकी एक टोकरी में डाल कर नदी किनारे रख दिया। उनकी मौसी उस स्थान पर यह देखने के लिए खड़ी थी कि कौन व्यक्ति उन्हें उठा कर ले जाता है। इसी समय सम्राट् फराओ की लड़की नदी किनारे स्नान करने आई तथा बच्चे को उठा कर ले गई। मोसेस की मौसी तब सम्राट्-कन्या के निकट गई और उसने पूछा कि "कहिए तो किसी धाई को बुला लाऊँ ?" उसने उसकी बातों का समर्थन किया।
मोसेस की मौसी शीघ्र ही मोसेस की माँ को बुला लाई। इस प्रकार शाही महल में ही मोसेस का उनकी माता द्वारा पालन-पोषण होने लगा, जब कि दूसरी ओर सम्राट् फराओ यहूदियों के सर्वनाश के प्रयत्न में लगा हुआ था। मोसेस क्रमशः सयाना हुए। यहूदियों पर हो रहे अत्याचार उन्हें असह्य होने लगे। उस समय किसी यहूदी को मार डालना कोई अपराध नहीं था, परंतु किसी मिस्रवासी की हत्या अक्षम्य थी।
एक दिन Moses ने एक यहूदी को पिटते देख मारने वाले मिस्रवासी की हत्या कर डाली तथा शव को एक झाड़ी में छिपा दिया। उन्होंने सोचा कि उनके इस कार्य को किसी ने नहीं देखा है। परन्तु, यह भेद छिपा नहीं रह सका। पकड़े जाने के भय से मोसेस को मीडिया भागना पड़ा। मीडिया में अपने भाइयों के अत्याचार से वे बहुत दुःखी हुए। इसी समय यहूदी जाति के प्रधान और आदिदेव जेहोवा ने उनको संबोधित करते हुए कहा-'मैं तेरा पितामह या परमेश्वर हूँ। अब्राहम, जेकब, आइजक की रक्षा करनेवाला हूँ।
अब मैं मिस्र में हो रहे यहूदियों पर अत्याचार से उद्धार के लिए उतरा हूँ। अब मैं उन्हें पुनः कनाल ले जाऊँगा, जहाँ दूध और शहद की नदियाँ बहती हैं।" इस घटना से मोसेस को प्रबल शक्ति उत्पन्न हुई तथा वे पुनः मिस्र पहुँचे और उन्होंने क्रांति का झंडा खड़ा किया। वे 'मिस्री सेना के पीछा करने के बावजूद, यहूदियों को मिस्र के बाहर निकाल लाने में समर्थ हुए। भागे हुए यहूदी मीडिया देश में आ बसे। मीडिया में मोसेस ने अपनी शादी की। उनको एक दिन यहाँ के दर्शन हुए। उनको ईश्वर ने एक करामाती लाठी दी तथा यहूदियों के उद्धार पुनः ईश्वर का आदेश दिया। इस प्राप्त शक्ति के फलस्वरूप वे यहूदियों को लालसागर के पूर्व की ओर लाने में समर्थ हुए। सिनाई पर्वत पर उनको पुनः भगवान के साक्षात्कार हुए।
भगवान ने उनको इस बार यहूदियों के कर्तव्य और न्याय का आदेश दिया। ये ईश्वरी आदेश मोसेस की पुस्तक "एकसोडस' के बीसवें अध्याय में वर्णित हैं । मोसेस ने इन्हीं आदेशों का प्रचार किया है। प्रायः पाँच सौ वर्षों पश्चात् यहूदी पुन: फिलस्तीन लौट कर आए। इस समय यहाँ की दशा में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका था । यहाँ यहूदियों को जहाँ जगह मिली, बस गए। महात्मा मोसेस 120 वर्ष की आयु में जोशुआ को अपना धार्मिक उत्तराधिकारी बना कर दिवंगत हुए।
मोसेस ( Moses) के शिक्षा दर्शन का प्रथम उद्देश्य था-सरल जीवन एवं उच्च विचार (Sirnple living and high Thinking) । यहूदी जाति की अत्यधिक उन्नति का मुख्य कारण है कि उन्होंने सरल जीवन एवं उच्च विचार के सिद्धांत को अपने जीवन में धारण किया। महर्षि स्वामी दयानंद और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने भी मानव जीवन के लिए सरल जीवन एवं उच्च विचार' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। किसी भी समाज अथवा राष्ट्र की उन्नति तभी हो सकेगी, जब वहाँ के नागरिकों का विचार उच्च होगा।
विचारों की उच्चता के पश्चात् ही मनुष्य में मानवोचित गुणों का आविर्भाव होता है, श्रेष्ठता के लक्षण आते हैं तथा वे शक्तियाँ उसके अंदर प्रादुर्भूत होती हैं, जिनके सहारे वह अपना ही नहीं अपितु अपने समाज, राष्ट्र और विश्व तक का कल्याण करता है। जीवन में सरलता के आविर्भाव के पश्चात् ही उच्च विचारों की ओर हम उन्मुख होते हैं। अतः, श्रेष्ठ मनुष्य का लक्षण है कि वह 'सरल जीवन एवं उच्च विचार' के सिद्धांत को ध रण करे। प्राचीन एथेंस के नगर राज्य के निवासियों का जीवन अत्यंत सरल था, फलत: उन्होंने इतिहास प्रसिद्ध उन्नति की।
महात्मा मोसेस ( Saint Moses) शिक्षा में धर्म की प्रधानता स्वीकार करते थे। उनका स्वतः व्यक्तिगत जीवन विशेष धार्मिक था। उनको अपने में विशेष अवसरों पर किसी अलौकिक सत्ता की सहायता भी उपलब्ध हुई थी, जिसके प्रेरणास्वरूप वे यहूदी जाति के पुनरूद्धार में पूर्णत: सफल हुए थे । अतः, शिक्षा की जो रूपरेखा उन्होंने तत्कालीन यहूदी समाज के लिए निर्धारित की, उसमें धर्म और नैतिकता की प्रधानता स्वाभाविक थी।
मोसेस संपूर्ण संसार के आदिदेवता जेहोवा को दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति मानते थे। उनका एवं समस्त यहूदी जाति का यह विश्वास था कि मनुष्य की सभी शक्तियाँ तथा जीवन के सभी नियम आदि ईश्वर प्रदत्त हैं। उन्होंने दैनिक जीवन में भी नैतिकता को स्थान दिया। धार्मिक एवं नैतिक जीवन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया गया था।
यहूदी समाज में धार्मिक एवं नैतिक जीवन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया गया था। अतः, बालकों की प्रारंभिक अवस्था से ही इसकी शिक्षा की व्यवस्था की गई थी। यहूदियों की प्रारंभिक शिक्षा के विषयों में उन बातों का समावेश किया गया. जो विद्यार्थियों में धार्मिक भावना का विकास करते थे तथा ईश्वर से यह भय उत्पन्न करते थे। धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा बच्चों की प्रगति में बड़ी सहायक थी।
यहूदियों का सरल सात्विक जीवन, जिसमें धर्म और नैतिकता की भावना प्रबल होती थी, उन्नति और प्रगति की बातों को सोचने के लिए स्वतः प्रेरित करता था। आज भी यहूदी जाति की उन्नति और प्रगति का प्रमुख कारण है कि वे अपनी और अपनी जाति की उन्नति के लिए सदैव सचेष्ट बने रहते हैं। मोसेस की शिक्षा नीति के फलस्वरूप उन्होंने अपने जीवन में सादगी के सिद्धांत को अपनाया तथा धार्मिक और नैतिक तत्वों का समावेश कर उसका आधार सुदृढ़ एवं पुष्ट किया।
शिक्षा में धार्मिक और नैतिक तत्त्वों के समावेश तथा इसकी प्रमुखता के कारण यहूदियों की सर्वांगीण प्रगति प्रारंभ हुई। उनका नैतिक तथा चारित्रिक विकास तो हुआ ही, उनमें सहयोग, संगठन, सामाजिकता तथा भ्रातृत्व भावना का भी प्रस्फुटिकरण हुआ। पश्चिमी सभ्यता के इतिहास में सर्वप्रथम यहूदियों ने ही एक ईश्वर 'जेहोवा' की सत्ता स्वीकार की। इस धार्मिक श्रद्धा और ईश्वर-विश्वास की भावना के फलस्वरूप यहूदियों में विभिन्न सामाजिक गुणों का आविर्भाव हुआ, जो उनकी भावी उन्नति में बड़ी सहायक सिद्ध हुई।
महात्मा मोसेस की शिक्षा में केवल धार्मिक एवं नैतिक तत्त्व ही नहीं, अपितु व्यावहारिक तत्त्व भी वर्तमान थे। उनकी शिक्षा पूर्णतः व्यावहारिक थी। वे जीवन को उपयोगी बनाना चाहते थे, केवल सैद्धांतिक नहीं। वे धर्म का मर्म जीवन में उतारना चाहते थे। अतः, यहूदियों के लिए उन्होंने वैसी शिक्षा की व्यवस्था की. जिसमें यहूदियों का जीवन पूर्णतः सफल हो। वे पराक्रमी नहीं हों, अपितु सच्चे रूप में एक दिन स्वतंत्र नागरिक के गुणों से युक्त होकर सुखी और सफल जीवन व्यतीत कर सकें।
अतः, उन्होंने शिक्षा में सीखने के साथ कार्य करने का (Learning by doing) भी महत्त्व प्रदान किया। कार्य करते हुए बच्चे ज्ञान ग्रहण करें। शिक्षा के इस उपयोगी माध्यम के फलस्वरूप ही यहूदी आज भी विश्व में इतने उन्नतशील बने हुए हैं। 'कार्य की आधारभित्ति पर बालक ज्ञान की उपलब्धि करें' किसी काम को माध्यम बना कर वे सीखें' मोसेस की यह कल्पना कितनी मनोवैज्ञानिक और महत्त्वपूर्ण है ! एक धार्मिक विचारक होते हुए भी शिक्षा-जगत के लिए उनकी यह अनोखी सूझ आज भी हमारे लिए सर्वथा स्तुत्य है; क्योंकि यह परम उपयोगी और समयानुकूल है। शिक्षा पुस्तकीय नहीं- शिक्षा व्यावहारिक हो, शिक्षा
सिद्धांतमूलक नहीं अपितु वस्तुमूलक हो, शिक्षा हमारे जीवन की समस्याओं से संबद्ध हो, शिक्षा उपयोगी हो केवल बौद्धिक नहीं आदि सिद्धांतों की कलपना 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में यथार्थवादी विचारकों एवं शिक्षाशास्त्रियों द्वारा हुई । फ्रांसिस बेकन, जॉन लॉक, कॉमेनियस, रॉवेल, रॉट्रके, मिल्टन, मॉन्टेन, मुलकास्टर, हरबर्ट स्पेंसर, हक्सले जैसे विश्व के प्रमुख शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य द्वारा सीखने के सिद्धांत का समर्थन किया है। 'क्रिया के आधार पर प्रशिक्षण' और 'कार्य करके सीखना', यथार्थवादी शिक्षा की विशेषता है।
यथार्थवादी शिक्षाशास्त्री इस तथ्य में विश्वास करते हैं कि बालक कार्य प्रणाली का आश्रय लेकर अपनी शिक्षा, अनुभव के आधार पर ग्रहण करें। एथेंस के नगर राज्य में जनतंत्र की प्राणदायिनी शक्ति का बीजवपन करनेवाले विश्व के प्रमुख शिक्षाशास्त्री महात्मा सोलेन, भारतीय शिक्षा के इतिहास में बुनियादी तालीम के अधिष्ठाता महात्मा गांधी तथा शिक्षा में मनोविज्ञान तथा सामाजिक पक्ष के पोषक डॉ० जॉन डिबी कार्य के आधार पर बालकों को शिक्षित करने की सिफारिश करते हैं। रोमी शिक्षा में भी 'करके सीखने' की पद्धति को प्रमुखता प्रदान की गई है। अरस्तू की शिक्षा-पद्धति का आधार 'अनुभव' था। बेकन का विचार था कि ज्ञान अनुभव का परिणाम है। ज्ञान की उपलब्धि अनुभव ही हो सकती है। अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान विशेष स्थायी एवं हितकारी होता है। लॉक इसका पूर्ण समर्थक था कि ज्ञान अनुभव द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए। परंतु, सर्वप्रथम महात्मा मोसेस ही ऐसे व्यक्ति मालूम पड़ते हैं, जिन्होंने 'कार्य द्वारा जानने' अथवा 'अनुभव द्वारा ज्ञान ग्रहण करने' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। शिक्षा जगत को अपनी इस बहुमूल्य देन के फलस्वरूप वे सर्वदा और सर्वथा वंदनीय हैं
यहूदियों के यहाँ एक नियम है, जिसे वे 'मिशना' (Mishnah) कहते हैं। इस नियम के अनुसार केवल शिक्षा ग्रहण करना ही आवश्यक नहीं है, अपितु कार्य करने की क्षमता भी आवश्क है, (Not learning but doing is the chief thing according to their oral law known as Mishanh.-F. P. Graves) । इस प्रकार मोसेस द्वारा प्रदत्त यहूदी शिक्षा जीवन को उपयोगी बनाने के लिए उन बातों को सिखाना आवश्यक समझती थी, जिनके आधार पर जीवन की आवश्यकताएँ पूरी की जा सकें। मोसेस शिक्षा में व्यावसायिक प्रवृत्ति तथा व्यावहारिक सिद्धांतों के पूर्णतः समर्थक थे ।
वर्तमान युग में भी व्यावसायिक शिक्षा की महत्ता पूर्णतः स्वीकार की गई है। सभी आधुनिक शिक्षाशास्त्री और एतत्-संबंधी विचारवान् लेखक इस सिद्धांत के समर्थक हैं कि शिक्षा वैसी हो, जिससे बालक अपने भावी जीवन में किसी
व्यवसाय को अपनाकर सुखी जीवन व्यतीत कर सकें। बालक अर्थोपार्जन की असुविधा के कारण परमुखापेक्षिता तथा अहंमन्यता की संभावना के शिकार नहीं बने । भारतप्रसिद्ध संन्यासी विवेकानंद, भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तथा यूरोपीय देशों के प्रमुख शिक्षाशास्त्री हरवर्ट स्पेंसर, रॉवेल और लॉक पेत्सालात्सी आदि ने दृढ़तापूर्वक व्यावसायिक शिक्षा के प्रचलन का समर्थन किया है। कितने आश्चर्य की बात है कि शताब्दियों पूर्व महात्मा मोसेस ने व्यावसायिक शिक्षा की महत्ता को समझा था तथा इसे यहूदी शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाने का आदेश दिया था।
महात्मा मोसेस ने यहूदी जाति की सर्वांगीण उन्नति, उनकी धार्मिक-नैतिक प्रगति तथा क्रियाशीलन की प्रवृत्ति के विकास के लिए यह आवश्यक समझा कि शिक्षा को अनिवार्य बनाया जाए। शिक्षा ही किसी जाति की प्राण है, उसकी उन्नति एवं प्रगति का आधार है। यह वह अमोघ शक्ति है, जिसका प्रयोग कर वे विश्वविजयी बनते हैं, अपनी सभ्यता-संस्कृति की रक्षा करते हैं तथ जगत में मान- सम्मान प्राप्त करते हैं। शिक्षा किसी जाति के नैसर्गिक गुणों के विकास हेतु महान् शक्ति है। शिक्षा के द्वारा ही कोई जाति जीवित रहने की क्षमता तथा शक्ति ग्रहण करती है। शिक्षा के अभाव में कोई भी प्रगतिशील समाज या समुन्नत राष्ट्र विनष्टता को प्राप्त होगा।
मोसेस ने शिक्षा को अनिवार्य बनाकर अपने तत्कालीन यहूदी समाज के नागरिकों को ही नहीं, अपितु विश्व की भावी संतानों का मार्ग प्रशस्त किया। शिक्षा को अनिवार्य तथा सार्वभौमिक बनाने के सिद्धांत का पोषण सोलहवीं शताब्दी से यथार्थवादी शिक्षाशास्त्रियों द्वारा, जिसमें मार्टिन लूथर का नाम अग्रगण्य हैं, किया गया है। परंतु, शिक्षा को सार्वलौकिक रूप देने का यह बीज हमें यहूदी शिक्षा प्रणाली में प्राप्त होता है, जिसके अधिष्ठाता और मूलस्रोत थे-महात्मा मोसेस |
महात्मा मोसेस ने परिवार की शैक्षणिक महत्ता को भी पूर्णतः समझा था, अतः यहूदी बालक को शिक्षा सर्वप्रथम घर पर ही प्रारंभ हो जाए, इसकी उन्होंने व्यवस्था की। चूँकि यहूदियों को सर्वदा कष्ट का सामना करना पड़ता था, विपत्तियाँ उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं, अव्यवस्था और अस्थिरता के कारण अमनचैन, यहूदी जाति के लिए स्वप्नवत् हो गया था; क्योंकि राजनीतिक परिस्थिति के कारण उन्हें सर्वदा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश भागना पड़ता था। ऐसी परिस्थिति में मोसेस ने बहुत सोच-विचार कर, अपनी दूर-दृष्टि का परिचय देते शिक्षा का सिद्धांत परिवार के साथ संबद्ध किया। यहूदी बालक की शिक्षा उसके हुए. परिवार में ही माता-पिता द्वारा प्रारंभ हो जाती थी। यहूदी माता-पिता दैनिक अनिवार्य जीवन की आवश्यक बातों की शिक्षा अपने बालक-बालिकाओं को दिया करते थे । वे अपने बालकों के शारीरिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास के दृष्टिकोण से व्यायाम, लिखना पढ़ना, दया, उपकार, अनुशासन, नृत्य, संगीत तथा जीवनोपयोगी अन्य बातों की शिक्षा की व्यवस्था स्वतः परिवार में करते थे।
महात्मा मोसेस के शैक्षणिक विचार और सिद्धांत प्राचीन होते हुए भी सर्वथा अर्वाचीन और नवीन हैं। उनमें मनोवैज्ञानिकता की पुट है। उन्होंने परिवार के शैक्षणिक महत्त्व को स्वीकार किया। परिवार के माध्यम द्वारा शिक्षा को अनिवार्य बनाने की चेष्टा की, धार्मिक, नैतिक तथा व्यावसायिक शिक्षा को मानव-जीवन के उन्नयन एवं प्रगति हितार्थ आवश्यक समझा तथा शिक्षा को क्रियाशीलन पद्धति का आधार माना। उनके ये शिक्षा संबंधी समस्त विचार आज भी हमारे मार्ग-दर्शक हैं ।
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