पानीपत की पहली लड़ाई (Panipat's first battle) बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच 1526 में लड़ी गयी थी.
पानीपत के प्रथम युद्ध को पढ़ें.
पानीपत की दूसरी लड़ाई (panipat's second battle) हेमू ( हेमराज विक्रमादित्य) और मुगलों के बीच 1556 में लड़ी गयी थी.
पानीपत का तीसरा युद्ध.
पानीपत की तीसरी लड़ाई (panipat's third battle) की पृष्टभूमि
भारतीय इतिहास में पानीपत के तीनों युद्ध,ऐसे युद्ध रहे हैं जिसकी हर घटना दिलचस्प और युद्ध की हवा को अचानक ही मोड़ने वाली रही है. दो लड़ाइयों के भयंकर परिणाम के बाद अब 18वीं शताब्दी में समय आ चुका था पानीपत के तीसरे युद्ध का और यह लड़ाई भी 14 जनवरी, 1761 को हरियाणा के पानीपत में ही मराठों और अफगान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली के बीच लड़ी गयी थी.
लेकिन जैसा कि हमने देखा, पानीपत की पहली और दूसरी लड़ाई के कुछ प्रमुख कारण रहे थे, उसी प्रकार तीसरी लड़ाई भी बिना कारण के नहीं लड़ी जा सकती थी .तो आइये जाने कि वो क्या कारण थे जो तीसरी लड़ाई की वजह बनी.
कमज़ोर पड़ते मुग़ल (1680-1707)
बाबर और हुमायूं की मृत्यु के बाद हिन्दुस्तान में 18वीं सदी का दौर, यह वो दौर था जब बाहर से आये मुग़ल अब बूढ़े शेर की तरह धीरे -धीरे कमज़ोर पड़ते जा रहे थे. कहने के नाम पर तो उनके पास पूरा हिन्दोस्तान था मगर योग्य योद्धा और हर जगह अब वर्चस्व न रख पाने के कारण उन्हें खुद को दिल्ली और उसके आस पास के क्षत्रों तक ही समेटना पड़ रहा था.
मराठा शक्ति का उदय (18वीं सदी)
भारत में उस समय जो दूसरी सबसे बड़ी शक्ति उभर रही थी वे थे मराठे. सन 1737 में मराठा के राजा पेशवा बाजीराव ने दिल्ली के बाहरी क्षेत्रों में मुगलों को हारने में कामयाब हुए थे और दक्षिण का क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिए. मराठों के प्रमुख सेनापति और महानयक सदाशिव राव भाऊ थे, जो बहुत ही अनुभवी योद्धा थे. जोश और उत्साह से भरे हुए मराठे, गोरिल्ला युद्ध के लिए अधिक विख्यात माने थे.
गोरिल्ला युद्ध, योजनाबद्ध तरीके से जाल बिछाकर दुश्मनों पर हमला करने की शैली को कहा जाता था. अपनी युद्ध निति से मराठों ने सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में उत्तर भारत के अवध , रोहेलखंड , राजपुताना में जयनगर , मेवाड़, दक्षिण भारत और मध्य भारत पर अपने वर्चस्व का झंडा गाड चुके थे.
उस वक्त आन्ध्र में निजाम का शासन था, मगर मराठों ने उन्हें भी हरा दिया था जिस कारण उनके हौसले बुलंद थे .और फिर देखते ही देखते सन 1758 तक मराठे, पंजाब के लाहोर तक भी पहुँच गए और उन्होंने पेशावर में भी अपने ठिकाने बना लिए. मगर इस बीच राजपुताना में मराठों की नींव पड़ती देख जयपुर का राजा माधो सिंह मराठो से बहुत नाराज़ रहने लगा .
मगर माधो सिंह जानते थे कि वे मराठों का सामना नहीं कर सकते थे. गुजरते वक्त के साथ मराठों ने अपना विजय अभियान जारी रखा था, जिसकी बदौलत वे पंजाब तक जा पहुंचे थे. मगर अफगानिस्तान में उधर अहमद शाह अब्दाली का राज था. जिसने तुर्रानी वंश की नींव रखी थी .
सिमा और चौथ वसूली विवाद
अफगान के अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब के पक्षिम क्षेत्र को अपने साम्राज्य में मिला लिया था. लेकिन मराठों ने अब अफगानियों को भी खदेड़ना शुरू कर दिया था. जब मराठे, अब्दाली की सीमा को छू गए तो फिर कर (tax) और चौथ के लिए आपस में भिडंत होने की संभावना बनने लगी.
अहमद शाद अब्दाली का भारत की ओर कूच
उधर अपनी विस्तार निति से मराठो ने अब अपने पाँव बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा ,बंगाल तक में भी जमा लिए थे. मराठों में जोश इस बात से थी कि उन्होंने आन्ध्र के बड़े निज़ाम को हराया था. इसी बीच जयपुर के राजा माधो सिंह ने मराठो को सबक सिखाने के लिए अब्दाली को भारत में आने का न्योता दे दिया और फिर अब्दाली हिंदुस्तान की ओर कूच कर गया. अब्दाली के पास पश्तूनों की सेना के अलावे एक रोहिल्ला गुट भी था.
जिस वक़्त मराठों को अब्दाली के बारे में खबर मिली , वे दिल्ली से हजारों मिल दूर थे . मगर फिर मराठों ने भी अब्दाली से लोहा लेने के लिए जल्द ही उत्तर के गिर से कूच कर गए . उस वक़्त सेना की पूरी बाग़डोर सदाशिव राव भाऊ के हाथों में थी, जिन्होंने कुछ समय पहले ही निजाम को हराया था.
मराठा सैनिक चम्बल नदी को पार करते हुए धौलपुर पहुंचे जहाँ सूरजमल जाट राजा था .मारठो ने भरतपुर में कुछ समय विश्राम किया, फिर रसद और सामान लेकर निकल पड़े . उधर अहमद शाह अब्दाली ने रूहेलखंड के नाज़िम खान से हाथ मिला लिया था जिसका पूरे रूहेलखंड में राज़ था.
थोड़े ही समय बाद अब्दाली ने अवध के नवाब शुजा-ऊ-दोल्ला को भी अपने खेमे में शामिल कर लिया. मगर फिर उधर सदाशिव राव भाऊ को साथ मिला राजा सूरजमल जाट का. सन 1760 में दिल्ली पर मराठों के आक्रमण से अब्दाली की सेना में खलबली मच गयी जिसके बाद अब्दाली ,शुजाऊदोल्ला और नाजिम खान दिल्ली की ओर बढे.
मराठों का कुञ्जपूरा पर आक्रमण
यमुना नदी के दोनों किनारे, दोनों तरफ की सेनाएं पहुँचने को थी. इस बीच मराठों को पता चला कि कुंजपुरा में करीब 15-20 हज़ार अफगान सेना छिपे हैं जो अब्दाली के साथ मिलने की पूरी तैय्यारी में है. उनमे इब्राहिम खा गर्दी तोप चलाने में माहिर, एक अफगान लड़ाका था. मगर सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में मराठों ने कुञ्जपुरा में आक्रमण कर दिया और वहां करीब आधे अफगान सैनिकों को मार डाला .आधे अफगान सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया .वहां से सदाशिव राव भाऊ को अच्छा ख़ास धन मिल गया था.
अब्दाली ने किया यमुना पार
मराठे खुश थे, मगर फिर परिस्थिति बदल गयी क्यूंकि उधर यमुना नदी में बाढ़ और उफान के बावजूद अहमद शाह अब्दाली ने यमुना नदी को पार कर लिया था. जब इस बात की खबर इधर मराठो को लगी तो उनमे हडकंप मच गया .क्यूंकि किसी ने सोचा नहीं था अब्दाली नदी पार कर लगा लेगा .
नाकाबंदी की निति से खाद्य आपूर्ति ठप्प
इधर मराठे दिल्ली की ओर बढ़ते गए और उन्होंने पानीपत से अब्दाली को फ़ौरन ब्लाक कर दिया. वहीँ अब्दाली ने मराठों के लिए दिल्ली और पूना को ब्लाक कर दिया . इससे हुआ यह कि दोनों ओर की सेनाओं के सप्लाई चैन ब्लाक पड़ गए . मगर उनके पास पहले के कुछ रसद और सामान मौजूद थे तो दोनों सेनाओं ने अपने-अपने खेमे वहीँ लगा दिए .
अब इस युद्ध में जीत उसी की होने वाली थी जो जितनी देर तक टिकता . अब्दाली का मेरठ से सप्लाई चैन चल रहा था. इसी बीच सदाशिव राव भाऊ ने इटावा के गोपीपंथ बुंदेले को मेरठ से अब्दाली का रसद रोकने को कहाँ . गोपिपंथ ने फ़ौरन सैनिक लेकर मेरठ में आक्रम किया. मगर वो वहीँ मारा गया.
अब महीने बिताते जा रहे थे .कहीं से न कोई रसद आ रहा था न ही कोई सहायता . जो था वो मराठो का ख़त्म हो चुका था. बारिश शुरू हो चुकी थी और वहां डेरा डाले हुए भी लगभग चार महीने हो गए थे. इसी बीच गन्दगी के कारण कोलरा बीमारी फ़ैल गयी जिससे सिपाही मरने लगे और दिन प्रतिदिन उनकी हालत ख़राब होने लगी.
वह दिन 14 जनवरी 1761 के मकर संक्रांति का दिन था . सिपाहियों की हालत को देखते हुए सदाशिव राव भाऊ द्वारा एक फैसला लिया गया . "हम इस वक़्त निकलने की कोशिश करते है. यदि हम पर हमला हुआ तो हम युद्ध करते हुए आगे बढ़ेंगे”. उसे बाद मराठा आगे बढे ही थे कि इतने में अफगान तोपची इब्राहीम तर्दिबेग ने तोप से हमला शुरू कर दिया.
जिसके बाद मराठा भी इस युद्ध में कूद पड़े. भीषण रक्त पात हुआ. माना जाता है कि यह लड़ाई सन 1761 में 14 जनवरी की सुबह 9 बजे शुरू हुआ था. उस वक़्त मराठों के पास लगभग 45,000 सैनिक थे और अब्दाली के पास 65,000. मराठों ने पहले अफगानों को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया, जिससे सैनिकों में भगदड़ मच गयी.
अब्दाली हमेशा युद्ध में पीछे रहता था .और उसका एक नियम था जो सैनिक भागकर पीछे आता उसे वापस आगे भेज दिया जाता या फिर उसी वक़्त उसका क़त्ल कर दिया जाता .सब कुछ अच्छा चल रहा था कि इसी बीच पेशवा के पुत्र विश्वास राव जी की आखों में गोली लगी जो हाथी पर सवार थे. विश्वास राव को शहीद होते देख सदाशिव जी गुस्से से पागल होकर अफगानों के बीच घुस गए और जोश में होश खो देने के कारण उन्हें भी शहीद होना पड़ा.
युद्ध का परिणाम
इस युद्ध में भीषण रक्त पाता हुआ करीब 75,000 सैनिक मारे गए इसलिए इस युद्ध को भारतीय इतिहास में एक काला दिन माना जाता है. इस युद्ध में भले ही मराठो की हार और अफगानों की विजयी हुई. मगर मराठों की ओर से उस युद्ध को लड़ने का एकमात्र मकसद भारत की अस्मिता को बचाना था.यह तीसरा युद्ध ही पानीपत का अंतिम और निर्णायक युद्ध था.
जो बाहरी लूटेरे भारत के भाग्य विधाता बनकर भारत के सीने पर बैठे थे, उन्हें वापस भागना था और इसके लिए मराठों ने पूरी वीरता और बहादुरी के साथ अफगानों का सामना किया. मगर किस्मत ने अफगानों का साथ दिया. इस तरह पानीपत के तीसरे युद्ध का दुखद अंत हुआ.
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